सत्य का अनुसरण कैसे करें (9) भाग एक

पिछली बार की सभा में, हमने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के संबंध में किन चीजों को त्यागने की जरूरत है, इसके दूसरे भाग—यानी, लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में संगति की थी। इस विषय पर हमने कुल चार चीजों को सूचीबद्ध किया था : पहली चीज, रुचियाँ और शौक; दूसरी चीज, शादी; तीसरी चीज, परिवार; और चौथी चीज, करियर। पिछली बार, हमने रुचियों और शौक के बारे में संगति की थी। लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के तत्वों में से एक है लोगों के ऐसे लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ जो रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होती हैं। मेरी संगति को सुनकर, क्या अब सभी रुचियों और शौक के प्रति सही रवैया और परिप्रेक्ष्य रखते हैं? (हाँ।) हमारी संगति का मकसद रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना है, पर इन चीजों को त्यागने के लिए, तुम्हें पहले समझना होगा कि रुचियाँ और शौक क्या हैं, फिर उनसे सही ढंग से निपटना और इन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना सीखना होगा जो उन रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम इसके सकारात्मक पहलू पर संगति करते हैं या नकारात्मक पर। संक्षेप में, लक्ष्य लोगों को यह समझने में सक्षम बनाना है कि रुचियाँ और शौक क्या हैं, और फिर उन्हें सही ढंग से व्यवहार में लाना और लागू करना, अस्तित्व में रहने के लिए उन्हें उचित स्थान या मूल्य देना और साथ ही, लोगों को उन लक्ष्यों, इच्छाओं और, आदर्शों को त्यागने में सक्षम बनाना है जो गलत और अनुचित हैं, जो उनके पास नहीं होने चाहिए, और जो परमेश्वर में उनके विश्वास और उनके कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करते हैं। यह कहना सही होगा कि तुम्हारी रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ तुम्हारे जीवन, अस्तित्व और जीवन जीने के बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण को प्रभावित करेंगी; बेशक, उनका तुम्हारे चुने गए मार्ग, और इस जीवन में तुम्हारे कर्तव्य और मकसद पर और भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ेगा। तो, एक निष्क्रिय परिप्रेक्ष्य से, जो लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ लोगों में रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होते हैं, वे ऐसे लक्ष्य या दिशा नहीं हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं—और न ही वे जीवन के बारे में दृष्टिकोण और वे मूल्य हैं जो इस जीवनकाल में उनके पास होने चाहिए। रुचियाँ और शौक क्या हैं, इस पर संगति करके, मैं लोगों को उनके बारे में सही ढंग से जानना और उनसे पेश आना सिखाता हूँ, और फिर यह जानने में उनकी मदद करता हूँ कि क्या उनके लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उनकी रुचियों और शौक के प्रभाव के परिप्रेक्ष्य से सही हैं या नहीं। यानी, मैं सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही पहलुओं का उपयोग करके लोगों को स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता हूँ कि इन रुचियों और शौक से सही ढंग से कैसे पेश आएँ। पहली बात, अगर किसी को रुचियों और शौक के बारे में सही ज्ञान और सटीक समझ है, और वह उनसे सही ढंग से निपट सकता है, तो वह रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले आदर्शों और इच्छाओं को भी सचमुच त्याग रहा है। जब तुम्हारे पास रुचियों और शौक की सही समझ होगी, तो उनसे निपटने के तुम्हारे तौर-तरीके भी सही होंगे और अपेक्षाकृत सिद्धांतों और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होंगे। इस तरह, तुम रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को सकारात्मक तरीके से त्यागने में सक्षम होगे। इसके अलावा, यह संगति तुम्हें उन विभिन्न हानिकारक प्रभावों को भी स्पष्ट देखने में सक्षम बनाती है जो रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्य, आदर्श और इच्छाओं के कारण सामने आते हैं, या यह तुम्हें उनके द्वारा उत्पन्न प्रतिरोधी, नकारात्मक प्रभाव को देखने में मदद करती है, जो तुम्हें इन अनुचित लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को सक्रियता से त्यागने में सक्षम बनाते हैं। इन सारी बातों पर हमारी संगति के बाद, क्या अभी भी कुछ ऐसे लोग नहीं होंगे जो कहेंगे : “इस संसार में विभिन्न प्रकार के लोगों की अलग-अलग रुचियाँ और शौक हैं, और उनकी व्यक्तिगत रुचियों और शौक से अलग-अलग लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। मान लो कि हम अपनी मौजूदा सोच या मान्यताओं के अनुसार काम करते रहते और लोग अपने लक्ष्यों और इच्छाओं को पूरा न करते तो क्या आज यह संसार विकसित होता? मानवजाति की प्रौद्योगिकी, संस्कृति और शिक्षा जैसे क्षेत्र, जो मानवजाति के अस्तित्व और जीवन के लिए जरूरी हैं, तब कैसे विकसित होते? क्या मानवजाति तब भी अपनी वर्तमान जीवनशैली का आनंद ले पाती? क्या दुनिया में वर्तमान स्तर तक विकास होता? क्या दुनिया एक आदिम समाज की तरह नहीं होती? क्या हमारे पास आज की आधुनिक मानवीय जीवनशैली होती?” क्या यह एक समस्या है? यह मुमकिन है कि चाहे हम किसी भी विषय पर संगति करें, तुम सभी इसे “परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होना चाहिए” के परिप्रेक्ष्य से स्वीकार करते हो, इसलिए ज्यादातर समय, मैं जिन वचनों की संगति करता हूँ, उनका खंडन करने के लिए तुम लोगों के पास अलग-अलग राय नहीं होती है। लेकिन यह वैसी बात नहीं है, जैसे कि ऐसा कोई है ही नहीं—या ऐसा कोई तीसरा पक्ष नहीं है—जो ऐसे संदेह व्यक्त कर सके, है न? अगर वाकई किसी ने ऐसा सवाल उठाया, तो तुम लोग उसका जवाब कैसे दोगे? (मुझे लगता है कि इस सवाल में व्यक्त परिप्रेक्ष्य गलत है, क्योंकि लोगों की रुचियाँ और शौक प्रौद्योगिकी के विकास को नियंत्रित नहीं करते हैं, और न ही वे युगों की प्रगति को नियंत्रित करते हैं। प्रौद्योगिकी का विकास और युगों की प्रगति, सभी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि रुचि या शौक रखने वाला व्यक्ति संसार के विकास को आगे बढ़ा सकता है, कि वह संसार को बदल सकता है।) तुम स्थूल स्तर पर बात कर रहे हो। क्या इसे देखने का कोई और तरीका है? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम वास्तव में सत्य समझते हो या नहीं। क्या तुम लोगों को लगता है कि संगति के इन वचनों को सुनने के बाद, अविश्वासी ऐसे सवाल करेंगे? (शायद करेंगे।) अगर वे यह सवाल उठाते हैं, तो तुम्हें वस्तुनिष्ठ तथ्यों और सत्य के अनुसार इसका जवाब कैसे देना चाहिए? अगर तुम जवाब नहीं दे सकते तो वे कहेंगे कि तुम्हें गुमराह किया गया है। तुम्हारे जवाब न दे पाने से एक बात तो साबित होती है कि तुम सत्य के इस पहलू को नहीं समझते। क्या तुम लोग इसका जवाब देने में अक्षम नहीं हो? (हम अक्षम हैं।) तो चलो इस मामले पर बात करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं : “अगर मानवजाति अपने आदर्शों का अनुसरण नहीं करती, तो क्या आज संसार वर्तमान स्तर तक विकसित हो पाता?” जवाब है “हाँ।” क्या यह सरल-सी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) इस “हाँ” के लिए सबसे सरल, बेबाक स्पष्टीकरण क्या है? यह कि मानवजाति अपने आदर्शों को साकार करती है या नहीं, इसका संसार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वर्तमान स्तर तक संसार के विकास को न तो मानवजाति के आदर्शों ने आगे बढ़ाया है और न ही इसका नेतृत्व किया है; बल्कि, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति को वर्तमान तक, आज की स्थिति तक पहुँचाया है। अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के बिना, मानवजाति आज भी वैसी ही होती, पर सृष्टिकर्ता की अगुआई और संप्रभुता के बिना, सब कुछ वैसा नहीं होता। क्या ऐसा स्पष्टीकरण उपयुक्त है? (हाँ।) इसमें उपयुक्त क्या है? क्या इससे हमारे सवाल का जवाब मिल गया? क्या यह सवाल का सार समझाता है? नहीं समझाता है; यह केवल सैद्धांतिक रूप से सवाल का जवाब देता है, जिसे दर्शन की शर्तें कहा जा सकता है। मगर इससे भी अधिक विस्तृत, आवश्यक स्पष्टीकरण मौजूद है जिस पर अब तक चर्चा नहीं हुई है। वह विस्तृत स्पष्टीकरण क्या है? आओ पहले सरल बात करते हैं। पूरी मानवजाति में, लोग अपनी-अपनी किस्म के लोगों के पीछे चलते हैं, हर किस्म के व्यक्ति का अपना मकसद होता है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों का मकसद सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की गवाही देना, उसके कर्मों की गवाही देना, जो भी कार्य उसने सौंपा है उसे पूरा करना, अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाना और अंत में बचाया जाना है। यही उनका मकसद है। अधिक विस्तार से कहें, तो यह मकसद परमेश्वर के वचन और उसके कार्य को फैलाना और फिर उसकी अगुआई को स्वीकार कर और उसके कार्य का अनुभव करके, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना और बचाया जाना है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को चुनता है। वे ऐसे लोगों में से हैं जो उसके प्रबंधन कार्य में सहयोग करते हैं। इस किस्म के व्यक्ति का मकसद अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और जो भी कार्य परमेश्वर ने सौंपा है उसे पूरा करना है। यह कहना सही होगा कि ऐसे लोग पूरी मानवजाति के बीच एक अनूठा समूह हैं। लोगों का यह अनूठा समूह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में, उसकी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना में एक अनूठा मकसद लेकर चलता है; उनका एक खास कर्तव्य और खास जिम्मेदारी होती है। तो जब मैं रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात करता हूँ, तो मैं इन लोगों से अपेक्षा करता हूँ—मेरा मतलब तुम लोगों से है—कि तुम अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दो, क्योंकि तुम लोगों का मकसद, तुम लोगों का कर्तव्य और तुम लोगों की जिम्मेदारी परमेश्वर के घर में और कलीसिया में है, इस संसार में नहीं। यानी तुम लोगों का इस संसार के विकास और प्रगति या इसके किसी भी प्रचलन से कोई लेना-देना नहीं है। यह कहना भी सही होगा कि परमेश्वर ने तुम लोगों को इस संसार के विकास और प्रगति के संबंध में कोई मकसद नहीं दिया है। यह उसका विधान है। परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों को, यानी जिन्हें वह बचाएगा, उन्हें कौन-सा मकसद सौंपा है? यह मकसद परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और बचाया जाना है। बचाए जाने के लिए वह लोगों से अपेक्षा करता