परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

भाग छे

अब आओ, पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंश पढ़ें।

12. अपने पुनरुत्थान के बाद अपने चेलों के लिए यीशु के वचन

यूहन्ना 20:26-29 आठ दिन के बाद उसके चेले फिर घर के भीतर थे, और थोमा उनके साथ था; और द्वार बन्द थे, तब यीशु आया और उनके बीच में खड़े होकर कहा, "तुम्हें शान्ति मिले।" तब उसने थोमा से कहा, "अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्‍वासी नहीं परन्तु विश्‍वासी हो।" यह सुन थोमा ने उत्तर दिया, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्‍वर!" यीशु ने उससे कहा, "तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्‍वास किया है? धन्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्‍वास किया।"

यूहन्ना 21:16-17 उसने फिर दूसरी बार उससे कहा, "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" उसने उससे कहा, "हाँ, प्रभु; तू जानता है कि मैं तुझ से प्रीति रखता हूँ।" उसने उससे कहा, "मेरी भेड़ों की रखवाली कर।" उसने तीसरी बार उससे कहा, "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रीति रखता है?" पतरस उदास हुआ कि उसने उससे तीसरी बार ऐसा कहा, "क्या तू मुझ से प्रीति रखता है?" और उससे कहा, "हे प्रभु, तू तो सब कुछ जानता है; तू यह जानता है कि मैं तुझ से प्रीति रखता हूँ।" यीशु ने उससे कहा, "मेरी भेड़ों को चरा।"

ये अंश कुछ ऐसी चीज़ों के बारे में बताते हैं, जो प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद कीं और अपने चेलों से कहीं। पहले, आओ पुनरुत्थान से पहले और बाद में प्रभु यीशु में आए किसी अंतर पर नज़र डालें। क्या वह अभी भी वही पुराने दिनों वाला प्रभु यीशु था? पवित्रशास्त्र में पुनरुत्थान के बाद के प्रभु यीशु का वर्णन करने वाली निम्नलिखित पंक्ति है : "और द्वार बन्द थे, तब यीशु आया और उनके बीच में खड़े होकर कहा, 'तुम्हें शान्ति मिले।'" यह बहुत स्पष्ट है कि उस समय प्रभु यीशु देह में अवस्थित नहीं था, बल्कि अब वह एक आध्यात्मिक देह में था। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उसने देह की सीमाओं का अतिक्रमण कर लिया था; यद्यपि द्वार बंद था, फिर भी वह लोगों के बीच आ सकता था और उन्हें अपने आपको देखने दे सकता था। पुनरुत्थान के बाद के प्रभु यीशु और पुनरुत्थान के पहले के देह में रहने वाले प्रभु यीशु के बीच यह सबसे बड़ा अंतर है। यद्यपि उस समय के आध्यात्मिक देह के रूप-रंग और उससे पहले के प्रभु यीशु के रूप-रंग में कोई अंतर नहीं था, फिर भी उस पल प्रभु यीशु ऐसा बन गया था, जो लोगों को एक अजनबी के समान लगता था, क्योंकि मरकर जी उठने के बाद वह एक आध्यात्मिक देह बन गया था, और उसके पिछले देह की तुलना में यह आध्यात्मिक देह लोगों के लिए कहीं ज़्यादा रहस्यमय और भ्रमित करने वाला था। इसने प्रभु यीशु और लोगों के बीच की दूरी और अधिक बढ़ा दी, और लोगों ने अपने हृदय में महसूस किया कि उस समय प्रभु यीशु कहीं ज़्यादा रहस्यमय बन गया था। लोगों की ये अनुभूतियाँ और भावनाएँ अचानक उन्हें वापस उस परमेश्वर पर विश्वास करने के युग में ले गईं, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता था। तो, प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद पहली चीज़ यह की, कि उसने इस बात की पुष्टि करने के लिए कि वह मौजूद है, और अपने पुनरुत्थान के तथ्य की पुष्टि करने के लिए अपने को सबको देखने दिया। इसके अतिरिक्त, इस कार्य ने लोगों के साथ उसका संबंध उसी रूप में बहाल कर दिया, जैसा वह तब था जब वह देह में कार्य कर रहा था, वह वो मसीह था जिसे वे देख और छू सकते थे। इसका एक परिणाम यह है कि लोगों को इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद प्रभु यीशु मरकर पुन: जी उठा है, और उन्हें मानवजाति को छुड़ाने के प्रभु यीशु के कार्य में भी कोई संदेह नहीं रहा था। दूसरा परिणाम यह है कि पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के लोगों के सामने प्रकट होने और लोगों को अपने को देखने और छूने देने के तथ्य ने मानवजाति को अनुग्रह के युग में दृढ़ता से सुरक्षित किया, और यह सुनिश्चित किया कि अब से, इस कल्पित तथ्य के आधार पर कि प्रभु यीशु "गायब" हो गया है या "बिना कुछ कहे छोड़कर चला गया है", लोग व्यवस्था के पिछले युग में नहीं लौटेंगे। इस प्रकार उसने सुनिश्चित किया वे प्रभु यीशु की शिक्षाओं और उसके द्वारा किए गए कार्य का अनुसरण करते हुए लगातार आगे बढ़ते रहेंगे। इस प्रकार, अनुग्रह के युग के कार्य में औपचारिक रूप से एक नया चरण खुल गया था, और उस क्षण से व्यवस्था के अधीन रह रहे लोग औपचारिक रूप से व्यवस्था से बाहर आ गए और उन्होंने एक नए युग में, एक नई शुरुआत में प्रवेश किया। पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के मानवजाति के सामने प्रकट होने के ये बहुआयामी अर्थ हैं।

