छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग तीन)
तुम्हें छठी तरह के भ्रष्ट स्वभाव—दुष्टता—से भी परिचित होना चाहिए। आओ, तब से शुरुआत करते हैं, जब लोग सुसमाचार का प्रचार करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते समय कुछ लोग दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे सिद्धांत के अनुसार प्रचार नहीं करते, न ही वे जानते हैं कि किस तरह के लोग सत्य से प्रेम करते हैं और किनमें मानवता है; वे हमेशा विपरीत लिंग के किसी ऐसे सदस्य की तलाश करते हैं जिसके साथ उनकी पटरी बैठती हो, जिसे वे पसंद करते हों और जिससे उनकी बनती हो। वे उन लोगों के आगे प्रचार नहीं करते, जिन्हें वे पसंद नहीं करते या जिनसे उनकी नहीं बनती। चाहे कोई व्यक्ति सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के अनुरूप हो या नहीं—अगर वह ऐसा है जिसमें वे रुचि रखते हैं तो वे प्रयास करना नहीं छोड़ते। हो सकता है, अन्य लोग उनसे कहें कि यह व्यक्ति सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, फिर भी वे उसे सुसमाचार सुनाने पर जोर देते हैं। उनके अंदर एक ऐसा स्वभाव होता है जो उनके कार्य नियंत्रित करता है, उन्हें सुसमाचार प्रचार के नाम पर अपनी कामुक इच्छाएँ पूरी करने और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। यह किसी दुष्ट स्वभाव से कम नहीं है। ऐसे भी लोग हैं, जो अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा करके वे गलती कर रहे हैं, और ऐसा करने से परमेश्वर नाराज होता है और इससे उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन होता है—फिर भी वे रुकते नहीं। यह एक तरह का स्वभाव है, है कि नहीं? (बिल्कुल।) यह एक दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियों में से एक है, लेकिन सिर्फ कामुक इच्छाओं के खुलासे को ही दुष्टता नहीं कहा जाना चाहिए; दुष्टता का दायरा देह की वासना से कहीं ज्यादा व्यापक है। जरा सोचो : दुष्ट स्वभाव की और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? चूँकि यह एक स्वभाव है, इसलिए यह कार्य करने के एक तरीके से कहीं ज्यादा है, इसमें कई अलग-अलग मनोदशाएँ, अभिव्यक्तियाँ और खुलासे शामिल हैं, यही इसे एक स्वभाव के रूप में निरूपित करता है। (सांसारिक प्रवृत्तियों के साथ चलना, संसार की प्रवृत्तियों से संबंधित चीजें न छोड़ना।) दुष्ट प्रवृत्तियाँ न छोड़ना स्वभाव का एक प्रकार है। संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों में संलग्न होना, उनके पीछे भागना, उन्हीं में मग्न रहना, बड़ी लगन से उनका अनुसरण करना। कुछ लोग ऐसे हैं जो इन चीजों को कभी नहीं छोड़ते, चाहे कैसे भी सत्य पर संगति की जाए, चाहे कैसे भी उनकी काट-छाँट की जाए; उनकी यह प्रवृत्ति दीवानगी की हद तक भी पहुँच जाती है। यह दुष्टता है। तो जब लोग दुष्ट प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं, तो कौन-सी अभिव्यक्तियाँ उनमें दुष्ट स्वभाव दर्शाती हैं? वे इन चीजों से प्रेम क्यों करते हैं? इन दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों में ऐसा क्या है जो उन्हें मानसिक संतुष्टि देता है, जो उनकी जरूरतें पूरी करता है और उनकी पसंद और इच्छाएँ पूरी करता है? उदाहरण के लिए मान लो, वे फिल्मी सितारों को पसंद करते हैं : इन फिल्मी सितारों के जीवन में ऐसी क्या बात है जो लोगों में दीवानगी पैदा कर उनसे अपना अनुसरण करवाती है? यह उन लोगों के ठाठ-बाठ, शैली, चेहरे-मोहरे और यश के साथ ही उस तरह का तड़क-भड़क भरा जीवन है, जिसके लिए वे लालायित रहते हैं। ये सभी चीजें जिनका वे अनुसरण करते हैं—क्या सभी दुष्ट चीजें हैं? (बिल्कुल।) ऐसा क्यों कहा जाता है कि ये दुष्ट चीजें हैं? (क्योंकि वे सत्य और सकारात्मक चीजों के विरुद्ध हैं और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं।) यह सिद्धांत है। इन मशहूर हस्तियों और फिल्मी सितारों का विश्लेषण करो : उनकी जीवन-शैली, उनका आचरण, यहाँ तक कि उनका सार्वजनिक व्यक्तित्व और पहनावा भी जिसे हर कोई पूजता है। वे ऐसा जीवन क्यों जीते हैं? और वे दूसरों को अपना अनुसरण करने के लिए प्रेरित क्यों करते हैं? वे इस सब में काफी मेहनत करते हैं। यह छवि गढ़ने के लिए उनके पास अपने मेकअप आर्टिस्ट और पर्सनल स्टाइलिस्ट होते हैं। तो अपनी यह छवि गढ़ने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों को आकर्षित करना, उन्हें गुमराह करना, उनसे अपना अनुसरण करवाना—और इससे लाभ उठाना। और इसलिए लोग चाहे इन फिल्मी सितारों की प्रसिद्धि को पूजें या उनकी शक्ल-सूरत या उनके जीवन को, ये वास्तव में मूर्खतापूर्ण और बेतुकी हरकतें हैं। अगर व्यक्ति में तार्किकता हो, तो वह दानवों को क्यों पूजेगा? दानव ऐसी चीजें हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं, धोखा देती हैं और नुकसान पहुँचाती हैं। दानव परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और उनमें सत्य की स्वीकृति बिल्कुल नहीं होती। सारे दानव शैतान का अनुसरण करते हैं। उन लोगों के क्या लक्ष्य होते हैं, जो दानवों और शैतान का अनुसरण कर उन्हें पूजते हैं? वे इन दानवों का अनुकरण करना चाहते हैं, उन्हीं की तरह आचरण करना चाहते हैं, इस उम्मीद में कि एक दिन वे भी दानव बन जाएँगे, वैसे ही सुंदर और सेक्सी, जैसे ये दानव और मशहूर हस्तियाँ हैं। वे इस अनुभूति का आनंद लेना पसंद करते हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी मशहूर हस्ती या प्रतिष्ठित व्यक्ति को पूजे, उनका अंतिम लक्ष्य एक ही होता है—लोगों को गुमराह करना, उन्हें आकर्षित करना और उनसे अपनी पूजा और अपना अनुसरण करवाना। क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? यह एक दुष्ट स्वभाव है, और यह इससे ज्यादा स्पष्ट नहीं हो सकता है।