है कि वे सत्य का अनुसरण करें, और सत्य का अनुसरण करने के संबंध में वह अपेक्षा करता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग दें। इसलिए, ये वचन और अपेक्षाएँ पूरी मानवजाति पर लक्षित नहीं हैं; बल्कि वे लक्षित हैं तुम लोगों पर, परमेश्वर के चुने हुए हरेक व्यक्ति पर और उन लोगों पर जो बचाया जाना चाहते हैं—और बेशक, ये उन सभी पर लक्षित हैं जो मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं। परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में तुम सभी कौन-सी भूमिका निभा सकते हो? तुम ही लोग हो जिन्हें परमेश्वर बचाएगा। तो जब बात उन लोगों की आती है जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, तो इस “उद्धार” में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर के वचनों, उसकी ताड़ना और न्याय, उसके विधान, उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, और उसके सभी वचनों के प्रति समर्पित होना, उसके मार्ग के अनुसार चलना और आखिर में उसकी आराधना करना और बुराई से दूर रहना शामिल है; ऐसा करने से, तुम बचा लिए जाओगे, और अगले युग में प्रवेश करोगे। पूरी मानवजाति के बीच तुम लोगों की यही भूमिका है, और यही वह खास मकसद भी है जो परमेश्वर ने सभी लोगों में से तुम लोगों को सौंपा है। बेशक, तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य से कहें, तो यह एक विशेष प्रकार की जिम्मेदारी और कर्तव्य है जो पूरी मानवजाति में सिर्फ तुम लोगों के लिए है। यह इस मुद्दे पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के परिप्रेक्ष्य से बात करना है। दूसरी बात, पूरी मानवजाति में, परमेश्वर ने लोगों के इस अनूठे समूह को ही यह खास मकसद दिया है। उसे इसकी जरूरत नहीं कि इन लोगों पर संसार के विकास, इसकी प्रगति या इससे जुड़ी किसी भी अन्य चीज के प्रति कोई भी दायित्व या जिम्मेदारी हो। लोगों के इस अनूठे समूह के अलावा, परमेश्वर ने बाकी बचे उन सभी किस्म के लोगों को अलग-अलग मकसद सौंपे हैं जिन्हें उसने नहीं चुना है, फिर चाहे उनका प्रकृति सार कुछ भी हो। मानवजाति की अलग-अलग समयावधियों, अलग-अलग सामाजिक परिवेशों और विभिन्न जातियों में, वे अपने अलग-अलग मकसद के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी प्रकार की भूमिकाएँ निभाते हैं। परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित उन विभिन्न भूमिकाओं के कारण, उनमें से हरेक की अपनी-अपनी रुचियाँ और शौक हैं। उन रुचियों और शौक की पूर्वशर्तों के तहत, उनमें सभी प्रकार के लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। क्योंकि उनके पास सभी प्रकार के लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ हैं, तो अलग-अलग युगों और विभिन्न सामाजिक परिवेशों में, संसार सभी प्रकार की नई चीजों और नए उद्योगों को तैयार करता है—उदाहरण के लिए, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, व्यवसाय, अर्थशास्त्र और शिक्षा, या हल्के उद्योग जैसे कपड़ा और हस्तशिल्प, और साथ ही विमानन और समुद्री उद्योग वगैरह। इस प्रकार, अपने विभिन्न लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के कारण हर क्षेत्र में उभरने वाले प्रमुख व्यक्तियों, उत्कृष्ट व्यक्तियों और विशेष उद्यमियों के पास अलग-अलग समय पर और विभिन्न सामाजिक परिवेशों के तहत अपने-अपने मकसद होते हैं। इसी के साथ, अपने विशेष सामाजिक परिवेश में भी वे लगातार अपने मकसद को पूरा कर रहे हैं। इस तरह, मानवजाति की विभिन्न समयावधियों और सामाजिक परिवेशों में, इन विशेष व्यक्तियों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की प्राप्ति के कारण समाज लगातार विकसित होता और आगे बढ़ता रहता है। बेशक, यह लगातार मानवजाति को भौतिक जीवन की कई अच्छी चीजें भी उपलब्ध कराता है। उदाहरण के लिए, कुछ सौ साल पहले, बिजली नहीं होने के कारण लोग लालटेन का इस्तेमाल करते थे। इन विशेष परिस्थितियों में, एक विशेष व्यक्ति ने आकर बिजली का आविष्कार कर डाला, और तब से मानवजाति रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल करने लगी। दूसरा उदाहरण देखो, तो एक विशेष सामाजिक परिवेश में, एक अन्य विशेष व्यक्ति सामने आया था। उसने देखा कि बाँस की पर्चियों पर लिखना बहुत मुश्किल है, तो उसने उम्मीद की कि एक दिन ऐसा आएगा जब लोग किसी पतली, सपाट सतह पर लिख सकेंगे, जो पढ़ने में सुविधाजनक और आसान भी होगा। फिर उसने कागज बनाने की तकनीकों पर शोध करना शुरू किया और अपने निरंतर अनुसंधान, अन्वेषण और प्रयोग से, उसने आखिर में कागज का आविष्कार किया। फिर भाप इंजन का आविष्कार भी हुआ। एक विशेष समयावधि में, ऐसा विशेष व्यक्ति आया जिसने सोचा कि हाथ से काम करना बहुत थकाऊ है, इससे मनुष्य की ऊर्जा की बर्बादी होती है, और काम भी अच्छे से नहीं हो पाता है। अगर कोई ऐसी मशीन या कोई दूसरा तरीका हो जो मनुष्य के श्रम की जगह ले पाए, तो इससे लोगों का काफी सारा समय बचेगा और वे अन्य काम कर पाएँगे। इस तरह, अनुसंधान और अन्वेषण के जरिये, भाप इंजन का आविष्कार हुआ, और फिर एक-एक करके सभी प्रकार की यांत्रिक चीजों का भी आविष्कार हुआ जो भाप इंजन के प्रवर्तक सिद्धांतों पर चलते थे। ऐसा ही हुआ था न? (बिल्कुल।) इस तरह, अलग-अलग समय में, एक विशेष व्यक्ति या कई लोगों के विशेष समूह