चूँकि प्रभु यीशु अब एक आध्यात्मिक देह में था, तो लोग उसे कैसे छू और देख सकते थे? इस प्रश्न का प्रभु यीशु के मानवजाति के सामने प्रकट होने के महत्व से संबंध है। क्या तुम लोगों ने पवित्रशास्त्र के इन अंशों में, जो हमने अभी पढ़े, किसी चीज़ पर ध्यान दिया? सामान्यतः आध्यात्मिक देहों को देखा या छुआ नहीं जा सकता, और पुनरुत्थान के बाद जो कार्य प्रभु यीशु ने हाथ में लिया था, वह पहले ही पूर्ण हो चुका था। इसलिए सिद्धांतत:, उसे लोगों के बीच उनसे मिलने के लिए अपनी मूल छवि में वापस आने की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं थी, किंतु थोमा जैसे लोगों के सामने प्रभु यीशु की आध्यात्मिक देह के प्रकटन ने उसके प्रकटन के महत्व को और भी ज़्यादा दृढ़ कर दिया, जिससे वह लोगों के हृदय में अधिक गहराई तक प्रवेश कर गया। जब वह थोमा के पास आया, तो उसने संदेह करने वाले थोमा को अपने हाथों को छूने दिया, और उससे कहा : "अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्‍वासी नहीं परन्तु विश्‍वासी हो।" ये वचन और ये कार्य ऐसी चीज़ें नहीं थीं जिन्हें प्रभु यीशु केवल अपने पुनरुत्थान के बाद कहना या करना चाहता था; वस्तुत:, ये वे चीज़ें थीं जिन्हें वह सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले करना चाहता था। यह स्पष्ट है कि सूली पर चढ़ाए जाने से पहले ही उसे थोमा जैसे लोगों की समझ थी। तो हम इससे क्या देख सकते हैं? अपने पुनरुत्थान के बाद भी वह वही प्रभु यीशु था। उसका सार नहीं बदला था। थोमा के संदेह केवल तभी शुरू नहीं हुए थे, बल्कि जब से वह प्रभु यीशु का अनुसरण कर रहा था, तब से पूरे समय उसके साथ थे। परंतु यह प्रभु यीशु था, जो मरकर जी उठा था और आध्यात्मिक संसार से अपनी मूल छवि के साथ, अपने मूल स्वभाव के साथ, और अपने देह में रहने के समय से मानवजाति की अपनी समझ के साथ लौटा था, इसलिए वह पहले थोमा के पास गया और उससे अपने पंजर पर हाथ रखवाया, पुनरुत्थान के बाद उसने थोमा को अपनी आध्यात्मिक देह ही नहीं दिखाई, बल्कि अपनी आध्यात्मिक देह के अस्तित्व को स्पर्श और महसूस भी कराया, और उसके संदेह पूरी तरह से मिटा दिए। प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाए जाने से पहले थोमा ने हमेशा उसके मसीह होने पर संदेह किया था, और वह विश्वास करने में असमर्थ था। परमेश्वर पर उसका विश्वास जो कुछ वह अपनी आँखों से देख सका था, जो कुछ वह अपने हाथों से छू सका था, केवल उसके आधार पर ही स्थापित हुआ था। प्रभु यीशु को इस प्रकार के व्यक्तियों के विश्वास के बारे में अच्छी समझ थी। वे मात्र स्वर्गिक परमेश्वर पर विश्वास करते थे, और जिसे परमेश्वर ने भेजा था, उस पर या देहधारी मसीह पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करते थे, न ही वे उसे स्वीकार करते थे। थोमा को प्रभु यीशु का अस्तित्व स्वीकार करवाने और उसका विश्वास दिलाने के लिए, और यह भी कि वह सचमुच देहधारी परमेश्वर है, उसने थोमा को अपना हाथ बढ़ाकर अपने पंजर को छूने दिया। क्या प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के पहले और बाद में थोमा के संदेह करने में कुछ अंतर था? वह हमेशा संदेह करता था, और सिवाय प्रभु यीशु के आध्यात्मिक देह के व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट होने और उसे अपने देह में कीलों के निशान छूने देने के, कोई उपाय नहीं था कि कोई उसके संदेहों का समाधान कर सके और उन्हें मिटा सके। इसलिए प्रभु यीशु द्वारा उसे अपने पंजर को छूने देने और कीलों के निशानों की मौज़ूदगी को वास्तव में महसूस करने देने के बाद से थोमा के संदेह गायब हो गए, और उसने सच में जान लिया कि प्रभु यीशु मरकर जी उठा है, और उसने स्वीकार किया और माना कि प्रभु यीशु सच्चा मसीह और देहधारी परमेश्वर है। यद्यपि इस समय थोमा ने अब और संदेह नहीं किया, किंतु उसने मसीह से मिलने का अवसर हमेशा के लिए गँवा दिया था। उसने उसके साथ रहने, उसका अनुसरण करने और उसे जानने का अवसर हमेशा के लिए गँवा दिया था। उसने स्वयं को प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण बनाए जाने का अवसर गँवा दिया था। प्रभु यीशु के प्रकटन और उसके वचनों ने उन लोगों के विश्वास पर एक निष्कर्ष और एक निर्णय दे दिया, जो संदेहों से भरे हुए थे। उसने संदेह करने वालों को, उन लोगों को जो केवल स्वर्गिक परमेश्वर पर विश्वास करते थे और मसीह पर विश्वास नहीं करते थे, यह बताने के लिए अपने मूल वचनों और कार्यों का उपयोग किया : परमेश्वर ने उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं की, न ही उसने उनके द्वारा संदेह करते हुए अनुसरण करने की प्रशंसा की। उनके द्वारा परमेश्वर और मसीह पर पूरी तरह से विश्वास करने का दिन ही परमेश्वर द्वारा अपना महान कार्य पूरा करने का दिन हो सकता था। निस्संदेह, यही वह दिन भी था, जब उनके संदेहों पर निर्णय दिया गया। मसीह के प्रति उनके रवैये ने उनका भाग्य निर्धारित कर दिया, और उनके अड़ियल संदेह का मतलब था कि उनके विश्वास ने उन्हें कोई फल प्रदान नहीं किया, और उनकी कठोरता का तात्पर्य था कि उनकी आशाएँ व्यर्थ थीं। चूँकि स्वर्गिक परमेश्वर पर उनका विश्वास भ्रांतियों पर पला था, और मसीह के प्रति उनका संदेह वास्तव में परमेश्वर के प्रति उनका वास्तविक रवैया था, इसलिए भले ही उन्होंने प्रभु यीशु के देह की कीलों के निशानों को छुआ था, फिर भी उनका विश्वास बेकार ही था और उनके परिणाम को बाँस की टोकरी से पानी खींचने के रूप में वर्णित किया जा सकता था—वह सब व्यर्थ था। जो कुछ प्रभु यीशु ने थोमा से कहा, वह उसका हर एक व्यक्ति से स्पष्ट रूप से कहने का भी तरीका था : पुनरुत्थित प्रभु यीशु ही वह प्रभु यीशु है, जिसने साढ़े तैंतीस वर्ष मानवजाति के बीच काम करते हुए बिताए थे। यद्यपि उसे सूली पर चढ़ा दिया गया था और उसने मृत्यु की छाया की घाटी का अनुभव किया था, और यद्यपि उसने पुनरुत्थान का अनुभव किया था, फिर भी उसमें किसी भी पहलू से कोई बदलाव नहीं हुआ था। यद्यपि अब उसके शरीर पर कीलों के निशान थे, और यद्यपि वह पुनरुत्थित हो गया था और क़ब्र से बाहर आ गया था, फिर भी उसका स्वभाव, मानवजाति की उसकी समझ, और मानवजाति के प्रति उसके इरादे ज़रा भी नहीं बदले थे। साथ ही, वह लोगों से कह रहा था कि वह सूली से नीचे उतर आया है, उसने पाप पर विजय पाई है, कठिनाइयों पर काबू पाया है, और मुत्यु पर जीत हासिल की है। कीलों के निशान शैतान पर उसके विजय के प्रमाण मात्र थे, संपूर्ण मानवजाति को सफलतापूर्वक छुड़ाने के लिए एक पापबलि होने के प्रमाण थे। वह लोगों से कह रहा था कि उसने पहले ही मानवजाति के पापों को अपने ऊपर ले लिया है और छुटकारे का अपना कार्य पूरा कर लिया है। जब वह अपने चेलों को देखने के लिए लौटा, तो उसने अपने प्रकटन के माध्यम से यह संदेश दिया : "मैं अभी भी जीवित हूँ, मैं अभी भी मौजूद हूँ; आज मैं वास्तव में तुम लोगों के सामने खड़ा हूँ, ताकि तुम लोग मुझे देख और छू सको। मैं हमेशा तुम लोगों के साथ रहूँगा।" प्रभु यीशु थोमा के मामले का उपयोग भविष्य के लोगों को यह चेतावनी देने के लिए भी करना चाहता था : यद्यपि तुम प्रभु यीशु पर अपने विश्वास में उसे न तो देख सकते हो और न ही छू सकते हो, फिर भी तुम अपने सच्चे विश्वास के कारण धन्य हो, और तुम अपने सच्चे विश्वास के कारण प्रभु यीशु को देख सकते हो, और इस प्रकार का व्यक्ति धन्य है।

