रुतबे के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें (भाग दो)
भ्रष्ट मनुष्य रुतबे के पीछे भागकर उसके फायदों का आनंद उठाना पसंद करता है। हर इंसान के साथ ऐसा ही होता है, भले ही वर्तमान में उसके पास रुतबा हो या न हो : रुतबा त्याग देना और उसके प्रलोभनों से छूट जाना बहुत मुश्किल है। इसके लिए मनुष्य की ओर से बड़े सहयोग की जरूरत होती है। ऐसे सहयोग में क्या करना होता है? मुख्य रूप से सत्य खोजना, सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के इरादों को समझना, और समस्याओं के सार को साफ तौर पर बेध देना। इन चीजों के साथ, एक व्यक्ति के पास रुतबे के प्रलोभन से उबरने की आस्था होगी। इसके अलावा, तुम्हें प्रलोभन से छुटकारा पाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के प्रभावी तरीके सोचने चाहिए। तुम्हारे पास अभ्यास के मार्ग होने ही चाहिए। यह तुम्हें सही मार्ग पर रखेगा। अभ्यास के मार्गों के बिना, तुम अक्सर प्रलोभनों के फेर में पड़ जाओगे। हालाँकि तुम सही मार्ग पर चलना चाहोगे, फिर भी बेहद कड़ी मेहनत के बाद भी अंत में तुम्हारे प्रयासों का ज्यादा लाभ नहीं होगा। तो ऐसे कौन-से प्रलोभन हैं जो अक्सर तुम्हारे सामने आते हैं? (जब अपने कर्तव्य निर्वाह में मैं थोड़ी सफलता हासिल करता हूँ, और भाई-बहनों का सम्मान अर्जित करता हूँ, तो मैं आत्मसंतुष्ट महसूस करता हूँ और इस एहसास से मुझे बहुत मजा आता है। कभी-कभी मुझे इसका एहसास नहीं होता; कभी-कभी मुझे एहसास तो होता है कि यह दशा गलत है, मगर फिर भी मैं इसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाता।) यह एक प्रलोभन है। फिर दूसरा कौन बोलेगा? (मेरे अगुआ होने के कारण, भाई-बहन कभी-कभी मुझसे विशेष व्यवहार करते हैं।) यह भी एक प्रलोभन है। अगर तुम अपने सामने आने वाले प्रलोभनों के प्रति जागरूक नहीं रहते, बल्कि उनसे अनुचित रूप से निपटते हो और सही विकल्प नहीं चुन सकते हो तो ये प्रलोभन तुम्हें दुःख और कष्ट देंगे। उदाहरण के लिए, भाई-बहनों के विशेष व्यवहार में तुम्हें रोटी, कपड़ा, मकान जैसे भौतिक लाभ और रोजमर्रा की जरूरतें मुहैया करना शामिल हैं। अगर तुम जिन चीजों का आनंद उठाते हो, वे उनकी दी हुई चीजों से बेहतर हैं, तो तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखोगे, और शायद उनके उपहारों को ठुकरा दो। लेकिन अगर तुम किसी धनी व्यक्ति से मिले, और वह तुम्हें उम्दा सूट देकर कहे कि वह इसे नहीं पहनता, तो क्या तुम ऐसे प्रलोभन के सामने भी अडिग रह सकोगे? शायद तुम उस स्थिति पर सोच-विचार करो और खुद से कहो, “वह धनी है, उसके लिए ये कपड़े मायने नहीं रखते। वैसे भी वह ये कपड़े नहीं पहनता। अगर वह ये मुझे नहीं देगा तो उन्हें बंद कर कहीं रख देगा। इसलिए मैं ही रख लेता हूँ।” इस फैसले का तुम क्या अर्थ निकालोगे? (वह पहले से रुतबे के लाभ का आनंद उठा रहा है।) यह रुतबे के लाभों का आनंद उठाना कैसे है? (क्योंकि उसने उम्दा चीजें स्वीकार कर लीं।) क्या तुम्हें दी गईं उम्दा चीजें स्वीकार करना ही रुतबे के लाभ का आनंद उठाना है? अगर तुम्हें कोई साधारण चीज दी जाती है, मगर यह ठीक तुम्हारी जरूरत की चीज हो और इसलिए तुम इसे स्वीकार लेते हो तो क्या इसे भी रुतबे के लाभों का आनंद उठाना कहा जाएगा? (हाँ। जब भी वह अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए दूसरों से चीजें स्वीकार करता है, इसे रुतबे के लाभ का आनंद उठाने में गिना जाएगा।) लगता है तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो। क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है : अगर तुम अगुआ नहीं होते, तुम्हारा कोई रुतबा नहीं होता, तो क्या वह तब भी तुम्हें यह उपहार देता? (वह नहीं देता।) यकीनन वह नहीं देता। तुम्हारे अगुआ होने के कारण ही वह तुम्हें यह उपहार देता है। इस चीज की प्रकृति बदल चुकी है। यह सामान्य दान नहीं है, और समस्या इसी में है। अगर तुम उससे पूछोगे, “अगर मैं अगुआ न होता, सिर्फ एक भाई-बहन होता, तो क्या तब भी तुम मुझे यह उपहार देते? अगर इस चीज की किसी भाई-बहन को जरूरत होती, तो क्या तुम उसे यह चीज दे देते?” वह कहेगा, “मैं नहीं दे सकता। मैं किसी भी व्यक्ति को यूँ ही चीजें नहीं दे सकता। मैं तुम्हें इसलिए देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अगुआ हो। अगर तुम्हारा यह विशेष रुतबा नहीं होता, तो मैं ऐसा उपहार भला क्यों देता?” अब देखो, तुम स्थिति को किस तरह नहीं समझ पाए हो। उसके यह कहने पर कि उस उम्दा सूट की उसे जरूरत नहीं है, तो तुम्हें यकीन हो गया, मगर वह तुमसे छल कर रहा था। उसका प्रयोजन तुमसे उसका उपहार स्वीकार करवाना है, ताकि भविष्य में तुम उससे अच्छा बर्ताव करो, और उसका विशेष ख्याल रखो। यह उपहार देने के पीछे उसकी