सत्य का अनुसरण कैसे करें (9) भाग चार

आगे पढ़ते हैं। परमेश्वर ने कहा था : “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” “प्रभुता करेगा” का क्या मतलब है? डंडे के बल पर शासन करना, महिलाओं को गुलाम बनाना, क्या इसका यही मतलब है? (नहीं।) तो इसका क्या मतलब है? (उसकी देखभाल करना और उसके लिए जिम्मेदार बनना।) “जिम्मेदारी” वाला विचार थोड़ा सही है। यह प्रभुता करना महिला द्वारा पुरुष को पाप करने के लिए लुभाने के मामले से संबंधित है। क्योंकि महिला ने पहले परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन किया और साँप के बहकावे में आई, फिर पुरुष को भी अपनी तरह परमेश्वर को धोखा देने के लिए बहकाया, तो परमेश्वर उससे थोड़ा गुस्सा हुआ, और इसलिए उसने उससे अपेक्षा रखी कि वह पहला कदम न उठाए, कुछ भी करने से पहले पुरुष की सलाह ले; उसके लिए पुरुष को मालिक बनने देना ही सबसे बेहतर होगा। तो क्या महिलाओं को मालिक बनने का अवसर दिया जाता है? उन्हें यह अवसर दिया जा सकता है। एक महिला अपने पुरुष साथी से परामर्श कर सकती है, और मालिक भी बन सकती है, मगर उसके लिए सबसे अच्छा यही है कि वह खुद फैसले न ले; उसे अपने पति से, अपने पुरुष साथी से परामर्श करना चाहिए। बड़े मामलों में अपने पति से सलाह लेना उसके लिए सबसे अच्छा है। एक महिला होने के नाते, तुम्हें न सिर्फ अपने पति का साथ देना होगा, बल्कि घरेलू मामलों को संभालने में भी अपने पति की मदद करनी होगी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि परिवार में और शादी में तुम्हारे पति को मालिक की भूमिका निभानी चाहिए, तो तुम्हें हर काम में पहले अपने पति की सलाह लेनी चाहिए। पुरुष और महिलाओं के बीच अंतर के कारण, महिलाएँ अपने विचारों, अपनी सहनशीलता, अपने परिप्रेक्ष्य या किसी भी प्रकार के बाहरी मामलों में पुरुषों से आगे नहीं हैं; बल्कि पुरुष महिलाओं से आगे हैं। तो, पुरुष और महिलाओं के बीच इस अंतर के आधार पर, परमेश्वर ने पुरुषों को विशेष अधिकार दिया है—परिवार में, पुरुष मालिक और महिला सहयोगी है। महिला को अपने पति की सहायता करनी होती है, या छोटे-बड़े मामले निपटाने में अपने पति का साथ देना होता है। मगर जब परमेश्वर ने कहा, “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” तो उसका मतलब यह नहीं था कि पुरुषों का दर्जा महिलाओं से ऊँचा है, या यह कि पुरुषों को पूरे समाज पर हावी होना चाहिए। ऐसा नहीं है। ऐसा कहते समय, परमेश्वर सिर्फ शादी के संबंध में बोल रहा था; वह सिर्फ परिवारों और छोटे-मोटे घरेलू मामलों के बारे में बात कर रहा था जिन्हें पुरुष और महिलाएँ संभालते हैं। जब छोटे-मोटे घरेलू मामलों की बात आती है, तो परमेश्वर यह नहीं चाहता कि पुरुष हर बात में महिला को नियंत्रित करे या उसके साथ जबरदस्ती करे; बल्कि, पुरुष को सक्रियता से अपने परिवार के बोझ और जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए, और साथ ही, उसे अपनी पत्नी का ध्यान भी रखना चाहिए, जो उसके मुकाबले कमजोर है, और उसे सही रास्ता दिखाना चाहिए। जैसा कि इस बात से देख सकते हैं, पुरुषों को कुछ विशेष जिम्मेदारियाँ दी गई हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष को सही-गलत के प्रमुख मामलों की जिम्मेदारी लेने में पहल करनी चाहिए; उसे महिला को आग के कुंड में नहीं धकेलना चाहिए, न तो उसे सामाजिक अपमान और धौंस सहने देना चाहिए और न ही दूसरों को उसे रौंदने देना चाहिए। पुरुष को यह जिम्मेदारी उठाने की पहल करनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के इन वचनों के कारण कि “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” वह महिला को डंडे की जोर पर नचा सकता है या उसे नियंत्रित कर सकता है या उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने के लिए उसे गुलाम बना सकता है। शादी की पूर्व शर्तों और संरचना के तहत, परमेश्वर के सामने पुरुष और महिला बराबर हैं; बात बस इतनी है कि पुरुष पति है और परमेश्वर ने उसे यह अधिकार और जिम्मेदारी दी है। यह महज एक तरह की जिम्मेदारी है, कोई विशेष अधिकार नहीं, और न ही यह किसी महिला को एक इंसान से कमतर मानने का कोई कारण है। तुम दोनों बराबर हो। पुरुष और महिला दोनों को परमेश्वर ने बनाया है, बात सिर्फ इतनी है कि पुरुष से एक विशेष अपेक्षा होती है कि एक ओर तो उसे परिवार के बोझ और जिम्मेदारियाँ उठानी होगी, और दूसरी ओर, बड़े