भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 56)
जब कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं, तो उन्हें हमेशा कुछ गलत करने, प्रकट किए जाने और हटाए जाने का डर रहता है, इसलिए वे अक्सर दूसरों से कहते हैं, “तुम्हें अगुआ नहीं बनना चाहिए। जैसे ही कुछ गलत होगा, तुम्हें हटा दिया जाएगा, और फिर कभी वापसी नहीं हो पाएगी!” क्या यह कथन भ्रांति नहीं है? “फिर कभी वापसी नहीं होगी” का क्या मतलब है? किस तरह के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटाया जाता है? वे सभी बुरे व्यक्ति होते हैं, जो बार-बार चेतावनियों के बावजूद कलीसिया के काम में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हुए लापरवाही से काम करते हैं। यदि कोई केवल इसलिए गलती करता है क्योंकि उसका आध्यात्मिक कद छोटा है, या उसकी काबिलियत कम है, या उसके पास अनुभव की कमी है, लेकिन वह सत्य स्वीकार कर सके और सचमुच पश्चात्ताप कर सके, तो क्या परमेश्वर का घर उसे हटा देगा? अगर वह व्यक्ति कोई असली कार्य न भी कर पाए, तो केवल उसका कर्तव्य समायोजित किया जाएगा। तो क्या ऐसी बातें कहने वाले लोग तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश नहीं कर रहे हैं? क्या वे दूसरों को गुमराह करने के लिए धारणाएँ नहीं फैला रहे हैं? परमेश्वर के घर में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाता है, ऐसा नहीं है कि जो कोई भी ये भूमिकाएँ चाहता है उसे ये मिल सकती हैं। परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार करता है; केवल वे झूठे अगुआ जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और मसीह-विरोधी जो शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, और जो पश्चात्ताप करने से दृढ़तापूर्वक इनकार करते हैं, उन्हें हटा दिया जाएगा। जो लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, जो काट-छाँट स्वीकार करते हैं, और जो वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, उन्हें हटाया नहीं जाएगा। जो लोग यह धारणा फैलाते हैं कि “अगुआ बनना बहुत जोखिम भरा है,” उनके इरादे और लक्ष्य होते हैं। उनका लक्ष्य लोगों को गुमराह करना, दूसरों को अगुआ बनने से रोकना और इस वजह से मिले अवसर का फायदा उठाना है। क्या यह गुप्त इरादा रखना नहीं है? यदि तुम हटाए जाने को लेकर चिंतित हो, तो तुम्हें सतर्क रहना चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे पश्चात्ताप करना चाहिए, और सत्य को स्वीकार करना चाहिए ताकि तुम अपनी गलतियों को सुधार सको। क्या इससे समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा? यदि कोई गलती करता है, और जब उसकी काट-छाँट होती है, तब वह सत्य स्वीकार नहीं करता, और सचमुच पश्चात्ताप करने का उसका कोई इरादा नहीं होता है, और वह अनमना बना रहता है, और लापरवाही से काम करता है, तो उसे हटा दिया जाना चाहिए। जब कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं, तो वे दबंग और दुस्साहसी हो जाते हैं, वे बिना किसी संकोच के बोलते और कार्य करते हैं, और हर किसी की आँखों पर पट्टी बाँधना चाहते हैं। न केवल वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में विफल रहते हैं, बल्कि वे उन लोगों का भी पता लगाकर उन्हें अलग-थलग कर देते हैं जो ऊपरवाले तक समस्याओं की रिपोर्ट करते हैं। जब ऊपरवाले को इस मुद्दे के बारे में पता चलता है और वह उन्हें जवाबदेह ठहराता है, तो वे चूहे की तरह डरपोक हो जाते हैं, और हठपूर्वक अपनी करनी स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे इसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं, तो वे इससे बच सकते हैं और परमेश्वर का घर इस मामले को आगे नहीं बढ़ाएगा। क्या यह वास्तव में इतना आसान है? परमेश्वर का घर मामले को स्पष्ट रूप से सत्यापित करेगा, और फिर सिद्धांतों के आधार पर इसे सँभालेगा; जो भी जिम्मेदार होगा वह बच नहीं पाएगा। लोग जो भी करते हैं, उसमें जब वे सत्य की तलाश नहीं करते, और मनमाने ढंग से, लापरवाही से और अपनी सनक के अनुसार कार्य करते हैं, कुतर्क और दिखावे का सहारा लेते हैं, और जब चीजें गलत हो जाती हैं तो अपनी गलतियों को स्वीकार करने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर देते हैं, तो यह किस प्रकार की समस्या है? क्या यह सही रवैया है? क्या कुतर्क और दिखावा करने और अड़ियल होकर अपने किए को स्वीकारने से इनकार करने से समस्या हल हो सकती है? क्या यह रवैया सत्य से मेल खाता है? क्या इसमें सच्चा समर्पण है? वे गलतियाँ करने और उजागर होने और रिपोर्ट किए जाने से डरते हैं, वे डरते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें जिम्मेदार ठहराएगा, और वे न्याय किए जाने, निंदा किए जाने और हटाए जाने से डरते हैं। क्या इस डर से कोई समस्या होती है? यह डर कोई सकारात्मक चीज नहीं है; यह कहाँ से आता है? (उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से आता है।) सही है। तो वास्तव में इस डर में क्या है? आओ इसका विश्लेषण करते हैं। वे क्यों डरते हैं? उनका डर इस चिंता से उपजता है कि जब चीजें उजागर हो जाएँगी, तो उन्हें बरखास्त कर बदल दिया जाएगा, जिससे उनका रुतबा और आजीविका खत्म हो जाएगी। इसलिए वे झूठ और कुतर्क का सहारा लेते हैं और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। इस रवैये के आधार पर यह प्रकट किया जाता है कि वे सत्य को स्वीकार करने वाले लोग हैं या नहीं, वे अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग हैं या नहीं, और वे धोखेबाज लोग हैं या नहीं। क्या वे दानव नहीं हैं? आखिरकार उन्होंने अपनी असली प्रकृति दिखा दी है। किस समय लोग सबसे अधिक प्रकट होते हैं? जब उन पर कोई चीज पड़ जाती है, और विशेष रूप से जब उनके कुकर्म प्रकट हो जाते हैं, तब देखो कि उनका रवैया क्या होता है—ये क्षण उन्हें सबसे अधिक प्रकट करते हैं। उनकी तुच्छ मानसिकता, धोखेबाजी, चालाकी, और अपनी गलतियों को स्वीकार करने से हठपूर्वक इनकार करना इत्यादि—ये सभी भ्रष्ट स्वभाव एक ही साथ उनसे फूट पड़ते हैं। क्या यह लोगों को पहचानने का सबसे आसान समय नहीं है? कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम करने वाले छद्म-विश्वासियों को प्रकट किया और हटाया न जाए? एक छद्म-विश्वासी, भले ही कोई भी कर्तव्य निभाए, सबसे जल्दी प्रकट हो जाता है, क्योंकि उसके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव बहुत अधिक और बहुत स्पष्ट होते हैं। इसके अलावा छद्म-विश्वासी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते और लापरवाही और मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। अंत में, जब उन्हें हटा दिया जाता है और वे अपना कर्तव्य निभाने का अवसर खो देते हैं, तो वे चिंता करना शुरू कर देते हैं, सोचते हैं, “मेरा तो काम तमाम हो गया। यदि मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी गई, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। मुझे क्या करना चाहिए?” वास्तव में स्वर्ग हमेशा मनुष्य के लिए एक रास्ता छोड़ेगा। एक अंतिम रास्ता होता है, जो सचमुच पश्चात्ताप करने का रास्ता है, और सुसमाचार फैलाने और लोगों को प्राप्त करने के लिए जल्दी करने और अच्छे कर्म करके अपने दोषों की भरपाई करने का रास्ता है। यदि वे यह रास्ता नहीं अपनाते, तो वास्तव में उनका काम तमाम हो चुका है। यदि उनके पास थोड़ा विवेक है और जानते हैं कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं है, तो उन्हें स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए और सुसमाचार फैलाने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए—यह भी एक कर्तव्य निभाना है। यह पूरी तरह से संभव है। यदि कोई स्वीकार करता है कि उसे इसलिए हटा दिया गया था क्योंकि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, फिर भी वह सत्य को स्वीकार नहीं करता और उसके दिल में थोड़ा-सा भी पश्चात्ताप नहीं है, और इसके बजाय वह खुद को निराशा में डुबो लेता है, तो क्या यह मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो उन्हें परमेश्वर को निश्चित रूप से गलत नहीं समझना चाहिए। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें वह सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, “लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह क्या चीज है जिसने इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम्हारे पास एक ठोस आधार है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और समर्पण की खोज करने का।) उसे पहले समर्पित होकर विचार करना चाहिए : “मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं समर्पण करूँगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।” क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर न तो असर डालेगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी। तुम लोग क्या सोचते हो कि वफादारी के लिए कौन सक्षम है—जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के दौरान गलतफहमियाँ पालता है, या जो नहीं पालता? (जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन में गलतफहमियाँ नहीं पालता, वह वफादारी में सक्षम हो सकता है।) तो सबसे पहले तुम्हारा समर्पण का रवैया होना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें कम से कम यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है, कि परमेश्वर धार्मिक है और यह कि वह जो कुछ भी करता है सही होता है। यह वे पूर्वशर्तें हैं जो यह निर्धारित करती हैं कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में वफादार हो सकते हो या नहीं। यदि तुम इन दोनों पूर्वशर्तों को पूरा करते हो, तो क्या तुम्हारे दिल में गलतफहमियाँ तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? (नहीं।) वे नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि तुम इन गलतफहमियों को अपने कर्तव्यपालन में नहीं लाओगे। पहली बात, तुम्हें उन्हें शुरूआत में ही हल करना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे केवल अपनी भ्रूण अवस्था में ही रहें। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उनका जड़ से समाधान करो। उनका समाधान तुम्हें कैसे करना चाहिए? इस मामले के संबंध में परमेश्वर के वचनों के कई प्रासंगिक अंश सभी के साथ मिलकर पढ़ो। फिर इस बारे में संगति करो कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों करता है, परमेश्वर का इरादा क्या है, और परमेश्वर के इस तरह से कार्य करने से क्या परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। इन मामलों पर विस्तार से सहभागिता करो, तब तुममें परमेश्वर की समझ आएगी और तुम समर्पित होने में सक्षम होगे। यदि तुम परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों को दूर नहीं करते और अपने कर्तव्य के निर्वाह में यह कहते हुए धारणा रखते हो, “इस मामले में परमेश्वर ने गलत तरीके से काम किया, और मैं समर्पण नहीं करूँगा। मैं इसका विरोध करूँगा, मैं परमेश्वर के घर के साथ बहस करूँगा। मैं नहीं मानता कि यह परमेश्वर का कार्य है”—यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक विशिष्ट शैतानी स्वभाव है। ऐसे कथन मनुष्यों को नहीं बोलने चाहिए; यह वह रवैया नहीं है जो एक सृजित प्राणी का होना चाहिए। यदि तुम इस तरह से परमेश्वर का विरोध कर पाते हो, तो क्या तुम इस कर्तव्य को निभाने के योग्य हो? तुम नहीं हो। चूँकि तुम दानव हो, और तुममें मानवता की कमी है, तो तुम कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हो। यदि किसी व्यक्ति में थोड़ा विवेक है, और उसके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा, और वह परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश भी करेगा, और देर-सवेर वह मामले को स्पष्ट रूप से देख ही लेगा। लोगों को यही करना चाहिए।
परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में ऐसी कई चीजें होती हैं जिन्हें लोग समझ नहीं पाते या उनसे समझौता नहीं कर पाते। अगर उनके पास समर्पित दिल हो तो ये मुद्दे धीरे-धीरे हल हो जाएँगे, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में उनके उत्तर मिल जाएँगे। भले ही वे इस समय परिणाम प्राप्त न कर सकें, कई वर्षों के अनुभव के बाद वे स्वाभाविक रूप से इन चीजों को समझ जाएँगे। यदि समस्याओं का सामना करने पर व्यक्ति कभी भी उन्हें समझ नहीं पाता, और खुद को अगुआओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ खड़ा कर लेता है, या परमेश्वर के घर के साथ बहस करता है, तो क्या यह वह व्यक्ति है जिसके पास विवेक है? परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए व्यक्ति के पास कम से कम सामान्य मानवता का विवेक और बुनियादी आस्था होनी चाहिए, तभी उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान होगा। यदि तुम सदैव परमेश्वर का विरोध करते हो और अपने आप को उसके विरुद्ध खड़ा करते हो, और बाद में तुम सत्य की खोज नहीं करते या पश्चात्ताप करने वाला हृदय नहीं रखते, तो तुम कर्तव्य निभाने या परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए उपयुक्त नहीं हो, और तुम उसके आदेश को स्वीकार करने के लिए उपयुक्त नहीं हो। यदि तुममें सच्ची आस्था नहीं है, लेकिन फिर भी तुम कर्तव्य निभाते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो तुम ठोस आधार हासिल नहीं कर पाओगे, और तुम निश्चित रूप से हटा दिए जाओगे। क्या यह तुम्हारे लिए बस परेशानी खड़ी नहीं कर रहा है? इसे कहते हैं खुद को शर्मिंदा करना। इसलिए परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों को दूर करने के लिए लोगों का रवैया यह होना चाहिए कि वे पहले समर्पण करें, और यह विश्वास रखें कि परमेश्वर जो भी करता है वह सही करता है। अपनी आँखों और परख पर भरोसा न करें—यदि तुम हमेशा अपनी परख और आँखों पर भरोसा करते हो, तो यह परेशानी की बात है। तुम परमेश्वर नहीं हो; तुम्हारे पास सत्य नहीं है। तुम भ्रष्ट स्वभावों वाले व्यक्ति हो; तुम गलतियाँ कर सकते हो, और तुम अभी भी सत्य नहीं समझते। यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या परमेश्वर तुम्हारी निंदा करता है? परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, लेकिन तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें खोजने का अवसर और समय देता है, और वह प्रतीक्षा कर रहा है। किसकी प्रतीक्षा? इस बार सत्य की खोज करने के लिए तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा है। एक बार जब तुम समझ जाओगे और समर्पित हो जाओगे, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, और परमेश्वर न तो इसे याद रखेगा और न ही तुम्हारी निंदा करेगा। हालाँकि यदि तुम वही पुरानी गलतियाँ करना जारी रखते हो, तो वास्तव में तुम्हारा काम तमाम हो चुका है और तुम छुटकारे से परे हो।
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