सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 7)

कुछ लोग जो सुसमाचार का प्रचार करते हैं, जो परमेश्वर के कार्य का प्रचार करते हैं और परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हैं, एक गंभीर गलती करते हैं—वे परमेश्वर के वे वचन हटा देते हैं जिनके जवाब में धार्मिक लोगों में धारणाएँ विकसित होने की संभावना सबसे प्रबल होती है, जिससे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को परमेश्वर के वचनों का एक संक्षिप्त और लघु संस्करण मिलता है। उनका बहाना यह होता है कि वे लोगों में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पनपने से रोकने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन क्या यह सही है? परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। चाहे लोगों के पास धारणाएँ हों या नहीं, वे ये वचन स्वीकारें या नहीं, पसंद करें या नहीं, सत्य तो सत्य है; जो इसे स्वीकारते हैं वे बचाए जा सकते हैं, जबकि जो इसे नकारते हैं वे नष्ट हो जाएँगे। जो कोई भी सत्य को नकारता है वह मरने और नष्ट होने का पात्र है। इसका सुसमाचार फैलाने वालों से क्या लेना-देना है? जो लोग सुसमाचार फैलाते हैं, उन्हें लोगों को परमेश्वर के मूल वचन पढ़ने देने चाहिए न कि उन वचनों को इस डर से संक्षिप्त कर देना चाहिए कि लोगों में धारणाएँ पैदा होंगी। जब लोग सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करते हैं, तो वे देखना चाहते हैं कि परमेश्वर के मूल वचन कैसे बोले गए हैं, उनमें किस तरह की सामग्री अंतर्निहित है, और कुछ खास मामलों के बारे में परमेश्वर के सबसे मौलिक कथन क्या हैं। लोग जानना चाहते हैं : “तुम लोग कहते हो कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, तो वे कौन से वचन हैं जो वह बोलता है? बोलने की उसकी शैली क्या है?” तुम लोग परमेश्वर के उन वचनों को बदलने पर जोर देते हो जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते हैं, जैसे कि जब धार्मिक लोग बाइबल की व्याख्या करते हैं तो वे जो कुछ भी कहते हैं वह मानवीय धारणाओं के अनुरूप होता है; तुम परमेश्वर के वचनों का वह संस्करण दिखाने पर जोर देते हो जिसके साथ छेड़छाड़ की गई है और लोगों को परमेश्वर के वचन उनके मूल रूप में नहीं देखने देते। यह सब क्या है? क्या तुम लोग भी परमेश्वर के इन वचनों के बारे में धारणाएँ रखते हो? क्या धार्मिक लोगों की तरह तुम लोग भी मानते हो कि उसके वे वचन जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते हैं, सत्य नहीं हैं, कि सत्य केवल वे ही वचन हैं जो मानवीय धारणाओं से मेल खाते हैं? यदि हाँ, तो यह मानवीय भूल है। परमेश्वर के वचन भले ही कैसे भी बोले गए हों और भले ही वे मनुष्य की धारणाओं से मेल खाते हों या नहीं, वे सत्य होते हैं। ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि भ्रष्ट मनुष्यों के पास न तो यह सत्य है और न ही वे यह सत्य जानते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं—यह मनुष्य की मूर्खता और अज्ञानता है। तुम लोग यह स्पष्ट नहीं देख पाते हो कि परमेश्वर के वचन एक विशिष्ट प्रभाव के लिए विशेष रूप से व्यावहारिक और ठोस हैं, और तुम यह और भी कम जानते हो कि बेचारे मनुष्य की काबिलियत कितनी है, और लोगों के लिए यह समझना कितना मुश्किल होता है जब परमेश्वर के वचन जरूरत से ज्यादा संक्षिप्त और सैद्धांतिक होते हैं। याद करो कि जब प्रभु यीशु कार्य करने के