परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 23)

मुझे बताओ, क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है और उसमें मनुष्य के लिए दया है? (यह सत्य है।) तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता, और यहाँ तक कि उन्हें शाप देता है और उनकी निंदा करता है? (यह भी सत्य है।) वास्तव में, यह दोनों ही वाक्य सत्य और पूरी तरह से सही हैं। लेकिन यह कहना सरल बात नहीं है, “यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता,” और लोगों के लिए ऐसे शब्द कहना कठिन होता है; इन्हें तभी कहा जा सकता है जब किसी के पास परमेश्वर के स्वभाव का ज्ञान हो। जब तुम देखते हो कि परमेश्वर ने कुछ प्रेमपूर्ण काम किया है, तुम कहते हो, “परमेश्वर वास्तव में मनुष्य से प्रेम करता है। यही सत्य है; यह परमेश्वर का कार्य है,” लेकिन जब तुम देखते हो कि परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुसार नहीं है—जैसे पाखंडी फरीसियों या मसीह विरोधियों पर क्रोधित होना, और उन्हें शाप देना—तो तुम सोचते हो, “परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता; वह मनुष्य से घृणा करता है।” तब तुम परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाते हो, और उसे नकार देते हो। तो इन दोनों परिदृश्यों में से कौन-सा सत्य है? कुछ ऐसे लोग हैं जो इसे स्पष्टता से नहीं समझा सकते। लोगों के हृदय में, यह बेहतर है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, या यह कि वह मनुष्य से प्रेम नहीं करता? सभी मनुष्य निस्संदेह यह पसंद करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, और वे कहते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सत्य है। लेकिन वे इसे पसंद नहीं करते कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता, इसलिए वे कहते हैं कि परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य नहीं है, और वे इस कहावत को नकारते हैं, “यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।” तो, मनुष्य के यह निर्धारित करने का आधार क्या है कि परमेश्वर जो करता है वह सत्य है या नहीं? यह पूरी तरह से मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित है। परमेश्वर को वही चीजें करनी चाहिए जैसे मनुष्य चाहता है कि वह करे, और कोई बात तब तक सत्य नहीं हो सकती जब तक परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप कार्य नहीं करता; अगर मनुष्य को परमेश्वर का कार्य पसंद नहीं आता, तो जो परमेश्वर करता है वह सत्य नहीं है। जो इस तरह से सत्य का निर्धारण करते हैं, क्या उनके पास सत्य का ज्ञान है? (उनके पास नहीं है।) परमेश्वर को हमेशा मनुष्य की धारणाओं के अनुसार परिभाषित करने के क्या परिणाम होते हैं? यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर ले जाएगा, या परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध की ओर? परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर तो बिल्कुल नहीं—सिर्फ प्रतिरोध की ओर ले जाएगा। तो क्या जो लोग हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर से व्यवहार करते हैं वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? या वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं? (वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं।) इस बात को निर्धारित किया जा सकता है, और इसे इसी तरीके से भेद पहचानना सही है। लोग सोचते हैं कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम मेमने को सहला रहे चरवाहे की तरह होना चाहिए, इससे गर्माहट और आनंद मिलनी चाहिए, और इसे उनकी भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करना