नीयत यही है। सच्चाई यह है कि तुम दिल से जानते हो कि अगर तुम्हारे पास रुतबा न होता तो वह तुम्हें कभी भी ऐसा उपहार न देता, फिर भी तुम उसे स्वीकार कर लेते हो। अपनी जीभ से बुलवाते हो, “परमेश्वर का धन्यवाद। मैंने यह उपहार परमेश्वर से स्वीकार किया है। यह मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह है।” न केवल तुम रुतबे के लाभों का आनंद उठाते हो, बल्कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की चीजों में भी आनंद उठाते हो, मानो कि उचित रूप से वे तुम्हें ही मिलने थे। क्या यह बेशर्मी नहीं है? अगर इंसान को जमीर की समझ न हो, उसमें बिल्कुल शर्म न हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह सिर्फ बर्ताव का मामला है? क्या दूसरों से चीजें स्वीकार कर लेना गलत है और इनकार कर देना सही? ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस उपहार देने वाले से पूछना चाहिए कि क्या वे जो कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप हैं। उनसे कहो, “आइए, हम परमेश्वर के वचनों, या कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों में मार्गदर्शन ढूँढ़ें और देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर नहीं, तो मैं ऐसा उपहार स्वीकार नहीं कर सकता।” अगर उपहार देनेवाले को उन सूत्रों द्वारा सूचित किया जाता है कि उनका यह काम सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, फिर भी वे उपहार देना चाहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। साधारण लोग इससे उबर नहीं सकते। वे उत्सुकता से लालसा रखते हैं कि दूसरे उन्हें और ज्यादा दें, वे और अधिक विशेष व्यवहार का आनंद उठाना चाहते हैं। अगर तुम सही किस्म के इंसान हो, तो ऐसी स्थिति सामने आने पर तुम्हें फौरन यह कहकर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर, आज जिससे मेरा सामना हुआ है वह यकीनन तुम्हारी सदिच्छा है। यह मेरे लिए तुम्हारा निर्धारित सबक है। मैं सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने को तैयार हूँ।” रुतबे वाले लोगों के सामने आने वाले प्रलोभन बहुत बड़े हैं, और एक बार प्रलोभन आने पर उससे उबर पाना बहुत कठिन है। तुम्हें परमेश्वर से सुरक्षा और सहायता लेने की जरूरत है; तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। इस प्रकार, तुम खुद को जमीन से जुड़ा और शांत महसूस करोगे। लेकिन अगर प्रार्थना करने के लिए तुम ऐसे उपहार मिलने तक प्रतीक्षा करोगे, तो क्या तुम इस तरह जमीन से जुड़ा हुआ और शांत महसूस करोगे? (तब नहीं करोगे।) तब परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? क्या तुम्हारे कर्मों से परमेश्वर प्रसन्न होगा, या उनसे नफरत करेगा? वह तुम्हारे कर्मों से घृणा करेगा। क्या समस्या सिर्फ तुम्हारे किसी चीज को स्वीकार करने की है? (नहीं।) तो फिर समस्या कहाँ है? समस्या इस बात में है कि ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम कैसी राय और रवैया अपनाते हो। क्या तुम खुद फैसला कर लेते हो या सत्य खोजते हो? क्या तुम्हारे जमीर का कोई मानक है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है भी? जब भी ऐसी स्थिति से सामना होता है, तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? क्या तुम पहले अपनी इच्छाएँ संतुष्ट करने की कोशिश करते हो, या पहले प्रार्थना कर परमेश्वर के इरादे जानने की कोशिश करते हो? इस मामले में तुम्हारा खुलासा हो जाता है। तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए। पहले बाहर से तुम्हें ऐसे विशेष भौतिक लाभों, इन प्रलोभनों को इनकार करना चाहिए। भले ही तुम्हें ऐसी कोई चीज दी जाए जो तुम्हें खास तौर पर चाहिए, या यह ठीक वही चीज हो जिसकी तुम्हें जरूरत है, तुम्हें इसी तरह उसे इनकार करना चाहिए। भौतिक चीजों का क्या अर्थ है? रोटी, कपड़ा और मकान, और रोजमर्रा जरूरत की तमाम चीजें इनमें शामिल हैं। इन विशेष भौतिक चीजों को जरूर इनकार करना चाहिए। तुम्हें इन्हें इनकार क्यों करना चाहिए? क्या ऐसा करना महज तुम्हारे कर्म का मामला है? नहीं; यह तुम्हारे सहयोगी रवैये का मामला है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हो, और प्रलोभन से दूर रहना चाहते हो, तो पहले तुम्हें सहयोगी रवैया अपनाना होगा। इस रवैये के साथ तुम प्रलोभन से दूर रह सकोगे और तुम्हारा अंतःकरण शांत रहेगा। अगर तुम्हारी चाही कोई चीज तुम्हें दी जाए, और तुम उसे स्वीकार कर लो, तो तुम्हारा दिल कुछ हद तक तुम्हारे जमीर की फटकार महसूस करेगा। लेकिन अपने औचित्यों और बहानों के कारण तुम कहोगे कि तुम्हें यह चीज दी जानी चाहिए, कि तुम इसके हकदार हो। और फिर, तुम्हारे जमीर की टीस उतनी सही या स्पष्ट व्यक्त नहीं होगी। कभी-कभी