सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 5)

परमेश्वर द्वारा कहे गए इन वचनों के संबंध में जब तुम लोग इन्हें सुनते हो, तो क्या तुम उनकी तुलना अपने आप से करते हो, या बस उन्हें धर्म-सिद्धांत के रूप में सुनते हो, इसे एक बार अपने मन में दोहराते हो ताकि तुम इसका अर्थ समझ लो, और बस इतना काफी होता है? सुनते समय तुम लोगों का रवैया और इरादे किस प्रकार के होते हैं? अगर तुम लोग वाकई समझते हो जो परमेश्वर ने कहा है कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा; कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे परमेश्वर की दृष्टि में अच्छे नहीं बल्कि बुरे लोग हैं—तो तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और देखना चाहिए कि तुम्हारे कौन से कार्य सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हैं, और तुम्हारे कौन से तरीके और रवैये परमेश्वर द्वारा सत्य का अभ्यास न करने की अभिव्यक्तियों के रूप में देखे जाते हैं। क्या तुम लोगों ने कभी इन मामलों की थाह लेने की कोशिश की है? क्या तुमने आत्म-चिंतन किया है? बस सरसरी नजर से परमेश्वर के वचन पढ़ना पर्याप्त नहीं है; तुम्हें उन पर चिंतन करना चाहिए, तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए, और अपने विचारों और कार्यों की तुलना परमेश्वर के प्रकाशन के वचनों से करनी चाहिए, और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहिए केवल इसी तरह से तुम सच्चा पश्चात्ताप और परिवर्तन प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन उन पर विचार नहीं करते हो और आत्म-चिंतन नहीं करते, इसके बजाय केवल धर्म-सिद्धांत समझने पर ध्यान केंद्रित करते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में कोई जीवन प्रवेश नहीं होगा, न ही तुम किसी वास्तविक परिवर्तन से गुजरोगे। इसलिए परमेश्वर के वचन पढ़ते समय विचार करना, सत्य की खोज करना और आत्म-चिंतन करना आवश्यक है। परमेश्वर के वचन क्या हैं? वे सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, वे सत्य हैं, वे मार्ग हैं, वे मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिया गया जीवन हैं। परमेश्वर के वचन धर्म-सिद्धांत नहीं हैं, वे नारे नहीं हैं, वे किसी प्रकार का मत नहीं हैं, न ही वे फलसफाई ज्ञान हैं; बल्कि वे सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना और प्राप्त करना चाहिए, और वे वह जीवन हैं जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए। इसलिए परमेश्वर के वचन लोगों के जीवन से और स्वयं जीवन से, जिस मार्ग पर लोगों को चलना चाहिए उस मार्ग से, और लोगों के परिणाम और गंतव्य से गहराई से संबंधित हैं। यदि कोई वास्तव में सत्य समझता है और उसने सत्य प्राप्त कर लिया है, तो उसके बारे में सब कुछ तदनुसार बदल जाएगा। यदि कोई कभी भी सत्य नहीं समझ सकता या परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी सकता, तो वह संभवतः वास्तविक परिवर्तन प्राप्त नहीं कर सकता या परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकता। उस व्यक्ति का परिणाम और गंतव्य केवल नरक का दुख भोगना और नष्ट हो जाना ही हो सकते हैं। परमेश्वर के वचन और उसके द्वारा व्यक्त सत्य लोगों के लिए इतने महत्वपूर्ण होते हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन उन पर चिंतन नहीं करते हो, आत्म-चिंतन नहीं करते हो, या उन्हें अपनी वास्तविक समस्याओं और कठिनाइयों से नहीं जोड़ते हो, तो तुम जो कुछ भी समझने में सक्षम हो वह केवल सतही है, और तुम संभवतः सत्य या परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते हो। इसलिए तुम्हें सत्य को समझने के लिए परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करना सीखना होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने के कई तरीके हैं : तुम उन्हें मौन रहकर पढ़ सकते हो और पवित्र आत्मा से प्रबोधन और प्रकाश चाहते हुए अपने दिल में प्रार्थना कर सकते हो; जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी संगति में तुम सहभागिता भी कर सकते हो और प्रार्थनापूर्वक पढ़ सकते हो; और यकीनन तुम परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और उस समझ को गहनतर बनाने के लिए अपने चिंतन में सहभागिताओं और उपदेशों को समाहित कर सकते हो। इसके अनेक और भिन्न-भिन्न तरीके हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से कोई उन वचनों की और सत्य की समझ चाहता हो, तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर के वचनों पर चिंतन किया जाए और उन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़ा जाए। परमेश्वर के वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढने का उद्देश्य उनका व्याख्यान करना नहीं, न ही उन्हें कंठस्थ करना है; बल्कि उन वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढ़कर और उन पर चिंतन करके उनकी एक सटीक समझ हासिल करना और परमेश्वर द्वारा कथित इन वचनों के अर्थ और साथ ही उसके इरादे को जानना है। यह उन वचनों में अभ्यास का मार्ग पा लेना है, और स्वयं को मनमानी करने से रोकना है। साथ ही, यह परमेश्वर के वचनों में उजागर की गई सभी तरह की स्थितियों और लोगों के बारे में विवेक रखने में सक्षम होना है, और हर तरह के व्यक्ति के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम होना है, साथ ही, यह भटकने से बचना है। एक बार जब तुम प्रार्थना करना-पढ़ना और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करना जान लेते हो, और इसे प्रायः करते हो, केवल तभी परमेश्वर के वचन तुम्हारे दिल में जड़ें जमा सकेंगे और तुम्हारा जीवन बन सकेंगे।

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