चाहिए, तो लोगों को लगता है कि यह परमेश्वर का प्रेम है, क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है, लेकिन वास्तव में, परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, और काट-छाँट लोगों के जीवन के लिए अधिक लाभदायक हैं।) यह भी मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम है! सभी बातों के बाद, तुम लोगों को अभी भी लगता है कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सत्य है, और उसका मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य नहीं है, क्या ऐसा नहीं है? (यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।) तो फिर यह कैसा होता है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? प्रेम न करने की बात का क्या मतलब है? हम सभी जानते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है : उसका धार्मिक स्वभाव, उसका न्याय और ताड़ना, और उसका दंड और अनुशासन—सभी प्रेम के दायरे में आते हैं। इसलिए, अगर परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता है, तो ऐसा क्यों होगा? (उसके धार्मिक स्वभाव की वजह से।) क्या न्याय और ताड़ना इस धार्मिक स्वभाव के हैं? (वे हैं।) अगर न्याय और ताड़ना इस धार्मिक स्वभाव के हैं, तो क्या परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव मनुष्य के प्रति प्रेमपूर्ण है, या नहीं है? (प्रेमपूर्ण है।) तुम लोग समझ चुके हो कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम उसका धार्मिक स्वभाव है, लेकिन क्या मनुष्य से प्रेम नहीं करना वह स्वभाव नहीं है? (यह है।) परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना भी धार्मिक स्वभाव कैसे हो सकता है? मैं तुम लोगों से एक और प्रश्न पूछता हूँ : क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के लिए मनुष्य से प्रेम नहीं करना संभव है? ऐसा कोई उदाहरण हो सकता है? (जब कोई व्यक्ति सभी बुरे कार्य करता है और परमेश्वर का हृदय तोड़ता है, तो परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता।) जो तुम कह रहे हो वह सशर्त है और पूर्वापेक्षा पर आधारित है, जबकि जो मैं पूछ रहा हूँ वह पूर्वकल्पनात्मक नहीं है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम निश्चित रूप से सत्य है, और यह सभी समझते हैं। लेकिन लोगों के अपने संदेह हैं कि क्या परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना सत्य है। अगर तुम इस मामले को स्वीकार कर लो तो तुम ऐसी बहुत-सी चीजें स्वीकार कर लोगे जो परमेश्वर करता है, और तुम धारणाएँ विकसित नहीं करोगे। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, उसके मनुष्य से प्रेम नहीं करने की कुछ अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (हम अभी इस पहलू के बारे में जानते नहीं हैं।) तुम लोगों ने इसे महसूस नहीं किया है, और तुमने इसे अनुभव नहीं किया है। हम अभी तक किन शब्दों को जानते हैं जिससे हम समझ सकें कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? जुगुप्सा, विमुखता, नफरत, और घृणा; और साथ ही, परित्याग, और तिरस्कार करना। मूल रूप से यही शब्द हैं। हर कोई इन शब्दों को समझता है, तो क्या इन्हें प्रेम नहीं करने के बराबर माना जा सकता है? (माना जा सकता है।) वे परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने की अभिव्यक्ति में अंतर्निहित हैं, तो क्या तुम लोग सोचते हो कि वे सत्य है? (हॉं, वे सत्य हैं।) तुम लोगों के विचार में, परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने के लिए एक प्राक्कल्पना चाहिए : मनुष्य से प्रेम करने के संदर्भ में परमेश्वर ऐसी चीज करता है जो मनुष्य