सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 9)
बाइबल के पुराने नियम में दर्ज नूह, अब्राहम और अय्यूब में मानवता के क्या गुण थे? उनमें सामान्य मानवता की ऐसी क्या विशेषताएँ थीं, जिनकी वजह से परमेश्वर ने उन्हें स्वीकार करने लायक पाया? (विशेष रूप से वे अंतरात्मा और विवेक से संपन्न थे।) यह पूरी तरह से सही है। अय्यूब ने इतना लंबा जीवन जिया जबकि इस दौरान परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कभी उससे बात नहीं की और ना ही व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट हुआ। फिर भी अय्यूब वह सब समझ और महसूस कर सका, जो परमेश्वर ने किया। अंत में उसने परमेश्वर पर अपने ज्ञान का सारांश कुछ शब्दों में दिया। “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। इन शब्दों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है : “यहोवा परमेश्वर है, वह सृष्टि का निर्माता है, वह मेरा परमेश्वर है, और जब वह बोलता है, तब अगर मैं उसका आधा भी समझ सकूँ जो उसने कहा है तो भी मुझे इसे अवश्य सुनना चाहिए और इसका अक्षरशः पालन करना चाहिए।” परमेश्वर ने अय्यूब को तभी स्वीकार किया, जब उसके बारे में अय्यूब का ज्ञान इस स्तर पर पहुँच चुका था। अय्यूब के पास ऐसे अनुभव और समझ थी और वह परमेश्वर द्वारा ली गई परीक्षाओं को स्वीकार करने के साथ उन परीक्षाओं के लिए खुद को समर्पित कर सकता था। यह सब चीजें उसने सामान्य मानवता पर अपनी अंतरात्मा और विवेक के आधार पर ही प्राप्त की थीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चाहे उसने परमेश्वर को देखा हो या न देखा हो, परमेश्वर ने उसके साथ चाहे जो भी किया हो, चाहे परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली हो या उसके सामने प्रकट हुआ हो, उसने हमेशा विश्वास किया कि : “यहोवा मेरा परमेश्वर है और परमेश्वर ने जो भी कहा है या जिसमें परमेश्वर की खुशी है, मुझे उस हर बात का पालन करना है, फिर चाहे मुझे वह बात समझ आए या नहीं। मुझे उसके मार्ग का अनुसरण करना है। मुझे उसकी बात सुननी है और उसके प्रति समर्पित होना है।” इस पुस्तक में अय्यूब ने दर्ज किया है कि अय्यूब के बच्चे अक्सर बड़े भोज करते थे और अय्यूब उनमें कभी हिस्सा नहीं लेता था। इसके बजाय वह प्रार्थना करता था और उसके लिए होमबलि देता था। अय्यूब अक्सर ऐसा करता था और इससे साबित होता है कि वह अपने दिल में जानता था कि मनुष्यों के खाने-पीने, मौज-मस्ती और मानवजाति के भोज उड़ाने की जिंदगी से परमेश्वर घृणा करता है। अय्यूब मन ही मन यह समझता था कि यही सच है, हालाँकि उसने कभी सीधे परमेश्वर को यह कहते हुए नहीं सुना था, वह मन ही मन में जानता था कि परमेश्वर यही चाहता है। चूँकि अय्यूब जानता था कि परमेश्वर क्या चाहता है, वह उसकी बात सुनने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ था। वह इस पर हर समय टिका रहा और खाने-पीने और दावतों का कभी हिस्सा नहीं बना। क्या अय्यूब सत्य समझता था? नहीं, वह नहीं समझता था। वह ऐसा कर पाया क्योंकि उसके पास सामान्य मानवता की अंतरात्मा और विवेक था। विवेक और तर्क के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि परमेश्वर में उसकी सच्ची आस्था थी। वह अपने दिल की गहराइयों से मानता था कि सृष्टि को बनाने वाले परमेश्वर ही है और जो सृष्टिकर्ता कहता है, वही परमेश्वर की इच्छा है। आज के संदर्भ में यही सत्य है, यही सबसे बड़ा निर्देश है, यही है जिसके हिसाब से इंसान को चलना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता चाहे मनुष्य समझ पाए या नहीं समझ पाए कि परमेश्वर की यह इच्छा है, या चाहे परमेश्वर के कहे कुछ ही वचन समझ पाए। मनुष्य को उन्हें स्वीकार करना चाहिए और उसी का पालन करना चाहिए। यही वह विवेक है जो मनुष्य के पास होना चाहिए। जब मनुष्य इस विवेक को हासिल कर लेता है, तब उसके लिए परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होना, उसके वचनों को अभ्यास में लाना और उसके वचनों का अनुसरण करना कहीं अधिक आसान हो जाता है। ऐसा करने में कोई कठिनाई