परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 9
परमेश्वर विभिन्न परीक्षणों से जाँच करता है कि लोग परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं या नहीं
हर युग में, जब परमेश्वर संसार में कार्य करता है तब वह मनुष्य को कुछ वचन प्रदान करता है, और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता। तब परमेश्वर अपने कार्य के दौरान, किस प्रकार किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करता है? मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परमेश्वर किस पद्धति का उपयोग करता है। शायद इस वक्त भी तुम लोग इस बारे में अस्पष्ट हो, परन्तु जब मैं तुम लोगों को प्रक्रिया बताऊँगा, तो यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा, क्योंकि तुममें से बहुत से लोगों ने पहले ही इसका अनुभव कर लिया है।
परमेश्वर के कार्य के दौरान, आरंभ से लेकर अब तक, परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए—या तुम लोग कह सकते हो, उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो उसका अनुसरण करता है—परीक्षाएँ निर्धारित कर रखी हैं और ये परीक्षाएँ भिन्न-भिन्न आकारों में होती हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिवार के द्वारा ठुकराए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ ने विपरीत परिवेश की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार किए जाने और यातना दिए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने विकल्प का सामना करने की परीक्षा का अनुभव किया है; और कुछ लोगों ने धन एवं हैसियत की परीक्षाओं का सामना करने का अनुभव किया है। सामान्य रूप से कहें, तो तुम लोगों में से प्रत्येक ने सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना किया है। परमेश्वर इस प्रकार से कार्य क्यों करता है? परमेश्वर हर किसी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है? वह किस प्रकार के परिणाम देखना चाहता है? जो कुछ मैं तुम लोगों से कहना चाहता हूँ उसका महत्वपूर्ण बिंदु यह है : परमेश्वर देखना चाहता है कि यह व्यक्ति उस प्रकार का है या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा ले रहा होता है, तुम्हें किसी परिस्थिति का सामना करने पर मजबूर कर रहा होता है, तो वह यह जाँचना चाहता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो उसका भय मानता और बुराई से दूर रहता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी भेंट को सुरक्षित रखने का काम दिया गया है, और वह अपने कर्तव्य के कारण परमेश्वर की भेंट के संपर्क में आता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि यह ऐसा काम है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की है? इसमें कोई शक ही नहीं है! हर चीज़ जो तुम्हारे सामने आती है, उसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की होती है। जब तुम्हारा सामना ऐसे मामले से होगा, तो परमेश्वर गुप्त रूप से तुम्हारा अवलोकन करेगा, देखेगा कि तुम क्या चुनाव करते हो, कैसे अभ्यास करते हो, तुम्हारे विचार क्या हैं। परमेश्वर को सबसे अधिक चिंता अंतिम परिणाम की होती है, चूँकि इसी परिणाम से वह मापेगा कि इस परीक्षा-विशेष में तुमने परमेश्वर के मानक को हासिल किया है या नहीं। हालाँकि, जब लोगों का सामना किसी मसले से होता है, तो वे प्रायः इस बारे में नहीं सोचते कि उनका सामना इससे क्यों हो रहा है, परमेश्वर को उनसे किस मानक पर खरा उतरने की अपेक्षा है, वह उनमें क्या देखना चाहता है, या उनसे क्या प्राप्त करना चाहता है। ऐसे मामले से सामना होने पर, इस प्रकार का व्यक्ति केवल यह सोच रहा होता है: "मैं इस चीज़ का सामना कर रहा हूँ; मुझे सावधान रहना चाहिए, लापरवाह नहीं! चाहे कुछ भी हो, यह परमेश्वर की भेंट है और मैं इसे छू नहीं सकता हूँ।" ऐसे सरल विचार रखकर वे सोचते हैं कि उन्होंने अपना उत्तरदायित्व पूरा कर लिया। परमेश्वर इस परीक्षा के परिणाम से संतुष्ट होगा या नहीं? तुम लोग इस पर चर्चा करो। (यदि कोई अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानता है, तो जब उस कर्तव्य से सामना होता है जिसमें वह परमेश्वर को अर्पित की गई भेंट के संपर्क में आता है, तो वह विचार करेगा कि परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करना कितना आसान होगा, अतः वह सावधानी से कार्य करेगा।) तुम्हारा उत्तर सही दिशा में है, परन्तु यह अभी सटीक नहीं है। परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतही तौर पर नियमों का पालन करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ है कि जब तुम्हारा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तुम इसे एक ऐसी परिस्थिति के रूप में देखते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर के द्वारा की गई है, ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में देखते हो जिसे उसके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है, या किसी ऐसे कार्य के रूप में देखते हो जो उसने तुम्हें सौंपा है। जब तुम इस मामले का सामना कर रहे होते हो, तो तुम्हें इसे परमेश्वर से आयी किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तुम्हारे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुम्हें सोचना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए कि कैसे इस मामले से इस तरह से निपटा जाए कि तुम अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर सको, और परमेश्वर के प्रति वफ़ादार भी रह सको, इसे कैसे किया जाए कि परमेश्वर क्रोधित न हो, या उसके स्वभाव का अपमान न हो। हमने अभी-अभी भेंटों की सुरक्षा के बारे में बात की। इस मामले में भेंटें शामिल हैं, और इसमें तुम्हारा कर्तव्य, एवं तुम्हारा उत्तरदायित्व भी शामिल है। तुम इस उत्तरदायित्व के प्रति कर्तव्य से बँधे हुए हो। फिर भी जब तुम्हारा सामना इस मामले से होता है, तो क्या कोई प्रलोभन है? हाँ, है! यह प्रलोभन कहाँ से आता है? यह प्रलोभन शैतान की ओर से आता है, और यह मनुष्य की दुष्टता और उसके भ्रष्ट स्वभाव से भी आता