सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग (भाग दो)
खुद को जानने के लिए तुम्हें अपनी भ्रष्टता के खुलासों, अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी नाजुक कमजोरियों और अपने प्रकृति सार के बारे में पता होना चाहिए। तुम्हें बहुत विस्तार से उन चीजों के बारे में भी पता होना चाहिए जो तुम्हारे दैनिक जीवन में सामने आती हैं—तुम्हारे इरादे, तुम्हारे नजरिए और हर एक बात में तुम्हारा रवैया—चाहे तुम घर पर हो या बाहर, चाहे जब तुम सभाओं में होते हो, या जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, या किसी भी मुद्दे का सामना करते हो। इन पहलुओं के माध्यम से तुम्हें खुद को जानना होगा। बेशक, खुद को एक अधिक गहरे स्तर पर जानने के लिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को एकीकृत करना होगा; केवल उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जानकर ही तुम परिणाम हासिल कर सकते हो। परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करते समय कष्ट या पीड़ा से न डरो, और इस बात से और भी न डरो कि परमेश्वर तुम लोगों के दिल को चीर देगा और तुम्हारी कुरूप अवस्थाओं को उजागर कर देगा। इन चीजों को झेलना बेहद हितकारी है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना वाले वचनों को और ज्यादा पढ़ना चाहिए, खासकर वो वचन जो मानवजाति की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। तुम्हें उनके साथ अपनी व्यावहारिक अवस्था की तुलना करनी चाहिए, और तुम्हें उन्हें खुद से ज्यादा और दूसरों से कम जोड़ना चाहिए। परमेश्वर जैसी अवस्थाएँ उजागर करता है, वे हर व्यक्ति में मौजूद हैं, और वे सभी तुम में मिल सकती हैं। अगर तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो इसे अनुभव करके देखो। तुम जितना ज्यादा अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा खुद को जानोगे, और उतना ही ज्यादा यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, कुछ लोग उन्हें खुद से जोड़ने में असमर्थ होते हैं; उन्हें लगता है कि इन वचनों के कुछ हिस्से उनके बारे में नहीं, बल्कि अन्य लोगों के बारे में हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर लोगों को ईज़ेबेल और वेश्याओं के रूप में उजागर करता है, तो कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अपने पति के प्रति पूरी तरह से वफादार हैं, अतः ऐसे वचन उनके संदर्भ में नहीं होने चाहिए; कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अविवाहित हैं और उन्होंने कभी सेक्स नहीं किया है, इसलिए ऐसे वचन उनके बारे में भी नहीं होने चाहिए। कुछ भाइयों को लगता है कि ये वचन केवल महिलाओं के लिए कहे गए हैं, और इनका उनसे कोई लेना-देना नहीं है; कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन बहुत कठोर हैं और वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते, इसलिए वे उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं कि कुछ मामलों में परमेश्वर के वचन सही नहीं हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति यह रवैया सही है? यह जाहिर तौर पर गलत है। सभी लोग खुद को अपने बाहरी व्यवहार के आधार पर देखते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बीच आत्म-चिंतन करने और अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान पाने में सक्षम नहीं होते। यहाँ “ईज़ेबेल” और “वेश्या” जैसे शब्द मानवजाति की भ्रष्टता, मलिनता और व्यभिचार के सार को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। चाहे पुरुष हो या महिला, विवाहित हो या अविवाहित, हर किसी में व्यभिचार के भ्रष्ट विचार होते हैं—तो इसका तुमसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता है? परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं; चाहे पुरुष हो या स्त्री, भ्रष्टाचार का उनका स्तर समान