छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है (भाग एक)
परमेश्वर में मनुष्य की आस्था का प्रयोजन क्या है? (बचाया जाना।) उद्धार परमेश्वर में आस्था का एक स्थायी विषय है। तो उद्धार कैसे प्राप्त किया जा सकता है? (सत्य का अनुसरण करके और हमेशा परमेश्वर के सामने जीकर।) यह एक तरह का अभ्यास है। हमेशा परमेश्वर के सामने जीने से क्या हासिल होता है? इसका क्या उद्देश्य है? (परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाना।) (परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहना और सत्य को समझकर परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना।) और क्या? (सत्य खोजना, सत्य को अपना जीवन बनाना।) ये बातें अक्सर प्रवचनों के दौरान कही जाती हैं, ये आध्यात्मिक वाक्यांश हैं। और क्या है? (परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, उसके परीक्षणों और शोधन के साथ-साथ उसके द्वारा अपनी काट-छाँट का अनुभव करना, ताकि हम इस प्रक्रिया के दौरान अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के उपायों पर आत्मचिंतन करें और खुद को जानें और सत्य खोजें, साथ ही परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करें और अंततः सत्य और मानवता युक्त व्यक्ति बनें।) ऐसा लगता है कि तुम लोगों ने पिछले कई वर्षों के प्रवचनों से काफी-कुछ समझ लिया है। तो क्या तुम्हारी समझ में आ चुकीं इन चीजों का उपयोग कुछ वास्तविक समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए तुम्हारे अनुभवों में किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, गलत विचार और मत, कभी-कभी की नकारात्मकता और कमजोरी, और साथ ही धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित कुछ मसले : क्या ये चीजें जल्दी से हल की जा सकती हैं? कुछ लोग कुछ छोटी समस्याएँ हल करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन बड़ी, मूल कारण वाली समस्याओं से उन्हें अभी भी जूझना पड़ सकता है। सत्यों के बारे में अपनी मौजूदा समझ के स्तर के आधार पर क्या तुम लोग अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करने पर अडिग रह पाओगे? (हम अडिग रहने का संकल्प तो लेंगे, पर हम नहीं जानते कि अपने साथ वाकई कुछ होने पर हमारा असली आध्यात्मिक कद क्या होगा।) लेकिन तुम्हारे साथ कुछ नहीं भी हो तो क्या तुम्हें अपना असली आध्यात्मिक कद नहीं जानना चाहिए? इसे न जानना खतरनाक है! क्या तुम लोग जानते हो कि बार-बार दोहराई जाने वाली इन आध्यात्मिक कहावतों और ठेठ उक्तियों के व्यावहारिक पहलू क्या हैं? क्या तुम इनमें से प्रत्येक वाक्यांश का वास्तविक निहितार्थ समझते हो? क्या तुम समझते हो कि उनमें मौजूद सत्य आखिर है क्या? अगर तुम इन चीजों को जानते हो और इनका अनुभव कर चुके हो, तो यह सिद्ध करता है कि तुम सत्य समझते हो। अगर तुम सिर्फ कुछ आध्यात्मिक कहावतें और वाक्यांश दोहराने में सक्षम हो, लेकिन अपने साथ वाकई कुछ होने पर ये तुम्हारे किसी काम के न हों और तुम्हारी परेशानियाँ हल न कर सकें तो यह साबित करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने के इन तमाम वर्षों के बाद भी तुम सत्य को नहीं समझते और तुम्हारे पास कोई वास्तविक अनुभव नहीं है। मेरे यह कहने का क्या अर्थ है? परमेश्वर में अपने विश्वास में यहाँ तक पहुँचकर लोग धर्मवादियों या अविश्वासियों की तुलना में सत्य को थोड़ा ज्यादा समझते हैं, वे परमेश्वर के कार्य के कुछ दर्शन समझते हैं और कुछ नियामक मामलों का पालन कर लेते हैं, और कहा जा सकता है कि उनमें परमेश्वर की संप्रभुता को लेकर एक निश्चित समझ और सराहना का भाव होता है, कुछ सच्ची समझ होती है—लेकिन क्या ये चीजें उनके जीवन स्वभाव में बदलाव लाई हैं? कुल मिलाकर, तुममें से हर कोई उन अक्सर सुने हुए सत्यों के बारे में थोड़ी बात कर सकता है जो दर्शनों से संबंधित हैं : परमेश्वर के कार्य के दर्शन, परमेश्वर के कार्य का प्रयोजन और मनुष्य के लिए परमेश्वर के इरादे; और जिस ज्ञान की तुम लोग बात करते हो वह धर्मवादियों की तुलना में बहुत ऊँचा होता है—लेकिन क्या यह सब तुम लोगों के स्वभाव में बदलाव ला सकता है, या तुम लोगों के स्वभाव में आंशिक बदलाव भी ला सकता है? क्या तुम लोग इसे मापने में सक्षम हो? यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हाल ही में इस विषय पर संगति की गई थी कि पृथ्वी पर मौजूद परमेश्वर को वास्तव में कैसे जाना जाए, कैसे पृथ्वी पर मौजूद परमेश्वर के साथ बातचीत की जाए, और कैसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित किया जाए। क्या ये सबसे व्यावहारिक प्रश्न नहीं हैं? ये सभी सत्य अभ्यास के पहलू से संबंधित हैं और इन चीजों पर संगति करने का उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर में विश्वास कैसे करना है, कैसे परमेश्वर के साथ बातचीत करनी है और कैसे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाना है। अभ्यास से संबंधित सत्यों के संदर्भ में बात करें तो तुम लोगों ने जिन किन्हीं सत्यों को सुना है, समझा है और जिन्हें तुम अभ्यास में लाने में सक्षम हो, क्या वे सभी तुम लोगों का स्वभाव बदलने में सक्षम हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि अगर लोग इस तरह से सत्य को अभ्यास में लाते हैं और वास्तव में उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं; और अगर उन्होंने इन सत्यों को अपनी वास्तविकता बना लिया है, तो वे अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम हैं? (हाँ, कहा जा सकता है।) बहुत-से लोग इस बात से निपट अनजान हैं कि स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं। वे सोचते हैं कि बहुत-से आध्यात्मिक सिद्धांतों को दोहरा पाना और बहुत-से सत्यों को समझना स्वभाव में बदलाव दर्शाता है। यह गलत है। किसी सत्य को समझने के बिंदु से लेकर उस सत्य को अभ्यास में लाने और फिर स्वभाव में बदलावों तक जीवन-अनुभव की एक लंबी प्रक्रिया होती है। तुम लोग स्वभाव में बदलाव को कैसे समझते हो? इस मुकाम तक तुम लोगों ने जो कुछ भी अनुभव किया है उसमें, क्या तुम्हारे जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव आया है? तुम लोग शायद इन चीजों की असलियत न जान पाओ, और यह सब परेशानी की बात है। “स्वभाव में बदलाव” में “बदलाव” शब्द को समझना वास्तव में बहुत कठिन नहीं है, तो फिर “स्वभाव” क्या है? (मानव-अस्तित्व का नियम, शैतान का जहर।) और क्या? (जो मनुष्य में स्वाभाविक है, जो उसके जीवन सार में है।) तुम लोग ये आध्यात्मिक शब्द उछालते रहते हो, लेकिन ये सब धर्म-सिद्धांत और रूपरेखाएँ हैं, इनमें कोई विवरण नहीं है। यह सत्य के सार को समझना नहीं है। हम अक्सर स्वभाव में बदलावों की बात करते हैं और ऐसे विषयों पर हमेशा परमेश्वर में लोगों की आस्था की शुरुआत से ही चर्चा की जाती रही है, फिर चाहे वे किसी सभा में भाग ले रहे हों या प्रवचन सुन रहे हों; ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को परमेश्वर में विश्वास करते समय समझने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन जब यह बात आती है कि आखिर स्वभाव में बदलाव क्या होते हैं, क्या उनके अपने स्वभाव में कोई बदलाव आया है और क्या बदलाव लाना संभव है—कई लोग इन चीजों से अनभिज्ञ हैं, उन्होंने इनके बारे में कभी नहीं सोचा, न ही वे यह जानते हैं कि इनके बारे में सोचना कहाँ से शुरू करें। स्वभाव क्या है? यह एक प्रमुख विषय है। जब तुम इसे समझ जाते हो, तब तुम कमोबेश इस तरह के सवाल समझ पाओगे कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है या नहीं, यह किस हद तक बदला है, इसमें कितने बदलाव हुए हैं, और क्या कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव हुआ है। स्वभाव में बदलावों पर चर्चा करने के लिए तुम्हें पहले यह जानना चाहिए कि स्वभाव क्या होता है। हर कोई “स्वभाव” शब्द को जानता है, हर कोई इससे परिचित है। लेकिन वे नहीं जानते कि स्वभाव क्या होता है। वास्तव में स्वभाव क्या होता है, इसे कुछ ही शब्दों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता, और इसे किसी संज्ञा के रूप में नहीं समझाया जा सकता, क्योंकि यह बहुत अमूर्त है और समझने में आसान नहीं है। मैं एक उदाहरण देता हूँ, जिससे तुम लोग समझ जाओगे। भेड़ें और भेड़िये दोनों जानवर हैं। भेड़ें घास खाती हैं और भेड़िये मांस खाते हैं। यह उनकी प्रकृति से तय होता है। अगर किसी दिन भेड़ें मांस खा लें और भेड़िये घास खा लें तो क्या उनकी प्रकृति बदल जाएगी? (नहीं।) जब किसी भेड़ के पास खाने के लिए घास न हो और उसके सामने भूख से मरने की नौबत आ जाए, तब उसे थोड़ा मांस भी दोगे तो वह उसे खा लेगी, लेकिन भेड़ फिर भी तुम्हारे प्रति बहुत विनम्र रहेगी। यह स्वभाव है, यह भेड़ का प्रकृति सार है। भेड़ की विनम्रता किस प्रकार दिखती है? (वह लोगों पर हमला नहीं करती।) सही कहा—यह विनम्र स्वभाव है। भेड़ में प्रदर्शित स्वभाव नम्रता और आज्ञाकारिता है। वह शातिर नहीं होती, बल्कि विनम्र और दयालु होती