है। चूँकि यहाँ प्रलोभन है, इसमें गवाही देने वाली बात आती है, जो लोगों को देनी चाहिए, जो तुम्हारा उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य भी है। कुछ लोग कहते हैं, "यह तो कितना छोटा-सा मसला है; क्या वास्तव में इस बात का बतंगड़ बनाना ज़रूरी है?" हाँ, यह ज़रूरी है! क्योंकि परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए, हम किसी भी ऐसी चीज़ को जाने नहीं दे सकते जिसका हमसे लेना-देना है, या जो हमारे आसपास घटती है, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज़ भी; हमें यह मसला ध्यान देने योग्य लगे या न लगे, अगर उससे हमारा सामना हो रहा है तो हमें उसे जाने नहीं देना चाहिए। इस सबको हमारे लिए परमेश्वर की परीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। चीज़ों को इस ढंग से देखने की प्रवृत्ति कैसी है? यदि तुम्हारी प्रवृत्ति इस प्रकार की है, तो यह एक तथ्य की पुष्टि करती है : तुम्हारा हृदय परमेश्वर का भय मानता है, और बुराई से दूर रहने के लिए तैयार है। यदि परमेश्वर को संतुष्ट करने की तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो जिसे तुम अभ्यास में लाते हो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक से दूर नहीं है।
प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो मानते हैं कि ऐसे मामले जिन पर लोगों के द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, और जिनका सामान्यतः उल्लेख नहीं किया जाता, वो महज छोटी-मोटी निरर्थक बातें होती हैं, और उनका सत्य को अभ्यास में लाने से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं, तो वे उस पर अधिक विचार नहीं करते और उसे जाने देते हैं। परन्तु वास्तव में, यह मामला एक सबक है जिसका तुम्हें अध्ययन करना चाहिए, यह एक सबक कि किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना है, और किस प्रकार बुराई से दूर रहना है। इसके अतिरिक्त, जिस बारे में तुम्हें और भी अधिक चिंता करनी चाहिए वह यह जानना है कि जब यह मामला तुम्हारे सामने आता है तो परमेश्वर क्या कर रहा है। परमेश्वर ठीक तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे प्रत्येक शब्द और कर्म का अवलोकन कर रहा है, तुम्हारे क्रियाकलापों, तुम्हारे मन में हुए परिवर्तनों का अवलोकन कर रहा है—यह परमेश्वर का कार्य है। कुछ लोग पूछते हैं, "अगर ये सच है, तो मुझे यह महसूस क्यों नहीं होता है?" तुमने इसका एहसास नहीं किया है क्योंकि तुम परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को अपना प्राथमिक मार्ग मानकर इसके मुताबिक नही चले हो; इसलिए, तुम मनुष्य में परमेश्वर के सूक्ष्म कार्य को महसूस नहीं कर पाते, जो लोगों के भिन्न-भिन्न विचारों और भिन्न-भिन्न कार्यकलापों के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करता है। तुम एक चंचलचित्त वाले व्यक्ति हो। बड़ा मामला क्या है? छोटा मामला क्या है? उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, पर क्या तुम लोग उसे स्वीकार कर सकते हो? (हम इसे स्वीकार कर सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान, अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद के कारण, और अपनी कम क्षमता के कारण, मनुष्य प्रायः परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने योग्य नहीं होता, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाता, और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता जो किसी मूल्य का हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि लोग, चीज़ें, और मामले जिनका तुम लोग सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात्, जब परमेश्वर तुममें कोई परिणाम नहीं देखता, तो परमेश्वर कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके, तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महिमान्वित नहीं किया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों का अर्थ समझा है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है—परमेश्वर के परीक्षण और परीक्षाएँ। इसके बजाय, तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या यह मनुष्य के द्वारा बहुत बड़ी अवज्ञा नहीं है? (हाँ, है।) क्या इसकी वजह से परमेश्वर दुखी होगा? (वह दुखी होगा।) परमेश्वर दुखी नहीं होगा! मुझे इस प्रकार कहते हुए सुनकर तुम लोगों को एक बार फिर झटका लगा है। तुम सोच रहे होगे : "क्या ऐसा पहले नहीं कहा गया था कि परमेश्वर हमेशा दुखी होता है? इसलिए क्या परमेश्वर दुखी नहीं होगा? तो परमेश्वर दुखी कब होता है?" संक्षेप में, परमेश्वर इस स्थिति से दुखी नहीं होगा। तो उस प्रकार के व्यवहार के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जिसके बारे में ऊपर बताया गया है? जब लोग परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों, परीक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, जब वे उनसे बच कर भागते हैं, तो इन लोगों के प्रति परमेश्वर की केवल एक ही प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को अपने हृदय की गहराई से ठुकरा देता है। यहाँ "ठुकराने" शब्द के दो अर्थ हैं। मैं उन्हें अपने दृष्टिकोण से किस प्रकार समझाऊँ? गहराई में, यह शब्द घृणा का, नफ़रत का संकेतार्थ लिए हुए है। दूसरा अर्थ क्या? दूसरे भाग का तात्पर्य है किसी चीज़ को त्याग देना। तुम लोग जानते हो कि "त्याग देने" का क्या अर्थ है, ठीक है न? संक्षेप में, ठुकराने का अर्थ है ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की अंतिम प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति जो इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं; यह उनके प्रति भयंकर घृणा है, और चिढ़ है, इसलिए उनका परित्याग करने का निर्णय लिया जाता है। यह ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का अंतिम निर्णय है जो परमेश्वर के मार्ग पर कभी नहीं चला है, जिसने कभी भी परमेश्वर का भय नहीं माना है और जो कभी भी बुराई से दूर नहीं रहा है। क्या अब तुम लोग इस कहावत के महत्व को समझ गए जो मैंने कही थी?