है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? हमें पहले यह समझना होगा कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सत्य है और तथ्यों के अनुरूप है, और लोगों का न्याय करके उन्हें उजागर करने वाले उसके वचन चाहे जितने भी कठोर क्यों न हों, या लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उन्हें प्रबोधित करने वाले उसके वचन कितने भी कोमल क्यों न हों, चाहे उसके वचन न्याय हों या आशीष, चाहे वे निंदा हों या शाप, और चाहे वे लोगों को कड़वाहट का एहसास कराते हों या मिठास का, लोगों को वे सब स्वीकार करने चाहिए। यही वह दृष्टिकोण है, जो लोगों को परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाना चाहिए। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह भक्ति का दृष्टिकोण है, पवित्रता का दृष्टिकोण है, धैर्यशीलता का दृष्टिकोण है, या कष्ट सहने का दृष्टिकोण है? तुम थोड़ी उलझन में हो। मैं तुमसे कहता हूँ कि यह इनमें से कोई नहीं है। अपनी आस्था में, लोगों को दृढ़ता से यह मानना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। चूँकि वे सचमुच सत्य हैं, लोगों को उन्हें विवेक के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए। हम इस बात को भले ही न पहचानें या स्वीकार न करें, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति हमारा पहला रुख पूर्ण स्वीकृति का होना चाहिए। अगर परमेश्वर के वचन तुममें से किसी एक या सबको उजागर नहीं करते तो ये किसे उजागर करते हैं? और अगर यह तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है, तो तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए क्यों कहा जाता है? क्या यह एक विरोधाभास नहीं है? परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है, परमेश्वर द्वारा बोला गया हर वाक्य भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करता है, और कोई भी इसके बाहर नहीं है—स्वाभाविक रूप से तुम भी इसमें शामिल हो। परमेश्वर के कथनों की एक भी पंक्ति बाह्य रूपों के बारे में या अवस्था की किसी किस्म के बारे में नहीं है, किसी बाह्य नियम के बारे में या लोगों के व्यवहार के किसी सरल रूप के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं हैं। वे ऐसी नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर द्वारा कही गई हर पंक्ति को सिर्फ एक सामान्य प्रकार के इंसानी व्यवहार या बाह्य रूप को उजागर करने वाली मानते हो, तो फिर तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक समझ नहीं है, और तुम नहीं समझते हो कि सत्य क्या है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं। लोग परमेश्वर के वचनों की गहराई का एहसास कर सकते हैं। वे कैसे गहन होते हैं? परमेश्वर का हर वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उन अनिवार्य चीजों को उजागर करता है जो उसके जीवन के भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए हैं। वे आवश्यक चीजें होती हैं, वे बाह्य रूप, विशेषकर बाह्य व्यवहार नहीं होते। लोगों को उनके बाहरी रूप से देखने पर, वे सभी अच्छे लोग लग सकते हैं। लेकिन फिर परमेश्वर क्यों कहता है कि कुछ लोग बुरी आत्माएं हैं और कुछ अशुद्ध आत्माएं हैं? यह एक ऐसा मामला है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता है। इसलिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं के आलोक में या मनुष्यों की सुनी-सुनाई बातों के आलोक में नहीं लेना चाहिए, और सत्तारूढ़ पार्टी के बयानों के आलोक में तो निश्चित रूप से नहीं लेना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं; मनुष्य के सभी वचन मिथ्या हैं। इस तरह से सहभागिता करने के बाद, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में बदलाव का अनुभव किया है? बदलाव चाहे जितना भी छोटा या बड़ा हो, अगली बार जब तुम लोगों का न्याय और उन्हें उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ोगे, तो