छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग दो)
आगे, आओ चौथे प्रकार के स्वभाव के बारे में बात करते हैं। सभाओं के दौरान कुछ लोग अपनी अवस्थाओं पर थोड़ी संगति कर सकते हैं, लेकिन जब मुद्दों के सार की बात आती है, उनके निजी मंसूबों और विचारों की बात आती है, तो वे टालमटोल करने लगते हैं। जब लोग उन्हें निजी मंसूबे और लक्ष्य वाले व्यक्ति के रूप में उजागर करते हैं, तो वे सिर हिलाकर इसे स्वीकारते दिखाई देते हैं। लेकिन जब लोग किसी चीज को गहराई से उजागर करने या उसका गहन-विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, तो वे इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते और उठकर चले जाते हैं। क्यों निर्णायक क्षण में वे खिसक लेते हैं? (वे सत्य नहीं स्वीकारते और अपनी समस्याओं का सामना करने को तैयार नहीं होते।) यह स्वभाव की समस्या है। जब वे अपने भीतर की समस्याएँ हल करने के लिए सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे सत्य से विमुख रहते हैं? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता किस तरह के उपदेश सुनने को बहुत कम तैयार होते हैं? (मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं को कैसे पहचानें विषय पर उपदेश।) सही कहा। वे सोचते हैं, “मसीह-विरोधियों, नकली अगुआओं और फरीसियों की पहचान करने के बारे में ये तमाम बातें—तुम इस बारे में इतना कुछ क्यों कहते रहते हो? तुम मुझे तनावग्रस्त कर रहे हो।” यह सुनकर कि नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचानने की बात होगी, वे जाने का कोई बहाना ढूँढ़ लेते हैं। यहाँ “जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ खिसकने, छिपने से है। वे छिपने की कोशिश क्यों करते हैं? जब दूसरे लोग तथ्यात्मक बात करते हैं, तो तुम्हें सुनना चाहिए : सुनना तुम्हारे लिए अच्छा है। जो चीजें कठोर हों या जिन्हें स्वीकारना कठिन लगे, उन्हें लिख लो; फिर तुम्हें उन चीजों पर अक्सर सोचना चाहिए, उन्हें धीरे-धीरे समझना चाहिए और धीरे-धीरे बदलना चाहिए। तो फिर छिपना क्यों है? ऐसे लोगों को लगता है कि ये न्याय के शब्द बहुत कठोर हैं और इन्हें सुनना आसान नहीं, इसलिए उनके भीतर प्रतिरोध और विद्वेष विकसित हो जाता है। वे मन ही मन कहते हैं, “मैं कोई मसीह-विरोधी या नकली अगुआ नहीं हूँ—मेरे बारे में क्यों बोलते रहते हो? दूसरे लोगों के बारे में बात क्यों नहीं करते? बुरे लोगों को पहचानने के बारे में कुछ कहो, मेरे बारे में बात मत करो!” वे टालमटोल करने वाले और विरोधी हो जाते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? अगर वे सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं होते और हमेशा अपने बचाव में तर्क-वितर्क और बहस करते हैं, तो क्या यहाँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्या नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में ऐसी मनोदशा होती है, तो साधारण भाई-बहनों का क्या? (उनमें भी होती है।) जब सब पहली बार मिलते हैं, तो वे सभी बहुत स्नेही होते हैं और शब्द और धर्म-सिद्धांत रट कर बहुत खुश होते हैं। वे सभी सत्य से प्रेम करते प्रतीत होते हैं। लेकिन जब व्यक्तिगत समस्याओं और वास्तविक कठिनाइयों की बात आती है तो बहुत सारे लोग चुप्पी ओढ़ लेते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग लगातार शादी से विवश रहते हैं। वे कर्तव्य निभाने या सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं रहते और उनके लिए शादी सबसे बड़ी बाधा और सबसे बड़ा बोझ बन जाती है। सभाओं में जब सभी इस मनोदशा पर संगति कर रहे होते हैं, तो वे दूसरों की संगति के शब्दों से अपनी तुलना कर महसूस करते हैं कि जैसे उन्हीं के बारे में बात हो रही है। वे कहते हैं, “तुम लोगों के सत्य पर संगति करने से मुझे कोई समस्या नहीं है लेकिन मेरी बात क्यों करते हो? क्या तुम लोगों की अपनी कोई समस्या नहीं है? मेरे ही बारे में बात क्यों करते हो?” यह कौन-सा स्वभाव है? जब तुम सत्य की संगति करने के लिए एकत्र होते हो तो तुम्हें वास्तविक मुद्दों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए और हरेक को इन समस्याओं पर अपनी समझ बताने देनी चाहिए; सिर्फ तभी तुम खुद को जान पाते हो और अपनी समस्याएँ हल कर पाते हो। लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? यह कौन-सा स्वभाव है, जब लोग अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं और सत्य नहीं स्वीकार पाते? क्या तुम्हें इसका भेद स्पष्ट रूप से नहीं पहचानना चाहिए? ये सभी सत्य से विमुख होने की अभिव्यक्तियाँ हैं—यही समस्या का सार है। जब लोग सत्य से विमुख होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है—और अगर वे सत्य नहीं स्वीकार पाते तो क्या उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक की जा सकती है? (नहीं।) तो इस तरह का व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकारने में अक्षम है—क्या वह सत्य प्राप्त करने में सक्षम है? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं। क्या सत्य न स्वीकारने वाले लोग परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करते हैं? बिल्कुल नहीं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनका सबसे महत्वपूर्ण पहलू सत्य स्वीकारने में सक्षम होना है। जो लोग सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास बिल्कुल नहीं करते। क्या ऐसे लोग उपदेश के दौरान शांत बैठने में सक्षम होते हैं? क्या वे कुछ हासिल करने में सक्षम होते हैं? वे नहीं हो सकते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उपदेश लोगों की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाएँ उजागर करते हैं। परमेश्वर के वचनों के गहन-विश्लेषण से लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर अभ्यास के सिद्धांतों पर संगति करते हुए उन्हें अभ्यास का मार्ग दिया जाता है, और इस तरह एक परिणाम प्राप्त होता है। जब ऐसे लोग यह सुनते हैं कि जो मनोदशा उजागर की जा रही है, वह उनसे संबंधित है—कि वह उन्हीं की समस्याओं से संबंधित है—तो उनकी शर्म उन्हें गुस्से से भर देती है और वे उठकर सभा छोड़कर भी जा सकते हैं। अगर वे नहीं भी जाते तो भी उन्हें अंदर से चिढ़ महसूस हो सकती है और बुरा लग सकता है, ऐसे में उनके सभा में शामिल होने या उपदेश सुनने का कोई मतलब नहीं रह जाता। क्या उपदेश सुनने का उद्देश्य सत्य को समझना और अपनी वास्तविक समस्याएँ हल करना नहीं है? अगर तुम हमेशा अपनी समस्याएँ उजागर होने से डरते हो, अगर तुम लगातार अपना जिक्र होने से डरते हो तो परमेश्वर पर विश्वास ही क्यों करते हो? अगर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकार सकते तो तुम सचमुच परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा उजागर किए जाने से डरते हो तो अपनी भ्रष्टता की समस्या कैसे हल कर पाओगे? अगर तुम अपनी भ्रष्टता की समस्या हल नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? परमेश्वर में आस्था का उद्देश्य परमेश्वर से उद्धार स्वीकारना, अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देना और एक सच्चे इंसान के समान जीना है और ये सब सत्य स्वीकारने के माध्यम से हासिल किए जाते हैं। अगर तुम सत्य को या अपनी काट-छाँट या खुद को उजागर किया जाना भी बिल्कुल नहीं स्वीकार सकते, तो तुम्हारे पास परमेश्वर से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं बचता। तो तुम्हीं बताओ : हर कलीसिया में ऐसे कितने लोग हैं जो सत्य स्वीकार सकते हैं? जो सत्य नहीं स्वीकार सकते, वे बहुत हैं या थोड़े? (बहुत।) क्या यह ऐसी स्थिति है जो कलीसियाओं में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच वास्तव में मौजूद है, क्या यह एक वास्तविक समस्या है? जो सत्य स्वीकारने और अपनी काट-छाँट स्वीकारने में असमर्थ हैं, ऐसे सभी लोग सत्य से विमुख रहते हैं। सत्य-विमुख होना एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है और अगर इसे बदला न जा सके तो क्या उन्हें बचाया जा सकता है? हरगिज नहीं। आज कई लोगों को सत्य स्वीकारने में कठिनाई होती है। यह कतई आसान नहीं है। इसे हल करने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का कुछ अनुभव करना होगा। तो तुम लोग क्या कहते हो : जब लोग अपनी काट-छाँट नहीं स्वीकार पाते, जब वे अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से या उपदेशों के दौरान उजागर की जाने वाली अवस्थाओं से नहीं करते तो यह कैसा स्वभाव है? (सत्य से विमुख होने का स्वभाव।) यही चौथा भ्रष्ट स्वभाव है : सत्य से विमुख होना। वे किस तरह विमुख रहते हैं? (वे परमेश्वर के वचन पढ़ना या उपदेश सुनना नहीं चाहते और सत्य की संगति नहीं करना चाहते।) ये सबसे स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई यह कहता है कि “तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुमने कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और करियर को दरकिनार कर पिछले कई वर्षों में बहुत-कुछ सहा और काफी कीमत चुकाई है। परमेश्वर ऐसे लोगों को आशीष देता है। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, उन्हें बहुत आशीष मिलेंगे” तो तब तुम आमीन कहते हो और ऐसे सत्य स्वीकार लेते हो। लेकिन जब वह व्यक्ति आगे कहता है, “लेकिन तुम्हें सत्य के लिए प्रयास करते रहना चाहिए! अगर लोगों के हर काम के पीछे अपनी मंशाएँ होंगी और वे हमेशा अपने इरादों के अनुसार अनियंत्रित व्यवहार करेंगे तो वे देर-सवेर परमेश्वर को नाराज कर देंगे और उसकी घृणा झेलेंगे” तो इस तरह की बातें सुनकर तुम इन्हें नहीं स्वीकार सकते। सत्य पर संगति सुनकर तुम इसे स्वीकारने में असमर्थ तो रहते ही हो, क्रोधित भी हो जाते हो और मन-ही-मन करारा जवाब देते हो : “तुम लोग सारा दिन सत्य पर संगति करने में बिता देते हो लेकिन मैंने तुममें से किसी को स्वर्ग जाते नहीं देखा है।” यह कौन-सा स्वभाव है? (सत्य से विमुख होना।) जब बात अभ्यास में बदलती है, जब लोग तुम्हारे साथ गंभीर हो जाते हैं, तो तुममें अत्यधिक घृणा, अधीरता और प्रतिरोध प्रदर्शित होता है। यह सत्य से विमुख होना है। और सत्य से विमुख होने का इस तरह का स्वभाव मुख्य रूप से कैसे प्रकट होता है? अपनी काट-छाँट न स्वीकारने के रूप में। अपनी काट-छाँट न स्वीकारना इस प्रकार के स्वभाव से अभिव्यक्त होने वाली एक तरह की मनोदशा है। अपनी काट-छाँट होने पर ये लोग मन ही मन विशेष रूप से प्रतिरोधी होते हैं। वे सोचते हैं, “मैं यह नहीं सुनना चाहता! नहीं सुनना चाहता!” या “दूसरे लोगों की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे ही काट-छाँट के लिए क्यों चुना?” सत्य से विमुख होने का क्या अर्थ है? सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब कोई व्यक्ति किसी भी सकारात्मक चीज में, सत्य में, परमेश्वर जो अपेक्षा करता है उसमें या परमेश्वर के इरादों से जुड़ी किसी भी चीज में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखता। कभी-कभी उसे इन चीजों से घृणा होती है, कभी-कभी वह उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज कर देता है, कभी-कभी वह इनके प्रति अनादर और उदासीनता का रवैया अपनाता है और उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, उनके साथ लापरवाही और उपेक्षापूर्ण व्यवहार करता है; या वह उनके साथ ऐसे रवैये से निपटता है जो पूरी तरह से जिम्मेदारी से रहित होता है। सत्य से विमुख रहने की मुख्य अभिव्यक्ति बस यही नहीं होती है कि लोग सत्य सुनने पर इससे प्रतिकर्षित होते हैं। इसमें सत्य का अभ्यास के प्रति अनिच्छा और सत्य के अभ्यास का समय आने पर पीछे हटना भी शामिल है, मानो सत्य का उससे कोई लेना-देना न हो। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे दूसरों को गुमराह कर उनका दिल जीतने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत दोहराना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद करते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो वे ऊर्जा से भरे हुए और उत्साहित प्रतीत होते हैं और लगातार बोलते रहते हैं। इस बीच दूसरे लोग सुबह से रात तक पूरा दिन आस्था से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते रहते हैं, प्रार्थना करते रहते हैं, भजन सुनते रहते हैं, नोट्स लेते रहते हैं, मानो वे पल-भर के लिए भी परमेश्वर से अलग न रह सकते हों। सुबह से शाम तक वे अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं। क्या ये लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं? क्या इनमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं होता? उनकी वास्तविक अवस्था कब देखी जा सकती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे भाग जाते हैं, और वे काट-छाँट स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) क्या ऐसा इसलिए हो सकता है कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं उसे समझ नहीं पाते या इसलिए कि चूँकि वे सत्य नहीं समझते इसलिए वे उसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते? उत्तर इनमें से कोई नहीं है। वे अपनी प्रकृति से संचालित होते हैं। यह स्वभाव की समस्या है। अपने दिल में ये लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे सकारात्मक हैं, कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभावों में बदलाव आ सकता है और वह उन्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम बना सकता है, लेकिन वे उन्हें स्वीकारते नहीं या उनका अभ्यास नहीं करते। यही सत्य से विमुख होना है। तुम लोगों ने किनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव देखा है? (छद्म-विश्वासियों में।) छद्म-विश्वासी सत्य से विमुख रहते हैं, यह बहुत स्पष्ट है। परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं है। तो परमेश्वर के विश्वासियों में तुम लोगों ने किन मामलों में लोगों को सत्य से विमुख होते हुए देखा है? हो सकता है जब तुमने उनके साथ सत्य पर संगति की हो तो वे उठकर चले न गए हों और जब संगति ने उनकी अपनी कठिनाइयों और समस्याओं को छुआ हो तो उन्होंने उनका सही ढंग से सामना किया हो—और फिर भी उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव हो। इसे कहाँ देखा जा सकता है? (वे अक्सर उपदेश सुनते हैं, लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं लाते।) जो लोग सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, उनमें निर्विवाद रूप से सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है। कुछ लोग कभी-कभार सत्य का थोड़ा-सा अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं तो क्या उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव होता है? ऐसा स्वभाव उन लोगों में भी पाया जाता है जो अलग-अलग मात्रा में सत्य का अभ्यास करते हैं। तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का मतलब यह नहीं कि तुममें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है। सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारा जीवन-स्वभाव तुरंत बदल गया है—ऐसा नहीं है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करना चाहिए, अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव लाने का यही एकमात्र तरीका है। एक बार सत्य का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि अब तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं रहा। तुम एक क्षेत्र में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो लेकिन जरूरी नहीं कि तुम अन्य क्षेत्रों में भी सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो। इससे जुड़े संदर्भ और कारण अलग-अलग हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्ट स्वभाव मौजूद है, यही समस्या की जड़ है। इसलिए जब व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है तो सत्य का अभ्यास करने में आड़े आने वाली उसकी तमाम कठिनाइयाँ, बहाने और हीले-हवाले—ये तमाम समस्याएँ ठीक हो जाती हैं और उसका समस्त विद्रोहीपन, त्रुटियाँ और दोष दूर हो जाते हैं। अगर लोगों के स्वभाव नहीं बदलते, तो उन्हें सत्य का अभ्यास करने में हमेशा कठिनाई होगी और वे हमेशा बहाने बनाएँगे और हीले-हवाले करेंगे। अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और हर चीज में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहते हो तो पहले तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आना चाहिए। तभी तुम समस्याओं का जड़ से समाधान कर पाओगे।
