परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 80
अपने पुनरुत्थान के बाद अपने चेलों के लिए यीशु के वचन (चुने हुए अंश)
यूहन्ना 21:16-17 उसने फिर दूसरी बार उससे कहा, "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" उसने उससे कहा, "हाँ, प्रभु; तू जानता है कि मैं तुझ से प्रीति रखता हूँ।" उसने उससे कहा, "मेरी भेड़ों की रखवाली कर।" उसने तीसरी बार उससे कहा, "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रीति रखता है?" पतरस उदास हुआ कि उसने उससे तीसरी बार ऐसा कहा, "क्या तू मुझ से प्रीति रखता है?" और उससे कहा, "हे प्रभु, तू तो सब कुछ जानता है; तू यह जानता है कि मैं तुझ से प्रीति रखता हूँ।" यीशु ने उससे कहा, "मेरी भेड़ों को चरा।"
इस वार्तालाप में प्रभु यीशु ने बार-बार पतरस से एक बात पूछी : "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" यह वह उच्चतर मानक है, जिसकी प्रभु यीशु अपने पुनरुत्थान के बाद पतरस जैसे लोगों से अपेक्षा करता है, जो वास्तव में मसीह पर विश्वास करते हैं और प्रभु से प्रेम करने का प्रयत्न करते हैं। यह प्रश्न एक प्रकार की जाँच और पूछताछ थी, परंतु इससे भी अधिक, यह पतरस जैसे लोगों से एक माँग और एक अपेक्षा थी। प्रभु यीशु ने पूछताछ करने के इस तरीके का उपयोग किया, ताकि लोग अपने बारे में विचार करें और अपने भीतर झाँकें और पूछें : प्रभु यीशु की लोगों से क्या अपेक्षाएँ हैं? क्या मैं प्रभु से प्रेम करता हूँ? क्या मैं ऐसा व्यक्ति हूँ, जो प्रभु से प्रेम करता है? मुझे प्रभु से कैसे प्रेम करना चाहिए? भले ही प्रभु यीशु ने यह प्रश्न केवल पतरस से पूछा हो, परंतु सच्चाई यह है कि अपने हृदय में वह पतरस से पूछने के इस अवसर का उपयोग इसी प्रकार का प्रश्न परमेश्वर से प्रेम करने के इच्छुक अधिक लोगों से पूछने के लिए करना चाहता था। बस, पतरस धन्य था, जो इस प्रकार के व्यक्तियों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर पाया, जिससे स्वयं प्रभु यीशु द्वारा अपने मुँह से यह पूछताछ की गई।
निम्नलिखित वचनों की तुलना में, जो अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने थोमा से कहे थे : "अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्वासी नहीं परन्तु विश्वासी हो," उसका पतरस से तीन बार यह पूछना : "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है?" लोगों को प्रभु यीशु के रवैये की कठोरता और पूछताछ करने के दौरान उसके द्वारा महसूस की गई अत्यावश्यकता को बेहतर ढंग से महसूस कराता है। जहाँ तक शंकालु, धोखेबाज प्रकृति के थोमा की बात है, प्रभु यीशु ने उसे अपना हाथ बढ़ाकर अपने शरीर पर कीलों के निशान छूने दिए, जिसने उसे विश्वास दिलाया कि प्रभु यीशु मनुष्य का पुत्र है जो पुनरुत्थित हुआ है, और उससे मसीह के रूप में प्रभु यीशु की पहचान स्वीकार कराई। और यद्यपि प्रभु यीशु ने थोमा को सख्ती से डाँटा नहीं, न ही उसने मौखिक रूप से उसके बारे में स्पष्ट रूप से कोई न्याय व्यक्त किया था, फिर भी उसने उसे जताने के लिए कि वह उसे समझता है, व्यावहारिक कार्यकलापों का उपयोग