मामले सामने आने पर, पुरुष को साहस के साथ आगे बढ़कर उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना होगा जो उसे एक पुरुष, एक पति होने के नाते निभाने चाहिए—यानी पत्नी की रक्षा करना, अपनी पत्नी को उन चीजों को करने या बोलने से रोकने की भरसक कोशिश करना जो महिला को नहीं करनी चाहिए, उसे कठिनाई से बचाना चाहिए, उसे ऐसी पीड़ा सहने से बचाना जो पत्नी को नहीं सहनी चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना दर्जा ऊँचा करने के लिए, अच्छा जीवन जीने और अमीर बनने के लिए, शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के लिए और इसलिए कि दूसरे उनके बारे में ऊँची राय रखें, कुछ पुरुष अपनी पत्नियों को रखैल या प्रेमिका के रूप में अपने मालिकों को सौंप देते हैं, अपनी पत्नियों की देह से वेश्यावृत्ति करवाते हैं। अपनी पत्नियों को बेचने के बाद, जब उनका लक्ष्य पूरा हो जाता है, तो वे अपनी पत्नी को अहमियत देना बंद कर देते हैं और उसे नहीं चाहते। यह कैसा पुरुष है? क्या ऐसे पुरुष मौजूद नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या यह पुरुष दानव के समान नहीं है? (बिल्कुल है।) तुम्हारे लिए एक महिला पर शासन करने का मकसद अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना और उसकी रक्षा करना है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शारीरिक लिंग की दृष्टि से, पुरुष विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, स्तरों और चीजों के प्रति अंतर्दृष्टि में महिलाओं से आगे हैं; यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता। तो, यह देखते हुए कि परमेश्वर ने महिला को पुरुष के हाथों यह कहते हुए सौंपा है कि “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” जो जिम्मेदारी एक पुरुष को वहन करनी चाहिए वह यह है कि उसे परिवार का बोझ उठाना चाहिए, या गंभीर चीजें होने पर अपनी पत्नी की रक्षा करनी और उसे सँजोना चाहिए, उसके साथ सहानुभूति रखनी और उसे समझना चाहिए; साथ ही, उसे प्रलोभन में न पड़ने देकर उन जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए जो एक पति और पुरुष को निभानी चाहिए। इस तरह, परिवार में और शादी की संरचना में, तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करोगे जो तुम्हें पूरे करने चाहिए, और अपनी पत्नी को यह एहसास कराओगे कि तुम उसके भरोसे के लायक हो, तुम ही वह व्यक्ति हो जिसके साथ वह अपना जीवन बिताएगी, तुम विश्वसनीय हो, और तुम्हारा कंधा भरोसेमंद है। जब तुम्हारी पत्नी तुम पर भरोसा करती है, जब उसे कुछ गंभीर मामलों से निपटने के लिए फैसला लेने में तुम्हारी यानी अपने पति की आवश्यकता होती है, तो तुम यह नहीं चाहते कि तुम सोते रहो, शराब पीते रहो या जुआ खेलते रहो या कहीं सड़कों पर घूमते फिरो। यह सब अस्वीकार्य है; यह कायरता है। तुम अच्छे आदमी नहीं हो; तुमने वे जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं जो तुम्हें निभानी चाहिए। एक पुरुष होकर अगर हर बड़े मामले में तुम्हें हमेशा यही जरूरत रहती है कि तुम्हारी पत्नी आगे आए, और अगर तुम उसे, जिसकी भूमिका पुरुष के मुकाबले नाजुक है, आग के कुंड की ओर धकेल रहे हो, उस तरह धकेल रहे हो जहाँ हवा और लहरें सबसे तेज हैं, उसे विभिन्न प्रकार के जटिल मामलों के भँवर की ओर धकेल रहे हो, तो यह एक अच्छे पुरुष का व्यवहार नहीं है, और न ही एक अच्छे पति को इस तरह से व्यवहार करना चाहिए। तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी नहीं है कि वह बस तुम्हारी लालसा रखे, तुम्हारा साथ दे, और अच्छी तरह से जीवन जीने में तुम्हारा सहयोग करे; यह सिर्फ इतना ही नहीं है, तुम्हें वह जिम्मेदारी भी निभानी होगी जो तुम्हें निभानी चाहिए। उसने तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं—क्या तुमने उसके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं? उसे अच्छा भोजन देना, पहनने के लिए गर्म कपड़े देना और उसके दिल को सुकून पहुँचाना ही काफी नहीं है; इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि विभिन्न बड़े मामलों और सही-गलत के विवादों में, तुम्हें हर चीज से निपटने में सटीक, सही और उचित रूप से उसकी मदद करने में सक्षम होना चाहिए, उसे हर चिंता से दूर रखना चाहिए, ताकि वह तुमसे वास्तविक लाभ पाने और यह देखने में सक्षम हो कि तुम वे सभी जिम्मेदारियाँ निभाते हो जो एक पति