बाइबल में दर्ज ये वचन, जिन्हें प्रभु यीशु ने तब कहा था जब वह थोमा के सामने प्रकट हुआ था, अनुग्रह के युग में सभी लोगों के लिए बड़े सहायक हैं। थोमा के सामने उसका प्रकटन और उससे कहे गए उसके वचनों का भविष्य की पीढ़ियों के ऊपर एक गहरा प्रभाव पड़ा है; उनका सार्वकालिक महत्व है। थोमा उस प्रकार के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, जो परमेश्वर पर विश्वास तो करते हैं, मगर उस पर संदेह भी करते हैं। वे शंकालु प्रकृति के होते हैं, उनका हृदय कुटिल होता है, वे विश्वासघाती होते हैं, और उन चीज़ों पर विश्वास नहीं करते, जिन्हें परमेश्वर संपन्न कर सकता है। वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसकी संप्रभुता पर विश्वास नहीं करते, न ही वे देहधारी परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। किंतु प्रभु यीशु का पुनरुत्थान उनके इन लक्षणों के लिए एक चुनौती था, और इसने उन्हें अपने संदेह की खोज करने, अपने संदेह को पहचानने और अपने विश्वासघात को स्वीकार करने, और इस प्रकार प्रभु यीशु के अस्तित्व और पुनरुत्थान पर सचमुच विश्वास करने का एक अवसर भी प्रदान किया। थोमा के साथ जो कुछ हुआ, वह बाद की पीढ़ियों के लिए एक चेतावनी और सावधानी थी, ताकि अधिक लोग अपने आपको थोमा के समान शंकालु न होने के लिए सचेत कर सकें, और यदि वे खुद को संदेह से भरेंगे, तो वे अंधकार में डूब जाएँगे। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, किंतु बिलकुल थोमा के समान इस बात की पुष्टि, सत्यापन और अनुमान करने के लिए कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं, हमेशा प्रभु के पंजर को छूना और उसके कीलों के निशानों को महसूस करना चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। इसलिए प्रभु यीशु लोगों से अपेक्षा करता है कि वे थोमा के समान न बनें, जो केवल उसी बात पर विश्वास करते हैं जिसे वे अपनी आँखों से देख सकते हैं, बल्कि शुद्ध और ईमानदार व्यक्ति बनें, परमेश्वर के प्रति संदेहों को आश्रय न दें, बल्कि केवल उस पर विश्वास करें और उसका अनुसरण करें। इस प्रकार के लोग धन्य हैं। यह लोगों से प्रभु यीशु की एक बहुत छोटी अपेक्षा है, और यह उसके अनुयायियों के लिए एक चेतावनी है।

संदेहों से भरे लोगों के प्रति प्रभु यीशु का उपर्युक्त रवैया है। तो प्रभु यीशु ने उन लोगों से क्या कहा और उनके लिए क्या किया, जो उस पर ईमानदारी से विश्वास करने और उसका अनुसरण करने में समर्थ हैं? प्रभु यीशु और पतरस के बीच के एक संवाद के माध्यम से आगे हम यही देखने जा रहे हैं।

इस वार्तालाप में प्रभु यीशु ने बार-बार पतरस से एक बात पूछी : "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" यह वह उच्चतर मानक है, जिसकी प्रभु यीशु अपने पुनरुत्थान के बाद पतरस जैसे लोगों से अपेक्षा करता है, जो वास्तव में मसीह पर विश्वास करते हैं और प्रभु से प्रेम करने का प्रयत्न करते हैं। यह प्रश्न एक प्रकार की जाँच और पूछताछ थी, परंतु इससे भी अधिक, यह पतरस जैसे लोगों से एक माँग और एक अपेक्षा थी। प्रभु यीशु ने पूछताछ करने के इस तरीके का उपयोग किया, ताकि लोग अपने बारे में विचार करें और अपने भीतर झाँकें और पूछें : प्रभु यीशु की लोगों से क्या अपेक्षाएँ हैं? क्या मैं प्रभु से प्रेम करता हूँ? क्या मैं ऐसा व्यक्ति हूँ, जो प्रभु से प्रेम करता है? मुझे प्रभु से कैसे प्रेम करना चाहिए? भले ही प्रभु यीशु ने यह प्रश्न केवल पतरस से पूछा हो, परंतु सच्चाई यह है कि अपने हृदय में वह पतरस से पूछने के इस अवसर का उपयोग इसी प्रकार का प्रश्न परमेश्वर से प्रेम करने के इच्छुक अधिक लोगों से पूछने के लिए करना चाहता था। बस, पतरस धन्य था, जो इस प्रकार के व्यक्तियों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर पाया, जिससे स्वयं प्रभु यीशु द्वारा अपने मुँह से यह पूछताछ की गई।