किया, साथ ही उसने उस प्रकार के व्यक्ति के प्रति अपने रवैये और निश्चय को भी प्रदर्शित किया। उस प्रकार के व्यक्ति से प्रभु यीशु की माँगों और अपेक्षाओं को, जो कुछ उसने कहा था, उसके आधार पर देखा नहीं जा सकता, क्योंकि थोमा जैसे लोगों में सच्चे विश्वास का एक टुकड़ा भी नहीं होता। उनके लिए प्रभु यीशु की माँगें केवल इतनी ही होती हैं, लेकिन पतरस जैसे लोगों के प्रति उसके द्वारा प्रकट किया गया रवैया बिलकुल भिन्न था। उसने पतरस से यह अपेक्षा नहीं की कि वह अपना हाथ बढ़ाए और उसके कीलों के निशानों को छुए, न ही उसने पतरस से यह कहा : "अविश्वासी नहीं परन्तु, विश्वासी हो।" इसके बजाय, उसने बार-बार पतरस से एक ही प्रश्न पूछा। वह प्रश्न विचारोत्तेजक और अर्थपूर्ण था, ऐसा प्रश्न, जो मसीह के प्रत्येक अनुयायी को ग्लानि और भय ही महसूस नहीं कराएगा, बल्कि प्रभु यीशु की चिंतित, दुःखित मनोदशा भी महसूस कराए बिना नहीं रहेगा। और जब वे अत्यधिक पीड़ा और कष्ट में होते हैं, तब वे प्रभु यीशु की चिंता और परवाह को और अधिक समझ पाते है; वे उसकी ईमानदार शिक्षाओं और शुद्ध, ईमानदार लोगों से उसकी कड़ी अपेक्षाओं को समझते हैं। प्रभु यीशु का प्रश्न लोगों को यह एहसास कराता है कि इन सरल वचनों में प्रकट प्रभु की लोगों से अपेक्षाएँ मात्र उसमें विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अपने प्रभु और अपने परमेश्वर से प्रेम करते हुए प्रेम प्राप्त करने के लिए हैं। इस प्रकार का प्रेम परवाह करना और आज्ञापालन करना होता है। यह मनुष्यों का परमेश्वर के लिए जीना, परमेश्वर के लिए मरना, सर्वस्व परमेश्वर को समर्पित करना है, और सब-कुछ परमेश्वर के लिए व्यय करना और उसे दे देना है। इस प्रकार का प्रेम परमेश्वर को आराम देना, उसे गवाही का आनंद लेने देना, और उसे चैन से रहने देना भी है। यह मानवजाति की परमेश्वर को चुकौती, उसकी जिम्मेदारी, दायित्व और कर्तव्य है, और यह वह मार्ग है, जिसका अनुसरण मानवजाति को जीवन भर करना चाहिए। ये तीन प्रश्न एक अपेक्षा और प्रोत्साहन थे, जो प्रभु यीशु ने पतरस और उन सभी लोगों से किए थे, जो पूर्ण बनाए जाना चाहते थे। ये वे तीन प्रश्न थे, जो पतरस को जीवन में अपने मार्ग पर ले गए और उसका अनुसरण करने की प्रेरणा दी, और प्रभु यीशु के जाने पर ये तीन प्रश्न ही थे, जिन्होंने पूर्ण बनाए जाने के अपने मार्ग पर चलने की शुरुआत करने में पतरस की अगुआई की, जिन्होंने प्रभु के प्रति उसके प्रेम की वजह से प्रभु के हृदय का ख़्याल रखने, प्रभु का आज्ञापालन करने, प्रभु को आराम प्रदान करने और इस प्रेम की वजह से अपना संपूर्ण जीवन और अपना संपूर्ण अस्तित्व अर्पित करने में उसकी अगुआई की।
अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर का कार्य मुख्यत: दो प्रकार के लोगों के लिए था। पहला प्रकार उन लोगों का था, जो उस पर विश्वास करते थे और उसका अनुसरण करते थे, जो उसकी आज्ञाओं का पालन कर सकते थे, जो सूली सहन कर सकते थे और अनुग्रह के युग के मार्ग को थामे रह सकते थे। इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का आशीष प्राप्त करता है और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाता है। दूसरे प्रकार का व्यक्ति पतरस जैसा था, जिसे पूर्ण बनाया जा सकता था। इसलिए अपने पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु ने सबसे पहले ये दो सर्वाधिक अर्थपूर्ण चीज़ें कीं। एक थोमा के साथ की गई और दूसरी पतरस के साथ। ये दो चीज़ें क्या दर्शाती हैं? क्या ये मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सच्चे इरादे दर्शाती हैं? क्या ये मानवजाति के प्रति परमेश्वर की ईमानदारी दर्शाती हैं? उसके द्वारा थोमा के साथ किया गया कार्य लोगों को चेतावनी देने के लिए था कि वे शंकालु न बनें, बल्कि केवल विश्वास करें। पतरस के साथ किया गया उसका कार्य पतरस जैसे लोगों का विश्वास दृढ़ करने और इस प्रकार के लोगों से अपनी अपेक्षाएँ स्पष्ट करने और यह दिखाने के लिए था कि उन्हें किन लक्ष्यों का अनुसरण करना चाहिए।
अपने पुनरुत्थित होने के बाद प्रभु यीशु उन लोगों के सामने प्रकट हुआ जिन्हें वह आवश्यक समझता था, उनसे बातें कीं, और उनसे अपेक्षाएँ कीं, और लोगों के बारे में अपने इरादे और उनसे अपनी अपेक्षाएँ पीछे छोड़ गया। कहने का अर्थ है कि देहधारी परमेश्वर के रूप में मानवजाति के लिए उसकी चिंता और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ कभी नहीं बदलीँ; जब वह देह में था तब, और सलीब पर चढ़ाए जाने और पुनरुत्थित होने के बाद जब वह आध्यात्मिक देह में था तब भी, वे एक-जैसी रहीं। सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले वह इन चेलों के बारे में चिंतित था, और अपने हृदय में वह हर एक व्यक्ति की स्थिति को लेकर स्पष्ट था और वह प्रत्येक व्यक्ति की कमियाँ समझता था, और निस्संदेह, अपनी मृत्यु, पुनरुत्थान और आध्यात्मिक शरीर बन जाने के बाद भी प्रत्येक व्यक्ति के बारे में उसकी समझ वैसी थी, जैसी तब थी जब वह देह में था। वह जानता था कि लोग मसीह के रूप में उसकी पहचान को लेकर पूर्णत: निश्चित नहीं थे, किंतु देह में रहने के दौरान उसने लोगों से कठोर माँगें नहीं कीं। परंतु पुनरुत्थित हो जाने के बाद वह उनके सामने प्रकट हुआ, और उसने उन्हें पूर्णत: निश्चित किया कि प्रभु यीशु परमेश्वर से आया है और वह देहधारी परमेश्वर है, और उसने अपने प्रकटन और पुनरुत्थान के तथ्य का उपयोग मानवजाति द्वारा जीवन भर अनुसरण करने हेतु सबसे बड़े दर्शन और अभिप्रेरणा के रूप में किया। मृत्यु से उसके पुनरुत्थान ने न केवल उन सभी को मज़बूत किया जो उसका अनुसरण करते थे, बल्कि उसने अनुग्रह के युग के उसके कार्य को मानवजाति के बीच अच्छी तरह से कार्यान्वित कर दिया, और इस प्रकार अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा किए जाने वाले उद्धार का सुसमाचार धीरे-धीरे मानवजाति के हर छोर तक पहुँच गया। क्या तुम कहोगे कि पुनरुत्थान के बाद प्रभु यीशु के प्रकटन का कोई महत्व था? उस समय यदि तुम थोमा या पतरस होते, और तुमने अपने जीवन में इस एक चीज़ का सामना किया होता जो इतनी अर्थपूर्ण थी, तो इसका तुम्हारे ऊपर किस प्रकार का प्रभाव पड़ता? क्या तुमने इसे परमेश्वर पर विश्वास करने के अपने जीवन