परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है (भाग दो)

कुछ लोग बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, अनेक धर्मोपदेश सुनते हैं और अनेक धर्म-सिद्धांत समझते हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि उन्होंने सच्चा मार्ग पा लिया है, परमेश्वर को पा लिया है, और उन्हें लगता है कि उन्होंने जीवन पा लिया है; लेकिन साधारण मामलों में वे अभी भी प्रसिद्धि और लाभ पाने के प्रयास करते रहते हैं। यहाँ तक कि वे दूसरों को आहत और बहिष्कृत कर अपनी स्वार्थी और घिनौनी कुरूपता उजागर कर देते हैं। वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार क्यों नहीं कर पाते, इसका अभ्यास क्यों नहीं कर पाते हैं? वे सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हैं, और गलत सोच पाल लेते हैं कि उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है। क्या यह इंसान की दयनीय दशा नहीं है? वे अपने हितों को भी दरकिनार नहीं कर पाते, न वे रत्ती भर कष्ट उठा सकते हैं; तो फिर वे पीड़ा क्या भोगेंगे? शुरू से अंत तक वे सिर्फ अपने हितों और स्वार्थी इच्छाओं को किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते समय से ही वे इसी तरीके के हैं और अब तक कभी नहीं बदले हैं; फिर भी उन्हें लगता है कि वे अच्छे हैं। ऐसा क्यों है? उन्हें लगता है कि उन्होंने अनेक बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, वर्तमान तक अपना कर्तव्य निभाया है; उन्हें लगता है कि उन्होंने थोड़ा-बहुत कष्ट भोगा है, उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वे हर मामले में दूसरों से श्रेष्ठ हैं—खास तौर पर, अनेक वर्षों से धर्मोपदेश सुनते आए इन लोगों में श्रेष्ठता की भावना होती है, और वे यह गलत सोच पाल लेते हैं कि उन्होंने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है। वे जो शपथ लेते हैं और जो संकल्प व्यक्त करते हैं वो ठीक वही होते हैं जो सबसे पहले परमेश्वर में विश्वास रखते समय थे। न तो उनका संकल्प न ही शपथ बिल्कुल भी बदला है और न ही उनका उत्साह या संकल्प बदला है। परमेश्वर के लिए वे जितनी ऊर्जा खपाते हैं वह अब भी बहुत अधिक है, लेकिन ऐसी भी चीजें हैं जो बदली नहीं हैं, यानी, उनका अहंकारी, विद्रोही, कपटी और दुराग्रही स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला है। इसलिए मैं सोचता हूँ कि ये लोग इतने साल क्या करते रहे हैं? वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और भोर से सांझ तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, अपना अधिकांश जीवनकाल खपाते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि उन्होंने पहले ही परमेश्वर को पा लिया है, सच्चा मार्ग हासिल कर लिया है। क्या यह इस बात की सच्चाई है? क्या परमेश्वर उनकी भावनाओं की पुष्टि कर चुका है? परमेश्वर क्या देखना चाहता है? क्या यह मसला विचारणीय नहीं है? अगर किसी व्यक्ति की खुद को अच्छा मानने की भावना और परमेश्वर के उन्हें देखने के तरीके के बीच स्पष्ट टकराव है तो इनमें से किसके साथ समस्या है? (व्यक्ति के साथ।) इसमें कोई शक नहीं है, क्योंकि परमेश्वर गलत नहीं हो सकता। परमेश्वर इंसान से जिस मानक की अपेक्षा रखता है वह कभी नहीं बदला है; बल्कि, इंसान लगातार इसके गलत अर्थ निकालता आ रहा है और इसे लगातार उस तरीके से समझ रहा है जो उसे फायदा पहुँचाए। कुछ लोग सोचते हैं : “इन लोगों ने अपने जीवन के अधिकांश समय तक परमेश्वर में विश्वास रखा है। अगर परमेश्वर वास्तव में उन्हें स्वीकृति नहीं देता तो क्या ये अत्यधिक दयनीय नहीं हैं?” क्या ऐसे लोग दया और सहानुभूति के पात्र हैं? अगर तुम यह कहते हो कि वे दया और सहानुभूति के पात्र नहीं हैं, तो क्या यह उनके साथ बहुत अधिक निष्ठुरता नहीं है? नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? (क्योंकि परमेश्वर लोगों को पहले ही पर्याप्त अवसर दे चुका है। वे खुद ही अनुसरण नहीं करते और उनके पाँवों के छाले उनकी अपनी ही गलती है।) इसे थोड़ा-सा कम अच्छे ढंग से कहें तो वे इसी लायक हैं और वे दया करने के लायक नहीं हैं। अगर मैं दूसरे लोगों के बारे में बात करूँ तो तुम लोग सोचोगे : “तुम इसी लायक हो! तुम्हारे पाँवों के छाले तुम्हारी अपनी ही करनी का फल हैं। तुम्हें किसी ने परमेश्वर के वचन सुनने से नहीं रोका था! परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता, और मैं तुमसे न तो सहानुभूति रखता हूँ, न ही मुझे तुम पर तरस आता है। तुम इसी लायक हो!” लेकिन अगर यह बात तुम लोगों के साथ घटती तो क्या तुम लोग अपने जमीर की जाँच कर अपने ही अंदर झाँकते? तुम लोगों को क्या सोचना चाहिए? तुम लोगों को कैसे तार्किक ढंग से सोचना चाहिए, विवेक और जमीर के साथ, एक सृजित प्राणी की जो भूमिका होनी चाहिए उसमें और उन विचारों और रवैये के साथ जो उसमें होने चाहिए? तुम्हें किस प्रकार सोचना और कार्य करना चाहिए ताकि परमेश्वर और मनुष्य को सर्वाधिक तर्कसंगत और हर संभव निष्पक्ष हिसाब दे सको? (परमेश्वर, मैं अपनी भावनाओं के बारे में थोड़ा-सा कहना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि मैंने कई बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, लेकिन सत्य हासिल नहीं किया है। इसका कारण यह नहीं है कि परमेश्वर ने कुछ गलत किया है, न ही यह कारण है कि परमेश्वर के कार्यों के नतीजे नहीं निकले हैं, बल्कि कारण यह है कि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया है। मैं उस उदाहरण के बारे में सोचता हूँ जो प्रभु यीशु ने दिया था : अंगूर के बाग में जल्दी आने वालों और देर से आने वालों का मेहनताना समान है। जो लोग परमेश्वर के कार्य को जल्दी स्वीकार लेते हैं और जो देर से स्वीकारते हैं, परमेश्वर उन्हें जो कुछ देता है उसमें बहुत ही निष्पक्ष और तर्कसंगत होता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता है और अंत में उन सत्यों को हासिल नहीं करता है जो परमेश्वर लोगों को प्रदान करता है तो इसका कारण यह नहीं है कि परमेश्वर ने उसे पर्याप्त समय नहीं दिया, बल्कि इसका कारण यह है कि वह सत्य को सँजोकर नहीं रखता या स्वीकार नहीं करता है; वह परमेश्वर के दिए हुए अवसरों को एक-एक कर गँवा बैठता है। कुछ लोगों ने थोड़े-से समय से ही परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी वे सत्य स्वीकारने और उसका अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। कई बरसों तक परमेश्वर के वचनों का न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का अनुभव करने के बाद उनमें कुछ परिवर्तन होता है, और वे बचा लिए जाने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर का किया हुआ यह सब कुछ धार्मिक है। परमेश्वर की संगति सुनने के बाद ये मेरी कुछ भावनाएँ हैं।) बहुत खूब! चलो, इस मसले पर पहले मानवीय परिप्रेक्ष्य से बात करते हैं। अगर मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो फिर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सारे लोग किस हालत में होते? वे पूरी तरह शैतान की सत्ता के अधीन, दुष्टता के ज्वार और भ्रष्ट मानवजाति के साथ जी रहे होते। भ्रष्ट मानवजाति के साथ जीना दानवों की कैद में जीने के बराबर है, यह राक्षसों की माँद में रहने या महा रंगाई कुंड में जीने के बराबर है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता तो वह बड़े ही सहज रूप से वही सब करेगा जो वह चाहेगा, खराब काम या बुराई करेगा। उसकी भ्रष्टता और गहरी होती जाएगी, वह और भी दुष्ट और अविवेकपूर्ण होता जाएगा और अंत में जीता-जागता राक्षस बन जाएगा। उसकी कथनी-करनी मनुष्यों जैसी लगेगी मगर उसकी सारी मानसिकता और स्वभाव पहले ही जीते-जागते राक्षस वाला बन चुका है। ऐसे लोगों का परिणाम क्या होता है? क्या इन लोगों का भी वही परिणाम नहीं होता जो शैतान का होता है? (बिल्कुल।) वे पूरी तरह से शैतान की गिरफ्त में जा चुके हैं। वे शैतान के साझेदार हैं, वे शैतान के सहयोगी और प्यादे बन चुके हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही प्रतिरोधी हैं जितना खुद शैतान है। इस प्रकार उनके पास अपनी स्थिति बदलने के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है और अंत में दंडित और नष्ट होना ही उनका परिणाम है। यह कथन मनुष्यों के बारे में है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते तो फिर परमेश्वर तुम्हें बचाएगा नहीं। इस संसार में तुम बहुत स्वतंत्र हो सकते हो, जो चाहे वो करने में सक्षम हो सकते हो, और जो चाहो वो कर सकते हो; हो सकता है कि तुम्हें जमीर और विवेक से नियंत्रित होने की जरूरत न हो, न सत्य को स्वीकारने और इसका अभ्यास करने की जरूरत हो, काट-छाँट, और अनुशासन स्वीकारने की बात तो दूर रही। तुम तब तक सिर्फ अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर जीवन जीते हो, संसार की प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हुए जीते हो, जब तक कि तुम पूरी तरह बदल कर अपना विवेक नहीं खो बैठते और तुममें जमीर का बोध नहीं रह जाता। तुम बुरी तरह और पूरी तरह पतित होकर साक्षात राक्षस में बदल जाते हो, साक्षात शैतान में बदल जाते हो, और अंदर और बाहर से साक्षात दानव बन जाते हो; तुम्हें अपना वेश बदलने या खुद को ढकने की जरूरत नहीं है—तुम असली शैतान हो, दानव हो। शैतान की सत्ता में रहने वाले अविश्वासियों का यही हश्र होता है, और अंत में, उन्हें महा विनाशों के जरिए नष्ट होना पड़ता है। मान लो कि कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखता है, लेकिन वह कभी भी सत्य स्वीकारने में सक्षम नहीं होता है, खुद को जानने में सक्षम नहीं होता है, और सच्चे मन से पश्चात्ताप नहीं करता है; उसने बरसों परमेश्वर पर विश्वास रखा है, लेकिन वह बिल्कुल भी नहीं बदला है; उसका जमीर और विवेक बहाल नहीं हुआ है और उसकी जीवन पद्धति बिल्कुल किसी अविश्वासी के समान ही है। परमेश्वर लोगों का न्याय और ताड़ना चाहे जैसे करे, परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसे संगति करे, वह इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं, वे ऐसे दुष्ट होते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है। परमेश्वर ने सत्य और उद्धार प्राप्त करने के लिए कई मौके दिए हैं, फिर भी लोग परमेश्वर के इरादों पर ध्यान दिए बिना बरसों उसमें विश्वास रखते हैं; वे अब भी पहले की तरह