है। भेड़िये अलग होते हैं। उनका स्वभाव शातिर होता है और वे तमाम छोटे जानवरों को खाते हैं। किसी भूखे भेड़िये का सामना करना बहुत खतरनाक होता है, भले ही तुम उसे न भड़काओ, वह तुम्हें खाने की कोशिश कर सकता है। भेड़िये का स्वभाव विनम्र या दयालु नहीं होता, बल्कि क्रूर और भयंकर होता है, जिसमें रत्ती भर भी सहानुभूति या दया नहीं होती। भेड़िये का स्वभाव ही ऐसा है। भेड़ और भेड़ियों के स्वभाव उनके प्रकृति सार को दर्शाते हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि बात चाहे जो भी हो, इन जानवरों में प्रकट होने वाली चीजें इंसानी दखल या उकसावे के बिना स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं; उन्हें इंसानी दखल की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं। भेड़ियों की क्रूरता और नृशंसता मनुष्यों द्वारा उनसे जबरन नहीं निकलवाई जाती, न ही भेड़ों की दयालुता और विनम्रता उनमें मनुष्यों द्वारा डाली जाती है; वे इन चीजों के साथ पैदा हुए थे, ये चीजें स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं, ये उनका सार है। यह स्वभाव है। क्या यह उदाहरण तुम्हें इस बात की कुछ समझ देता है कि स्वभाव क्या होता है? (बिल्कुल।) यह कोई संकल्पनात्मक मामला नहीं है, हम किसी संज्ञा की व्याख्या नहीं कर रहे। इसमें सत्य है। तो, यहाँ सत्य क्या है? मानव-स्वभाव मानव-प्रकृति से संबंधित है। मानव-स्वभाव और मानव-प्रकृति दोनों ही चीजें शैतान की हैं, ये परमेश्वर की विरोधी और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। अगर लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं करते और बदलते नहीं, तो लोग जिसे जीते और स्वाभाविक रूप से प्रकट करते हैं, वह बुराई, नकारात्मक और सत्य के उल्लंघन के अलावा और कुछ नहीं होगा—इसमें कोई संदेह नहीं।
हमने अभी-अभी भेड़ और भेड़ियों के स्वभाव के बारे में बात की। ये दोनों पूरी तरह से अलग जानवर हैं : इनमें अपने स्वभाव और अपनी चीजें प्रकट होती हैं। लेकिन इसका मानव-स्वभाव से क्या संबंध है? इस उदाहरण के माध्यम से फिर से यह देखते हुए कि वास्तव में मानव-स्वभाव क्या है, भ्रष्ट स्वभाव किस प्रकार के होते हैं? (हम आम तौर पर लोगों के साथ बातचीत करके यह जान सकते हैं कि उनका स्वभाव किस तरह का है। उदाहरण के लिए, किसी से बात करते हुए हमें लग सकता है कि वे इस तरह घुमा-फिराकर बोलते हैं, हमेशा गोलमोल बातें करते हैं कि दूसरे यह नहीं बता सकते कि उनका वास्तव में क्या मतलब है, जिसका अर्थ है कि उनमें कपटी स्वभाव है। वे आम तौर पर जो कहते और करते हैं, उससे और उनके क्रियाकलाप और व्यवहार से हम एक मोटी समझ ले सकते हैं।) लोगों के साथ बातचीत करके तुम उनके स्वभाव की कुछ समस्याएँ देख सकते हो। ऐसा लगता है कि इस उदाहरण को सुनने के बाद तुम लोगों को एक मोटी समझ मिल चुकी है कि स्वभाव क्या होते हैं। तो सभी लोगों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव होते हैं? ऐसे कौन-से स्वभाव हैं जिन्हें लोग जानते नहीं और महसूस नहीं कर पाते, फिर भी ये यकीनन भ्रष्ट स्वभाव होते हैं? उदाहरण के लिए मान लो कि कुछ लोग अत्यधिक भावुक हैं और परमेश्वर कहता है : “तुम अत्यधिक भावुक हो। जब किसी ऐसे व्यक्ति की बात हो जिसे तुम पसंद करते हो या जब कोई ऐसी बात हो जिसका संबंध तुम्हारे परिवार से हो तो चाहे जो भी यह समझने की कोशिश करे कि उनकी स्थिति क्या है या वास्तव में क्या चल रहा है, तुम उसके बारे में कुछ नहीं बताते और उसे बचाते रहते हो। यह भावुकता है।” वे इसे सुनते हैं, और इसे समझते, स्वीकारते और तथ्य मानते हैं। वे स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे इसका खुलासा करने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। क्या इससे उनका स्वभाव देखा जा सकता है? क्या यह स्पष्ट है कि वे सत्य स्वीकारते हैं, तथ्य स्वीकारते हैं, प्रतिरोध नहीं करते और समर्पित हैं? (नहीं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि समस्याओं का सामना करने पर वे कैसे पेश आते हैं और क्या उनकी कथनी-करनी एक है।) तुमने करीब-करीब सही बताया। उस समय वे स्वीकार रहे होते हैं—लेकिन बाद में जब उनके साथ ऐसा कुछ होता है तो उनके कार्य करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं आता। यह एक प्रकार के स्वभाव को दर्शाता है। कौन-सा स्वभाव? वे उस समय सुन रहे थे, फिर उन्होंने इसके बारे में सोचा और मन-ही-मन कहा, “इतने सारे उपदेश सुनने के बाद भी मुझे कैसे पता नहीं चलेगा कि मैं भावुक हूँ? मैं भावुक हूँ, लेकिन भावुक कौन नहीं होता? अगर अपने परिवार और अपने करीबी लोगों को मैं नहीं बचाऊँगा तो कौन बचाएगा? एक सक्षम व्यक्ति को भी तीन अन्य लोगों के समर्थन की जरूरत पड़ती है।” वे वास्तव में यही सोचते हैं। जब कार्य करने का समय आता है तो वे अपने हृदय में क्या सोचते हैं और क्या योजना बनाते हैं, और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया, यह सब उनके स्वभाव से निर्धारित होता है। उनका रवैया कैसा होता है? “परमेश्वर जो चाहे वह कह और उजागर कर सकता है, और उसके सामने होने पर मुझसे जो अपेक्षित है, वह मैं स्वीकारूँगा, लेकिन मैंने मन बना लिया है और अपनी भावनाएँ त्यागने का मेरा कोई इरादा नहीं है।” क्या यही उनका स्वभाव है? उनका स्वभाव खुद सामने आ चुका है और उनका असली चेहरा उजागर हो गया है, है ना? क्या वे सत्य स्वीकारने वाले व्यक्ति हैं? (नहीं।) तो यह क्या है? यह हठधर्मिता है। परमेश्वर के सामने वे आमीन कहते हैं और स्वीकृति का ढोंग करते हैं। लेकिन उनका दिल जस-का-तस रहता है। वे परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लेते, वे उन्हें सत्य नहीं समझते और उन्हें सत्य के रूप में अमल में तो बिल्कुल भी नहीं लाते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है ना? और क्या इस तरह का स्वभाव एक विशेष प्रकार की प्रकृति का खुलासा नहीं है? (बिल्कुल है।) तो इस तरह के स्वभाव का सार क्या है? क्या यह हठधर्मिता है? (हाँ।) हठधर्मिता : यह एक प्रकार का मानव-स्वभाव है और यह सभी लोगों में पाया जाता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह एक स्वभाव है? यह ऐसी चीज है जो लोगों के प्रकृति सार से उत्पन्न होती है। तुम्हें इसके बारे में सोचना नहीं पड़ता, दूसरों को तुम्हें सिखाना नहीं पड़ता या तुम्हारे विचारों को गढ़ना नहीं पड़ता, न ही शैतान को तुम्हें गुमराह करने की जरूरत पड़ती है; यह स्वभाव तुममें सहज रूप से प्रकट होता है, यह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न होता है। कुछ लोग चाहे जो भी बुरे काम क्यों न करें, हमेशा शैतान को दोष देते हैं। वे हमेशा यही कहते हैं, “शैतान ने मेरे दिमाग में यह विचार बैठाया, शैतान ने मुझसे ऐसा करवाया।” वे हर बुरी चीज शैतान के सिर पर डाल देते हैं और अपनी प्रकृति की समस्याएँ कभी नहीं स्वीकारते। क्या यह सही है? क्या तुम्हें शैतान गहराई से भ्रष्ट नहीं कर चुका है? अगर तुम इसे नहीं स्वीकारते, तो ऐसा कैसे है कि तुममें शैतान का स्वभाव प्रकट हुआ है? बेशक, ऐसे दौर भी आते हैं जब शैतान गड़बड़ियाँ पैदा करता है जिसमें किसी दुष्ट व्यक्ति या मसीह-विरोधी से लोगों को गुमराह कर उन्हें कुछ करने के लिए उकसाना शामिल है, या जब कोई दुष्ट आत्मा काम कर उन्हें विचार भेजती है—लेकिन ये सिर्फ अपवाद हैं; अधिकांश समय लोग अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार चलकर तमाम तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। जब लोग अपनी-अपनी पसंद और झुकाव के अनुसार कार्य करते हैं, जब वे अपने ही साधनों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करते हैं तब वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जी रहे होते हैं, और जब वे इन चीजों के अनुसार जी रहे होते हैं तो वे अपनी प्रकृति के अनुसार जी रहे होते हैं। ये निर्विवाद तथ्य हैं। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृति से संचालित होते हैं, जब वे अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं, तो उनमें जो कुछ भी प्रकट होता है वह उनका भ्रष्ट स्वभाव है; इसे शैतान के सिर पर नहीं डाला जा सकता, तुम यह नहीं कह सकते कि ये शैतान के भेजे विचार हैं। लोग गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, इसलिए वे शैतान के हैं, और चूँकि लोग शैतान से अलग नहीं हैं, और वे जीते-जागते राक्षस हैं, जीते-जागते शैतान हैं, इसलिए तुम्हें अपने भीतर प्रकट होने वाली हर शैतानी चीज शैतान के सिर पर नहीं डालनी चाहिए। तुम कोई शैतान से अलग नहीं हो, और यही तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है।
