सत्य का अनुसरण कैसे करें (9) भाग तीन

अब जब हम शादी के विषय पर बात कर ही रहे हैं, तो हमें यह देखना चाहिए कि वास्तव में शादी की सटीक, सही परिभाषा और अवधारणा क्या है। क्योंकि हम शादी की सटीक, सही परिभाषा और अवधारणा के बारे में बात कर रहे हैं, इसलिए हमें इनका जवाब परमेश्वर के वचनों में खोजना होगा, ताकि इस मामले के संबंध में परमेश्वर ने जो कुछ कहा और किया है, उसके आधार पर शादी को एक सही परिभाषा और अवधारणा दी जा सके, और शादी की वास्तविक स्थिति और शादी के सृजन और अस्तित्व के पीछे के मूल इरादे को स्पष्ट किया जा सके। यदि कोई शादी की परिभाषा और अवधारणा को अच्छी तरह समझना चाहता है, तो उसे सबसे पहले मानवजाति के पूर्वजों को देखते हुए शुरुआत करनी होगी। मानवजाति के पूर्वजों को देखकर शुरुआत करने का क्या कारण है? अपने पूर्वजों की शादी के कारण ही मानवजाति आज तक जीवित रह पाई है; यानी, आज इतने सारे लोगों के होने का मूल कारण उन लोगों की शादी है जिनका सृजन परमेश्वर ने शुरुआत में किया था। तो, अगर कोई शादी की सटीक परिभाषा और अवधारणा को समझना चाहता है, तो उसे मानवजाति के पूर्वजों की शादी को देखते हुए शुरुआत करनी चाहिए। मानवजाति के पूर्वजों में शादी की शुरुआत कब हुई? इसकी शुरुआत परमेश्वर द्वारा मनुष्य की रचना से हुई। इसे उत्पत्ति की पुस्तक में दर्ज किया गया है, तो हमें बाइबल खोलकर इन अंशों को पढ़ना चाहिए। क्या ज्यादातर लोगों को इस विषय में दिलचस्पी है? जो पहले से शादीशुदा हैं वे सोच सकते हैं कि इस बारे में बात करने के लिए कुछ भी नहीं है, यह विषय तो बहुत आम है, पर अविवाहित जवान लोग इस विषय में काफी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि उन्हें शादी रहस्यमयी लगती है, और वे इस बारे में कई बातें नहीं जानते हैं। तो चलो मूल बात से शुरुआत करते हैं। कोई उत्पत्ति 2:18 को पढ़ो। (“फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, ‘आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।’”) इसके बाद, उत्पत्ति 2:21-24। (“तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को भारी नींद में डाल दिया, और जब वह सो गया तब उसने उसकी एक पसली निकालकर उसकी जगह मांस भर दिया। और यहोवा परमेश्वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया। तब आदम ने कहा, ‘अब यह मेरी हड्डियों में की हड्डी और मेरे मांस में का मांस है; इसलिए इसका नाम नारी होगा, क्योंकि यह नर में से निकाली गई है।’ इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे एक ही तन बने रहेंगे।”) इसके बाद, उत्पत्ति 3:16-19। (“स्त्री से उसने कहा, ‘मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।’ और आदम से उसने कहा, ‘तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा; और वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा; और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।’”) हम यहीं रुकते हैं। अध्याय दो में पाँच पद और अध्याय तीन में चार पद, कुल मिलाकर बाइबल के नौ पद हैं। उत्पत्ति के नौ पद यह बताते हैं कि मानवजाति के पूर्वजों की शादी कैसे हुई। यही बात है न? (बिल्कुल।) अब तुम समझे? क्या तुम्हें सामान्य अर्थ की थोड़ी बेहतर समझ मिल गई है, और क्या तुम इसे याद रख सकते हो? यहाँ मुख्य रूप से किसकी बात हो रही है? (मानवजाति के पूर्वजों की शादी कैसे हुई।) तो यह वास्तव में कैसे हुई? (परमेश्वर ने इसे तैयार किया।) बिल्कुल सही, असल में ऐसा ही हुआ था। परमेश्वर ने इसे मनुष्य के लिए तैयार किया। परमेश्वर ने आदम को बनाया, फिर उसके लिए एक साथी बनाया, एक जीवनसाथी जो उसकी मदद करे और उसका साथ दे, उसके साथ रहे। यही मानवजाति के पूर्वजों की शादी का मूल है, और मनुष्य की शादी का स्रोत भी यही है। यही बात है न? (बिल्कुल।) हमें मनुष्य की शादी का स्रोत मालूम है : यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था। परमेश्वर ने मानवजाति के पूर्वजों के लिए एक साथी की रचना की, जिसे जीवनसाथी भी कहा जा सकता है, जो जीवन भर उनकी मदद करेगा और उनका साथ देगा। यही