लिए प्रकट हुआ, तो कई शिष्य उसके वचन समझ नहीं पाए और उन्हें उनका अर्थ समझने के लिए उससे उदाहरण देने और दृष्टांत बताने के लिए कहना पड़ा। क्या ऐसा नहीं है? आज जब मैं बहुत अधिक विस्तार और विशिष्टता के साथ बोलता हूँ, तो तुम लोग शिकायत करते हो कि मैं बहुत घुमा-फिराकर बोलता हूँ। जब मैं गहन बातें बोलता हूँ तो तुम लोग समझ नहीं पाते हो, लेकिन जब मैं इसका सामान्यीकरण और सैद्धांतीकरण करता हूँ तो तुम लोग इसे धर्म-सिद्धांत के रूप में ले लेते हो। इस मामले में इंसान बहुत जटिल होते हैं। परमेश्वर के वचनों में अब दिव्य भाषा के साथ-साथ मानवीय भाषा भी होती है, संक्षिप्तता और विशिष्टता दोनों होते हैं, और ऐसे कई उदाहरण होते हैं जो लोगों की विभिन्न अवस्थाओं को उजागर करते हैं। कुछ वचन उन लोगों को बहुत विस्तृत लगते हैं जो पहले से ही सत्य समझते हैं, लेकिन नए विश्वासियों को वे बस सही लगते हैं, और इस स्तर के विवरण और विशिष्टता के बिना परिणाम प्राप्त करना मुश्किल होगा। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे माता-पिता बच्चों का पालन-पोषण करते हैं; जब बच्चे छोटे होते हैं, तो माता-पिता को कई काम विस्तार से करने की जरूरत होती है, लेकिन जब बच्चे समझदार हो जाते हैं और अपना ध्यान रखना शुरू कर देते हैं, तो वे उन्हें करना बंद कर सकते हैं। यह बात लोगों की समझ में आती है, तो वे परमेश्वर का कार्य क्यों नहीं समझ पाते? नए विश्वासियों को ऐसे वचन अवश्य पढ़ने चाहिए जो कम गंभीर हों और उदाहरणों के साथ समझाए गए हों, ऐसे वचन जो तुलनात्मक रूप से विस्तृत और सूक्ष्म हों। जो लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और कुछ सत्य समझते हैं, उन्हें ऐसे वचन पढ़ने चाहिए जो तुलनात्मक रूप से गहरे हों और जिन्हें वे समझ सकें। चाहे परमेश्वर कैसे भी बोले, इसका उद्देश्य लोगों को सत्य समझने देना, उनके भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने देना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने देना होता है। वह ऐसे परिणाम प्राप्त करने के लिए बोलता है। चाहे उसके वचन गहरे हों या उथले, चाहे लोग उन तक पहुँच सकें या नहीं, सत्य समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं होता। ऐसा मत सोचो कि चूँकि तुम्हारी काबिलियत अच्छी है और तुम गहरे सत्य समझ सकते हो, इसलिए तुम्हारे पास पहले से ही उथले सत्य हैं और वास्तविकता है। क्या यही मामला है? एक ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य ही जीवन भर के अनुभव के लिए पर्याप्त होता है। भले ही परमेश्वर के वचन कितने भी उथले हों, भले ही वह कितने भी उदाहरण दे, हो सकता है तुम आठ-दस साल के अनुभव के बाद भी वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओ। इसलिए परमेश्वर के वचनों के करीब आते समय उनकी गहराई देखना गलत है। यह दृष्टिकोण गलत है। किसी भी व्यक्ति के लिए वास्तविकता पर करीब से ध्यान देना सबसे अच्छा होता है; ऐसा नहीं है कि चूँकि तुम्हारे पास समझने की क्षमता है और तुम सत्य समझ सकते हो, इसलिए तुम्हारे पास वास्तविकता है। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो सबसे अच्छी समझ भी तुम्हारे लिए खोखले धर्म-सिद्धांत बनकर रह जाएगी। तुम्हें सत्य को अभ्यास में लाना चाहिए, तुम्हारे पास अनुभव और ज्ञान होना चाहिए—केवल इसी तरह से तुम्हारी समझ व्यावहारिक होगी। हर कोई जो यह शिकायत करता है कि परमेश्वर के वचन बहुत विस्तृत या क्षुद्र हैं, वह व्यक्ति अहंकारी और आत्मतुष्ट है और उसके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। क्या मनुष्य परमेश्वर के वचनों और उसके विचारों की बुद्धि को समझ सकता है? परमेश्वर के वचनों के प्रति बहुत से लोगों का रवैया बहुत अहंकारी और अनभिज्ञतापूर्ण होता है, वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि उनके पास बहुत अधिक सत्य वास्तविकता हो, जबकि वास्तव में वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और कोई भी वास्तविक गवाही नहीं दे सकते। वे केवल खोखले सैद्धांतिक शब्द ही बोल सकते हैं; वे सिद्धांतवादी और धोखेबाज हैं। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं उन्हें परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ने चाहिए? उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य की खोज में कई चीजें शामिल हैं, तो क्या इसके बारे में बिना विस्तार में जाए बात की जा सकती है? क्या विशिष्ट और व्यापक रूप से बोले बिना परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं? क्या लोग अनेक उदाहरणों की सहायता के बिना सचमुच समझ सकते हैं? बहुत से लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के कुछ वचन बहुत छिछले हैं—तो फिर तुमने इनमें से कितने छिछले वचनों में प्रवेश किया है? तुम कौन सी अनुभवजन्य गवाही साझा कर सकते हो? यदि तुमने अभी तक इन छिछले वचनों में प्रवेश नहीं किया है, तो क्या तुम गहरे वचन समझ सकते हो? क्या तुम वास्तव में उन्हें समझ सकते हो? अपने आप को चतुर मत समझो, अहंकारी और आत्मतुष्ट मत बनो!

आओ परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ के मुद्दे पर वापस आते हैं। परमेश्वर के घर ने “वचन देह में प्रकट होता है” का मानकीकृत संस्करण प्रकाशित किया है, और इसमें किसी को भी जरा सा भी परिवर्तन करने की अनुमति नहीं है। परमेश्वर के वचनों के मानक संस्करण को कोई भी नहीं बदल सकता है, और यदि कोई उसे बदलता है तो इसे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ माना जाएगा। जो लोग उसके वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, उन्हें उन लोगों की अभिलाषा की थोड़ी भी समझ नहीं है जो सत्य की लालसा रखते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए उत्सुक हैं। ये लोग उसके वचनों का सटीक, मानक संस्करण पढ़ना चाहते हैं, जो परमेश्वर के मूल वचन हैं, जो परमेश्वर के मूल अर्थ और इरादे की अभिव्यक्तियाँ हैं। सत्य से प्रेम करने वाले सभी लोग ऐसे ही होते हैं। लोग यह सब कार्य करने और ये सभी वचन बोलने के पीछे परमेश्वर के मूल इरादे, उद्देश्य और अर्थ को नहीं समझते हैं, और न ही वे यह समझते हैं कि वह इतने विस्तार से क्यों बोलता है। लोग समझते नहीं हैं, फिर भी वे अपने दिमाग से इसका विश्लेषण और सारांशीकरण करते हैं, और अंततः परमेश्वर के उन मूल वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते। फलस्वरूप, जब अन्य लोग परमेश्वर के वे वचन पढ़ना समाप्त करते हैं जिनके साथ छेड़छाड़ की गई है, तो उनके लिए उन वचनों का मूल अर्थ समझ पाना मुश्किल हो जाता है। क्या यह सत्य की उनकी समझ को और उनके जीवन प्रवेश को प्रभावित नहीं करता है? यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि जो लोग परमेश्वर के वचन बदलते हैं उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता है। उनका तरीका छद्म-विश्वासियों का तरीका