सत्य से विमुख रहने का स्वभाव मुख्य रूप से किसके संदर्भ में है? आओ, पहले एक प्रकार की मनोदशा पर चर्चा करते हैं। कुछ लोगों को उपदेश सुनने में गहरी दिलचस्पी होती है, और जितना ज्यादा वे सत्य पर संगति सुनते हैं, उनका हृदय उतना ही उज्ज्वल होता है और वे उतने ही ज्यादा प्रफुल्लित होते हैं। उनमें सकारात्मक और सक्रिय रवैया आ जाता है। क्या यह साबित करता है कि उनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है? (नहीं।) उदाहरण के लिए, परमेश्वर में आस्था के बारे में सुनकर सात-आठ साल के कुछ बच्चों की रुचि जाग जाती है और वे हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अपने माता-पिता के साथ सभाओं में जाते हैं तो कुछ लोग कहने लगते हैं, “इस बच्चे में सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है, यह बहुत चतुर है, यह परमेश्वर में विश्वास करने के लिए ही पैदा हुआ है, इसे परमेश्वर ने चुना है।” हो सकता है उसे परमेश्वर ने चुना हो, लेकिन ये शब्द सिर्फ आधे ही सही हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे अभी छोटे हैं और उनके अनुसरण की दिशा और जीवन में उनके लक्ष्यों ने अभी आकार नहीं लिया है। जब जीवन और समाज के बारे में उनके नजरियों ने अभी आकार नहीं लिया है तो कहा जा सकता है कि उनकी बाल-आत्माएँ सकारात्मक चीजों से प्रेम करती हैं, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उनमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं है। मैं यह क्यों कहता हूँ? इसलिए कि वे छोटे हैं। उनकी मानवता अभी अपरिपक्व है, उनके पास अनुभव की कमी है, उनका क्षितिज सीमित है और वे बिल्कुल भी नहीं समझते कि सत्य क्या है। उन्हें सकारात्मक चीजों से बस थोड़ा-सा लगाव होता है। तुम यह नहीं कह सकते कि वे सत्य से प्रेम करते हैं, और यह तो बिल्कुल भी नहीं कह सकते कि उनके पास सत्य वास्तविकता है। और तो और, बच्चों के पास कोई अनुभव भी नहीं होता, इसलिए कोई भी यह नहीं देख सकता कि उनके हृदय में क्या छिपा है, उनका प्रकृति सार किस तरह का है। सिर्फ इसलिए कि वे परमेश्वर में आस्था रखने और उपदेश सुनने में रुचि रखते हैं, लोग यह तय मान लेते हैं कि वे सत्य से प्रेम करते हैं—जो कि अज्ञानता और मूर्खता की अभिव्यक्ति है, क्योंकि बच्चों को यह ज्ञान नहीं होता कि सत्य क्या है, इसलिए कोई इस मामले का जिक्र तक नहीं कर सकता कि वे सत्य को पसंद करते हैं या सत्य विमुख होते हैं। सत्य से विमुख होना मुख्य रूप से सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति रुचि की कमी और घृणा को दर्शाता है। सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब लोग सत्य को समझने और यह जानने में तो सक्षम होते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं, फिर भी वे सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिरोधी, लापरवाह, नापसंद, टालमटोल और उदासीन रवैये और मनोदशा के साथ पेश आते हैं। यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। क्या इस तरह का स्वभाव हर किसी में होता है? कुछ लोग कहते हैं, “भले ही मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, फिर भी मैं उन्हें पसंद या स्वीकार नहीं करता या कम-से-कम मैं उन्हें अभी नहीं स्वीकार सकता।” यहाँ क्या मामला है? यह सत्य विमुख होना है। उनके अंदर का स्वभाव उन्हें सत्य नहीं स्वीकारने देता। सत्य न स्वीकारने की कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सभी सत्य समझता हूँ, बस मैं उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकता।” इससे पता चलता है कि यह व्यक्ति सत्य से विमुख है और सत्य से प्रेम नहीं करता, इसलिए यह किसी भी सत्य को अमल में नहीं ला सकता। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा इतना पैसा कमाने में सक्षम होना एक ऐसी बात है जिस पर परमेश्वर संप्रभुता रखता है। परमेश्वर ने मुझे सचमुच आशीष दिया है, परमेश्वर ने मेरे साथ बहुत अच्छा किया है, परमेश्वर ने मुझे बहुत धन-दौलत दी है। मेरा पूरा परिवार अच्छा पहनता-खाता है, उसे न तो कपड़े-लत्तों की कमी है और न खाने-पीने की।” खुद को परमेश्वर का आशीष मिला देख ये लोग अपने हृदय में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, वे जानते हैं कि यह सब परमेश्वर द्वारा संचालित था, और अगर उन्हें परमेश्वर का आशीष न मिला होता—अगर वे अपनी प्रतिभा के ही भरोसे रहते—तो उन्होंने निश्चित रूप से यह सब पैसा न कमाया होता। वे वास्तव में अपने हृदय में यही सोचते हैं, वे वास्तव में यही जानते हैं और वास्तव में परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है, जब उनका व्यवसाय विफल हो जाता है, जब वे मुश्किल दौर में होते हैं और गरीबी का शिकार हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे आराम में लिप्त हो जाते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते कि अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाया जाए, और वे अपना पूरा समय धन-दौलत के पीछे भागते हुए धन के गुलाम बनकर बिताते हैं, जो उनके कर्तव्य निर्वहन पर असर डालता है, इसलिए परमेश्वर उनसे यह छीन लेता है। अपने दिल में वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें बहुत आशीष दिया है, और उन्हें इतना कुछ दिया है, फिर भी उनमें परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने की कोई इच्छा नहीं होती, वे बाहर जाकर अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते, वे बुजदिल होते हैं और लगातार गिरफ्तारी से भयभीत रहते हैं, ये तमाम धन-दौलत और सुख-सुविधाएँ खोने से डरते हैं, नतीजतन परमेश्वर उनसे ये चीजें छीन लेता है। उनका हृदय दर्पण की तरह साफ है, वे जानते हैं कि परमेश्वर ने उनसे ये चीजें ले ली हैं, और परमेश्वर उन्हें अनुशासित कर रहा है, इसलिए वे प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर! तुमने मुझे एक बार आशीष दिया था, तो तुम मुझे दूसरी बार भी आशीष दे सकते हो। तुम्हारा अस्तित्व शाश्वत है, इसलिए तुम्हारे आशीष भी मनुष्य के साथ हैं। मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ! चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हारे आशीष और वादा नहीं बदलेगा। अगर तुम मुझसे ले भी लेते हो, तब भी मैं समर्पण करूँगा।” लेकिन जब वे “समर्पण” शब्द बोलते हैं तो विश्वास की कमी होती है। वे कहते हैं कि वे समर्पण कर सकते हैं, लेकिन बाद में वे इस बारे में सोचते हैं और उन्हें कुछ स्वीकार्य नहीं लगता : “चीजें कितनी अच्छी हुआ करती थीं। परमेश्वर ने यह सब क्यों छीन लिया? क्या घर पर रहकर अपना कर्तव्य निभाना वैसा ही नहीं था, जैसा कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाना? मैं किस चीज में देरी कर रहा था?” वे हमेशा अतीत को याद करते रहते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति एक तरह की शिकायत और असंतोष रहता है और वे लगातार उदास रहते हैं। क्या परमेश्वर अभी भी उनके हृदय में होता है? उनके दिल में पैसा, भौतिक सुख-सुविधाएँ और वह अच्छा समय ही रहता है। परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं रहता, वह अब उनका परमेश्वर नहीं रहता। भले ही वे जानते हैं कि “परमेश्वर ने दिया और परमेश्वर ने ले लिया” सत्य है, फिर भी वे “परमेश्वर ने दिया” शब्दों को पसंद करते हैं और “परमेश्वर ने ले लिया” शब्दों से विमुख रहते हैं। स्पष्ट रूप से, सत्य की उनकी स्वीकृति चयनात्मक है। जब परमेश्वर उन्हें आशीष देता है, तब तो वे इसे सत्य के रूप में स्वीकारते हैं—लेकिन जैसे ही परमेश्वर उनसे लेता है, वे इसे नहीं स्वीकार पाते। वे परमेश्वर की ऐसी संप्रभुता नहीं स्वीकार पाते, इसके बजाय वे विरोध करते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। जब उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाता है तो वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर मुझे आशीष देगा और मुझ पर अनुग्रह करेगा, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा। परमेश्वर के आशीषों के बिना और अपने परिवार के ऐसी गरीबी की हालत में रहते हुए मैं अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँ? मैं नहीं निभाना चाहता!” यह कौन-सा स्वभाव है? भले ही अपने हृदय में वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के आशीषों का और इस बात का अनुभव करते हैं कि कैसे उसने उन्हें इतना कुछ दिया, लेकिन जब परमेश्वर उनसे ले लेता है तो वे इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं होते। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे पैसा और अपना आरामदायक जीवन नहीं छोड़ सकते। भले ही उन्होंने इसके बारे में कोई खास हो-हल्ला न किया हो, भले ही परमेश्वर के सामने हाथ न पसारा हो और भले ही उन्होंने अपने प्रयासों पर भरोसा करके अपनी पिछली संपत्तियाँ वापस लेने की कोशिश न की हो, पर वे परमेश्वर के कार्यों से पहले ही निराश हो चुके होते हैं, वे स्वीकारने में पूरी तरह अक्षम होकर कहते हैं, “परमेश्वर इस तरह से कार्य करे, यह वास्तव में बेरुखी है। यह समझ से परे की बात है। मैं कैसे परमेश्वर में विश्वास करता रहूँ? मैं अब यह नहीं मानना चाहता कि वह परमेश्वर है। अगर मैं यह नहीं मानता कि वह परमेश्वर है तो वह परमेश्वर नहीं है।” क्या यह एक तरह का स्वभाव है? (बिल्कुल।) इस तरह का स्वभाव शैतान का होता है, शैतान इसी तरह से परमेश्वर को नकारता है। इस तरह का स्वभाव सत्य से विमुख होने और सत्य से घृणा करने का होता है। जब लोग सत्य से इस हद तक विमुख होते हैं तो यह उन्हें कहाँ ले जाता है? यह उनसे परमेश्वर का विरोध करवाता है और यह उनसे हठपूर्वक अंत तक परमेश्वर का विरोध करवाता है—जिसका अर्थ है कि उनके लिए सब-कुछ खत्म हो गया है।