के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की निरंतर प्राप्ति और सत्यापन के कारण धीरे-धीरे और लगातार हल्के और भारी, दोनों तरह के उद्योग विकसित होते और प्रगति करते रहे, जिससे सारी मानवजाति के जीवन की गुणवत्ता और जीवन स्तरों में निरंतर सुधार होता गया। कपड़ा और हस्तशिल्प जैसे हल्के उद्योग अब गुणवत्ता, उत्कृष्टता और परिशुद्धता के बढ़ते स्तरों से विकसित हो रहे हैं, और मानवजाति अब उनका अधिक आनंद उठा रही है। भारी उद्योग, जैसे सभी प्रकार के परिवहन के साधन, जैसे कि कार, ट्रेन, स्टीमशिप और हवाई जहाज, लोगों के जीवन को बहुत आसान बनाते हैं, जिससे लोगों के लिए यात्रा करना आसान और सुविधाजनक हो जाता है। यही मानवता के विकास की वास्तविक प्रक्रिया और विस्तृत अभिव्यक्ति है। संक्षेप में, चाहे हल्का उद्योग हो या भारी उद्योग, चाहे कोई भी पहलू हो, हर चीज की शुरुआत और प्राप्ति एक विशेष व्यक्ति या एक समूह के विशेष लोगों की रुचियों और शौक से होती है। उनकी विशेष रुचियों और शौक के कारण, उनके अपने लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ होती हैं। साथ ही, मानवजाति की अलग-अलग समयावधियों में और उनके मौजूदा सामाजिक परिवेशों में, उनके विशेष लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के कारण, उनके बीच के विभिन्न क्षेत्र सभी प्रकार की अधिक उन्नत चीजों, अधिक सुविधाजनक चीजों, और ऐसी चीजों को उत्पन्न करते हैं जो पूरी मानवजाति में जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए अधिक लाभकारी हैं। इससे मानवजाति का जीवन आसान और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। अभी हम इन चीजों पर बात नहीं करेंगे। बल्कि इन विशेष व्यक्तियों के मूल पर गौर करेंगे। अलग-अलग समयावधियों में ये विशेष लोग कहाँ से आते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर ने निर्धारित नहीं किया है? (बिल्कुल किया है।) यह बात एकदम पक्की है, इसमें कोई संदेह नहीं है और कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता। क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने निर्धारित किया है, तो उनके मकसद भी परमेश्वर के विधान से ही संबंधित हैं। “परमेश्वर के विधान से संबंधित” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर ने इन विशेष व्यक्तियों को विशेष मकसद सौंपे हैं, इसलिए वे विशेष समय पर आगे आकर जो करना चाहते हैं उसे करते हैं, और फिर उन व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले विशेष कार्यों के जरिये वे अलग-अलग समय पर मानवता को आगे बढ़ाते हैं। इन विशेष व्यक्तियों के कारण, संसार में लगातार छोटे-मोटे परिवर्तन और नवीनीकरण होते रहते हैं। इसी तरह से मानवता का विकास होता है।

ये विशेष रुचियाँ और शौक रखने वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच क्या अंतर है? अंतर यह है कि भले ही परमेश्वर ने इन लोगों के लिए एक विशेष मकसद निर्धारित किया है, पर वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें उसने उद्धार पाने के लिए निर्धारित किया है, तो इन लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बस इतनी है कि उन्हें अपनी विशेष उम्र, और खास समय में कुछ विशेष करना चाहिए। वे अपना मकसद पूरा करते हैं और फिर अपने खास समय पर चले जाते हैं। जब तक वे पृथ्वी पर रहते हैं, परमेश्वर उन पर उद्धार का कार्य नहीं करता है। उनके पास बस इस समाज और मानवजाति के विकास और उन्नति का या विभिन्न अवधियों में मानवजाति के जीवन परिवेशों को बदलने का मकसद होता है। परमेश्वर की प्रबंधन योजना में मानवजाति के उद्धार के कार्य से उनका कोई लेना-देना नहीं है, तो चाहे वे किसी भी तरह का मकसद पूरा करें, मानवजाति में उनका योगदान कितना भी महान हो या मानवजाति पर उनका प्रभाव कितना भी गहरा हो, उनका मानवजाति का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। उनका संबंध संसार से, इसके प्रचलनों से, इसके विकास से, इसके हर क्षेत्र और उद्योग से है; मानवजाति का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से उनका कोई संबंध नहीं है, इसलिए परमेश्वर द्वारा बोले गए किसी भी वचन, उसके द्वारा मानवजाति को प्रदान किए गए किसी भी वचन से उनका कोई लेना-देना नहीं है, उसके द्वारा व्यक्त सत्य और जीवन या मानवजाति से उसकी विभिन्न अपेक्षाओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि संपूर्ण मानवजाति के लिए, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के कथन से लेकर जिन विशेष अपेक्षाओं और सिद्धांतों के बारे में वह बात करता है, वे सभी लोगों के लिए निर्देशित नहीं हैं; बेशक, ये उन विशेष लोगों के लिए तो कतई नहीं हैं जिनकी मानव समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परमेश्वर के वचन—सत्य, मार्ग और जीवन—केवल उसके द्वारा चुने हुए लोगों की ओर निर्देशित हैं। इस मुद्दे को सरलता से समझाया जा सकता है : परमेश्वर के वचन उन लोगों की ओर निर्देशित होते हैं जिन्हें वह चुनता है, जिन्हें वह बचाना चाहता है और जिनके बचाए जाने की इच्छा रखता है। अगर किसी को परमेश्वर ने नहीं चुना है, और अगर वह उसे बचाने की नहीं सोच रहा है, तो फिर जीवन के ये वचन उसके लिए नहीं बोले गए हैं—उनमें उनकी कोई भूमिका नहीं है। समझे तुम? (हाँ।) इन विशेष लोगों की विशेष रुचियाँ और शौक होते