मनुष्य की शादी का मूल और स्रोत है। तो मनुष्य की शादी के मूल और स्रोत को देखने के बाद, हमें शादी को सही ढंग से कैसे समझना चाहिए? क्या तुम कहोगे कि शादी पवित्र होती है? (हाँ।) क्या यह पवित्र है? क्या इसका पवित्रता से कोई लेना-देना है? बिल्कुल नहीं। तुम इसे पवित्र नहीं कह सकते। शादी की व्यवस्था और निर्धारण परमेश्वर करता है। इसका मूल और स्रोत परमेश्वर की रचना में है। परमेश्वर ने पहले मनुष्य को बनाया, जिसे एक साथी की जरूरत थी जो उसकी मदद करे और उसका साथ दे, उसके साथ रहे, इसलिए परमेश्वर ने उसके लिए एक साथी बनाया, और इस तरह मनुष्य की शादी की शुरुआत हुई। बस इतना ही। यह इतना सरल है। तुम्हारे पास शादी के बारे में यह बुनियादी समझ होनी चाहिए। शादी हमें परमेश्वर से मिली है; यह उसके द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित की गई है। कम से कम तुम कह सकते हो कि यह कोई नकारात्मक चीज नहीं, बल्कि एक सकारात्मक चीज है। यह भी सटीक रूप से कहा जा सकता है कि शादी उचित है, यह मानव जीवन में और लोगों के अस्तित्व की प्रक्रिया में एक उचित पड़ाव है। यह बुरी नहीं है, न ही यह मानवजाति को भ्रष्ट करने का कोई उपकरण या साधन है; यह उचित और सकारात्मक है, क्योंकि इसे परमेश्वर द्वारा बनाया और निर्धारित किया गया था, और बेशक, उसने ही इसकी व्यवस्था की थी। मनुष्य की शादी का मूल परमेश्वर की रचना में निहित है, और उसने इसे खुद ही व्यवस्थित और निर्धारित किया है, इसलिए इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो व्यक्ति के पास शादी के बारे में बस यह परिप्रेक्ष्य होना चाहिए कि यह परमेश्वर से आती है, यह एक उचित और सकारात्मक चीज है, और यह कोई नकारात्मक, बुरी, स्वार्थी या अंधकारमय चीज नहीं है। यह न तो मनुष्य से आती है, न ही शैतान से, और यह प्रकृति में अपने आप तो बिल्कुल नहीं विकसित हुई है; बल्कि परमेश्वर ने इसे अपने ही हाथों से बनाया, और व्यक्तिगत रूप से व्यवस्थित और निर्धारित किया है। यह एकदम निश्चित है। यह शादी की सबसे मौलिक और सटीक परिभाषा और अवधारणा है।

अब जब तुम शादी की सटीक अवधारणा और परिभाषा को समझ गए हो जो लोगों के पास होनी चाहिए, तो आओ अब इस पर गौर करते हैं : शादी को लेकर परमेश्वर के विधान और व्यवस्था का क्या अर्थ है? इसका उल्लेख बाइबल के उन पदों में किया गया है जिन्हें हमने अभी पढ़ा, यानी, मानवजाति में शादी क्यों होती है, परमेश्वर के विचार क्या थे, उस समय की स्थिति और परिस्थितियाँ क्या थीं, और कैसी परिस्थितियों में परमेश्वर ने मनुष्य को शादी जैसी चीज दी। यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” ये वचन दो बातें कह रहे हैं। सबसे पहले, परमेश्वर ने देखा कि यह पुरुष अकेले होने के कारण बेहद अकेलापन महसूस करता है, उसका कोई साथी नहीं है, बात करने के लिए कोई नहीं है, और न ही उसके पास ऐसा कोई हमसफर है जिसके साथ वह अपनी खुशियाँ या विचार बाँट सके; उसने देखा कि उसका जीवन शुष्क, नीरस और उबाऊ हो जाएगा, तो उसके मन में एक विचार आया : एक पुरुष अकेला महसूस करता है, तो मुझे उसके लिए एक साथी बनाना चाहिए। यह साथी उसकी जीवनसंगिनी होगी, जो हर जगह उसका साथ देगी और हर काम में उसकी मदद करेगी; वह उसकी साथी और जीवनसंगिनी होगी। एक साथी का मकसद जीवन भर उसका साथ देना, उसके जीवन पथ पर उसके साथ मिलकर आगे बढ़ना है। चाहे दस, बीस, सौ या दो सौ वर्ष हो जाएँ, यह साथी उसके बगल में रहेगी, हर जगह उसके साथ रहेगी, जो उससे बात करेगी, सुख-दुख और हर भावना उसके साथ बाँटेगी, और इसी के साथ, उसके साथ चलेगी और उसे अकेला नहीं छोड़ेगी या अकेला महसूस नहीं करने देगी। परमेश्वर के मन में उठने वाले ये विचार और बातें मनुष्य की शादी के उद्गम की परिस्थितियाँ हैं। इन परिस्थितियों में, परमेश्वर ने कुछ और भी किया। आओ हम बाइबल के अभिलेख को देखें : “तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को भारी नींद में डाल दिया, और जब वह सो गया तब उसने उसकी एक पसली निकालकर उसकी जगह मांस भर दिया। और यहोवा परमेश्वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया।” परमेश्वर