कुछ कारण या विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे जमीर को डुला सकते हैं, जिससे कि उसकी टीस उतनी स्पष्ट नहीं होगी। तो क्या तुम्हारा जमीर एक भरोसेमंद मानक है? यह नहीं है। यह अलार्म की घंटी है जो लोगों को चेतावनी देती है। यह कैसी चेतावनी देती है? यह कि सिर्फ जमीर की भावनाओं के सहारे रहने में कोई सुरक्षा नहीं है; व्यक्ति को सत्य सिद्धांत भी खोजने चाहिए। वही भरोसेमंद होता है। लोग, उन्हें रोकने वाले सत्य के बिना, प्रलोभन में फँस सकते हैं, बहुतेरे कारण और बहाने बना सकते हैं जिससे कि रुतबे के लाभों का उनका लालच संतुष्ट हो सके। इसलिए एक अगुआ के रूप में, तुम्हें अपने दिल में इस एक सिद्धांत का पालन करना होगा : मैं हमेशा इनकार करूँगा, हमेशा दूर रहूँगा, और किसी भी विशेष व्यवहार को पूरी तरह से ठुकरा दूँगा। बुराई से दूर रहने की पहली शर्त इसे पूरी तरह से ठुकरा देना है। अगर तुम्हारे पास बुराई से दूर रहने की पहली शर्त मौजूद है, तो कुछ हद तक तुम पहले से ही परमेश्वर की रक्षा के अधीन हो। और अगर तुम्हारे पास अभ्यास के ऐसे सिद्धांत हैं, और उन्हें मजबूती से थामे रहते हो, तो तुम पहले से ही सत्य पर अमल कर रहे हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। तुम पहले से ही सही मार्ग पर चल रहे हो। जब तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और पहले से ही परमेश्वर को संतुष्टि दे रहे हो, तो क्या तुम्हें जमीर की परीक्षा देने की जरूरत है? सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना और सत्य पर अमल करना जमीर के मानकों से ऊँचा है। अगर किसी में सहयोग करने का संकल्प हो, और वह सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर सकता हो तो वह पहले ही परमेश्वर को संतुष्ट कर चुका है। परमेश्वर मनुष्य से इसी मानक की अपेक्षा रखता है।
बहुत हद तक, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की किसी की क्षमता उसके सहयोग पर निर्भर करती है। सहयोग अहम है। अय्यूब परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहता था, इसलिए अपने आध्यात्मिक कद और वास्तविकता के चलते उसे किसी भी प्रलोभन में फँसने का डर नहीं रहा होगा। अगर वह किसी दावत में शामिल होता, तो उसने किसी भी कथनी या करनी से आसानी से परमेश्वर का अपमान नहीं किया होता। तो फिर भी उसने ऐसी दावतों में शामिल होने से मना क्यों किया? (उसे दावतें पसंद नहीं थीं।) उसे ऐसे अवसर नापसंद थे। यह एक निष्पक्ष कारण है, लेकिन एक व्यावहारिक मसला भी है जिस पर तुम लोगों ने विचार नहीं किया होगा। अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। उसने कुछ उपाय किए और ऐसी परिपाटियों को अपनाया ताकि वह परमेश्वर की रक्षा पा सके, पाप करने या परमेश्वर का अपमान करने से बच सके। उसने सहयोग के इंसानी तरीके अपनाए। मामले का यह एक पहलू है। इसके अलावा, ऐसी भी कुछ स्थितियाँ हैं, जिनमें मनुष्य खुद ही अपनी भ्रष्ट प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकता, इसलिए अय्यूब ऐसे अवसरों में नहीं जाता था जहाँ उसे प्रलोभन मिलें। इस तरह वह प्रलोभनों से बचा रहा। अब क्या तुम लोग समझ गए हो कि अय्यूब ऐसी दावतों में क्यों नहीं जाता था? ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा अवसर किसी के लिए भी एक बहुत बड़ा प्रलोभन होता। किसी चीज के बहुत बड़ा प्रलोभन होने का अर्थ क्या है? लोग कहीं भी हों, किसी भी समय पाप कर सकते हैं, परमेश्वर का अपमान कर सकते हैं। केवल तुम्हारा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारा संकल्प तुम्हें प्रलोभन से मुक्त रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। प्रलोभन दिए जाने पर वे तुम्हें परमेश्वर का अपमान करने से रोक नहीं सकते। क्या तुम समझ रहे हो? तुम्हें दूसरों द्वारा दिए गए विशेष व्यवहार को बिल्कुल इनकार करना होगा। तुम्हें हर बार इनकार करना होगा। भला काम करने का यह क्या तरीका है? मनुष्य की समस्याओं के कौन-से आयाम पर ऐसे सिद्धांतों और विनियमों का लक्ष्य होता है? (ये मनुष्य की लालची प्रकृति को निशाना बनाते हैं।) अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण मनुष्य आसानी से प्रलोभन में फँस जाता है। इसलिए, तुम्हें ऐसे प्रलोभनों से बचने के लिए कुछ निश्चित सिद्धांत या तरीके अपनाने चाहिए, ताकि परमेश्वर का अपमान न करो। सहयोग करने का यह एक शक्तिशाली और प्रभावी तरीका है। अगर तुम ऐसा करने में विफल रहो, स्थिति का जायजा लेकर कभी-कभी विशेष व्यवहार को स्वीकार कर लो और कभी इनकार कर दो, तो क्या तुम्हें मामले की अच्छी समझ है? (नहीं।) इस बारे में तुम्हारी समझ कमजोर क्यों है? (क्योंकि मनुष्य शैतानी प्रकृति का है और खुद को नियंत्रित नहीं कर