दुष्ट स्वभाव दूसरे तरीके से भी प्रकट होते हैं। कुछ लोग देखते हैं कि परमेश्वर के घर में आयोजित सभाओं में हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ना, सत्य पर संगति करना और आत्म-ज्ञान, कर्तव्य के उचित निर्वाह, सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करें, कैसे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहें, कैसे सत्य को समझें और उसका अभ्यास करें, और सत्य के तमाम दूसरे पहलुओं पर चर्चा शामिल रहती है। इतने वर्षों तक सुनने के बाद वे जितना ज्यादा सुनते हैं, उतने ही ज्यादा उकताने लगते हैं और यह कहते हुए शिकायत करने लगते हैं, “क्या परमेश्वर में आस्था का उद्देश्य आशीष प्राप्त करना नहीं है? हम क्यों हमेशा सत्य के बारे में बात और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हैं? क्या इसका कोई अंत है? मैं इससे ऊब गया हूँ!” लेकिन वे सांसारिक दुनिया में नहीं लौटना चाहते। वे मन ही मन सोचते हैं, “परमेश्वर में आस्था बहुत नीरस है, उबाऊ है—मैं इसे थोड़ी और रोचक कैसे बना सकता हूँ? मुझे कोई रोचक चीज खोजनी होगी,” इसलिए वे पूछते फिरते हैं, “कलीसिया में परमेश्वर के कितने विश्वासी हैं? कितने अगुआ और कार्यकर्ता हैं? कितनों को बरखास्त किया गया है? कितने युवा विश्वविद्यालयों के छात्र और स्नातक छात्र हैं? क्या किसी को संख्या मालूम है?” वे इन चीजों और आँकड़ों को सत्य मानते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? यह दुष्टता है, जिसे आम तौर पर “घिनौनापन” कहा जाता है। उन्होंने बहुत-से सत्य सुने हैं, लेकिन वे इनमें से किसी एक पर भी पर्याप्त ध्यान देने या ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित नहीं हुए। जैसे ही किसी के पास कोई गप या अंदर की खबर होती है, तुरंत उनके कान खड़े हो जाते हैं, वे उसे चूक जाने से डरते हैं। यह घिनौनापन है, है न? (बिल्कुल।) घिनौने लोगों की क्या विशेषता होती है? उन्हें सत्य के प्रति जरा-सी भी रुचि नहीं होती। वे सिर्फ बाहरी मामलों में रुचि रखते हैं, और बिना थके और लोलुपता से गपशप और ऐसी चीजों की तलाश करते हैं जिनका उनके जीवन प्रवेश या सत्य से कोई संबंध नहीं होता। उन्हें लगता है कि इन सारी चीजों और जानकारी का पता लगाने और यह सब अपने दिमाग में रखने का मतलब है कि उनमें सत्य वास्तविकता है, कि वे पूर्णरूपेण परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, कि परमेश्वर निश्चित रूप से उन्हें स्वीकृति देगा और वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। क्या तुम लोगों को लगता है कि वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) तुम लोग इसकी असलियत समझ सकते हो, लेकिन परमेश्वर के कई नए विश्वासी नहीं समझ सकते। वे इसी जानकारी पर ध्यान धरे रहते हैं, उन्हें लगता है कि इन चीजों को जानना उन्हें परमेश्वर के घर का सदस्य बनाता है—लेकिन वास्तव में, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा घृणा करता है, वे सभी लोगों में सबसे अहंकारी, सतही और अज्ञानी होते हैं। परमेश्वर ने अंत के दिनों में लोगों का न्याय कर उन्हें शुद्ध करने का कार्य करने के लिए देह धारण किया है, जिसका परिणाम लोगों को जीवन के रूप में सत्य देना है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने पर ध्यान नहीं देते और हमेशा अफवाहें तलाशने की कोशिश कर कलीसिया के आंतरिक मामलों के बारे में और ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? क्या वे उचित कार्य करने वाले लोग हैं? मेरे विचार से वे दुष्ट लोग हैं। वे छद्म-विश्वासी हैं। ऐसे लोगों को घिनौना भी कहा जा सकता है। वे सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर ध्यान देते हैं। इससे उनकी जिज्ञासा शांत होती है, लेकिन परमेश्वर उनसे घृणा करता है। वे ऐसे लोग नहीं हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग तो वे बिल्कुल भी नहीं हैं। वे असल में शैतान के सेवक हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालने आते हैं। इससे भी बढ़कर, जो लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच और अन्वेषण करते रहते हैं, वे बड़े लाल अजगर के नौकर-चाकर हैं। परमेश्वर सबसे ज्यादा इन लोगों से घृणा करता और अरुचि रखता है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम परमेश्वर पर भरोसा क्यों नहीं करते? जब तुम परमेश्वर की जाँच और अन्वेषण करते हो तो क्या तुम सत्य की खोज कर रहे होते हो? क्या सत्य की खोज का उस परिवार से कोई संबंध है जिसमें मसीह का जन्म हुआ था या उस परिवेश से कोई संबंध है जिसमें वह पला-बढ़ा था? जो लोग हमेशा परमेश्वर की सूक्ष्म जाँच किया करते हैं—क्या वे घृणित नहीं हैं? अगर तुम्हारे मन में मसीह की मानवता से संबंधित चीजों के बारे में हमेशा धारणाएँ रहती हैं तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के ज्ञान का अनुसरण करने में ज्यादा समय लगाना चाहिए; जब तुम सत्य को समझोगे, तभी अपनी धारणाओं की समस्या दूर कर पाओगे। क्या मसीह की पारिवारिक पृष्ठभूमि या उसके जन्म की परिस्थितियों की जाँच करने से तुम परमेश्वर को जान पाओगे? क्या इससे तुम मसीह का दिव्य सार खोज लोगे? बिल्कुल नहीं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति समर्पित होते हैं, सिर्फ यही मसीह का दिव्य सार जानने में सहायक है। लेकिन जो लोग लगातार परमेश्वर की जाँच करते रहते हैं, वे लगातार घिनौनेपन में क्यों लगे रहते हैं? आध्यात्मिक समझ से रहित इन तुच्छ लोगों को जल्दी से परमेश्वर के घर से बाहर निकल जाना चाहिए! सभाओं और उपदेशों के दौरान इतने सारे सत्य व्यक्त किए गए हैं, इतनी सारी संगति की गई है—फिर भी तुम लोग परमेश्वर की जाँच क्यों करते हो? इसका क्या अर्थ है कि तुम लोग हमेशा परमेश्वर की जाँच कर रहे हो? यही कि तुम अत्यंत दुष्ट हो! और तो और, ऐसे लोग भी हैं, जो सोचते हैं कि यह सब तुच्छ जानकारी प्राप्त करने से उन्हें पूँजी मिलती है और वे इसे लोगों को दिखाते फिरते हैं। और अंत में क्या होता है? वे परमेश्वर के लिए घृणित और अरुचिकर हैं। क्या वे इंसान भी हैं? क्या वे जीते-जागते राक्षस नहीं हैं? वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग कैसे हो सकते हैं? वे अपने तमाम विचार दुष्टता और कुटिलता के तरीके को समर्पित कर देते हैं। ऐसा लगता है, जैसे वे सोचते हों कि जितना ज्यादा वे सुनी-सुनाई बातें जानते हैं, उतना ही ज्यादा वे परमेश्वर के घर के सदस्य होते हैं और उतना ही ज्यादा वे सत्य समझते हैं। इस तरह के लोग बेहद बेतुके होते हैं। परमेश्वर के घर में उनसे ज्यादा अरुचिकर कोई नहीं होता।
