सत्य का अनुसरण कैसे करें (8) भाग तीन

रुचियों और शौक के प्रति हमें सही ढंग से कैसे पेश आना चाहिए, इस मसले को हमने स्पष्ट कर दिया है; तो अब, वास्तव में त्याग करने का क्या अर्थ है? हम रुचियों और शौक की आलोचना या निंदा नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम उन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का विश्लेषण कर रहे हैं जिन्हें लोग अपनी रुचियों और शौक को अपनी नींव और पूंजी बनाकर निर्धारित करते हैं। नतीजतन, ये वही लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ हैं जिनका वास्तव में त्याग करना चाहिए। इससे पहले हमने तुम्हारी रुचियों और शौक को एक सकारात्मक भूमिका निभाने और एक सकारात्मक प्रभाव पैदा करने के बारे में संगति की थी—यह लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के लिए अभ्यास का एक सक्रिय तरीका है। दूसरे संदर्भ में, लोगों को बस अपनी रुचियों और शौक के कारण अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए—यह त्याग करने का एक अधिक व्यावहारिक रूप है। दूसरे शब्दों में, एक पहलू अपनी रुचियों और शौक का अच्छी तरह से उपयोग करना है, जबकि दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें अपनी रुचियों और शौक द्वारा निर्धारित आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए, यानी, जीवन के उन लक्ष्यों का अनुसरण मत करो जो तुम्हारी रुचियों और शौक के कारण विकसित हुए हैं। तो तुम यह कैसे पता लगा सकते हो कि तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण नहीं, बल्कि अपनी रुचियों और शौक का सामान्य तरीके से उपयोग कर रहे हो? अगर तुम्हारी कोई रुचि या शौक है, और तुम उसे अपने कार्य, अपने कर्तव्य निर्वहन और अपने दैनिक जीवन में सही ढंग से लागू करते हो, अगर तुम्हारे अनुसरण का उद्देश्य दिखावा करना या खुद का ढिंढोरा पीटना नहीं है, अगर यकीनन तुम्हारा उद्देश्य प्रसिद्धि पाना या दूसरों का सम्मान, सराहना और प्रशंसा हासिल करना नहीं है, और बेशक इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि तुम्हारा उद्देश्य अपनी रुचियों और शौक के कारण लोगों के दिलों में अपने लिए जगह बनाना नहीं है, ताकि तुम खुद को स्थापित कर सको और लोग तुम्हारा अनुसरण करें, तो तुमने अपनी रुचियों और शौक का एक सकारात्मक, उचित, सही, और तर्कसंगत ढंग से इस्तेमाल किया है, जो सामान्य मानवता और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, और तुम उनका उपयोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर रहे हो। लेकिन अगर, अपनी रुचियों और शौक का उपयोग करते या उन्हें लागू करते हुए, तुम खुद का दिखावा करने के दृढ़ उद्देश्य के साथ दूसरों को अपनी सराहना करने या तुम्हें स्वीकारने पर मजबूर करते हो, अगर तुम अनैतिक ढंग से, बेशर्मों की तरह, और जबरन दूसरों को तुम्हारी बात सुनने और तुम्हें स्वीकारने पर मजबूर करते हो, अगर तुम अपनी रुचियों और शौक का दिखावा करके अपने घमंड को संतुष्ट करते हो, दूसरों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखते, और अपनी रुचियों और शौक का इस्तेमाल दूसरों पर काबू पाने, उनके दिलों में जगह बनाने, और लोगों के बीच प्रतिष्ठा पाने के लिए करते हो, और अगर अंत में तुम्हें अपनी रुचियों और शौक के कारण प्रसिद्धि और लाभ हासिल होता है, तो यह रुचियों और शौक का न तो सही उपयोग है, और न ही तुम्हारी रुचियों और शौक का सामान्य इस्तेमाल है। ऐसे कार्यों की निंदा की जानी चाहिए, लोगों को उन्हें पहचान कर ठुकरा देना चाहिए, और यकीनन उन्हें इनका त्याग भी करना चाहिए। जब तुम अपने कर्तव्यों के निर्वहन करने के मौकों का फायदा उठाते हो, खुद को एक अगुआ या प्रभारी व्यक्ति या असाधारण प्रतिभा वाला व्यक्ति होने का दिखावा करते हो, ताकि दूसरों को यह दिखा सको कि तुममें कुछ प्रतिभाएँ और कौशल हैं और तुम्हारी रुचियाँ और शौक उनसे बेहतर हैं, तो कार्य करने का यह तरीका अनुचित है। इसमें लोगों के बीच प्रतिष्ठा पाने और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी रुचियों और शौक का उपयोग करना