सकता।) जिन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता, उनके मन में ऐसी स्थितियों का सामना होने पर कोई सिद्धांत नहीं होते। वे हर चीज स्वीकार कर लेते हैं और कभी कुछ भी नहीं ठुकराते। अगर कोई उन्हें बताता है कि यह एक चढ़ावा है, परमेश्वर को समर्पित कोई चीज है, तब भी उन्हें कोई डर नहीं होता। वे बस इसे अपनी जेब में रख लेते हैं। वे बिना जरा-से भी खेद के ऐसे चढ़ावों को छीन कर जब्त कर लेने की हिम्मत करते हैं। यह स्पष्ट है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता है, इसलिए वे ऐसी स्थितियों में स्वाभाविक रूप से फँस जाते हैं। क्या उन्हें परमेश्वर के विश्वासी कहा भी जा सकता है? यह आराम और आसानी खोजने और रुतबे के लाभों का आनंद उठाने का परिणाम है। अगर तुम अक्सर प्रलोभन में फँस जाते हो, उससे दूर नहीं रहते, तो तुम अनिवार्य रूप से इस मार्ग पर आगे बढ़ा दिए जाओगे। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसे गलत रास्ते पर ले जाता है। यह समस्या अनसुलझी रह जाए, तो क्या सब-कुछ ठीक रहेगा? इसीलिए तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, और विशेष समस्याओं से जूझने के विशेष साधन अपनाने चाहिए। विनियमों का सख्ती से पालन सही राह नहीं है। जो भी साधन तुम्हें प्रलोभन पर विजय पाने दें, वे स्वीकार्य हैं।
भौतिक प्रलोभनों को काबू में करना आसान होता है। अगर तुम्हारे पास खाने को भोजन, पहनने को कपड़े और एक तृप्त दिल हो, तो तुम यह कर सकते हो। फिर ऐसे प्रलोभन आसानी से परास्त हो जाते हैं। लेकिन शोहरत, लाभ और रुतबे के प्रलोभनों को काबू में करना सबसे मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब दो लोग साथ काम करते हैं, तो अगर दूसरे का रुतबा तुमसे कम हो और तुम्हारा रुतबा उससे ऊँचा हो तो तुम्हें खुशी होगी। लेकिन अगर तुम्हारा रुतबा उससे कम हो तो तुम दुखी रहोगे। तुम्हारा दिल उदास रहेगा, तुम बेबस, निराश और कमजोर महसूस करोगे और तुम प्रार्थना नहीं करोगे। क्या इस समस्या को सुलझाना आसान है? इसका कोई आसान समाधान नहीं है। लोग भौतिक प्रलोभनों को ठुकराकर उनसे दूर हो सकते हैं, उनसे संक्रमित होने से बच सकते हैं, मगर रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ, गर्व और साख के प्रलोभनों को काबू में करना सबसे मुश्किल है। हालाँकि यह आसान नहीं है, लेकिन सच में एक हल है। अगर तुम सत्य खोज सकते हो, परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के खोखलेपन की असलियत देखकर उनके सार तक पहुँच सकते हो, तो तुम्हें प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा त्यागने का आत्मविश्वास मिलेगा। इस तरह तुम उनके प्रलोभन में नहीं पड़ोगे। मनुष्य भ्रष्ट प्रकृति के होते हैं, जिसके कारण वे विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते और उन्हें जीते हैं। यह उन्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उससे विद्रोह करने की ओर ले जाता है। उनका जीवन अमानवीय होता है और सत्य से मेल नहीं खाता है। चाहे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट हों, सत्य के आगे झुकने से इनकार करते हों, या धोखेबाज हों, कुटिल इरादे से काम करते हों, या लालची हों, या महत्वाकांक्षा और इच्छा से ग्रस्त हों, ऐसा क्या है जो इन सब बुराइयों को जन्म देता है? (शैतान का भ्रष्ट स्वभाव।) ये शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं, और उस शैतानी प्रकृति से उपजती हैं जो मनुष्य को नियंत्रित करती है। रुतबे के पीछे मनुष्य की भागदौड़ इसकी केवल एक अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति, मनुष्य के अहंकारी स्वभाव, और परमेश्वर से उसके विद्रोह और प्रतिरोध की तरह, उसकी शैतानी प्रकृति से उपजती है। इसे दूर करने के लिए किस तरीके का प्रयोग किया जा सकता है? तुम्हें अभी भी सबसे बुनियादी तरीका इस्तेमाल करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तो ये सारी समस्याएँ हल की जा सकती हैं। रुतबा न होने पर, तुम अक्सर विश्लेषण करके खुद को जान सकते हो। दूसरों को इससे लाभ हो सकता है। अगर तुम रुतबे वाले हो, फिर भी अक्सर विश्लेषण कर स्वयं को समझ सकते हो, लोगों को देखने दे सकते हो कि तुम्हारी खूबियाँ क्या हैं, कि तुम सत्य को समझते हो, तुम्हें व्यावहारिक अनुभव है, तुम सचमुच बदल सकते हो, तो क्या दूसरों को इससे लाभ नहीं पहुँचेगा? चाहे तुम्हारे पास रुतबा हो या न हो, अगर तुम सत्य पर अमल कर सकते हो, और तुम्हारे पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही है, तुम अपने अनुभव से लोगों को परमेश्वर के इरादों और सत्य को समझने देते हो, तो क्या इससे लोगों को लाभ नहीं होता? तो तुम्हारे लिए रुतबे का अर्थ क्या है? दरअसल, रुतबा