होता है; जैसे ही वे कार्य करते हैं, उनका शैतानी स्वभाव स्वयं उजागर हो जाता है। परमेश्वर ने जो किया है और जो कहा है, उसके बारे में हमेशा उनकी कुछ राय और विचार होते हैं, वे हमेशा इन चीजों को संभालना और संसाधित करना चाहते हैं, और अपने काले शैतानी पंजों से परमेश्वर के वचनों तक पहुँचकर वे उनको अपने कथनों में बदलना चाहते हैं। यह शैतान की प्रकृति है—अहंकार। जब परमेश्वर कुछ वास्तविक वचन, कुछ रोजमर्रा के वचन बोलता है जो मानवता के करीब होते हैं, तो लोग उन्हें हिकारत और हेय दृष्टि से देखते हैं, उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं। वे हमेशा मानवीय ज्ञान और कल्पना का उपयोग करके इनमें कुछ संशोधन करना चाहते हैं और इनकी शैली बदलना चाहते हैं। क्या यह घृणित नहीं है? (यह घृणित है।) किसी भी तरह से तुम लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम लोगों को कर्तव्यनिष्ठा से कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं, और चाहे वह कैसे भी बोले, उनका अपना मूल स्वरूप बनाए रखा जाना चाहिए और उन्हें बदला नहीं जाना चाहिए। केवल लाइव उपदेश ही थोड़े-बहुत पुनर्व्यवस्थित किए जा सकते हैं, जब तक कि यह परिवर्तन मामूली सुधार हो और मूल अर्थ को नहीं बदलता हो। मूल अर्थ को बिल्कुल भी नहीं बदला जाना चाहिए। यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है तो मत बदलो; जो कोई भी इन्हें बदलेगा उसे जिम्मेदारी लेनी होगी। उपदेश और संगति आयोजित करने के लिए परमेश्वर का घर कई लोगों को निर्दिष्ट करता है, लेकिन उन लोगों को चाहिए कि वे इन्हें सिद्धांतों के अनुसार आयोजित करें और किसी भी चीज से कतई छेड़छाड़ न करें। जिनके पास आध्यात्मिक समझ नहीं है और जो सत्य नहीं समझते हैं, उन्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, अन्यथा उन्हें दंड भुगतना पड़ेगा। चूँकि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, इसलिए तुम्हें उसके वचनों को लगन से पढ़ना चाहिए, सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों या सत्य पर संदेह नहीं करना चाहिए। सबसे बढ़कर, परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल करने के लिए अपने मन और ज्ञान का उपयोग मत करो। हमेशा बुरे कार्यों में लगे रहना अच्छी बात नहीं है; एक बार यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा देते हो, तो यह तुम्हारे लिए बहुत तकलीफदेह होगा। कुछ लोग थोड़ा-बहुत बाइबल का ज्ञान समझते हैं; वे कुछ दिन धर्मशास्त्र का अध्ययन करके और कुछ किताबें पढ़कर सोचते हैं कि वे सत्य समझते हैं, अपना विषय जानते हैं और सक्षम हैं। लेकिन तुम्हारी थोड़ी सी क्षमता का क्या फायदा? क्या तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति में ला सकते हो? तुम्हारा थोड़ा-सा सैद्धांतिक ज्ञान और पांडित्य, सत्य का रत्ती भर भी प्रतिनिधित्व नहीं करता। परमेश्वर अपनी मानवता में कुछ ऐसे वचन बोलता है जिससे लोग अर्थ ग्रहण कर सकें, कुछ ऐसे वचन बोलता है जो मानव जाति के लिए समझना आसान होते हैं, लेकिन लोग हमेशा आश्वस्त नहीं होते, और वे उसके वचन बदलना चाहते हैं। वे उसके वचनों को अपनी धारणाओं के अनुरूप, अपने स्वाद और इच्छाओं के अनुरूप, सुनने में आरामदायक और आँखों और दिल के लिए आसान बनाना चाहते हैं। यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह एक अहंकारी स्वभाव है। बिल्कुल किसी सत्य सिद्धांत के बिना काम करना और शैतान के तरीकों के अनुसार काम करना परमेश्वर के घर के काम को आसानी से अस्त-व्यस्त कर देगा। यह बहुत खतरनाक मामला है! यदि तुमने एक बार परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दी तो यह काफी तकलीफदेह होगा, और तुम्हें निकाले जाने का भी खतरा है।