तुम्हें कम-से-कम परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के बारे में शिकायत करना बंद कर देना चाहिए, “लोगों को उजागर और उनका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन वाकई कठोर हैं, मैं इस पन्ने को नहीं पढ़ने वाला। मैं इसे छोड़ दूँगा! मुझे आशीषों और वादों के बारे में पढ़ने के लिए कुछ खोजना चाहिए, ताकि कुछ सुख-शांति मिल सके।” तुम्हें अब परमेश्वर के वचनों को अपनी मर्जी से छाँट-छाँटकर नहीं पढ़ना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए; सिर्फ तभी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ किया जा सकता है, और सिर्फ तभी तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।
भले ही अब तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो, फिर भी परमेश्वर के वचनों से व्यवहार करने में तुम्हारी अपनी प्राथमिकताएँ और चुनाव हैं, और तुम अभी भी अपनी इच्छा के मुताबिक ही कार्य करोगे। तुम्हें परमेश्वर के वादे और आशीष के वचन पढ़ने की बहुत इच्छा है और तुम खासकर परमेश्वर के वादे के वचनों को याद रखोगे। तुम्हें इन जैसे वचनों को पढ़कर आराम महसूस होता होगा, या तुम्हें थोड़ी आशा महसूस होती होगी और तुम पाओगे कि तुम्हारे पास अभी भी परमेश्वर पर विश्वास करने की ताकत और प्रेरणा है। मगर लोगों का न्याय और उन्हें उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तुम तैयार नहीं हो, क्योंकि अगर कोई हमेशा लोगों को उजागर करने और उनका न्याय करने और उन्हें ताड़ना देने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ता है, तो उसे पीड़ा होती है। उसकी परमेश्वर पर विश्वास करने की ताकत क्षीण हो जाएगी, तो वह आगे कैसे बढ़ेगा? आजकल ज्यादातर लोग रहस्य प्रकट करने वाले परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाते। उन्हें लगता है कि वे बहुत गहरे हैं और आशीष के वचन उनकी पहुँच से परे हैं। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ते समय वे उनमें से कुछ को ही समझ पाते हैं। भले ही वे उन वचनों को खुद से जोड़ने का प्रबंध करते हैं और अपने दिल में मानते भी हैं कि वे वचन सच हैं, फिर भी वे उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। देख रहे हो कि लोग कितने दुखदायी हैं! वे जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, फिर भी वे इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। वे आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, फिर भी प्राप्त नहीं कर पाते। तो परमेश्वर के वचनों को ठीक से कैसे खाया-पिया जाए? सबसे पहले तो व्यक्ति को परमेश्वर के ऐसे और अधिक वचन पढ़ने चाहिए जो रहस्य प्रकट करते हों। ऐसे वचन पढ़ते समय किसी को महसूस होता है कि परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में है और बुलंद है, और उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए। फिर वे प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, तू बहुत महान है! तू सर्वोच्च है! सभी चीजों पर तेरी संप्रभुता है और तू मेरी नियति तय कर सकता है। मैं उन सभी चीजों के लिए समर्पित होने को तैयार हूँ जिनके होने की व्यवस्था तूने मेरे आसपास की है।” इस तरह से प्रार्थना करने से लोगों में परमेश्वर का कुछ डर पैदा होगा। लोग बुलंद परमेश्वर में विश्वास करने के इच्छुक हैं, इसलिए परमेश्वर के वचन खाने-पीने से पहले पहला कदम तो यह सुनिश्चित करना है कि परमेश्वर स्वर्ग से लोगों से बात कर रहा है, लोग परमेश्वर के वचन पढ़ने के इच्छुक होंगे और उनमें धारणाएँ रखने की आशंका कम होगी। दूसरा कदम है, खाने-पीने के लिए परमेश्वर के वायदों और आशीषों के कुछ वचन ढूँढ़ना। मनुष्य को आशीष देते परमेश्वर के वचन देखकर लोग इतने उत्साहित हो जाते हैं कि रोने लगते हैं और कहते हैं, “हे परमेश्वर, तू बड़ा प्यारा है! तू हमारी उपासना के बिल्कुल योग्य है! हमारे लिए तेरे पास जो आशीष हैं, उन्हें हम