बस एक फालतू, अतिरिक्त चीज है, एक वस्त्र या एक टोपी की तरह। यह बस एक आभूषण है। इसका कोई वास्तविक उपयोग नहीं है, और इसकी मौजूदगी किसी को प्रभावित नहीं करती। तुम्हारा कोई रुतबा हो या न हो, तुम अभी भी वही व्यक्ति हो। लोग सत्य को समझ कर सत्य और जीवन को हासिल कर सकते हैं या नहीं, इसका रुतबे से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर तुम रुतबे को बहुत बड़ी चीज नहीं मानते, तो यह तुम्हें विवश नहीं कर सकता। अगर तुम रुतबे से प्रेम कर उस पर विशेष जोर देते हो, हमेशा उसे महत्वपूर्ण चीज मानते हो, तो यह तुम्हें अपने नियंत्रण में रखेगा; तुम खुलने, अपना असली रूप दिखाने, खुद को जानने या अपनी अगुआई की भूमिका को दरकिनार कर, दूसरों के साथ कार्य करने, बात करने, संसर्ग करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होगे। यह कैसी समस्या है? क्या यह रुतबे के आगे विवश होने का मामला नहीं है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम रुतबे वाले स्थान से बोलते और कार्य करते हो और अपने ऊँचे पद से उतर नहीं सकते हो। ऐसा करके क्या तुम खुद को ही तकलीफ नहीं दे रहे हो? अगर तुम सचमुच सत्य समझते हो और रुतबा रखते हो पर रुतबे के पद से कार्य नहीं करते, बल्कि अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने में ध्यान लगा सकते हो, वह हर चीज कर सकते हो और अपना वह कर्तव्य पूरा कर सकते हो, जो तुम्हें करना चाहिए, और अगर तुम खुद को एक साधारण भाई-बहन की तरह देखते हो, तो क्या रुतबे के नियंत्रण से मुक्त होने में सक्षम नहीं होगे? जब तुम रुतबे से विवश नहीं होते और तुम्हारे पास सामान्य जीवन प्रवेश होता है, तो क्या तुम तब भी दूसरों से अपनी तुलना करते हो? अगर दूसरों का रुतबा तुमसे ऊँचा हो, तो क्या तुम तब भी बेचैन हो जाते हो? तुम्हें सत्य खोजकर खुद को रुतबे के बंधनों और दूसरे सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के बंधनों से मुक्त कर लेना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने से बढ़कर कुछ भी नहीं है। तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसके पास सत्य वास्तविकता है।
सभी भ्रष्ट मनुष्य एक आम समस्या से ग्रस्त होते हैं : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता तो वे किसी के साथ बातचीत करते या बोलते समय श्रेष्ठता का भाव नहीं दिखाते हैं, न ही वे अपनी बोली में कोई खास शैली या लहजा अपनाते हैं; वे वास्तव में साधारण और सामान्य होते हैं और उन्हें मुखौटा लगाने की जरूरत नहीं होती है। वे कोई मनोवैज्ञानिक दबाव महसूस नहीं करते और खुलकर, दिल से संगति कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे घमंडी बन जाते हैं, साधारण लोगों की अनदेखी करते हैं, कोई उन तक नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे श्रेष्ठ हैं और आम लोगों से भिन्न हैं। वे आम इंसान को हेय समझते हैं, बोलते समय श्रेष्ठता का भाव दिखाते हैं और दूसरों के साथ खुलकर संगति करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर संगति क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका आध्यात्मिक कद बड़ा होता है और वे जिम्मेदारी संभालने में बेहतर होते हैं; वे मानते हैं कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और शैतान के किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं उनके माता-पिता या परिवार के दूसरे सदस्यों की मृत्यु पर भी उनमें ऐसा आत्म-नियंत्रण होना चाहिए कि वे न रोएँ या उन्हें रोना ही है, तो सबकी नजरों से दूर, गुपचुप रोना चाहिए, ताकि किसी को उनकी कमियाँ, दोष या कमजोरियाँ न दिखाई दें। उन्हें तो यह भी लगता है कि अगुआओं को किसी को भी यह भनक नहीं लगने देनी चाहिए कि वे निराश हो गए हैं; बल्कि उन्हें ऐसी सभी बातें छिपानी चाहिए। वे मानते हैं कि ओहदे वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए। जब वे इस हद तक अपना दमन करते हैं, तो क्या रुतबा उनका परमेश्वर, उनका प्रभु नहीं बन गया है? और ऐसा होने पर, क्या उनमें अभी भी सामान्य मानवता है? जब उनमें ये विचार होते हैं—जब वे खुद को इस तरह सीमित कर लेते हैं, और इस तरह का कार्य करते हैं—तो क्या वे रुतबे के प्रति आसक्त नहीं हो गए हैं? जब कभी दूसरा उनसे शक्तिशाली और बेहतर होता है, यह उनकी अहम कमजोरियों को छू जाता है। क्या वे देह पर विजय प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे दूसरे व्यक्ति से उचित बर्ताव कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। स्वयं को रुतबे के नियंत्रण से मुक्त करने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले इसे अपने इरादों, सोच और अपने दिल से निकाल देना चाहिए। यह कैसे किया जाता