दैहिक आनंद के पीछे भागते हुए, खाने-पीने और मौज करने में लगे रहते हैं। उनमें न कोई जमीर होता है, न मानवता के सकारात्मक तत्व होते हैं; वे पहले ही बचाए जाने और लौट आने की कगार लाँघ चुके हैं। परमेश्वर उनके बारे में उम्मीद छोड़ देता है और उन्हें बचाता नहीं है; उनका परिणाम बताने की जरूरत नहीं है। इसी बिंदु पर, उनका परमेश्वर में विश्वास रखने का जीवन खत्म हो जाता है; परमेश्वर में विश्वास रखने की उनकी यात्रा समाप्त हो जाती है। उनका परिणाम तय हो चुका होता है—यही उनका परिणाम है। ऐसा परिणाम होने पर किसी के दिल में क्या भावनाएँ उमड़ रही होंगी? ऐसे लोगों के दिल में हल्का सा दर्द उठ रहा होगा, वे बहुत ही व्याकुल और दुखी होंगे, उन्हें लगेगा कि परमेश्वर उनका परित्याग कर चुका है, मानो वे अंतहीन महासागर में हैं, तिनके का सहारा पाने में असमर्थ हैं, बहुत ही दयनीय और असहाय हैं। अगर तुम इस हद तक नहीं डूबे हो तो ऐसा दर्द महसूस नहीं कर सकते हो, लेकिन जैसे ही उस बिंदु तक पहुँच जाओगे, तुम वापस नहीं लौट पाओगे। ऐसी स्थिति में जिसमें परमेश्वर लोगों को नहीं बचाएगा, लोग अंततः इसी तरह ऐसी नियति और ऐसे परिणाम की ओर कदम बढ़ाते हैं। लेकिन लोगों का इस तरह का भाग्य और इस तरह का परिणाम होना क्या परमेश्वर के लिए कोई नुकसान है? परमेश्वर ने जिन लोगों का सृजन किया है वे अगर शैतान द्वारा भ्रष्ट हो गए, अगर वे परमेश्वर का उद्धार बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते और विनाश के मार्ग की ओर चलते रहे तो क्या यह परमेश्वर के लिए कोई नुकसान है? बिल्कुल भी नहीं। अगर परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से कोई एक नष्ट हो भी गया तो क्या वह परमेश्वर नहीं रह जाएगा? क्या वह परमेश्वर के रूप में अपनी पहचान और दर्जा खो बैठेगा, परमेश्वर के रूप में अपना सार गँवा देगा? क्या इससे यह तथ्य बदल जाएगा कि वह सभी चीजों का संप्रभु है? (नहीं।) यह तथ्य नहीं बदलेगा। इसका क्या अर्थ है? लोग चाहे परमेश्वर का कार्य स्वीकारें या न स्वीकारें, वे उद्धार पा सकें या न पा सकें, यह परमेश्वर के लिए कोई नुकसान नहीं है। यह चीजों का एक पहलू है। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास न रखें और परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य न करे, परमेश्वर को बिल्कुल भी कोई हानि नहीं होती है। शैतान अभी भी शैतान ही रहता है; परमेश्वर अभी भी परमेश्वर ही रहता है। सभी चीजों पर जिस एक का प्रभुत्व है वह अभी भी परमेश्वर है, अभी भी परमेश्वर ही वह एक है जिसने सभी चीजों का सृजन किया है, और अभी भी वही एक है जिसकी सभी चीजों पर संप्रभुता है। मानवजाति की नियति, शैतान और सभी चीजों की नियति परमेश्वर के हाथों में है। परमेश्वर के दर्जे, परमेश्वर की विलक्षणता, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के सार में कोई बदलाव नहीं हो सकता है। परमेश्वर की पवित्रता भी कभी मलिन नहीं होगी, और उसके कार्य को कभी क्षति नहीं होगी। परमेश्वर अभी भी परमेश्वर है। इससे लोगों को यह एक तथ्य समझने में मदद मिलती है : मानवजाति की संख्या चाहे जितनी बढ़ जाए, परमेश्वर की निगाह में यह सिर्फ एक संख्या है। यह किसी शक्ति के बराबर नहीं है और इससे परमेश्वर को कोई खतरा नहीं है। मानवजाति चाहे जिस किसी मार्ग का अनुसरण करे, वह परमेश्वर के हाथों में ही रहेगी। मानवजाति का सामना चाहे जिस परिणाम से हो, वह चाहे परमेश्वर में विश्वास रखे या न रखे या उसके अस्तित्व या संप्रभुता को माने या न माने, इनमें से किसी से भी परमेश्वर की मूल पहचान या दर्जे पर असर नहीं पड़ेगा, और न इससे परमेश्वर के सार पर ही असर पड़ेगा। यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई नहीं बदल सकता। लेकिन कोई ऐसी चीज है जिसे लोग शायद अभी तक स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाए हैं या इसका अनुभव नहीं कर पाए हैं। अगर मानवजाति में से किसी एक का भी परमेश्वर परित्याग कर देता है, और वह उसे नहीं बचाता है, तो फिर उसका अंतिम परिणाम विनाश ही होगा, और यह अपरिवर्तनीय है। सारे ब्रह्मांड और सारी चीजों में, वे चाहे जितने भी विशाल हों, इसमें चाहे जितने खगोलीय पिंड हों, जितने भी प्राणी हों, ये परमेश्वर के अस्तित्व के तथ्य को बदल नहीं सकते हैं और ब्रह्मांड और सारी चीजों की नियति सिर्फ उस एक के हाथों में है। किसी जीव-जंतु से लेकर एक ग्रह तक, कोई भी न तो परमेश्वर के अस्तित्व को प्रभावित कर सकता है, न ही उसकी संप्रभुता को, परमेश्वर के किसी विचार को नियंत्रित करना तो बहुत दूर की बात है। यह एक तथ्य है। कुछ लोग मानते हैं : “मैं तुममें विश्वास नहीं रखता हूँ, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो।” “तुममें ज्यादा लोग विश्वास नहीं रखते, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो।” क्या यह कहना जायज है? (नहीं।) कुछ दूसरे लोग कहते हैं : “सिर्फ हम तुममें विश्वास रखते हैं, इसलिए समस्त चीजों और मानवजाति पर संप्रभुता रखने की तुम्हारी सामर्थ्य सिर्फ इतनी ही बड़ी है, इसका फैलाव सिर्फ यहीं तक है।” क्या बात ऐसी है? (नहीं।) जिन लोगों के ऐसे विचार होते हैं, वे बहुत ही अज्ञानी और निपट मूर्ख होते हैं!