के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं होती है—यही सत्य है। मान लो कि इस प्राक्कल्पना में प्रेम करने के लिए ना कोई आधार है और ना ही कोई तत्व, फिर मनुष्य के प्रति अप्रिय अभिव्यक्तियों के साथ, परमेश्वर ऐसी चीज करता है जो मनुष्य के लिए अप्रिय होती हैं। तुम लोग यह पता लगाने में सक्षम नहीं होगे कि क्या परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम न करना सत्य है, ना ही तुम उन चीजों को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे। यही इस मामले का मूल-बिंदु है, और चूँकि मूल-बिंदु यह है, हमें इसके बारे में संगति करनी चाहिए।

क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर ने, सभी सृजित प्राणियों के प्रभु के रूप में, इस मानवजाति को बनाया है, और ऐसा करने के कारण, उसे लोगों की देखभाल करनी होगी, वह क्या खाते और पीते हैं इसका प्रबंध करना होगा और उनके पूरे जीवन और भाग्य को चलाना होगा? (उसे ऐसा नहीं करना है।) यानी, क्या यह परमेश्वर की शक्तियों के दायरे में है कि वह इच्छा होने पर तुम्हारी देखभाल कर सके, और अगर वह तुम्हारी देखभाल न करना चाहे तो तुम्हें भीड़ में या किसी एक माहौल में फेंक दे, तुम्हें डूबने या तैरने के लिए छोड़ दे? (हाँ है।) चूँकि यह परमेश्वर की शक्ति के दायरे में है, क्या यह सत्य नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य के बारे में परवाह नहीं करता? (यह है।) यह सत्य के अनुरूप है। यह कैसे कहा जा सकता है कि यह सत्य है? (परमेश्वर समस्त सृष्टि का प्रभु है।) परमेश्वर की पहचान और रुतबे के संदर्भ में, और परमेश्वर और मानवजाति के बीच अंतर के संदर्भ में, परमेश्वर तुम्हारी देखभाल करेगा अगर वह ऐसा चाहता है, और अगर वह तुम्हारी देखभाल नहीं करना चाहता, तो वह नहीं करेगा। यानी, परमेश्वर की इच्छा होने पर उसका तुम्हारी देखभाल करना उचित है, और इच्छा न होने पर ऐसा न करना भी तर्कसंगत है। यह किस पर निर्भर करता है? यह इस पर निर्भर करता है कि परमेश्वर इच्छुक है या नहीं, और यह सत्य है। कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “नहीं, क्योंकि तुमने मुझे बनाया है, तो तुम्हें ही देखभाल करनी होगी कि मैं क्या खाता और पीता हूँ—तुम्हें मेरी बाकी जिंदगी के लिए मेरी देखभाल करनी होगी।” क्या यह सत्य के अनुरूप है? यह अतर्कसंगत और सत्य के विपरीत है। अगर परमेश्वर ने कहा, “मैं तुम्हारा सृजन करने के बाद, तुम्हें एक तरफ फेंक दूँगा और अब तुम्हारी देखभाल नहीं करूँगा” यह सृष्टिकर्ता की शक्ति है। क्योंकि परमेश्वर तुम्हारा सृजन कर सकता है, इसलिए उसके पास तुम्हें एक तरफ फेंक देने की भी शक्ति है, चाहे अच्छी जगह पर फेंके या बुरी जगह पर। यह परमेश्वर की शक्ति है। परमेश्वर की शक्ति का आधार क्या है? यह है परमेश्वर की पहचान और रुतबा, इसलिए वह तुम्हारी देखभाल कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता, दोनों ही स्थितियों में यह सत्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह सत्य है? यह है जो लोगों को समझना चाहिए। एक बार तुम यह समझ गए, तो तुम जान जाओगे कि तुम कौन हो, वह परमेश्वर कौन है जिसमें तुम विश्वास करते हो, और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच क्या अंतर हैं? आओ, हम परमेश्वर के मनुष्य से प्रेम नहीं करने के पहलू पर लौटते हैं। क्या परमेश्वर को मनुष्य से प्रेम करना ही होगा? (उसे नहीं करना होगा।) चूँकि उसे नहीं करना होगा, तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (यह सत्य है।) क्या इससे चीजें स्पष्ट नहीं हो जातीं? अब, आओ हम इसके बारे में बात करते हैं : चूँकि मानवजाति को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है और