भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 54)

तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हो या किसी भी पेशे का अध्ययन कर रहे हो, तुम जितना ज्यादा अध्ययन करते हो, तुम्हें उतना कुशल बनना चाहिए, और पूर्णता हासिल करने का प्रयास करना चाहिए; तभी तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन निरंतर बेहतर होता जाएगा। कुछ लोग किसी भी कर्तव्य को करते वक्त सतर्क नहीं होते, और सामने आने वाली किसी भी मुश्किल का हल निकालने के लिए सत्य नहीं खोजते। वे हमेशा चाहते हैं कि दूसरे उनका मार्गदर्शन करें और उनकी मदद करें, वे इस हद तक चले जाते हैं कि दूसरों को उनका हाथ पकड़कर सिखाने और उनका काम करने के लिए भी कह देते हैं, अपनी तरफ से कोशिश ही नहीं करते। वे हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं और उनकी मदद के बिना कुछ नहीं कर सकते। वे ऐसा करते हैं इसलिए वे कचरा हैं, है ना? तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें चीजों का अध्ययन करने में अपना दिल लगाने की जरूरत है। अगर तुममें पेशेवर ज्ञान की कमी है, तो पेशेवर ज्ञान का अध्ययन करो। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो सत्य की तलाश करो। अगर तुम सत्य समझ लोगे और पेशेवर ज्ञान प्राप्त कर लोगे, तो तुम अपना कर्तव्य निभाते समय उनका उपयोग करने में सक्षम होगे और परिणाम प्राप्त करोगे। यह सच्ची प्रतिभा और वास्तविक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति है। अगर तुम अपने कर्तव्य के दौरान किसी पेशेवर ज्ञान का बिल्कुल भी अध्ययन नहीं करते, सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारे द्वारा किया गया परिश्रम भी अयोग्य होगा; तो, तुम अपना कर्तव्य निभाने की बात कैसे कह सकते हो? अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हें बहुत सारे उपयोगी ज्ञान का अध्ययन करना चाहिए और खुद को कई सत्यों से लैस करना चाहिए। तुम्हें कभी सीखना बंद नहीं करना चाहिए, कभी खोजना बंद नहीं करना चाहिए और कभी दूसरों से सीखकर अपनी कमजोरियाँ सुधारना बंद नहीं करना चाहिए। चाहे दूसरे लोगों की कुछ भी खूबियाँ हों, या वे किसी भी तरह से तुमसे अधिक मजबूत हों, तुम्हें उनसे सीखना चाहिए। और इससे भी बढ़कर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सीखना चाहिए, जो सत्य तुमसे बेहतर समझता हो। कई वर्षों तक इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से तुम सत्य समझोगे और उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश करोगे, और तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन भी अपेक्षित स्तर का होगा। तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे, जिसके पास सत्य और मानवता है, एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास सत्य वास्तविकता है। यह सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होता है। कोई कर्तव्य निभाए बिना तुम ऐसे नतीजे कैसे प्राप्त कर सकते हो? यह परमेश्वर का उत्कर्ष है। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते वक्त सत्य का अनुसरण नहीं करते और सिर्फ मजदूरी करके ही संतुष्ट हो जाते हो तो इसके क्या दुष्परिणाम निकलेंगे? एक तरह से देखें तो तुम अपने कर्तव्य पर्याप्त रूप से नहीं निभा पाओगे। दूसरे, तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवजन्य गवाहियों की कमी होगी और तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। इन दोनों संदर्भों में से एक में भी दिखाने के लिए कुछ नहीं होने पर क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकोगे? यह असंभव होगा। इसलिए व्यक्ति सिर्फ मजदूरी करने से संतुष्ट होकर परमेश्वर की स्वीकृति बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर सकता। यह सोचना कि तुम मात्र मजदूरी करके पुरस्कार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकते हो, सिर्फ ख्याली पुलाव है! यह किस तरह का रवैया है? मात्र मजदूरी करके आशीष प्राप्त करने की इच्छा रखना स्पष्ट रूप से परमेश्वर के साथ मोल-भाव करना है, परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास है। परमेश्वर ऐसे मजदूरों को स्वीकृति नहीं देता। कोई व्यक्ति किस स्वभाव के नियंत्रण में आकर अपने कर्तव्य निभाने में अनमना हो जाता है या धोखेबाजी में शामिल हो जाता है? अहंकार, हठ और सत्य से प्रेम नहीं करना—क्या वह इन चीजों के नियंत्रण में नहीं है? (बिल्कुल, है।) क्या तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ भी ऐसी हैं? (बिल्कुल, ऐसी