कुछ लोग विरक्ति महसूस करते हैं जब वे देखते हैं कि परमेश्वर के वचन जीवन प्रवेश के लिए अभ्यास के मार्ग के बारे में बहुत विस्तार से बताते हैं। उस स्थिति में यदि वे पुराने नियम में परमेश्वर द्वारा घोषित उन सभी विधियों, आदेशों और संविधियों को देखते, तो क्या वे और भी अधिक विरक्ति महसूस नहीं करते? और यदि वे बाइबल की मूल आज्ञाओं के और भी अधिक विस्तृत वचन पढ़ने लगें, तो क्या उनमें धारणाएँ नहीं पनपेंगी? वे सोचेंगे : “ये वचन बहुत तुच्छ हैं। जो बात एक वाक्य में स्पष्ट रूप से कही जा सकती है उसे तीन-चार वाक्यों तक खींच दिया गया है। ये वचन अधिक संक्षिप्त और सरल होने चाहिए, ताकि लोग एक नजर में सब कुछ देख सकें और केवल एक वाक्य सुनकर समझ सकें। कितना अच्छा होता अगर वे इतने लंबे-घुमावदार नहीं होते, बल्कि समझने में और अभ्यास के लिए आसान और सरल होते। क्या ऐसे वचन अधिक प्रभावी ढंग से परमेश्वर की गवाही नहीं देंगे और उसकी महिमा नहीं करेंगे?” यह विचार सही लगता है, लेकिन क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर के वचन पढ़ना एक उपन्यास पढ़ने जैसा होना चाहिए, जिसे जितना सहजता से पढ़ा जा सके उतना बेहतर है? परमेश्वर के वचन सत्य हैं; उन पर चिंतन की आवश्यकता होती है, और सत्य समझने और प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को उनका अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। परमेश्वर के वचन मानवीय धारणाओं से जितना कम मेल खाते हैं, उनमें उतना ही अधिक सत्य होता है। वास्तव में सत्य का कोई भी पहलू मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होता; वह ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे लोगों ने पहले देखा या अनुभव किया हो, बल्कि एकदम नए वचन होते हैं। हालाँकि कई वर्षों तक उन्हें पढ़ने और अनुभव करने के बाद तुम्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। कुछ लोगों के मन में हमेशा परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ होती हैं। यह समस्या कहाँ से उत्पन्न होती है? वे कहाँ गलती कर रहे हैं? यह समस्या दर्शाती है कि लोग परमेश्वर के कार्य या उसका स्वभाव नहीं जानते। हर एक वाक्य जो वह बोलता है वह व्यावहारिक और तथ्यात्मक होता है, वह सैद्धांतिक या ज्ञानगर्भित भाषा का सहारा लिए बिना मनुष्यों की रोजमर्रा की भाषा में बोलता है। सत्य के बारे में लोगों की समझ के लिए यह सबसे अधिक लाभदायक है। ऐसा कोई नहीं है जो इस मामले को स्पष्ट समझ सके—केवल परमेश्वर का कार्य और उसके वचन ही सबसे व्यावहारिक और यथार्थवादी हैं। लोग मौखिक रूप से स्वीकार करते हैं : “परमेश्वर के सभी वचन सही हैं। उसके वचन लोगों के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन लोग परमेश्वर को नहीं समझते हैं। वह सबसे बेहतर जानता है कि लोगों की जरूरतें क्या हैं, और वह जानता है कि कैसे बोलना है ताकि लोग समझें। लोगों को चेतावनी देने और बताने का उसका तरीका स्वीकारना आसान है। परमेश्वर लोगों की आंतरिक संरचना और उनके विचारों और अवधारणाओं को जानता है, और वह और भी बेहतर जानता है कि लोगों को किस चीज की सबसे अधिक