इसके पास शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव है, तब अगर परमेश्वर मानवजाति को नहीं बचाता है और मानवजाति को अपने पास नहीं लाता है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) यह असत्य है; वास्तव में एक संबंध है। तो यह किस तरह का संबंध है? यह शत्रुतापूर्ण संबंध है। तुम परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हो, और तुम्हारा प्रकृति सार परमेश्वर के सार के प्रति शत्रुतापूर्ण है। तो क्या इसलिए परमेश्वर का तुम्हें प्रेम नहीं करना तर्कसंगत है? क्या परमेश्वर का तुमसे घृणा करना, तुमसे नफरत करना और चिढ़ना तर्कसंगत है? (यह तर्कसंगत है।) यह क्यों तर्कसंगत है? (क्योंकि हमारे अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के प्रेम के लायक हो, और हमारे स्वभाव भी गंभीर रूप से भ्रष्ट हैं।) परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और तुम एक सृजित प्राणी हो, लेकिन एक सृजित प्राणी की तरह, तुमने परमेश्वर का अनुसरण नहीं किया है या उसके वचन नहीं सुने हैं; इसके बजाय, तुमने शैतान का अनुसरण किया है और परमेश्वर के विपरीत और उसके शत्रु बन गए हो। परमेश्वर तुम्हें प्रेम करता है क्योंकि उसमें दया का सार है : वह तुम पर दया करता है, और वह तुम्हें बचाता है। परमेश्वर के पास यह सार है। अपने द्वारा सृजित मानवजाति के लिए परमेश्वर में दया और चिंता है। तुम्हारे लिए उसका प्रेम उसके सार का खुलासा है, जो सत्य का एक पहलू है। दूसरी तरफ, मानवजाति परमेश्वर के प्रेम के लायक नहीं है। मानवजाति अहंकारी है, सकारात्मक चीजों से घृणा करती है, दुष्ट है, क्रूर है, और परमेश्वर से घृणा करने वाली और प्रतिरोधी दोनों है। इसलिए, परमेश्वर के सार—उसकी पवित्रता, धार्मिकता, ईमानदारी और इन सबसे ऊपर उसके अधिकार—को देखें तो वह इस तरह की मानवजाति से कैसे प्रेम कर सकता है? क्या परमेश्वर इस तरह की मानवजाति के अनुकूल हो सकता है? क्या वह इसे प्रेम कर सकता है? (वह नहीं कर सकता।) चूँकि वह नहीं कर सकता, इसलिए जब परमेश्वर लोगों के संपर्क में आता है और उन्हें बचाना चाहता है, तो परमेश्वर क्या प्रकट करेगा? जैसे ही परमेश्वर लोगों के संपर्क में आता है, वह चिढ़, घृणा, और नफरत दिखाता है, और उन्हें ठुकरा देता है जो गंभीर रूप से बुराई करते हैं; यह प्रेम करना नहीं है। तो क्या यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (यह है।) यह सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता। क्या यह सही है कि परमेश्वर उनसे प्रेम नहीं करता जो उसका प्रतिरोध करते हैं? (सही है।) यह उचित है और तर्कसंगत है और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा निर्धारित है, इसलिए यहाँ यह भी सत्य है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता। कैसे निर्धारित होता है कि यह सत्य है? यह परमेश्वर के सार से निर्धारित होता है।

तो, सारी बातें होने के बाद : क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? (वह करता है।) दरअसल, मनुष्य के सार और अभिव्यक्तियों के अनुसार, मनुष्य परमेश्वर के प्रेम के लायक नहीं है, लेकिन परमेश्वर अभी भी मनुष्य से बहुत ज्यादा प्रेम कर सकता है। तुम लोगों के विचार में, क्या परमेश्वर सत्य है? क्या उसका सार पवित्र है? (हाँ है।) दूसरी तरफ, चूँकि मनुष्य इतना घिनौना है और उसकी भ्रष्टता इतनी गहरी है, क्या परमेश्वर थोड़ी-सी भी नफरत के बिना मनुष्य से प्रेम कर सकता है? अगर थोड़ी-सी भी नफरत, थोड़ी विरक्ति या घृणा नहीं है, तो यह परमेश्वर के सार के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर मानवजाति से नफरत करता है, उससे घृणा करता है, उससे चिढ़ता और उससे तंग हो चुका