है? पहले जब तुम्हारे पास कोई रुतबा नहीं था तो तुम उन लोगों की अनदेखी करते थे जो तुम्हें पसंद नहीं होते थे। अब जबकि तुम्हारे पास रुतबा है, अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो, जो तुम्हें पसंद नहीं है या जिसे समस्याएँ हैं, तो तुम उसकी मदद करने की जिम्मेदारी महसूस करते हो, और इसलिए तुम उसके साथ संगति करने में ज्यादा समय बिताते हो, उसकी कुछ व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने की कोशिश करते हो। ऐसे काम करते समय तुम्हारे दिल में क्या भावना होती है? उल्लास और शांति की भावना होती है। इसलिए भी जब तुम खुद को कठिनाई में पाते हो या विफलता का अनुभव करते हो तो तुम्हें दूसरों पर भरोसा करना चाहिए और उनके सामने अक्सर खुलकर बात करनी चाहिए, अपनी समस्याओं और कमजोरियों पर संगति करनी चाहिए और यह संगति करनी चाहिए कि तुमने कैसे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था, फिर कैसे इस स्थिति से निकले थे और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने में सक्षम रहे थे। और उनसे इस तरह मन की बात कहने का क्या असर होता है? बेशक यह सकारात्मक होता है। तुम्हें कोई भी हीन भावना से नहीं देखेगा—बल्कि शायद उन्हें इन अनुभवों से गुजरने की तुम्हारी क्षमता से जलन हो। कुछ लोग हमेशा यही सोचते हैं कि रुतबा होने पर लोगों को अधिकारियों जैसा पेश आना चाहिए और एक खास लहजे में बोलना चाहिए ताकि लोग उन्हें गंभीरता से लें और उनका सम्मान करें। क्या ऐसी सोच सही है? अगर तुम्हें यह एहसास हो जाए कि ऐसी सोच गलत है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और देह संबंधी चीजों के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। रौब मत दिखाओ और पाखंड की राह पर मत चलो। ज्यों ही ऐसा विचार आए, तुम्हें सत्य खोजकर इसका समाधान करना चाहिए। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, तो यह विचार, यह नजरिया आकार लेकर तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेगा। परिणामस्वरूप, यह तुम पर हावी हो जाएगा, तुम छद्मवेश बनाकर अपनी ऐसी छवि गढ़ोगे कि कोई भी तुम्हारी असलियत न जान सके या तुम्हारी सोच को न समझ पाए। तुम दूसरों से मुखौटा लगाकर बात करोगे जो तुम्हारे सच्चे दिल को उनसे छिपाएगा। तुम्हें यह सीखना होगा कि दूसरे लोग तुम्हारा दिल देख सकें, तुम दूसरों के सामने अपना दिल खोल सको और उनके करीबी बन सको। तुम्हें अपनी देह की प्राथमिकताओं के विरुद्ध विद्रोह करना होगा और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना होगा। इस प्रकार तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। तुम्हारे साथ जो कुछ भी घटे, सबसे पहले स्वयं की विचारधारा की समस्याओं पर आत्मचिंतन करो। अगर तुम अभी भी अपनी कोई छवि गढ़कर छद्मवेश धरना चाहते हो, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं फिर से छद्मवेश धरना चाहता हूँ। मैं फिर से छलपूर्वक षड्यंत्र कर रहा हूँ। मैं कैसा असली दानव हूँ! तुम अवश्य मुझे नफरत योग्य मानते होगे! अब तो यहाँ तक कि मुझे खुद से ही घृणा होने लगी है। मेरी विनती है कि तुम मुझे फटकारो, अनुशासित करो और दंड दो।” तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, अपना रवैया सबके सामने लाना चाहिए, और इसे उजागर करने, विश्लेषित करने और रोकने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। अगर तुम उसे इस तरह विश्लेषित कर रोक दोगे, तो तुम्हारे कार्यकलापों से कोई समस्या खड़ी नहीं होगी, क्योंकि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव रुक चुका है और यह प्रकट नहीं होता। इस समय तुम्हारे दिल में कौन-सी भावनाएँ होंगी? कम-से-कम तुम थोड़ी राहत महसूस करोगे। तुम्हारा दिल उल्लासमय और शांतिपूर्ण रहेगा। तुम्हारी पीड़ा घट जाएगी और तुम्हें शोधन से कष्ट नहीं होगा। बहुत बुरी स्थिति हुई तो कुछ ऐसे मौके आएँगे जब तुम क्षणिक रूप से थोड़ा खोया-खोया महसूस करोगे और मन-ही-मन सोचोगे, “मैं एक अगुआ हूँ, रुतबे और प्रतिष्ठा वाला इंसान हूँ, मैं बिल्कुल साधारण लोगों जैसा कैसे हो सकता हूँ? मैं साधारण लोगों के साथ खुले तौर पर, दिल से और सच्ची बातें कैसे कर सकता हूँ? यह तो खुद को बहुत नीचे गिराना होगा!” जैसा तुम देख रहे हो, यह थोड़ी परेशानी पैदा कर सकता है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव एकाएक पूरी तरह खत्म नहीं हो सकता, न यह थोड़े-से समय में दूर किया जा सकता है। तुम्हें लगता था कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना बहुत सरल होगा, कि यह लोगों की कल्पना जैसा होगा—कि एक बार वे सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति कर दें और भ्रष्ट स्वभाव को पहचान लें, तो वे फौरन