भला सत्य-विमुख स्वभाव की प्रकृति क्या होती है? जो लोग सत्य से विमुख होते हैं, वे सकारात्मक चीजों से या किसी भी ऐसी चीज से प्रेम नहीं करते जो परमेश्वर करता है। उदाहरण के लिए, अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर के न्याय के कार्य को ही ले लो : कोई भी इस कार्य को स्वीकारना नहीं चाहता। कुछ ही लोग परमेश्वर द्वारा लोगों को उजागर करने, लोगों की निंदा करने, लोगों को ताड़ना देने, लोगों का परीक्षण करने, लोगों का शोधन करने, लोगों को ताड़ित करने और लोगों को अनुशासित करने के बारे में उपदेश सुनने को तैयार रहते हैं, फिर भी वे परमेश्वर द्वारा लोगों को आशीष देने, लोगों को प्रोत्साहित करने और लोगों के लिए उसके वादों के बारे में सुनकर खुश होते हैं—कोई भी इन चीजों को अस्वीकार नहीं करता। यह अनुग्रह के युग की तरह है, जब परमेश्वर ने मनुष्य को क्षमा करने, माफ करने, आशीष देने और अनुग्रह प्रदान करने का कार्य किया, जब उसने बीमारों को चंगा किया और दुष्टात्माओं को निकाला, और लोगों से वादे किए—लोग वह सब स्वीकारने के लिए तैयार थे, उन सभी ने यीशु के मनुष्य के प्रति अत्यधिक प्रेम के लिए उसकी प्रशंसा की। लेकिन अब जब राज्य का युग आ गया है और परमेश्वर न्याय का कार्य करता है और बहुत-से सत्य व्यक्त करता है, तो कोई परवाह नहीं करता। परमेश्वर लोगों को चाहे कैसे भी उजागर कर उनका न्याय करे, वे उसे स्वीकारते नहीं, यहाँ तक कि मन ही मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता?” अगर उनकी काट-छाँट की जाती है, उन्हें ताड़ना दी जाती है या अनुशासित किया जाता है तो वे और भी धारणाएँ बना लेते हैं और मन ही मन कहते हैं, “यह परमेश्वर का प्रेम कैसे है? ये न्याय और निंदा के शब्द बिल्कुल भी प्यार नहीं हैं, मैं इन्हें नहीं स्वीकारता। मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। सत्य सुनकर कुछ लोग कहते हैं, “कैसा सत्य? यह सिर्फ एक सिद्धांत है। यह बहुत महान, बहुत शक्तिशाली, बहुत पवित्र लगता है—लेकिन ये सिर्फ सुहावने शब्द हैं।” क्या यह सत्य से विमुख रहने का स्वभाव नहीं है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। क्या तुम लोगों में इस तरह का स्वभाव है? (हाँ, है।) अभी मैंने किस मनोदशा का उल्लेख किया, जिसके तुम लोग सबसे ज्यादा शिकार हो सकते हो, जिसे तुम लोग सबसे ज्यादा देखते हो और जिसे सबसे ज्यादा गहराई से समझते हो? (अपना कर्तव्य निभाते समय कठिनाई का सामना न करना चाहना, परमेश्वर के हाथों न्याय होने और ताड़ना पाने की इच्छा न रखना, सब-कुछ आराम से चलते रहने की कामना करना।) परमेश्वर की संप्रभुता को नकारना, परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना को नकारना, स्पष्ट रूप से यह जानकर भी कि इसमें परमेश्वर अच्छा कर रहा है अपने हृदय में प्रतिरोध करना : यह एक तरह की अभिव्यक्ति है। और क्या है? (अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी रहने पर खुश होना और प्रभावी न रहने पर नकारात्मक, कमजोर और सक्रिय रूप से सहयोग करने में असमर्थ होना।) यह किस तरह की अभिव्यक्ति है? (हठधर्मिता की।) तुम्हें इस बारे में सटीक होना चाहिए। भ्रमित मत हो और आँखें मूँदकर नियम लागू मत करो। कभी-कभी लोगों की मनोदशाएँ अत्यधिक जटिल होती हैं; वे सिर्फ एक ही तरह की नहीं होतीं, बल्कि दो या तीन मिलीजुली मनोदशाएँ होती हैं। तो फिर तुम इसे कैसे निरूपित करते हो? कभी-कभी एक स्वभाव दो मनोदशाओं में प्रकट होगा तो कभी-कभी तीन मनोदशाओं में, लेकिन इनके अलग-अलग होने के बावजूद अंत में ये सभी एक ही तरह के स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। तुम्हें सत्य से विमुख रहने के इस स्वभाव को समझना चाहिए, और तुम लोगों को जाँच करनी चाहिए कि सत्य से विमुख रहने की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं। इस तरह, तुम इस सत्य विमुख स्वभाव को वास्तव में समझ पाओगे। तुम सत्य से विमुख हो। तुम अच्छी तरह जानते हो कि कोई चीज सही है—उसका परमेश्वर के वचन या सत्य सिद्धांत होना जरूरी नहीं, कभी-कभी यह सकारात्मक चीज, सही चीज, सही शब्द, सही सुझाव होता है—फिर भी तुम कहते हो, “यह सत्य नहीं है, ये सिर्फ सही शब्द हैं। मैं इन्हें सुनना नहीं चाहता—मैं लोगों की बातें नहीं सुनता!” यह कौन-सा स्वभाव है? इसमें अहंकार, हठधर्मिता और सत्य-विमुखता है—इस तरह के तमाम स्वभाव मौजूद हैं। हर तरह का स्वभाव कई तरह की मनोदशाएँ उत्पन्न कर सकता है। एक मनोदशा कई अलग-अलग स्वभावों से संबंधित हो सकती है। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि ये मनोदशाएँ किस तरह के स्वभावों से उत्पन्न होती हैं। इस तरह तुम विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव पहचानने लगोगे।
अभी हमने जिन चार प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में संगति की है, उनमें से कोई भी एक स्वभाव लोगों को मौत की सजा देने के लिए पर्याप्त है—क्या ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण है? (नहीं।) लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कैसे घटित होते हैं? वे सभी शैतान से आते हैं। लोग शैतान, दानवों और प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से निकलने वाले तमाम पाखंडों और भ्रांतियों से ओतप्रोत हो जाते हैं और इस तरह ये तमाम भ्रष्ट स्वभाव उत्पन्न होते हैं। ये स्वभाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक? (नकारात्मक।) तुम किस आधार पर कहते हो कि वे नकारात्मक हैं? (सत्य के आधार पर।) चूँकि ये स्वभाव सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और वे परमेश्वर के स्वभाव और जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है उसका शत्रुतापूर्ण विरोध करते हैं, इसलिए अगर इनमें से एक भ्रष्ट स्वभाव भी लोगों में पाया जाता है तो वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले इंसान बन जाते हैं। अगर इन चारों में से हर स्वभाव व्यक्ति के भीतर पाया जाए तो यह परेशानी की बात है, वह परमेश्वर का शत्रु बन जाता है और उनका परिणाम निश्चित मृत्यु का है। चाहे जो भी स्वभाव हो, अगर तुम उसे सत्य के तराजू पर तोलो, तो तुम देखोगे कि अभिव्यक्त होने वाला प्रत्येक सार परमेश्वर के विरुद्ध, परमेश्वर के प्रतिरोध में और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। इसलिए अगर तुम्हारे स्वभाव नहीं बदलते तो फिर तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं होगे, तुम सत्य से घृणा करोगे और तुम परमेश्वर के शत्रु होगे।
अब हम पाँचवीं तरह के स्वभाव के बारे में बात करते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ और तुम लोग यह पता लगाने की कोशिश कर सकते हो कि यह किस तरह का स्वभाव है। कल्पना करो कि दो लोग बात कर रहे हैं, और उनमें से एक कुछ ज्यादा ही मुँहफट है, जिससे दूसरा व्यक्ति नाराज हो जाता है। वह अपने मन में सोचता है कि “तुम मेरे स्वाभिमान को इतनी चोट क्यों पहुँचा रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि मैं अपने साथ किसी को दुर्व्यवहार करने दूँगा?” और इसलिए उसके भीतर घृणा पैदा हो जाती है। देखा जाए तो इस समस्या को हल करना आसान है। अगर एक व्यक्ति किसी दूसरे को चोट पहुँचाने वाली कोई बात कह दे लेकिन फिर उससे माफी माँग ले तो मामला खत्म हो जाएगा। लेकिन अगर नाराज पक्ष इस मामले को भुला न पाए और मानता हो कि “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या” तो यह कैसा स्वभाव है? (दुर्भावना।) सही कहा—यह दुर्भावना है, और यह एक क्रूर स्वभाव वाला व्यक्ति है। कलीसिया में कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है क्योंकि वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते। व्यक्ति की काट-छाँट करने में अक्सर उस व्यक्ति को फटकार लगाना और शायद डाँटना भी शामिल रहता है। इससे तय है कि वे परेशान होकर बहाने ढूँढ़ेंगे और पलटकर जवाब देना चाहेंगे। वे इस तरह की बातें कहते हैं, “हालाँकि तुमने सही बातें कहकर मेरी काट-छाँट की लेकिन तुम्हारी कुछ बातें बहुत ही आपत्तिजनक थीं, तुमने मुझे अपमानित किया और मेरी भावनाओं को ठेस पहुँचाई। मैंने इन तमाम वर्षों में परमेश्वर में विश्वास किया है। भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल नहीं की, लेकिन मैंने कठिनाई सहन की है। मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कैसे किया जा सकता है? तुम किसी और की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे यह मंजूर नहीं, न ही मैं इसे सहता हूँ!” यह एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव है, है न? (हाँ।) यह भ्रष्ट स्वभाव सिर्फ शिकायतों, अवज्ञा और विरोध के