है, लेकिन वह अभी भी लोगों को बचाने में सक्षम है, और यही परमेश्वर का सच्चा प्रेम है—परमेश्वर का सार है! परमेश्वर का मनुष्य से प्रेम नहीं करना उसके सार की वजह से है, और वह अभी भी मनुष्य से प्रेम कर सकता है, यह भी उसके सार की वजह से ही है। इसलिए, अब जबकि यह स्पष्ट है, कौन-सी बात सत्य है : परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? या वह मनुष्य से प्रेम नहीं करता? (दोनो सत्य हैं।) अब यह तय हो गया है। तो, क्या मनुष्य यह कर सकता है? कोई मनुष्य यह नहीं कर सकता; एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो ऐसा कर सकता है—यहाँ तक कि लोग अपने बच्चों के साथ भी यह नहीं कर सकते। अगर तुम्हारा बच्चा हमेशा तुम्हें क्रोध दिला रहा है और तुम्हारा हृदय तोड़ रहा है, पहले तुम क्रोधित हो जाओगे, लेकिन समय के साथ तुम्हारा हृदय घृणा से भर जाएगा; एक बार तुम्हें उससे लंबे समय तक घृणा हो जाए, तो तुम पूरी तरह से उसे छोड़ दोगे, और अंत में, तुम उसके साथ रिश्ते तोड़ लोगे। मानव प्रेम क्या है? यह देह के रक्त संबंधों और स्नेह से आता है, इसलिए इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है; यह ऐसा प्रेम है जो मनुष्य की देह की जरूरतों और स्नेह से पैदा होता है। इस प्रेम का आधार क्या है? यह स्नेह, रक्त संबंधों, और दिलचस्पियों पर निर्भर है, और इसमें सत्य का एक अंश भी नहीं है। तो फिर, मनुष्य के प्रेम नहीं करने का कारण क्या है? जिस किसी ने उसका हृदय तोड़ा हो, उससे नफरत करने, घृणा करने, उसे नापसंद करने के बाद वह अब उससे प्यार नहीं करता; वह अब प्रेम नहीं कर सकता। तुम्हें क्या लगता है कि इस मानवजाति ने किस हद तक परमेश्वर का हृदय तोड़ा है? (इसका वर्णन नहीं किया जा सकता।) हाँ, यह अवर्णनीय है। तो क्या परमेश्वर अभी भी मनुष्य से प्रेम करता है? तुम नहीं जानते कि क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लेकिन अभी भी परमेश्वर तुम्हें बचा रहा है, हमेशा कार्य कर रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन करने और तुम्हें प्रदान करने के लिए बोल रहा है। वह अंतिम समय तक, जब तक कार्य पूरा ना हो जाए, तुम्हें नहीं छोड़ेगा। क्या यह प्रेम नहीं है? (हाँ है।) क्या मानवजाति में भी इस तरह का प्रेम है? (उसमें यह नहीं है।) जब लोगों की भावनात्मक जरूरत नहीं रह जाती, जब उनके रक्त संबंध टूट जाते हैं, और जब उनके बीच कोई आपसी रुचि नहीं रहती, तो वे प्रेम नहीं करते, उनका प्रेम चला जाता है, और तब वे छोड़ देने का चुनाव करते हैं—अब और “निवेश” नहीं करते। वे पूरी तरह से छोड़ चुके होते हैं। प्रेम की आवश्यक अभिव्यक्ति क्या है? यह व्यावहारिक चीज करना और परिणाम प्राप्त करना है, और अगर यह प्रेम संबंधी चीज नहीं की जाती है, तो कोई प्रेम नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर मनुष्य से नफरत करता है, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है। परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन क्या उसने तुमसे कोई कम बात की है? क्या उसने तुम्हें कोई कम सत्य प्रदान किया है? क्या उसने तुम्हारे अंदर कोई कम कार्य किया है? (उसने ऐसा नहीं किया है।) इसलिए, अगर तुम यह कहते हो कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, तो तुम्हारी कोई अंतरात्मा नहीं है; तुम्हारे शब्द अत्यंत निर्लज्जतापूर्ण हैं। यह गलत नहीं है कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन वह अभी भी तुमसे प्रेम करता है, उसने तुम्हारे अंदर बहुत कार्य किया है। यह एक तथ्य है कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है, लेकिन क्यों? अगर तुम हर बात में परमेश्वर के आज्ञाकारी होते और अय्यूब जैसे