मैंने अभी-अभी यह संगति की कि अगर परमेश्वर ने लोगों को न बचाया तो मानवजाति विनाश की ओर बढ़ती जाएगी, लेकिन परमेश्वर की पहचान और दर्जे पर बिल्कुल भी असर नहीं पड़ेगा, उसके सार पर असर पड़ना तो दूर की बात है। तुम इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ रहे हो, है ना? (बिल्कुल।) मानवजाति चाहे सत्य को स्वीकार करे या न करे या उद्धार प्राप्त कर सके या न कर सके, परमेश्वर फिर भी परमेश्वर ही है—उसका दर्जा, पहचान और सार नहीं बदलेगा। लेकिन जब बात मानवजाति की नियति की हो तो इसमें बहुत परिवर्तनशीलता है। इस परिवर्तनशीलता को कौन नियंत्रित करता है? क्या खुद लोग नियंता हैं? क्या देश नियंता है? क्या कोई शासक नियंता है? क्या कोई शक्ति नियंता है? नहीं। तुम्हारी नियति और मानवजाति की नियति की लगाम जिस एक के हाथ में है, वह परमेश्वर है—सब कुछ उसी के हाथ में है। इसलिए तुम्हें यह तथ्य स्पष्ट रूप से समझना होगा : मानवजाति को बचाकर और तुम्हें बचाकर परमेश्वर तुम पर अनुग्रह दिखा रहा है; यह महान उद्धार है, जो सभी प्रकार के अनुग्रहों में सबसे महान है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ कि यह सभी अनुग्रहों में सबसे महान है? क्योंकि परमेश्वर द्वारा मानवजाति का उद्धार कोई अटल नियम नहीं है, न यह अपरिहार्य प्रवृत्ति है, न यह कोई आवश्यकता है। परमेश्वर मुक्त रूप से इस कार्य को चुनता है। अगर परमेश्वर तुम्हें न बचाए तो क्या यह ठीक रहेगा? यकीनन, तुम्हें बचाने की उसकी कोई बाध्यता नहीं है? हो सकता है कि शुरुआत में परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पूर्वनियत कर लिया हो, लेकिन अगर वह तुम्हें अब नहीं चुनना चाहता है, और वह तुम्हें नहीं बचाता है तो फिर तुम यह अनुग्रह नहीं पा सकते। तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अच्छा कामकाज करना चाहिए, और परमेश्वर के हृदय को छूकर उसका अनुग्रह पाने के लिए अपने कार्यकलापों, अपने मन और अपनी सच्ची आस्था का प्रयोग करने के हर संभव तरीके से प्रयास करना चाहिए। बेशक यह ऐसी बात नहीं है जो हो न सके। अतीत में जब प्रभु यीशु सुसमाचार का प्रचार कर रहा था तो एक कनानी महिला मिली—उसने क्या किया? (उसकी बेटी किसी राक्षसी आत्मा से प्रभावित थी, इसलिए उसने प्रभु यीशु से मदद माँगी। प्रभु ने कहा : “लड़कों की रोटी लेकर कुत्तों के आगे डालना अच्छा नहीं।” तो महिला ने कहा : “कुत्ते भी वह चूरचार खाते हैं, जो उनके स्वामियों की मेज से गिरते हैं।” प्रभु यीशु ने कहा कि महिला की आस्था शानदार है, और उसकी कामनाएँ पूरी कर दीं।) प्रभु यीशु ने उसकी किस बात को स्वीकृति दी? (उसकी आस्था को।) उसकी आस्था वास्तव में क्या थी? हमें उसकी आस्था को कैसे समझना चाहिए? (उसने यह माना कि प्रभु यीशु परमेश्वर है।) प्रभु यीशु ने उसे कुत्ता कहा, तो वह परेशान क्यों नहीं हुई? तुम लोग इस मामले में बहुत स्पष्टता से बोलने में सक्षम नहीं हो। तथ्य ये हैं : प्रभु यीशु ने इस इंसान की आस्था को स्वीकृति क्यों दी? उसने इस तथ्य को स्वीकृति नहीं दी कि वह कुत्ता बनने के लिए भी तैयार है, न ही उसने उसके चूरचार खाने के लिए तैयार होने को स्वीकृति दी—ये सब गौण बातें थीं। तो फिर प्रभु यीशु ने किस चीज को स्वीकृति दी? यही कि उसने यह परवाह नहीं की कि प्रभु यीशु उसे कोई कुत्ता, कोई इंसान, या कोई दानव मानकर सलूक कर रहा है—वह उसके साथ कैसा सलूक कर रहा है, यह उसके लिए बेमानी था। सबसे अहम बात यह थी कि महिला ने प्रभु यीशु को परमेश्वर मानकर सलूक किया, यह दृढ़ विश्वास किया कि वह प्रभु और परमेश्वर है और यह एक ऐसा सत्य और तथ्य है जो कभी नहीं बदल सकता। प्रभु यीशु परमेश्वर और प्रभु है, और वही एक था जिसे महिला ने अपने दिल में मान्यता दी थी। यही काफी था। उसके लिए यह मायने नहीं रखता था कि प्रभु यीशु ने उसे बचाया या नहीं, या फिर प्रभु यीशु ने उसे अपने साथ बैठकर भोजन करने वाली, अपनी शिष्य, अपनी अनुयायी माना या नहीं, या फिर उसे कुत्ता समझकर व्यवहार किया या नहीं। संक्षेप में, उस महिला ने अपने दिल से प्रभु यीशु को प्रभु माना, यह तथ्य पर्याप्त था—यह उसकी सबसे बड़ी आस्था थी। क्या तुम लोगों में इस प्रकार की आस्था है? अगर किसी दिन मैं यह कहूँ कि तुम सब परमेश्वर के