स्वीकार करना चाहते हैं, और हम तेरे दिए गए वायदे स्वीकार करने के तो और भी ज्यादा इच्छुक हैं। बात सिर्फ इतनी है कि अभी तक हमारा आध्यात्मिक कद छोटा है और हम बड़े नहीं हो पाए हैं। हमारे पास तेरे वायदे और आशीष पाने की योग्यता नहीं है, और विनती करते हैं कि तू हमें और प्रदान कर!” परमेश्वर के आशीष के वचन पढ़कर कितना अच्छा लगता है! फिर वे सोचते हैं, “तो फिर ये किस तरह के आशीष हैं? परमेश्वर ने कहा है कि जब समय आएगा, तो मनुष्य पर कोई विपत्ति नहीं आएगी, और मनुष्य को दिन में तीन बार भोजन करने, कपड़े धोने और सफाई करने की परेशानी से छुटकारा मिल जाएगा—परमेश्वर ने इसी तरह के वायदों के बारे में बात की है।” जो जितना ज्यादा पढ़ता जाता है, उतना ही अधिक उत्साहित होता जाता है। मगर चाहे तुम जितने उत्साही हो जाओ, सत्य का अनुसरण करना न भूलो। तीसरा चरण परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ने का है जो मानव जाति का भ्रष्ट स्वभाव और सार उजागर करते हैं। जब इसकी बात आती है, तो हर बार ज्यादा खाना-पीना जरूरी नहीं होता। एक बार में एक-दो चीजें खाना-पीना ही काफी है। खाने-पीने के बाद सबसे पहले जो बातें तुम्हारी समझ में नहीं आतीं, जिन बातों से तुम जुड़ नहीं पाते, उन चीजों को अलग रख दो, और उन पर ध्यान से विचार करो जो बातें तुमसे जुड़ पाती हैं, धीरे-धीरे तुम्हें अपनी स्थिति का पता चलता जाएगा। जब तुमने वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान लिया होगा, और अधिक से अधिक सत्य समझ लिए होंगे, तो तुम अनजाने में ही अपने स्वयं के प्रकृति सार की असलियत देखने में सक्षम हो जाओगे। क्या तुम्हें लगता है कि यह ठीक है? (बिल्कुल।) यह किसी बच्चे को दवा खिलाने जैसा है। तुम पहले उसे मनाने के लिए कोई स्वादिष्ट चीज देते हो, फिर जब उसका ध्यान उधर नहीं होता, तो तुम उसके मुँह में दवा डाल देते हो। अगर उसे दवा कड़वी लगती है तो तुम उसे मनाने के लिए मिठाई के दो टुकड़े और दे देते हो, और वह दवा ले लेता है। मगर जब वह बड़ा हो जाता है, तो यह जरूरी नहीं रह जाता। वह अपनी मर्जी से दवा पीता है, यह जानते हुए भी कि वह कितनी कड़वी है। यह आध्यात्मिक कद की बात है। अगर तुम में आध्यात्मिक कद की कमी है, और तुमसे परमेश्वर के वचनों में ऐसे वचन खोजने के लिए कहा जाए जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और उससे जुड़े सत्य उजागर करते हैं और उनसे अपनी तुलना करने को कहा जाए, और अगर तुमको दिन भर ये वचन खाने-पीने को कहा जाए, तो आखिर में तुम थक जाओगे, क्योंकि तुम्हारा अनुभव वहाँ तक नहीं पहुँचता और न उनके अनुरूप है। और इसीलिए तुमको इसके बीच में कुछ मिठाई जैसा जोड़ना पड़ेगा, और जो लोग आध्यात्मिक कद में छोटे हैं, उन्हें इसी तरह से परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना चाहिए। अगर तुम अक्सर कमजोर और नकारात्मक रहते हो और तुम्हारे अंदर कोई वास्तविक आस्था या आशा नहीं है, तो तुम्हें जल्दी ही परमेश्वर के आशीष और वायदों के कुछ वचन खाने-पीने चाहिए, और वचन ढूँढ़ने चाहिए जिनमें परमेश्वर इन्हें खाने-पीने के रहस्य बताता है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी ताकत बढ़ रही है और परमेश्वर के साथ तुम्हारा करीबी रिश्ता बन रहा है, तो इस अवसर का लाभ उठाओ, और ताड़ना और न्याय पर खाने-पीने के लिए वचन खोजो। इस तरह खाना-पीना ज्यादा आसानी से प्रभावी बन पाएगा, और तुम जीवन के विकास में देरी नहीं करोगे। अगर तुम आध्यात्मिक कद में छोटे हो, तो परमेश्वर के वचन खाते-पीते समय तुम्हें पता होगा कि समायोजन कैसे करना है। इस तरह से खाना-पीना कि तुम खुद को अच्छी मानसिक स्थिति में रख पाओ और तेजी से विकसित हो पाओ। जो तुम्हारी पहुँच में है उसे खाना-पीना, और जो नहीं है उसे अलग रख देना। और खाने-पीने से जो तुमने समझा है, उसका अभ्यास और अनुभव करने का प्रयास करते जाना। अगर तुम यह जानते हो कि परमेश्वर के वचनों और उन सत्यों का अभ्यास और अनुभव कैसे करना है जिन्हें तुम समझते हो, तो तुम परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर प्रवेश कर लोगे।