को निभानी चाहिए। एक महिला शादी में इन्हीं बातों से खुश रहती है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) तुम्हारी बातें कितनी ही मीठी हों या तुम उसका मन कितना भी मोह लो या तुम उसके साथ कितना भी रहो, अगर बड़े मामलों में तुम्हारी पत्नी तुम पर निर्भर नहीं हो सकती या तुम पर भरोसा नहीं कर सकती, अगर तुम वे जिम्मेदारियाँ नहीं उठाते जो तुम्हें उठानी चाहिए, बल्कि एक नाजुक महिला को आगे आने और अपमान सहने, या किसी पीड़ा को सहन करने देते हो, तो ऐसी महिला कभी भी खुश नहीं रहेगी और उसे तुममें कोई उम्मीद नहीं दिखेगी। तो, जो महिला किसी ऐसे पुरुष से शादी करेगी, वह अपनी शादी में बदकिस्मत महसूस करेगी, और उसके भविष्य के दिन और जीवन आशाहीन और प्रकाशहीन होंगे, क्योंकि उसने एक गैर-भरोसेमंद आदमी से शादी की, एक ऐसा आदमी जो अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाता, जो बुजदिल, निकम्मा और कायर है; ऐसे आदमी से उसे कोई खुशी महसूस नहीं होगी। इसलिए, पुरुषों को अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी होंगी। एक ओर, यह इंसानों से की गई अपेक्षा है, और दूसरी ओर—और अधिक महत्वपूर्ण रूप से—उन्हें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। यह वह जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व है जो परमेश्वर ने शादी में हरेक पुरुष को सौंपा है। इसलिए, मैं महिलाओं से कहता हूँ : अगर तुम शादी करना चाहती हो और अपना जीवनसाथी ढूँढ़ना चाहती हो, तो कम से कम, तुम्हें पहले यह देखना होगा कि वह पुरुष भरोसेमंद है या नहीं। उसका रूप-रंग, उसकी लंबाई, उसका डिप्लोमा, वह अमीर है या नहीं, और क्या वह बहुत पैसा कमाता है, यह सब बाद की चीजें हैं। मुख्य बात यह देखना है कि इस व्यक्ति में मानवता और जिम्मेदारी की भावना है या नहीं, उसके कंधे चौड़े और मोटे हैं या नहीं, और जब तुम उसका सहारा लोगी, तो क्या वह गिर जाएगा या तुम्हें संभालने में सक्षम होगा, और क्या वह भरोसेमंद है। सटीक रूप से कहें, तो यह देखना चाहिए कि क्या वह परमेश्वर के बताए अनुसार एक पति की जिम्मेदारियाँ निभा सकता है, क्या वह सचमुच ऐसा व्यक्ति है; परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलने की बात तो दूर रही, कम-से-कम उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसके पास परमेश्वर की नजरों में मानवता हो। जब दो लोग साथ रहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अमीर हैं या गरीब, उनकी जीवन की गुणवत्ता कैसी है, उनके घर में क्या है, या उनके चरित्र आपस में मेल खाते हैं या नहीं; जिस पुरुष से तुम शादी कर रही हो उसे कम से कम, तुम्हारे प्रति अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए, तुम्हारे प्रति जिम्मेदारी की भावना रखनी चाहिए, और तुम्हें अपने दिल में बसाना चाहिए। चाहे वह तुम्हें पसंद करे या तुमसे प्यार करे, कम से कम, उसे तुम्हें अपने दिल में रखना चाहिए, ताकि वह उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर सके जो उसे शादी की संरचना में निभानी चाहिए। तभी तुम्हारा जीवन आनंदमय होगा, तुम्हारे दिन सुखमय होंगे, और तुम्हारे भविष्य का मार्ग धुंधला नहीं होगा। जिस पुरुष से महिला शादी करती है अगर उस पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता, और कुछ भी होने पर भाग खड़ा होता है या छिप जाता है, और कुछ भी गलत नहीं होने पर वह डींगें हाँकता और शेखी बघारता है, मानो कि उसके पास बहुत कौशल है, वह मर्दाना और ओजस्वी है, मगर फिर जब कुछ होता है तो वह डरपोक बन जाता है; ऐसे में क्या तुम्हें लगता है कि वह महिला परेशान होगी? (बिल्कुल होगी।) क्या वह खुश होगी? (नहीं।) एक सभ्य, अच्छी महिला सोचेगी : “मैं हमेशा उसकी देखभाल करती हूँ और उसे संजोती हूँ, एक पत्नी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए, मैं कुछ भी सहने को तैयार रहती हूँ, मगर मुझे इस आदमी के साथ कोई भविष्य नजर नहीं आता।” क्या ऐसी शादी दर्दनाक नहीं है? क्या महिला को महसूस होने वाला यह दर्द उसके पति यानी उसके आधे हिस्से से संबंधित नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह पुरुष की जिम्मेदारी है? (हाँ।) पुरुष को आत्मचिंतन करना चाहिए। वह हमेशा यह शिकायत नहीं कर सकता कि महिला नुक्स निकालती है, उसे बड़बड़ाना और बात का बतंगड़ बनाना पसंद है। दोनों पक्षों को आपस में इस बात पर विचार करना होगा कि वे अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं या नहीं, और क्या वे परमेश्वर के वचन सुनकर ऐसा करते हैं। अगर वे उन्हें पूरा नहीं कर रहे, तो उन्हें तुरंत बदलाव लाना चाहिए, जल्दी से खुद को ठीक करके समस्या का समाधान करना चाहिए; अभी बहुत देर नहीं हुई है। क्या यह आचरण करने का एक अच्छा तरीका है? (बिल्कुल।)