नहीं होगी, कोई कष्ट नहीं होगा और निश्चित रूप से किसी भी तरह की रुकावट भी नहीं आएगी। क्या अय्यूब काफी हद तक सत्य समझ गया था? क्या वह परमेश्वर को जानता था? क्या उसे जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है या उसके स्वभाव-सार का ज्ञान था? आज के लोगों की तुलना में वह परमेश्वर को नहीं जानता था और वह बहुत कम समझता था। लेकिन अय्यूब के पास यह गुण था कि वह जो भी समझता था, उसका अभ्यास करता था। कोई बात समझ जाने के बाद वह आज्ञाकारी बनकर उसका पालन करता था। यही उसकी मानवता का श्रेष्ठ पहलू था और इसी चीज को लोग सबसे ज्यादा हेय दृष्टि से देखते थे। लोग सोचते थे, “क्या अय्यूब बस दावतों से दूर नहीं रहता? क्या वह बस परमेश्वर को अक्सर होमबलि नहीं चढ़ाता है? आज के समय के अनुसार देखें तो, क्या वह बस शारीरिक सुखों को भोगने से बच नहीं रहा है?” ये सतही मामलों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, लेकिन इन चीजों के पीछे का अय्यूब का स्वभाव सार और मानवता देखोगे तो तुम समझ जाओगे कि ये सामान्य मामले नहीं हैं, और ना ही इसे हासिल कर पाना आसान है। अगर एक आम व्यक्ति को पैसे बचाने के लिए दावत करने से बचना हो तो ऐसा करना बहुत आसान होगा। लेकिन अय्यूब उस समय धनी व्यक्ति था। कौन अमीर आदमी दावत नहीं देना चाहेगा? फिर अय्यूब दावतों से दूर कैसे रह पाया? (वह जानता था कि परमेश्वर इससे नफरत करता है। वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था।) निःसंदेह। परमेश्वर से डरने और बुराई से दूर रहते हुए अय्यूब ने विशेष रूप से किसका अभ्यास किया? वह जानता था कि परमेश्वर जिन चीजों से नफरत करता है, वे सब बुरी हैं, इसलिए उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया, और वह ऐसा कुछ नहीं करता था, जिससे परमेश्वर को नफरत थी। वह किसी भी सूरत में ऐसी चीजें न करता, चाहे कोई कुछ भी कहे। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही मतलब है। अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में क्यों सक्षम हुआ? वह अपने मन में क्या सोच रहा था? वह इन बुरे कार्यों को करने से कैसे बचा? उसके हृदय में परमेश्वर का डर था। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उसका हृदय परमेश्वर का भय मानता था, परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर कर सकता था, और उसके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह थी। वह इस बात से नहीं डरता था कि परमेश्वर इसे देख लेगा, ना ही वह इससे डरता था कि परमेश्वर क्रोधित होगा। इसके बजाय वह परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करता था, उसे संतुष्ट करने को तैयार था और परमेश्वर के वचनों पर अडिग रहने की इच्छा रखता था। इसी वजह से वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो पाया। वैसे तो हर कोई यह वाक्यांश कह सकता है कि “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो,” फिर भी वे नहीं जानते कि अय्यूब ने यह किया कैसे। वास्तव में अय्यूब ने “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” को परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण चीज माना। इसीलिए वह इन वचनों पर अडिग रह पाया, जैसे कि वह किसी धर्मादेश का पालन कर रहा हो। उसने परमेश्वर के वचन सुने क्योंकि वह हृदय से परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करता था। मनुष्य की नजर में परमेश्वर के वचन चाहे कितने ही साधारण लगें, भले ही वे वचन बहुत साधारण थे, लेकिन अय्यूब के हृदय में वे सर्वोच्च परमेश्वर के वचन थे; वे सबसे महान, सबसे महत्वपूर्ण वचन थे। चाहे उन वचनों को लोग हेय दृष्टि से देखें, अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो लोगों को इनका पालन करना चाहिए, फिर चाहे इनकी वजह से उनका मजाक उड़ाया जाए या बदनामी हो। उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़े या यातना झेलनी पड़े, तब भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना चाहिए; वे इनसे पीछे नहीं हट सकते। परमेश्वर