घर के पहरेदार कुत्ते हो, तो क्या तुम इसे स्वीकारने को तैयार रहोगे? अगर मैं यह कहूँ कि तुम परमेश्वर के घर के नन्हे मुन्ने-मुन्नियाँ हो, परमेश्वर के लोग और फरिश्ते हो, तो तुम्हें इससे काफी तसल्ली होगी, लेकिन अगर मैंने यह कहा कि तुम कुत्ते हो तो तुम नाखुश हो जाओगे। तुम नाखुश क्यों हो जाओगे? क्योंकि तुम खुद को महत्वपूर्ण मानते हो। तुम सोचते हो : “मैं मानता हूँ कि तुम परमेश्वर हो, तो तुम मुझे कुत्ता कैसे कह सकते हो? मैं तुम्हें परमेश्वर स्वीकारता हूँ, इसलिए तुम जो कुछ भी करो, उसमें तुम्हें निष्पक्ष और तर्कसंगत रहना चाहिए। हम दोनों बराबर हैं, हम यार-दोस्त हैं! मैं तुममें विश्वास रखता हूँ, जो मेरी ओर से बड़ा साहस, प्रेम और आस्था दर्शाता है। तुम कैसे कह सकते हो कि मैं कुत्ता हूँ? तुम मनुष्य से प्रेम नहीं करते! हम दोस्त हैं, हममें बराबरी रहनी चाहिए। मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, तुम्हारा भय मानता हूँ, और तुम्हारी सराहना करता हूँ—तुम्हें मेरी इज्जत करनी चाहिए, और इंसान मानकर मेरे साथ पेश आना चाहिए। मैं इंसान हूँ!” इस रवैये को लेकर तुम क्या सोचते हो? (इसमें विवेक का अभाव है।) जब लोग परमेश्वर के बराबर होना चाहते हैं और अपना दोस्त मानकर उससे पेश आना चाहते हैं तो क्या इससे आफत नहीं आएगी? तुम कहते हो : “तुम मामूली-से दिखते हो—असल में मैं तुमसे बेहतर दिखता हूँ, और मैं तुमसे लंबा हूँ। सर्दी लगने पर तुम भी खाँसते हो, बहुत ज्यादा बोलने पर तुम भी थकते हो—मैं तुमसे ज्यादा सेहतमंद हूँ। तुम्हारे पास सिर्फ सत्य है और उस मामले में तुम मुझसे मजबूत हो। अगर मैं परमेश्वर में अनेक वर्षों तक विश्वास रखूँ, और ज्यादा सत्य समझ लूँ तो फिर मैं तुमसे बहुत ज्यादा खराब भी नहीं ठहरूँगा। यही नहीं, मेरे पास एक ऐसा हुनर है जो तुम्हारे पास नहीं है! इस हिसाब से तुम मेरी तुलना में इतने ज्यादा महान नहीं ठहरते।” इस नजरिये के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह गलत है।) तुलना के इस तरीके के बारे में तुम क्या सोचते हो? इंसानों की तुलना परमेश्वर से बिल्कुल भी नहीं की जा सकती। तुलना के इस तरीके से किस प्रकार की गलती की जा रही है? (यही कि यह इंसान अपने उचित स्थान पर नहीं खड़ा है, और वह परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मान रहा है। वह उसे कोई साधारण इंसान मानकर व्यवहार कर रहा है। वह देहधारी परमेश्वर की सिर्फ मानवता देखता है, उसकी दिव्यता नहीं देखता है।) बिना लाग-लपेट के कहें तो बात यह है कि उसके पास न तो जमीर है, न विवेक है—उसके पास मानवता नहीं है। यही नहीं, लोगों ने परमेश्वर के आध्यात्मिक शरीर को नहीं देखा है, इसलिए वे उसके देहधारण को मनुष्य मानते हैं, और यह सोचते हैं कि यह साधारण इंसान न तो महान है, न ही प्रभावशाली है, और उसे धौंस देना और मूर्ख बनाना आसान है। बिल्कुल ऐसा ही है। इंसान ऐसी ही भ्रष्ट चीज है। अगर तुम सत्य का अनुसरण न करो, तो समय बीतने के साथ यही होगा; तुम्हारे पास न तो परमेश्वर से भयभीत दिल होगा, न ही भय मानने वाला दिल होगा। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के लिए पते की बात उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना है। वह चाहे कैसे कार्य करे, चाहे जिस रूप में प्रकट हो, या चाहे जिस ढंग से तुमसे बात करे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर की जगह नहीं बदलेगी, न उसका भय मानने, उसके साथ तुम्हारे संबंध, उसके प्रति तुम्हारी सच्ची आस्था में बदलाव होगा। तुम्हारे दिल में परमेश्वर का सार और दर्जा नहीं बदलेगा। तुम अपने और परमेश्वर के बीच के संबंध को बहुत अच्छी तरह, उचित और तर्कसंगत ढंग से, मानकों और संयम के साथ संभालोगे। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते तो इसे हासिल करना बहुत कठिन होगा—यह करना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते तो वे कभी भी न तो परमेश्वर का सार समझ पाएँगे, न उसकी दिव्यता देख पाएँगे। वे नहीं जान पाएँगे कि कौन-सी चीजें उसके स्वभाव या उसके सच्चे प्रकाशनों का निर्माण करती हैं। लोग ये चीजें नहीं देख पाएँगे। अगर ये चीजें तुम्हें बता भी दी जाएँ तो भी तुम उन्हें न तो देख पाओगे और न पहचान पाओगे।