ही हैं।) अक्सर, कभी-कभार या सिर्फ कुछ मामलों में? (अक्सर।) ऐसी स्थितियों को स्वीकार करने में तुम लोगों का रवैया काफी ईमानदार है, और तुम्हारे पास ईमानदार हृदय है, लेकिन सिर्फ उन्हें स्वीकार करना ही काफी नहीं है; इससे उनमें बदलाव नहीं आएगा। तो उन्हें बदलने के लिए क्या करना होगा? जब भी अपने कर्तव्य निभाते समय तुम अनमने हो जाओ, अहंकारी स्वभाव सामने आए या सम्मानरहित रवैया हो, तुम्हें तुरंत परमेश्वर के सामने आकर आत्मचिंतन कर यह पहचानना चाहिए कि तुम कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो। इससे भी ज्यादा, तुम्हें समझना होगा कि उस तरह का स्वभाव उत्पन्न कैसे होता है और इसे कैसे बदला जा सकता है। इसे समझने का मकसद बदलाव लाना है। तो बदलाव लाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? परमेश्वर के वचनों के न्याय और खुलासे के माध्यम से उन्हें यह जानना चाहिए कि उनके भ्रष्ट स्वभाव का सार क्या है—यह कितना भद्दा और पैशाचिक है, यह शैतान या राक्षसों से जरा भी अलग नहीं है। सिर्फ तभी वे खुद से और शैतान से नफरत कर सकते हैं; सिर्फ तभी वे खुद से और शैतान से विद्रोह कर सकते हैं। इसी तरह से सत्य को अभ्यास में लाया जा सकता है। जब कोई अपने हृदय को सत्य के अभ्यास में लगा देता है, तो उन्हें परमेश्वर की जाँच और उसके अनुशासन को भी स्वीकार करना होगा। उनकी तरफ से सक्रिय सहयोग का एक तत्व जरूर होना चाहिए। उन्हें कैसे सहयोग करना चाहिए? कोई भी कर्तव्य निभाते समय, जब किसी को विचार आए, “इतना बहुत है,” तो उसे इसे सुधारना चाहिए। किसी को ऐसे विचार मन में नहीं रखने चाहिए। जब कोई अहंकारी स्वभाव पैदा हो, तो परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारकर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए, परमेश्वर के वचन खोजने चाहिए, और उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह से, व्यक्ति पश्चाताप करने वाला हृदय प्राप्त करने में सक्षम होगा, और उसकी आंतरिक स्थिति बदल चुकी होगी। ऐसा करने का उदेश्य क्या है? इसका उदेश्य है कि तुम्हारे अंदर वास्तव में बदलाव हो, तुम वफादारी के साथ काम करने में सक्षम बनो, और बिना किसी शर्त के परमेश्वर की ओर से फटकार और उसके अनुशासन को स्वीकार करो और उसके लिए समर्पण करो। ऐसा करने में तुम्हारी दशा उलट जाएगी। जब तुम फिर से अनमने होने लगोगे और फिर से अपने कर्तव्यों को सम्मानरहित रवैये से देखने लगोगे तो अगर तुम तुरंत परमेश्वर के अनुशासन और फटकार की ओर मुड़ जाओ, तो क्या तुम एक अपराध करने से बच नहीं जाओगे? तुम्हारे जीवन के विकास के लिए यह एक अच्छी बात या बुरी बात है? यह एक अच्छी बात है। जब तुम सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को संतुष्ट करते हो, तुम्हारा हृदय सहज, आनंदित और पछतावे से रहित होता है। यह वास्तविक शांति और आनंद है।

जब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं तो उनके लिए परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करना आसान होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों को बचाने का काम करने के लिए आया है और उसने कई सत्य व्यक्त किए हैं; अब बात यह है कि क्या लोग इन सत्यों को स्वीकार सकते हैं। अगर कोई सत्य स्वीकार कर सकता है, तो उसका उद्धार हो सकता है। अगर वह सत्य को स्वीकार नहीं करता और परमेश्वर को नकार सकता है और धोखा दे सकता है, तो उसका सब खत्म हो जाता है—वह सिर्फ विपदा में नष्ट होने का इंतजार कर सकता है। इस नियति से कोई नहीं बच सकता। लोगों को इस तथ्य का सामना करना होगा। कुछ लोग कहते हैं, “मैं लगातार भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता रहता हूँ और मैं कभी नहीं बदल सकता। मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं ऐसा ही हूँ? क्या परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता? क्या वह मुझसे घृणा करता है?” क्या इस तरह का रवैया सही है? क्या इस तरह से सोचना ठीक है? (नहीं।) अगर किसी व्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो वह स्वाभाविक रूप से इन्हें प्रकट करेगा। वह उन्हें चाहते हुए भी दबा नहीं सकता, और इसलिए उसे लगता है कि उसके लिए कोई उम्मीद नहीं बची है। वास्तव में, ऐसा होना जरूरी नहीं है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है, या क्या वह परमेश्वर से उम्मीद रख सकता है और उसका आदर कर सकता है। लोगों का अक्सर भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करना यह साबित करता है कि उनका जीवन शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होता