हैं, इसलिए उनके लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ सामान्य लोगों से अलग और ऊँची होती हैं। क्योंकि उनके पास ये विशेष लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ हैं, और क्योंकि उनके पास अलग-अलग या विशेष रुचियाँ और शौक हैं, तो वे मानव समाज के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और बेशक, अलग-अलग समय पर, वे अपने महत्वपूर्ण मकसद पूरे करते हैं। भले ही वे आखिर में स्वीकार्य मानक तक अपने मकसद पूरे कर पाते हों या नहीं, सिर्फ वे ही ऐसे लोग हैं जिनका इन रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं से कोई लेना-देना है। क्योंकि इन लोगों के पास विशेष मकसद हैं, तो उन्हें विशेष समय और विशेष सामाजिक परिस्थितियों में अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार करना होगा। परमेश्वर ने उन्हें यही मकसद सौंपा है, इसी मकसद को उसने उनके साथ जोड़ा है; यही उनकी जिम्मेदारी है, और उन्हें इसी तरह कार्य करना चाहिए। चाहे उनके शरीर, उनके दिलों या उनकी मानसिक स्थिति को कितना तनाव सहना पड़े, या वे कितनी भी बड़ी कीमत चुकाएँ, अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए, वे सभी उस मकसद को पूरा करेंगे—या पूरा करना होगा—जो उन्हें पूरा करना चाहिए, क्योंकि यही परमेश्वर का विधान है। कोई भी परमेश्वर के विधान से नहीं बच सकता, न ही कोई उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से बच सकता है। इसलिए, हम लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में जो बात कर रहे हैं, उनसे उनका बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। उनका इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है, इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में बोले गए ये वचन उनकी ओर निर्देशित नहीं हैं। चाहे कोई भी समय अवधि हो, कैसी भी सामाजिक परिस्थितियाँ हों, और मानवजाति कितनी भी विकसित हो जाए, परमेश्वर के इन वचनों का उनसे कोई लेना-देना नहीं होगा। ये वचन उनकी ओर निर्देशित नहीं हैं, तो उन्हें इन वचनों पर खरा उतरने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें परमेश्वर के विधान, संप्रभुता और व्यवस्थाओं के तहत वह मकसद पूरा करना होगा जो उन्हें करना चाहिए। उन्हें अलग-अलग समय पर और बुरी और भ्रष्ट मानवजाति की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में वही करना होगा जो उन्हें करना चाहिए, उन्हें अपने दायित्वों को पूरा करना चाहिए और उस मकसद को पूरा करना चाहिए जो उनसे अपेक्षित है। ऐसे में, वे एक सेवाकर्मी की भूमिका निभा रहे हैं या विषमता की? तुम उन्हें जो भी कहो सब ठीक है। संक्षेप में, वे परमेश्वर द्वारा चुने हुए लोग नहीं हैं, और न ही वे ऐसे लोग हैं जिन्हें वह बचाना चाहता है—बस इतना ही। तो, विश्वासी अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को कैसे भी त्यागें, इससे संसार या मानवजाति के विकास में देरी नहीं होगी; और बेशक, इससे विभिन्न समयावधियों और संसार की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में विभिन्न क्षेत्रों और उद्योगों के विकास में भी देरी नहीं होगी। यही बात है न? (बिल्कुल।) ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति के विकास और समाज के उद्योगों के विकास का विश्वासियों से या परमेश्वर के चुने गए लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, तो तुम्हें यह चिंता करने की जरूरत नहीं है : “अगर हम तुम्हारी बात मानकर अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग देते हैं, तो क्या तब भी यह समाज और मानवजाति विकसित होती रहेगी?” तुम्हें इसकी चिंता क्यों है? तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर की अपनी योजनाएँ और व्यवस्थाएँ हैं—तुम समझते हो न? (हाँ।) तुम बेकार में चिंता कर रहे हो, इसका कारण तुम्हारा चीजों को स्पष्ट रूप से न देख पाना और सत्य को न समझ पाना है।

परमेश्वर के किसी विश्वासी के पास क्या लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ होनी चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य एक स्वीकार्य मानक तक अच्छी तरह निभाना चाहिए, परमेश्वर ने तुम्हें जो काम सौंपा है उसे पूरा करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, और सत्य को कसौटी मानकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, वैसा ही आचरण और व्यवहार करना चाहिए। तुम्हारे यही लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ होनी चाहिए। रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले सांसारिक लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम्हें त्याग देना चाहिए। उन्हें त्यागने की क्या जरूरत है? क्योंकि तुम कलीसिया के बाहर के लोगों से अलग हो; परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, तुमने सत्य का अनुसरण करना चुना है, और तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का मन बनाया है, तो तुम्हारे जीवन के लक्ष्यों और दिशा में बदलाव आना चाहिए, और तुम्हें रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। तुम्हें उन्हें क्यों त्यागना चाहिए? क्योंकि यह वह रास्ता नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। वह अविश्वासियों का मार्ग है, उन