इससे दूर फेंक सकेंगे। यह इतनी सरल बात नहीं है। जिस प्रक्रिया से मनुष्य सत्य का अभ्यास करता है, वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से लड़ने की प्रक्रिया है। मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छा, कल्पना और असंयत इच्छाएँ प्रार्थना के जरिए हमेशा-हमेशा के लिए उनके खिलाफ विद्रोह करने और उन्हें काबू में कर लेने से पूरी तरह हल नहीं होतीं। इसके बजाय, इन्हें बार-बार अनेक युद्ध करने के बाद ही आखिरकार त्यागा जा सकता है। सत्य का अभ्यास करके ही किसी व्यक्ति को वास्तव में इस प्रक्रिया के सुपरिणाम मिलेंगे। विशेष तौर पर बड़े मामलों में, तुम्हारे दिल में यह युद्ध और अधिक तीव्र होगा, यह बार-बार करवटें बदलेगा, कभी महीने-दो महीने तो कभी-कभी छह महीने या सालभर लंबा भी खिंच सकता है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव बहुत अड़ियल होता है। किसी भी प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव सत्य पर एक-दो संगतियों से दूर नहीं होता। यह तुम्हारे विरुद्ध बार-बार लड़ेगा, और तुम्हें सत्य का अनुसरण तब तक करना होगा जब तक इसे स्पष्ट रूप से न समझ लो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को अच्छी तरह न जान लो, और देह और शैतान से घृणा न करने लगो। फिर सत्य का अभ्यास तुम्हारे लिए एक साधारण बात हो जाएगी, एक ऐसी चीज जो स्वाभाविक और सहज है। देह को हराने और शैतान पर विजय पाने का यही अर्थ है। इस युद्ध के दौरान लोगों को हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचन पढ़ने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। उन्हें मार्ग ढूँढ़ने के लिए कभी भी गैर-विश्वासियों या शैतानों और दानवों के पास नहीं जाना चाहिए। उन्हें परमेश्वर पर भरोसा कर उसकी ओर देखना चाहिए। उन्हें सत्य खोजना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करनी चाहिए। सत्य को सही मायनों में समझ लेने के बाद ही वे देह और शैतान को हरा सकते हैं। परमेश्वर इसे किस दृष्टि से देखता है? परमेश्वर तुम्हारे दिल को देखता है। वह देखता है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो, परमेश्वर का भय मानते हो, और तुम अधार्मिकता छोड़ने और बुराई से दूर रहने को तैयार हो। हालाँकि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कारण तुम्हारे मन में सोच, विचार और इरादे उपजे हैं, ये विचार और इरादे तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित नहीं करते, वे तुम्हारी इच्छाशक्ति को गिराकर उसे नहीं रौंदते। आखिरकार, तुम उन्हें पराजित करने में सक्षम हो जाते हो, और परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। अगर तुम अक्सर इसका अभ्यास करते हो, तो तुम्हारी भीतरी दशा सुधर जाएगी। किस मुकाम पर कहा जा सकता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को पूरी तरह काबू में कर चुके हो, तुमने अपने स्वभाव के इस पहलू को बदल लिया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? यानी भले ही तुम्हारे मन में अब भी कभी-कभार बुरे विचार और ख्याल आ सकते हैं, और वे अभी भी कुछ इरादे और इच्छाएँ जगाएँगे, फिर भी ये चीजें अब और तुम्हारे दिल पर हावी नहीं रहेंगी। तुम्हें पहले ही लगने लगा है कि ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं, और इनके सिर उठाते ही तुम इन्हें पहचान सकते हो। तुम्हें बनावटी ढंग से उन्हें रोककर उनके खिलाफ विद्रोह करने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर से जानबूझकर तुम्हारी पड़ताल करने, तुम्हें अनुशासित करने और दंडित करने के लिए कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे तरीके तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं हैं। तुम इसे आसानी से काबू में करके छोड़ सकते हो। तुम्हारा दिल बेचैन नहीं है और तुम्हें कोई हानि महसूस नहीं होती। यह ठीक है। अब तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है और तुम बदले हुए स्वभाव वाले हो। क्या तुम लोगों ने अब एक सीमा तक प्रवेश प्राप्त कर लिया है? क्या तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो? (नहीं।) तो फिर तुम्हारा आध्यात्मिक कद सचमुच बहुत निचले स्तर का है, और तुम्हें सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने के लिए अभी भी कड़ी मेहनत करनी होगी। फिर, जब तुम्हारे साथ ऐसी चीजें दोबारा घटेंगी, तो तुम्हें मालूम होगा कि सत्य का अभ्यास कैसे करें और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कैसे करें। तुम जानोगे कि तुम्हें अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए क्या करना होगा। तब तुम सचमुच आध्यात्मिक कद से युक्त हो जाओगे। जो लोग सत्य का अभ्यास