माध्यम से प्रकट हो रहा है, लेकिन यह अभी अपने चरम पर नहीं पहुँचा है, अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुँचा है, हालाँकि यह पहले से ही कुछ संकेत दे रहा है, और यह पहले से ही उस बिंदु पर पहुँचना शुरू कर चुका है जहाँ से इसमें विस्फोट होने वाला है। इसके शीघ्र बाद उनका क्या रुख होता है? वे समर्पित नहीं रह पाते, चिड़चिड़े और विद्रोही होकर द्वेषपूर्वक पेश आने लगते हैं। वे पलटकर बहस करना और खुद को सही ठहराना शुरू कर देते हैं : “जब अगुआ और कार्यकर्ता लोगों की काट-छाँट करते हैं तो वे हमेशा सही नहीं होते। तुम सब लोग इसे स्वीकार सकते हो, लेकिन मैं नहीं। तुम लोग इसे इसलिए स्वीकार सकते हो, क्योंकि तुम लोग मूर्ख और डरपोक हो। मैं इसे नहीं स्वीकारता! चलो इस पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि कौन सही या गलत है।” तब लोग उनके साथ यह कहते हुए संगति करते हैं, “सही हो या गलत, पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए वह है आज्ञापालन। क्या यह संभव है कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में जरा भी दाग न लगा हो? क्या तुम हर चीज ठीक करते हो? अगर तुम हर चीज ठीक भी करते हो, तो भी तुम्हारी काट-छाँट तुम्हारे लिए मददगार है! हमने तुम्हारे साथ कई बार सिद्धांतों पर संगति की लेकिन तुमने उसे कभी नहीं सुना और बिना विचारे अपनी मर्जी से काम करते रहे जिससे कलीसिया के काम में बाधाएँ आईं और बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ, तो फिर तुम कैसे अपनी काट-छाँट का सामना नहीं कर सकते? हो सकता है कि शब्द कठोर हों और इन्हें सुनना कठिन हो लेकिन यह सामान्य बात है, है न? तो तुम किस बारे में बहस कर रहे हो? क्या दूसरों को तुम्हारी काट-छाँट करने दिए बिना तुम्हें बस बुरे काम करने देना चाहिए?” लेकिन क्या यह सुनने के बाद वे अपनी काट-छाँट होना स्वीकार पाएँगे? वे नहीं स्वीकार पाएँगे। वे बस पलटकर बहस और प्रतिरोध करते रहेंगे। उन्होंने कौन-सा स्वभाव प्रकट किया? शैतानी; यह एक क्रूर स्वभाव है। उनका वास्तव में क्या मतलब था? “मैं लोगों द्वारा परेशान किया जाना बर्दाश्त नहीं करता। कोई मुझे नुकसान पहुँचाने की कोशिश न करे। अगर यह दिखा दूँ कि मुझसे उलझना आसान नहीं है, तो तुम भविष्य में मेरी काट-छाँट करने की हिम्मत नहीं करोगे। क्या मैं तब जीत नहीं जाऊँगा?” इसके बारे में क्या खयाल है? स्वभाव उजागर हो गया है, है न? यह एक क्रूर स्वभाव है। क्रूर स्वभाव वाले लोग न सिर्फ सत्य से विमुख रहते हैं—वे सत्य से घृणा भी करते हैं! जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे या तो भागने की कोशिश करते हैं या इसे नजरअंदाज कर देते हैं—अपने दिलों में वे बेहद शत्रुतापूर्ण होते हैं। यह सिर्फ उनके पलटकर बहस करने का मामला नहीं है। उनका यह रवैया बिल्कुल नहीं होता। वे अड़ियल और प्रतिरोधी होते हैं, वे किसी चुड़ैल की तरह लड़ाई शुरू करने की कोशिश भी करते हैं। वे अपने दिल में सोचते हैं, “मैं समझता हूँ कि तुम मुझे अपमानित करने की कोशिश कर रहे हो और जानबूझकर मुझे शर्मिंदा कर रहे हो, और भले ही तुम्हारे सामने तुम्हारा विरोध करने की मेरी हिम्मत नहीं होती, लेकिन मुझे बदला लेने का मौका मिल ही जाएगा! तुम्हें लगता है कि तुम बस मेरी काट-छाँट कर मुझे धौंस दे सकते हो? मैं सबको अपनी तरफ कर तुम्हें अलग-थलग कर दूँगा और फिर तुम्हें इसका स्वाद चखाऊँगा कि दुर्व्यवहार होने पर कैसा लगता है!” वे अपने दिल में यही सोचते हैं; उनका क्रूर स्वभाव अंततः प्रकट हो जाता है। अपने लक्ष्य हासिल करने और अपनी भड़ास निकालने की खातिर वे अपनी पूरी ताकत से पलटकर बहस करते हैं, ताकि वे खुद को सही ठहरा सकें और सभी को अपने पक्ष में कर सकें। तभी वे खुश और शांत होते हैं। यह दुर्भावनापूर्ण है, है न? यह एक क्रूर स्वभाव है। जब तक उनकी काट-छाँट नहीं होती, तब तक ऐसे लोग छोटे मेमनों के समान होते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है या जब उनका वास्तविक स्वरूप उजागर किया जाता है, तो वे तुरंत मेमने से भेड़िये में बदल जाते हैं और उनका भेड़ियापन बाहर आ जाता है। यह एक क्रूर स्वभाव है, है न? (हाँ।) तो यह अधिकांश समय दिखाई क्यों नहीं देता? (उन्हें उकसाया नहीं गया होता।) यह सही है, उन्हें उकसाया नहीं गया है और उनके हित खतरे में नहीं पड़े हैं। यह ऐसा ही है, जैसे भेड़िया जब भूखा नहीं होता तो तुम्हें नहीं खाता—तब क्या तुम कह सकते हो कि वह भेड़िया नहीं है? अगर तुम उसे भेड़िया कहने के लिए उसके तुम्हें खाने की कोशिश करने तक इंतजार करोगे, तो बहुत देर हो चुकी होगी, है न? यहाँ तक कि जब वह तुम्हें खाने की कोशिश नहीं करता, तब भी तुम्हें हर समय सतर्क रहना होता है। भेड़िया तुम्हें नहीं खा रहा, इसका मतलब यह नहीं कि वह तुम्हें खाना नहीं चाहता, सिर्फ इतना है कि अभी उसके खाने का समय नहीं हुआ है—और जब समय आ जाता है, तो उसकी भेड़िया-प्रकृति हमला कर देती है। काट-छाँट हर तरह के इंसान को प्रकट कर देती है। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “सिर्फ मेरी ही काट-छाँट क्यों की जा रही है? क्यों हमेशा मुझे ही चुना जाता है? क्या वे मुझे एक आसान निशाना समझते हैं? मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हूँ जिससे तुम पंगा ले सकते हो!” यह कौन-सा स्वभाव है? अकेले वे ही ऐसे इंसान कैसे हो सकते हैं जिनकी काट-छाँट की जाती हो? चीजें असल में इस तरह नहीं होतीं। तुम लोगों में से किसकी काट-छाँट नहीं की गई है? तुम सबकी काट-छाँट की गई है। कभी-कभी अगुआ और कार्यकर्ता अपने काम में स्वच्छंद और लापरवाह होते हैं या फिर वे उसे कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार पूरा नहीं करते—और उनमें से अधिकांश की काट-छाँट की जाती है। यह कलीसिया के कार्य की रक्षा करने और लोगों को मनमाने ढंग से काम करने से रोकने के लिए किया जाता है। यह किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाने के लिए नहीं किया जाता। उन्होंने जो कहा, वह स्पष्ट रूप से तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना है और यह एक क्रूर स्वभाव का एक प्रकटीकरण भी है।
क्रूर स्वभाव और किन तरीकों से अभिव्यक्त होता है? यह सत्य से विमुख होने से कैसे संबंधित है? वास्तव में, जब सत्य से विमुख होने की प्रवृत्ति प्रतिरोध और आलोचना के लक्षणों के साथ गंभीर रूप से अभिव्यक्त होता है तो वह एक क्रूर स्वभाव को प्रकट करती है। सत्य से विमुख होने में सत्य में रुचि की कमी से लेकर सत्य से विमुख होने तक कई दशाएँ शामिल होती हैं और यह परमेश्वर की आलोचना और निंदा करने की ओर बढ़ती जाती है। जब सत्य से विमुख होना एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाता है तो लोगों के परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर से घृणा करने और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना होती है। ये तमाम मनोदशाएँ एक क्रूर स्वभाव हैं, है न? (बिल्कुल।) इसलिए जो लोग सत्य से विमुख रहते हैं, उनकी और भी गंभीर मनोदशा होती है और इसी में एक तरह का स्वभाव छिपा होता है : क्रूर स्वभाव। उदाहरण के लिए, कुछ लोग यह तो स्वीकारते हैं कि सब-कुछ परमेश्वर द्वारा शासित है, लेकिन जब परमेश्वर उनसे कुछ ले लेता है और उनके हितों का नुकसान होता है, तो वे बाहर से तो शिकायत या विरोध नहीं करते लेकिन भीतर से उनमें स्वीकृति या समर्पण नहीं होता। उनका रवैया निष्क्रिय होकर बैठने और विनाश की प्रतीक्षा करने का होता है—जो स्पष्ट रूप से सत्य से विमुख होने की मनोदशा है। एक और दशा और भी गंभीर होती है : वे निष्क्रिय रूप से बैठकर विनाश की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का विरोध करते हैं, और परमेश्वर के उनसे चीजें ले लेने का प्रतिरोध करते हैं। वे कैसे प्रतिरोध करते हैं? (कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी डालकर उसे बाधित करके या फिर चीजों को नष्ट करके अपना राज्य स्थापित करने की कोशिश करके।) यह एक रूप है। कुछ कलीसिया अगुआओं को जब बरखास्त कर दिया जाता है तो वे कलीसियाई जीवन जीते हुए हमेशा चीजों में गड़बड़ी कर कलीसिया को परेशान करते हैं, वे नए चुने गए अगुआओं की हर बात का विरोध और उनकी अवज्ञा करते हैं, और उनकी पीठ पीछे उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक क्रूर स्वभाव है। वे वास्तव में यह सोचते हैं, “अगर मैं अगुआ नहीं बन सकता, तो कोई और भी इस पद पर नहीं रह सकता, मैं उन सभी को भगा दूँगा! अगर मैं तुम्हें बाहर कर दूँ तो मैं पहले की तरह प्रभारी बन जाऊँगा!” यह सिर्फ सत्य से विमुख रहना नहीं है, यह क्रूरता है! रुतबा पाने के लिए पैंतरे चलना, अधिकार क्षेत्र के लिए पैंतरे चलना, व्यक्तिगत हितों और प्रतिष्ठा के लिए पैंतरे चलना, बदला