अब आगे पढ़ते हैं। इसके बाद परमेश्वर का आदम यानी मानवजाति के पहले पूर्वज को दिया गया एक और आदेश है। परमेश्वर ने कहा था : “तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा; और वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा; और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा” (उत्पत्ति 3:17-19)। यह अंश मुख्य रूप से पुरुषों के लिए परमेश्वर का आदेश है। परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, क्योंकि परमेश्वर ने पुरुषों को एक आदेश दिया है, तो उसका आदेश वे दायित्व और कार्य हैं जिन्हें उन्हें शादी की संरचना और परिवार में रहकर पूरे करने होंगे। परमेश्वर चाहता है कि शादी के बाद पुरुष परिवार की आजीविका को बनाए रखे, यानी उन्हें अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए जीवन भर कड़ी मेहनत करनी होगी। पुरुषों को अपनी आजीविका बनाए रखनी पड़ती है, तो उन्हें मेहनत करनी होगी; आज की भाषा में कहें, तो उन्हें पैसा कमाने के लिए नौकरी पाना और काम करना होगा, या खेत में अनाज उगाना होगा और परिवार की आजीविका बनाए रखने के लिए खेती करनी होगी। पूरे परिवार का भरण-पोषण करने, अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए पुरुषों को कड़ी मेहनत और परिश्रम करना पड़ता है। यह पतियों यानी पुरुषों के लिए परमेश्वर का आदेश है; यह उनकी जिम्मेदारी है। तो शादी की संरचना में, पुरुष इस बात पर जोर नहीं दे सकते : “आह, मेरा स्वास्थ्य खराब है!” “आज के समाज में काम मिलना मुश्किल है, मैं बहुत परेशान हूँ!” “मैं अपने माँ-बाप के लाड़-प्यार में बड़ा हुआ, मैं कोई नौकरी नहीं कर सकता!” अगर तुम कोई नौकरी ही नहीं कर सकते तो तुमने शादी क्यों की? अगर तुम एक परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकते, और तुम्हारे पास एक पूरे परिवार की आजीविका का जिम्मा उठाने के लिए श्रम करने की क्षमता नहीं है, तो तुमने शादी क्यों की? यह कहना गैर-जिम्मेदारी की बात है। एक ओर, परमेश्वर चाहता है कि पुरुष परिश्रम से काम करें, और दूसरी ओर, वह चाहता है कि वे धरती से अनाज उगाने के लिए मेहनत करें। बेशक, आजकल वह इस बात पर जोर नहीं देता कि तुम धरती से अनाज उगाने के लिए खेती करो, मगर मेहनत करना तो जरूरी है। इसीलिए पुरुष का शरीर इतना हट्टा-कट्टा और मजबूत होता है, जबकि महिला का शरीर अपेक्षाकृत कमजोर होता है; वे अलग हैं। परमेश्वर ने पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग शरीर बनाए। प्राकृतिक तौर पर, पुरुष को अपने परिवार की आजीविका चलाने के लिए, परिवार को सहारा देने के लिए मेहनत और कार्य करना चाहिए; यही उसकी भूमिका है, वह परिवार की मुख्य ताकत है। वहीं दूसरी ओर, परमेश्वर ने महिला को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है। तो क्या महिला उन कर्मों का फल पा सकती है जो उसने नहीं किए हैं, क्या वह बिना कुछ किए बना-बनाया भोजन मिलने की प्रतीक्षा कर सकती है? यह भी सही नहीं है। भले ही परमेश्वर ने महिला को परिवार की आजीविका बनाए रखने का आदेश नहीं दिया है, मगर वह यूँ ही खाली नहीं बैठ सकती। ऐसा मत सोचो क्योंकि परमेश्वर ने महिलाओं को यह आदेश नहीं दिया है तो उन्हें इस मामले में कुछ नहीं करना है। ऐसा नहीं है। महिलाओं को भी अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी; उन्हें परिवार की आजीविका बनाए रखने में अपने पतियों की सहायता करनी चाहिए। महिला को न सिर्फ एक भागीदार बनना होगा—साथ ही, उसे परिवार में अपने पति की जिम्मेदारियों और मकसद को पूरा करने में उसकी मदद भी करनी होगी। वह सिर्फ किनारे में खड़े होकर देखती नहीं रह सकती, अपने पति का मजाक नहीं उड़ा सकती, न ही वह बना-बनाया भोजन मिलने की प्रतीक्षा कर सकती है। उन दोनों को आपस में तालमेल बिठाने की जरूरत है। इस तरह, पुरुषों और महिलाओं को जो दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए वे सभी पूरी हो जाएँगी, और अच्छी तरह से होंगी।