बन जाते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुमसे नफरत करता? तब वह तुमसे नफरत नहीं करता; उसके पास तुम्हारे लिए सिर्फ प्रेम होता। परमेश्वर का प्रेम अपने आप को कैसे अभिव्यक्त करता है? यह मनुष्य के प्रेम की तरह नहीं दिखता, जो किसी को रुई में लपेटने जैसा है। परमेश्वर उस तरह से लोगों से प्रेम नहीं करता : वह तुम्हें सृजित मनुष्य की सामान्य जिंदगी जीने देता है; वह तुम्हें इससे अवगत कराता है कि जीना कैसे है, कैसे जीवित बने रहना है, और कैसे उसकी आराधना करनी है; सभी चीजों में कैसे निपुण बनना है और एक सार्थक जीवन कैसे जीना है; और ना तो निरर्थक चीजें करनी है ना ही शैतान का अनुसरण करना है। क्या परमेश्वर के प्रेम का अर्थ स्थायी और दूरगामी है? यह बहुत दूरगामी है, और परमेश्वर के इन चीजों को करने के परिणाम मानवजाति के लिए याद रखने योग्य और सबसे दूरगामी मूल्य वाले हैं। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई मनुष्य नहीं कर सकता : इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, और इसे मनुष्य द्वारा धन या किसी भौतिक वस्तु से बदला नहीं जा सकता। तुम देख सकते हो, लोग आजकल कुछ सत्य समझते हैं, और वे जानते हैं कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है, लेकिन 20 या 30 वर्ष पहले क्या वे इनमें से कुछ भी जानते थे? (वे नहीं जानते थे।) वह नहीं जानते थे कि बाइबल कैसे आई; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना क्या थी; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है और एक योग्य सृजित प्राणी के रूप में कैसे रहना है : वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए अगर तुम आज से 20 साल आगे पहुँच जाओ, तो क्या तब की मानवजाति, आज जो तुम हो, उससे बेहतर नहीं होगी? (वह होगी।) यह कैसे होगा? यह परमेश्वर के उद्धार और मनुष्य के प्रति उसके असीम प्रेम के कारण होगा। चूँकि उसके पास मनुष्य के लिए ऐसा धैर्य, सहनशक्ति और दया है, इसकी वजह से मनुष्य को बहुत सारी चीजें प्राप्त हुई हैं। अगर परमेश्वर का महान प्यार नहीं होता, तो मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता।

क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है? (वह करता है।) तो क्या परमेश्वर मनुष्य से नफरत करता है? (वह करता है।) किस तरीके से? अपने हृदय में, परमेश्वर वास्तव में मनुष्य से घृणा करता है और मनुष्य के प्रकृति सार से घृणा करता है। वह हर व्यक्ति से चिढ़ता है, तो वह अभी भी मनुष्य में कैसे कार्य कर सकता है? क्योंकि उसके पास प्रेम है, और वह उन लोगों को बचाना चाहता है। क्या जब वह उन्हें बचाता है तब वह उनसे नफरत नहीं करता? वह करता है; नफरत और प्रेम का एक साथ सह अस्तित्व है। वह नफरत करता है, घृणा करता है और वह चिढ़ता है—लेकिन उसी समय, वह मनुष्य के उद्धार के लिए कार्य करता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि ऐसा कौन कर सकता है? कोई मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता। जब लोग किसी ऐसे को देखते हैं जिससे वे चिढ़ते और घृणा करते हैं, वे उसे देखना तक नहीं चाहते, और उसके साथ एक शब्द भी बोलना बहुत ज्यादा होता है, जैसे कि गैर-विश्वासी कहते हैं, “अगर कोई सामान्य आधार नहीं है तो एक शब्द भी साँस की बर्बादी है।” परमेश्वर ने मनुष्य से कितने वचन कहे हैं? बहुत सारे। क्या तुम बोल सकते हो कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? या कि वह मनुष्य से नफरत नहीं करता? (हम नहीं बोल सकते।) प्रेम की तरह, नफरत करना एक तथ्य है। मान लो तुम कहते हो, “परमेश्वर हमसे नफरत करता है; हम उसके करीब न जाएँ। आओ हम परमेश्वर को हमें बचाने न दें, ताकि हम