निम्नलिखित वचनों की तुलना में, जो अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने थोमा से कहे थे : "अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्‍वासी नहीं परन्तु विश्‍वासी हो," उसका पतरस से तीन बार यह पूछना : "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" लोगों को प्रभु यीशु के रवैये की कठोरता और पूछताछ करने के दौरान उसके द्वारा महसूस की गई अत्यावश्यकता को बेहतर ढंग से महसूस कराता है। जहाँ तक शंकालु, धोखेबाज प्रकृति के थोमा की बात है, प्रभु यीशु ने उसे अपना हाथ बढ़ाकर अपने शरीर पर कीलों के निशान छूने दिए, जिसने उसे विश्वास दिलाया कि प्रभु यीशु मनुष्य का पुत्र है जो पुनरुत्थित हुआ है, और उससे मसीह के रूप में प्रभु यीशु की पहचान स्वीकार कराई। और यद्यपि प्रभु यीशु ने थोमा को सख्ती से डाँटा नहीं, न ही उसने मौखिक रूप से उसके बारे में स्पष्ट रूप से कोई न्याय व्यक्त किया था, फिर भी उसने उसे जताने के लिए कि वह उसे समझता है, व्यावहारिक कार्यकलापों का उपयोग किया, साथ ही उसने उस प्रकार के व्यक्ति के प्रति अपने रवैये और निश्चय को भी प्रदर्शित किया। उस प्रकार के व्यक्ति से प्रभु यीशु की माँगों और अपेक्षाओं को, जो कुछ उसने कहा था, उसके आधार पर देखा नहीं जा सकता, क्योंकि थोमा जैसे लोगों में सच्चे विश्वास का एक टुकड़ा भी नहीं होता। उनके लिए प्रभु यीशु की माँगें केवल इतनी ही होती हैं, लेकिन पतरस जैसे लोगों के प्रति उसके द्वारा प्रकट किया गया रवैया बिलकुल भिन्न था। उसने पतरस से यह अपेक्षा नहीं की कि वह अपना हाथ बढ़ाए और उसके कीलों के निशानों को छुए, न ही उसने पतरस से यह कहा : "अविश्वासी नहीं परन्तु, विश्वासी हो।" इसके बजाय, उसने बार-बार पतरस से एक ही प्रश्न पूछा। वह प्रश्न विचारोत्तेजक और अर्थपूर्ण था, ऐसा प्रश्न, जो मसीह के प्रत्येक अनुयायी को ग्लानि और भय ही महसूस नहीं कराएगा, बल्कि प्रभु यीशु की चिंतित, दुःखित मनोदशा भी महसूस कराए बिना नहीं रहेगा। और जब वे अत्यधिक पीड़ा और कष्ट में होते हैं, तब वे प्रभु यीशु की चिंता और परवाह को और अधिक समझ पाते है; वे उसकी ईमानदार शिक्षाओं और शुद्ध, ईमानदार लोगों से उसकी कड़ी अपेक्षाओं को समझते हैं। प्रभु यीशु का प्रश्न लोगों को यह एहसास कराता है कि इन सरल वचनों में प्रकट प्रभु की लोगों से अपेक्षाएँ मात्र उसमें विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अपने प्रभु और अपने परमेश्वर से प्रेम करते हुए प्रेम प्राप्त करने के लिए हैं। इस प्रकार का प्रेम परवाह करना और आज्ञापालन करना होता है। यह मनुष्यों का परमेश्वर के लिए जीना, परमेश्वर के लिए मरना, सर्वस्व परमेश्वर को समर्पित करना है, और सब-कुछ परमेश्वर के लिए व्यय करना और उसे दे देना है। इस प्रकार का प्रेम परमेश्वर को आराम देना, उसे गवाही का आनंद लेने देना, और उसे चैन से रहने देना भी है। यह मानवजाति की परमेश्वर को चुकौती, उसकी जिम्मेदारी, दायित्व और कर्तव्य है, और यह वह मार्ग है, जिसका अनुसरण मानवजाति को जीवन भर करना चाहिए। ये तीन प्रश्न एक अपेक्षा और प्रोत्साहन थे, जो प्रभु यीशु ने पतरस और उन सभी लोगों से किए थे, जो पूर्ण बनाए जाना चाहते थे। ये वे तीन प्रश्न थे, जो पतरस को जीवन में अपने मार्ग पर ले गए और उसका अनुसरण करने की प्रेरणा दी, और प्रभु यीशु के जाने पर ये तीन प्रश्न ही थे, जिन्होंने पूर्ण बनाए जाने के अपने मार्ग पर चलने की शुरुआत करने में पतरस की अगुआई की, जिन्होंने प्रभु के प्रति उसके प्रेम की वजह से प्रभु के हृदय का ख़्याल रखने, प्रभु का आज्ञापालन करने, प्रभु को आराम प्रदान करने और इस प्रेम की वजह से अपना संपूर्ण जीवन और अपना संपूर्ण अस्तित्व अर्पित करने में उसकी अगुआई की।

अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर का कार्य मुख्यत: दो प्रकार के लोगों के लिए था। पहला प्रकार उन लोगों का था, जो उस पर विश्वास करते थे और उसका अनुसरण करते थे, जो उसकी आज्ञाओं का पालन कर सकते थे, जो सूली सहन कर सकते थे और अनुग्रह के युग के मार्ग को थामे रह सकते थे। इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का आशीष प्राप्त करता है और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाता है। दूसरे प्रकार का व्यक्ति पतरस जैसा था, जिसे पूर्ण बनाया जा सकता था। इसलिए अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने सबसे पहले ये दो सर्वाधिक अर्थपूर्ण चीज़ें कीं। एक थोमा के साथ की गई और दूसरी पतरस के साथ। ये दो चीज़ें क्या दर्शाती हैं? क्या ये मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सच्चे इरादे दर्शाती हैं? क्या ये मानवजाति के प्रति परमेश्वर की ईमानदारी दर्शाती हैं? उसके द्वारा थोमा के साथ किया गया कार्य लोगों को चेतावनी देने के लिए था कि वे शंकालु न बनें, बल्कि केवल विश्वास करें। पतरस के साथ किया गया उसका कार्य पतरस जैसे लोगों का विश्वास दृढ़ करने और इस प्रकार के लोगों से अपनी अपेक्षाएँ स्पष्ट करने और यह दिखाने के लिए था कि उन्हें किन लक्ष्यों का अनुसरण करना चाहिए।

