परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 31

मनुष्य की सृष्टि करने के तुरन्त बाद, परमेश्वर ने मनुष्य के साथ संलग्न होना और मनुष्य से बात करना शुरू कर किया था, और उसका स्वभाव मनुष्य पर प्रकट होना आरम्भ हो गया था। दूसरे शब्दों में, जब पहली बार परमेश्वर मनुष्य के साथ संलग्न हुआ तब से वह बिना रुके वह अपने सार और स्वरूप को मनुष्य पर सार्वजनिक करने लगा था। इसके बावजूद कि प्रारम्भिक लोग या वर्तमान लोग इसे देखने या समझने के योग्य हैं या नहीं, संक्षेप में परमेश्वर मनुष्य से बात करता है और मनुष्य के बीच कार्य करता है, अपने स्वभाव को प्रकट करता है और अपने सारको अभिव्यक्त करता है—जो एक तथ्य है, और किसी भी व्यक्ति के द्वारा इसे नकारा नहीं जा सकता है। इसका अर्थ यह भी है कि परमेश्वर का स्वभाव, परमेश्वर सार, और स्वरूप सारवह निरन्तर जारी रहता है और प्रकट होता है जब वह मनुष्य के साथ कार्य करता है और संलग्न होता है। उसने किसी भी चीज़ को मनुष्य से कभी नहीं छिपाया है या कभी गुप्त नहीं रखा है, परन्तु इसके बदले उसे सार्वजनिक किया है और बिना कुछ छिपाए अपने स्वयं के स्वभाव को सार्वजानिक किया है। इस प्रकार, परमेश्वर आशा करता है कि मनुष्य उसे जान सकता है और उसके स्वभाव एवं सार को समझ सकता है। वह नहीं चाहता है कि मनुष्य उसके स्वभाव एवं सार से ऐसा व्यवहार करे जैसे कि वे अनन्त रहस्य हों, न ही वह यह चाहता है कि मनुष्य परमेश्वर को ऐसा समझे कि वह एक पहेली हो जिसको कभी भी सुलझाया नहीं जा सकता है। जब मानवजाति परमेश्वर को जान जाती है केवल तभी मनुष्य आगे का मार्ग जान सकता है और परमेश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार करने के योग्य हो सकता है, और केवल ऐसी ही मानवजाति सचमुच में परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन जीवन बिता सकती है, और ज्योति में जीवन बिता सकती है, और परमेश्वर की आशीषों के मध्य जीवन बिता सकती है।

वे वचन एवं वह स्वभाव जिन्हें परमेश्वर के द्वारा जारी एवं प्रकट किया गया था वे उसकी इच्छा को दर्शाते हैं, और वे उस के सार को भी दर्शाते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य के साथ संलग्न होता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह क्या कहता है या करता है, या वह कौन सा स्वभाव प्रकट करता है, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य परमेश्वर के सार और उसके स्वरूप के विषय में क्या देखता है, क्योंकि वे सभी मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा को दर्शाते हैं। इसकी परवाह किए बगैर कि मनुष्य कितना कुछ एहसास करने, बूझने या समझने के योग्य है, यह सब कुछ परमेश्वर की इच्छा को दर्शाता है—मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा! यह सन्देह से परे है! मानवजाति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि जिस प्रकार वह लोगों से अपेक्षा करता है वे उसी प्रकार हों, कि जो वह उनसे अपेक्षा करता है वे उसे करें, कि जिस प्रकार वह उनसे अपेक्षा करता है वे उसी प्रकार जीवन जीएं, और जिस प्रकार वह उनसे अपेक्षा करता है वे उसी प्रकार परमेश्वर की इच्छा की सम्पूर्णता को पूरा करने के योग्य बनें। क्या ये चीज़ें परमेश्वर के सार से अविभाज्य हैं? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर अपने स्वभाव और स्वरूप को जारी करता है और उसी समय वह मनुष्य से मांग कर रहा है। इसमें कुछ असत्य नहीं है, कोई बहाना नहीं है, कोई गोपनीयता नहीं है, और कोई सजावट नहीं है। फिर भी मनुष्य जानने में क्यों असमर्थ है, और क्यों वह परमेश्वर के स्वभाव को कभी स्पष्ट रूप से एहसास करने के योग्य नहीं हो पाया है? और क्यों उसने कभी परमेश्वर की इच्छा का एहसास नहीं किया है? जिसे परमेश्वर के द्वारा जारी एवं प्रदर्शित किया गया है यह वही है जो स्वयं परमेश्वर का स्वरूप है, और उसके सच्चे स्वभाव का हर एक छोटा सा भाग एवं विशेष पहलू है—अतः मनुष्य क्यों नहीं देख सकता है? मनुष्य क्यों ज्ञान को पूरी तरह से समझने में असमर्थ है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। और यह कारण क्या है? सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ही, मनुष्य ने कभी भी परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं किया है। प्राचीन समयों में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर ने मनुष्य के सम्बन्ध में क्या किया था, वह मनुष्य जिसे बस अभी अभी सृजा गया था, उस मनुष्य ने उससे एक साथी से बढ़कर व्यवहार नहीं किया था, कोई ऐसा जिस पर भरोसा किया जा सके, और उसके पास परमेश्वर का कोई ज्ञान या समझ नहीं थी। दूसरे शब्दों में, वह नहीं जानता था कि इस अस्तित्व के द्वारा क्या जारी किया गया था—यह अस्तित्व जिस पर वह भरोसा रखता था और उसे अपने साथी के रूप में देखता है—वह परमेश्वर का सार था, न ही वह जानता था कि यह प्रभावशाली अस्तित्व वह परमेश्वर है जो सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है। सरल रूप से कहें, उस समय के लोगों के पास परमेश्वर की ज़रा सी भी जानकारी नहीं थी। वे नहीं जानते थे कि स्वर्ग एवं पृथ्वी और सभी चीज़ों को उसी के द्वारा बनाया गया है, और वे इस बात से अनजान थे कि वह कहाँ से आया था, और इसके अतिरिक्त, कि वह कौन था। वास्तव में, उस बीते समय में परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा नहीं करता था कि वह उसे जाने, या उसे समझे, या वह सब कुछ जो उसने किया था उसे समझे, या उसकी इच्छा के विषय में जानकारी प्राप्त करे, क्योंकि ये मानवजाति की सृष्टि के बाद के अति प्राचीन समय थे। जब परमेश्वर ने व्यवस्था के युग के कार्य के लिए तैयारियाँ प्रारम्भ की, तब परमेश्वर ने मनुष्य के लिए कुछ किया और साथ ही मनुष्य से कुछ मांग करना शुरू किया, यह बताते हुए कि किस प्रकार परमेश्वर को भेंट चढ़ाएं और आराधना करें। केवल तभी मनुष्य ने परमेश्वर के बारे में कुछ साधारण विचारों को अर्जित किया था, केवल तभी उसने मनुष्य एवं परमेश्वर के बीच के अन्तर को जाना था, और यह कि वह परमेश्वर ही है जिसने मानवजाति की सृष्टि की थी। जब मनुष्य जान गया कि परमेश्वर परमेश्वर था और मनुष्य मनुष्य था, तो उसके एवं परमेश्वर के बीच में एक निश्चित दूरी बन गई, तब भी परमेश्वर ने अपेक्षा नहीं की कि मनुष्य के पास उसके विषय में अत्याधिक ज्ञान या गहरी समझ हो। इस प्रकार, परमेश्वर ने अपने कार्य के चरणों एवं परिस्थितियों के आधार पर मनुष्य से अलग अलग अपेक्षाएं कीं। इसमें तुम लोग क्या देखते हो? तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव के किस पहलू का एहसास करते हो? क्या परमेश्वर वास्तविक है? क्या परमेश्वर की अपेक्षाएं मनुष्य के लिए उचित हैं? परमेश्वर के द्वारा मानवजाति की सृष्टि के बाद अति प्राचीन समयों के दौरान, जब परमेश्वर ने मनुष्य पर विजय एवं सिद्धता का कार्य अभी तक नहीं