परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 71

सात बार के सत्तर गुने तक क्षमा करो

मत्ती 18:21-22 तब पतरस ने पास आकर उस से कहा, "हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? क्या सात बार तक?" यीशु ने उससे कहा, "मैं तुझ से यह नहीं कहता कि सात बार तक वरन् सात बार के सत्तर गुने तक।"

प्रभु का प्रेम

मत्ती 22:37-39 उसने उससे कहा, "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।"

इन दोनों अंशों में से एक क्षमा के बारे में बात करता है और दूसरा प्रेम के बारे में। ये दोनों विषय वास्तव में उस कार्य पर प्रकाश डालते हैं, जिसे प्रभु यीशु अनुग्रह के युग में करना चाहता था।

जब परमेश्वर देह बन गया, तो वह अपने साथ अपने कार्य का एक चरण, जो कि एक विशिष्ट कार्य था, और उस स्वभाव को लेकर आया, जिसे वह इस युग में व्यक्त करना चाहता था। उस अवधि में जो कुछ भी मनुष्य के पुत्र ने किया, वह सब उस कार्य के चारों ओर घूमता था, जिसे परमेश्वर इस युग में करना चाहता था। वह न तो उससे कुछ ज़्यादा करता, न कम। हर एक बात जो उसने कही और हर एक प्रकार का कार्य जो उसने किया, वह सब इस युग से संबंधित था। चाहे उसने इसे मानवीय तरीके से मानवीय भाषा में व्यक्त किया या दिव्य भाषा के माध्यम से, और चाहे उसने ऐसा किसी भी तरह से या किसी भी परिप्रेक्ष्य से किया हो, उसका उद्देश्य लोगों को यह समझने में मदद करना था कि वह क्या करना चाहता है, उसकी क्या इच्छा है और लोगों से उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं। वह अपनी इच्छा समझने और जानने, और मानवजाति को बचाने के अपने कार्य को समझने में लोगों की सहायता करने के लिए विभिन्न साधनों और परिप्रेक्ष्यों का उपयोग कर सकता था। इसलिए अनुग्रह के युग में हम प्रभु यीशु को यह व्यक्त करने के लिए कि वह मानवजाति को क्या बताना चाहता है, अधिकांश समय मानवीय भाषा का उपयोग करते हुए देखते हैं। इससे भी अधिक्, हम उसे एक साधारण मार्गदर्शक के परिप्रेक्ष्य से लोगों के साथ बात करते हुए, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए और उनके अनुरोध के अनुसार उनकी सहायता करते हुए देखते हैं। कार्य करने का यह तरीका व्यवस्था के युग में नहीं देखा गया था, जो अनुग्रह के युग से पहले आया था। वह मानवजाति के साथ अधिक अंतरंग और उनके प्रति अधिक करुणामय, और साथ ही रूप और तरीके दोनों में व्यावहारिक परिणाम प्राप्त करने में अधिक सक्षम हो गया था। सात बार के सत्तर गुने तक लोगों को क्षमा करने का रूपक इस बिंदु को वास्तव में स्पष्ट करता है। इस रूपक में प्रयुक्त संख्या द्वारा प्राप्त उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि प्रभु यीशु ने जब ऐसा कहा था, उस समय उसका क्या इरादा था। उसका इरादा था कि लोगों को दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए—एक या दो बार नहीं, यहाँ तक कि सात बार भी नहीं, बल्कि सात बार के सत्तर गुने तक। "सात बार के सत्तर गुने तक" के विचार के भीतर किस प्रकार का विचार निहित है? वह विचार यह है कि लोग क्षमा को अपना खुद