मुझे याद है कि किसी ने एक बार कुछ इस तरह बताया था : एक आदमी ने यह अध्ययन करने की काफी कोशिश की कि परमेश्वर पृथ्वी को छोड़कर कब जाएगा। इस बड़े प्रयास को लेकर वह दिन-रात ही नहीं सोचता था बल्कि यह उसके लिए तभी से चिंता का विषय था, जब से उसने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था। सटीक जवाब जानने के लिए उसने परमेश्वर के प्रस्थान को लेकर सभी वचन इकट्ठे किए, जैसे परमेश्वर पृथ्वी को कब छोड़ेगा, क्या संकेत होंगे, और कलीसिया के लोग कैसे प्रतिक्रिया देंगे। फिर उसने उन पर बड़े उत्साह के साथ विचार किया, व्यापक विश्लेषण किया और एक-एक करके और आगे से लेकर पीछे तक उनकी एक-दूसरे से तुलना की, मानो किसी संदर्भ बाइबल से परामर्श कर रहा हो। क्या यह बड़ा प्रयास नहीं था? इस व्यक्ति को परमेश्वर का कितना “ख्याल” था, और उसके मन में परमेश्वर के लिए कितना “प्रेम” था! पृथ्वी से परमेश्वर का प्रस्थान परमेश्वर के कार्य की एक बेहद अहम घटना है, और जब उसने इसे खोज लिया तो उसने इसे सबसे महत्वपूर्ण चीज मान लिया, उद्धार पाने के लिए सत्य के अपने अनुसरण से भी ज्यादा महत्वपूर्ण, और परमेश्वर के वचनों में सत्य की किसी भी वस्तु की खोज से भी अधिक महत्वपूर्ण। इसलिए उसने वे सभी वचन इकट्ठे किए और आखिरकार “उत्तर” ढूँढ़ निकाला। उसके शोध के परिणामों की सटीकता को छोड़ भी दें, तो तुम लोगों का परमेश्वर में आस्था के अनुसरण को लेकर ऐसे व्यक्ति के विचारों और इसे आगे बढ़ाने के उसके तरीकों के बारे में क्या ख्याल है? क्या उसने जो प्रयास किया, वह जरूरी था? इतनी मेहनत करना बेकार ही था! परमेश्वर के पृथ्वी से चले जाने का तुमसे क्या लेना-देना? परमेश्वर ने तुमको अपने आगमन के बारे में सूचित नहीं किया, तो वह तुमको यह भी नहीं बताएगा कि वह कब जा रहा है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो परमेश्वर लोगों को नहीं जानने देता, और इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि लोगों को उन्हें जानने की कोई जरूरत नहीं है, और अगर वे जान भी गए, तो इससे उनको कोई फायदा नहीं होगा और यह उनके भविष्य के गंतव्यों में कोई भूमिका नहीं निभाने वाला। इसलिए लोगों को उन्हें जानने की कोई जरूरत नहीं है। अब चूँकि परमेश्वर देहधारी हो गया है, वह सभी रहस्यों और सत्य के सभी पहलुओं और सभी चीजों को जानता है, और वह लोगों को बता सकता है, पर कुछ चीजें हैं जिन्हें लोगों को जानने की जरूरत नहीं है, न ही उन्हें बताने की कोई जरूरत है। जब परमेश्वर पृथ्वी से जाएगा, या जब वह अपना कार्य समाप्त करेगा—क्या इन चीजों का मनुष्य से कोई लेना-देना है? कोई कह सकता है : कुछ भी नहीं! कुछ लोग कहते हैं, “कैसे मायने नहीं रखता? अगर सत्य का अनुसरण करने में मुझे देर हो गई तो मैं क्या करूँगा? मुझे तो यह जानना है कि परमेश्वर के दिनों में कितना समय बचा है, और सत्य का अनुसरण करने से पहले मुझे उस तय दिन के बारे में जानना है।” क्या ऐसा व्यक्ति मूर्ख है? क्या वह सत्य का अनुसरण करने वाला है? बिल्कुल भी नहीं! अगर कोई व्यक्ति वास्तव में सत्य का अनुसरण करता है, तो उसे इसकी परवाह नहीं होगी, न ही वह इन चीजों के बारे में चिंता करना चाहेगा। वह सोचेगा कि इन चीजों की परवाह करने से सत्य के अनुसरण में मदद नहीं मिलती और इसका कोई महत्व नहीं है, इसलिए वह इन उबाऊ विषयों पर विचार और प्रयास करने को तैयार नहीं होगा। कुछ लोग हमेशा इसे लेकर परेशान रहते हैं कि परमेश्वर का दिन कब आएगा, लेकिन क्या यह उनका निजी एजेंडा नहीं है? तुम्हारी लगातार चिंता कि परमेश्वर का दिन कब आएगा, क्या यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो? क्या इससे साबित हो सकता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करता है? क्या इससे साबित हो सकता है कि तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो? क्या