लोगों का मार्ग है जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। अगर तुम उस रास्ते पर चलते रहते हो, तो तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से नहीं हो। अगर तुम अविश्वासियों के आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते, और उद्धार नहीं पा सकते। साफ शब्दों में कहें, तो अगर तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग नहीं सकते, और तो और उन्हें साकार करना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने में असमर्थ हो, और तुम कभी बचाए नहीं जा सकते। इसका क्या मतलब है? अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने में असमर्थ होना और उन्हें साकार करने की इच्छा रखना, अपने सत्य के अनुसरण को त्यागने, उद्धार को त्यागने, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित न होने की इच्छा रखने के समान है। यही बात है न? (बिल्कुल।) तो अंत में, यह वैसा ही है जैसा कि मैंने कहा : अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागना चाहिए। तुम्हें उनका त्याग करना होगा, क्योंकि सांसारिक आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण का उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है जो सत्य का अनुसरण करते हुए उद्धार पाना चाहते हैं; यह वह मार्ग नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और न ही वह लक्ष्य और दिशा है जिसे तुम्हें अपने जीवन में निर्धारित करना चाहिए। अगर तुम अक्सर अपने दिल में इसके लिए योजना बनाते हो और इसका हिसाब लगाते हो, इस पर चिंतन-मनन करने के लिए माथापच्ची करते हो, तो तुम्हें इसे जल्द से जल्द त्याग देना चाहिए। तुम दो नाव में सवार नहीं रह सकते, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के साथ-साथ सांसारिक चीजों का अनुसरण करने और अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की इच्छा नहीं रख सकते। इस तरह, तुम न सिर्फ किसी भी लक्ष्य को पूरा करने या उसे साकार करने में असमर्थ होगे, बल्कि इसके अलावा—और सबसे महत्वपूर्ण बात—यह तुम्हारे उद्धार को प्रभावित करेगा। आखिर में, न केवल तुम मनुष्य का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से चूक जाओगे, बल्कि परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार के सर्वोत्तम अवसर को गँवा बैठोगे और बचाए जाने का मौका भी खो दोगे। अंत में, तुम आपदा में गिर जाओगे, अपनी छाती पीटोगे और अपने पैर पटकोगे, लेकिन तब तक पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी—तुम्हारा दुर्भाग्य ऐसा होगा। अगर तुम समझदार हो और सत्य का अनुसरण करने का मन बना चुके हो, तो तुम्हें उन आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए जिनका तुम कभी अनुसरण करते थे या आज भी कर रहे हो। मूर्ख, बेवकूफ, बुद्धिहीन और भ्रमित लोग—ये लोग सत्य का अनुसरण करना और बचाए जाना चाहते हैं, मगर वे अपने सांसारिक लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को नहीं त्यागना चाहते। वे दोनों चीजें पाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह से कार्य करना फायदेमंद है, यह समझदारी है, जबकि असल में, यह सबसे बड़ी बेवकूफी है। समझदार लोग अपने सांसारिक लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को पूरी तरह से त्याग देते हैं और सत्य का अनुसरण करके बचाए जाने का रास्ता चुनते हैं। चाहे संसार कितना भी विकसित हो जाए, और विभिन्न क्षेत्रों और उद्योगों में चाहे कुछ भी हो रहा हो या वे कितने भी विकसित हों, इनमें से किसी का भी तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। जो संसार के लोग हैं, वे शैतान जो पृथ्वी पर रहते हैं, उन्हें वह करने दो जो उन्हें करना चाहिए। एक ओर, हम जो करेंगे वह होगा उस कर्तव्य को पूरा करना जो हमें करना चाहिए, और दूसरी ओर, हम उनकी मेहनत के फल का आनंद उठाएँगे। कितनी बढ़िया बात है! उदाहरण के लिए, उनके द्वारा आविष्कार किए गए कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर तुम्हारे कर्तव्य और कामकाज के लिए बहुत मददगार हैं। तुम इनका इस्तेमाल करते हो, इन्हें अपने काम में लाते हो; अपना कर्तव्य अच्छे से निभाते हुए तुम इनकी मदद लेते हो, अपने काम को बेहतर ढंग से पूरा करने में इसकी मदद लेते हो, इनकी मदद से अपने कर्तव्य-प्रदर्शन की दक्षता बढ़ाते हो और इस तरह बेहतर परिणाम पाते हो और साथ ही ज्यादा समय भी बचाते हो। कितनी बढ़िया बात है! तुम्हें शोध कार्य में अपना दिमाग लड़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है : “इस सॉफ्टवेयर का आविष्कार कैसे हुआ? इसे किसने बनाया? मुझे इस सॉफ्टवेयर में, इस तकनीकी क्षेत्र में कैसे प्रयास करना चाहिए?” इस तरह अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बेकार है। तुम्हारे विचार और ऊर्जा इसके लिए नहीं हैं। तुम्हें इस मामले में अपनी ऊर्जा या दिमाग लगाने की कोई जरूरत नहीं है। जिन सांसारिक लोगों को ऐसा करना चाहिए उन्हें ही यह सब करने दो; उनके योगदान देने के बाद, हम उन्हें लेते हैं और उनका उपयोग करते हैं। कितनी बढ़िया बात है! सब कुछ पहले से तैयार है। परमेश्वर ने सब कुछ पहले से ही व्यवस्थित कर दिया है, तो तुम्हें इसका अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, और न ही इन मामलों में चिंतित होने या प्रयास करने की कोई जरूरत है। इन मामलों में, तुम्हें कुछ भी अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, और न ही किसी भी चीज के बारे में सोचने या चिंता करने की जरूरत है। तुम्हें बस अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाना, सत्य का अनुसरण करना, सत्य समझना, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है। क्या यह जीवन का सबसे सही मार्ग नहीं है? (बिल्कुल है।)

क्या तुम लोगों ने अब आदर्शों और इच्छाओं के पीछे भागने का मुद्दा समझ लिया है? कुछ लोग कहते हैं : “अगर लोग अपने आदर्शों के पीछे नहीं भागते, तब भी क्या संसार प्रगति कर पाता?” मैं कहता हूँ, कर पाता। क्या तुम लोगों को यह जवाब समझ आया? समझ रहे हो? (हाँ।) तो क्या फिर तुम लोग भी उस मुद्दे का सार स्पष्ट देख पा रहे हो जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं? वास्तव में क्या ऐसा ही नहीं होता है? (हाँ, होता है।) जब निष्कर्ष की बात आए—जब संसार के विकास, प्रगति और मामलों की बात आए—तो संसार के दानवों या संसार के तथाकथित “मनुष्यों” को ही इनसे निपटने दो। इसका परमेश्वर में विश्वास करने वालों से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों का मकसद और जिम्मेदारी क्या है? (वे अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाएँ, सत्य का अनुसरण करें, और उद्धार प्राप्त करें।) सही कहा। यह बहुत विशिष्ट और व्यावहारिक है। क्या यह सरल नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास करने वालों को बस सत्य का अनुसरण करने और उसके मार्ग के अनुसार चलने की जरूरत है, और इस तरह आखिर में उन्हें बचा लिया जाएगा। यह तुम्हारा मकसद है, और परमेश्वर की तुम लोगों से सबसे बड़ी अपेक्षा और आशा भी है। बाकी चीजें परमेश्वर संभालता है, तो तुम्हें चिंता करने या परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब समय आएगा, तब तुम उन सभी चीजों का आनंद लोगे, वह सब खाओगे, और उन सभी चीजों का इस्तेमाल करोगे जो तुम्हें करना चाहिए। सब कुछ तुम्हारी कल्पना और अपेक्षाओं से बढ़कर होगा, और प्रचुरता में होगा। परमेश्वर न तो तुम्हें किसी चीज की कमी होने देगा और न ही गरीब होने देगा। बाइबल में एक पंक्ति है जो कहती है कि प्रभु का बोझ हल्का है। मूल कहावत क्या है? (“क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है” (मत्ती 11:30)।) इसका वही मतलब है न? (बिल्कुल है।) तुमसे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा रखने का उद्देश्य तुम्हें औसत दर्जे का बनाना, या आलसी, लक्ष्यहीन, एक जिंदा लाश या आत्माहीन व्यक्ति बनाना नहीं है; बल्कि, इसका उद्देश्य तुम्हारे अनुसरण की गलत दिशा और लक्ष्यों को बदलना है। तुम्हें उन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं होने चाहिए, और सही लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को निर्धारित करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह तुम जीवन के सही मार्ग पर चल सकते हो। तो क्या इस समस्या का हल हो गया है? अगर लोग अपने आदर्शों का अनुसरण न करें, तो क्या संसार में विकास जारी रहेगा? इसका जवाब है, “हाँ।” ऐसा क्यों? (क्योंकि परमेश्वर ने संसार से संबंध रखने वाले लोगों के लिए एक मक्सद तय किया है; यह कार्य वही लोग करेंगे।) सही कहा, क्योंकि परमेश्वर का अपना विधान और व्यवस्थाएँ हैं, तो तुम्हें चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। संसार विकसित होगा, और इस जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा करने के लिए, परमेश्वर में विश्वास करने वालों को खुद यह मकसद अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने चीजों की व्यवस्था की है। तुम्हें इसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर किसकी व्यवस्था करता है। तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना और उद्धार प्राप्त करना ही काफी है। क्या तुम्हें किसी और चीज के बारे में परेशान होने की जरूरत है? (नहीं।) नहीं। तो, अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने का मार्ग ही वह है जिसका अभ्यास तुम्हें करना चाहिए। तुम्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है कि अगर तुमने अपने आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दिया तो फिर संसार या मानवजाति का क्या होगा। तुम्हें इसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं है। इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर ने चीजें व्यवस्थित कर रखी हैं। यह इतना सरल है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) इस तरह से संगति करके, क्या मैंने समस्या को जड़ से हल नहीं कर दिया है? (बिल्कुल कर दिया है।) अगर कोई तुम लोगों से दोबारा पूछे, तो इस समस्या के प्रति तुम लोगों का क्या नजरिया होगा और तुम इसे कैसे समझाओगे? अगर परमेश्वर में विश्वास नहीं करने वाला कोई व्यक्ति तुमसे पूछे : “तुम लोग हमेशा आदर्शों का अनुसरण नहीं करने, और आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात करते हो। अगर हर कोई तुम लोगों के हिसाब से अभ्यास करने लगे, तो क्या संसार का अस्तित्व बचेगा? क्या मानवता विकसित होती रहेगी?” तब तुम यह कहकर इसका जवाब दे सकते हो : “हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।” यह