उसे हर समय न चिढ़ाएँ।” क्या यह सही है? (नहीं।) तुम परमेश्वर के हृदय के लिए विचारशील नहीं हो, और ना तो तुम उसे समझते हो, ना तो तुम उसे जानते हो। इसके बजाय, ऐसा बोलकर, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हो और उसका हृदय तोड़ रहे हो। तुम्हें समझना होगा कि परमेश्वर क्यों मनुष्य से नफरत करता है और कैसे वह मनुष्य से प्रेम करता है। परमेश्वर के प्रेम और नफरत करने के कारण हैं; प्रत्येक की अपनी पृष्ठभूमि और सिद्धांत हैं। अगर तुम कहते हो, “चूँकि परमेश्वर मुझे बचाता है, वह अवश्य मुझे प्रेम करता है; वह मुझसे नफरत नहीं कर सकता” क्या यह अतार्किक माँग है? (हाँ है।) अगर परमेश्वर तुमसे नफरत करता भी है तो भी वह तुम्हें बचाने में देर नहीं करता, और अभी भी तुम्हें पश्चाताप करने का अवसर देता है। तुम्हारे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने या अपना कर्तव्य निभाने पर इसका कोई असर नहीं पड़ता, और तुम परमेश्वर की कृपा का आनंद लेते रहते हो, तो तुम अभी भी क्यों बहस कर रहे हो? परमेश्वर का तुमसे नफरत करना वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए; यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है, और उसने तुम्हें बचाने में देरी नहीं की है। क्या लोगों को इस बारे में कुछ ज्ञान नहीं होना चाहिए? (उन्हें होना चाहिए।) उन्हें क्या जानना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसकी पवित्रता के बारे में अवश्य जानना चाहिए। कोई उनके बारे में कैसे जान सकता है? जब परमेश्वर इस मानवजाति से बहुत अधिक नफरत करने के बाद भी इसे बचाने में सक्षम होता है, इसे क्या कहा जाता है? प्रचुर दया। यही परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के अंदर है। सिर्फ परमेश्वर ऐसा कर सकता है; शैतान ऐसा नहीं करेगा। जब शैतान तुमसे नफरत नहीं करता, तब वह तुम्हें रौंदता है। अगर वह तुमसे नफरत करता, तो वह तुम्हें पूरा दिन यातना देता, यहाँ तक कि तुम्हें पुनर्जन्म से भी स्थाई रूप से वंचित कर देता और तुम्हें नरक के 18वें चक्र में उतरने के लिए छोड़ देता। क्या शैतान ऐसा नहीं करता है? (जरूर करता।) लेकिन क्या परमेश्वर लोगों से ऐसा व्यवहार करता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर लोगों को पश्चात्ताप करने के पर्याप्त अवसर देता है। इसलिए, इस बात से मत डरो कि परमेश्वर तुमसे नफरत करता है; उसका तुमसे नफरत करना उसके सार द्वारा निर्धारित होता है। परमेश्वर से इसलिए दूर मत जाओ क्योंकि वह तुमसे नफरत करता है, यह सोचकर, “मैं परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लायक नहीं हूँ, इसलिए परमेश्वर को मुझे बचाने की जरूरत नहीं है; वह चिंता से मुक्त रहे,” परमेश्वर को त्याग मत दो। इससे परमेश्वर तुमसे और भी ज्यादा नफरत करने लगेगा, क्योंकि तुमने उसे धोखा दिया है और अपमानित किया है और शैतान को तुम पर हॅंसने दिया है। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह ऐसा ही है? (जब कभी मैं नकार दिया गया अनुभव करता हूँ या कुछ परेशानी और असफलता झेलता हूँ, मैं महसूस करता हूँ कि मैंने परमेश्वर का दिल तोड़ दिया है, और वह अब मुझे नहीं बचाएगा; मेरा हृदय परमेश्वर से बचने की दशा में होता है।) तुम्हारा परमेश्वर का हृदय तोड़ना कोई अस्थायी चीज नहीं है; तुमने परमेश्वर का हृदय बहुत समय पहले ही तोड़ दिया है—और वह भी एक से अधिक बार तोड़ा है! लेकिन वास्तव में स्वयं को त्याग देना परमेश्वर का पूरी तरह से तुम्हें त्याग देने और तुम्हें नहीं बचाने के बराबर है, और तब परमेश्वर का हृदय वास्तव में टूट जाएगा। परमेश्वर क्षणिक व्यवहार या कुछ समय की अवधि में उनके व्यवहार की वजह से लोगों को मौत की सजा नहीं