ने पुरुष से एक पसली ली, और मिट्टी उठाई, और पसली का उपयोग करके दूसरा मनुष्य बनाया। यह व्यक्ति मनुष्य की पसली से बना था, उसकी पसली से इस व्यक्ति की रचना हुई। आम भाषा में कहें, तो इस व्यक्ति यानी आदम की साथी की रचना उसके शरीर से निकाले गए मांस और हड्डी से हुई थी, तो क्या यह कहना सही नहीं होगा कि जैसे वह उसकी साथी थी, वैसे ही वह उसके शरीर का एक हिस्सा भी थी? (बिल्कुल।) दूसरे शब्दों में, उसकी उत्पत्ति उसी से हुई थी। उसके सृजन के बाद, आदम ने उसे किस नाम से पुकारा? “औरत।” आदम एक पुरुष था, वह एक औरत थी; साफ तौर पर, ये दो अलग-अलग लिंग के लोग थे। परमेश्वर ने पहले पुरुष की शारीरिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति बनाया, फिर उसने पुरुष से एक पसली ली और महिला की शारीरिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति बनाया। ये दो लोग एक बनकर रहने लगे, जो शादी का मूल बन गया, और इस तरह शादी अस्तित्व में आई। तो, चाहे कोई किसी भी माँ-बाप के साथ बड़ा हुआ हो, अंत में, उन सभी को शादी करके परमेश्वर के आदेश और व्यवस्थाओं के तहत अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर अंत तक चलना होगा। यह परमेश्वर का विधान है। एक ओर, इसे वस्तुनिष्ठ तरीके से देखें, तो लोगों को एक साथी की जरूरत होती है; वहीं दूसरी ओर, इसे व्यक्तिपरक नजरिए से देखें, तो चूँकि शादी को परमेश्वर ने निर्धारित किया है, पति और पत्नी को एक होना चाहिए, दोनों को एक बनकर रहना चाहिए जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। यह तथ्य व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ दोनों है। तो, हर व्यक्ति को अपने जन्म के परिवार को छोड़कर शादी करनी होगी और अपने जीवनसाथी के साथ एक परिवार बसाना होगा। यह अपरिहार्य है। क्यों? क्योंकि यह परमेश्वर का विधान है, और यह कुछ ऐसा है जिसे उसने मनुष्य की शुरुआत से ही व्यवस्थित किया है। इससे लोगों को क्या पता चलता है? यह कि चाहे तुम किसी की भी अपने जीवनसाथी के रूप में कल्पना करो, चाहे यह वह व्यक्ति हो या न हो जिसकी तुम्हें खास तौर पर जरूरत है या जिसकी तुम उम्मीद करते हो, और उसकी पृष्ठभूमि चाहे कुछ भी हो, तुम जिस व्यक्ति से शादी करोगे, जिसके साथ तुम अपना परिवार बसाओगे और जीवन बिताओगे, यकीनन परमेश्वर ने उसे तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्थित और निर्धारित कर रखा होगा। यही बात है न? (बिल्कुल।) इसका कारण क्या है? (परमेश्वर का विधान।) इसका कारण परमेश्वर का विधान है। इसे पिछले जन्मों के संदर्भ में, या परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो शादी रचाने वाले पति और पत्नी वास्तव में एक ही होते हैं, तो परमेश्वर तुम्हारे लिए शादी करने और जीवन बिताने की व्यवस्था उसी व्यक्ति के साथ करता है जिसके साथ तुम एक हो। साफ तौर पर कहें तो ऐसा ही होता है। जिससे तुम्हारी शादी हुई है वह तुम्हारे सपनों का प्रेमी हो या नहीं, चाहे वह तुम्हारा मनमोहक राजकुमार हो या नहीं, चाहे यह वही व्यक्ति हो या नहीं जिसकी तुम अपेक्षा कर रहे थे, चाहे तुम उससे प्यार करते हो या वह तुमसे प्यार करती हो, चाहे तुम लोगों की शादी स्वाभाविक रूप से भाग्य और संयोग से हुई हो या किसी अन्य परिस्थिति में, तुम लोगों की शादी परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। परमेश्वर ने तुम दोनों को ही एक-दूसरे के लिए बनाया है, एक-दूसरे का साथ देने के लिए निर्धारित किया है, और उसने यह जीवन एक साथ बिताने और अंत तक हाथ में हाथ डालकर चलने के लिए निर्धारित किया है। यही बात है न? (बिल्कुल।) क्या तुम लोगों को यह समझ कहीं से भी दिखावटी या विकृत लगती है? (नहीं।) यह न तो दिखावटी है और न ही विकृत। कुछ लोग कहते हैं : “तुम्हारी यह बात गलत हो सकती है। अगर ये शादियाँ वाकई परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई हैं तो, कुछ शादियों का अंत तलाक के साथ क्यों होता है?” ऐसा इसलिए है क्योंकि इन लोगों की मानवता में समस्याएँ हैं, जो एक अलग मामला है। यह सत्य