इससे यह साबित हो सकता है कि तुमने परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने में योगदान दिया है? अच्छे कर्मों के लिए तुम्हारी तैयारी कैसी है? तुम कितना सत्य समझ पाए हो? तुमने किन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश किया है? ये वे चीजें हैं जिनके बारे में तुमको सबसे ज्यादा चिंतित होना चाहिए। तुम हमेशा परमेश्वर के समाचार पूछते रहते हो, हमेशा कुछ गपशप जानना चाहते हो, हमेशा कुछ रहस्य समझना चाहते हो। मगर यह केवल एक जिज्ञासु हृदय है। ऐसा हृदय तो बिल्कुल भी नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता हो, या ऐसा हृदय नहीं है जो परमेश्वर के प्रति विचारशील है, और ऐसा हृदय तो बिल्कुल भी नहीं है जो परमेश्वर से डरता हो। रहस्य समझने की तुम्हारी खोज का सत्य के अनुसरण से थोड़ा-सा भी संबंध नहीं है। ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? क्या तुम उनका सम्मान करते हो? क्या तुम उनकी प्रशंसा करते हो? क्या तुम उनसे ईर्ष्या करते हो? क्या तुम ऐसे रहस्यों को खोजने में उनकी मदद करोगे? नहीं, तुम निश्चित ही उन्हें हेय दृष्टि से देखकर कहोगे, “हम अभी भी सत्य के अनुसरण में, स्वयं को जानने में, और परमेश्वर को जानने में अच्छे नहीं हैं—हमने अभी तक कुछ भी हासिल नहीं किया है—और हर एक पहलू के सत्य हैं, जिनको तलाशना, समझना और अभ्यास करना बाकी है, इसलिए हमें ऐसे रहस्यों के अध्ययन करने का प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है।” असल में जब तक तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है और सत्य के अनुसरण की इच्छा है, तो जब वह दिन आएगा, परमेश्वर तुमको अज्ञानता में नहीं छोड़ेगा। वह तुम्हारा परित्याग नहीं करेगा। यही वह आस्था और समझ है, जो तुम में होनी चाहिए। यदि तुम में यह आस्था और समझ है, तो तुम कुछ भी मूर्खतापूर्ण नहीं करोगे। यदि परमेश्वर तुमको बताना चाहता है, तो क्या वह यह बात सीधे तौर पर नहीं कह देगा? क्या उसे घुमा-फिराकर कहने की जरूरत होगी? क्या वचनों को वचनों में छिपाने की जरूरत होगी? क्या गुप्त रखने की जरूरत होगी? बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर लोगों को जो बताना चाहता है वह सत्य है। उसका हर कार्य, वचन और इरादा सत्य व्यक्त करना होता है, और वह उन्हें लोगों से बिल्कुल भी नहीं छिपाएगा। इसलिए तुमको उन चीजों के बारे में पूछताछ करने की कोई जरूरत नहीं जो परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग जानें, और न ही तुम्हें उन पर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि तुम उन चीजों को लेकर जितना प्रयास करोगे, वह उतने ही व्यर्थ होंगे, और उनका कोई मूल्य नहीं होगा, परंतु यह परमेश्वर के लिए घृणास्पद होगा। यह परमेश्वर के लिए घृणास्पद क्यों होगा? सबसे पहले तुम्हें यह समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर ने कई सत्य व्यक्त किए हैं, और सत्य सभी क्षेत्रों में व्यक्त किए हैं। यदि तुम्हारे साथ कुछ घटित होने पर तुम अपनी वास्तविक समस्याओं को ठीक करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, तो तुम सत्य के प्रेमी नहीं हो। तुम अत्यधिक जिज्ञासु व्यक्ति हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसे मामूली चीजों पर ध्यान देना पसंद है। एक ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के वचनों को उचित सम्मान दिए बगैर हमेशा उनसे लापरवाही भरा व्यवहार करता है। तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। तुम्हारे हृदय में जो कुछ चीजें हैं, वह वे हैं जिन्हें परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम जानो, जैसे उसका निवास स्थान—तीसरा स्वर्ग कैसा है और वह वास्तव में कहाँ है, भविष्य का राज्य कैसा होगा, और देहधारी परमेश्वर कब पृथ्वी से विदा होगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि परमेश्वर तुमसे घृणा