के सबसे बेहतरीन और सबसे बड़े दर्शन के रूप में देखा होता? क्या तुमने परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयत्न करते हुए और अपने जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास करते हुए इसे परमेश्वर का अनुसरण करने की एक प्रेरक शक्ति के रूप में देखा होता? क्या तुमने इस सबसे बड़े दर्शन को फैलाने के लिए जीवन भर का प्रयास व्यय किया होता? क्या तुमने प्रभु यीशु द्वारा उद्धार का सुसमाचार फैलाने को परमेश्वर की आज्ञा के रूप में लिया होता? भले ही तुम लोगों ने इसका अनुभव नहीं किया है, फिर भी आधुनिक लोगों द्वारा परमेश्वर और उसकी इच्छा की एक स्पष्ट समझ प्राप्त करने के लिए थोमा और पतरस के दो उदाहरण काफी हैं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के देहधारी हो जाने के बाद, जब उसने मानवजाति के बीच रहकर जीवन का अनुभव प्राप्त कर लिया और मानव-जीवन का व्यक्तिगत रूप से अनुभव कर लिया, और जब उसने उस समय मानवजाति की भ्रष्टता और मानव-जीवन की दशा देख ली, तो देहधारी परमेश्वर ने ज्यादा गहराई से यह महसूस किया कि मानवजाति कितनी असहाय, शोचनीय और दयनीय है। देह में रहते हुए परमेश्वर में जो मानवता थी, उसकी वजह से, अपनी दैहिक अंत:प्रेरणाओं की वजह से, परमेश्वर ने मनुष्य की स्थिति के प्रति और अधिक समवेदना हासिल की। इससे वह अपने अनुयायियों को लेकर और अधिक चिंतित हो गया। ये शायद ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें तुम लोग नहीं समझ सकते, परंतु मैं देहधारी परमेश्वर द्वारा अपने हर एक अनुयायी के लिए अनुभव की गई इस चिंता और परवाह का केवल इन दो शब्दों में वर्णन कर सकता हूँ : "गहन चिंता"। यद्यपि ये शब्द मानवीय भाषा से आते हैं, और यद्यपि ये बहुत मानवीय हैं, फिर भी ये अपने अनुयायियों के लिए परमेश्वर की भावनाओं को वास्तव में व्यक्त और वर्णित करते हैं। जहाँ तक मनुष्यों के लिए परमेश्वर की गहन चिंता की बात है, अपने अनुभवों के दौरान तुम लोग धीरे-धीरे इसे महसूस करोगे और इसका स्वाद लोगे। किंतु इसे केवल अपने स्वभाव में परिवर्तन का प्रयास करने के आधार पर परमेश्वर के स्वभाव को धीरे-धीरे समझकर ही प्राप्त किया जा सकता है। जब प्रभु यीशु प्रकट हुआ, तो इसने मानवजाति में उसके अनुयायियों के लिए उसकी गहन चिंता को मूर्त रूप दिया और उसे उसकी आध्यात्मिक देह को, या तुम यह कह सकते हो कि उसकी दिव्यता को, सौंप दिया। उसके प्रकटन ने लोगों को परमेश्वर की चिंता और परवाह का एक बार और अनुभव और एहसास कराया, साथ ही सशक्त रूप से यह भी प्रमाणित किया कि वह परमेश्वर ही है, जो युग का सूत्रपात करता है, युग का विकास करता है, और युग का समापन भी करता है। अपने प्रकटन के माध्यम से उसने सभी लोगों का विश्वास मज़बूत किया, और संसार के सामने इस तथ्य को साबित किया कि वह स्वयं परमेश्वर है। इससे उसके अनुयायियों को अनंत पुष्टि मिली, और अपने प्रकटन के माध्यम से उसने नए युग में अपने कार्य के एक चरण का सूत्रपात किया।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
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