का उत्तरदायित्व बना लें, ऐसी चीज़ जो उन्हें अवश्य सीखनी चाहिए, और ऐसा मार्ग जिस पर उन्हें अवश्य चलना चाहिए। हालाँकि यह मात्र एक रूपक था, किंतु इसने एक महत्त्वपूर्ण बिंदु को उजागर करने का काम किया। इसने उसका आशय गहराई से समझने और अभ्यास के उचित तरीके, सिद्धांत और मानक खोजने में लोगों की सहायता की। इस रूपक ने लोगों को यह स्पष्ट रूप से समझने में सहायता की और उन्हें एक सही धारणा दी—कि उन्हें क्षमा सीखनी चाहिए और बिना किसी शर्त के कितनी भी बार क्षमा करना चाहिए, किंतु दूसरों के प्रति सहनशीलता और समझदारी के रवैये के साथ। जब प्रभु यीशु ने यह कहा, तब उसके हृदय में क्या था? क्या वह वास्तव में "सात बार के सत्तर गुने" की संख्या के बारे में सोच रहा था? नहीं, वह उसके बारे में नहीं सोच रहा था। क्या परमेश्वर दवारा मनुष्य को क्षमा किए जाने की कोई संख्या है? ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो यहाँ उल्लिखित "बारियों की संख्या" में बहुत रुचि रखते हैं, जो वास्तव में इस संख्या का उद्गम और अर्थ समझना चाहते हैं। वे समझना चाहते हैं कि यह संख्या प्रभु यीशु के मुँह से क्यों निकली थी; वे मानते हैं कि इस संख्या का कोई अधिक गहरा निहितार्थ है। किंतु वास्तव में यह सिर्फ मानवीय भाषा के अलंकार थे, जिसका परमेश्वर ने उपयोग किया था। किसी भी अभिप्राय या अर्थ को मानवजाति से प्रभु यीशु की अपेक्षाओं के साथ लिया जाना चाहिए। जब परमेश्वर देह नहीं बना था, तब लोग उसके कथन को अधिक नहीं समझते थे, क्योंकि उसके वचन पूर्ण दिव्यता से आते थे। उसके कथन का परिप्रेक्ष्य और संदर्भ मानवजाति के लिए अदृश्य और अगम्य था; वह आध्यात्मिक क्षेत्र से व्यक्त होता था, जिसे लोग देख नहीं सकते थे। वे लोग जो देह में जीते थे, वे आध्यात्मिक क्षेत्र से होकर नहीं गुज़र सकते थे। परंतु देह बनने के बाद परमेश्वर ने मानवजाति से मानवीय परिप्रेक्ष्य से बात की, और वह आध्यात्मिक क्षेत्र के दायरे से बाहर आया और उसे पार कर गया। वह अपना स्वभाव, अपनी इच्छा और अपना रवैया उन चीज़ों के माध्यम से, जिनकी मनुष्य कल्पना कर सकते थे, जिन्हें उन्होंने अपने जीवन में देखा था और जो उनके सामने आई थीं, और ऐसी पद्धतियों के उपयोग द्वारा जिन्हें मनुष्य स्वीकार कर सकते थे, और ऐसी भाषा में जिसे वे समझ सकते थे, और ऐसे ज्ञान के द्वारा व्यक्त कर सका, जिसे वे ग्रहण कर सकते थे, ताकि मानवजाति अपनी क्षमता के दायरे के भीतर और अपनी योग्यता की सीमा तक परमेश्वर को समझ और जान सके, और उसके इरादे और अपेक्षित मानक समझ सके। यह मानवता में परमेश्वर के कार्य की पद्धति और सिद्धांत था। यद्यपि देह में कार्य करने के परमेश्वर के तरीके और सिद्धांत मुख्यतः मानवता के द्वारा या उसके माध्यम से प्राप्त किए गए थे, फिर भी इसने सचमुच ऐसे परिणाम प्राप्त किए, जिन्हें सीधे दिव्यता में कार्य करने से प्राप्त नहीं किया जा सकता था। मानवता में परमेश्वर का कार्य ज़्यादा ठोस, प्रामाणिक और लक्ष्यित था, उसकी पद्धतियाँ कहीं ज़्यादा लचीली थीं, तथा आकार में वह व्यवस्था के युग से आगे निकल गया।