का अनुसरण करने के विषय से संबंधित है, जिसके बारे में हम बाद में संगति करेंगे। फिलहाल, शादी की परिभाषा, समझ और सटीक अवधारणा की बात करें, तो तथ्य यह है कि असल में ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं : “क्योंकि तुम कहते हो कि पति और पत्नी एक ही हैं, तो क्या यह वैसा ही नहीं है जैसा अविश्वासी कहते हैं, ‘यदि यह होना है तो होकर रहेगा, नहीं होना है तो नहीं होगा’ या जैसा कि कुछ राष्ट्रों के लोग कहते हैं,[ख] ‘किसी के साथ नाव यात्रा पर चलने का मौका पाने के लिए सौ साल के अच्छे कर्म होने चाहिए, और वैवाहिक जीवन का साथ पाने के लिए हजार साल के अच्छे कर्म की जरूरत होती है’?” क्या तुम लोगों को लगता है कि जिस शादी की अभी हम बात कर रहे हैं, उसका इन कहावतों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इनका शादी से कोई संबंध नहीं है। शादी को सींचकर अस्तित्व में नहीं लाया जाता—यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित होती है। जब परमेश्वर दो लोगों को पति-पत्नी बनने, एक-दूसरे का साथी बनने के लिए निर्धारित करता है, तो उन्हें खुद इसमें कुछ सींचने की जरूरत नहीं पड़ती है। वे इसमें क्या सींचेंगे? नैतिक चरित्र? इंसानियत? उन्हें खुद कुछ सींचने की जरूरत नहीं है। यह बौद्ध धर्म के लोगों का बोलने का तरीका है, जो सत्य नहीं है, और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। मनुष्य की शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित होती है। चाहे दस्तावेज में हो या शाब्दिक रूप से, परिभाषा में हो या अवधारणा में, शादी को इसी प्रकार से समझना चाहिए। बाइबल में दर्ज वचनों से, इस संगति के माध्यम से, क्या अब तुम्हारे पास शादी की कोई सटीक, सत्य के अनुरूप परिभाषा और अवधारणा है? (हाँ, है।) यह अवधारणा, यह परिभाषा विकृत नहीं है; यह पूर्वाग्रह से देखा गया परिप्रेक्ष्य नहीं है, इसे मानवीय भावनाओं के अनुसार तो बिल्कुल भी नहीं समझा और परिभाषित किया गया है। बल्कि, इसका एक आधार है; यह परमेश्वर के वचनों और कार्यों पर आधारित है, और यह उसकी व्यवस्थाओं और विधानों पर भी आधारित है। यहाँ तक पहुँचने के बाद, क्या अब सबके पास शादी के बारे में बुनियादी समझ और परिभाषा है? (हाँ।) अब जब तुम इसे समझ गए हो, तो तुम शादी के बारे में कोई गैर-उद्देश्यपरक कल्पनाएँ नहीं करोगे, या शादी के बारे में तुम्हारी शिकायतें कम हो जाएँगी, है न? ऐसे कुछ लोग हो सकते हैं जो कहते हैं : “शादी परमेश्वर द्वारा निर्धारित होती है—इस बारे में बात करने के लिए कुछ भी नहीं है—मगर शादियाँ टूट जाती हैं। इसका क्या मतलब है?” इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। भ्रष्ट मानवजाति में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे समस्याओं के सार को समझ नहीं पाते, वे अपनी वासनाओं और प्राथमिकताओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं, इस हद तक कि वे दुष्टता की वकालत करने लगते हैं, और इसलिए उनकी शादियाँ टूट जाती हैं। यह एक अलग विषय है, जिसके बारे में हम ज्यादा बात नहीं करेंगे।

चलो अब शादी में एक-दूसरे की मदद करने और साथ देने के बारे में बात करें। परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” शादीशुदा लोग जानते हैं कि शादी से परिवार और व्यक्ति के जीवन में कई ऐसे लाभ होते हैं जिनके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं होगा। जब लोग अकेले रहते हैं तो शुरू में वे बहुत अकेला महसूस करते हैं, वे किसी पर भरोसा नहीं कर सकते, बात करने को कोई नहीं होता, साथ देने के लिए कोई नहीं होता; जीवन बहुत नीरस और असहाय होता है। शादी के बाद, उन्हें इस अकेलेपन और एकांत में नहीं रहना पड़ता। उनके पास कोई होता है जिस पर वे भरोसा कर सकते हैं। कभी-कभी, वे अपने साथी के साथ अपने दुख बाँटते हैं, और कभी-कभी, वे अपनी भावनाएँ और खुशियाँ बाँटते हैं, और यहाँ तक कि अपना गुस्सा भी उतारते हैं। कभी-कभी, वे एक-दूसरे को अपने दिल की सारी बात बता देते हैं और जीवन बहुत आनंदमय और खुशनुमा लगने लगता है। वे एक-दूसरे के