कर अपनी गवाही में दृढ़ रह सकते हैं, वे ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। यह फिलहाल तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम अभी भी टटोलने वाले चरण में हो। इन वास्तविक स्थितियों की बात करें, तो तुम लोग महसूस करते हो कि तुम्हारे साथ ये सारी समस्याएँ हैं, फिर भी तुम लोगों ने कभी भी उन्हें सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजा है। क्या इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। अगर तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो क्या तुम्हारा कोई जीवन हो सकता है? तुमने अभी भी सत्य प्राप्त नहीं किया है और तुम्हारा अभी भी कोई जीवन नहीं है। अगर तुम केवल देह के जीवन के अनुसार जीते हो, सिर्फ अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो, तो तुम शैतान की सत्ता में रह रहे हो। तुमने अभी भी परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं किया है। उद्धार लोगों की उस कल्पना जितना सरल नहीं है, जब वे सोचते हैं कि अगर तुम कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत बोल दो, और कुछ विनियमों का पालन कर लो, तो तुम बचा लिए जाओगे। तुम्हें स्वयं को सचमुच जानना होगा, भ्रष्ट स्वभाव के कुछ अंशों को उतार फेंकना होगा, प्रसिद्धि और रुतबे के सार की असलियत देखनी होगी, रुतबे को छोड़ना होगा और परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पित होना होगा। केवल इसी प्रकार उद्धार मिल सकता है।
दरअसल, रुतबे की समस्या का समाधान दूसरी समस्याओं वाला ही है। ये सभी समस्याएँ भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकटन हैं। ये सभी मानवीय प्राथमिकताएँ और अनुसरण हैं। इससे मेरा अर्थ क्या है? अगर तुम स्वयं को अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त कर सको, तो रुतबा तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेगा। लोग रुतबे के लिए यह कहते हुए एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं कि “तुम आज मुझसे ऊपर हो सकते हो, मगर कल मैं स्वयं को तुमसे ऊपर ले जाऊँगा।” यहाँ समस्या क्या है? क्या यह केवल रुतबे के कारण पैदा होती है? (नहीं।) यह किस कारण पैदा हुई? (मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के कारण।) यह सही है। यह समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से उपजती है। एक बार इस भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर दिया जाए, तो ये सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। अंत में, जो लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनना चाहते हैं, उन्हें हर चीज में आत्मचिंतन और स्वयं को जानने पर ध्यान देना चाहिए। सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कदम रखने से पहले उन्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना होगा। अगर वे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर न कर सके, तो यह बहुत-सी कठिनाइयाँ और व्यवधान लाएगा। अगर उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया भी तो वे लापरवाही करेंगे और उन्हें कोई नतीजा हासिल नहीं होगा। इन समस्याओं के समाधान के लिए तुम्हें सत्य का अनुसरण करने का हर प्रयास करना होगा, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का हर प्रयास करना होगा और समस्याएँ सुलझाने का हर प्रयास करना होगा। केवल यह मत कहो, “सत्य का अनुसरण करने के लिए, अधिक प्रार्थना करना और परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ना पर्याप्त है।” यह बहुत अस्पष्ट है। अभ्यास के मार्ग के बिना, यह काम नहीं करेगा। विशेष समस्याओं से विशेष रूप से निपटना होता है। रटे-रटाए ढंग से विनियमों को लागू मत करो। सत्य सजीव और व्यावहारिक है, और विनियमों का बेतरतीब प्रयोग कोई तरीका नहीं है। तुम्हें व्यावहारिक समस्याओं को सत्य सिद्धांत के अनुसार सुलझाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सत्य का प्रयोग करके व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ है, तो ऐसा व्यक्ति अगुआ और कार्यकर्ता बनने योग्य नहीं है। समस्याएँ सुलझाने के लिए जो व्यक्ति सत्य का प्रयोग नहीं कर सकता, वह ऐसा नहीं है जो सत्य को समझता है। वह एक अगुआ और कार्यकर्ता बन भी जाए, तो भी वह समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं कर पाएगा, उसके पास सत्य नहीं होगा, और उसके लिए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना असंभव होगा। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता के पास सत्य वास्तविकता बिल्कुल भी नहीं होती है।
16 फरवरी 2017
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।