जब लोगों का हठी स्वभाव होता है तो उनकी कैसी मनोदशा होती है? वे मुख्य रूप से जिद्दी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हमेशा अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं, हमेशा अपनी ही बात को सही मानते हैं और निहायत कड़े और दुराग्रही होते हैं। यह हठधर्मिता का रवैया है। वे पुराने जमाने के किसी घिसे-पिटे रिकॉर्ड की तरह एक ही रट लगाए रहते हैं, किसी की नहीं सुनते, कोई कार्य पद्धति चाहे सही हो या गलत उसी पर अड़े रहते हैं, उसे ही अपनाने पर जोर देते हैं; उनमें थोड़ा-सा भी बदलने की भावना नहीं होती। जैसी कि कहावत है, “मरे हुए सूअर उबलते पानी से नहीं डरते।” लोग अच्छी तरह जानते हैं कि क्या करना सही है, फिर भी वे वैसा नहीं करते, दृढ़तापूर्वक सत्य स्वीकारने से मना कर देते हैं। यह एक प्रकार का स्वभाव है : हठधर्मिता। तुम लोग किस प्रकार की स्थितियों में हठी स्वभाव प्रकट करते हो? क्या तुम प्रायः हठी होते हो? (हाँ।) बहुत बार! और चूँकि हठधर्मिता तुम्हारा स्वभाव है, इसलिए वह तुम्हारे जीवन में हर दिन और हर पल तुम्हारे साथ रहती है। हठधर्मिता लोगों को परमेश्वर के सामने आ पाने से रोकती है, वह उन्हें सत्य स्वीकार पाने से रोकती है और वह उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से रोकती है। और अगर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में बदलाव हो सकता है? बड़ी मुश्किल से ही हो सकता है। क्या अब तुम लोगों के स्वभाव के इस हठधर्मिता वाले पहलू में कोई बदलाव आया है? और कितना बदलाव आया है? उदाहरण के लिए मान लो, तुम बेहद जिद्दी हुआ करते थे लेकिन अब तुममें थोड़ा बदलाव आया है : जब तुम किसी समस्या का सामना करते हो तो तुममें कुछ अंतःकरण की भावना होती है और तुम मन-ही-मन कहते हो, “इस मामले में मुझे कुछ सत्य का अभ्यास करना है। चूँकि परमेश्वर ने इस हठी स्वभाव को उजागर कर दिया है—चूँकि मैंने इसे सुना है और अब मैं इसे जानता हूँ—इसलिए मुझे बदलना होगा। जब मैंने अतीत में कुछ बार इस तरह की चीजों का सामना किया था, तो मैं अपनी दैहिक इच्छाओं के अनुसार चलकर असफल रहा था और मैं इससे संतुष्ट नहीं हूँ। इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए।” ऐसे संकल्प के साथ सत्य का अभ्यास करना संभव है, और यह बदलाव है। जब तुम कुछ समय इस तरह से अनुभव कर लेते हो और तुम और ज्यादा सत्यों को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हो और इससे बड़े बदलाव आते हैं और तुम्हारा विद्रोही और हठी स्वभाव क्रमशः कम प्रकट होता है तो क्या तुम्हारे जीवन स्वभाव में कोई बदलाव आया है? अगर तुम्हारा विद्रोही स्वभाव स्पष्ट रूप से क्रमशः कम हो गया है और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण क्रमशः बढ़ गया है तो फिर वास्तविक बदलाव आ चुका है। तो सच्चा समर्पण पाने के लिए तुम्हें किस हद तक बदलना चाहिए? तुम तब सफल होगे जब तुममें थोड़ी-सी भी हठधर्मिता नहीं होगी, बल्कि सिर्फ समर्पण होगा। यह एक धीमी प्रक्रिया है। स्वभाव में बदलाव रातोरात नहीं होते, इसमें अनुभव का लंबा दौर लगता है, यहाँ तक कि पूरा जीवन भी लग सकता है। कभी-कभी बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं, मरने और पुनः जन्म लेने जैसे कष्ट, अपने सड़े-गले अंग काटने से भी ज्यादा दर्दनाक और कठिन कष्ट। तो तुम लोगों का हठी स्वभाव कितना बदला है? क्या तुम इसे माप सकते हो? (पहले, मैं मानती थी कि कुछ चीजें एक निश्चित तरीके से की जानी चाहिए। जब लोग अलग दृष्टिकोण पेश करते थे तो मैं सुनती नहीं थी, और मुझे इस बात का होश तब जाकर आया जब मैं अपने सामने आई वास्तविक असफलताओं से टकराई। अब मैं थोड़ा बेहतर हूँ। जब लोग अलग-अलग विचार रखते हैं तो मैं प्रतिरोधी महसूस करती हूँ, लेकिन बाद में उनकी कुछ बातें स्वीकारने में सक्षम रहती हूँ।) रवैये में बदलाव एक दूसरी तरह का बदलाव है; इसका मतलब है कि थोड़ा बदलाव आया है। यह पहले जैसा नहीं है जब तुम जानते थे कि दूसरा व्यक्ति सही है, फिर भी तुम अपनी मरजी पर अड़े रहकर उसे नकार देते थे और उसकी बात स्वीकारने से मना कर देते थे; अब ऐसा नहीं है। तुम्हारे रवैये में पहले ही उलटफेर हो चुका है। इतना बदलकर भी तुम कितने बदले हो? दस प्रतिशत भी नहीं। दस प्रतिशत बदलाव का अर्थ है कि जब दूसरा व्यक्ति अपनी अलग राय बता चुका होता है तो तुममें कम-से-कम विरोध की कोई भावना या प्रतिरोध के विचार नहीं होते; तुम्हारा रवैया सामान्य रहता है। भले ही यह तुम्हें अभी भी दिल से स्वीकार्य नहीं होता, फिर भी तुम्हारा रवैया अड़ियल नहीं रहता, तुम उस व्यक्ति के साथ इस पर चर्चा कर सकते हो, अभ्यास करते हुए तुममें कुछ समर्पण होता है, और तुम सिर्फ अपने विचारों के अनुसार काम नहीं करते। बाद में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो तो कभी तुम दूसरे लोगों की कही बात स्वीकार लेते हो। स्वभाव में बदलाव आते-जाते रहते हैं। खुद में थोड़ा बदलाव ला पाने के लिए तुम्हें अनगिनत झटकों का अनुभव करना होगा, सफल होने के लिए अनगिनत असफलताओं का अनुभव करना होगा, इसलिए कई वर्षों के परीक्षणों और शोधनों का अनुभव किए बिना तुम्हारा स्वभाव बदलना आसान नहीं है। कभी-कभी जब लोगों की मनोदशा अच्छी होती है तो वे दूसरों की सही बातें स्वीकारने में सक्षम होते हैं, लेकिन जब वे उदास होते हैं तो सत्य नहीं खोजते। क्या इससे चीजों में देरी नहीं होती? कभी-कभी जब तुम्हारी अपने साथी के साथ अच्छे से नहीं निभ रही होती है तो तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हो। कभी-कभी जब तुम दूसरों के साथ सहयोग कर रहे होते हो और उनमें तुमसे बेहतर काबिलियत होती है और वे तुमसे बेहतर होते हैं, तो तुम उनके सामने विवश महसूस करते हो, और किसी समस्या का सामना करने पर तुममें सिद्धांतों पर कायम रहने का साहस नहीं होता। कभी-कभी तुम अपने साथी से बेहतर होते हो, और वे मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करते हैं, और तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखते हो और उनके साथ सत्य पर संगति करने को तैयार नहीं होते। कभी-कभी तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन देह की भावनाओं से नियंत्रित होते हो। कभी-कभी तुम दैहिक सुखों का लालच करते हो और चाहकर भी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह नहीं कर पाते। कभी-कभी तुम उपदेश सुनकर सत्य को तो समझ लेते हो, लेकिन इसे अमल में नहीं ला पाते। क्या ये समस्याएँ सुलझाना आसान है? इन्हें अपने आप सुलझाना आसान नहीं है। परमेश्वर ही लोगों को परीक्षणों और शोधन के अधीन कर सकता है, जिससे उन्हें बहुत पीड़ा होती है और अंततः वे सत्य के बिना अपने भीतर खालीपन महसूस करते हैं, मानो सत्य के बिना जी न सकते हों। यह लोगों को आस्था विकसित करने के लिए परिष्कृत करता है और उन्हें ऐसा महसूस कराता है कि उन्हें सत्य के लिए प्रयास करना चाहिए, कि जब तक वे सत्य को अभ्यास में नहीं लाते तब तक उनके दिल को चैन नहीं मिलेगा, और अगर वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाएँगे तो उन्हें भयंकर पीड़ा होगी। परीक्षणों और शोधन का ऐसा ही प्रभाव होता है। स्वभाव में बदलाव इतने कठिन होते हैं। मैं तुम लोगों से क्यों कहता हूँ कि वे आसान नहीं हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि मुझे तुम लोगों के नकारात्मक पड़ने का डर न हो? यह तुम लोगों को यह बताने के लिए है कि स्वभाव में बदलाव कितने महत्वपूर्ण हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम सभी लोग इस पर ध्यान दो, उन अवास्तविक, पाखंडपूर्ण और झूठी आध्यात्मिक छवियों का अनुसरण करना बंद करो, हमेशा उन काल्पनिक आध्यात्मिक सिद्धांतों, प्रथाओं और नियमों का पालन करना बंद करो; वरना तुम्हें नुकसान होगा और फायदा तो बिल्कुल भी नहीं होगा।
अभी हमने स्वभाव के एक पहलू हठधर्मिता के बारे में बात की। हठधर्मिता अक्सर एक तरह का रवैया होता है जो लोगों के दिल की गहराइयों में छिपा होता है। आम तौर पर यह बाहर से स्पष्ट नहीं होता, लेकिन जब यह जाहिर होता है तो इसका पता लगाना आसान होगा, और लोग कहेंगे, “ये अड़ियल हैं! ये सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते—ये बहुत हठी हैं!” हठी स्वभाव वाले एक ही नजरिए पर टिके रहते हैं और सिर्फ एक ही चीज से चिपके रहते हैं, उसे कभी छोड़ते नहीं। तो क्या यह लोगों के स्वभाव का एकमात्र पक्ष है? बेशक नहीं—और भी कई पक्ष हैं। देखो, क्या तुम लोग बता सकते हो कि मैं आगे किस तरह के स्वभाव का वर्णन करने वाला हूँ। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता क्योंकि सत्य सिर्फ परमेश्वर के पास है; लोगों के पास सत्य नहीं होता है, उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे जो कुछ भी कहते हैं उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए मैं सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हूँ।” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी और दंभी।) (प्रधान दूत, शैतान का स्वभाव।) यह एक अहंकारी स्वभाव है। हमेशा ऐसा मत कहो कि यह शैतान का स्वभाव या प्रधान दूत का स्वभाव है, बोलने का यह तरीका बहुत व्यापक और अस्पष्ट है और लोगों के लिए इसे समझना मुश्किल है। यह कहना ज्यादा पते की बात है कि यह एक अहंकारी स्वभाव है। बेशक, यही अकेले प्रकार का स्वभाव नहीं है जो वे प्रकट करते हैं, बात बस यह है कि अहंकारी स्वभाव इतने स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है। इसे अहंकारी स्वभाव कहने से लोग आसानी से समझ सकेंगे, इसलिए कहने का यह तरीका सबसे उपयुक्त है। कुछ लोगों के पास कुछ कौशल, कुछ गुण, कुछ छोटी-मोटी अभिरुचियाँ होती हैं और वे कलीसिया के लिए कई कर्म कर चुके होते हैं। ये लोग यही सोचते हैं, “परमेश्वर में तुम लोगों की आस्था का मतलब दिन भर किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह परमेश्वर के वचन पढ़ना, उनकी नकल करना, उन्हें लिखना, याद करना है। इसमें क्या तुक है? क्या तुम कुछ वास्तविक कार्य कर सकते हो? जब तुम कुछ नहीं करते, तो खुद को आध्यात्मिक कैसे कह सकते हो? तुम लोगों में जीवन नहीं है। मुझमें जीवन है, मैं जो कुछ भी करता हूँ वह वास्तविक होता है।” यह कैसा स्वभाव है? उनके पास कुछ विशेष कौशल होते हैं, कुछ गुण होते हैं, वे थोड़ा अच्छा कर सकते हैं और वे इन चीजों को जीवन मान लेते हैं। नतीजतन, वे किसी का आज्ञापालन नहीं करते, वे किसी को उपदेश देने से नहीं डरते, वे सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं—क्या यह अहंकार है? (हाँ।) यह अहंकार है। आम तौर पर लोग किन परिस्थितियों में अहंकार प्रकट करते हैं? (जब उनमें कुछ गुण या विशेष कौशल होते हैं, जब वे कुछ व्यावहारिक चीजें कर सकते हैं, जब उनके पास पूँजी होती है।) यह एक प्रकार की स्थिति होती है। तो क्या जिन लोगों में गुण या कोई विशेष कौशल नहीं होते, वे अहंकारी नहीं होते? (वे भी अहंकारी होते हैं।) जिस व्यक्ति के बारे में हमने अभी बात की है, वह अक्सर कहेगा, “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता,” और यह सुनकर लोग अपने मन में सोचेंगे, “यह व्यक्ति सत्य के प्रति कितना समर्पित है, यह सत्य के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता, यह जो कहता है वह सही है!” वास्तव में, इन सही लगने वाले शब्दों के भीतर एक प्रकार का अहंकारी स्वभाव है : “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता” का स्पष्ट अर्थ है कि वह किसी के प्रति समर्पण नहीं करता। मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या ऐसी बातें कहने वाले वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं? वे कभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते। इस तरह की बातें कह सकने वाले लोग निस्संदेह सबसे ज्यादा अहंकारी होते हैं। बाहर से उनका कहा सही लगता है—पर वास्तव में यह सबसे कपटपूर्ण तरीका है जिससे अहंकारी स्वभाव अभिव्यक्त होता है। वे इन “परमेश्वर के अलावा” शब्दों का उपयोग यह साबित करने की कोशिश में करते हैं कि वे तर्कसंगत हैं, लेकिन वास्तव में यह किसी जगह सोना गाड़कर उसके ऊपर यह लिखने जैसा है कि “यहाँ कोई सोना नहीं गड़ा है।” क्या यह मूर्खता नहीं है? तुम लोग क्या कहते हो, किस तरह का व्यक्ति सबसे अहंकारी होता है? लोग ऐसी कौन-सी बातें कह सकते हैं, जो उन्हें सबसे ज्यादा अहंकारी बनाती हैं? शायद तुम लोगों ने पहले कुछ अहंकार भरी बातें सुनी हों। इनमें से सबसे अहंकार भरी बात क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? क्या कोई यह कहने की हिम्मत करता है, “मैं किसी के प्रति समर्पण नहीं करता—स्वर्ग या पृथ्वी के प्रति भी नहीं, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों के प्रति भी नहीं”? सिर्फ बड़ा लाल अजगर, यह बुरा दानव ही ऐसा कहने का साहस करता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई भी ऐसा नहीं कहेगा। लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग अगर यह कहें कि “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता” तो वे बड़े लाल अजगर से बहुत अलग नहीं हैं, वे दुनिया में अव्वल स्थान पर आने की बराबरी करते हैं, वे सबसे अहंकारी हैं। तुम लोग क्या सोचते हो, सभी लोग अहंकारी हैं लेकिन क्या उनके अहंकार में कोई अंतर है? तुम कहाँ भेद करते हो? सभी भ्रष्ट मनुष्यों में अहंकारी स्वभाव होते हैं, लेकिन उनके अहंकार में अंतर होता है। जब व्यक्ति का अहंकार एक निश्चित स्तर तक पहुँच जाता है, तो वह सारा विवेक खो देता है। अंतर यह है कि क्या किसी के कहने में कोई विवेकपूर्ण बात है। कुछ लोग अहंकारी होते हैं, फिर भी उनमें थोड़ा-सा विवेक होता है। अगर वे सत्य स्वीकार लेते हैं तो अभी भी उनके पास उद्धार की आशा होती है। कुछ लोग इतने अहंकारी होते हैं कि उनमें कोई विवेक नहीं होता—उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं होती—और ऐसे लोग कभी भी सत्य नहीं स्वीकार पाते। अगर लोग इतने अहंकारी हों कि उनमें कोई विवेक न हो, तो वे सारी शर्म खो देते हैं और सिर्फ मूर्खतापूर्वक अहंकारी होते हैं। ये सभी एक अहंकारी स्वभाव के खुलासे और अभिव्यक्तियाँ हैं। अगर उनका स्वभाव अहंकारी न होता, तो वे ऐसा कैसे कह सकते थे कि “मैं परमेश्वर के अलावा किसी के प्रति समर्पण नहीं करता”? वे निश्चित रूप से न कहते। निस्संदेह, अगर किसी व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव है तो उसमें अहंकार की अभिव्यक्ति होती है और वह यकीनन ऐसी अहंकार भरी बातें कहेगा और करेगा जिनमें किसी तरह का विवेक नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें अहंकारी स्वभाव नहीं है लेकिन मुझमें ऐसी चीजें प्रकट होती हैं।” क्या इन शब्दों में दम है? (नहीं।) दूसरे कहते हैं, “मुझसे रहा नहीं जाता। जैसे ही मैं असावधान होता हूँ, कोई अहंकारी बात कह बैठता हूँ।” क्या इन शब्दों में दम है? (नहीं।) क्यों नहीं? इन शब्दों का मूल कारण क्या है? (खुद को न जानना।) नहीं—वे जानते हैं कि वे अहंकारी हैं, लेकिन जब वे दूसरों को यह कहते हुए अपना मजाक उड़ाते सुनते हैं कि “तुम इतने अहंकारी कैसे हो? तुम किस बात पर इतने घमंडी हो?” तो उन्हें शर्म आती है, इसीलिए वे ऐसी बातें कहते हैं। उनका अभिमान इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता, वे इसे ढकने, छिपाने, आकर्षक रूप में पेश करने और खुद को मुसीबत से बचाने का बहाना ढूँढ़ते हैं। इसलिए उनकी बातों में दम नहीं होता। जब तुम्हारे अहंकारी स्वभाव का समाधान होना बाकी रहता है, तो जब तुम कुछ नहीं भी बोलते तब भी अहंकारी होते हो। अहंकार लोगों की प्रकृति में है, वह उनके दिलों में छिपा है और कभी भी उजागर हो सकता है। इसीलिए जब तक स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता, तब तक लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट बने रहते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। एक नवनिर्वाचित अगुआ एक कलीसिया में आकर देखता है कि उसके प्रति लोगों की नजर और हाव-भाव काफी उत्साहहीन हैं। वह मन-ही-मन सोचता है कि “क्या यहाँ मेरी अगवानी नहीं होगी? मैं नवनिर्वाचित अगुआ हूँ; तुम मुझसे ऐसे रवैये के साथ कैसे पेश आ सकते हो? तुम मुझसे प्रभावित क्यों नहीं हो? मुझे भाई-बहनों ने चुना है, इसलिए मेरा आध्यात्मिक कद तुम लोगों से ज्यादा है, है ना?” लिहाजा वह कहता है, “मैं नवनिर्वाचित अगुआ हूँ। हो सकता है कुछ लोग मुझे न स्वीकारें, लेकिन कोई बात नहीं। चलो आपस में एक प्रतियोगिता करके देख लेते हैं कि परमेश्वर के वचनों के ज्यादा अंश किसे कंठस्थ हैं, कौन दर्शनों के सत्यों पर संगति कर सकता है। मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को अगुआ का पद सौंप दूँगा जो मुझसे ज्यादा स्पष्ट रूप से सत्यों पर संगति कर सकता हो। बताओ, तुम लोग क्या कहते हो?” यह कैसी युक्ति है? जब लोग उसके प्रति उदासीन होते हैं, तो वह असंतुष्ट होकर उन्हें कष्ट देना और उनसे बदला लेना चाहता है; अब जबकि वह अगुआ है तो वह लोगों पर हावी होना चाहता है—वह चोटी पर रहना चाहता है। यह कैसा स्वभाव है? (अहंकारी।) तो क्या अहंकारी स्वभाव हल करना आसान है? (नहीं।) लोगों के अहंकारी स्वभाव बार-बार प्रकट होते हैं। दूसरों को नई प्रबुद्धता और समझ पर संगति करते सुनना कुछ लोगों के लिए कष्टप्रद होता है : “मेरे पास इस बारे में कहने के लिए कुछ क्यों नहीं है? यह नहीं चलेगा, मुझे सोचना होगा और कुछ बेहतर करना होगा।” और इसलिए वे दूसरों से आगे निकलने की कोशिश करते हुए ढेर सारा सिद्धांत उगल देते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करना है; यह भी अहंकार है। जहाँ तक स्वभाव की बात है, भले ही तुम चुपचाप बैठे रहो, न कुछ कहो, न करो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव तुम्हारे दिल में मौजूद रहेगा और तुम्हारे विचारों और तुम्हारी हाव-भाव से भी प्रकट हो सकता है। अगर लोग इसे दबाने या नियंत्रित करने के तरीके आजमाएँ और इसे प्रकट होने से रोकने के लिए हमेशा सावधान रहें, तो क्या इसका कोई फायदा है? (नहीं।) कुछ लोग कोई अहंकार भरी बात कहते ही महसूस कर लेते हैं : “मैंने अपना अहंकारी स्वभाव फिर प्रकट कर दिया है—कितनी शर्म की बात है! मुझे दोबारा कभी कोई अहंकार भरी बात नहीं कहनी चाहिए।” लेकिन अपना मुँह बंद रखने की कसमें खाना कुछ काम नहीं आता, यह तुम पर नहीं, बल्कि तुम्हारे स्वभाव पर निर्भर है। इसलिए अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव प्रकट हो तो तुम्हें इसे सुधार लेना चाहिए। यह अपने कुछ शब्द सुधार लेने या काम करने के किसी तरीके को सुधारने का मामला नहीं है, और किसी नियम का पालन करने का मामला तो बिल्कुल भी नहीं है। यह अपने स्वभाव की समस्या हल करने का मामला है। अब जबकि मैंने इस विषय पर बात कर ली है कि स्वभाव वास्तव में क्या होता है, तो क्या तुम लोगों को अपने बारे में कहीं ज्यादा गहरी और पैनी समझ नहीं मिल गई है? (बिल्कुल।) खुद को जानना अपने बाहरी व्यक्तित्व, मिजाज, बुरी आदतें, अतीत में की गईं अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण चीजें जानने का मामला नहीं है—यह इनमें से कुछ भी नहीं है। बल्कि, यह अपना भ्रष्ट स्वभाव और वे बुराइयाँ जानना है जिन्हें व्यक्ति परमेश्वर के विरोध में करने में सक्षम है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा विस्फोटक मिजाज है और इसे बदलने के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इस स्वभाव को कब बदल सकता हूँ?” तो कुछ दूसरे लोग कहते हैं, “मैं खुद को व्यक्त करने में बहुत बुरा हूँ, मैं अच्छा वक्ता नहीं हूँ। मैं जो कुछ भी कहता हूँ, उससे लोगों को ठेस पहुँचा देता हूँ या उनकी भावनाओं को आहत कर बैठता हूँ। यह कब बदलेगा?” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) वे कहाँ गलती करते हैं? (यह अपनी प्रकृति के भीतर की चीजें न पहचानना है।) सही कहा। व्यक्तित्व प्रकृति को निर्धारित नहीं करता। किसी का व्यक्तित्व कितना भी अच्छा क्यों न हो, फिर भी उसमें भ्रष्ट स्वभाव हो सकता है।
अभी मैंने स्वभाव के दो पहलुओं के बारे में बात की। पहला हठधर्मिता, दूसरा अहंकार। हमें अहंकार के बारे में बहुत ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति बहुत अहंकारी व्यवहार प्रकट करता है, और तुम लोगों को बस यह जानने की जरूरत है कि अहंकार स्वभाव का एक पहलू है। एक अन्य प्रकार का स्वभाव भी होता है। कुछ लोग कभी किसी को सच नहीं बताते। लोगों से कहने से पहले वे अपने दिमाग में हर चीज पर सोच-विचार कर उसे चमकाते हैं। तुम नहीं बता सकते कि उनकी कौन-सी बातें सच हैं और कौन-सी झूठी। वे आज एक बात कहते हैं तो कल दूसरी, वे एक व्यक्ति से एक बात कहते हैं तो दूसरे से कुछ और। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अपने आप में विरोधाभासी होता है। ऐसे लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? तथ्यों की सटीक समझ प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाता है, तुम उनसे कोई सीधी बात नहीं बुलवा सकते। यह कौन-सा स्वभाव है? यह कपट है। क्या कपटी स्वभाव बदलना आसान है? इसे बदलना सबसे मुश्किल है। जिस भी चीज में स्वभाव शामिल होते हैं, वह व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित होती है, और व्यक्ति की प्रकृति से जुड़ी चीजों से मुश्किल किसी भी चीज का बदलना नहीं होता। “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती” कहावत बिल्कुल सच है। कपटी लोग चाहे किसी भी चीज के बारे में बात करें या कुछ भी करें, वे हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे रखते हैं। अगर उनका कोई लक्ष्य या इरादा न हो, तो वे कुछ नहीं कहेंगे। अगर तुम यह समझने की कोशिश करो कि उनके लक्ष्य और इरादे क्या हैं, तो वे एकाएक बोलना बंद कर देते हैं। अगर उनके मुँह से अचानक कोई सच निकल भी जाए, तो वे उसे तोड़ने-मरोड़ने का कोई तरीका सोचने के लिए किसी भी हद तक जाएँगे, ताकि तुम्हें भ्रमित कर सच जानने से रोक सकें। कपटी व्यक्ति चाहे कुछ भी करें, वे उसके बारे में किसी को पूरा सच पता नहीं चलने देंगे। लोग चाहे उनके साथ कितना भी समय बिता लें, कोई नहीं जानता कि उनके दिमाग में वास्तव में क्या चल रहा है। ऐसी होती है कपटी लोगों की प्रकृति। कपटी व्यक्ति चाहे कितना भी बोल लें, दूसरे लोग कभी नहीं जान पाएँगे कि उनके इरादे क्या हैं, वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं, या वे ठीक-ठीक क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ तक कि उनके माता-पिता को भी यह जानने में मुश्किल होती है। कपटी लोगों को समझने की कोशिश करना बेहद मुश्किल है, कोई नहीं जान सकता कि उनके दिमाग में क्या है। कपटी लोग ऐसे ही बोलते या करते हैं : वे कभी अपने मन की बात नहीं कहते या जो वास्तव में चल रहा होता है, उसे व्यक्त नहीं करते। यह एक प्रकार का स्वभाव है, है न? जब तुम में कपटी स्वभाव होता है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कहते या करते हो—यह स्वभाव हमेशा तुम्हारे भीतर रहता है, तुम्हें नियंत्रित करता है, तुमसे खेल कराता है और तुम्हें छल-कपट में संलग्न करता है, तुमसे लोगों के साथ खिलवाड़ कराता है, सत्य पर पर्दा डलवाता है और तुमसे अपने असली मनोभाव छिपवाता है। यह कपट है। कपटी लोग अन्य किन विशिष्ट व्यवहारों में संलग्न होते हैं? मैं एक उदाहरण देता हूँ। दो लोग बात कर रहे हैं, और उनमें से एक अपने आत्मज्ञान के बारे में बोल रहा है; यह व्यक्ति इस बारे में बात करता रहता है कि वह कैसे सुधरा है, और दूसरे व्यक्ति को इस पर विश्वास करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करता है, लेकिन वह उसे मामले के वास्तविक तथ्य नहीं बताता। इसमें कुछ छिपाया जा रहा है और यह एक खास स्वभाव का संकेत देता है—कपट का। चलो देखते हैं कि तुम लोग इसका भेद पहचान पाते हो या नहीं। यह व्यक्ति कहता है, “मैंने हाल ही में कुछ चीजें अनुभव की हैं, और मुझे लगता है कि इन वर्षों में परमेश्वर में मेरा विश्वास व्यर्थ रहा है। मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ है। मैं बहुत दीन और दयनीय हूँ! हाल ही में मेरा व्यवहार बहुत अच्छा नहीं रहा है, लेकिन मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ।” लेकिन यह कहने के कुछ समय बाद ही उसमें पश्चात्ताप का लक्षण कहीं दिखाई नहीं देता। यहाँ क्या समस्या है? दरअसल, वह झूठ बोलता है और दूसरों को बहकाता है। जब दूसरे लोग उसे ऐसी बातें कहते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति ने पहले सत्य का अनुसरण नहीं किया था, लेकिन यह तथ्य कि अब यह ऐसी बातें कह सकता है, दिखाता है कि इसने वास्तव में पश्चात्ताप किया है। इस बारे में कोई संदेह नहीं है। हमें इसे पहले की तरह नहीं, बल्कि एक नए, बेहतर आलोक में देखना चाहिए।” ये शब्द सुनकर लोग ऐसे ही सोचते-विचारते हैं। लेकिन क्या उस व्यक्ति की वर्तमान दशा वैसी ही है जैसा वह कहता है? हकीकत यह है कि ऐसा नहीं है। उसने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया है, लेकिन उसके शब्द यह भ्रम देते हैं कि उसने ऐसा किया है, और कि वह बदलकर बेहतर हो गया है और पहले से अलग है। यही वह अपने शब्दों से हासिल करना चाहता है। लोगों को छलने के लिए इस तरह से बोलकर वह कैसा स्वभाव प्रकट कर रहा है? यह कपट है—और यह बहुत घातक है! तथ्य यह है कि उसे इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं है कि वह परमेश्वर में अपने विश्वास में विफल हो गया है, कि वह बहुत दीन और दयनीय है। वह लोगों को छलने के लिए, दूसरों को अपने बारे में अच्छा सोचने और अच्छी राय रखने के लिए प्रेरित करने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक शब्द और भाषा उधार ले रहा है। क्या यह कपट नहीं है? यह कपट है, और जब कोई बहुत ज्यादा कपटी होता है, तो उसके लिए खुद को बदलना आसान नहीं होता।
एक और प्रकार का व्यक्ति होता है, जो कभी सरलता या खुलेपन से बात नहीं करता। वह हमेशा चीजें ढकता-छिपाता रहता है, हर मोड़ पर लोगों से जानकारी बटोरता है और उनकी मंशा जानने की कोशिश करता है। वह हमेशा दूसरों के बारे में पूरा सच जानना चाहता है, लेकिन अपने दिल की बात नहीं बताता। उससे बातचीत करने वाला कोई भी व्यक्ति उसके बारे में पूरा सच जानने की कभी उम्मीद नहीं कर सकता। ऐसे लोग नहीं चाहते कि दूसरों को उनकी योजनाओं का पता चले, और वे इन्हें किसी के साथ साझा नहीं करते। यह कैसा स्वभाव है? यह एक कपटी स्वभाव है। ऐसे लोग अत्यंत चालाक होते हैं, उनकी थाह कोई नहीं ले सकता। अगर किसी का कपटी स्वभाव है, तो वह निस्संदेह एक कपटी व्यक्ति है, और वह प्रकृति सार में कपटी है। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण करता है? अगर वह दूसरे लोगों के सामने सच नहीं बोलता, तो क्या वह परमेश्वर के सामने सच बोलने में सक्षम है? हरगिज नहीं। कपटी व्यक्ति कभी सच नहीं बोलता। वह परमेश्वर में विश्वास कर सकता है, पर क्या उसका विश्वास सच्चा होता है? परमेश्वर के प्रति उसका किस तरह का रवैया होता है? उसके मन में निश्चित ही अनेक संदेह होंगे : “कहाँ है परमेश्वर? मैं उसे नहीं देख सकता। क्या सबूत है कि वह वास्तविक है?” “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है? वाकई? शैतान का शासन परमेश्वर में विश्वास करने वालों को क्रोधोन्मत्त होकर उत्पीड़ित और गिरफ्तार कर रहा है। परमेश्वर इसे नष्ट क्यों नहीं कर देता?” “परमेश्वर लोगों को वास्तव में कैसे बचाता है? क्या उसका उद्धार वास्तविक है? यह बहुत स्पष्ट नहीं है।” “परमेश्वर में विश्वास करने वाला स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है या नहीं? बिना किसी पुष्टि के यह कहना मुश्किल है।” अपने दिल में परमेश्वर के बारे में इतने सारे संदेहों के रहते क्या वह खुद को उसके लिए ईमानदारी से खपा सकता है? यह असंभव है। जिन लोगों ने परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया है, जो परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, उन सभी को देखकर वे सोचते हैं, “मुझे अपने पास कुछ रोककर रखने की जरूरत है। मैं उनकी तरह मूर्ख नहीं हो सकता। अगर मैं सब कुछ परमेश्वर को अर्पित कर दूँ तो मैं भविष्य में कैसे जिऊँगा? मेरी देखभाल कौन करेगा? मुझे एक आकस्मिक योजना की जरूरत है।” तुम देख सकते हो कि कपटी लोग कितने “चतुर” होते हैं, वे कितनी आगे की सोचते हैं। कुछ लोग सभाओं में दूसरों को अपनी भ्रष्टता की जानकारी के बारे में खुलकर बोलते, संगति में अपने हृदय में छिपी बातें पेश करते और सच्चाई से यह कहते देखकर कि उन्होंने कितनी बार व्यभिचार किया है, सोचते हैं, “अरे मूर्ख! ये निजी बातें हैं; तुम इन्हें दूसरों को क्यों बताते हो? मैं मर जाऊँगा पर एक भी शब्द नहीं कहूँगा!” ऐसे होते हैं कपटी लोग—वे ईमानदार होने के बजाय मरना पसंद करेंगे और वे किसी को पूरा सत्य नहीं बताते। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपराध किया है और कुछ बुरी चीजें की हैं, और लोगों को इनके बारे में आमने-सामने बताने में मुझे थोड़ी शर्म महसूस होती है। आखिरकार ये निजी चीजें हैं और शर्मनाक हैं। पर मैं उन्हें परमेश्वर से दबा-छिपा नहीं सकता। मुझे परमेश्वर को ये चीजें बिना ढके खुलकर बतानी चाहिए। मैं दूसरे लोगों को अपने विचार या निजी मामले बताने की हिम्मत नहीं करूँगा, पर परमेश्वर को मुझे बताना होगा। चाहे मैं और किसी से भी चीजें छिपाकर रखूँ, लेकिन परमेश्वर से छिपाकर नहीं रख सकता।” ईमानदार व्यक्ति परमेश्वर के प्रति यही रवैया रखता है। लेकिन कपटी मनुष्य सबसे सावधान रहते हैं, वे किसी पर विश्वास नहीं करते और किसी के साथ ईमानदारी से नहीं बोलते। वे किसी को भी पूरा सत्य नहीं बताते और कोई भी उन्हें समझ नहीं सकता। ये सबसे कपटी लोग हैं। सभी में कपटी स्वभाव होता है; फर्क सिर्फ इतना है कि यह कितना गंभीर है। भले ही तुम सभाओं में अपना हृदय खोलकर अपनी समस्याओं के बारे में संगति कर लो लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुममें कपटी स्वभाव नहीं है? ऐसा नहीं है, तुममें भी कपटी स्वभाव है। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? यह रहा उदाहरण : तुम संगति में उन चीजों के बारे में तो खुलकर बात कर सकते हो जो तुम्हारे गर्व या अभिमान को नहीं छूतीं, जो शर्मनाक नहीं हैं और जिनके लिए तुम्हारी काट-छाँट नहीं की जाएगी—लेकिन अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, जिससे हर कोई घृणा और वितृष्णा करे तो क्या तुम सभाओं में उसके बारे में खुलकर संगति कर पाओगे? और अगर तुमने कुछ ऐसा किया हो जिसे बयान नहीं किया जा सकता, तो उसके बारे में खुलकर सत्य बताना तुम्हारे लिए और भी मुश्किल होगा। अगर कोई इस मामले की जाँच करे या इसके लिए दोष तय करने का प्रयास करे तो तुम इसे छिपाने के लिए अपने सभी हथकंडे अपनाओगे और इस बात से भयभीत रहोगे कि यह उजागर हो सकता है। तुम हमेशा उस पर पर्दा डालने और उससे बच निकलने की कोशिश करोगे। क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? तुम्हें लग सकता है कि अगर तुम इसे जोर से नहीं कहते, तो किसी को इसका पता नहीं चलेगा, यहाँ तक कि परमेश्वर के पास भी इसे जानने का कोई उपाय नहीं होगा। यह गलत है! परमेश्वर लोगों के अंतरतम की पड़ताल करता है। अगर तुम इसे महसूस नहीं कर सकते, तो तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। कपटी लोग न सिर्फ दूसरों को छलते हैं—वे परमेश्वर को छलने की कोशिश करने की हिम्मत भी करते हैं और उसका प्रतिरोध करने के लिए कपटपूर्ण हथकंडे आजमाते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और कपटी लोगों से वह सबसे ज्यादा घृणा करता है। अतः कपटी लोग वे हैं जिनके लिए उद्धार प्राप्त करना सबसे कठिन है। कपटी प्रकृति के लोग सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाले होते हैं। यहाँ तक कि वे परमेश्वर से भी झूठ बोलते हैं और उसे भी छलने की कोशिश करते हैं, और हठपूर्वक पश्चात्ताप नहीं करते। इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। अगर कोई सिर्फ समय-समय पर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, अगर वह झूठ बोलता और लोगों को छलता है, लेकिन सरल है और परमेश्वर के सामने खुलकर पश्चात्ताप करता है, तो ऐसे व्यक्ति के पास अभी भी उद्धार प्राप्त करने की आशा होती है। अगर तुम वाकई विवेकवान व्यक्ति हो, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने खुलना चाहिए, उससे दिल से बात करनी चाहिए और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुम्हें अब और परमेश्वर से झूठ नहीं बोलना चाहिए, तुम्हें किसी भी समय उसके साथ छल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और उससे कुछ छिपाने की कोशिश तो और भी कम करनी चाहिए। तथ्य यह है कि कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में लोगों को जानने की जरूरत नहीं है। अगर तुम उनके बारे में परमेश्वर के साथ खुले हो, तो यह ठीक है। जब तुम काम करो, तो सुनिश्चित करो कि परमेश्वर से राज न रखो। तुम परमेश्वर से वे सब बातें कह सकते हो, जो दूसरे लोगों से कहने लायक नहीं हैं। ऐसा करने वाला व्यक्ति बुद्धिमान होता है। भले ही ऐसी कुछ चीजें हों जिनके बारे में उसे दूसरों के सामने खुलकर बात करने की जरूरत महसूस न हो, लेकिन इसे कपट नहीं कहा जाना चाहिए। कपटी लोग अलग होते हैं : वे मानते हैं कि उन्हें सब कुछ छिपाना चाहिए, कि वे अन्य लोगों को कुछ नहीं बता सकते, खासकर जब बात निजी मामलों की हो। अगर उन्हें कुछ कहने से लाभ नहीं होगा तो वे यह दूसरों को नहीं कहेंगे, परमेश्वर से भी नहीं। क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? ऐसा व्यक्ति वास्तव में कपटी होता है! अगर कोई इतना कपटी है कि परमेश्वर को भी सच नहीं बताता और परमेश्वर से सब कुछ गुप्त रखता है, तो क्या वह ऐसा व्यक्ति भी है जो परमेश्वर में विश्वास रखता है? क्या उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था है? वह ऐसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर पर संदेह करता है और अपने हृदय में उस पर विश्वास नहीं करता। तो क्या उसकी आस्था झूठी नहीं है? वह छद्म-विश्वासी है, नकली विश्वासी है। क्या तुम लोग कभी परमेश्वर पर संदेह कर उससे सावधान रहते हो? (बिल्कुल।) परमेश्वर पर संदेह करना और उससे सावधान रहना, यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह एक कपटी स्वभाव है। हर किसी का कपटी स्वभाव होता है, मामला सिर्फ इसकी गंभीरता का है। अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो तो पश्चात्ताप कर बदल सकते हो।
कुछ लोग अपने साथ कुछ होने पर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, धारणाएँ और विचार रखते हैं, अन्य लोगों के बारे में पूर्वाग्रह रखते और राय बनाते हैं और पीठ पीछे उनकी जड़ें खोदते हैं। वे आत्मचिंतन कर सकते हैं और इन चीजों के बारे में पूरी तरह से खुलकर बोल सकते हैं, लेकिन जब वे कुछ शर्मनाक चीजें करते हैं, तो उन्हें गुप्त रखना चाहते हैं और हमेशा के लिए अपने दिल में बंद कर लेते हैं। न सिर्फ वे दूसरों के साथ उन चीजों के बारे में बात नहीं करते, बल्कि जब वे प्रार्थना करते हैं तो वे उनके बारे में परमेश्वर को भी नहीं बताते। यहाँ तक कि वे उन चीजों को ढकने या छिपाने के लिए झूठ गढ़ने की हर संभव कोशिश भी करते हैं। यह एक कपटी स्वभाव है। जब तुम इस तरह के विचार रखते हो, जब तुम इस तरह की मनोदशा में जीते हो तो तुम्हें आत्मचिंतन कर स्पष्ट रूप से देख लेना चाहिए कि तुम कोई ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तुममें ऐसा कुछ अभिव्यक्त नहीं होता जिसे परमेश्वर एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में वर्णित करे, कि तुम पूरी तरह एक कपटी व्यक्ति हो और तुम मूर्ख, कम काबिल और मंदबुद्धि होकर भी एक कपटी व्यक्ति ही हो। खुद को जानने का यही अर्थ है। खुद को जानने में तुम्हें कम-से-कम खुद से प्रकट होने वाली स्पष्ट भ्रष्टता साफ तौर पर देख पाने और उसका भेद पहचान पाने में सक्षम होना चाहिए और इससे निपटने के लिए सत्य खोज पाने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम अपने कपटी स्वभाव को वास्तव में जानते हो तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने कपटी स्वभाव का भेद पहचानना चाहिए और इसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए और इसका सार समझना चाहिए; तब तुम्हारे पास अपना कपटपूर्ण भ्रष्ट