साथी हैं, और एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, तो अब वे न सिर्फ अकेले नहीं होते बल्कि वे और अधिक आनंद का अनुभव भी करते हैं, और एक साथी होने की खुशी का आनंद लेते हैं। विभिन्न मनोदशाओं, भावनाओं, और एहसासों, साथ ही विभिन्न विचारों को व्यक्त करने की आवश्यकता के अलावा, लोगों को जीवित रहने की प्रक्रिया के दौरान अपने दैनिक जीवन में कई व्यावहारिक समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, जैसे कि रोजमर्रा की जरूरतों, कपड़े, खाने, और रहने के लिए जगह से जुड़ी समस्याएँ। उदाहरण के लिए, मान लो कि दो लोग साथ रहना चाहते हैं, और उन्हें एक छोटा-सा भंडारघर बनाना है। पुरुष को ईंटें बिछाने का काम करना होगा, दीवार बनाने के लिए ईंटें बिछानी होंगी और महिला उसकी मदद करने के लिए उसे ईंटें पहुँचा सकती है, गारा मिला सकती है या उसका पसीना पोंछ सकती है और उसे पानी पिला सकती है। दोनों हँसते हैं, बातें करते हैं और पुरुष के पास उसकी मदद के लिए कोई है, जो अच्छी बात है। अंधेरा होने से पहले काम पूरा हो जाता है। यह “फेयरी कपल” नामक पुराने चीनी ओपेरा जैसा है : “मैं पानी निकालती हूँ और तुम बगीचे में पानी देते हो।” और क्या? (“तुम खेत जोतते हो और मैं कपड़ा बुनती हूँ।”) बिल्कुल सही। एक कपड़ा बुनती है और दूसरा खेत जोतता है; एक घर की मालकिन है, दूसरा बाहर का मालिक है। इस तरह जीना काफी अच्छा है। हम इसे समरसता से एक-दूसरे का पूरक होना, या एक-दूसरे का साथ देना कह सकते हैं। इस तरह, जीवन में, पुरुष के कौशल का प्रदर्शन होता है, और जिन क्षेत्रों में वह कमतर या अकुशल होता है, उनकी भरपाई महिला करती है; जहाँ महिला कमजोर होती है, वहाँ पुरुष उसे माफ करके उसकी मदद करता और साथ देता है, जिससे महिला के कौशल भी प्रदर्शित होते हैं, जिससे परिवार के पुरुष को फायदा होता है। पति-पत्नी दोनों अपने कर्तव्य निभाते हैं, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों से सीखते हैं, और घर में सद्भाव बनाए रखने और पूरे परिवार के जीवन और अस्तित्व की रक्षा के लिए मिलकर काम करते हैं। बेशक, साहचर्य से भी ज्यादा जरूरी यह है कि वे जीवन भर एक-दूसरे को सहारा दें और मदद करें, फिर चाहे गरीबी हो या अमीरी, अपने दिन अच्छे से गुजारें। संक्षेप में, जैसा कि परमेश्वर ने कहा है, मनुष्य के लिए अकेले रहना अच्छा नहीं है, इसलिए उसने मनुष्य की ओर से शादी की व्यवस्था की—जिसमें पुरुष को लकड़ी काटना और आंगन की देखभाल करना है, महिला को खाना बनाना, साफ-सफाई करना, मरम्मत करना और पूरे परिवार की देखभाल करना है। दोनों अपना काम अच्छी तरह से करते हैं, जीवन में वह सब करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, जिससे उनका जीवन खुशी-खुशी बीतता है। मनुष्यों का जीवन धीरे-धीरे इस एक बिन्दु से शुरू होकर पूरी तरह विकसित हुआ है, और मनुष्य की आबादी बढ़ते-बढ़ते और फलते-फूलते आज तक पहुँची है। तो समग्र रूप से शादी मानवजाति के लिए अपरिहार्य है—उसके विकास के लिए अपरिहार्य है, और यह व्यक्तिगत रूप से एक मनुष्य के लिए भी अपरिहार्य है। शादी का असल प्रयोजन सिर्फ मानवजाति की संख्या में बढ़ोतरी के लिए नहीं है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह इसलिए है कि इसके जरिये परमेश्वर हरेक पुरुष और महिला के लिए एक साथी चुने, जो उनके जीवन में हर वक्त पर उनका साथ देगा, फिर चाहे वह कठिन और पीड़ादायक वक्त हो, या आसान, आनंदमय और खुशनुमा वक्त—इन सब में, उनके पास भरोसा करने, दिलोदिमाग से उनके साथ एक होने, और उनके दुख, दर्द, खुशी और आनंद में साथ देने के लिए कोई होता है। लोगों के लिए शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का यही अभिप्राय है, और यह हरेक व्यक्ति की व्यक्तिपरक आवश्यकता भी है। जब परमेश्वर ने मानवजाति की रचना की, तो वह नहीं चाहता था कि लोग अकेले रहें, इसलिए उसने उनके लिए शादी की व्यवस्था की। शादी में, पुरुष और महिला अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं, और सबसे जरूरी बात यह है कि वे एक-दूसरे का साथ देते हैं और एक-दूसरे को सहारा देते हैं, हर दिन अच्छे से जीते हैं, जीवन की राह पर अच्छी तरह से आगे बढ़ते हैं। एक ओर, वे एक-दूसरे का साथ दे सकते हैं, और दूसरी ओर, वे एक-दूसरे को सहारा दे सकते हैं—यही शादी का वास्तविक अर्थ है और इसके अस्तित्व का प्रयोजन है। बेशक, लोगों को शादी के बारे में यही समझ और रवैया रखना चाहिए, और यही वह जिम्मेदारी और दायित्व है जो उन्हें शादी के प्रति निभाना चाहिए।

चलो अब उत्पत्ति 3:16 पर वापस चलते हैं। परमेश्वर ने महिलाओं से कहा था : “मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” परमेश्वर ने महिलाओं को यह जिम्मेदारी दी है, जो बेशक एक आदेश भी है, जिसमें वह निर्धारित करता है कि शादी में एक महिला को क्या भूमिका निभानी है और उसे कौन-सी जिम्मेदारियाँ उठानी होंगी। महिला को बच्चे को जन्म देना होगा, जो एक ओर तो उसके पिछले अपराध की सजा थी, और दूसरी ओर, वह जिम्मेदारी और दायित्व था जो उसे एक महिला होने के नाते शादी में स्वीकारना होगा। वह गर्भवती होगी और बच्चे को जन्म देगी, और इसके अलावा, वह पीड़ा में बच्चों को जन्म देगी। नतीजतन, शादी के बाद, महिला को पीड़ा के डर से बच्चे पैदा करने से इनकार नहीं करना चाहिए। यह एक गलती है। तुम्हें बच्चों को जन्म देने की जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए। इसलिए, अगर तुम चाहती हो कि कोई तुम्हारा साथी बने, जीवन में तुम्हारी मदद करे, तो तुम्हें उस प्रमुख जिम्मेदारी और दायित्व पर विचार करना होगा जो तुम शादी के बाद निभाओगी। अगर कोई महिला कहती है, “मैं बच्चे पैदा नहीं करना चाहती,” तो पुरुष कहेंगे, “अगर तुम बच्चे पैदा नहीं करना चाहती, तो मैं तुम्हें नहीं चाहता।” अगर तुम बच्चे पैदा करने की पीड़ा नहीं झेलना चाहती हो तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि तुम इसके लायक नहीं हो। शादी के बाद, एक महिला के नाते तुम्हें सबसे पहले बच्चे पैदा करने चाहिए और पीड़ा भी सहनी चाहिए। अगर तुम यह नहीं कर सकती तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। भले ही यह नहीं कहा जा सकता कि तुम महिला होने के लायक नहीं हो, कम से कम तुम एक महिला होने की जिम्मेदारी निभाने में विफल रही हो। महिलाओं से पहली अपेक्षा गर्भधारण करने और बच्चे पैदा करने की होती है। दूसरी अपेक्षा होती है, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” किसी पुरुष की अर्धांगिनी होना—महिला होने के नाते, किसी पुरुष से शादी करना यह साबित करता है कि तुम उसकी अर्धांगिनी हो, और थोड़ी निश्चितता से कहें तो इस प्रकार तुम उसका एक हिस्सा हो, इसलिए तुम्हारे दिल की लालसा तुम्हारे पति की ओर होनी चाहिए, यानी वह तुम्हारे दिल में बसना चाहिए। जब वह तुम्हारे दिल में होगा तभी तुम उसकी देखभाल कर सकोगी और खुशी से उसका साथ दे सकोगी। जब तुम्हारा पति बीमार होगा, जब वह कठिनाइयों और विफलताओं का सामना करेगा या जब उसे अन्य लोगों के बीच या अपने जीवन में विफलता, ठोकर या संकट का सामना करना पड़ेगा, तब तुम एक महिला के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर सकती हो, उसकी देखभाल कर सकती हो, उसे सँजोकर रख सकती हो, उसे समझा सकती हो, उसे आराम दे सकती हो और एक महिला के तौर पर उसे सलाह देकर उसका हौसला बढ़ा सकती हो। यही वह साथ है जो सच्चा और बेहतर है। सिर्फ इसी तरह तुम्हारी शादी खुशहाल रहेगी और तुम एक महिला होने की अपनी जिम्मेदारी निभा पाओगी। बेशक, यह जिम्मेदारी तुम्हें तुम्हारे माता-पिता ने नहीं, बल्कि परमेश्वर ने सौंपी है। यह वह जिम्मेदारी और दायित्व है जो कि एक महिला को पूरा करना चाहिए। एक महिला होने के नाते तुम्हें ऐसा ही होना चाहिए। तुम्हें अपने पति के साथ इसी तरह पेश आना चाहिए और उसकी देखभाल करनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर कोई महिला ऐसा नहीं कर सकती, तो वह अच्छी महिला नहीं है, और बेशक, वह स्वीकार्य महिला नहीं है, क्योंकि कम से कम वह महिलाओं के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरी उतरने में विफल रही है, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” समझे