कुछ लोग अपनी आस्था में लगातार अवास्तविक चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा इस बात की जाँच करते रहते हैं कि परमेश्वर का राज्य कैसा है, तीसरा स्वर्ग कहाँ है, पाताल लोक कैसा होता है और नरक कहाँ है। वे जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय हमेशा रहस्यों की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं। यह घिनौनापन है, दुष्टता है। ऐसे लोग भी हैं जो चाहे कितने भी प्रवचन और संगति सुन लें, फिर भी यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और न ही वे इस बात से अवगत हैं कि इसे अभ्यास में कैसे लाना चाहिए। जब भी उनके पास समय होता है, वे परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं, इनकी शब्द-योजना पर गौर करते हैं, इनमें किसी तरह की सनसनी खोजते हैं, और हमेशा यह भी जाँचते रहते हैं कि परमेश्वर के वचन पूरे हुए हैं या नहीं। अगर हुए हैं तो वे मान लेते हैं कि यह परमेश्वर का कार्य है, और अगर पूरे नहीं हुए तो उसके परमेश्वर का कार्य होने से इनकार कर देते हैं। क्या वे बेतुके नहीं हैं? क्या यह घिनौनापन नहीं है? क्या लोग हमेशा यह देख पाने में सक्षम हैं कि परमेश्वर के वचन कब पूरे हुए हैं? लोगों का यह देखने में सक्षम होना अनिवार्य नहीं है कि परमेश्वर के कुछ वचन कब पूरे हुए हैं। लोगों के विचार से उसके कुछ वचन पूरे हुए नहीं लगते, लेकिन परमेश्वर के विचार से वे पूरे हो गए हैं। लोगों के पास इन चीजों को स्पष्ट रूप से देखने का कोई उपाय नहीं है; अगर वे 20 प्रतिशत भी समझ पाएँ तो भाग्यशाली हैं। कुछ लोग पूरा समय परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने में लगा देते हैं, पर सत्य का अभ्यास करने या वास्तविकता में प्रवेश करने पर कोई ध्यान नहीं देते। क्या यह अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करना नहीं है? उन्होंने बहुत सारे सत्य सुने हैं, फिर भी अभी तक उन्हें नहीं समझते और लगातार भविष्यवाणियाँ पूरी होने का प्रमाण खोज रहे हैं, इसे ही अपना जीवन और प्रेरणा मानते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग प्रार्थना करते हुए इस तरह की बातें कहते हैं, “परमेश्वर, अगर तुम चाहते हो कि मैं ऐसा करूँ, तो मुझे कल सुबह छह बजे जगा देना; वरना मुझे सात बजे तक सोने देना।” वे अक्सर इसी तरह से कार्य करते हैं, वे इसका अपने एक सिद्धांत के रूप में उपयोग करते हैं, इसका अभ्यास ऐसे करते हैं मानो यह सत्य हो। इसे घिनौनापन कहते हैं। अपने कार्यों में वे हमेशा भावनाओं पर भरोसा करते हैं, अलौकिक पर ध्यान केंद्रित करते हैं, सुनी-सुनाई बातों और अन्य अवास्तविक चीजों पर भरोसा करते हैं; वे लगातार अपनी ऊर्जा घिनौनी चीजों पर केंद्रित करते हैं। यह दुष्टता है। तुम उनके साथ चाहे जैसे सत्य की संगति कर लो, उन्हें लगता है कि सत्य का कोई उपयोग नहीं है, और वह उतना सटीक नहीं है जितना कि भावनाओं पर भरोसा करना या तुलना के माध्यम से सत्यापन करना। यह घिनौनापन है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर लोगों के भाग्य का संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और भले ही वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं, फिर भी वे अपने हृदय में सत्य नहीं स्वीकारते, वे चीजों को कभी परमेश्वर के वचनों के माध्यम से नहीं देखते। अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति कुछ कहता है, तो वे मान लेते हैं कि यह सत्य है और उससे सहमत हो जाते हैं। अगर कोई भाग्य बताने वाला या चेहरा पढ़ने वाला उन्हें बताता है कि वे अगले साल प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हो जाएँगे, तो वे उस पर विश्वास कर लेते हैं। क्या यह नीचता नहीं है? वे शकुन-विद्या, भविष्य-कथन और अलौकिक चीजों पर विश्वास करते हैं, और सिर्फ इन्हीं घिनौनी चीजों पर विश्वास करते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कुछ लोग कहते हैं, “मैं सभी सत्य समझता हूँ, बस मैं उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकता। पता नहीं, क्या समस्या है।” अब हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर है : वे घिनौने हैं। ऐसे लोगों के साथ तुम चाहे जैसे भी सत्य पर संगति कर लो, वह उन्हें समझ नहीं आएगा, न ही तुम्हें उसका कोई प्रभाव दिखेगा। ये लोग न सिर्फ सत्य से विमुख होते हैं, बल्कि इनमें दुष्ट स्वभाव भी है। सत्य से विमुख होने की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति क्या है? यह कि व्यक्ति सत्य को समझता है, पर उसे अमल में नहीं लाता। वह उसे सुनना नहीं चाहता, उसका प्रतिरोध करता है और उससे कुढ़ता है। वह जानता है कि सत्य सही और अच्छा है, पर उसे अमल में नहीं लाता, वह इस मार्ग को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता, न ही वह कष्ट सहना या कोई कीमत चुकाना चाहता है, कोई नुकसान उठाना तो दूर की बात है। दुष्ट लोग ऐसे नहीं होते। वे सोचते हैं कि दुष्ट चीजें सत्य हैं, कि यही सही मार्ग है, और वे इन चीजों के पीछे भागते हैं, उनका अनुकरण करने की कोशिश करते हैं और अपनी ऊर्जा लगातार उन्हीं पर केंद्रित करते हैं। परमेश्वर का घर अक्सर प्रार्थना के सिद्धांतों पर संगति करता है : लोग बिना समय की पाबंदी के जब और जहाँ चाहें, प्रार्थना कर सकते हैं, उन्हें बस परमेश्वर के सामने आकर अपने दिल की बात कहने और सत्य खोजने की जरूरत है। ये वचन बार-बार सुने और आसानी से समझे जाने चाहिए, लेकिन दुष्ट लोग इस पर कैसे अमल करते हैं? हर दिन भोर में चिड़ियों के चहचहाने के दौरान वे बिना नागा किए दक्षिण की ओर मुँह करते हैं, घुटनों के बल बैठकर दोनों हाथ जमीन पर रखते हुए परमेश्वर के सामने प्रार्थना में जितना हो सके, झुकते हैं। उन्हें लगता है कि सिर्फ ऐसे समय ही परमेश्वर उनकी प्रार्थना सुन पाएगा, क्योंकि यही समय होता है जब परमेश्वर व्यस्त नहीं होता, उसके पास समय होता है, इसलिए वह सुनता है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है? क्या यह दुष्टता नहीं है? कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि प्रार्थना करने का सबसे कारगर समय रात एक-दो बजे का होता है, जब सब-कुछ शांत होता है। वे ऐसा क्यों कहते हैं? उनके भी अपने कारण हैं। वे कहते हैं कि उस समय बाकी सब सो रहे होते हैं; परमेश्वर के पास उनके मामलों से निपटने के लिए सिर्फ तभी समय होता है, जब वह व्यस्त नहीं होता। क्या यह बेतुका नहीं है? क्या यह दुष्टता नहीं है? तुम उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे संगति कर लो, वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। वे सबसे बेतुके लोग हैं और सत्य समझने में अक्षम हैं। कुछ अन्य लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें अच्छे काम करने चाहिए और दयालु होना चाहिए, उन्हें जीव-हत्या कर मांस नहीं खाना चाहिए। मांस खाना जीव-हत्या है, पाप है और जो ऐसा करता है उसे परमेश्वर नहीं चाहता।” क्या इन बातों का कोई आधार है? क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ कहा है? (नहीं।) तो यह किसने कहा? यह एक बेहूदा किस्म के अविश्वासी ने कहा था। असल में जो लोग ऐसा कहते हैं, जरूरी नहीं कि वे मांस न खाते हों—या हो सकता है कि वे दूसरे लोगों के सामने मांस न खाते हों, पर अकेले में वे बहुत मांस खाते हैं। ये लोग ढोंग करने में उस्ताद हैं और जहाँ भी जाते हैं, भ्रांतियाँ फैलाते हैं। यह दुष्टता है। ऐसे लोग बहुत घिनौने होते हैं। वे इन पाखंडों और भ्रांतियों को आज्ञाएँ और विनियम मानते हैं, यहाँ तक कि वे इनका इस तरह अभ्यास करते और इनसे इस तरह चिपके रहते हैं मानो वे सत्य हों या परमेश्वर की माँगें हों, और पूरी ताकत और बेशर्मी से दूसरों को भी ऐसा करने की सीख देते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि इन लोगों के काम करने का तरीका, चीजों को कहने का तरीका और उनके अनुसरण के साधन दुष्टतापूर्ण होते हैं? (क्योंकि इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता।) तो क्या जिस किसी चीज का सत्य से संबंध नहीं होता, वह दुष्ट होती है? ऐसी समझ अत्यधिक समस्यात्मक है। लोगों के दैनिक जीवन में ऐसी चीजें भी होती हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता। यह कहना कि वे दुष्ट हैं, क्या तथ्यों को तोड़-मरोड़ नहीं देता? जिस किसी चीज की परमेश्वर निंदा नहीं करता, उसे दुष्ट नहीं कहा जा सकता, सिर्फ उसे ही दुष्ट कहा जा सकता है जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। सत्य से असंबद्ध हर चीज को दुष्ट के रूप में निरूपित करना एक बड़ी गलती होगी। उदाहरण के लिए, जीवन की जरूरतों के विवरण—जैसे खाना-पीना, सोना, आराम करना—क्या ये सत्य से जुड़े हैं? क्या ये चीजें दुष्ट हैं? ये सभी सामान्य जरूरतें हैं, ये लोगों की दिनचर्या का हिस्सा हैं, ये दुष्ट नहीं हैं। तो जिन कार्यों का मैंने अभी-अभी उल्लेख किया, उन्हें दुष्ट के रूप में क्यों वर्गीकृत किया गया? क्योंकि काम करने के ये तरीके लोगों को ऐसे रास्ते पर ले जाते हैं, जो गलत और हास्यास्पद हैं—वे उन्हें धर्म के रास्ते पर ले जाते हैं। उनका इस तरह से अभ्यास करना और दूसरों को ऐसा करने की शिक्षा देना लोगों को दुष्टता के रास्ते पर ले जाता है। यह अवश्यंभावी नतीजा है। जब लोग दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों को पूजकर दुष्टता के मार्ग पर चलते हैं, तो उनका क्या हश्र होता है? वे भ्रष्ट हो जाते हैं, विवेक खो देते हैं, उनमें कोई शर्म नहीं रहती, और अंततः वे पूरी तरह से सांसारिक प्रवृत्तियों के असर में आकर विनाश की ओर चल पड़ते हैं, जो अविश्वासियों से अलग नहीं है। कुछ लोग इन पाखंडों और भ्रांतियों को ऐसे विनियम या आज्ञाएँ तो मानते ही हैं जिनका अनुसरण या पालन किया जाना है, इन्हें सत्य भी मानते हैं। वे बेतुके व्यक्ति होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ का सर्वथा अभाव होता है। अंततः उन्हें सिर्फ निकाला ही जा सकता है। क्या पवित्र आत्मा किसी ऐसे व्यक्ति में कार्य कर सकता है, जिसकी सत्य की समझ इतनी विकृत हो? (नहीं।) इन लोगों में पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता, बल्कि दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं, क्योंकि जिस मार्ग पर ये लोग चलते हैं, वह दुष्टता का मार्ग है, वे तेजी से बुरी आत्माओं के मार्ग पर बढ़ रहे हैं—जो ठीक वही है जो ये बुरी आत्माएँ चाहती हैं। और इसका नतीजा क्या होता है? ये लोग बुरी आत्माओं के वश में हो जाते हैं। पहले मैंने कहा था कि “दानव और शैतान दहाड़ते शेरों की तरह चारों ओर घात लगाए घूम रहे हैं और लोगों को फाड़ खाने की तलाश में हैं।” जब लोग कुटिल और दुष्ट मार्ग पर चलते हैं, उन्हें दुष्ट आत्माएँ अनिवार्य रूप से छीन लेती हैं। परमेश्वर को तुम्हें बुरी आत्माओं को देने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारी रक्षा नहीं की जाएगी और परमेश्वर तुम्हारे साथ नहीं होगा। अगर परमेश्वर तुम्हें प्राप्त नहीं कर सकता तो वह तुम्हारी परवाह नहीं करेगा, और दुष्ट आत्माएँ इस अवसर का फायदा उठाकर तुम पर अधिकार कर लेंगी। यही दुष्परिणाम है, है न? वे सभी जो सत्य विमुख हैं और लगातार परमेश्वर के देहधारण के कार्य की निंदा करते हैं, जो सांसारिक प्रवृत्तियों के साथ चलते हैं, जो परमेश्वर के वचनों और बाइबल की खुल्लमखुल्ला गलत व्याख्या करते हैं, जो पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाते हैं—उनके ये सारे कृत्य दुष्ट स्वभावों से पैदा होते हैं। कुछ लोग आध्यात्मिकता का अनुसरण करते हैं, और चूँकि उनकी समझ विकृत होती है, इसलिए वे लोगों को गुमराह करने के लिए कई भ्रांतियाँ गढ़ते हैं, और वे आदर्शवादी और सिद्धांतकार बन जाते हैं, यह भी घिनौनापन है। वे दुष्ट लोग हैं। फरीसियों की तरह, उन्होंने जो कुछ भी किया वह पाखंड था, उन्होंने सत्य का अभ्यास नहीं किया और लोगों से आदर पाने और पूजे जाने के लिए उन्हें गुमराह किया। जब प्रभु यीशु कार्य करने के लिए प्रकट हुआ, तो उन्होंने उसे सूली पर भी चढ़ा दिया। यह दुष्टता थी और अंत में, परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। आज मजहबी दुनिया न सिर्फ परमेश्वर के प्रकटन और कार्य की आलोचना और निंदा करती है, बल्कि सबसे घिनौनी बात यह है कि वह बड़े लाल अजगर के पक्ष में भी खड़ी है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सताने में बुरी ताकतों के साथ भी जुड़ी है और परमेश्वर के शत्रु के रूप में उनके साथ खड़ी है। यह दुष्ट है। धार्मिक संसार ने शैतान की दुष्ट ताकतों से कभी घृणा नहीं की है, वह बड़े लाल अजगर के देश की दुष्टता से घृणा नहीं करता, बल्कि उसके लिए प्रार्थना करता है और उसे आशीष देता है। यह दुष्टता है। कोई भी व्यवहार, जो शैतान और दुष्ट आत्माओं से जुड़ा है या उनके साथ सहयोग कर रहा है, सामूहिक रूप से दुष्ट कहा जा सकता है। अभ्यास करने के जो तरीके सचमुच विकृत, बुरे, अतिवादी और असंयत हैं—वे दुष्ट भी हैं। कुछ लोग लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं, और ये गलतफहमियाँ दूर नहीं की जा सकतीं, चाहे उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति क्यों न कर ली जाए। वे हमेशा अपने ही तर्कों का प्रचार करते हैं, अपनी ही भ्रांतियों पर जोर देते हैं। और क्या इसमें भी थोड़ी-सी दुष्टता नहीं है? कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं; अपने साथ कई बार सत्य पर संगति किए जाने के बाद वे कहते हैं कि वे समझते हैं और उनकी धारणाएँ हल हो गई हैं, लेकिन वे फिर भी अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं, हमेशा नकारात्मक रहते हैं, और अपने बहानों से कसकर चिपके रहते हैं। यह दुष्टता है, है न? यह भी एक तरह की दुष्टता ही है। संक्षेप में कहें तो ऐसा हर इंसान घिनौना और कुछ हद तक दुष्ट है जिसने कुछ अनुचित किया है मगर जो सत्य पर चाहे जैसे संगति कर लें, अपनी गलती स्वीकारने से इनकार कर देता है। दुष्ट स्वभावों वाले इन लोगों का परमेश्वर द्वारा बचाया जाना आसान नहीं है क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकार सकते और अपनी दुष्ट भ्रांतियाँ छोड़ने से इनकार करते हैं; उनके लिए वास्तव में कुछ नहीं किया जा सकता।