लेने के लिए कुछ भी करना, अपना सारा हुनर झोंककर वह सब करना जो व्यक्ति कर सकता है, अपने लक्ष्य सिद्ध करने, अपनी प्रतिष्ठा, अभिमान और रुतबा बचाने या बदला लेने की इच्छा पूरी करने के लिए हर हथकंडा अपनाना—ये सब क्रूरता की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्रूर स्वभाव के कुछ व्यवहारों में बहुत-कुछ ऐसा कहना शामिल होता है, जो गड़बड़ी करने और विघ्न पैदा करने वाला होता है; कुछ व्यवहारों में अपना लक्ष्य सिद्ध करने के लिए कई बुरे काम करना शामिल होता है। चाहे कथनी हो या करनी, ऐसे लोग जो कुछ भी करते हैं वह सत्य के विपरीत होता है और सत्य का उल्लंघन करता है, और यह सब क्रूर स्वभाव का प्रकटीकरण है। कुछ लोग इन चीजों का भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं। अगर गलत बोली या व्यवहार स्पष्ट न हो, तो वे उसकी असलियत नहीं समझ सकते हैं। लेकिन सत्य को समझने वाले लोगों की नजरों में वह सब कुछ बुरा होता है जो बुरे लोग कहते और करते हैं, और इसमें कभी कुछ भी सही या सत्य के अनुरूप नहीं हो सकता; इन लोगों की ये बातें और काम 100 प्रतिशत बुरे कहे जा सकते हैं और वे पूरी तरह से क्रूर स्वभाव का प्रकटीकरण होते हैं। यह क्रूर स्वभाव प्रकट करने से पहले दुष्ट लोगों की कौन-सी प्रेरणाएँ होती हैं? वे किस तरह के लक्ष्य सिद्ध करने की कोशिश कर रहे होते हैं? वे ऐसी चीजें कैसे कर सकते हैं? क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। कुछ लोगों के घरों में कुछ हो जाता है। इन घरों को बड़ा लाल अजगर निगरानी में रख देता है और वे लोग वापस घर नहीं जा सकते, जिससे उन्हें बहुत पीड़ा होती है। कुछ भाई-बहन उन्हें आश्रय देते हैं और यह देखकर कि इन मेजबान घरों में सब-कुछ कितना अच्छा है, वह मन-ही-मन सोचते हैं, “तुम्हारे घर को कुछ कैसे नहीं हुआ? यह मेरे घर कैसे हुआ? यह न्यायसंगत नहीं है। यह नहीं चलेगा, तुम्हारे घर में भी कुछ हो जाए, मुझे इसका कोई तरीका सोचना होगा, ताकि तुम भी अपने घर न आ पाओ। मैं तुम्हें उसी कष्ट का अनुभव कराऊँगा, जो मैंने झेला है।” वे चाहे कुछ करें या न करें, उनकी सोच हकीकत में बदले या न बदले, उनका लक्ष्य पूरा हो या न हो, फिर भी उनकी ऐसी ही मंशा होती है। यह एक तरह का स्वभाव है, है न? (बिल्कुल।) अगर वे अच्छा जीवन नहीं जी सकते, तो वे अन्य लोगों को भी अच्छा जीवन नहीं जीने देते। इस तरह के स्वभाव की प्रकृति क्या होती है? (दुर्भावना से भरा।) एक क्रूर स्वभाव—ये लोग पाजी हैं! जैसी कि कहावत है, वे अंदर तक सड़े हुए हैं। इससे पता चलता है कि वे कितने क्रूर हैं। ऐसे स्वभाव की प्रकृति क्या होती है? जब उनमें यह स्वभाव प्रकट होता है तो यह गहन-विश्लेषण करो कि उनकी प्रेरणाएँ, इरादे और लक्ष्य क्या होते हैं? यह स्वभाव प्रकट करने का शुरुआती बिंदु क्या है? वे क्या हासिल करना चाहते हैं? उनके घरों में कुछ हुआ था और इन मेजबान घरों में उनका अच्छा भरण-पोषण किया जा रहा था—तो वे इस घर में गड़बड़ी क्यों करना चाहेंगे? क्या वे सिर्फ तभी खुश होते हैं जब वह अपने मेजबानों के लिए भी चीजें गड़बड़ कर दें, ताकि उन मेजबान घरों में भी कुछ हो जाए और उनके मेजबान अपने घर वापस न जा सकें? उन्हें तो अपनी खातिर भी इन स्थानों की रक्षा करनी चाहिए, इनके साथ कुछ होने से रोकना चाहिए और अपने मेजबानों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए, क्योंकि उन्हें नुकसान पहुँचाना खुद को नुकसान पहुँचाने के समान है। तो वास्तव में ऐसा करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? (जब उनके लिए चीजें ठीक नहीं चल रही होतीं तो वे नहीं चाहते कि चीजें किसी और के लिए भी अच्छी हों।) इसे क्रूरता कहा जाता है। वे यह सोचते हैं, “मेरा घर बड़े लाल अजगर ने नष्ट कर दिया है और अब मेरे पास घर नहीं है। लेकिन आश्रय लेने के लिए तुम्हारे पास अभी भी एक अच्छा घर है। यह न्यायसंगत नहीं है। मुझे तुम्हारा घर वापस जा पाना सख्त नापसंद है। मैं तुम्हें सबक सिखाने जा रहा हूँ। मैं कुछ ऐसा कर दूँगा जिससे तुम घर न लौट सको और मेरी तरह बेघर हो जाओ। इससे चीजें निष्पक्ष लगेंगी।” क्या ऐसा करना दुर्भावनापूर्ण और बदनीयती नहीं है? यह कैसी प्रकृति है? (क्रूर प्रकृति।) दुष्ट लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसके पीछे कोई लक्ष्य सिद्ध करना होता है। वे आम तौर पर किस तरह की चीजें करते हैं? वे कौन-सी सबसे आम चीजें हैं जो क्रूर स्वभाव वाले लोग करते हैं? (वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालते हैं और उसे तहस-नहस करते हैं।) (वे लोगों के मुँह पर तो उनकी चापलूसी करके फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।) (वे लोगों पर हमला करते हैं, प्रतिशोधी होते हैं और दुर्भावना से लोगों पर प्रहार करते हैं।) (वे निराधार अफवाहें फैलाते और बदनामी करते हैं।) (वे दूसरों की बदनामी, आलोचना और निंदा करते हैं।) इन कार्यों की प्रकृति कलीसिया के कार्य को बाधित और तहस-नहस करना है, और ये सभी चीजें परमेश्वर का विरोध और उस पर हमला करने की अभिव्यक्तियाँ और क्रूर स्वभाव का प्रकटीकरण हैं। जो लोग ये चीजें करने में सक्षम हैं, वे निस्संदेह दुष्ट लोग हैं और जिन लोगों में क्रूर स्वभाव की कुछ खास अभिव्यक्तियाँ होती हैं उन्हें बुरे लोगों के रूप में निरूपित किया जा सकता है। बुरे व्यक्ति का सार क्या होता है? यह एक दानव और शैतान का सार होता है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। क्या तुम लोग ये कार्य करने में सक्षम हो? तुम लोग इनमें से कौन-से कार्य करने में सक्षम हो? (आलोचनात्मक होना।) तो क्या तुम लोगों पर हमला करने या उनसे बदला लेने की हिम्मत करते हो? (कभी-कभी मेरे मन में इस तरह के विचार होते जरूर हैं, लेकिन मैं उन्हें क्रियान्वित करने की हिम्मत नहीं करती।) तुम लोगों के मन में बस ये विचार होते हैं लेकिन तुम उन पर अमल करने की हिम्मत नहीं करते। अगर निम्न स्तर का कोई व्यक्ति तुम्हें नुकसान पहुँचाए तो क्या तुम बदला लेने का साहस करोगे? (कभी-कभी मैं ऐसा करूँगी, मैं ऐसे काम करने में सक्षम हूँ।) अगर यह व्यक्ति बहुत मजबूत हो—अगर वह वाक्पटु हो और तुम्हें चोट पहुँचाए—तो क्या तुम बदला लेने की हिम्मत करोगे? शायद कुछ ही लोग ऐसा करने से न डरें। क्या कमजोरों को तंग करने वाले और बलवानों से डरने वाले ऐसे लोगों में क्रूर स्वभाव होते हैं? (बिल्कुल।) व्यवहार चाहे किसी भी तरह का हो और उसके निशाने पर जो भी हो, अगर तुम अन्य भाई-बहनों से बदला लेने का दुष्कर्म करने में सक्षम हो, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे भीतर एक क्रूर स्वभाव है। यह क्रूर स्वभाव ऊपरी तौर पर देखने में ज्यादा अलग नहीं लगता, लेकिन तुम्हें इसे पहचानने में सक्षम होना चाहिए और तुम्हें यह पहचानने में भी सक्षम होना चाहिए कि तुम निशाना किसे बना रहे हो। अगर तुम शैतान के प्रति उग्र हो और उसे हराकर अपमानित करने में सक्षम हो तो क्या इसे एक क्रूर स्वभाव माना जाता है? ऐसा नहीं है। यह सही के लिए खड़ा होना और अपने दुश्मन के सामने निडर होना है। इसे न्याय की भावना होना कहते हैं। क्रूर स्वभाव होना किन परिस्थितियों में माना जाता है? अगर तुम अच्छे लोगों या भाई-बहनों को धौंस देते हो, रौंदते और अपमानित करते हो तो यह एक क्रूर स्वभाव माना जाएगा। इसलिए तुममें जमीर और विवेक होना चाहिए, तुम्हें लोगों और मामलों को सिद्धांतों के साथ देखना चाहिए, बुरे लोगों, दानवों को पहचानने में सक्षम होना चाहिए, तुममें न्याय की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों और भाई-बहनों के प्रति सहिष्णु और धैर्यवान रहकर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। यह पूरी तरह से सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। क्रूर स्वभावों वाले लोग ऐसे सिद्धांतों के अनुसार लोगों से व्यवहार नहीं करते। अगर कोई व्यक्ति, वह चाहे कोई भी हो, कुछ ऐसा करे जो उनके लिए हानिकारक हो तो वे बदला लेने की कोशिश करेंगे—यह क्रूरता है। दुष्ट लोगों के कार्य करने में कोई सिद्धांत नहीं होता है। वे सत्य नहीं खोजते। चाहे व्यक्तिगत द्वेष के कारण कार्य करना हो या कमजोरों को तंग करना और बलवानों से डरना या किसी से प्रतिशोध लेने का साहस करना, इन सबका संबंध क्रूर स्वभाव से है और ये सभी भ्रष्ट स्वभाव हैं। इसमें कोई शक नहीं है।