स्वभाव त्यागने की आशा होगी। कुछ लोग कपटी लोगों और ईमानदार लोगों के बीच अंतर स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते—जिसका अर्थ है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है। कुछ लोग अपनी कम काबिलियत, मूर्खता, अज्ञानता, अंतर्दृष्टि की कमी, फूहड़ बोलचाल, सामाजिक कौशल की कमी और ठगे जा सकने को अक्सर ईमानदारी के सबूत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। वे हमेशा दूसरों से कहते हैं, “मैं बहुत ईमानदार हूँ, नतीजतन मुझे अक्सर बहुत नुकसान उठाना पड़ता है, मैं दूसरों का फायदा उठाना नहीं जानता—फिर भी परमेश्वर मुझे पसंद करता है, क्योंकि मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ।” क्या ये शब्द सही हैं? ऐसे शब्द हास्यास्पद हैं, ये लोगों को गुमराह करने के लिए रचे गए हैं, ये ढिठाई और बेशर्मी से भरे हैं। मूर्ख और बेवकूफ लोग ईमानदार कैसे हो सकते हैं? ये दो अलग चीजें हैं। अपनी मूर्खतापूर्ण करनी को ईमानदारी समझना एक बड़ी गलती है। सभी देख सकते हैं कि मूर्ख भी अहंकारी और दंभी हो सकते हैं, अपने बारे में ऊँची राय रख सकते हैं। लोग चाहे कितने भी अज्ञानी और कम काबिल क्यों न हों, फिर भी वे झूठ बोल सकते हैं और दूसरों को धोखा दे सकते हैं। क्या यह सब तथ्य नहीं है? क्या मूर्ख और कम काबिल लोग वास्तव में कभी कोई बुरा नहीं करते? क्या उनमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव नहीं होते? निश्चित रूप से होते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वे ईमानदार हैं और वे अपने झूठ के बारे में दूसरों से खुलकर बात करते हैं, लेकिन वे अपनी शर्मनाक करनी के बारे में खुलकर बात करने की हिम्मत नहीं करते। जब कलीसिया उनकी समस्याओं के लिए उनसे निपटती है तो उन्हें यह गवारा नहीं होता और वे बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, बल्कि वे पर्दे के पीछे से ताक-झाँक करना और सच उगलवाना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसे कपटी व्यक्ति सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते और बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, फिर भी खुद को ईमानदार समझते हैं। क्या यह सरासर बेशर्मी नहीं है? यह नितांत मूर्खता है! इस तरह का व्यक्ति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं होता, न ही वह निष्कपट होता है। बेवकूफ लोग बेवकूफ ही होते हैं; मूर्ख मूर्ख ही होते हैं। सिर्फ वो निष्कपट लोग जो धोखेबाज नहीं हैं ईमानदार होते हैं।
कपटी लोगों का भेद कैसे पहचाना जा सकता है? कपटी लोगों का आचार-व्यवहार कैसा होता है? चाहे वे किसी के साथ भी जुड़ें या संलग्न हों, वे कभी किसी को यह नहीं परखने देते कि वास्तव में उनके साथ क्या हो रहा है; वे हमेशा दूसरों से सावधान रहते हैं, वे हमेशा लोगों की पीठ पीछे काम करते हैं और कभी नहीं बताते कि वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं। वे कभी-कभी खुद को जानने के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण बिंदुओं या प्रमुख शब्दों का कोई उल्लेख नहीं करते, और वे कुछ अनचाहे मुँह से निकल जाने से डरते हैं। वे इस डर से इन चीजों के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं कि कहीं दूसरों को उनकी खामियों का पता न चल जाए। यह एक प्रकार का कपटी स्वभाव है। साथ ही, कुछ लोग जान-बूझकर मुखौटा पहन लेते हैं, ताकि दूसरे सोचें कि वे निष्कपट हैं, कष्ट सह सकते हैं और शिकायत नहीं करते, या वे आध्यात्मिक हैं और सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करते हैं। वे स्पष्ट रूप से इस प्रकार के व्यक्ति नहीं होते, लेकिन वे दूसरों के सामने इसका दिखावा करते हैं। यह भी एक कपटी स्वभाव है। कपटी लोग जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसके पीछे कोई न कोई मंतव्य होता है। अगर उनका कोई मंतव्य न हो तो वे बोलते नहीं या कार्य नहीं करते। उनके भीतर एक स्वभाव होता है, जो उन्हें ऐसा करने के लिए नियंत्रित करता है, और वह है कपटपूर्ण स्वभाव। जब लोगों का स्वभाव कपटी होता है, तो क्या उसे बदलना आसान होता है? तुम लोग कितना बदले हो? क्या तुमने ईमानदारी के अनुसरण के मार्ग पर प्रवेश किया है? (हाँ, हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं।) तुमने कितने कदम उठाए हैं? या तुम इसे करने की इच्छा के स्तर पर ही अटके हुए हो? (यह अभी भी ऐसी चीज है, जो हम करना चाहते हैं। कभी-कभी, जब हम कुछ कर बैठते हैं तो उसके बाद ही यह एहसास होता है कि इसमें छल-कपट था और हम लोगों पर झूठी छाप छोड़ने की कोशिश कर रहे थे; सिर्फ तभी हमें एहसास होता है कि हम कपटी हैं।) तुम्हें यह कपट तो लगता है—लेकिन क्या तुम यह महसूस कर पाए कि यह एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है? और भला ये कपटपूर्ण चीजें आती कहाँ से हैं? (हमारी प्रकृति से।) सही बताया, ये तुम्हारी प्रकृति से आती हैं। और क्या ये भ्रष्ट चीजें तुम्हें परेशान करती हैं? इनसे दूर जाना मुश्किल है, इनसे निपटना मुश्किल है, बचना मुश्किल है—और ये बहुत तकलीफदेह भी हैं। इन्हें कष्टप्रद क्या चीज बनाती है? उनके बारे में क्या चीज तुम्हें पीड़ा देती है? (हम बदलना चाहते हैं, लेकिन जब नहीं बदल पाते तो बहुत पीड़ा होती है।) यह एक पहलू है, लेकिन इसे कष्टप्रद नहीं माना जाता। जब व्यक्ति अपने कपटी स्वभाव से नियंत्रित होता है तो वह कभी भी और कहीं भी झूठ बोलकर दूसरों को धोखा दे सकता है, और चाहे उसके साथ कुछ भी हो जाए, वह यही सोचता है कि लोगों को धोखा देने और गुमराह करने के लिए झूठ कैसे बोले जाएँ। अगर वे खुद को रोकना भी चाहें, तो भी रोक नहीं पाते, इसमें उनकी इच्छा काम नहीं आती। समस्या यहीं है। यह स्वभाव की समस्या है। कपटी स्वभाव कितने तरीकों से प्रकट हो सकता है? परीक्षा, छल, एहतियात और साथ ही संदेह, ढोंग और पाखंड से। ऐसे व्यवहार जिस स्वभाव को उजागर और प्रकट करते हैं, वह कपटीपन है। इन विषयों पर संगति करने के बाद क्या तुम लोगों को कपटी स्वभाव का स्पष्ट ज्ञान हो गया है? क्या अब भी तुम्हारे बीच ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “मुझमें कपटी स्वभाव नहीं है, मैं कपटी व्यक्ति नहीं हूँ, मैं करीब-करीब एक ईमानदार व्यक्ति हूँ”? (नहीं।) बहुत-से लोग हैं, जो बिल्कुल नहीं समझते कि ईमानदार व्यक्ति वास्तव में क्या होता है। कुछ लोग कहते हैं कि ईमानदार लोग वे होते हैं जो निष्कपट और स्पष्टवादी हैं, जो जहाँ कहीं भी जाते हैं उन्हें धौंस दी जाती है और बहिष्कृत किया जाता है या जो धीमे होते हैं और बोलने और काम करने में दूसरे लोगों की तुलना में आधा कदम पीछे होते हैं। कुछ मूर्ख और अज्ञानी लोग भी, जो ऐसी मूर्खता करते हैं कि दूसरे उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, खुद को ईमानदार व्यक्ति बताते हैं। इसी तरह खुद को हीन समझने वाले समाज के निचले तबके के तमाम अशिक्षित लोग भी खुद को ईमानदार बताते हैं। उनकी गलती कहाँ है? वे नहीं जानते कि ईमानदार व्यक्ति क्या होता है। उनकी गलतफहमी का स्रोत क्या है? इसका मुख्य कारण यह है कि वे सत्य को नहीं समझते। उनका मानना है कि परमेश्वर जिन “ईमानदार लोगों” की बात करता है, वे मूर्ख और बुद्धिहीन हैं, अशिक्षित हैं, बोलचाल में मंद हैं, दमित और उत्पीड़ित हैं, और आसानी से ठगे और छले जाते हैं। निहितार्थ यह है कि परमेश्वर के उद्धार के पात्र समाज के सबसे निचले पायदान के वो बुद्धिहीन लोग हैं जिन्हें दूसरे अक्सर इधर-उधर धकेल देते हैं। इन दीन-दरिद्रों को नहीं तो परमेश्वर किसे बचाएगा? क्या वे यही नहीं मानते? क्या परमेश्वर वाकई इन्हीं लोगों को बचाता है? यह परमेश्वर के इरादों की गलत व्याख्या है। परमेश्वर जिन लोगों को बचाता है वे वो हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं, जिनमें काबिलियत और समझने की क्षमता होती है, वे सब ऐसे लोग होते हैं जिनमें जमीर और विवेक होता है, जो परमेश्वर के आदेश पूरे करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में सक्षम हैं। ये वे लोग हैं, जो सत्य स्वीकारने और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने में सक्षम हैं, ये वे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और परमेश्वर की आराधना करते हैं। भले ही इनमें से ज्यादातर लोग समाज के निचले स्तर से, मजदूरों और किसानों के परिवारों से हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से भ्रमित व्यक्ति, अनाड़ी या निकम्मे नहीं हैं। इसके विपरीत, वे चतुर लोग हैं जो सत्य को स्वीकारने, उसका अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं। वे सब न्यायी लोग हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य और जीवन प्राप्त करने के लिए सांसारिक वैभव और धन-दौलत त्याग देते हैं—वे सबसे बुद्धिमान लोग हैं। ये सब ईमानदार लोग हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और वास्तव में उसके लिए खुद को खपाते हैं। वे परमेश्वर से स्वीकृति और आशीष