संसार में एक लोकप्रिय कहावत है। तुम्हें कहना चाहिए : “परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें; यह सत्य है। अगर तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार हो, तो इन चीजों को त्याग सकते हो। अगर तुम इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो, तो तुम उन्हें नहीं त्यागने का फैसला भी कर सकते हो। परमेश्वर किसी को मजबूर नहीं करेगा। अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, और यह तुम्हारा अधिकार है। उन्हें नहीं त्यागना भी तुम्हारी इच्छा है और यह भी तुम्हारा अधिकार है। हर एक व्यक्ति का अपना विशेष मकसद होता है। पूरी मानवजाति में, हर एक व्यक्ति का अपना मकसद है, उसकी अपनी भूमिका है जो उन्हें निभाना चाहिए। लोगों की पसंद अलग-अलग होती है, तो वे जिस मार्ग पर चलते हैं वह भी अलग-अलग होता है। तुम संसार का अनुसरण करने, इस संसार में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने, और अपने मूल्यों को अपनाना चुनते हो, जबकि मैं परमेश्वर का अनुसरण करने, उसके वचनों को सुनने, उसके मार्ग के अनुसार चलने और उसे संतुष्ट करने के लिए अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चुनता हूँ। आखिर में, मैं उद्धार पाने में सक्षम रहूँगा। तुम इस मार्ग पर नहीं चलते, और तुम्हें ऐसा करने की आजादी है। तुम्हें कोई मजबूर नहीं कर सकता।” यह जवाब कैसा है? (अच्छा है।) अगर तुम “अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने” के विचार को स्वीकार सकते हो, तो ये वचन तुम्हारी ओर निर्देशित हैं। अगर तुम इसे स्वीकार नहीं सकते, तो इस पर कोई जोर नहीं है कि तुम्हें इन वचनों को सुनना और स्वीकारना ही होगा। तुम इन्हें नहीं सुनना चुन सकते हो; तुम मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को छोड़ना चुन सकते हो, और उद्धार पाने का अपना मौका गँवा सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को न त्यागकर, इस संसार में आत्मविश्वास और साहस के साथ उन्हें साकार भी कर सकते हो। कोई तुम पर दबाव नहीं बनाएगा, और कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम्हारा फैसला तुम्हारा मकसद भी है, और तुम्हारा मकसद वह भूमिका है जिसे परमेश्वर ने तुम्हें मनुष्यों के बीच निभाने के लिए निर्धारित किया है। बात बस इतनी है। यह तथ्यों की वास्तविक स्थिति है। तुम जो भी रास्ता चुनोगे, वैसे ही रास्ते पर आगे बढ़ोगे; तुम जिस भी मार्ग पर चलोगे, लोगों के बीच वही तुम्हारी भूमिका होगी। यह इतना सरल है। यही वास्तविक तथ्य हैं। तो, यहाँ पहले वाली कहावत ही लागू होती है : “हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।” मगर यह महत्वाकांक्षा आती कहाँ से है? मूल रूप से, इसे परमेश्वर ने निर्धारित किया है। अगर तुम सत्य को स्वीकार करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना नहीं चुनते तो इसका मतलब है कि परमेश्वर ने तुम्हें नहीं चुना है, और तुम्हारे पास उद्धार पाने का मौका नहीं है। साफ शब्दों में कहूँ, तो तुम्हारे पास यह आशीष नहीं है; परमेश्वर ने यह निर्धारित नहीं किया था। अगर परमेश्वर में विश्वास करने या सत्य का अनुसरण करने में तुम्हारी दिलचस्पी नहीं है—अगर तुम इस पहलू का अनुसरण नहीं करते हो—तो तुम्हारे पास यह आशीष नहीं है। जिन्हें परमेश्वर के घर में आने के लिए निर्धारित किया गया है वे वहाँ अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हैं। परमेश्वर जो भी कहता है, वे उसे सुनते हैं; अगर वह चाहता है कि वे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें, तो वे ऐसा ही करते हैं। अगर वे उन्हें नहीं त्याग पाते, तो इस पर चिंतन-मनन करने के लिए अपना दिमाग लगाते हैं कि इनका त्याग कैसे किया जाए। ऐसा व्यक्ति उद्धार पाने का इच्छुक होता है। यह उनकी आत्मा की सबसे गहरी आवश्यकता और अपेक्षा है, जो परमेश्वर निर्धारित करता है, इसलिए उनके पास यह आशीष होती है, जो कि उनका सौभाग्य है। तुम्हें वही भूमिका निभानी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हारे लिए निर्धारित करता है। वही स्रोत है। जिनके पास यह आशीष नहीं है वे संसार का अनुसरण करते हैं, और जिनके पास यह आशीष है वे सत्य का अनुसरण करते हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) तो अगर तुम लोगों से कोई दोबारा पूछे, तब क्या तुम लोग जवाब दे पाओगे? (हाँ।) सबसे आसान जवाब क्या है? (हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।) हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते। तुम्हें अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के लिए कहने का उद्देश्य सिर्फ तुम्हें अभ्यास का मार्ग देना है। तुम चाहो तो उन्हें त्याग सकते हो, या फिर नहीं भी त्याग सकते हो। हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते। अगर तुम इन वचनों को स्वीकारते हो, तो ये तुम्हारी ओर निर्देशित हैं। अगर तुम इन्हें नहीं स्वीकारते, तो ये वचन तुम्हारी ओर निर्देशित नहीं हैं, और अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है; तुम आजाद हो। क्या यह मसला हल हो गया? (हाँ।) यह मसला हल हो गया है, तो अब कोई भी इस पर शोर मचाता नहीं फिरेगा, ठीक है? (हाँ।)

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