क्रूर स्वभाव वाले व्यक्ति की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति क्या होती है? यह तब होती है जब किसी भोले-भाले व्यक्ति से सामना होने पर, जिसे तंग करना आसान हो, वह उसे तंग करना और उसके साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देता है। यह आम बात है। जब कोई अपेक्षाकृत दयालु व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो निष्कपट और कायर होता है, तो उसमें उसके लिए करुणा का भाव होगा और अगर वह उसकी मदद न कर पाए तो भी उसे धौंस नहीं देगा। जब तुम देखते हो कि तुम्हारा कोई भाई-बहन निष्कपट है तो उसके साथ कैसा व्यवहार करते हो? क्या तुम उसे धौंस देते हो या चिढ़ाते हो? (मैं शायद उसे हेय दृष्टि से देखूँगी।) लोगों को हेय दृष्टि से देखना उन्हें देखने-परखने का एक तरीका है, एक तरह की मानसिकता है, और तुम उनसे कैसे व्यवहार करते और बोलते हो, इसका संबंध तुम्हारे स्वभाव से है। तुम्हीं बताओ, तुम लोग डरपोक और कायर लोगों के साथ कैसे व्यवहार करते हो? (मैं उन्हें आदेश देती हूँ और उन्हें तंग करती हूँ।) (जब मैं उन्हें खराब ढंग से कर्तव्य निभाते देखती हूँ तो मैं उन्हें पहचानकर अलग-थलग कर देती हूँ।) तुम्हारी ये बातें क्रूर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं और लोगों के स्वभाव से संबंधित हैं। ऐसी और भी बहुत-सी बातें हैं, इसलिए इनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। क्या तुम लोग कभी ऐसे व्यक्ति से मिले हो, जिसने खुद को नाराज करने वाले किसी व्यक्ति के मरने की कामना की हो, यहाँ तक कि परमेश्वर से भी उसे शाप देकर धरती से मिटा देने की प्रार्थना की हो? भले ही किसी भी व्यक्ति में ऐसी शक्ति नहीं है, फिर भी वह मन ही मन सोचता है कि अगर ऐसा होता तो कितना अच्छा होता, या फिर वह परमेश्वर से प्रार्थना कर उसे ऐसा करने को कहता है। क्या तुम लोगों के दिल में ऐसे विचार होते हैं? (जब हम सुसमाचार का प्रचार करते हुए उन बुरे लोगों का सामना करते हैं जो हम पर हमला करते हैं और पुलिस में हमारी रिपोर्ट करते हैं, तो मुझे उनके प्रति घृणा महसूस होती है और ऐसे विचार आते हैं, “वह दिन आएगा जब तुम्हें परमेश्वर दंडित करेगा।”) यह काफी वस्तुनिष्ठ मामला है। तुम पर हमला किया गया, तुम्हें कष्ट हुआ, तुम्हें पीड़ा महसूस हुई, तुम्हारी व्यक्तिगत ईमानदारी और स्वाभिमान पूरी तरह से कुचल दिया गया—ऐसी परिस्थितियों में ज्यादातर लोगों के लिए इससे उबरना मुश्किल होगा। (कुछ लोग हमारी कलीसिया के बारे में ऑनलाइन निराधार अफवाहें फैलाते हैं, वे कई आरोप लगाते हैं, और जब मैं उन्हें पढ़ता हूँ तो मुझे बहुत गुस्सा आता है और मेरे दिल में बहुत नफरत पैदा होती है।) यह शातिरपन है या गर्म-मिज़ाजी या फिर यह सामान्य मानवता है? (यह सामान्य मानवता है। शैतानों और परमेश्वर के शत्रुओं से घृणा न करना सामान्य मानवता नहीं है।) सही कहा। यह सामान्य मानवता का प्रकटीकरण, अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया है। अगर लोग नकारात्मक चीजों से नफरत या सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, अगर उनके पास अंतःकरण के मानक नहीं हैं तो वे इंसान नहीं हैं। इन परिस्थितियों में व्यक्ति के कौन-से कार्यकलाप क्रूर स्वभाव में बदल सकते हैं? अगर यह घृणा और जुगुप्सा किसी खास तरह के व्यवहार में बदल जाती है, अगर तुम तमाम विवेक खो देते हो, और तुम्हारे कार्यकलाप मानवता के लिए खतरा बताने वाली किसी निश्चित लाल रेखा को पार कर जाते हैं, अगर तुम उन्हें मार भी सकते हो और कानून तोड़ सकते हो, तो यह क्रूरता है, यह गर्म-मिज़ाजी से पेश आना है। जब लोग सत्य को समझते हैं और दुष्ट लोगों को पहचानने में सक्षम होकर दुष्टता से घृणा करते हैं तो यह सामान्य मानवता है। लेकिन अगर लोग चीजों को गर्म-मिज़ाजी से सँभालते हैं तो वे सिद्धांतों के बिना कार्य कर रहे होते हैं। क्या यह बुराई करने से कोई अलग बात है? (बिल्कुल।) इसमें एक अंतर है। अगर कोई व्यक्ति अत्यंत बुरा है, अत्यंत क्रूर है, अत्यंत दुष्ट है, अत्यधिक अनैतिक है और तुम उसके प्रति बहुत ज्यादा घृणा महसूस करते हो और यह घृणा इस हद तक पहुँच जाती है कि तुम परमेश्वर से उसे शाप देने के लिए कहते हो तो यह ठीक है। लेकिन दो-तीन बार प्रार्थना करने के बाद भी परमेश्वर ऐसा न करे और तुम मामले अपने हाथ में ले लेते हो तो क्या यह ठीक है? (नहीं।) तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने विचार और राय व्यक्त कर सकते हो, फिर सत्य सिद्धांत खोज सकते हो, उस स्थिति में तुम चीजों को सही ढंग से सँभालने में सक्षम होगे। लेकिन तुम्हें परमेश्वर से न तो यह माँग करनी चाहिए, न ही उसे बाध्य करने की कोशिश करनी चाहिए कि वह तुम्हारी ओर से बदला ले, तुम्हें अपनी गर्म-मिज़ाजी को बेवकूफी भरे काम तो बिल्कुल नहीं करने देने चाहिए। तुम्हें मामले को तार्किकता से लेना चाहिए। तुम्हें धैर्य रखना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए और परमेश्वर से प्रार्थना करने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। देखो कि परमेश्वर कैसे बुद्धि के साथ शैतान और दानवों से पेश आता है और इस तरह तुम धैर्य रख सकते हो। तार्किक होने का अर्थ है यह सब कुछ परमेश्वर को सौंपकर उसे कार्य करने देना। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए। गर्म-मिज़ाजी से काम मत लो। गर्म-मिज़ाजी से कार्य करना परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है। ऐसे अवसरों पर लोगों में प्रकट होने वाला स्वभाव मानवीय कमजोरी या क्षणिक क्रोध नहीं होता, बल्कि एक क्रूर स्वभाव होता है। जब यह निश्चित हो जाता है कि यह एक शातिर स्वभाव है, तो तुम संकट में होते हो और तुम्हारे बचने की संभावना नहीं होती। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब लोगों में क्रूर स्वभाव होते हैं, तो इस बात की अत्यधिक संभावना होती है कि वे अंतःकरण और विवेक का उल्लंघन करेंगे और कानून तोड़ने और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करेंगे। तो इससे कैसे बचा जा सकता है? कम-से-कम तीन लाल रेखाएँ पार नहीं करनी चाहिए : पहली, अंतःकरण और विवेक का उल्लंघन करने वाली चीजें न करना, दूसरी कानून न तोड़ना और तीसरी परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन न करना। इनमें कुछ भी अतिवादी या ऐसा कोई कार्य न करना शामिल है जो कलीसिया के कार्य में बाधा डाले। अगर तुम इन सिद्धांतों का पालन करते हो तो कम-से-कम तुम्हारी सुरक्षा सुनिश्चित होगी और तुम्हें निकाला नहीं जाएगा। अगर तुम तमाम तरह की बुराइयाँ करने के कारण अपनी काट-छाँट किए जाने का क्रूरता से विरोध करते हो, तो यह और भी खतरनाक है। इस बात की संभावना है कि तुम सीधे तौर पर परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे और कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाओगे या निष्कासित कर दिए जाओगे। परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की सजा कानून तोड़ने की सजा से कहीं ज्यादा गंभीर है—यह मृत्यु से भी बदतर नियति है। कानून तोड़ने पर ज्यादा से ज्यादा जेल की सजा होती है; कुछ कठिन वर्ष बिताए और बाहर आ गए, बस। लेकिन अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाते हो, तो तुम अनंत दंड भुगतोगे। इसलिए, अगर क्रूर स्वभाव वाले लोगों में कोई तार्किकता नहीं है, तो वे अत्यधिक खतरे में हैं, उनके बुराई करने की संभावना है और उन्हें दंड दिया जाना और उनका प्रतिफल भुगतना निश्चित है। अगर लोगों में थोड़ी-सी भी तार्किकता है, वे सत्य खोजने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं और बहुत ज्यादा बुराई करने से बच सकते हैं तो उनके निश्चित रूप से बचाए जाने की आशा है। व्यक्ति के लिए तार्किकता और विवेक होना महत्वपूर्ण है। विवेकशील व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और अपनी काट-छाँट को सही तरीके से ले सकता है। विवेकहीन व्यक्ति अपनी काट-छाँट किए जाने पर खतरे में होता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि अगुआ द्वारा काट-छाँट किए जाने के बाद कोई व्यक्ति बहुत क्रोधित हो जाता है। उसका अगुआ के बारे में अफवाह फैलाने और उस पर हमला करने का मन करता है, लेकिन वह परेशानी होने के डर से ऐसा करने की हिम्मत नहीं करता। ऐसा स्वभाव उसके हृदय में पहले से मौजूद होता है लेकिन यह कहना कठिन है कि वह इस पर अमल करेगा या नहीं। अगर इस तरह का स्वभाव किसी के दिल में है, अगर ये विचार मौजूद हैं, तो भले ही वह इन पर अमल न करे, वह पहले से ही खतरे में है। जब परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं—जब उसे अवसर मिलता है—तो वह कार्य कर सकता है। अगर उसका क्रूर स्वभाव मौजूद है, अगर उसका समाधान नहीं होता, तो देर-सवेर यह व्यक्ति बुराई करेगा। तो अन्य कौन-सी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें व्यक्ति क्रूर स्वभाव प्रकट करता है? तुम्हीं बताओ। (अपने कर्तव्य में अनमना रहने के कारण मुझे उसमें नतीजे नहीं मिले, फिर सिद्धांतों के अनुसार अगुआ ने मुझे बर्खास्त कर दिया तो मैंने अपने अंदर कुछ प्रतिरोधी भावना महसूस की। फिर जब मैंने देखा कि उसने एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, तो मैंने उसकी रिपोर्ट करने के लिए एक पत्र लिखने के बारे में सोचा।) क्या यह विचार शून्य से उपजा है? बिल्कुल नहीं। यह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न हुआ था। देर-सवेर, लोगों की प्रकृति में मौजूद चीजें प्रकट हो जाती हैं, कोई नहीं जानता कि वे किस प्रसंग या संदर्भ में प्रकट हो जाएँगी और अमल में आ जाएँगी। कभी-कभी लोग कुछ नहीं करते, लेकिन ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्थिति इसकी अनुमति नहीं देती। हालाँकि अगर वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हुए तो वे इसे हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होंगे। अगर वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं तो वे जैसा चाहेंगे वैसा ही करेंगे, और जैसे ही स्थिति अनुमति देगी, वे बुराई कर डालेंगे। इसलिए अगर भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं किया जाता, तो इस बात की पूरी संभावना है कि लोग खुद को परेशानी में डाल लेंगे, इस स्थिति में उन्हें वही काटना होगा जो उन्होंने बोया है। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने बने रहते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे इसे स्वीकार नहीं करते, वे कभी पश्चात्ताप नहीं करते और अंततः उन्हें चिंतन के उद्देश्य से अलग-थलग कर दिया जाता है। कुछ लोग कलीसिया से इसलिए बाहर निकाल दिए जाते हैं, क्योंकि वे कलीसियाई जीवन में लगातार बाधा पहुँचाते रहते हैं और दूसरों को बिगाड़ने वाले सड़े हुए सेब बन गए हैं; और कुछ लोग इसलिए निष्कासित कर दिए जाते हैं, क्योंकि वे तमाम तरह के बुरे काम करते हैं। इसलिए, चाहे कोई जिस भी तरह का व्यक्ति हो, अगर वह बार-बार भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है और उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजता, तो उसके बुराई करने की संभावना रहती है। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में सिर्फ अहंकार ही नहीं, बल्कि दुष्टता और क्रूरता भी शामिल है। अहंकार और क्रूरता बस साझा विशेषताएँ हैं।
तो क्रूर स्वभाव प्रकट करने की यह समस्या कैसे हल की जानी चाहिए? लोगों को यह पहचानना चाहिए कि उनका भ्रष्ट स्वभाव क्या है। कुछ लोगों का स्वभाव कुछ ज्यादा ही क्रूर, द्वेषपूर्ण और अहंकारी होता है और वे पूरी तरह से निर्लज्ज होते हैं। यह दुष्ट लोगों की प्रकृति है और ये लोग सबसे खतरनाक लोग होते हैं। जब ऐसे लोगों के पास सत्ता होती है तो दानवों के पास सत्ता होती है, शैतान के पास सत्ता होती है। परमेश्वर के घर में तमाम बुरे कार्य करने के कारण सभी बुरे लोगों का खुलासा कर उन्हें निकाल दिया जाता है। जब तुम दुष्ट लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उनकी काट-छाँट करने की कोशिश करते हो तो इस बात की बहुत ज्यादा संभावना होती है कि वे तुम पर हमला करेंगे या तुम्हारी आलोचना करेंगे, यहाँ तक कि तुमसे बदला भी लेंगे, जो उनके स्वभावों के बहुत दुर्भावनापूर्ण होने के दुष्परिणाम हैं। यह असल में बहुत ही आम बात है। उदाहरण के लिए, ऐसे दो लोग हो सकते हैं जिनकी आपस में अच्छी पटती है, जो एक-दूसरे के प्रति बहुत विचारशील होते हैं और एक-दूसरे को समझते हैं—लेकिन वे अपने हितों से संबंधित किसी एक ही चीज को लेकर बँट जाते हैं और एक-दूसरे से संबंध तोड़ देते हैं। कुछ लोग एक-दूसरे के दुश्मन बनकर बदला लेने की कोशिश भी करते हैं। वे सब बड़े क्रूर होते हैं। जब लोगों के कर्तव्य निभाने की बात आती है तो क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि उनमें दिखने और प्रकट होने वाली कौन-सी चीजें क्रूर स्वभाव के अंतर्गत आती हैं? ये चीजें निश्चित रूप से मौजूद होती हैं और तुम्हें इन्हें जड़ से उखाड़ देना चाहिए। यह इन चीजों को समझने और पहचानने में तुम लोगों की मदद करेगा। अगर तुम नहीं जानते कि इन्हें कैसे जड़ से उखाड़ना और पहचानना है, तो तुम लोग कभी बुरे लोगों को नहीं पहचान पाओगे। मसीह-विरोधियों से गुमराह होने और उनके काबू में आने के बाद कुछ लोगों के जीवन को नुकसान पहुँचता है और सिर्फ तभी उन्हें पता चलता है कि मसीह-विरोधी क्या होता है और क्रूर स्वभाव क्या होता है। सत्य के बारे में तुम लोगों की समझ बहुत सतही है। अधिकांश सत्यों के बारे में तुम्हारी समझ मौखिक या लिखित स्तर पर रुक जाती है या तुम सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो, और ये वास्तविकता से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। अनेक प्रवचन सुनने के बाद तुम्हारे हृदय में समझ और प्रबुद्धता प्रतीत होती है; लेकिन जब वास्तविकता का सामना होता है, तो फिर भी तुम चीजों को उनके असली रूप में नहीं पहचान पाते। सैद्धांतिक रूप से कहूँ तो तुम सभी जानते हो कि एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं लेकिन जब तुम किसी वास्तविक मसीह-विरोधी को देखते हो तो तुम उसे मसीह-विरोधी के रूप में पहचानने में असमर्थ होते हो। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारे पास बहुत कम अनुभव है। जब तुम ज्यादा अनुभव ले लेते हो, जब तुम्हें मसीह-विरोधी पर्याप्त चोट पहुँचा देते हैं, तो तुम अच्छी तरह से और वास्तव में उनकी असलियत पहचानने में सक्षम होते हो। आज हालाँकि अधिकांश लोग सभाओं के दौरान ईमानदारी से प्रवचन सुनते हैं और सत्य के लिए प्रयास करना चाहते हैं, लेकिन प्रवचन सुनकर वे उनका सिर्फ शाब्दिक अर्थ समझते हैं, वे सैद्धांतिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पाते और सत्य वास्तविकता के पहलू का अनुभव करने में अक्षम रहते हैं। इसलिए सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश बहुत ही सतही होता है, जिसका अर्थ है कि वे दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों की पहचान नहीं कर सकते। मसीह-विरोधियों में दुष्ट लोगों का सार होता है, लेकिन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों के अलावा भी क्या अन्य लोगों में क्रूर स्वभाव नहीं होते? वास्तव में किसी भी व्यक्ति से हल्के में पंगा नहीं लिया जा सकता। जब कुछ गलत नहीं होता तो वे सभी खुश रहते हैं, लेकिन जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनके हितों को नुकसान पहुँचाती है, तो वे खतरनाक व्यवहार दिखाते हैं। यह एक क्रूर स्वभाव है। यह क्रूर स्वभाव किसी भी समय प्रकट हो सकता है; यह स्वतः होता है। तो यहाँ वास्तव में क्या हो रहा है? क्या यह दुष्टात्माओं के वश में होने का मामला है? क्या यह बुरे राक्षस से पुनर्जन्म का मामला है? अगर इन दोनों में से कोई भी बात है, तो उस व्यक्ति में दुष्ट लोगों का सार है और उसका कुछ नहीं हो सकता। अगर उसका सार दुष्ट व्यक्ति का नहीं है, और उसमें बस यह भ्रष्ट स्वभाव है, तो उसकी स्थिति घातक नहीं है, और अगर वह सत्य स्वीकार सके, तो उसके बचने की अभी भी आशा है। तो क्रूर, भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जाए? पहले, जब तुम मामलों का सामना करो, तो तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए और इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारी प्रेरणाएँ और इच्छाएँ क्या हैं। तुम्हें परमेश्वर की जाँच स्वीकारनी चाहिए और अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें बुरे शब्द या व्यवहार प्रकट नहीं करने चाहिए। अगर व्यक्ति अपने दिल में गलत इरादे और द्वेष पाए, अगर उसकी बुरे काम करने की इच्छा हो, तो उसे इसका समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, इस मामले को समझने और हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाशने चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसकी सुरक्षा माँगनी चाहिए, परमेश्वर के सामने कसम खानी चाहिए, और सत्य न स्वीकारने और बुराई करने पर खुद को शाप देना चाहिए। परमेश्वर के साथ इस तरह संगति करना सुरक्षा प्रदान करता है और व्यक्ति को बुराई करने से रोकता है। अगर व्यक्ति के साथ कुछ होता है और उसके बुरे इरादे सामने आते हैं, लेकिन वह उस पर ध्यान नहीं देता और बस चीजों को चलने देता है, या यह मानकर चलता है कि उसे इसी तरह से कार्य करना चाहिए, तो वह बुरा व्यक्ति है, और ऐसा व्यक्ति नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास और सत्य से प्रेम करता है। ऐसा व्यक्ति अभी भी परमेश्वर में विश्वास करना और परमेश्वर का अनुसरण करना, और आशीष पाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहता है—क्या यह संभव है? वह सपना देख रहा है। पाँचवीं तरह का स्वभाव है क्रूरता। यह भी भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित मुद्दा है और इस विषय पर कमोबेश इतना ही कहना अपेक्षित है।
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