हमने अभी-अभी यह चर्चा की कि अगर परमेश्वर ने लोगों को न बचाया तो उनका क्या परिणाम होगा? वह परिणाम क्या है? (विनाश।) और परमेश्वर का क्या होगा? (इसका परमेश्वर पर बिल्कुल भी असर नहीं पड़ेगा।) यह बात परमेश्वर द्वारा लोगों को न बचाए जाने के परिप्रेक्ष्य से है; परमेश्वर पर कतई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन लोगों की नियति और परिणाम दुखदाई रहेंगे—जो अय्यूब और अब्राहम जैसे लोगों के परिणामों से बहुत ही ज्यादा अलग होगा। अगर परमेश्वर किसी को नहीं बचाता, तो फिर उसकी गिनती उसकी शत्रु शक्तियों की पंक्ति में और उसके विरोधियों की फौज में होती है। यह परिणाम स्पष्ट तौर पर भयावह है। अब हमें इस बारे में बात करनी चाहिए कि यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति को बचाना चाहे और उस पर कार्य करना चाहे तो इससे उस व्यक्ति को क्या हासिल होगा। लोग क्यों परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? परमेश्वर के विश्वासी किस चीज के पीछे भाग रहे हैं? क्या वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लक्ष्य का पीछा कर रहे हैं? क्या वे सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के पीछे भाग रहे हैं? क्या वे शैतान को शर्मिंदा करने और परमेश्वर के लिए गवाही देने के लक्ष्य का पीछा कर रहे हैं? ये सारे कारण काफी सुनने में बहुत बड़े और कुछ हद तक दूर की कौड़ी लगते हैं। अब अगर मैं तुमसे यह कहूँ कि तुम अपने उन इरादों के बारे में बात करो जो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते समय थे, तो तुम अपराध बोध महसूस करोगे और ये बातें बोलते समय शरमा जाओगे; तुम बड़ी मुश्किल से बोल पाओगे, क्योंकि ये तथ्य नहीं हैं। तो वास्तव में तथ्य क्या हैं? (लोग परमेश्वर में विश्वास इसलिए रखते हैं क्योंकि वे आशीषों के पीछे भाग रहे हैं।) (वे किसी अच्छी मंजिल या आध्यात्मिक पोषण के किसी स्रोत के पीछे भाग रहे हैं।) संक्षेप में, ऐसे इरादे थोड़े अशोभनीय हैं और ज्यादा बताने लायक नहीं हैं। लेकिन अगर लोग शुरुआत में इस उद्देश्य का पीछा न करते तो क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखते? बेशक उनका परमेश्वर में विश्वास रखने का इरादा नहीं था, न वे ऐसा करना चाहते थे; अगर उन्हें कोई फायदा ही न होता तो परमेश्वर में विश्वास कौन रखता? जब परमेश्वर में विश्वास रखने की बात आती है तो लोगों को लगता है कि भले ही उन्हें इससे थोड़ा फायदा न हो, लेकिन उनसे कम-से-कम कोई वादा तो किया जाए। कैसा वादा? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर का वादा है कि हम इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाएँगे—यानी हम सदा जीवित रहेंगे, कभी नहीं मरेंगे। यह एक प्रकार का परम आनंद और आशीष है जिसका सुख अब तक किसी भी युग में कोई भी नहीं ले पाया है, न प्राप्त कर सका है। यही नहीं, अगर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो वह उन्हें इस जीवन में थोड़ा अनुग्रह, आशीष और थोड़ी सुरक्षा देगा।” संक्षेप में कहें तो जब किसी ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू ही किया हो, तो उसका हृदय अशुद्ध और अस्वच्छ होता है। वह परमेश्वर में विश्वास इस उद्देश्य से नहीं रखता कि वह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाए, इंसान की तरह जिए, अंततः ऐसे व्यक्ति की छवि लेकर जिए जो परमेश्वर को प्रिय हो, ऐसे ढंग से जिए जिससे परमेश्वर की महिमा बढ़े और उसके लिए गवाही दी जाए, उसे शर्मिंदा न करे, और मृत्यु के बाद भी उसके लिए गवाही दे—बल्कि उसका उद्देश्य अपने पूरे मन और प्राण से आशीष पाना और इस जीवन में परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष का और अधिक आनंद उठाना होता है। उसे लगता है कि अगर वह आने वाली दुनिया तक पहुँच गया, तो वह उसमें और भी अधिक आशीष हासिल करना चाहता है। जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं तो वे इन्हीं इच्छाओं, इरादों और उद्देश्यों को लेकर चलते हैं; वे स्वर्ग के राज्य का आशीष और परमेश्वर का वादा पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। भ्रष्ट मानवता के लिए यह वैध है, और इसके लिए परमेश्वर लोगों को गलत नहीं