अपने पुनरुत्थित होने के बाद प्रभु यीशु उन लोगों के सामने प्रकट हुआ जिन्हें वह आवश्यक समझता था, उनसे बातें कीं, और उनसे अपेक्षाएँ कीं, और लोगों के बारे में अपने इरादे और उनसे अपनी अपेक्षाएँ पीछे छोड़ गया। कहने का अर्थ है कि देहधारी परमेश्वर के रूप में मानवजाति के लिए उसकी चिंता और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ कभी नहीं बदलीँ; जब वह देह में था तब, और सलीब पर चढ़ाए जाने और पुनरुत्थित होने के बाद जब वह आध्यात्मिक देह में था तब भी, वे एक-जैसी रहीं। सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले वह इन चेलों के बारे में चिंतित था, और अपने हृदय में वह हर एक व्यक्ति की स्थिति को लेकर स्पष्ट था और वह प्रत्येक व्यक्ति की कमियाँ समझता था, और निस्संदेह, अपनी मृत्यु, पुनरुत्थान और आध्यात्मिक शरीर बन जाने के बाद भी प्रत्येक व्यक्ति के बारे में उसकी समझ वैसी थी, जैसी तब थी जब वह देह में था। वह जानता था कि लोग मसीह के रूप में उसकी पहचान को लेकर पूर्णत: निश्चित नहीं थे, किंतु देह में रहने के दौरान उसने लोगों से कठोर माँगें नहीं कीं। परंतु पुनरुत्थित हो जाने के बाद वह उनके सामने प्रकट हुआ, और उसने उन्हें पूर्णत: निश्चित किया कि प्रभु यीशु परमेश्वर से आया है और वह देहधारी परमेश्वर है, और उसने अपने प्रकटन और पुनरुत्थान के तथ्य का उपयोग मानवजाति द्वारा जीवन भर अनुसरण करने हेतु सबसे बड़े दर्शन और अभिप्रेरणा के रूप में किया। मृत्यु से उसके पुनरुत्थान ने न केवल उन सभी को मज़बूत किया जो उसका अनुसरण करते थे, बल्कि उसने अनुग्रह के युग के उसके कार्य को मानवजाति के बीच अच्छी तरह से कार्यान्वित कर दिया, और इस प्रकार अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा किए जाने वाले उद्धार का सुसमाचार धीरे-धीरे मानवजाति के हर छोर तक पहुँच गया। क्या तुम कहोगे कि पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के प्रकटन का कोई महत्व था? उस समय यदि तुम थोमा या पतरस होते, और तुमने अपने जीवन में इस एक चीज़ का सामना किया होता जो इतनी अर्थपूर्ण थी, तो इसका तुम्हारे ऊपर किस प्रकार का प्रभाव पड़ता? क्या तुमने इसे परमेश्वर पर विश्वास करने के अपने जीवन के सबसे बेहतरीन और सबसे बड़े दर्शन के रूप में देखा होता? क्या तुमने परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयत्न करते हुए और अपने जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास करते हुए इसे परमेश्वर का अनुसरण करने की एक प्रेरक शक्ति के रूप में देखा होता? क्या तुमने इस सबसे बड़े दर्शन को फैलाने के लिए जीवन भर का प्रयास व्यय किया होता? क्या तुमने प्रभु यीशु द्वारा उद्धार का सुसमाचार फैलाने को परमेश्वर की आज्ञा के रूप में लिया होता? भले ही तुम लोगों ने इसका अनुभव नहीं किया है, फिर भी आधुनिक लोगों द्वारा परमेश्वर और उसकी इच्छा की एक स्पष्ट समझ प्राप्त करने के लिए थोमा और पतरस के दो उदाहरण काफी हैं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के देहधारी हो जाने के बाद, जब उसने मानवजाति के बीच रहकर जीवन का अनुभव प्राप्त कर लिया और मानव-जीवन का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर लिया, और जब उसने उस समय मानवजाति की भ्रष्टता और मानव-जीवन की दशा देख ली, तो देहधारी परमेश्वर ने ज्यादा गहराई से यह महसूस किया कि मानवजाति कितनी असहाय, शोचनीय और दयनीय है। देह में रहते हुए परमेश्वर में जो मानवता थी, उसकी वजह से, अपनी दैहिक अंत:प्रेरणाओं की वजह से, परमेश्वर ने मनुष्य की स्थिति के प्रति और अधिक समवेदना हासिल की। इससे वह अपने अनुयायियों को लेकर और अधिक चिंतित हो गया। ये शायद ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें तुम लोग नहीं समझ सकते, परंतु मैं देहधारी परमेश्वर द्वारा अपने हर एक अनुयायी के लिए अनुभव की गई इस चिंता और परवाह का केवल इन दो शब्दों में वर्णन कर सकता हूँ : "गहन चिंता"। यद्यपि ये शब्द मानवीय भाषा से आते हैं, और यद्यपि ये बहुत मानवीय हैं, फिर भी ये अपने अनुयायियों के लिए परमेश्वर की भावनाओं को वास्तव में व्यक्त और वर्णित करते हैं। जहाँ तक मनुष्यों के लिए परमेश्वर की गहन चिंता की बात है, अपने अनुभवों के दौरान तुम लोग धीरे-धीरे इसे महसूस करोगे और इसका स्वाद लोगे। किंतु इसे केवल अपने स्वभाव में परिवर्तन का प्रयास करने के आधार पर परमेश्वर के स्वभाव को धीरे-धीरे समझकर ही प्राप्त किया जा सकता है। जब प्रभु यीशु प्रकट हुआ, तो इसने मानवजाति में उसके अनुयायियों के लिए उसकी गहन चिंता को मूर्त रूप दिया और उसे उसकी आध्यात्मिक देह को, या तुम यह कह सकते हो कि उसकी दिव्यता को, सौंप दिया। उसके प्रकटन ने लोगों को परमेश्वर की चिंता और परवाह का एक बार और अनुभव और एहसास कराया, साथ ही सशक्त रूप से यह भी प्रमाणित किया कि वह परमेश्वर ही है, जो युग का सूत्रपात करता है, युग का विकास करता है, और युग का समापन भी करता है। अपने प्रकटन के माध्यम से उसने सभी लोगों का विश्वास मज़बूत किया, और संसार के सामने इस तथ्य को साबित किया कि वह स्वयं परमेश्वर है। इससे उसके अनुयायियों को अनंत पुष्टि मिली, और अपने प्रकटन के माध्यम से उसने नए युग में अपने कार्य के एक चरण का सूत्रपात किया।

13. अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र समझाता है

लूका 24:30-32 जब वह उनके साथ भोजन करने बैठा, तो उसने रोटी लेकर धन्यवाद किया और उसे तोड़कर उनको देने लगा। तब उनकी आँखें खुल गईं; और उन्होंने उसे पहचान लिया, और वह उनकी आँखों से छिप गया। उन्होंने आपस में कहा, "जब वह मार्ग में हम से बातें करता था और पवित्रशास्त्र का अर्थ हमें समझाता था, तो क्या हमारे मन में उत्तेजना न उत्पन्न हुई?"

14. चेलों ने यीशु को खाने के लिए भुनी हुई मछली दी

लूका 24:36-43 वे ये बातें कह ही रहे थे कि वह आप ही उनके बीच में आ खड़ा हुआ, और उनसे कहा, "तुम्हें शान्ति मिले।" परन्तु वे घबरा गए और डर गए, और समझे कि हम किसी भूत को देख रहे हैं। उसने उनसे कहा, "क्यों घबराते हो? और तुम्हारे मन में क्यों सन्देह उठते हैं? मेरे हाथ और मेरे पाँव को देखो कि मैं वही हूँ। मुझे छूकर देखो, क्योंकि आत्मा के हड्डी माँस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो।" यह कहकर उसने उन्हें अपने हाथ पाँव दिखाए। जब आनन्द के मारे उनको प्रतीति न हुई, और वे आश्‍चर्य करते थे, तो उसने उनसे पूछा, "क्या यहाँ तुम्हारे पास कुछ भोजन है?" उन्होंने उसे भुनी हुई मछली का टुकड़ा दिया। उसने लेकर उनके सामने खाया।