का भय मानने का यही मतलब है। तुम्हें उस हर एक वचन पर टिके रहना है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर एक इंसान से करता है। जहाँ तक उन चीजों की बात है, जिन्हें परमेश्वर मना करता है या जिनसे परमेश्वर नफरत करता है, तो उन चीजों के बारे में न जानना ठीक है, लेकिन अगर तुम उन चीजों को जानते हो तो तुम्हें वे चीजें बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अडिग रहने में सक्षम होना चाहिए, फिर चाहे तुम्हारा परिवार ही तुम्हें छोड़ दे, अविश्वासी तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, या तुम्हारे करीबी लोग तुम्हारा तिरस्कार करें या तुम्हारा मजाक उड़ाएँ। तुम्हें अडिग रहने की क्या जरूरत है? तुम्हें शुरुआत कहाँ से करनी है? तुम्हारे सिद्धांत क्या हैं? यह है, “मुझे परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना है और उसकी इच्छाओं के अनुसार ही काम करना है। मैं उन चीजों पर अडिग रहूँगा, जो परमेश्वर को पसंद हैं और उन चीजों को त्यागने के लिए संकल्पित रहूँगा, जिनसे परमेश्वर को नफरत है। अगर मैं परमेश्वर का इरादा नहीं जानता तो कोई बात नहीं लेकिन अगर मैं उसके इरादे को जानता और समझता हूँ तो मैं दृढ़ता से उसके वचन सुनूँगा और इनके आगे समर्पण करूँगा। मुझे इससे डिगाने में कोई भी सक्षम नहीं होगा, और अगर दुनिया खत्म होने वाली होगी तो भी मैं नहीं डगमगाऊँगा।” परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही मतलब है।
लोगों के बुराई से दूर रहने में सक्षम होने के लिए पहली शर्त यह है कि उनके हृदय में परमेश्वर का भय हो। परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे बनता है? परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है यह जानना कि सभी चीजों पर परमेश्वर की सर्वोच्च सत्ता है, और हृदय में परमेश्वर का भय होना। इसके परिणामस्वरूप, लोग किसी भी स्थिति का आकलन करते समय परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करने में सक्षम हो जाते हैं और अपने मानक और कसौटी के रूप में परमेश्वर के वचनों का प्रयोग कर पाते हैं। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का यही मतलब है। साधारण शब्दों में कहें तो परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का मतलब है परमेश्वर का हृदय में होना, हृदय का परमेश्वर में लगना, कुछ करते समय खुद को न भूलना, और स्वयं निर्णय लेने का प्रयास न करना, बल्कि परमेश्वर को सब कुछ तय करने देना। हर चीज में तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ। मैं छोटा-सा सृजित प्राणी हूँ, जिसे परमेश्वर ने चुना है। मुझे अपनी इच्छा से आने वाले विचारों, सिफारिशों और फैसलों को छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर को मेरा मालिक बनने देना चाहिए। परमेश्वर मेरा प्रभु, मेरी चट्टान और मेरा उज्ज्वल प्रकाश है, जो हर काम में मुझे राह दिखाता है। मुझे उसके वचनों और इच्छाओं के अनुसार कार्य करने चाहिए और खुद को पहले नहीं रखना चाहिए।” परमेश्वर को अपने मन में रखने का यही मतलब है। जब तुम कुछ करना चाहते हो, तो आवेग या उतावलेपन से पेश मत आओ। पहले सोचो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, क्या परमेश्वर को तुम्हारे काम से नफरत होगी, क्या तुम्हारे काम परमेश्वर के इरादों के अनुसार हैं। अपने हृदय में, पहले खुद से पूछो, सोचो और विचार करो; हड़बड़ी ना करो। हड़बड़ी करना आवेगी होना है, और चिड़चिड़ेपन और मनुष्य की इच्छा से प्रेरित होना है। अगर तुम हमेशा उतावले और आवेगी होते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर नहीं है। जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो, तो क्या ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं हैं? तुम्हारी वास्तविकता कहाँ है? तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है और तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर नहीं कर सकते। तुम सभी मामलों में किसी जागीर के मालिक की तरह व्यवहार करते हो, हर बार अपनी मर्जी से काम करते हो। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर का भय है, क्या यह बकवास नहीं है? तुम इन शब्दों से लोगों को बरगला रहे हो। अगर किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है तो यह असल में कैसे व्यक्त होता है? परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने की ठोस अभिव्यक्ति होती है, हृदय में परमेश्वर के लिए जगह होना—सबसे महत्वपूर्ण जगह होना। ऐसे लोग अपने मन में परमेश्वर को अपना मालिक बनने देते हैं और उसे नियंत्रण लेने देते हैं। जब कुछ होता है, तो उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पित होने वाला दिल होता है। वे उतावले नहीं होते, ना ही आवेगी होते हैं और वे जल्दबाजी में कुछ नहीं करते; इसके बजाय वे इसका सामना शांति से कर सकते हैं, और परमेश्वर के सामने सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए स्वयं को शांत कर सकते हैं। तुम चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार करते हो या अपनी इच्छा से, तुम अपनी मर्जी चलने देते हो या परमेश्वर के वचनों की, यह इसी पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है। तुम कहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है, लेकिन जब कुछ होता है तो तुम आँखें बंद करके काम करते हो और परमेश्वर को दरकिनार करते हुए खुद ही आखिरी फैसला लेते हो। क्या यह उस हृदय की अभिव्यक्ति है जिसमें परमेश्वर है? कुछ लोग ऐसे भी है जो कुछ होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना करने के बाद लगातार विचारशील रहते हैं, वे सोचते हैं, “मुझे लगता है कि मुझे ऐसा करना चाहिए। मुझे लगता है कि मुझे वैसा करना चाहिए।” तुम हमेशा अपनी इच्छा से चलते हो, और किसी दूसरे की नहीं सुनते फिर चाहे वे तुम्हारे साथ कैसे भी संगति करें। क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के न होने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्योंकि तुम सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते और सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो यह कहना कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है तो ये बस खोखले शब्द हैं। जिन लोगों के हृदय में परमेश्वर नहीं है, और जो परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर नहीं कर सकते, उन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है। जो लोग कुछ होने पर सत्य नहीं खोज पाते, और जिनका हृदय परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं है, उन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। अगर किसी के पास वास्तव में अंतरात्मा और विवेक है, तो जब कुछ होगा, वे स्वाभाविक रूप से सत्य खोज सकेंगे। उन्हें पहले सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं परमेश्वर के पास उद्धार की खोज में आया हूँ। चूँकि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए मैं जो भी करता हूँ उसमें हमेशा खुद को ही एकमात्र प्राधिकारी मानता हूँ; मैं हमेशा परमेश्वर के इरादों के खिलाफ जाता हूँ। मुझे पश्चात्ताप करना होगा। मैं इस तरह से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। मुझे सीखना होगा कि परमेश्वर के प्रति समर्पित कैसे होऊँ। मुझे खोजना होगा कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही वे विचार और आकांक्षाएँ हैं जो सामान्य मानवता के विवेक से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन्हीं सिद्धांतों और रवैये के साथ चीजें करनी चाहिए। जब तुम सामान्य मानवता का विवेक हासिल कर लेते हो, तो तुम्हारा रवैया ऐसा हो जाता है; जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता का विवेक नहीं होता, तो तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होता। इसीलिए सामान्य मानवता का विवेक हासिल करना अतिआवश्यक और बेहद महत्वपूर्ण है। यह सीधे तौर पर लोगों के सत्य समझने और उद्धार पाने से जुड़ा है।
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