करता है। क्या परमेश्वर के पास तुमसे घृणा करने का कोई कारण है? (हाँ है।) मान लो कि तुम्हारे बच्चों ने पूरे दिन ठीक से पढ़ाई नहीं की और वह होमवर्क नहीं किया जो उन्हें करना था, बल्कि वे ऐसे सवालों पर विचार करते रहे : “मेरे माता-पिता कैसे मिले थे? उन्होंने मुझे कैसे जन्म दिया? मेरे जन्म के बाद क्या उन्हें मैं पसंद आया था? भविष्य में मेरा परिवार कैसा होगा? क्या हमारे पास बहुत सारा पैसा होगा?” अगर वे हमेशा इन प्रश्नों का अध्ययन करते हैं, तो क्या तुम ऐसे बच्चे को नापसंद करोगे? क्या तुम अपने बच्चों के ऐसा करने से घृणा करोगे? तुम ऐसा क्या चाहते हो जो तुम्हारे बच्चे करें? अच्छे से पढ़ना-लिखना सीखना और मन लगाकर पढ़ाई करना। यह अपने बच्चों के लिए तुम्हारी इच्छा है, तो मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा क्या है? परमेश्वर यह कैसे पसंद न करे कि मनुष्य सही मार्ग पर चले और उचित कार्य करे? परमेश्वर को यह पसंद नहीं है कि लोग उसका अध्ययन करें, या हमेशा उसके हर वचन और कार्य को चुपचाप देखते रहें, या उस पर व्यर्थ समय और प्रयास खर्च करते रहें। बहुत से लोग ऐसे हैं, जो हमेशा अध्ययन करते रहते हैं कि परमेश्वर का दिन कब आएगा। क्या वे अपने हृदय में परमेश्वर पर संदेह और उसका विरोध नहीं कर रहे हैं? मनुष्य की समस्या क्या है, जो वह परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को न तो सँजोता है और न उनका अनुसरण करता है? एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति सत्य की खोज करता है और सभी चीजों में परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश करता है, और परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वह निश्चिंत हो जाता है कि ये वचन सत्य हैं और लोगों को इनका अभ्यास कर इनके प्रति समर्पण करना चाहिए। केवल वे जो यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का वचन सत्य है, परमेश्वर का अध्ययन करेंगे। ऐसे लोगों को अपनी जिम्मेदारियों और अपने कर्तव्यों की जरा भी परवाह नहीं होती। वे उन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते और उनके लिए कोई प्रयास नहीं करते या कोई कीमत भी नहीं चुकाते। इसके बजाय वे हमेशा ऐसी चीजों के बारे में परेशान रहते हैं जैसे कि परमेश्वर पृथ्वी को कब छोड़ेगा, परमेश्वर आपदा कब लाएगा, और परमेश्वर के दिन में अभी कितना समय बचा है, और विचित्र प्रश्न जैसे : “क्या परमेश्वर पृथ्वी छोड़ने के बाद भी हमसे मिला करेगा? क्या पृथ्वी छोड़ने के बाद परमेश्वर का कार्य इसी प्रकार होता रहेगा? पृथ्वी छोड़ने के बाद परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में कब तक रहेगा? क्या वह वापस आएगा? क्या भविष्य के राज्य के युग में स्वर्गदूत होंगे? क्या स्वर्गदूत लोगों के साथ बातचीत करते हैं?” परमेश्वर ऐसे विषयों का लगातार अध्ययन करने वाले लोगों से घृणा करता है। तो फिर मनुष्य को किस बात पर ध्यान देना चाहिए? देहधारी परमेश्वर को किस तरह जानें, परमेश्वर के कार्य को किस तरह जानें, और परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन को किस तरह समझें। ये मनुष्य की जिम्मेदारियाँ हैं, और ये पहली चीजें हैं जिन्हें मनुष्य को समझने और उनमें प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। यदि तुम इन सत्यों को समझने और उनमें प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास अर्थहीन है, एक खोखला नारा भर है, जिसमें कोई असली चीज नहीं है। यदि तुम हमेशा गुपचुप ढंग से रहस्यों से जुड़ी बातों और परमेश्वर कब पृथ्वी छोड़ता है, इस पर विचार करते रहते हो या तुम लोग हमेशा आपस में इस बारे में ही बात करते रहते हो कि परमेश्वर की देह कहाँ पैदा हुई, वह किस तरह के परिवार में जन्मा, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि किस तरह की है, उसका जीवन कैसा है, उसकी उम्र कितनी है, उसने किस प्रकार की शिक्षा पाई है, क्या कभी उसने परमेश्वर