आगे पढ़ते हैं। परमेश्वर ने कहा : “वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा।” देखा तुमने, परमेश्वर ने पुरुषों को मेहनत करने के अलावा, कुछ अन्य बोझ उठाने को भी दिए हैं; सिर्फ मेहनत करना ही काफी नहीं है, खेतों में जंगली घास भी उगती है जो तुम्हें निकालनी होगी। यानी अगर तुम किसान हो, तो तुम्हें पौधे रोपने के अलावा भी कुछ काम करने होंगे। तुम्हें जंगली घास भी निकालनी होगी, तुम खाली नहीं बैठ सकते; तुम्हें अपने परिवार की आजीविका बनाए रखने के लिए पर्याप्त मेहनत करनी होगी, जैसा कि परमेश्वर ने कहा है : “अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा।” इस कथन का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि पुरुषों को उनकी मेहनत के अलावा कुछ और बोझ भी दिया जाता है। कब तक? “अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा।” तुम्हारी आखिरी साँस तक, जब तुम्हारे जीवन का सफर पूरा हो जाएगा; तब तुम्हें इस तरह काम नहीं करना पड़ेगा, और तुम्हारी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाएँगी। यह परमेश्वर का पुरुषों को दिया गया निर्देश है, यह परमेश्वर का पुरुषों को दिया गया आदेश और साथ ही एक जिम्मेदारी और बोझ भी है। चाहे तुम इसके लिए इच्छुक हो या नहीं, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और तुम इससे नहीं भाग सकते। तो, पूरे समाज या संपूर्ण मानवजाति में, चाहे कोई इसे व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखे या वस्तुपरक दृष्टिकोण से, पुरुषों को महिलाओं की तुलना में पृथ्वी पर अपने अस्तित्व के लिए अधिक तनाव झेलना होता है, जो निश्चित रूप से परमेश्वर के विधान और आयोजन का नतीजा है। इस मामले में, पुरुषों को इसे परमेश्वर से स्वीकारना होगा और उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना होगा जो उन्हें निभाने चाहिए; विशेष रूप से, शादी की संरचना में ऐसे लोग जिनके परिवार और पति या पत्नी हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियों से भागने या उन्हें ठुकराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीवन बहुत कठिन, कड़वा या थकाऊ है। अगर तुम कहते हो, “मैं यह जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहता, और मैं मेहनत नहीं करना चाहता,” तो तुम शादी से पीछे हटने या शादी को ठुकराने का फैसला कर सकते हो। तो, शादी करने से पहले, तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए और स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि वे कौन सी जिम्मेदारियाँ हैं जो परमेश्वर एक शादीशुदा पुरुष से अपने ऊपर लेने की अपेक्षा करता है, तुम उन्हें पूरा कर सकते हो या नहीं, तुम उन्हें अच्छी तरह से निभा सकते हो या नहीं, तुम अपनी भूमिका ठीक से निभा सकते हो या नहीं, क्या तुम परमेश्वर के आदेश का पालन कर सकते हो, और क्या तुम परिवार की उन जिम्मेदारियों का बोझ उठा सकते हो जो परमेश्वर तुम्हें देगा। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास यह सब अच्छी तरह से करने की आस्था नहीं है या अगर तुम यह सब करने के इच्छुक नहीं हो—अगर तुम यह नहीं करना चाहते—अगर तुम इस जिम्मेदारी और दायित्व से इनकार करते हो, परिवार के भीतर और शादी की संरचना में कोई बोझ उठाने से इनकार करते हो, तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। पुरुष और महिला दोनों के लिए, शादी का मतलब है जिम्मेदारियाँ और बोझ उठाना; यह कोई मामूली बात नहीं है। भले ही यह पवित्र चीज नहीं है, मेरी समझ में, कम से कम यह गंभीर तो जरूर है, और लोगों को इसके प्रति अपना रवैया सुधारना चाहिए। शादी दैहिक वासनाओं से खेलने के लिए नहीं है, न ही यह अपनी क्षणिक भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने के लिए है, अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है; और बेशक, इससे भी बढ़कर, यह इस बात की पुष्टि और सत्यापन है कि किसी पुरुष या महिला में शादी की जिम्मेदारियाँ उठाने की क्षमता और आस्था है या नहीं। अगर तुम नहीं जानते कि तुममें शादी की जिम्मेदारियों और दायित्वों को उठाने की क्षमता है या नहीं, अगर तुम इन चीजों से पूरी तरह अनजान हो, या अगर तुम शादी ही नहीं करना चाहते—या अगर तुम्हें इस विचार से भी चिढ़ है—अगर तुम पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियों और दायित्वों को नहीं उठाना चाहते, फिर चाहे वे छोटे-मोटे मामले हों या बड़े, और तुम