देगा और उनके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालेगा; वह ऐसा नहीं करेगा। फिर तुम्हें परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कैसे जानना चाहिए? मनुष्य की धारणाएँ और गलतफहमियाँ कैसे ठीक की जा सकती हैं? तुम नहीं जानते कि बहुत सारी चीजों के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है, उसके धार्मिक स्वभाव और उसके पवित्र सार के साथ मेल कैसे खाएँ। तुम नहीं समझते हो, लेकिन एक चीज है जिसे तुम्हें याद रखना होगा : चाहे परमेश्वर कुछ भी करता है, मनुष्य को समर्पण करना चाहिए; मनुष्य एक सृजित प्राणी है, मिट्टी से बना है, और उसे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। यह मनुष्य का कर्तव्य, दायित्व, और जिम्मेदारी है। यही लोगों का रवैया होना चाहिए। लोगों का रवैया ऐसा हो जाने पर, उन्हें परमेश्वर और जो परमेश्वर करता है, उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? कभी निंदा मत करो, ऐसा ना हो कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठो। अगर तुम्हारी धारणाएँ हैं, तो उन्हें ठीक करो, लेकिन परमेश्वर की या जो चीजें वह करता है, उनकी निंदा मत करो। एक बार तुम उनकी निंदा करते हो, तुम खत्म हो जाते हो : यह परमेश्वर के खिलाफ खड़े होने के बराबर है, इससे उद्धार प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं बचता। तुम कह सकते हो, “मैं अभी परमेश्वर के खिलाफ नहीं खड़ा हूँ, लेकिन मुझे परमेश्वर के बारे में एक गलतफहमी है,” या “मेरे हृदय में परमेश्वर के बारे में एक छोटा-सा संदेह है; मेरी आस्था तुच्छ है, मेरी कुछ कमजोरियाँ और नकारात्मकताएँ हैं।” इन सभी से निपटना आसान है; वे सत्य की खोज द्वारा ठीक की जा सकती हैं—लेकिन परमेश्वर की निंदा मत करो। अगर तुम कहते हो, “जो परमेश्वर ने किया है वह ठीक नहीं है। वह सत्य के अनुरूप नहीं है, इसलिए मेरे पास संदेह करने, प्रश्न करने और आरोप लगाने के कारण हैं। मैं हर जगह इसका प्रचार करूँगा और उससे सवाल करने के लिए लोगों को एकजुट करूँगा,” तो यह परेशानी की बात होगी। तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल जाएगा, और अगर तुम परमेश्वर की निंदा करते हो तो, तुम पूरी तरह से खत्म हो जाओगे; ऐसे बहुत से तरीके हैं जिनसे परमेश्वर तुमसे प्रतिशोध ले सकता है। इसलिए, लोगों को जानबूझकर परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए। अगर तुम गैर-इरादतन उसका प्रतिरोध करने के लिए कुछ कर बैठते हो तो यह बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि यह जानबूझकर या किसी आशय से नहीं किया गया था, और परमेश्वर तुम्हें पश्चाताप का एक अवसर देता है। अगर तुम जानबूझकर इसकी निंदा करते हो जबकि तुम जानते हो कि यह कुछ ऐसा है जो परमेश्वर कर रहा है, और तुम सबको विद्रोह करने के लिए भड़काते हो, तो यह एक परेशानी की बात है। और परिणाम क्या होगा? तुम्हारा अंत उन ढाई सौ प्रधानों की तरह होगा जिन्होंने मूसा का प्रतिरोध किया था। यह जानते हुए भी कि यह परमेश्वर है, तुम अभी भी उसके सामने चिल्लाने की हिम्मत कर रहे हो। परमेश्वर तुम्हारे साथ बहस नहीं करता : अधिकार उसी का है; वह धरती को फाड़ देता है और उसे तुम्हें सीधे निगलने देता है, और कुछ नहीं। वह कभी तुम्हें नहीं देखेगा या तुम्हारे तर्क नहीं सुनेगा। यह परमेश्वर का स्वभाव है। इस समय परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति क्या है? यह क्रोध है! इसलिए, किसी भी तरह से लोगों को परमेश्वर के खिलाफ चिल्लाना नहीं चाहिए और उसके क्रोध को उकसाना नहीं चाहिए; कोई परमेश्वर को नाराज करता है, तो परिणाम तबाही होगा।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें