भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 55)
चाहे कोई अपना कर्तव्य पालन कर रहा हो या फिर पेशेवर ज्ञान अर्जित कर रहा हो, उसे परिश्रमी होना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभालना आना चाहिए। इन चीजों के साथ अनमने ढंग से मत पेश आओ और ना ही लापरवाही करो। पेशेवर ज्ञान के अध्ययन का उद्देश्य अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन करना है और व्यक्ति को इसके लिए प्रयास करना चाहिए—इसमें सभी को सहयोग करना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य ठीक से करने का इच्छुक नहीं है और हमेशा पेशेवर ज्ञान का अध्ययन न करने के कारण और बहाने ढूंढता है, तो इससे पता चलता है कि वह ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपा रहा है, और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से नहीं करना चाहता है। क्या ऐसे व्यक्ति में अंतरात्मा और विवेक की कमी नहीं है? क्या इस प्रकार के चरित्र वाला व्यक्ति परेशानी खड़ी नहीं करता है? क्या उन्हें संभाल पाना अत्यंत कठिन नहीं है? भले ही कोई व्यक्ति किसी पेशे का अध्ययन कर रहा है, तब भी उसे सत्य को तलाशना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्यों को करना चाहिए। सभी को इसी दायरे में रहना चाहिए और किसी को भी एक अविश्वासी जैसा भ्रमित नहीं होना चाहिए। कार्य के प्रति अविश्वासियों का क्या रवैया होता है? उनमें से बहुत से लोग बस अपने दिन काटते हैं और अपना समय नष्ट करते हैं, हर रोज बस अपनी दैनिक मजदूरी पाने के लिए जैसे-तैसे काम करते हैं और जब भी मौका मिलता है, वे काम में लापरवाही करते हैं। उन्हें कार्यकुशलता से या अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करने की परवाह नहीं होती, उनमें गंभीर और जिम्मेदार रवैये की कमी होती है। वे यह नहीं कहते, “यह कार्य मुझे सौंपा गया है, तो इस कार्य के पूरा होने तक मुझे इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, मुझे इस मामले को अच्छे से संभालना चाहिए और यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए।” उनमें ऐसी अंतरात्मा नहीं होती है। इसके अलावा, अविश्वासियों में एक विशेष तरह का भ्रष्ट स्वभाव होता है। जब वे अन्य लोगों को कोई पेशेवर ज्ञान या कौशल का कुछ हिस्सा सिखाते हैं, तो वे सोचते हैं, “जब कोई छात्र हर वो चीज सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी। अगर मैं दूसरों को वह सब-कुछ सिखा देता हूँ जो मैं जानता हूँ, तो फिर कोई मेरा आदर या प्रशंसा नहीं करेगा और मैं एक शिक्षक के रूप में अपनी सारी प्रतिष्ठा खो बैठूँगा। यह नहीं चलेगा। मैं उन्हें वह सब-कुछ नहीं सिखा सकता जो मैं जानता हूँ, मुझे कुछ बचाकर रखना चाहिए। जो कुछ मैं जानता हूँ उसका केवल अस्सी प्रतिशत ही मैं उन्हें सिखाऊँगा और बाकी बचाकर रखूँगा; यह दिखाने का यही एकमात्र तरीका है कि मेरे कौशल दूसरों के कौशल से श्रेष्ठ हैं।” यह किस तरह का स्वभाव है? यह कपट है। दूसरों को सिखाते समय, उनकी सहायता करते समय या उनके साथ अपनी पढ़ी हुई कोई चीज साझा करते समय तुम लोगों को कैसा रवैया अपनाना चाहिए? (मुझे कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए और कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहिए।) कोई व्यक्ति कैसे कुछ भी बचाकर नहीं रखता? अगर तुम कहते हो, “जब बात उन चीजों की आती है जिन्हें मैंने सीखा है, तो मैं कुछ भी बचाकर नहीं रखता और मुझे तुम सब को उन चीजों के बारे में बताने में कोई परेशानी नहीं है। वैसे भी मैं तुम सबसे ज्यादा काबिल हूँ और अभी भी मैं अधिक उन्नत चीजों को समझ सकता हूँ”—यह अभी भी चीजों को बचाकर रखने वाली और काफी षड्यंत्रकारी बात है। या अगर तुम कहते हो, “मैं तुम लोगों को वे सभी बुनियादी चीजें सिखाऊँगा जो मैंने सीखी हैं, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। मेरे पास अभी भी अधिक ज्ञान है, और यहाँ तक कि अगर तुम सब लोग यह सब सीख भी लेते हो, तब भी तुम मेरी बराबरी नहीं कर पाओगे”—यह अभी भी चीजों को बचाकर रखना है। अगर कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो उसे परमेश्वर की आशीष प्राप्त नहीं होगी। लोगों को परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना सीखना चाहिए। परमेश्वर के घर में तुम्हें उन सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक चीजों का योगदान करना चाहिए जिन्हें तुमने अच्छी तरह समझ लिया है, जिससे कि परमेश्वर के चुने गए लोग उन्हें सीखकर उनमें महारत हासिल कर सकें—यही परमेश्वर की आशीष पाने का एकमात्र रास्ता है और वह तुम्हें और भी बहुत कुछ देगा। जैसा कि कहा जाता है, “लेने से देना धन्य है।” तुम अपनी सभी प्रतिभाओं और गुणों को परमेश्वर को सौंप दो, उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में प्रदर्शित करो जिससे कि हर किसी को इसका लाभ मिल सके और उन्हें उनके कर्तव्यों के परिणाम प्राप्त हो सकें। अगर तुम अपने गुणों और प्रतिभाओं का संपूर्ण योगदान करते हो तो यह कलीसिया के कार्य के लिए और उन सभी के लिए फायदेमंद होंगे जो उस कर्तव्य को निभाते हैं। सभी को कुछ साधारण बातें बताकर यह मत सोचो कि तुमने काफी अच्छा किया है या फिर तुमने किसी चीज को बचाकर नहीं रखा है—ऐसे नहीं चलेगा। तुम केवल वे कुछ सिद्धांत या चीजें ही सिखाते हो जिन्हें लोग शब्दशः समझ सकते हैं, लेकिन सार या महत्वपूर्ण बिंदु किसी नौसिखिए की समझ से परे होते हैं। तुम विस्तार में जाए बिना या विवरण दिए बिना, सिर्फ एक संक्षिप्त वर्णन देकर सोचते हो, “खैर, मैंने तुम्हें बता दिया है, और मैंने जानबूझकर कोई भी चीज छिपाकर नहीं रखी है। अगर तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है, इसलिए मुझे दोष मत दो। हमें बस यह देखना होगा कि अब परमेश्वर तुम्हें आगे कैसे ले जाता है।” इस तरह की विवेचना में छल होता है, है कि नहीं? क्या यह स्वार्थी और घिनौना नहीं है? तुम लोग क्यों दूसरों को अपने दिल की हर बात और हर वो चीज सिखा नहीं सकते जो तुम समझते हो? इसके बजाय तुम ज्ञान को क्यों रोकते हो? यह तुम्हारे इरादों और तुम्हारे स्वभाव की समस्या है। अधिकांश लोगों को जब पहली बार व्यवसाय-संबंधी ज्ञान के कुछ विशिष्ट पहलूओं से परिचित कराया जाता है, तो वे केवल इसके शाब्दिक अर्थ को समझ सकते हैं; मुख्य बिंदु और सार समझ पाने के लिए एक अवधि तक अभ्यास अपेक्षित होता है। अगर तुम पहले ही इन बारीकियों में महारत हासिल कर चुके हो, तो तुम्हें उनके बारे में दूसरों को सीधे बता देना चाहिए; उन्हें इस तरह के घुमावदार रास्ते पर जाने और टटोलने में इतना ज्यादा समय लगाने के लिए बाध्य मत करो। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है; तुम्हें यही करना चाहिए। जिन चीजों को तुम मुख्य बातें और सार मानते हो, अगर तुम उन्हें दूसरों को बता दोगे तो तुम किसी भी चीज को बचाकर नहीं रखोगे और न ही स्वार्थी बनोगे। जब तुम लोग अन्य लोगों को कौशल सिखाते हो, उनसे अपने पेशे के बारे में बातचीत करते हो या फिर जीवन प्रवेश के बारे में उनसे संगति करते हो, यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों के स्वार्थी और घृणित पहलुओं का समाधान नहीं कर पाते हो, तो तुम अच्छी तरह से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पाओगे; इस स्थिति में, तुम लोग वो नहीं हो जिनमें इंसानियत या अंतरात्मा और विवेक है या जो सत्य का अभ्यास करता है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए और उस बिंदु पर पहुँचना चाहिए, जहाँ पर तुम स्वार्थी मंशाओं से दूर रहो और केवल परमेश्वर के इरादों पर विचार करो। इस प्रकार तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी। लोगों का सत्य का अनुसरण न करना और अविश्वासियों की तरह शैतानी स्वभावों के अनुसार जीवन जीना बहुत ही थकाऊ है। अविश्वासियों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी कौशल या पेशे के सार में महारत हासिल करना कोई आसान बात नहीं है और जब कोई इसके बारे में जान लेगा और स्वयं इसमें महारत हासिल कर लेगा तो तुम्हारी आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। अपनी आजीविका की सुरक्षा के लिए लोगों को इस तरह से कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है—उन्हें हर समय सजग रहना चाहिए। जिसमें उन्हें महारत हासिल है, यही उनकी सबसे मूल्यवान मुद्रा है, यही उनकी आजीविका है, उनकी पूंजी है, उनकी जीवनधारा है और उन्हें इसके बारे में किसी अन्य व्यक्ति को नहीं बताना चाहिए। परन्तु तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो—यदि तुम परमेश्वर के घर में इस तरह सोचते हो और इस तरह काम करते हो तो तुममें और अविश्वासियों में कोई अंतर नहीं है। यदि तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते रहते हो, तो तुम वो व्यक्ति नहीं हो जिसे वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास है। यदि तुम अपना कर्तव्य पालन करते समय हमेशा स्वार्थी मंशा और तुच्छ मानसिकता रखते हो, तो तुम्हें परमेश्वर की आशीष नहीं मिलेगी।
परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद तुमने उसके वचनों को खाया-पीया है, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार किया है, तो क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार किया और उन्हें समझा? जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम बोलते और कार्य करते हो, चीजों के प्रति तुम्हारा नजरिया और तुम्हारे आचरण के सिद्धांतों और लक्ष्यों में क्या कोई बदलाव आया है? यदि तुममें और एक अविश्वासी के बीच अभी भी कोई अंतर नहीं आया है तो परमेश्वर अपने प्रति तुम्हारे विश्वास को मान्यता नहीं देगा। वह यही कहेगा कि तुम अभी भी अविश्वासी हो और अविश्वासियों की राह पर चल रहे हो। इसलिए, चाहे तुम्हारे आचरण में हो या फिर कर्तव्य पालन में, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार, समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना चाहिए और अपने गलत विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यासों का समाधान करना चाहिए। एक ओर, तो तुम्हें आत्म-चिंतन और स्व-परीक्षण के जरिए समस्याओं का पता लगाना चाहिए। दूसरी ओर, तुम्हें समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज भी करनी चाहिए और जब तुम भ्रष्ट स्वभावों का पता लगा लोगे तो तुम्हें उनका समाधान तुरंत करना होगा, देह के खिलाफ विद्रोह कर अपनी इच्छा का भी त्याग करना चाहिए। एक बार जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लोगे, तब तुम उनके वशीभूत होकर कार्य नहीं करोगे और तुम अपने इरादों और हितों का त्याग करने में सक्षम होगे और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकोगे। यही सत्य वास्तविकता है जो परमेश्वर के एक सच्चे अनुयायी में होना आवश्यक है। यदि तुम आत्म-चिंतन कर सकते हो, स्वयं को जान सकते हो, इस प्रकार अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोज सकते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है। परमेश्वर में विश्वास करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक होता है और इस प्रकार अभ्यास करने में सक्षम होना, परमेश्वर की सबसे बड़ी आशीष है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुम कलीसिया के कार्य की खातिर, परमेश्वर के घर के हितों के लिए और अपने भाई-बहनों के भले के लिए काम कर रहे हो; साथ ही, तुम सत्य का अभ्यास भी कर रहे हो। यही है वह चीज जिसे परमेश्वर स्वीकारता है; ये सब अच्छे कर्म हैं और इस तरह से सत्य का अभ्यास करके तुम परमेश्वर के लिए गवाही दे रहे हो। लेकिन यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, अगर तुममें और किसी अविश्वासी में कोई भेद नहीं है, अगर तुम चीजों को निपटाने के लिए अविश्वासियों के सिद्धांतों और उनके आचरण के तरीकों के अनुसार पेश आते हो तो क्या यह गवाही देना है? (नहीं।) इसका क्या दुष्परिणाम निकलेगा? (इससे परमेश्वर का अपमान होता है।) इससे परमेश्वर का अपमान होता है! तुमने ऐसा क्यों कहा कि इससे परमेश्वर का अपमान होता है? (क्योंकि परमेश्वर ने हमें चुना है, उसने बहुत से सत्य व्यक्त किए हैं, व्यक्तिगत तौर से हमें राह दिखाई है, हमें सत्य प्रदान किया है और हमारा सिंचन किया है, इसके बावजूद हम सत्य को नहीं स्वीकारते या इसका अभ्यास नहीं करते और अभी भी हम लोग शैतानी चीजों के हिसाब से जीते हैं और शैतान के सामने गवाही नहीं देते हैं। इससे परमेश्वर का अपमान होता है।) (यदि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति ने उसे इतने सारे सत्यों और अभ्यास के मार्गों के बारे में संगति करते सुना है और इसके बावजूद कार्य करते हुए वह अविश्वासियों के सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीवन जीता है और निहायत धोखेबाज और स्वार्थी है तो वह अविश्वासियों से भी ज्यादा बुरा और दुष्ट है।) तुम सभी इस बारे में थोड़ा तो समझ ही गए होगे। लोग परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, परमेश्वर जो भी देता है उसका आनंद उठाते हैं, इसके बावजूद भी वे शैतान का अनुसरण करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके सामने कैसी चीजें या कैसी कठिन परिस्थितियाँ आती हैं, वे तब भी परमेश्वर के वचनों पर ध्यान नहीं देते या परमेश्वर के प्रति स्वयं को समर्पित नहीं कर पाते हैं, वे सत्य नहीं खोजते और न ही अपनी गवाही में मजबूती से कायम रहते हैं। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? यह वाकई परमेश्वर से विश्वासघात है। जब परमेश्वर को तुम्हारी आवश्यकता होती है, तब तुम उसकी पुकार या उसके वचन नहीं सुनते, बल्कि अविश्वासियों की प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हो, शैतान की बात को ध्यान से सुनते हो, शैतान का अनुसरण करते हो और शैतान के तर्क, उसके सिद्धांतों और जीवन जीने के तरीकों के अनुसार अभ्यास करते हो। यह परमेश्वर से विश्वासघात है। क्या परमेश्वर से विश्वासघात करना ईशनिंदा और उसे अपमानित करना नहीं है? अदन के बगीचे में आदम और हव्वा की बातों पर ध्यान दो—परमेश्वर ने कहा था, “भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:17)। ये किसके वचन हैं? (परमेश्वर के वचन हैं।) क्या ये वचन साधारण हैं? (नहीं।) क्या हैं वे? वे सत्य हैं, लोगों को उनका पालन करना चाहिए और उसी तरीके से उनका अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्यों को बताया कि भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के साथ क्या करना चाहिए। अभ्यास का सिद्धांत इसके फल को नहीं खाना था और फिर उसने मनुष्यों को इसका परिणाम बताया—जिस दिन वे इसके फल को खा लेंगे, उस दिन उनकी मृत्यु अवश्य ही हो जाएगी। मनुष्यों को अभ्यास के सिद्धांत बताए गए और यह भी कि दांव पर उनका क्या लगा है। यह सब सुनने के बाद भी क्या उन्हें कुछ समझ आया था या नहीं? (वे समझ गए थे।) दरअसल, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को समझा, लेकिन बाद में साँप को यह कहते सुना, “परमेश्वर ने कहा कि जिस दिन तुम लोग उस वृक्ष का फल खाओगे उस दिन तुम अवश्य मर जाओगे, लेकिन यह जरूरी नहीं कि तुम मर ही जाओगे। तुम इसे आजमा सकते हो,” और फिर उस शैतान के बोलने के बाद उन्होंने उसके वचनों पर ध्यान दिया और फिर भले और बुरे के ज्ञान के उस वृक्ष का फल खा लिया। यह परमेश्वर से विश्वासघात था। उन्होंने परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देने और उसके अनुसार अभ्यास करने के विकल्प को नहीं चुना। उन्होंने परमेश्वर के आदेश का पालन नहीं किया, बल्कि शैतान के वचनों पर विश्वास करके उसे स्वीकारा और उसी के अनुसार कार्य किया। इसका क्या परिणाम था? उनके व्यवहार और दृष्टिकोण की प्रकृति परमेश्वर से विश्वासघात करने और उसका अपमान करने की थी, और इसके परिणामस्वरूप शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया और वे पतित हो गए। लोग अभी भी उस जमाने के आदम और हव्वा की तरह ही हैं। वे परमेश्वर के वचनों को सुनते तो हैं परन्तु उनका अभ्यास नहीं करते, यहाँ तक कि वे सत्य को समझकर भी उसका अभ्यास नहीं करते। इसकी प्रकृति आदम और हव्वा के जैसी ही है जिन्होंने न तो परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दिया और न ही उसकी आज्ञाओं का पालन किया—यह परमेश्वर से विश्वासघात और उसे अपमानित करना है। जब लोग परमेश्वर को धोखा देते या उसे अपमानित करते हैं, तो उसका नतीजा यह होता है कि शैतान उन्हें भ्रष्ट और अपने काबू में करता रहता है, और वे अपने शैतानी स्वभावों के द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसी कारण उन्हें कभी भी शैतान के प्रभाव से मुक्ति नहीं मिल पाती है और न ही वे शैतान के प्रलोभन, लालच, हमलों, छल-कपट, और उनके द्वारा निगले जाने से बच पाते हैं। यदि तुम्हें इन चीजों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता, तो तुम्हारा जीवन अत्यधिक कष्टकारी और परेशानी भरा होगा और न ही उसमें कोई शांति और आनंद होगा। तुम्हें हर चीज खोखली लगेगी और यहाँ तक कि तुम इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए स्वयं को खत्म करने का प्रयास भी करोगे। जो लोग शैतान की सत्ता के अधीन रहते हैं उनकी दयनीय स्थिति ऐसी ही है।
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