अकेले रहना चाहते हो—“परमेश्वर ने कहा था कि अकेले रहना ठीक नहीं है, पर मुझे लगता है कि अकेले रहना बहुत अच्छा है”—तब तुम शादी को ठुकरा सकते या अपनी शादी को छोड़ भी सकते हो। यह अलग-अलग व्यक्ति के मामले में भिन्न होता है, और हरेक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से फैसला कर सकता है। मगर, चाहे तुम कुछ भी कहो, अगर तुम मानवजाति की सबसे पहली शादी के संबंध में बाइबल में मौजूद परमेश्वर के कथनों और विधानों को देखोगे, तो तुम्हें पता चलेगा कि शादी कोई खेल नहीं है, न ही कोई मामूली बात है; बेशक यह वह कब्र तो कतई नहीं है, जैसा कि लोग इसके बारे में कहते हैं। शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित है। मनुष्य की शुरुआत से ही, परमेश्वर ने इसे निर्धारित और व्यवस्थित किया है। तो वे सांसारिक कहावतें—“शादी एक कब्र है,” “शादी ऐसा शहर है जिसकी घेराबंदी की गई है,” “शादी एक त्रासदी है,” “शादी एक आपदा है,” वगैरह—क्या इन बातों में कोई दम है? (नहीं।) इन बातों में कोई दम नहीं है। शादी को बिगाड़ने, भ्रष्ट करने और कलंकित करने के बाद भ्रष्ट मानवजाति की शादी के बारे में यही समझ है। उचित शादी को बिगाड़ने, भ्रष्ट करने और कलंकित करने के बाद, वे इसकी आलोचना भी करते हैं, कुछ अनुचित भ्रांतियाँ बोलते हैं, शैतानी बातें फैलाते हैं, जिसकी वजह से, परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी गुमराह हो जाते हैं, इसलिए शादी के बारे में उनके दृष्टिकोण भी गलत और असामान्य होते हैं। क्या तुम लोगों को भी गुमराह और भ्रष्ट किया गया है? (हाँ।) फिर हमारी संगति से, जब तुम्हें शादी की सटीक और सही समझ मिल जाती है, तब अगर कोई तुमसे दोबारा पूछे, “क्या तुम जानते हो कि शादी क्या है?” तो क्या तब भी तुम यही कहोगे, “शादी एक कब्र है”? (नहीं।) क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्या तुम्हें ऐसा कहना चाहिए? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित है, तो मनुष्यों को इसके प्रति सही रवैया रखना चाहिए। अगर लोग “शादी एक कब्र है” कहते हुए मनमर्जी से काम करते हैं, अपनी वासनाओं में लिप्त रहते हैं, व्यभिचार करते हुए प्रतिकूल नतीजे लाते हैं, तो मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि वे अपनी कब्र खुद खोद रहे हैं और अपने लिए ही मुसीबत खड़ी कर रहे हैं; वे शिकायत नहीं कर सकते। इसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा ही है न? यह कहना कि शादी एक कब्र है, शैतान का शादी और एक सकारात्मक मामले को तोड़ना-मरोड़ना और उसकी निंदा करना है। कोई चीज जितनी ज्यादा सकारात्मक होती है, उतना ही ज्यादा शैतान और भ्रष्ट मानवजाति उसे तोड़-मरोड़कर किसी बुरी चीज में बदल देती है। क्या यह दुष्टता नहीं है? अगर कोई व्यक्ति पाप में जीता है, व्यभिचार और प्रेम त्रिकोणों में उलझा रहता है, तो लोग ऐसा क्यों नहीं कहते? अगर कोई व्यक्ति विवाहेतर संबंध रखता है, तो लोग उसके बारे में क्यों नहीं कहते? उचित शादी न तो विवाहेतर संबंध है, और न ही स्वच्छंद संभोग करना है, यह शारीरिक वासनाओं की संतुष्टि नहीं है, न ही यह कोई मामूली बात है; बेशक यह कब्र तो कतई नहीं है। यह एक सकारात्मक चीज है। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए शादी निर्धारित और आयोजित की है, और उसने इसके संबंध में आदेश सौंपे हैं और आज्ञाएँ दी हैं; बेशक, उसने आदेश देकर शादी में दोनों पक्षों को जिम्मेदारियाँ और दायित्व भी सौंपे हैं; साथ ही, शादी क्या होती है इसके बारे में अपने कथन भी दिए हैं। शादी सिर्फ एक पुरुष और एक महिला के बीच ही हो सकती है। बाइबल में, क्या परमेश्वर ने एक आदमी बनाया, फिर दूसरा आदमी बनाया, और फिर उनकी शादी कर दी? नहीं, दो पुरुषों या दो महिलाओं के बीच कोई समलैंगिक शादी नहीं होती है। शादी सिर्फ एक पुरुष और महिला के बीच होती है। शादी में एक पुरुष और एक महिला शामिल होते हैं, जो न केवल भागीदार होते हैं, बल्कि सहयोगी भी होते हैं, जो एक-दूसरे का साथ देते हैं, एक-दूसरे की देखभाल करते हैं और परस्पर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं; वे अच्छी तरह से रहते हैं और अपने जीवन पथ पर एक-दूसरे का ठीक से साथ देते हैं, जीवन के हर कठिन मोड़ पर, हर अलग और विशेष दौर में एक-दूसरे का साथ देते हैं; और बेशक, वे सामान्य वक्त भी साथ गुजारते हैं। यही वह जिम्मेदारी है जिसे शादी