है, और उनका सार शैतान का ही सार है। लोगों को इस तथ्य को मानना और स्वीकार करना चाहिए। इंसान के प्रकृति-सार और परमेश्वर के सार के बीच अंतर होता है। इस तथ्य को स्वीकार करने के बाद उन्हें क्या करना चाहिए? जब लोग भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं; जब वे देह के भोगों में लिप्त होते और परमेश्वर से दूर हो जाते हैं; या जब परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है जो उनके अपने विचारों के विपरीत होता है, और उनके भीतर शिकायतें पैदा होती हैं, तो उन्हें तुरंत ही खुद को अवगत करा देना चाहिए कि यह कोई समस्या है, और भ्रष्ट स्वभाव है; यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, परमेश्वर का विरोध है; इसका सत्य के साथ मेल नहीं है, और परमेश्वर इससे घृणा करता है। जब लोगों को इन चीजों का एहसास होता है, तो उन्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए, या नकारात्मक होकर ढीला नहीं पड़ जाना चाहिए, और उन्हें परेशान तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए; इसके बजाय, उन्हें अधिक गहराई से खुद को जानने में सक्षम होना चाहिए। इसके अलावा, उन्हें अग्रसक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, और परमेश्वर की फटकार और अनुशासन को स्वीकार करना चाहिए, और उन्हें तुरंत अपनी स्थिति पलट देनी चाहिए, ताकि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हो जाएँ, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकें। इस तरह, परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता निरंतर सामान्य होता जाएगा, और साथ ही तुम्हारी अंदरूनी स्थिति भी। तुम भ्रष्ट स्वभावों, भ्रष्टता के सार, और शैतान की भिन्न कुरूप स्थितियों की पहचान एक बढ़ती स्पष्टता के साथ करने में सक्षम होगे। फिर तुम इस तरह की मूर्खतापूर्ण और बचकानी बातें नहीं करोगे जैसे कि “यह शैतान था जो मेरे साथ दखलंदाजी कर रहा था,” या “यह ख्याल शैतान ने मुझे दिया था।” इसके बजाय, तुम्हें भ्रष्ट स्वभावों के बारे में, परमेश्वर का विरोध करने वाले इंसानी सार और शैतान के सार के बारे में सटीक जानकारी होगी। तुम्हारे पास इन चीजों को हल करने का एक अधिक सटीक तरीका होगा, और ये चीजें तुम्हें विवश नहीं करेंगी। तुम इसलिए कमजोर नहीं होगे या परमेश्वर और उसके उद्धार में विश्वास नहीं गंवा दोगे क्योंकि तुमने अपना थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव दिखाया है, या अपराध किया है, या अनमनेपन से अपना कर्तव्य निभाया है, या क्योंकि तुम अक्सर खुद को निष्क्रिय, नकारात्मक स्थिति में पाते हो। तुम ऐसी दशाओं में नहीं रहोगे, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना करोगे, और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जी पाओगे। जब कोई भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करता है, तब अगर वह आत्मचिंतन कर सके, परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करे, सत्य खोजे, और अपने भ्रष्ट स्वभावों का सार इस तरह पहचाने और विश्लेषण करे, कि वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से और नियंत्रित और बाधित न हो, बल्कि सत्य का अभ्यास कर सके, तो वह उद्धार के मार्ग पर चल चुका होगा। इस तरह के अभ्यास और अनुभव के साथ, कोई भी अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर सकता है और शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकता है। तो क्या वह परमेश्वर के सामने नहीं रहने लगा है और उसने स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त नहीं कर ली है? यह सत्य का अभ्यास करने और सत्य को प्राप्त करने का मार्ग है, यही उद्धार का मार्ग भी है। मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभावों की जड़ें काफी गहरी हैं; शैतान का सार और उसकी प्रकृति लोगों के विचारों, व्यवहार और हृदय पर नियंत्रण करते हैं। हालाँकि, सत्य के सामने, परमेश्वर के कार्य के सामने और परमेश्वर के उद्धार के सामने यह सब फीका है; इससे कोई रुकावट नहीं आती। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, ना इससे कि उसे किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, ना इससे कि उसकी विवशताएँ क्या हैं, एक मार्ग है जिसे अपनाया जा सकता है, उन्हें हल करने की एक विधि है, और उनका समाधान करने के लिए संबंधित सत्य भी हैं। इस तरह से, क्या लोगों के उद्धार की उम्मीद नहीं है? हाँ, लोगों के उद्धार की उम्मीद है।

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