आवश्यकता है, जबकि लोगों को स्वयं इसका कोई अंदाजा नहीं होता।” लेकिन जब तुम परमेश्वर के वचन देखते हो, तो तुम उन्हें सरल बनाना चाहते हो और उन्हें मनुष्य की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप बनाना चाहते हो। क्या तब भी परमेश्वर के वचन सत्य हो सकते हैं? क्या तब भी वे उसके वचन हो सकते हैं? क्या वे मनुष्य के शब्द नहीं बन जाएँगे? क्या इस प्रकार की सोच अत्यधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट सोच नहीं है? परमेश्वर के वचन सत्य हैं, भले ही वे मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ मेल खाते हों या नहीं। चाहे वह कितने भी वचन बोले और वे कितने भी विस्तृत हों, परमेश्वर के वचन व्यर्थ नहीं बोले जाते हैं। यदि वह एक वाक्य जोड़ता है तो यह लोगों को बेहतर समझने में मदद करने के लिए है, जो उनके लिए फायदेमंद है। यदि वह एक वाक्य भी छोड़ दे, तो लोग इतनी अच्छी तरह समझ नहीं पाएँगे, और शैतान के लिए इस स्थिति का फायदा उठाना आसान हो जाएगा। अधिकांश लोगों की काबिलियत कमजोर होती है, और वे तब तक समझ नहीं पाते हैं जब तक कि परमेश्वर उन वचनों को विस्तार से नहीं बताता और बोलता है। सभी लोग सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं, इसलिए एक भी वाक्य छूटना नहीं चाहिए; यदि किसी पहलू पर पूरी तरह से बात नहीं की गई, तो लोग वह पहलू नहीं समझेंगे—तुम उसे समझ सकते हो, लेकिन कोई और नहीं समझेगा; तुम लोगों में से एक समूह उसे समझ सकता है, लेकिन दूसरा समूह नहीं समझ सकता। हमेशा ऐसे लोग होंगे जो उसे नहीं समझेंगे। परमेश्वर अकेले तुमसे बात नहीं करता; वह समस्त मानव जाति से बात करता है, उन सभी से जिनके पास कान हैं और परमेश्वर जो कहता है उसे समझने में सक्षम हैं। क्या तुम्हारा दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण है? लोग केवल वही देख सकते हैं जो उनके सामने है, वे सोचते हैं : “मैं इस वाक्य को समझता हूँ; परमेश्वर को अब भी इसे इतने विस्तार से समझाने की आवश्यकता क्यों है?” यदि यह बहुत सरल है, तो अच्छी काबिलियत वाले इसे समझ लेंगे, लेकिन औसत काबिलियत वाले इसे नहीं समझ पाएँगे; यदि परमेश्वर औसत काबिलियत वाले लोगों के लिए कुछ वाक्य विस्तार से बताता है, तो तुम आपत्ति जताते हो। क्या इसका मतलब यह है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को स्वीकारता है? तुम्हारी ये आपत्तियाँ कहाँ से आती हैं? क्या यह शैतान का अहंकारी स्वभाव नहीं है? जब परमेश्वर कुछ ऐसा करता है जो तुम्हारी धारणाओं से थोड़ा सा भी भिन्न होता है, जब वह जो कुछ उसके पास है और जो वह स्वयं है उसका थोड़ा-सा भाग—लोगों को संजोना, समझना, उनका खयाल रखना, उनके बारे में चिंतित होना और व्यापक रूप से उनकी देखभाल करना—प्रकट करता है, तो तुम सोचते हो कि परमेश्वर लंबी-घुमावदार बातें कर रहा है, कि वह बहुत अधिक कह रहा है, छोटी-छोटी बातों पर समय बर्बाद कर रहा है, कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए; तुम अपनी धारणाओं में ठीक इसी तरह विश्वास करते हो। यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारा मत है, उसके बारे में तुम्हारा ज्ञान है, तुम उसे इसी तरह देखते हो। तो क्या तुम्हारा यह विश्वास कि “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, परमेश्वर मनुष्य को सबसे ज्यादा समझता है” सिर्फ सिद्धांत है? तुम्हारे लिए यह सिद्धांत बन गया है; परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान उसके द्वारा प्रकट की गई बातों से मेल नहीं खाता, इनका आपस में कोई संबंध नहीं है। इसके अलावा तुम परमेश्वर के प्रति उस तरह व्यवहार नहीं करते हो; तुम उसके वचनों और कार्य के साथ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हो। क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है? तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य स्वीकारता है, न ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है। परमेश्वर के वचनों और कार्यों से सामना होने पर तुम आलोचना करने, शिकायत करने, अटकलें लगाने, संदेह करने, इनकार करने, विरोध करने और विकल्प चुनने में सक्षम होते हो। क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो? यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, तो क्या तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम परमेश्वर के वचनों के साथ, उसके कार्य के साथ, सत्य के साथ, उसके पास जो कुछ भी है और वह जो स्वयं है, और जो कुछ भी उससे आता है उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करते हो, तो क्या तुम उसका उद्धार प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम दंड के भागी होओगे।

परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में उनका विश्लेषण या जाँच-पड़ताल मत करो, चालाक मत बनो, संदेह मत करो, और अपने दिमाग पर जोर मत डालो। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम सत्य के साथ करते हो—यह सबसे बुद्धिमतापूर्ण रवैया है। तुम जो भी करो, अपने आप से यह मत कहो : “मैं एक आधुनिक व्यक्ति हूँ, मैं सुविज्ञ और सुशिक्षित हूँ, मैं व्याकरण जानता हूँ, मैंने फलां फलां प्रमुख विषय का अध्ययन किया है, मैं अमुक कौशल या पेशे में निपुण हूँ। मैं समझता हूँ, मुझे इसकी समझ है। परमेश्वर नहीं जानता। हालाँकि परमेश्वर पूरी मानव जाति को समझता है, लेकिन उसके पास सत्य के अलावा कुछ भी नहीं है, वह पेशेवर मामले नहीं समझता है, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें वह अच्छा हो, वह केवल सत्य व्यक्त करना जानता है।” यह सही है। परमेश्वर केवल सत्य व्यक्त कर सकता है, और वह सभी चीजें देख सकता है क्योंकि वह सत्य है। वह मानव जाति के भाग्य का संप्रभु है, और वह तुम्हारा भाग्य नियंत्रित करता है। कोई भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से नहीं बच सकता। परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? सुनना, समर्पण करना, स्वीकारना और अत्यंत अनुपालना के साथ अभ्यास करना—ऐसा ही रवैया लोगों का होना चाहिए। तुम जो भी करो, जाँच-पड़ताल मत करो। मैंने तुम लोगों से कई वचन कहे हैं, लेकिन तुम लोग उनमें से केवल एक हिस्से को ही स्वीकार सकते हो। तुम लोग कोई भी ऐसा वचन नहीं स्वीकारते हो जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप न हो—तुम अपने दिल में उनका विरोध और खंडन भी करते हो। तुम लोग केवल वे ही वचन स्वीकारते हो जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप हैं और जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं उन्हें अस्वीकार कर देते हो। क्या तुम इस तरह सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या वे वचन जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, वास्तव में सत्य नहीं हैं? क्या तुममें इस बारे में सुनिश्चित होने का साहस है? तो फिर मुझे