तुम? (हाँ।) एक पुरुष की अर्धांगिनी होने के नाते, जब सब कुछ सहजता से चलता है, जब उसके पास पैसे और ताकत होती है, जब वह तुम्हारी बात मानता है और तुम्हारा अच्छा ख्याल रखता है, जब वह तुम्हें सभी तरह से खुश और संतुष्ट रखता है, तब तुम उसकी प्रशंसा और देखभाल कर पाती हो। मगर जब वह कठिनाइयों, बीमारियों, कुंठाओं और विफलताओं का सामना करता है या जब वह हतोत्साहित और निराश होता है, जब चीजें उसके अनुरूप नहीं होती हैं, तब तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ होती हो जो महिला होने के नाते तुम्हें पूरे करने चाहिए; तुम उससे दिल से बात करके उसे सुकून देने, उसे समझाने, उसे प्रोत्साहित करने या उसका सहयोग करने में असमर्थ होती हो। अगर ऐसा है तो, तुम अच्छी महिला नहीं हो, क्योंकि तुमने महिला होने की जिम्मेदारी नहीं निभाई, और तुम पुरुष के लिए अच्छी साथी नहीं हो। तो क्या ऐसी महिला को बुरी महिला कहना सही होगा? “बुरी” कहने का तो सवाल नहीं उठता है; पर कम से कम, तुममें वह अंतरात्मा और विवेक तो नहीं है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास होना ही चाहिए—तुम ऐसी महिला हो जिसमें मानवता नहीं है। मैंने सही कहा न? (बिल्कुल।) महिलाओं से की गई अपेक्षाओं के बारे में हमारी बात यहीं खत्म होती है। परमेश्वर ने एक महिला की अपने पति के प्रति जिम्मेदारी बताई है, जो है : “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” यह शब्द “लालसा” प्यार या स्नेह के बारे में नहीं है; बल्कि, इसका मतलब है कि वह तुम्हारे दिल में बसना चाहिए। वह तुम्हें प्रिय होना चाहिए; तुम्हें उसके साथ अपने प्रियतम की तरह, अपने आधे हिस्से की तरह पेश आना होगा। तुम्हें उसे सँजोना होगा, उसका साथ देना होगा और उसकी देखभाल करनी होगी, और तुम दोनों को अंतिम समय तक एक-दूसरे की देखभाल करनी होगी। तुम्हें उसकी देखभाल करनी और तहेदिल से उसे सँजोकर रखना होगा। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है—इसे ही “लालसा” कहा गया है। बेशक, जब परमेश्वर कहता है, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी,” तो यह “लालसा होगी” वाक्यांश लोगों को दी गई एक सीख है। एक मानवता युक्त महिला, एक स्वीकार्य महिला होने के नाते, तुम्हारी लालसा तुम्हारे पति की ओर होनी चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर ने तुमसे यह नहीं कहा है कि तुम अपने पति के साथ दूसरे आदमियों की भी लालसा रखो। परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा, है न? (नहीं, उसने ऐसा नहीं कहा।) परमेश्वर महिला से यह अपेक्षा करता है कि वह अपने पति के प्रति वफादार हो, और सिर्फ उसका पति ही वह इकलौता व्यक्ति हो जो उसके दिल में बसे, जिसकी उसे लालसा हो। वह नहीं चाहता कि उसका स्नेह जिस व्यक्ति के प्रति है उसे वह बदलती रहे या वह व्यभिचारी हो या अपने पति के प्रति बेवफा हो या अपनी शादी से बाहर किसी और व्यक्ति की लालसा रखे। बल्कि, वह चाहता है कि जिससे उसकी शादी हुई है वह उसकी ही लालसा रखे और अपना बाकी जीवन उसके साथ ही बिताए। तुम्हारी लालसा इसी व्यक्ति की ओर होनी चाहिए, तुम्हें इसी पुरुष की देखभाल करने, सँजोने, ध्यान रखने, साथ देने, मदद करने, और सहारा देने के लिए जीवन भर मेहनत करनी चाहिए। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) क्या यह अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) इस तरह की अच्छी चीज नर और मादा पक्षियों और बाकी प्राणी जगत के बीच मौजूद है, मगर यह मनुष्यों के बीच बिल्कुल भी दिखाई नहीं देती—तुम देख सकते हो कि शैतान ने मानवजाति को कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है! हम उन सबसे बुनियादी दायित्वों के बारे में स्पष्टता से संगति कर चुके हैं जिन्हें एक महिला को शादी में पूरा करना चाहिए और साथ ही हमने उन सिद्धांतों के बारे में भी स्पष्टता से संगति की है जिनके अनुसार उसे अपने पति के साथ पेश आना चाहिए। इसके अलावा, यहाँ कुछ और भी है, जो यह है कि परमेश्वर सिर्फ एक व्यक्ति के साथ ही