आगे हम पवित्रशास्त्र के उपर्युक्त अंशों पर नज़र डालेंगे। पहला अंश पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के रोटी खाने और पवित्रशास्त्र को समझाने का वर्णन करता है, और दूसरे अंश में प्रभु यीशु के भुनी हुई मछली खाने का वर्णन है। ये दो अंश परमेश्वर के स्वभाव को जानने में तुम्हारी किस प्रकार सहायता करते हैं? क्या तुम लोग प्रभु यीशु के रोटी और फिर भुनी हुई मछली खाने के इन विवरणों से प्राप्त तसवीर के प्रकार की कल्पना कर सकते हो? क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि यदि प्रभु यीशु तुम लोगों के सामने रोटी खाता हुआ खड़ा होता, तो तुम लोगों को कैसा महसूस होता? अथवा यदि वह तुम लोगों के साथ एक ही मेज पर भोजन कर रहा होता, लोगों के साथ मछली और रोटी खा रहा होता, तो उस क्षण तुम्हारे मन में किस प्रकार की भावना आती? यदि तुम महसूस करते कि तुम प्रभु के बेहद करीब हो, कि वह तुम्हारे साथ बहुत अंतरंग है, तो यह भावना सही है। यह बिलकुल वही परिणाम है, जो अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु इकट्ठे हुए लोगों के सामने रोटी और मछली खाकर लाना चाहता था। यदि प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद लोगों से सिर्फ बात की होती, यदि वे उसकी देह और हड्डियों को महसूस न कर पाते, बल्कि यह महसूस करते कि वह एक अगम्य पवित्रात्मा है, तो वे कैसा महसूस करते? क्या वे निराश नहीं हो जाते? निराशा अनुभव करके क्या लोग परित्यक्त महसूस न करते? क्या वे अपने और प्रभु यीशु मसीह के बीच एक दूरी महसूस न करते? परमेश्वर के साथ लोगों के संबंध पर यह दूरी किस प्रकार का नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती? लोग निश्चित रूप से भयभीत हो जाते, वे उसके करीब आने की हिम्मत न करते, और उनका उसे एक सम्मानित दूरी पर रखने का रवैया होता। तब से वे प्रभु यीशु मसीह के साथ अपने अंतरंग संबंध को तोड़ देते, और वापस मानवजाति और ऊपर स्वर्ग के परमेश्वर के बीच के संबंध की ओर लौट जाते, जैसा कि अनुग्रह के युग के पहले था। वह आध्यात्मिक देह, जिसे लोग छू या महसूस न कर पाते, परमेश्वर के साथ उनकी अंतरंगता का उन्मूलन कर देती, और वह उस अंतरंगता के अस्तित्व को भी, जो प्रभु यीशु मसीह के देह में रहने के समय स्थापित हुई थी, जिसमें मानवजाति और उसके बीच कोई दूरी नहीं थी, खत्म कर देती। आध्यात्मिक देह से लोगों में केवल डरने, बचने और निःशब्द टकटकी लगाकर देखने की भावनाएँ उभरी थीं। वे उसके करीब आने या उससे बात करने की हिम्मत न करते, उसका अनुसरण करने, उसका विश्वास करने या उसका आदर करने की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर मनुष्यों के मन में अपने लिए इस प्रकार की भावना देखने का इच्छुक नहीं था। वह यह नहीं देखना चाहता था कि लोग उससे बचकर निकलें या अपने आप को उससे दूर हटा लें; वह केवल इतना चाहता था कि लोग उसे समझें, उसके करीब आएँ और उसका परिवार बन जाएँ। यदि तुम्हारा अपना परिवार, तुम्हारे बच्चे तुम्हें देखें लेकिन तुम्हें पहचानें नहीं, और तुम्हारे करीब आने की हिम्मत न करें बल्कि हमेशा तुमसे बचते रहें, और जो कुछ तुमने उनके लिए किया, वे उसे समझ न पाएँ, तो इससे तुम्हें कैसा महसूस होगा? क्या यह दर्दनाक नहीं होगा? क्या इससे तुम्हारा हृदय टूट नहीं जाएगा? बिलकुल ऐसा ही परमेश्वर महसूस करता है, जब लोग उससे बचते हैं। इसलिए, अपने पुनरुत्थान के बाद भी प्रभु यीशु लोगों के सामने मांस और लहू के अपने रूप में ही प्रकट हुआ, और तब भी उसने उनके साथ खाया और पीया। परमेश्वर लोगों को एक परिवार के रूप में देखता है और वह मनुष्यों से भी यही चाहता है कि वे उसे अपने सबसे प्रिय व्यक्ति के रूप में देखें; केवल इसी तरह से परमेश्वर वास्तव में लोगों को प्राप्त कर सकता है, और केवल इसी तरह से लोग वास्तव में परमेश्वर से प्रेम और उसकी आराधना कर सकते हैं। अब क्या तुम लोग पवित्रशास्त्र के इन दो अंशों का उद्धरण देने के मेरे इरादे को समझ सकते हो, जिनमें प्रभु यीशु अपने पुनरुत्थान के बाद रोटी खाता है और पवित्रशास्त्र को समझाता है, और चेले उसे खाने के लिए भुनी हुई मछली देते हैं?

ऐसा कहा जा सकता है कि कार्यों की जो शृंखलाएँ प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद कहीं और कीं, उनमें एक गंभीर विचार रखा गया था। वे उस दयालुता और स्नेह से भरी हुई थीं, जो परमेश्वर मानवजाति के प्रति रखता है, और वे दुलार और सूक्ष्म परवाह से भी भरी हुई थीं, जो वह उस अंतरंग संबंध के प्रति रखता था, जिसे उसने देह में रहने के दौरान मानवजाति के साथ स्थापित किया था। इससे भी अधिक, वे अतीत की उस ललक और लालसा से भी भरी हुई थीं, जो उसने देह में रहने के दौरान अपने अनुयायियों के साथ खाने-पीने के अपने जीवन के लिए महसूस की थी। इसलिए, परमेश्वर नहीं चाहता था कि लोग परमेश्वर और मनुष्य के बीच दूरी महसूस करें, न ही वह यह चाहता था कि मानवजाति स्वयं को परमेश्वर से दूर रखे। इससे भी बढ़कर, वह नहीं चाहता था कि मानवजाति यह महसूस करे कि प्रभु यीशु पुनरुत्थान के बाद वह प्रभु नहीं रहा जो लोगों से बहुत अंतरंग था, कि वह अब मानवजाति के साथ नहीं है क्योंकि वह आध्यात्मिक संसार में लौट गया है, उस पिता के पास लौट गया है जिसे लोग कभी देख नहीं सकते या जिस तक वे कभी पहुँच नहीं सकते। वह नहीं चाहता था कि लोग यह महसूस करें कि उसके और मानवजाति के बीच हैसियत का कोई अंतर पैदा हो गया है। जब परमेश्वर उन लोगों को देखता है, जो उसका अनुसरण करना चाहते हैं परंतु उसे एक सम्मानित दूरी पर रखते हैं, तो उसके हृदय में पीड़ा होती है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि उनका हृदय उससे बहुत दूर है और उसके लिए उनके हृदय को पाना बहुत कठिन होगा। इसलिए यदि वह लोगों के सामने एक आध्यात्मिक देह में प्रकट हुआ होता जिसे वे देख या छू न सकते, तो इसने एक बार फिर मनुष्य को परमेश्वर से दूर कर दिया होता, और इससे मानवजाति गलती से यह समझ बैठती कि पुनरुत्थान के बाद मसीह अभिमानी, मनुष्यों से भिन्न प्रकार का और ऐसा बन गया है, जो अब मनुष्यों के साथ मेज पर नहीं बैठ सकता और उनके साथ खा नहीं सकता, क्योंकि मनुष्य पापी और गंदे हैं, और कभी परमेश्वर के करीब नहीं आ सकते। मानवजाति की इन ग़लतफहमियों को दूर करने के लिए प्रभु यीशु ने कई चीज़ें कीं, जिन्हें वह देह में रहते हुए किया करता था, जैसा कि बाइबल में दर्ज है : "उसने रोटी लेकर धन्यवाद किया और उसे तोड़कर उनको देने लगा।" उसने उन्हें पवित्रशास्त्र भी समझाया, जैसा कि वह अतीत में किया करता था। प्रभु यीशु द्वारा की गई इन सब चीज़ों ने हर उस व्यक्ति को, जिसने उसे देखा था, यह महसूस कराया कि प्रभु बदला नहीं है, वह अभी भी वही प्रभु यीशु है। भले ही उसे सूली पर चढ़ा दिया गया था और उसने मृत्यु का अनुभव किया था, किंतु वह पुनर्जीवित हो गया है और उसने मानवजाति को छोड़ा नहीं है। वह मनुष्यों के बीच रहने के लिए लौट आया था, और उसमें कुछ भी नहीं बदला था। लोगों के सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र अभी भी वही प्रभु यीशु था। लोगों के साथ उसका व्यवहार और बातचीत का उसका तरीका बहुत परिचित लगता था। वह अभी भी प्रेममय करुणा, अनुग्रह और सहनशीलता से उतना ही भरपूर था—वह तब भी वही प्रभु यीशु था, जो लोगों से वैसे ही प्रेम करता था जैसे वह अपने आप से करता था, जो मानवजाति को सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा कर सकता था। उसने हमेशा की तरह लोगों के साथ खाया, उनके साथ पवित्रशास्त्र पर चर्चा की, और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वह पहले के समान ही माँस और लहू से बना था और उसे छुआ और देखा जा सकता था। पहले की तरह के मनुष्य के पुत्र के रूप में उसने लोगों को अंतरंगता महसूस कराई, सहजता महसूस कराई, और किसी खोई हुई चीज़ को पुनः प्राप्त करने का आनंद दिलाया। बड़ी आसानी से उन्होंने बहादुरी और आत्मविश्वास के साथ इस मनुष्य के पुत्र के ऊपर भरोसा और उसका आदर करना आरंभ कर दिया, जो मानवजाति को उनके पापों के लिए क्षमा कर सकता था। वे बिना किसी हिचकिचाहट के प्रभु यीशु के नाम से प्रार्थना भी करने लगे, वे उसका अनुग्रह, उसका आशीष प्राप्त करने के लिए, और उससे शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए, उससे देखरेख और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करने लगे, और प्रभु यीशु के नाम से चंगाई करने लगे और दुष्टात्माओं को निकालने लगे।