हमने अभी-अभी कुल छह स्वभावों पर संगति की है : हठधर्मिता, अहंकार, कपट, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता। क्या इन छह स्वभावों के गहन-विश्लेषण ने तुम लोगों को स्वभाव में बदलावों के बारे में एक नया ज्ञान और समझ दी है? स्वभाव में बदलाव असल में क्या हैं? क्या इसका मतलब किसी खास दोष से छुटकारा पाना, किसी खास व्यवहार को सुधारना या किसी खास व्यक्तित्व को बदलना है? बिल्कुल नहीं। तो क्या तुम लोग अब इस बारे में थोड़ा और स्पष्ट हो गए हो कि स्वभाव का आशय क्या है? क्या इन छह स्वभावों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों, मनुष्य के प्रकृति सार के रूप में बताया जा सकता है? (हाँ।) ये छह स्वभाव सकारात्मक चीजें हैं या नकारात्मक? (नकारात्मक चीजें।) ये स्पष्ट रूप से भ्रष्ट स्वभाव हैं, ये मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के मुख्य पहलू हैं। इनमें से एक भी भ्रष्ट स्वभाव ऐसा नहीं है जो परमेश्वर और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण न हो, और इनमें से एक भी सकारात्मक नहीं है। इसलिए ये छह स्वभाव छह पहलू हैं जिन्हें सामूहिक रूप से भ्रष्ट स्वभाव कहा जाता है। भ्रष्ट स्वभाव मनुष्य का प्रकृति सार होते हैं। “सार” को कैसे समझाया जा सकता है? सार का आशय मनुष्य की प्रकृति से है। मनुष्य की प्रकृति का अर्थ उन चीजों से है जिन पर मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करता है, वे चीजें जो उसके जीने के तरीके को नियंत्रित करती हैं। लोग अपनी प्रकृति के अनुसार जीते हैं। तुम चाहे जो कुछ जीते हो, चाहे तुम्हारे लक्ष्य और दिशा कुछ भी हों, तुम जिन भी नियमों के अनुसार जीते हो, तुम्हारा प्रकृति सार नहीं बदलता—यह निर्विवाद तथ्य है। इसीलिए जब तुम्हारे पास सत्य नहीं होता और तुम इन भ्रष्ट स्वभावों के भरोसे जीते हो तो तुम जो कुछ भी जीते हो वह परमेश्वर के विरुद्ध, सत्य के विपरीत और परमेश्वर के इरादों के प्रतिकूल होता है। तुम्हें अब यह समझना चाहिए : अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते तो क्या वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) यह असंभव होगा। इसलिए अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते, तो क्या वे परमेश्वर के अनुरूप हो सकते हैं? (नहीं।) यह अत्यंत कठिन होगा। जब इन छह स्वभावों की बात आती है, तो वह चाहे कोई भी हो और तुममें जिस किसी हद तक अभिव्यक्त या प्रकट होता हो, अगर तुम इन भ्रष्ट स्वभावों की बाधाओं से मुक्त नहीं हो पाते, तो चाहे तुम्हारे कार्यों के मंसूबे या लक्ष्य कुछ भी हों, और चाहे तुम जानबूझकर कार्य कर रहे हो या नहीं, तुम जो कुछ भी करते हो उसकी प्रकृति अनिवार्य रूप से परमेश्वर के विरुद्ध होगी और परमेश्वर अनिवार्य रूप से उसकी निंदा करेगा—जो एक अत्यंत गंभीर दुष्परिणाम है। तो क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अंततः परमेश्वर से निंदा पाना चाहता है? (नहीं।) और चूँकि यह वह परिणाम नहीं है जिसकी लोग कामना करते हैं, इसलिए क्या करना उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है? उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार को जानना चाहिए, सत्य को समझना चाहिए, और फिर सत्य स्वीकारना चाहिए—धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके, परमेश्वर द्वारा उनके लिए इंतजाम की गई परिस्थितियों में इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग कर परमेश्वर और सत्य के साथ अनुरूपता प्राप्त करनी चाहिए। यह अपने स्वभाव में बदलावों का मार्ग है।
पहले, ऐसे लोग थे जो अपने स्वभाव बदलने को बहुत सरल और सीधा समझते थे। वे मानते थे कि “अगर मैं खुद को परमेश्वर विरोधी बातें या ऐसा कोई कृत्य न करने के लिए बाध्य करता हूँ जो कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करे या उसे बाधित करे, और अगर मेरे पास सही परिप्रेक्ष्य है, मेरा हृदय सही है, मैं थोड़ा और सत्य समझता हूँ, और ज्यादा प्रयास करता हूँ, ज्यादा कष्ट उठाता हूँ और ज्यादा कीमत चुकाता हूँ तो कुछ वर्षों के बाद मैं निश्चित रूप से अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम हो जाऊँगा।” क्या इन बातों में दम है? (नहीं।) उनकी गलती कहाँ है? (उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है।) अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का क्या उद्देश्य है? (उसे बदलना।) और इस बदलाव का क्या परिणाम होता है? सत्य प्राप्त करना। यह मापने के लिए कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं, यह देखना जरूरी है कि तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप हैं या सत्य के विरुद्ध, वे मानव-इच्छा से उपजे हैं या परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने से उपजे हैं। यह देखने के लिए कि तुम्हारा स्वभाव किस हद तक बदल चुका है, यह देखना जरूरी है कि क्या तुम आत्मचिंतन कर सकते हो, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो तो क्या तुम अपनी देह, मनसूबों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो, और ऐसा करते हुए क्या तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर सकते हो। सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने की तुम्हारी क्षमता की सीमा और क्या तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह से सत्य के मानकों के अनुरूप है, ये दो चीजें यह साबित करती हैं कि तुम्हारे स्वभाव में कितना बड़ा बदलाव आया है। यह आनुपातिक होता है। उदाहरण के लिए हठधर्मी स्वभाव को लो : शुरुआत में जब तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था, तब तुमने सत्य को नहीं समझा था, न ही तुम इस बात से अवगत थे कि तुममें हठधर्मी स्वभाव है, और