तुम्हारी शादी निर्धारित और व्यवस्थित करता है। बाइबल में हम इस बात का आधार कहाँ देख सकते हैं? परमेश्वर ने पुरुष के शरीर से एक पसली ली और उससे महिला को बनाया—उसने पुरुष के शरीर से दो या उससे ज्यादा पसलियाँ लेकर अनेक महिलाओं को नहीं बनाया। उसने सिर्फ एक महिला बनाई। यानी परमेश्वर ने एक पुरुष के लिए सिर्फ एक ही महिला बनाई। इसका मतलब है कि पुरुष के लिए बस एक ही साथी थी। पुरुष की बस एक अर्धांगिनी थी, और महिला का बस एक अर्धांग था; इसके अलावा, उसी समय, परमेश्वर ने महिला को चेतावनी दी, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” तुम्हारा पति कौन है? यह वही व्यक्ति है जिससे तुम शादी करोगी, और कोई नहीं। यह तुम्हारा कोई गुप्त प्रेमी नहीं है, न ही यह कोई मशहूर हस्ती है जिसकी तुम प्रशंसा करती हो और न ही यह तुम्हारे सपनों का राजकुमार है। यह तुम्हारा पति है, और तुम्हारे पास सिर्फ एक ही है। यही वह शादी है जो परमेश्वर ने निर्धारित की है—एक ही पुरुष या महिला से रिश्ता होना। क्या यह परमेश्वर के वचनों में समाहित है? (हाँ।) परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर ने यह नहीं कहा कि उसने उसके लिए कुछ या अनेक साथी बनाए हैं, यह जरूरी नहीं था। एक ही काफी थी। परमेश्वर ने यह भी नहीं कहा कि एक महिला को कई पुरुषों से शादी करनी चाहिए या एक पुरुष को कई पत्नियाँ रखनी चाहिए। परमेश्वर ने एक आदमी के लिए कई पत्नियाँ नहीं बनाईं, न ही उसने अनेक महिलाएँ बनाने के लिए कई अलग-अलग पुरुषों की पसलियाँ लीं, इसलिए एक पुरुष की पत्नी सिर्फ उसकी अपनी पसली से बनी महिला ही हो सकती है। क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) तो मानवजाति के बाद के विकास में, कई पत्नियाँ और पति रखने की प्रथा शुरू हुई। ऐसी शादियाँ असामान्य हैं, बल्कि ये शादी हैं ही नहीं। यह सब व्यभिचार है। हालाँकि कुछ विशेष परिस्थितियों में छूट मिल सकती है, जैसे पुरुष का मर जाना और उसकी पत्नी का फिर से शादी करना। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित और व्यवस्थित है, जिसकी अनुमति है। संक्षेप में, शादी हमेशा से बस एक पति और एक पत्नी के बीच का संबंध रहा है। यही बात है न? (बिल्कुल।) प्राकृतिक संसार को देखो। जंगली हंस का एक ही साथी होता है। अगर कोई मनुष्य किसी एक हंस को मार दे, तो दूसरा हंस कभी भी “दूसरी शादी” नहीं करेगा—वह अकेले ही रहेगा। ऐसा कहा जाता है कि जब हंसों के झुंड उड़ते हैं, तो उनका नेतृत्व आम तौर पर अकेले रहने वाला हंस ही करता है। अकेले रहने वाले हंस के लिए चीजें कठिन होती हैं। उसे वो सब काम करने पड़ते हैं जो उसके झुंड के अन्य हंस करने को तैयार नहीं होते। जब दूसरे हंस भोजन कर रहे होते हैं या आराम कर रहे होते हैं, तो बाकी झुंड को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी उसे ही उठानी पड़ती है। वह न तो सो सकता है और न ही खा सकता है; झुंड की सुरक्षा के लिए उसे अपने आसपास की सुरक्षा पर ध्यान देना पड़ता है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वह नहीं कर सकता। वह सिर्फ अकेला ही रह सकता है, दूसरा प्यार नहीं पा सकता। मरते दम तक वह कोई दूसरा साथी नहीं चुन सकता। जंगली हंस हमेशा परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित नियमों का पालन करते हैं, कभी नहीं बदलते, यहाँ तक कि आज भी नहीं, मगर मनुष्य का मामला बिल्कुल उल्टा है। मनुष्य इतने उल्टे क्यों हैं? क्योंकि शैतान ने मनुष्यों को भ्रष्ट किया है, और क्योंकि वे दुष्टता और स्वच्छंदता में जीते हैं, तो वे सिर्फ एक साथी के साथ नहीं रह सकते, और न ही शादी से जुड़ी अपनी भूमिकाएँ निभा सकते हैं या उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभा सकते हैं जो उन्हें निभाने चाहिए। क्या यह सच नहीं है? (बिल्कुल सच है।)

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “जैसा कि कुछ राष्ट्रों के लोग कहते हैं” यह वाक्यांश नहीं है।

The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.

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