जिस दौरान प्रभु यीशु ने देह में रहकर काम किया, उसके अधिकतर अनुयायी उसकी पहचान और उसके द्वारा कही गई चीज़ों को पूरी तरह से सत्यापित नहीं कर सके। जब वह सूली की ओर बढ़ रहा था, तो उसके अनुयायियों का रवैया पर्यवेक्षण का था। फिर, उसे सूली पर चढ़ाए जाने से लेकर क़ब्र में डाले जाने के समय तक उसके प्रति लोगों का रवैया निराशा का था। इस दौरान लोगों ने पहले ही अपने हृदय में उन चीज़ों के बारे में संदेह करने से एकदम नकारने की ओर जाना आरंभ कर दिया था, जिन्हें प्रभु यीशु ने अपने देह में रहने के समय कहा था। फिर जब वह क़ब्र से बाहर आया और एक-एक करके लोगों के सामने प्रकट हुआ, तो उन लोगों में से अधिकांश, जिन्होंने उसे अपनी आँखों से देखा था या उसके पुनरुत्थान का समाचार सुना था, धीरे-धीरे नकारने से संशय करने की ओर आने लगे। केवल जब अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने थोमा से उसका हाथ अपने पंजर में डलवाया, और जब प्रभु यीशु ने भीड़ के सामने रोटी तोड़ी और खाई, और फिर उनके सामने भुनी हुई मछली खाने के लिए बढ़ा, तभी उन्होंने वास्तव में इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ही देहधारी मसीह है। तुम कह सकते हो कि यह ऐसा था, मानो माँस और रक्त वाला यह आध्यात्मिक शरीर उन लोगों के सामने खड़ा उन्हें स्वप्न से जगा रहा था : उनके सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र वह था, जो अनादि काल से अस्तित्व में था। उसका एक रूप, माँस और हड्डियाँ थीं, और वह पहले ही लंबे समय तक मानवजाति के साथ तक रह और खा चुका था...। इस समय लोगों ने महसूस किया कि उसका अस्तित्व बहुत यथार्थ और बहुत अद्भुत था। साथ ही, वे भी बहुत आनंदित और प्रसन्न थे और भावनाओं से भरे थे। उसके पुनः प्रकटन ने लोगों को वास्तव में उसकी विनम्रता दिखाई, मानवजाति के प्रति उसकी नज़दीकी और अनुरक्ति अनुभव कराई, और यह महसूस कराया कि वह उनके बारे में कितना सोचता है। इस संक्षिप्त पुनर्मिलन ने उन लोगों को, जिन्होंने प्रभु यीशु को देखा था, यह महसूस कराया मानो एक पूरा जीवन-काल गुज़र चुका हो। उनके खोए हुए, भ्रमित, भयभीत, चिंतित, लालायित और संवेदनशून्य हृदय को आराम मिला। वे अब शंकालु या निराश नहीं रहे, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि अब आशा और भरोसा करने के लिए कुछ है। उनके सामने खड़ा मनुष्य का पुत्र अब हर समय उनका पृष्ठरक्षक रहेगा; वह उनका दृढ़ दुर्ग, अनंत काल के लिए उनका आश्रय होगा।

यद्यपि प्रभु यीशु पुनरुत्थित हो चुका था, फिर भी उसके हृदय और उसके कार्य ने मानवजाति को नहीं छोड़ा था। लोगों के सामने प्रकट होकर उसने उन्हें बताया कि वह किसी भी रूप में मौजूद क्यों न हो, वह हर समय और हर जगह लोगों का साथ देगा, उनके साथ चलेगा, और उनके साथ रहेगा। उसने उन्हें बताया कि वह हर समय और हर जगह मनुष्यों का भरण-पोषण और उनकी चरवाही करेगा, उन्हें अपने को देखने और छूने देगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि वे फिर कभी असहाय महसूस न करें। प्रभु यीशु यह भी चाहता था कि लोग यह जानें कि इस संसार में वे अकेले नहीं रहते। मानवजाति के पास परमेश्वर की देखरेख है; परमेश्वर उनके साथ है। वे हमेशा परमेश्वर पर आश्रित हो सकते हैं, और वह अपने प्रत्येक अनुयायी का परिवार है। परमेश्वर पर आश्रित होकर मानवजाति अब और एकाकी या असहाय नहीं रहेगी, और जो उसे अपनी पापबलि के रूप में स्वीकार करते हैं, वे अब और पाप में बँधे नहीं रहेंगे। मनुष्य की नज़रों में, प्रभु यीशु द्वारा अपने पुनरुत्थान के बाद किए गए उसके कार्य के ये भाग बहुत छोटी चीज़ें थीं, परंतु जिस तरह से मैं उन्हें देखता हूँ, उसके द्वारा की गई छोटी से छोटी चीज़ भी बहुत अर्थपूर्ण, बहुत मूल्यवान, बहुत प्रभावशाली और भारी महत्व रखने वाली थी।