प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें उसके लोगों और उसके मंदिर के स्तंभों के रूप में पूर्ण किया जा सकता है। वे सोने, चाँदी और बहुमूल्य रत्नों के लोग हैं। जिन्हें हटाया जाएगा वे तो भ्रमित, मूर्ख, बेतुके और निकम्मे लोग हैं। छद्म-विश्वासी और बेतुके लोग परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन योजना को किस रूप में देखते हैं? डलावघर के रूप में, है न? ये लोग न सिर्फ कम क्षमता के होते हैं, बल्कि बेतुके भी होते हैं। वे चाहे परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ लें, सत्य को नहीं समझ पाते, और चाहे कितने भी उपदेश सुन लें, वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहते हैं—अगर वे इतने मूर्ख हैं, तो क्या फिर भी उन्हें बचाया जा सकता है? क्या परमेश्वर इस तरह के किसी व्यक्ति को चाहता है? वे चाहे जितने वर्षों से विश्वासी हों, फिर भी वे किसी सत्य को नहीं समझते, बकवास करते हैं और खुद को ईमानदार मानते हैं—क्या उन्हें कोई शर्म नहीं है? ऐसे लोग सत्य को नहीं समझते। वे परमेश्वर के इरादों की हमेशा गलत व्याख्या करते हैं, और फिर भी वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी गलत व्याख्याएँ दोहराते हैं, इन्हें सत्य के रूप में प्रचारित कर लोगों से कहते हैं, “थोड़ा-सा धमकाया जाना अच्छा है, लोगों को थोड़ा नुकसान उठाना चाहिए, उन्हें थोड़ा मूर्ख होना चाहिए—ये परमेश्वर के उद्धार के पात्र हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा।” जो लोग ऐसी बातें कहते हैं, वे घिनौने हैं; इससे परमेश्वर का बहुत अनादर होता है! यह कितनी घिनौनी बात है! परमेश्वर के राज्य के स्तंभ और वे विजेता जिन्हें परमेश्वर बचाता है, वे सब ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य को समझते हैं और बुद्धिमान हैं। ये वे लोग हैं, जिनका स्वर्गिक राज्य में हिस्सा होगा। जो मूर्ख और अज्ञानी हैं, बेशर्म और नासमझ हैं, जिन्हें सत्य की रत्ती भर भी समझ नहीं, जो अनाड़ी और मूर्ख हैं—क्या वे सभी निकम्मे नहीं हैं? ऐसे लोगों का स्वर्गिक राज्य में हिस्सा कैसे हो सकता है? परमेश्वर जिन ईमानदार लोगों के बारे में बात करता है, वे वो हैं जो सत्य को समझने के बाद उसे अभ्यास में ला सकते हैं, जो बुद्धिमान और चतुर हैं, जो परमेश्वर के सामने सरलता से खुल जाते हैं, और जो सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पण करते हैं। इन सभी लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वे सिद्धांतों के अनुसार काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और वे सभी परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का अनुसरण करते हैं और अपने हृदय में परमेश्वर से प्रेम करते हैं। सिर्फ वे ही वास्तव में ईमानदार लोग हैं। अगर कोई यह भी नहीं जानता कि ईमानदार होने का क्या अर्थ है, अगर वह यह नहीं देख सकता कि ईमानदार लोगों का सार परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, या यह कि ईमानदार लोग इसलिए ईमानदार होते हैं क्योंकि वे सत्य से प्रेम करते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, क्योंकि वे सत्य का अभ्यास करते हैं—तो इस प्रकार का व्यक्ति बहुत मूर्ख है और उसमें वास्तव में विवेक की कमी है। ईमानदार लोग वैसे सरल, भ्रमित, अज्ञानी और मूर्ख बिल्कुल नहीं होते, जैसी लोग कल्पना करते हैं; वे सामान्य मानवता वाले ऐसे लोग हैं, जिनमें जमीर और विवेक होता है। ईमानदार लोगों के बारे में होशियारी की बात यह है कि वे परमेश्वर के वचन सुनने और ईमानदार होने में सक्षम होते हैं, और यही कारण है कि वे परमेश्वर का आशीष पाते हैं।
परमेश्वर के इस अनुरोध से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है कि लोग ईमानदार हों—वह कहता है कि लोग उसके सामने रहें, उसकी जाँच स्वीकारें और रोशनी में रहें। ईमानदार लोग ही मानवजाति के सच्चे सदस्य हैं। जो लोग ईमानदार नहीं हैं, वे जानवर हैं, वे इंसानों के भेष में घूमने वाले जानवर हैं, वे इंसान नहीं हैं। एक ईमानदार व्यक्ति बनने का प्रयास करने के लिए तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना चाहिए; तुम्हें न्याय, ताड़ना और काट-छाँट से गुजरना चाहिए। जब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो जाता है और तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो जाते हो, तभी तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनते हो। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और निष्कपट हैं वे बिल्कुल भी ईमानदार लोग नहीं होते हैं। लोगों से ईमानदार होने की माँग करके परमेश्वर उनसे यह अपेक्षा करता है कि वे सामान्य मानवता रखें, अपना कपट और छद्मवेश त्यागें, दूसरों से झूठ न बोलें या उन्हें धोखा न दें, लगन से अपना कर्तव्य निभाएँ और उससे सचमुच प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हों। सिर्फ यही लोग परमेश्वर के राज्य के लोग हैं। परमेश्वर माँग करता है कि लोग मसीह के अच्छे सैनिक बनें। मसीह के अच्छे सैनिक कौन हैं? उन्हें सत्य वास्तविकता से लैस होना चाहिए और मसीह के साथ एक-चित्त और एक-मन होना चाहिए। हर समय और हर स्थान पर उन्हें परमेश्वर का गुणगान करने और उसकी गवाही देने और शैतान के साथ युद्ध करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए। सभी चीजों में उन्हें परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, गवाही देनी चाहिए और सत्य वास्तविकता को जीना चाहिए। उन्हें शैतान को अपमानित करने और परमेश्वर के लिए अद्भुत जीत हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। मसीह का अच्छा सैनिक होने का यही अर्थ है। मसीह के अच्छे सैनिक विजेता हैं, ये वे हैं जो शैतान पर विजय पाते हैं। लोगों से ईमानदार होने और कपटी न होने की अपेक्षा करके परमेश्वर उन्हें मूर्ख बनने के लिए नहीं कहता, बल्कि यह कहता है कि वे अपने कपटी स्वभाव त्याग दें, उसके प्रति समर्पण हासिल करें और उसके लिए महिमा लाएँ। यही है, जो सत्य का अभ्यास करके हासिल किया जा सकता है। यह व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव नहीं है, यह कम या ज्यादा बोलने का मामला नहीं है और न ही इसका संबंध इस बात से है कि व्यक्ति कैसे कार्य करता है। बल्कि इसका संबंध व्यक्ति की कथनी-करनी, उसके विचारों और दृष्टिकोणों, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के पीछे की मंशा से है। भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों और त्रुटि से संबंधित हर चीज जड़ से बदलनी होगी, ताकि वह सत्य के अनुरूप हो सके। अगर व्यक्ति को अपने स्वभाव में बदलाव लाना है, तो उसे शैतान के स्वभाव के सार की असलियत समझने में सक्षम होना चाहिए। अगर तुम कपटी स्वभाव के सार की असलियत समझ सकते हो, यह समझ लेते हो कि यह शैतान का स्वभाव और दानवों का चेहरा है, अगर तुम शैतान से घृणा कर सकते हो और दानवों को त्याग सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ना आसान होगा। अगर तुम नहीं जानते कि तुम्हारे भीतर एक कपटपूर्ण मनोदशा है, अगर तुम कपटी स्वभाव के खुलासों को नहीं पहचानते, तो तुम नहीं जान पाओगे कि इसे हल करने के लिए सत्य कैसे खोजा जाए, और तुम्हारे लिए अपने कपटी स्वभाव को बदलना कठिन होगा। तुम्हें पहले यह पहचानना होगा कि तुमसे क्या चीजें प्रकट होती हैं, और वे भ्रष्ट स्वभाव के कौन-से पहलू हैं। अगर तुम्हारे द्वारा प्रकट की जाने वाली चीजें कपटी स्वभाव की हैं, तो क्या तुम अपने हृदय में उनसे घृणा करोगे? और अगर करते हो तो तुम्हें कैसे बदलना चाहिए? तुम्हें अपनी मंशाओं की काट-छाँट करनी होगी और अपने दृष्टिकोण दुरुस्त करने होंगे। तुम्हें इस मामले में पहले अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, जो कुछ परमेश्वर अपेक्षा करता है उसे हासिल करने और उसे संतुष्ट करने के लिए पुरजोर प्रयास करना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर को या दूसरे लोगों को धोखा देने की कोशिश नहीं करता, यहाँ तक कि उन्हें भी नहीं जो थोड़े मूर्ख या अज्ञानी हैं। किसी मूर्ख या अज्ञानी को धोखा देने की कोशिश करना बहुत ही अनैतिक है—यह तुम्हें दानव बना देता है। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें किसी को छलना या उससे झूठ बोलना नहीं चाहिए। लेकिन दानवों और शैतानों के मामले में तुम्हें अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने चाहिए; अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम उनके द्वारा मूर्ख बनाए जा सकते हो और परमेश्वर को लज्जित कर सकते हो। अपने शब्द बुद्धिमानी से चुनने और सत्य का अभ्यास करने से ही तुम शैतान को हराकर शर्मिंदा कर पाओगे। जो लोग अज्ञानी, मूर्ख और हठी हैं, वे कभी सत्य को नहीं समझ पाएँगे; उन्हें सिर्फ गुमराह किया जा सकता है, उनके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है और उन्हें शैतान द्वारा रौंदा और अंत में निगला जा सकता है।
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