जब तुमने सत्य सुना, तब तुमने मन-ही-मन सोचा, “सत्य हमेशा लोगों के दाग कैसे उजागर कर सकता है?” यह सुनकर तुम्हें लगा कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन अगर एक-दो साल बाद भी तुम उनमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लेते, किसी को नहीं स्वीकारते तो यह हठधर्मिता है, है न? अगर दो-तीन साल के बाद भी तुम इनमें से किसी को स्वीकार नहीं करते, अगर तुम्हारी आंतरिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता, और हालाँकि तुम अपना कर्तव्य निभाने में पीछे नहीं रहे, और तुमने बहुत-कुछ सहा है, तो भी तुम्हारी हठधर्मी मनोदशा बिल्कुल भी ठीक या जरा-सी भी कम नहीं हुई है, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में कोई बदलाव आया है? (नहीं।) तो फिर तुम क्यों इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो? तुम्हारे ऐसा करने का चाहे जो भी कारण हो, तुम आँख मूँदकर इधर-उधर भाग-दौड़ और काम कर रहे हो, क्योंकि तुमने इतनी भाग-दौड़ की है और इतना काम किया है और फिर भी तुम्हारे स्वभाव में जरा भी बदलाव नहीं आया है। फिर वह दिन आता है जब तुम अचानक मन-ही-मन सोचते हो, “ऐसा कैसे है कि मैं गवाही का एक शब्द भी नहीं बोल पा रहा हूँ? मेरा जीवन-स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला है।” इस समय तुम महसूस करते हो कि यह समस्या कितनी गंभीर है, और तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मैं वास्तव में विद्रोही और हठी हूँ! मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ! मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है! इसे परमेश्वर में आस्था कैसे कहा जा सकता है? मैं वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता आया हूँ, फिर भी मैं मनुष्य की छवि को नहीं जीता, न ही मेरा हृदय परमेश्वर के करीब है! मैं परमेश्वर के वचनों को भी गंभीरता से नहीं ले रहा हूँ; न ही कुछ गलत करते हुए मुझमें पश्चात्ताप का कोई भाव होता है और न ही पश्चात्ताप करने की प्रवृत्ति होती है—क्या यह हठधर्मिता नहीं है? क्या मैं विद्रोह का पुत्र नहीं हूँ?” तुम खुद को परेशान महसूस करते हो। और इसका क्या मतलब है कि तुम परेशान महसूस करते हो? इसका मतलब है कि तुम पश्चात्ताप करना चाहते हो। तुम अपनी हठधर्मिता और विद्रोह से अवगत हो। और इस समय तुम्हारा स्वभाव बदलने लगता है। अनजाने ही तुम्हारी चेतना के भीतर कुछ ऐसे विचार और इच्छाएँ होती हैं जिन्हें तुम बदलना चाहते हो, और अब तुम खुद को परमेश्वर के साथ गतिरोध की स्थिति में नहीं पाते। तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के साथ अपने संबंध सुधारना, अब उतने हठी न होना, अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने में सक्षम होना, उनका सत्य सिद्धांतों के रूप में अभ्यास करने में सक्षम होना चाहते हो—तुममें यह चेतना है। यह अच्छा है कि तुम इन चीजों के प्रति सचेत हो, पर क्या इसका मतलब यह है कि तुम तुरंत बदल पाओगे? (नहीं।) तुम्हें कई वर्षों के अनुभव से गुजरना होगा, उस दौरान तुम्हारे हृदय में पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट जागरूकता होगी, और तुममें एक सशक्त अपेक्षा होगी, और तुम अपने हृदय में सोचोगे, “यह सही नहीं है—मुझे अपना समय नष्ट करना बंद करना चाहिए। मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए, मुझे कुछ सही करना चाहिए। अतीत में मैं अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करता रहा हूँ, सिर्फ भोजन और वस्त्र जैसी भौतिक चीजों के बारे में सोचता रहा हूँ, और सिर्फ ख्याति और लाभ के पीछे भागता रहा हूँ। नतीजतन, मुझे सत्य बिल्कुल भी प्राप्त नहीं हुआ है। मुझे इसका पछतावा है और मुझे पश्चात्ताप करना चाहिए!” इस बिंदु पर तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर चलते हो। अगर लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं तो क्या यह उन्हें अपने स्वभाव में बदलावों के एक कदम करीब नहीं ले जाता? चाहे तुमने जितने भी समय परमेश्वर में विश्वास किया हो, अगर तुम अपना मैलापन महसूस कर सकते हो—कि तुम हमेशा बस अनायास बहते रहे हो, और कई वर्षों तक बस बहते रहने के बाद, तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, और तुम अभी भी अपने अंदर खोखलापन महसूस करते हो—और अगर तुम इससे असहज महसूस करते हो, और आत्मचिंतन शुरू कर देते हो, और तुम्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण न करना समय नष्ट करना है तब ऐसे समय तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के प्रोत्साहन के वचन मनुष्य के प्रति उसका प्रेम हैं, और तुम परमेश्वर के वचन न सुनने के लिए और जमीर और विवेक की इतनी कमी होने के कारण खुद से घृणा करोगे। तुम्हें पछतावा होगा, फिर तुम खुद को नए सिरे से संचालित कर वास्तव में परमेश्वर के सामने जीना चाहोगे और मन-ही-मन कहोगे, “मैं अब परमेश्वर को चोट नहीं पहुँचा सकता। परमेश्वर ने बहुत-कुछ बोला है, और उसका प्रत्येक वचन मनुष्य के लिए लाभकारी और उसे सही राह दिखाने वाला है। परमेश्वर बहुत प्यारा और मनुष्य के प्रेम के बहुत योग्य है!” यह लोगों में परिवर्तन की शुरुआत है। यह समझ होना कितनी अच्छी बात है! अगर तुम इतने जड़ हो कि ये चीजें भी नहीं जानते, तो तुम संकट में हो, है न? आज लोग महसूस करते हैं कि परमेश्वर में आस्था की कुंजी परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना है, कि सत्य को समझना सबसे महत्वपूर्ण है, कि सत्य को समझकर खुद को जानना महत्वपूर्ण है, और सिर्फ सत्य का अभ्यास करने और सत्य को अपनी वास्तविकता बनाने में सक्षम होना ही परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग में प्रवेश करना है। तो तुम लोगों के हिसाब से अपने हृदय में यह ज्ञान होने और भावना आने के लिए तुम्हारे पास कितने वर्षों का अनुभव होना चाहिए? जो लोग चतुर हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि है, जिनमें परमेश्वर के लिए एक तीव्र इच्छा है—ऐसे लोग एक-दो साल में खुद को पूरी तरह बदलने और प्रवेश शुरू करने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन जो लोग भ्रमित हैं, जो जड़ और मंदबुद्धि हैं, जिनमें अंतर्दृष्टि की कमी है—वे तीन या पाँच साल हैरान रहकर गुजारेंगे और इस बात से अनजान रहेंगे कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है। अगर वे उत्साह के साथ अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो वे दस साल से ज्यादा समय तक भ्रमित रह सकते हैं और फिर भी कोई स्पष्ट लाभ नहीं उठा सकते या अपनी अनुभवात्मक गवाहियों पर बोलने में सक्षम नहीं हो सकते। जब उन्हें दूर भेजा जाता है या निकाला जाता है, तभी वे अंततः जागकर मन-ही-मन सोच पाते हैं, “मेरे पास वास्तव में कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। मैं वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं रहा हूँ!” क्या इस बिंदु पर उनका जागरण थोड़ी देर से नहीं हुआ है? कुछ लोग भ्रमित होकर धीरे-धीरे बहते जाते हैं, सदा परमेश्वर के दिन के आने की आशा करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते। नतीजतन, दस साल से ज्यादा समय बीत जाता है और उन्हें कोई लाभ नहीं होता या वे कोई गवाही साझा नहीं कर पाते। जब उनकी कठोरता से काट-छाँट की जाती है और उन्हें चेतावनी दी जाती है, तब कहीं उन्हें अंततः महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन उनके हृदय को भेदते हैं। उनका हृदय कितना हठी है! उनकी काट-छाँट न किया जाना और उन्हें दंडित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें कठोरता से अनुशासित न किया जाना कैसे ठीक है? उन्हें जागरूक करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, ताकि वे प्रतिक्रिया दें? जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे इतने हठी होते हैं कि जब तक अपनी दुर्गति नहीं देख लेते, एक आँसू तक नहीं बहाते। जब वे बहुत ज्यादा शैतानी और बुरे काम कर चुके होते हैं, तभी उन्हें एहसास हो पाता है और वे मन-ही-मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म हो गई है? क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या मुझे शाप दे दिया गया है?” वे चिंतन करने लगते हैं। जब वे नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के ये तमाम वर्ष व्यर्थ चले गए, वे आक्रोश से भर जाते हैं और खुद को निराश समझकर हार मान लेते हैं। लेकिन जब वे होश में आते हैं, तो उन्हें एहसास होता है कि “क्या मैं सिर्फ खुद को चोट नहीं पहुँचा रहा हूँ? मुझे फिर से सँभलना चाहिए। मुझसे कहा गया था कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता। मुझसे ऐसा क्यों कहा गया था? मैं कैसे सत्य से प्रेम नहीं करता? अफसोस! न केवल मैं सत्य से प्रेम नहीं करता, बल्कि उन सत्यों को अमल में भी नहीं ला सकता, जिन्हें मैं समझता हूँ! यह सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्ति है!” यह सोचकर उन्हें कुछ ग्लानि होती है और कुछ डर भी लगता है : “अगर मैं ऐसे ही करता रहा, तो निश्चित रूप से मुझे दंड दिया जाएगा। नहीं, मुझे जल्दी से पश्चात्ताप करना चाहिए—परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए।” इस समय क्या उनकी हठधर्मिता का स्तर कम हो गया है? मानो उनके दिल में सुई चुभ गई हो; वे कुछ महसूस करते हैं। और जब तुम्हें यह एहसास होता है, तो तुम्हारा हृदय द्रवित हो जाता है और तुम सत्य में रुचि लेने लगते हो। तुम्हें यह रुचि क्यों होती है? क्योंकि तुम्हें सत्य की जरूरत है। तुम्हारे पास सत्य नहीं होगा तो अपनी काट-छाँट होने पर तुम इसके प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे या सत्य नहीं स्वीकार पाओगे और परीक्षणों का सामना होने पर तुम अडिग नहीं रह पाओगे। अगर तुम अगुआ बनते हो तो क्या तुम नकली अगुआ बनने और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से बच पाओगे? तुम नहीं बच पाओगे। क्या तुम रुतबा और दूसरों से प्रशंसा पाने पर काबू पा सकते हो? क्या तुम अपने लिए इंतजाम की गई परिस्थितियों या प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर सकते हो? तुम खुद को बहुत अच्छी तरह जानते-समझते हो, और तुम कहोगे, “अगर मैं सत्य को नहीं समझता, तो मैं इन सब पर काबू नहीं पा सकता—मैं कचरा हूँ, मैं कुछ भी करने में सक्षम नहीं हूँ।” यह कैसी मानसिकता है? यह सच की जरूरत होना है। जब तुम जरूरतमंद होते हो, जब तुम सबसे ज्यादा असहाय होते हो तो तुम सिर्फ सत्य पर निर्भर होना चाहोगे। तुम्हें लगेगा कि किसी और पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता और सिर्फ सत्य पर निर्भर रहना ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान कर सकता है, और तुम्हें काट-छाँट, परीक्षणों और प्रलोभनों से पार पाने दे सकता है, और किसी भी स्थिति से पार पाने में मदद कर सकता है। और तुम सत्य पर जितना ज्यादा निर्भर होगे, उतना ही ज्यादा तुम महसूस करोगे कि सत्य अच्छा है, उपयोगी है और तुम्हारे लिए सबसे बड़ी मदद है और वह तुम्हारी तमाम कठिनाइयाँ हल कर सकता है। इस समय तुममें सत्य के लिए ललक होगी। जब लोग इस बिंदु पर पहुँचते हैं तो क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव घटने या धीरे-धीरे बदलने लगता है? जब लोग सत्य को समझने और स्वीकारने लगते हैं, तब से उनका चीजों को देखने का तरीका बदलने लगता है, जिसके बाद उनके स्वभाव भी बदलने लगते हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया है। शुरुआती चरणों में लोग ये छोटे बदलाव महसूस नहीं कर पाते; लेकिन जब वे सच में सत्य समझ जाते हैं और उसका अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं तो सारगत बदलाव होने लगते हैं और वे ऐसे बदलावों को महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं। जिस मुकाम से लोगों में सत्य की लालसा और सत्य पाने की भूख जागने लगती है और वे सत्य खोजना चाहते हैं, उस मुकाम तक पहुँचने में जब उनके साथ कुछ होता है और सत्य की अपनी समझ के आधार पर वे सत्य को अमल में लाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम होते हैं, और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करते, अपने इरादों पर काबू पाने में सक्षम होते हैं, अपने अहंकारी, विद्रोही, हठधर्मी और विश्वासघाती हृदय पर विजय प्राप्त करते हैं, तब क्या थोड़ा-थोड़ा करके सत्य उनका जीवन नहीं बन जाता? और जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तो तुम्हारे भीतर के अहंकारी, विद्रोही, हठी और विश्वासघाती स्वभाव तुम्हारा जीवन नहीं रह जाते और वे तुम्हें और नियंत्रित नहीं कर सकते। और इस समय तुम्हारे आचरण का मार्गदर्शन कौन करता है? परमेश्वर के वचन। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाते हैं तो क्या कोई बदलाव आता है? (बिल्कुल।) और बाद में तुम जितना ज्यादा बदलते हो, चीजें उतनी ही बेहतर होती जाती हैं। यही वह प्रक्रिया है जिससे लोगों के स्वभाव बदलते हैं, और यह परिणाम हासिल करने में लंबा समय लगता है।