क्या अब वह तरीका तुम्हारी समझ में आ गया है जिसे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने के लिए उपयोग करता है? (वह हर दिन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है।) "वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है"—ये वो चीज़ें हैं जिन्हें लोग महसूस और स्पर्श कर सकते हैं। तो ऐसा करने के पीछे परमेश्वर की मंशा क्या है? मंशा यह है कि परमेश्वर हर एक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न तरीकों से, भिन्न-भिन्न समय पर, और भिन्न-भिन्न स्थानों पर परीक्षाएँ लेना चाहता है। किसी परीक्षा में मनुष्य के किन पहलुओं को जाँचा जाता है? परीक्षण यह तय करता है कि क्या तुम हर उस मामले में परमेश्वर का भय मानते हो और बुराई से दूर रहते हो जिसका तुम सामना करते हो, जिसके बारे में तुम सुनते हो, जिसे तुम देखते हो, और जिसका तुम व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो। हर कोई इस प्रकार के परीक्षण का सामना करेगा, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के प्रति निष्पक्ष है। तुममें से कुछ लोग कहते हैं, "मैंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है; ऐसा कैसे है कि मैंने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया?" तुम्हें लगता है कि तुमने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया है क्योंकि जब भी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की, तुमने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया, और परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं चाहा। इसलिए तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का कोई बोध ही नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, "मैंने कुछ परीक्षणों का सामना तो किया है, किन्तु मैं अभ्यास करने के उचित तरीके को नहीं जानता। जब मैंने अभ्यास किया तो भी मुझे पता नहीं कि मैं परीक्षण के दौरान डटा रहा था या नहीं।" इस प्रकार की अवस्था वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं है। तो फिर वह कौन-सा मानक है जिससे परमेश्वर लोगों को मापता है? मानक वही है जो मैंने कुछ देर पहले कहा था : जो कुछ भी तुम करते हो, सोचते हो, व्यक्त करते हो, उसमें तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हो या नहीं। इसी प्रकार से यह निर्धारित होता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। यह अवधारणा सरल है या नहीं? इसे कहना तो आसान है, किन्तु क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? (यह इतना आसान नहीं है।) यह इतना आसान क्यों नहीं है? (क्योंकि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्य को पूर्ण बनाता है, इसलिए जब उनका सामना समस्याओं से होता है तो वे नहीं जानते कि समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज कैसे करें। परमेश्वर का भय मानने की वास्तविकता को अंगीकृत करने से पहले, लोगों को भिन्न-भिन्न परीक्षणों, शुद्धिकरणों, ताड़नाओं, और न्यायों से होकर गुज़रना पड़ता है।) तुम इसे उस ढंग से कह सकते हो, परन्तु जहाँ तक तुम लोगों का संबंध है, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना इस वक्त आसानी से करने योग्य प्रतीत होता है। मैं क्यों ऐसा कहता हूँ? क्योंकि तुम लोगों ने बहुत से धर्मोपदेशों को सुना है, और सत्य-वास्तविकता की सिंचाई को अच्छी मात्रा में प्राप्त किया है; इससे तुम लोग यह समझ गए हो कि किस प्रकार सिद्धान्त और सोच के संबंध में परमेश्वर का भय मानना है और बुराई से दूर रहना है। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के तुम लोगों के अभ्यास के संबंध में, यह सब सहायक रहा है और इसने तुम लोगों को महसूस करवाया है कि इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। तब क्यों लोग वास्तव में इसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते? क्योंकि मनुष्य का स्वभाव-सार परमेश्वर का भय नहीं मानता, और बुराई को पसंद करता है। यही वास्तविक कारण है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
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