किया था, और उससे बहुत सारे वचन नहीं कहे थे, तब उसने मनुष्य से थोड़ी सी ही मांग की थी। इसकी परवाह न करते हुए कि मनुष्य ने क्या किया और उसने किस प्रकार व्यवहार किया—भले ही उसने कुछ ऐसे कार्यों को किया जिनसे परमेश्वर को ठेस लगी—फिर भी परमेश्वर ने सब को क्षमा किया और सभी बातों को अनदेखा किया। क्योंकि परमेश्वर जानता था कि उसने मनुष्य को क्या दिया था, और जानता था कि मनुष्य के भीतर क्या था, इस प्रकार वह अपेक्षाओं के स्तर को जानता था जिन्हें उसे मनुष्य से करनी चाहिए। यद्यपि उस समय उसकी अपेक्षाओं का स्तर बहुत ही नीचे था, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका स्वभाव महान नहीं था, या यह कि उसकी बुद्धिमत्ता एवं सर्वसामर्थता सिर्फ खोखले वचन थे। क्योंकि मनुष्य के लिए, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर को जानने का केवल एक ही मार्ग है: परमेश्वर के प्रबंधन एवं मानवजाति के उद्धार के कार्य के चरण का अनुसरण करने के द्वारा, और उन वचनों को स्वीकार करने के द्वारा जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति से कहा है। परमेश्वर के स्वरूप और परमेश्वर के स्वभाव को जानने से, क्या मनुष्य परमेश्वर से अब भी कहेगा कि उसे अपने वास्तविक व्यक्तित्व को दिखाए? मनुष्य ऐसा नहीं कहेगा, और ऐसा करने की हिम्मत नहीं करेगा, क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप को समझने के बाद, मनुष्य पहले ही स्वयं सच्चे परमेश्वर को देख चुका होगा, और पहले ही उसके वास्तविक व्यक्तित्व को देख चुका होगा। यह अवश्य घटित होनेवाला परिणाम है।

जब परमेश्वर का कार्य एवं योजना बिना रुके निरन्तर आगे बढ़ती जाती थी, और जब परमेश्वर ने मनुष्य के साथ एक चिन्ह के रूप में मेघधनुष की वाचा को स्थापित किया कि वह जलप्रलय का इस्तेमाल करके दोबारा कभी संसार का अन्त नहीं करेगा उसके पश्चात्, परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को हासिल करने की अत्याधिक तीव्र इच्छा थी जो उसके साथ एक मन के हो सकते थे। इसी प्रकार परमेश्वर के पास भी बहुत ही प्रबल अभिलाषा थी कि ऐसे लोगों को हासिल करे जो पृथ्वी पर उसकी इच्छा पर चलने में समर्थ हैं, और इसके अतिरिक्त, लोगों के ऐसे समूह को हासिल करे जो अंधकार की शक्तियों को तोड़कर आज़ाद होने में समर्थ हैं, और जो शैतान के द्वारा बांधे न जाएं, और पृथ्वी पर उसकी गवाही देने में समर्थ हैं। लोगों के ऐसे समूह को हासिल करना परमेश्वर की लम्बे समय की इच्छा थी, जिस का वह सृष्टि की रचना के समय से ही इंतज़ार कर रहा था। इस प्रकार, संसार का विनाश करने के लिए परमेश्वर के द्वारा जलप्रलय का उपयोग करने के बावजूद, या मनुष्य के साथ उसकी वाचा के बावजूद, परमेश्वर की इच्छा, मन का प्रारुप, योजना, और आशाएं एक समान बनी रहीं। जो वह करना चाहता था, जिसकी उसने सृष्टि की रचना के समय के बहुत पहले से लालसा की थी, वह यह था कि मानवजाति के मध्य से उन लोगों को हासिल करे जिन्हें उसने हासिल करने की इच्छा की थी—कि लोगों के ऐसे समूह को हासिल करे जो उसके स्वभाव को बूझने एवं जानने, और उसकी इच्छा को समझने में समर्थ थे, एक ऐसा समूह जो उसकी आराधना करने में समर्थ थे। लोगों का ऐसा समूह सचमुच में उसके लिए गवाही देने में सक्षम है, और ऐसा कहा जा सकता है कि वे उसके विश्वासपात्र हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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