स्वभाव में बदलाव आने में कितना समय लगता है, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है; इसके लिए कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है तो उसके स्वभाव में बदलाव सात, आठ या दस वर्षों में दिखाई देंगे। अगर वे औसत काबिलियत वाले हैं और सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक भी हैं तो उनके स्वभाव में बदलाव दिखने में लगभग पंद्रह-बीस साल लग सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है सत्य का अनुसरण करने का व्यक्ति का संकल्प और उसमें कितनी अंतर्दृष्टि है, ये निर्धारक कारक हैं। हर तरह का भ्रष्ट स्वभाव हर व्यक्ति में अलग-अलग मात्रा में मौजूद है, ये सभी मनुष्य की प्रकृति हैं और ये सभी गहराई तक जड़ें जमाए हुए हैं। लेकिन सत्य का अनुसरण और अभ्यास करके और परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षण और शोधन स्वीकार करके हर स्वभाव में अलग-अलग मात्रा में बदलाव प्राप्त किया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर ऐसा है तो क्या स्वभाव में बदलाव सिर्फ समय का फेर नहीं हैं? जब समय आएगा तो मैं जान जाऊँगा कि स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं और मैं प्रवेश करने में सक्षम हो जाऊँगा।” क्या यही मामला है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। अगर स्वभाव में बदलाव प्राप्त करने के लिए समय ही सब कुछ होता तो जिन्होंने अपने पूरे जीवन परमेश्वर में विश्वास किया है, उन सभी लोगों को सामान्य रूप से अपने स्वभाव में बदलाव ले आना चाहिए था। लेकिन क्या वास्तव में चीजें ऐसी ही हैं? क्या इन लोगों ने सत्य प्राप्त कर लिया है? क्या वे अपने स्वभाव में बदलाव ला पाए हैं? वे बदलाव नहीं ला पाए हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग तो बैल के शरीर के बालों के समान असंख्य हैं, लेकिन जिनके स्वभाव बदल गए हैं, वे एक सींग वाले घोड़े यूनिकॉर्न की तरह दुर्लभ हैं। अपने स्वभावों में वास्तव में बदलाव लाने के लिए लोगों को सत्य के अनुसरण पर भरोसा करना चाहिए; उन्हें पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करने पर पूर्ण बनाया जाता है। स्वभाव में बदलाव सत्य का अनुसरण करने से लाए जाते हैं। एक ओर लोगों को कीमत चुकानी चाहिए, जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है तो उन्हें कीमत चुकानी चाहिए और सत्य प्राप्त करने के लिए स्वेच्छा से कितना भी कष्ट सहना चाहिए। इसके अलावा पवित्र आत्मा के कार्य करने और पूर्ण बनाए जाने के लिए लोगों को परमेश्वर द्वारा सही तरह के व्यक्ति, दयालु व्यक्ति और ऐसे व्यक्ति के रूप में मान्य किया जाना चाहिए जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है। लोगों का सहयोग अपरिहार्य है लेकिन पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना और भी महत्वपूर्ण है। अगर लोग सत्य का अनुसरण या उससे प्रेम नहीं करते, अगर वे कभी परमेश्वर के इरादों की परवाह करना नहीं जानते, परमेश्वर से प्रेम करना तो बिल्कुल भी नहीं जानते, अगर उनमें कलीसिया के कार्य के प्रति दायित्व की भावना नहीं है, और दूसरों के प्रति कोई प्रेम नहीं है—और अगर खासकर अपना कर्तव्य निभाते समय उनमें कोई लगन नहीं है—तो वे परमेश्वर के प्रिय नहीं हैं और परमेश्वर उन्हें कभी पूर्ण नहीं बना सकता। इसलिए लोगों को आँखें बंद करके नियम लागू नहीं करने चाहिए, बल्कि परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे या करे, उन्हें समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए उनके हृदय सही होने चाहिए, सिर्फ तभी पवित्र आत्मा कार्य कर सकता है। अगर लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने का अनुसरण करने की इच्छा रखते हैं, तो उनके पास ऐसा हृदय होना चाहिए जो परमेश्वर से प्रेम करता हो, ऐसा हृदय जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो, ऐसा हृदय जो परमेश्वर का भय मानता हो, और अपना कर्तव्य निभाते समय उन्हें परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्टि प्रदान करनी चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकेंगे। जब लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य होता है तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए वे प्रबुद्ध हो जाते हैं, उनके पास अपने कर्तव्य के निर्वाह में सत्य और सिद्धांतों का अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, जब वे संकट में होते हैं तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता है, और चाहे वे कितने भी पीड़ित हों, उनका हृदय प्रफुल्लित और शांत होता है। जब वे इस तरह दस-बीस वर्षों तक पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से गुजरते हैं, तो अनजाने ही वे बदल जाते हैं। जितनी जल्दी बदलाव, उतनी ही जल्दी शांति; जितनी जल्दी बदलाव, उतनी ही जल्दी वे खुश हो सकते हैं। जब लोगों का स्वभाव बदलता है, तभी वे सच्ची शांति और आनंद पा सकते हैं, सिर्फ तभी वे वास्तव में सुखी जीवन जी सकते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास कोई आध्यात्मिक शांति या आनंद नहीं होता, उनके दिन पहले से ज्यादा खाली और ज्यादा असह्य हो जाते हैं। जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके दिन दर्द और पीड़ा से भरे होते हैं। और इसलिए जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो सत्य प्राप्त करने से बढ़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता। सत्य को प्राप्त करना जीवन प्राप्त करना है, और सत्य को जितनी जल्दी प्राप्त कर लिया जाए, उतना ही अच्छा है। सत्य के बिना लोगों का जीवन खोखला है। सत्य प्राप्त करना शांति और आनंद प्राप्त करना है, परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होने, पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होने और उसकी अगुआई प्राप्त करने के लिए उनके हृदय में ज्यादा से ज्यादा प्रकाश होगा, और परमेश्वर में उनकी आस्था निरंतर बढ़ती जाएगी। तो क्या अब, स्वभाव में बदलावों से संबंधित सत्य तुम लोगों को ज्यादा स्पष्ट है? (हाँ, अब हम समझ गए हैं।) अगर यह वाकई तुम्हें स्पष्ट है, तो तुम्हारे पास एक मार्ग है और तुम जानते हो कि सत्य का अनुसरण करने में कैसे प्रभावी होना है।
28 अप्रैल 2017
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