तुमसे अवश्य पूछना चाहिए कि तुम सत्य को कितना समझते हो? तुम्हारे पास कौन से सत्य हैं? तो फिर उन सभी सत्यों की गवाही साझा करो जिन्हें तुम समझते हो, और सभी को यह निर्णय लेने दो कि वे सत्य हैं या नहीं। यदि तुम स्वीकार सकते हो कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास तर्क है। यदि तुम्हारे पास वास्तव में तर्क है, तो क्या तुममें अभी भी यह निष्कर्ष निकालने का साहस है कि जो वचन मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, वे सत्य नहीं हैं? क्या तुममें अभी भी परमेश्वर के साथ जुआ खेलने का साहस है? एक सृजित व्यक्ति के रूप में बहुत अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट मत बनो, अपने बारे में इतना ऊँचा मत सोचो। तुम सत्य कतई नहीं जानते हो; तुम अपने जीवन-काल में परमेश्वर के वचनों में से एक भी वाक्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर पाओगे, न ही तुम अपने जीवन-काल में उन्हें समझ पाओगे या जी पाओगे। यदि तुम उनका एक हिस्सा भी समझ सको और उसे अभ्यास में ला सको, तो यह प्रथमतया बुरा नहीं है। मनुष्य बहुत दरिद्र और दयनीय हैं—यही इस मामले की सच्चाई है। चूँकि वे इतने दरिद्र और दयनीय हैं, तो वे इतने अहंकारी और आत्मतुष्ट क्यों हैं? यही चीज उन्हें दयनीय और घृणित दोनों बनाती है। मैं लोगों को सलाह देता हूँ कि वे परमेश्वर के वचन आज्ञाकारीता से पढ़ें, अपनी धारणाओं को उत्पन्न होते ही त्याग दें, और परमेश्वर के वचनों को सत्य मानें और उन पर विचार करने और फिर उनका अनुभव करने की पूरी कोशिश करें; शायद तब वे समझ पाएँगे कि सत्य क्या है। इस बात की परवाह मत करो कि परमेश्वर के वचन कितने विस्तृत और घुमावदार हैं। यदि तुम उन्हें समझ सकते हो और अनुभव कर सकते हो, और फिर उनके लिए गवाही दे सकते हो, केवल तभी तुम्हें सक्षम माना जा सकता है। यह उसी तरह है जैसे लोग हमेशा इस बात पर विशेष ध्यान देते हैं कि वे कैसा भोजन करते हैं, यह सोचते हुए कि कुछ खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट हैं और अन्य नहीं है। और इससे क्या होता है? जरूरी नहीं कि स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ पोषक-तत्वों से भरपूर हों, और जो खाद्य पदार्थ तुम्हें नापसंद हैं उनमें जरूरी नहीं कि कम पोषक-तत्व हों; उनमें अधिक और बेहतर पोषक-तत्व भी हो सकते हैं। लोगों को यह भेद करने में कठिनाई होती है कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है, क्या परमेश्वर से आता है और क्या मनुष्य से आता है। सत्य समझने के बाद ही वे उसमें से कुछ चीजें समझ सकते हैं; जो लोग सत्य नहीं समझते वे किसी भी चीज को ठीक से नहीं समझ सकते। यदि तुम जानते हो कि तुममें समझ की कमी है, तो तुम्हें विनम्र और शांत रहना चाहिए और सत्य की अधिक खोज करनी चाहिए। एक बुद्धिमान व्यक्ति यही करता है। यदि तुम किसी भी चीज को ठीक से नहीं समझ सकते हो, फिर भी अंधे अहंकार में डूबे रहते हो, हर बात पर आंकने का साहस करते हो और जो भी बोलता है उसकी आलोचना करते हो, तो तुम पूरी तरह से अविवेकी हो। क्या तुम लोग सहमत नहीं हो कि यह ऐसा ही है? कोई कुछ भी करे, उसे सत्य के सामने अपने नुकीले दाँत नहीं दिखाने चाहिए। उसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए और सभी चीजों में सत्य की तलाश करनी चाहिए—वास्तव में मेधावी और बुद्धिमान व्यक्ति केवल वही है।

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