में विश्वास किया है, क्या उसने कभी बाइबल पढ़ी है, और वह यीशु में कितने समय से विश्वास रखता है, आदि—अगर तुम हमेशा इन चीजों का ही अध्ययन करते रहे हो, तो तुम लोग परमेश्वर को आँक रहे हो और परमेश्वर के देह की ईशनिंदा कर रहे हो! परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके स्वभाव और उसके सार को जानो, ताकि तुम उसके इरादों को समझ सको, उसके प्रति समर्पण कर सको और उसे संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास कर पाओ। वह तुम्हें अपना अध्ययन करने और अपनी पीठ पीछे उस पर चर्चा नहीं करने देगा। इसलिए चूँकि हमने परमेश्वर के देहधारण और परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार कर लिया है, और हमने मसीह को अपना जीवन और अपने परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर लिया है, हमारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए और हमें परमेश्वर की वस्तुओं और उसके अस्तित्व और उस देह के साथ धर्मनिष्ठ रवैया रखते हुए व्यवहार करना चाहिए जो उसने धारण की है। यही विवेक और मानवता हमारे भीतर होनी चाहिए। अगर तुम्हें लगता है कि अब भी तुम्हारे भीतर परमेश्वर के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, तो इस बारे में बात न करो। इसके बजाय स्वयं को जानने के बारे में बात करो, सत्य का अनुसरण कैसे करें और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह कैसे निभाएँ, और स्वयं को सत्य के इन पहलुओं से सुसज्जित कैसे करें, इस बारे में बात करो। एक दिन जब तुम्हें लगे कि तुम्हारे पास परमेश्वर का कुछ वास्तविक ज्ञान है, तो तुम एक साथ संगति कर पाओगे। मगर परमेश्वर के देहधारी शरीर या कुछ अज्ञात रहस्यों से जुड़ी जानकारी के बारे में बात करने की कोशिश न करो क्योंकि तुम लोग आसानी से परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दोगे। परमेश्वर द्वारा तुम्हारी निंदा की जा सकती है और तुम ईशनिंदक बन सकते हो, और पवित्र आत्मा तुम्हें त्याग देगा। यह ऐसा मामला है जिसे तुमको स्पष्ट रूप से देखना चाहिए। क्या सत्य के अनुसरण के बदले हमेशा परमेश्वर का अध्ययन और गपशप की खोजबीन की जा सकती है? क्या इससे तुम परमेश्वर को जानने लायक बन पाओगे? यदि तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, तो क्या तुम बहुत मूर्ख और अज्ञानी व्यक्ति नहीं हो?
लोगों को ठीक से समझना चाहिए कि सत्य का अनुसरण क्या होता है। लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर इतने सारे सत्य क्यों व्यक्त करता है? परमेश्वर लोगों से इतने सारे सत्य समझने की अपेक्षा क्यों रखता है? अगर कोई इन सत्यों को नहीं समझ पाता, तो क्या वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर सकता है? क्या कोई इन सत्यों को समझे बिना परमेश्वर को जान सकता है? यदि कोई परमेश्वर को नहीं जानता, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है? क्या कोई परमेश्वर की उपासना कर सकता है? ये सभी सत्य आपस में जुड़े हैं। इन सत्यों को समझे बिना कोई व्यक्ति उद्धार कैसे पा सकता है? क्या इन सत्यों को समझना आसान है? क्या न्याय और ताड़ना का अनुभव किए बगैर कोई सत्य की समझ हासिल कर सकता है? क्या कोई काट-छाँट का अनुभव किए बिना स्वयं को जान सकता है? क्या स्वयं को जाने बिना कोई सच्चा पश्चात्ताप कर सकता है? क्या सच्चे पश्चात्ताप के बिना कोई उद्धार पा सकता है? ये सभी सत्य वे सत्य हैं, जिन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वालों को समझना चाहिए, और ये ही वे सत्य हैं जिन्हें उद्धार पाने के लिए समझा जाना चाहिए। अगर परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास हमेशा भ्रमपूर्ण रहा है और तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते रहे हो, तो तुम परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ खो चुके होगे।
शरद ऋतु 2007
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