में दोनों पक्षों को अपने ऊपर लेनी चाहिए, और यह वह चीज भी है जो परमेश्वर उन्हें सौंपता है। परमेश्वर ने उन्हें क्या सौंपा है? वो सिद्धांत सौंपे हैं जिनका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। तो, शादी करने वाले हर व्यक्ति के लिए शादी सार्थक है। इसका तुम्हारे निजी अनुभव और ज्ञान के साथ-साथ तुम्हारी मानवता के विकास, परिपक्वता और पूर्णता पर पूरक प्रभाव पड़ता है। वहीं दूसरी ओर, अगर तुमने शादी नहीं की है, और सिर्फ अपने माँ-बाप के साथ रहते हो, या जीवन भर अकेले रहते हो, या अगर तुम्हारी शादी सामान्य नहीं है, ऐसी शादी है जो अनैतिक है और परमेश्वर द्वारा निर्धारित नहीं है, तब तुम जो अनुभव करोगे वह जीवन अनुभव, ज्ञान या सामना नहीं होगा, न ही यह उस मानवता का विकास, परिपक्वता और पूर्णता होगी जो तुम्हें एक उचित शादी से मिलती। शादी में, दो लोग आपस में साथ देने और एक-दूसरे को सहारा देने के अनुभव के अलावा, बेशक जीवन में आने वाली असहमतियों, विवादों और विरोधाभासों का भी अनुभव करते हैं। साथ ही, वे बच्चों को जन्म देने का दर्द, बच्चों को शिक्षित करने और उनका पालन-पोषण करने, अपने बुजुर्गों की देखभाल करने, अगली पीढ़ी को बड़े होते देखने, अगली पीढ़ी को अपनी तरह ही शादी करते और बच्चे पैदा करते हुए देखने का अनुभव करते हैं, जिसमें सब कुछ पहले की तरह दोहराया जाता है। इस तरह, लोगों के जीवन का अनुभव, ज्ञान या जिन चीजों का वे सामना करते हैं वह काफी समृद्ध और विविधतापूर्ण होता है, है न? (बिल्कुल।) अगर तुमने परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, परमेश्वर के कार्य, वचनों, न्याय और ताड़ना को स्वीकारने से पहले ऐसा अनुभव किया था, और इसके अलावा, अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसकी आराधना और अनुसरण करने में सक्षम थे, तो तुम्हारा जीवन ज्यादातर लोगों की तुलना में थोड़ा अधिक प्रचुर होगा; तुम्हारा अनुभव और व्यक्तिगत समझ थोड़ी ज्यादा होगी। बेशक, मैं जिन चीजों के बारे में बात कर रहा हूँ वे सब इस धारणा पर आधारित हैं कि परमेश्वर द्वारा नियत की गई शादी की संरचना के तहत तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को, पुरुष-महिला की जिम्मेदारियों और दायित्वों को और पति-पत्नी की जिम्मेदारियों और दायित्वों को ईमानदारी से निभाना चाहिए। ये ऐसी चीजें हैं जो की जानी चाहिए। अगर तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को नहीं निभाते हो, तो तुम्हारी शादी खराब हो जाएगी, यह विफल हो जाएगी, और आखिर में, तुम्हारी शादी टूट जाएगी। तुम एक टूटी हुई, असफल शादी का अनुभव करोगे; साथ ही, शादी तुम्हारे लिए मुसीबतें, उलझनें, पीड़ा और अशांति लाएगी। अगर शादी करने वाले दोनों पक्ष पहल नहीं कर सकते और व्यक्तिगत रूप से अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा नहीं कर सकते हैं, तो वे एक-दूसरे से बहस करेंगे और एक-दूसरे की बात काटेंगे। समय के साथ, उनके बीच बहस बढ़ती चली जाएगी, उनके विरोधाभास अधिक गहरे होते जाएँगे, और उनकी शादी में दरारें दिखाई देने लगेंगी; जब दरारें ज्यादा समय तक रहेंगी, तो वे अपनी टूटी हुई शादी के दर्पण को दोबारा जोड़ नहीं पाएँगे, और ऐसी शादी यकीनन टूटने के कगार पर, विनाश की ओर अग्रसर होगी—ऐसी शादी यकीनन विफल हो जाती है। तो तुम्हारे परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर ने जो शादी निर्धारित की है वह तुम्हारी इच्छाओं के अनुसार नहीं है, और तुम इसे अनुपयुक्त मानते हो। तुम ऐसा क्यों सोचते हो? क्योंकि शादी की संरचना में, तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और आदेशों के अनुसार कुछ भी नहीं करते; तुम स्वार्थी ढंग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने, अपनी प्राथमिकताओं और इच्छाओं के साथ-साथ अपनी कल्पना को साकार करने की कोशिश करते हो। तुम अपने आप को रोकते नहीं हो या अपने साथी की ओर से बदलाव नहीं करते, न ही कोई दर्द सहते हो; बल्कि, तुम बस अपने बहानों, अपने लाभ और प्राथमिकताओं पर जोर देते हो, और तुम कभी भी अपने साथी के बारे में नहीं सोचते। आखिर में क्या होगा? तुम्हारी शादी टूट जाएगी। शादी लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के कारण टूटती है। लोग बहुत स्वार्थी होते हैं, तो पति-पत्नी भी, जिन्हें एक होना चाहिए, एक साथ सामंजस्य बनाकर रहने में असमर्थ होते