आगे, आओ प्रभु से प्रेम करने और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने के बारे में बात करें। क्या यह सीधे दिव्यता में व्यक्त की गई चीज़ है? नहीं, स्पष्ट रूप से नहीं! ये सब वे चीज़ें थीं, जिन्हें मनुष्य के पुत्र ने मानवता में कहा था; केवल मनुष्य ही ऐसी बात कहेंगे, "अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। दूसरों से उसी तरह प्रेम कर, जिस तरह तू अपने जीवन को सँजोता है।" बोलने का यह तरीका केवल मनुष्य का है। परमेश्वर ने कभी इस तरह बात नहीं की। कम से कम, परमेश्वर के पास अपनी दिव्यता में इस प्रकार की भाषा नहीं है, क्योंकि उसे मनुष्य के प्रति अपने प्रेम को विनियमित करने के लिए इस प्रकार के सिद्धांत की आवश्यकता नहीं होती, "अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर," क्योंकि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम उसके स्वभाव का स्वाभाविक प्रकाशन है। तुम लोगों ने कभी परमेश्वर को ऐसा कुछ कहते हुए सुना है : "मैं मनुष्य से उसी तरह प्रेम करता हूँ, जिस तरह मैं अपने आप से प्रेम करता हूँ"? तुमने नहीं सुना होगा, क्योंकि प्रेम परमेश्वर के सार और स्वरूप में है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम, उसका रवैया और लोगों के साथ उसके व्यवहार का तरीका उसके स्वभाव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति और प्रकाशन हैं। उसे जानबूझकर किसी निश्चित तरीके से ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, या अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने के लिए जानबूझकर किसी निश्चित पद्धति या किसी नैतिक संहिता का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है—उसके पास पहले से ही इस प्रकार का सार है। तुम इसमें क्या देखते हो? जब परमेश्वर ने मानवता में काम किया, तो उसकी बहुत-सी पद्धतियाँ, वचन और सत्य मानवीय तरीके से व्यक्त हुए थे। परंतु साथ ही परमेश्वर का स्वभाव, स्वरूप और उसकी इच्छा भी लोगों के जानने और समझने के लिए व्यक्त हुए थे। जो कुछ उन्होंने जाना और समझा, वह वास्तव में उसका सार और उसका स्वरूप था, जो स्वयं परमेश्वर की अंतर्निहित पहचान और हैसियत दर्शाते हैं। अर्थात्, देह में मनुष्य के पुत्र ने स्वयं परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव और सार को अधिकतम संभव सीमा तक और यथासंभव सटीक तरीके से व्यक्त किया। न केवल मनुष्य के पुत्र की मानवता स्वर्गिक परमेश्वर के साथ मनुष्य के संवाद और अंतःक्रिया में कोई व्यवधान या बाधा नहीं थी, बल्कि वास्तव में वह मानवजाति के लिए सृष्टि के प्रभु से जुड़ने का एकमात्र माध्यम और एकमात्र सेतु थी। अब, इस बिंदु पर, क्या तुम लोग यह महसूस नहीं करते कि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति और पद्धतियों और कार्य के वर्तमान चरण में अनेक समानताएँ हैं? कार्य का यह वर्तमान चरण भी परमेश्वर के स्वभाव को व्यक्त करने के लिए ढेर सारी मानवीय भाषा का उपयोग करता है, और यह स्वयं परमेश्वर की इच्छा व्यक्त करने के लिए मनुष्य के दैनिक जीवन और उसके ज्ञान में से ढेर सारी भाषा और पद्धतियों का प्रयोग करता है। जब परमेश्वर देह बन जाता है, तो फिर चाहे वह मानवीय परिप्रेक्ष्य से बात करे या दिव्य परिप्रेक्ष्य से, अभिव्यक्ति की उसकी ढेर सारी भाषा और पद्धतियाँ मनुष्य की भाषा और पद्धतियों के माध्यम से आती हैं। अर्थात्, जब परमेश्वर देह बनता है, तो यह तुम्हारे लिए परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को देखने और परमेश्वर के प्रत्येक सच्चे पहलू को जानने का बेहतरीन अवसर होता है। जब परमेश्वर देह बना, तो मानवता में बड़े होते हुए उसने मानवजाति के ज्ञान, सामान्य ज्ञान, भाषा और अभिव्यक्ति की पद्धतियों को समझा, सीखा और ग्रहण किया। देहधारी परमेश्वर में ये चीज़ें उन मनुष्यों से आई थीं, जिन्हें उसने सृजित किया था। वे देहधारी परमेश्वर के लिए अपने स्वभाव और दिव्यता को व्यक्त करने के साधन बन गए, जिससे वह मानवीय परिप्रेक्ष्य से और मानवीय भाषा के उपयोग द्वारा मानवजाति के बीच कार्य करते हुए अपने कार्य को अधिक प्रासंगिक, अधिक प्रामाणिक और अधिक सटीक बना पाया। इससे उसका कार्य लोगों के लिए अधिक सुगम और आसानी से समझने योग्य बन गया, और इस प्रकार उसने वे परिणाम प्राप्त किए, जो परमेश्वर चाहता था। क्या इस तरह देह में कार्य करना परमेश्वर के लिए अधिक व्यावहारिक नहीं है? क्या यह परमेश्वर की बुद्धि नहीं है? जब परमेश्वर देहधारी हुआ, और जब परमेश्वर का देह उस कार्य को सँभालने में सक्षम हुआ जिसे वह करना चाहता था, तो ऐसा तब हुआ जब वह व्यावहारिक रूप से अपने स्वभाव और अपने कार्य को व्यक्त कर सकता था, और यही वह समय भी था जब वह मनुष्य के पुत्र के रूप में आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई की शुरुआत कर सकता था। इसका मतलब था कि परमेश्वर और मनुष्यों के बीच अब कोई "पीढ़ी का अंतर" नहीं रहा था, कि परमेश्वर शीघ्र ही संदेशवाहकों के माध्यम से संवाद करने का अपना कार्य रोक देगा, और स्वयं परमेश्वर देह में वे सभी वचन और कार्य व्यक्तिगत रूप से व्यक्त कर सकेगा, जिन्हें वह व्यक्त करना चाहता है। इसका अर्थ यह भी था कि जिन लोगों को परमेश्वर बचाता है, वे उसके अधिक करीब थे, और उसके प्रबंधन-कार्य ने एक नए क्षेत्र में प्रवेश कर लिया था, और संपूर्ण मानवजाति का सामना एक नए युग से होने वाला था।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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