ठहराएगा। जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं, तो वे सारे अज्ञानी होते हैं, कुछ भी नहीं समझते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़कर और उसके प्रबोधन की अनुभूति पाकर वे धीरे-धीरे परमेश्वर में विश्वास रखने के सत्यों और परमेश्वर में विश्वास रखने की महत्ता, और साथ ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ समझना शुरू करते हैं। इस प्रक्रिया में लोग परमेश्वर की देख-रेख और सुरक्षा का आनंद लेते हैं; कुछ लोगों की बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं, वे शरीर से काफी स्वस्थ हो जाते हैं, और उनके परिवार चैन से रहते हैं और उनका वैवाहिक जीवन सुखद होता है—वे विभिन्न तरीकों से परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का विभिन्न मात्राओं में आनंद लेते हैं। बेशक, ये सब गौण हैं। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से ये उसके सबसे बड़े प्रयास नहीं हैं। उसका सबसे बड़ा प्रयास क्या है? (वे अपेक्षाएँ जो उसने लोगों से रखी हैं, और उसके हृदय का रक्त जिसे उसने हमारी खातिर खपाया है।) “उसके हृदय के रक्त” में कुछ ठोस तत्व हैं, जबकि “अपेक्षाएँ” थोड़ी-सी खोखली होती हैं। तुम लोगों को परमेश्वर से मिला सबसे व्यावहारिक लाभ, सबसे कीमती चीज क्या है? (सत्य प्रदान करना।) (थोड़ी-सी सत्य की समझ और कुछ मामलों की असलियत जानने में सक्षम होना।) ये यकीनन वे तथाकथित अनुग्रह और आशीष नहीं हैं। क्या मनुष्य के लिए परमेश्वर से प्राप्त सबसे मूल्यवान चीजें उसका जीवन, उसके वचन, और सत्य के साथ ही वह मार्ग नहीं हैं जिस पर मनुष्यों को सृजित प्राणियों के रूप में चलना चाहिए जिसे समझने के लिए परमेश्वर उन्हें सक्षम बनाता है? संक्षेप में, लोगों ने परमेश्वर से सत्य, मार्ग और जीवन हासिल कर लिया है—क्या ये सभी में सबसे मूल्यवान चीजें नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या तुम लोगों ने इन्हें हासिल कर लिया है? (हम इन्हें अभी तक सचमुच हासिल नहीं कर पाए हैं।) हो सकता है कि यह व्यावहारिक रूप से उतना उपयोगी या वास्तविक न लगे जितना कि तुम्हें कंगाली के दिनों में सौ का नोट या फिर भूखे होने पर दो रोटियाँ मिलने से लगा हो, लेकिन परमेश्वर से मिलने वाला सत्य, मार्ग और जीवन हर ऐसे व्यक्ति को वास्तव में प्रदान किया जाता है जो ईमानदारी से उसमें विश्वास रखता है। क्या यह तथ्य नहीं है? (है।) यह तथ्य है। चाहे तुमने परमेश्वर के कितने भी वचन सुने हों, तुम कितना भी सत्य स्वीकार करने और समझने में सक्षम हो, तुमने कितनी भी वास्तविकता जी हो, या तुमने कितने भी परिणाम प्राप्त किए हों, एक तथ्य है जिसे तुम्हें समझना चाहिए : परमेश्वर का सत्य, मार्ग और जीवन प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त रूप से प्रदान किए जाते हैं, और इसमें किसी से पक्षपात नहीं होता है। परमेश्वर कभी भी एक व्यक्ति की तुलना में दूसरे से इन वजहों से पक्षपात नहीं करेगा कि उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है या उसने कितना कष्ट सहा है, न ही वह इन्हीं वजहों से कभी किसी व्यक्ति पर उपकार करेगा या उसे आशीष देगा। न वह किसी की उम्र, रूप-रंग, लिंग, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि के कारण अलग तरह से ही बरताव करेगा। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर से समान चीजें प्राप्त करता है। वह किसी को कम नहीं देता, न किसी को ज्यादा देता है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति निष्पक्ष और युक्तिसंगत है। वह लोगों को ठीक वही चीज देता है जिसकी उन्हें जरूरत है और ठीक उसी समय पर देता है जब उन्हें जरूरत है, वह उन्हें भूखा, ठंडा या प्यासा नहीं रहने देता, और वह मनुष्य के हृदय की सभी जरूरतें पूरी करता है। जब परमेश्वर ये चीजें करता है, तो वह लोगों से क्या चाहता है? परमेश्वर ये चीजें लोगों को देता है, तो क्या इसमें परमेश्वर का कोई स्वार्थी उद्देश्य है? (नहीं।) परमेश्वर का कतई कोई स्वार्थी उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर के सभी वचन और कार्य मानवजाति के लिए हैं, मानवजाति की तमाम मुसीबतें और कठिनाइयाँ हल करने के लिए हैं, ताकि मानवजाति उससे वास्तविक जीवन प्राप्त कर