हैं, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने, एक-दूसरे को समझने, दिलासा देने और स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, या एक-दूसरे के लिए चीजों को बदलने और त्यागने में भी असमर्थ होते हैं। तुम देख सकते हो कि मानवजाति कितनी भ्रष्ट हो गई है। शादी लोगों के आचरण को संयमित नहीं कर सकती, न ही यह लोगों को उनकी स्वार्थी इच्छाओं को त्यागने के लिए मजबूर कर सकती है; तो समाज से ऐसे कोई नैतिक सिद्धांत या अच्छी प्रथाएं नहीं मिलती हैं जो लोगों को बेहतर बना सके, या जो उनकी अंतरात्मा और विवेक को बनाए रख सके। इसलिए, जब शादी की बात आए, तो लोगों को इसे उस तरह से जानना चाहिए जैसे परमेश्वर ने सबसे पहले मनुष्य के लिए शादी निर्धारित की थी। बेशक, उन्हें इस मामले को परमेश्वर से भी समझना चाहिए। इन बातों को परमेश्वर से समझना ही शुद्ध है, और जब लोग यह सब समझने में सक्षम होंगे, तो जिस कोण और नजरिये से वे शादी को देखेंगे वह सही होगा। शादी के बारे में उनका कोण और नजरिया सिर्फ इसलिए सही नहीं होना चाहिए ताकि वे शादी की अवधारणा और सही परिभाषा को जानें; बल्कि इसलिए भी कि शादी से सामना होने पर लोगों के पास अभ्यास का उचित, सही, सटीक, और तर्कपूर्ण तरीका हो, ताकि वे शादी के प्रति अपने रवैये में शैतान या संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों के विभिन्न विचारों से गुमराह न हों। जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों के आधार पर शादी का चयन करते हो, तो तुममें से जो महिलाएँ हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से यह देखना चाहिए कि क्या उनका साथी उस प्रकार का व्यक्ति है जो एक पुरुष की उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करने में सक्षम होगा, जैसा कि परमेश्वर ने बताया है, क्या वह इस लायक है कि वे उसे अपना पूरा जीवन सौंप सकें। तुममें से जो पुरुष हैं, उन्हें स्पष्टता से यह देखना होगा कि वह महिला उस प्रकार की इंसान है या नहीं जो पारिवारिक जीवन और अपने पति की खातिर अपने लाभ को अलग रखने, अपनी कमियों और खामियों को बदलने में सक्षम है। तुम्हें इन सभी बातों और इसके अलावा भी कई बातों पर विचार करना चाहिए। अपनी कल्पना या क्षणिक रुचियों या शौक पर भरोसा मत करो; आँखें मूंदकर शादी का चयन करने के लिए प्रेम और रूमानियत के उन गलत विचारों पर तो बिल्कुल भी भरोसा मत करो जिन्हें शैतान तुम्हारे मन में भरता है। इस संगति के साथ, क्या हर कोई इस बारे में स्पष्ट है कि शादी को लेकर लोगों के क्या विचार, दृष्टिकोण, कोण और नजरिये होने चाहिए और साथ-साथ शादी के संबंध में उन्हें कौन सा अभ्यास चुनना चाहिए और किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? (बिल्कुल है।)

आज, हमने अभी तक शादी के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के बारे में बात नहीं की है; हमने सिर्फ शादी की परिभाषा और अवधारणा को स्पष्ट किया है। क्या मैंने इस विषय पर स्पष्टता से बात नहीं की? (बिल्कुल की है।) मैंने स्पष्ट रूप से बात की है। क्या शादी के बारे में तुम लोगों को अभी भी कोई शिकायत है? (नहीं।) और जिससे तुम्हारी कभी शादी हुई थी, जिसे तुमने छोड़ दिया था, क्या तुम्हारे मन में उनके लिए कोई दुश्मनी है? (नहीं।) क्या शादी के बारे में तुम लोगों की असामान्य, पक्षपाती समझ और दृष्टिकोण, या यहाँ तक कि तुम्हारी बचकानी कल्पनाएँ, जो तथ्यों के अनुरूप नहीं थीं, अभी भी मौजूद हैं? (नहीं।) अब तुम्हें और अधिक यथार्थवादी होना चाहिए। मगर शादी कोई रोजमर्रा की जरूरतों वाला साधारण मामला नहीं है। इसका संबंध सामान्य मानवता वाले लोगों के जीवन, और लोगों की जिम्मेदारियों और दायित्वों से है, और इसके अलावा, और भी कई व्यावहारिक मानक और सिद्धांत हैं जिनके बारे में परमेश्वर ने लोगों को चेतावनी दी है, उनसे अपेक्षा की है, और जिनका अनुसरण करने का निर्देश दिया है। ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जिन्हें लोगों को निभाना चाहिए, और ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जिनका बीड़ा उन्हें खुद उठाना चाहिए। यह शादी की ठोस परिभाषा है और शादी के मजबूत अस्तित्व का महत्व है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में जरूर होना चाहिए। अच्छा, तो आज की संगति यहीं खत्म करते हैं। अलविदा!

7 जनवरी 2023

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