यद्यपि देह में काम करने का प्रभु यीशु का समय कठिनाइयों और पीड़ा से भरा हुआ था, फिर भी मांस और रक्त की अपनी आध्यात्मिक देह के प्रकटन के माध्यम से, उसने उस समय के मानवजाति को छुड़ाने के अपने कार्य को देह में पूर्णता और कुशलता से संपन्न किया था। उसने देह बनकर अपनी सेवकाई की शुरुआत की और मनुष्यों के सामने अपने दैहिक रूप में प्रकट होकर उसने अपनी सेवकाई का समापन किया। मसीह के रूप में अपनी पहचान के माध्यम से नए युग की शुरुआत करते हुए उसने अनुग्रह के युग की उद्घोषणा की। मसीह के रूप में अपनी पहचान के माध्यम से उसने अनुग्रह के युग में अपना कार्य किया और अनुग्रह के युग में अपने सभी अनुयायियों को मज़बूत किया और उनकी अगुआई की। परमेश्वर के कार्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह जो आरंभ करता है, उसे वास्तव में पूरा करता है। इस कार्य में कदम और योजना होती है, और वह परमेश्वर की बुद्धि, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसके अद्भुत कर्मों, उसके प्रेम और दया से भी भरपूर होता है। निस्संदेह, परमेश्वर के समस्त कार्य का मुख्य सूत्र मानवजाति के लिए उसकी देखभाल है; यह उसकी परवाह की भावनाओं से ओतप्रोत है, जिसे वह कभी अलग नहीं रख सकता। बाइबल के इन पदों में, अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु द्वारा की गई एक-एक चीज़ में मानवजाति के लिए परमेश्वर की अपरिवर्तनीय आशाएँ और चिंता प्रकट हुई, और साथ ही प्रकट हुई मनुष्यों के लिए परमेश्वर की कुशल देखरेख और दुलार। शुरू से लेकर आज तक इसमें से कुछ भी नहीं बदला है—क्या तुम लोग इसे देख सकते हो? जब तुम लोग इसे देखते हो, तो क्या तुम लोगों का हृदय अनजाने ही परमेश्वर के करीब नहीं आ जाता? यदि तुम लोग उस युग में रह रहे होते और प्रभु यीशु पुनरुत्थान के बाद तुम लोगों के सामने मूर्त रूप में प्रकट होता जिसे तुम लोग देख सकते, और यदि वह तुम लोगों के सामने बैठ जाता, रोटी और मछली खाता और तुम लोगों को पवित्रशास्त्र समझाता, तुम लोगों से बातचीत करता, तो तुम लोग कैसा महसूस करते? क्या तुम खुशी महसूस करते? या तुम दोषी महसूस करते? परमेश्वर के बारे में पिछली ग़लतफहमियाँ और उससे बचना, परमेश्वर के साथ टकराव और उसके बारे में संदेह—क्या ये सब ग़ायब नहीं हो जाते? क्या परमेश्वर और मनुष्य के बीच का रिश्ता और अधिक सामान्य और उचित न हो जाता?

बाइबल के इन सीमित अध्यायों की व्याख्या से, क्या तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव में किसी खामी का पता चलता है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर के प्रेम में कोई मिलावट मिलती है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि में कोई धोखा या बुराई दिखती है? निश्चित रूप से नहीं! अब क्या तुम लोग निश्चितता के साथ कह सकते हो कि परमेश्वर पवित्र है? क्या तुम निश्चितता के साथ कह सकते हो कि परमेश्वर की प्रत्येक भावना उसके सार और उसके स्वभाव का प्रकाशन है? मैं आशा करता हूँ कि इन वचनों को पढ़ लेने के बाद तुम लोगों को इनसे प्राप्त होने वाली समझ से सहायता मिलेगी और वे अपने स्वभाव में परिवर्तन और परमेश्वर से भय मानने के तुम्हारे प्रयास में तुम लोगों को लाभ पहुँचाएँगे, और वे तुम लोगों के लिए ऐसे फल लाएँगे जो दिन प्रति दिन बढ़ते ही जाएँगे, जिससे खोज की यह प्रक्रिया तुम लोगों को परमेश्वर के और करीब ले आएगी, उस मानक के अधिकाधिक करीब ले आएगी जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। तुम लोग सत्य की खोज करने में अब और ऊबा हुआ महसूस नहीं करोगे और तुम लोग अब और ऐसा महसूस नहीं करोगे कि सत्य की और स्वभाव में परिवर्तन की खोज एक कष्टप्रद या निरर्थक चीज़ है। इसके बजाय, परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और उसके पवित्र सार की अभिव्यक्ति से प्रेरित होकर तुम लोग ज्योति की लालसा करोगे, न्याय की लालसा करोगे, और सत्य की खोज करने, परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का प्रयास करने की आकांक्षा करोगे, और तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए व्यक्ति बन जाओगे, एक वास्तविक व्यक्ति बन जाओगे।

आज हमने उन कुछ चीज़ों के बारे में बात की है, जो परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में की थीं, जब उसे पहली बार देहधारी बनाया गया था। इन चीज़ों से हमने उसके द्वारा देह में व्यक्त और प्रकट किए गए स्वभाव को और साथ ही उसके स्वरूप के प्रत्येक पहलू को देखा है। उसके स्वरूप के ये सभी पहलू बहुत ही मानवीय प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि उसके द्वारा प्रकट और व्यक्त की गई हर चीज़ का सार उसके अपने स्वभाव से अलग नहीं किया जा सकता। देहधारी परमेश्वर की हर पद्धति और उसका हर पहलू, जो मानवता में उसके स्वभाव को व्यक्त करता है, उसके अपने सार से मजबूती से जुड़ा है। इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर मनुष्य के पास देहधारण के तरीके का उपयोग करके आया। जो कार्य उसने देह में किया, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु देह में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए, भ्रष्टता में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं उसके द्वारा प्रकट किया गया स्वभाव और उसके द्वारा व्यक्त की गई इच्छा। क्या तुम लोग इसे समझने में सक्षम हो? परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप को समझने के बाद क्या तुम लोगों ने कोई निष्कर्ष निकाला है कि तुम लोगों को परमेश्वर के साथ कैसा बरताव करना चाहिए? अंत में, इस प्रश्न के उत्तर में, मैं तुम लोगों को तीन सलाहें देना चाहूँगा : पहली, परमेश्वर की परीक्षा मत लो। चाहे तुम परमेश्वर के बारे में कितना भी क्यों न समझते हो, चाहे तुम उसके स्वभाव के बारे में कितना भी क्यों न जानते हो, उसकी परीक्षा बिलकुल मत लो। दूसरी, हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ संघर्ष मत करो। चाहे परमेश्वर तुम्हें किसी भी प्रकार की हैसियत दे या वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कार्य सौंपे, चाहे वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कर्तव्य करने के लिए बड़ा करे, और चाहे तुमने परमेश्वर के लिए कितना भी व्यय और बलिदान किया हो, उसके साथ हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा बिलकुल मत करो। तीसरी, परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा मत करो। परमेश्वर तुम्हारे साथ जो कुछ भी करता है, जो भी वह तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, और जो चीज़ें वह तुम पर लाता है, तुम उन्हें समझते या उनके प्रति समर्पित होते हो या नहीं, किंतु परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा बिलकुल मत करो। यदि तुम इन सलाहों पर चल सकते हो, तो तुम काफी सुरक्षित रहोगे, और तुम परमेश्वर को क्रोधित करने की ओर प्रवृत्त नहीं होगे। हम अपनी आज की संगति यहीं समाप्त करेंगे।

23 नवंबर, 2013

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