सके। यह तथ्य है। लेकिन क्या तुम लोग इसे तथ्यों के जरिए साबित कर सकते हो? अगर तुम इसे तथ्यों के जरिए साबित नहीं कर सकते हो, तो फिर यह कहकर तुम लोग बहुत झूठे बन रहे हो और यह कथन सिर्फ खोखला है। क्या मैं इसे इस ढंग से कह सकता हूँ? उदाहरण के लिए, परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने, ईमानदारी से बात करने और ईमानदार चीजें करने, और धोखेबाज न बनने के लिए कहता है। परमेश्वर के यह कहने का महत्व लोगों को एक सच्ची मानवीय समानता रखने देना है, ताकि उनमें शैतान की समानता न हो, जो गोल-मोल, परोक्ष रास्ता अपनाते हुए जमीन पर रेंगते साँप की तरह बोलता है, और दूसरों को मामले की सच्चाई को समझने से रोकता है। अर्थात्, ऐसा इसलिए कहा गया है, ताकि लोग अपनी कथनी-करनी में मानवोचित ढंग से जिएँ, और किसी बुरे पहलू या शर्मनाक चीज से रहित, गरिमापूर्ण, ईमानदार और शिष्ट बनें, तथा स्वच्छ हृदय वाले हों। ऐसा इसलिए कहा गया है ताकि लोग अंदर और बाहर से एक जैसे हों, वे जो कुछ भी सोचते हैं वही कहें, वे न तो परमेश्वर को, न किसी व्यक्ति को धोखा दें, अपने दिल में कुछ भी छिपाकर न रखें, और उनका दिल शुद्ध भूमि के टुकड़े की तरह हो। यह वही है जो परमेश्वर माँगता है और लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करने के पीछे परमेश्वर का यही उद्देश्य है। लोगों से ईमानदार रहने की अपेक्षा करके परमेश्वर उनसे क्या हासिल कराना चाहता है? वह उनसे किस प्रकार की समानता को जीने की अपेक्षा करता है? इसका सबसे बड़ा लाभार्थी कौन है? (मनुष्य।) कुछ लोग परमेश्वर के इरादे कभी नहीं समझ पाते और वे हमेशा यह कहकर उस पर संदेह जताते हैं : “परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार हों, उसके साथ सरल ढंग से और खुलकर बात करें, ताकि वह हमारी असली स्थिति जान ले और फिर हमें नियंत्रण में लेकर हमारे साथ हेराफेरी करे, और हमें ऐसा बना दे कि हम पूरी तरह उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दें।” क्या यह सोच सही है? यह विचार इतना अंधकारमय और निर्लज्ज है, और केवल दानव ही इस तरह से परमेश्वर के बारे में अटकलें लगा सकते हैं और उस पर संदेह जता सकते हैं। इस बात का क्या महत्व है कि परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखता है, उनसे ऐसे इंसान होने की अपेक्षा रखता है जिनमें कोई स्वार्थी मंसूबे, इरादे, हठ या मिलावट न हो और जिनका कोई अंधकारमय पहलू न हो? इसका उद्देश्य यह है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करें, धीरे-धीरे पावनीकरण हासिल करें, रोशनी में जिएँ, अधिक मुक्त और स्वतंत्र जिएँ, आनंद-उल्लास से परिपूर्ण हों, खुशी और शांति से सराबोर हों—ऐसे ही लोग सर्वाधिक धन्य होते हैं। परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को पूर्ण बनाना और सबसे बड़े आशीषों का आनंद उठाने देना है। अगर तुम इस प्रकार के इंसान बन जाओ तो परमेश्वर तुमसे किस प्रकार का लाभ उठा सकेगा? क्या परमेश्वर का कोई छिपा हुआ उद्देश्य होता है? इन सबसे क्या उसे कोई फायदा भी होता है? (नहीं।) इसलिए अगर कोई व्यक्ति ईमानदार है तो इसका सबसे बड़ा लाभार्थी कौन है? (खुद वह व्यक्ति।) इससे किसी व्यक्ति को क्या फायदे और लाभ हो सकते हैं? (उसका हृदय मुक्त और स्वतंत्र होगा, और उसका जीवन सरल से सरल होता जाएगा; दूसरों के साथ बातचीत करते समय उस पर लोगों का भरोसा बढ़ता जाएगा, और उसके दूसरे लोगों के साथ सामान्य संबंध होंगे।) इसके अलावा और कुछ? (जब लोग खुद परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करेंगे तो वे आगे से पीड़ा नहीं सहेंगे, बल्कि वे शांति, सुकून और खुशी का जीवन जिएँगे।) यह एहसास बिल्कुल असली है। तो फिर परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार का उद्देश्य क्या है? (लोगों को परिवर्तित और शुद्ध करना, ताकि अंत में परमेश्वर उन्हें हासिल कर सके।) परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने का परिणाम क्या होता है? इसका अर्थ है परमेश्वर ने जिस शानदार मंजिल का वादा किया है उसे हासिल करना। तो फिर इसका सबसे बड़ा लाभार्थी कौन है? (मनुष्य।) मनुष्य ही सबसे बड़ा लाभार्थी है।

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