शामिल है। सटीक तौर पर कहें, तो यह प्रक्रिया या कार्य करने का तरीका अपनी रुचियों और शौक का लाभ उठाने और अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को साकार करते हुए लोगों की सराहना पाने के बराबर है। तुम्हें इसका त्याग करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “यह सुनने के बाद भी मैं नहीं जानता कि त्याग कैसे करूँ।” वास्तव में, क्या त्याग करना आसान है? जब तुम्हारे पास कुछ खास रुचियाँ और शौक होते हैं, और अगर तुम उनका कुछ नहीं करते, तो ये रुचियाँ और शौक तुम्हारी मानवता में ही निहित रहते हैं और इनका तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग से कोई लेना-देना नहीं होता है। लेकिन जब तुम लगातार अपनी रुचियों और शौक का दिखावा करने लगते हो, लोगों के बीच प्रसिद्धि हासिल करने या अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश करते हो, अपने आप को अधिक लोगों से परिचित कराने और उनका अधिक ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हो, तो यह प्रक्रिया और कार्य करने का तरीका सरल नहीं रह जाता है। ये सभी कार्य और व्यवहार साथ मिलकर वह मार्ग बनाते हैं जिसे व्यक्ति अपनाता है। तो, यह कौन-सा मार्ग है? यह परमेश्वर के घर में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने, दूसरों की प्रशंसा पाने और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने का मार्ग है। जब तुम ऐसे अनुसरण पर निकल पड़ते हो, तो इस मार्ग से वापस लौटना मुमकिन नहीं होता, यह विनाश की ओर ले जाने वाला मार्ग बन जाता है। क्या तुम्हें तुरंत वापस मुड़कर, अपने कार्यों को सुधारकर, इन कार्यकलापों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग नहीं देना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं अभी भी त्याग करना नहीं जानता।” तो, मत करो त्याग। “मत करो” से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हें अपनी रुचियों और शौक को छिपाए रखना चाहिए और उनका दिखावा न करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “लेकिन अगर मेरे कर्तव्य निर्वहन में उनकी जरूरत है, तो क्या मुझे उन्हें प्रदर्शित करना चाहिए?” जब सही समय आए, जब तुम्हें उन्हें प्रदर्शित करने की जरूरत हो, तुम्हें उन्हें प्रदर्शित करना चाहिए—यही इसका सही समय है। हालाँकि, यदि तुम अभी अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के मार्ग पर हो, तो उन्हें प्रदर्शित मत करो। जब तुम्हें उनका दिखावा करने की तीव्र इच्छा महसूस हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, दृढ़ संकल्प लेकर इन इच्छाओं को ठुकराना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और अनुशासन को स्वीकार करके अपने दिल पर काबू पाना चाहिए और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर शुरू में ही लगाम लगाना और उन्हें मिटा देना चाहिए, उन्हें कभी वास्तविकता नहीं बनने देना चाहिए—क्या यह अच्छा है? (बिल्कुल।) क्या ऐसा करना आसान है? यह आसान नहीं है, है न? ऐसा कौन है जिसके पास थोड़ी-सी भी प्रतिभा हो और वह उसका दिखावा न करना चाहे? उन लोगों का तो जिक्र भी मत करो जिनके पास कुछ विशेष कौशल होते हैं। कुछ लोग खाना पकाना और भोजन तैयार करना जानते हैं, और वे जहाँ भी जाते हैं इसका दिखावा करना चाहते हैं, यहाँ तक कि खुद को “टोफू ब्यूटी” या “नूडल क्वीन” जैसे नामों से भी बुलाते हैं। क्या ये छोटे-मोटे कौशल दिखाना सही है? अगर उनके पास असाधारण प्रतिभाएँ हों, तो उनका अहंकार कितना गहरा हो जाएगा? निस्संदेह वे ऐसे मार्ग पर चले जाएँगे जहाँ से उनका वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा। यकीनन, अपनी रुचियों और शौक के कारण गलत मार्ग अपनाने या ऐसा मार्ग अपनाने के अलावा जहाँ से उनका वापस लौटना मुमकिन नहीं है, अधिकांश लोग परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रक्रिया में अपनी रुचियों और शौक के कारण अक्सर सक्रिय विचार भी रखते हैं। परमेश्वर में विश्वास करते और अपना कर्तव्य करते हुए, वे लगातार मन में अपने आदर्शों और इच्छाओं पर विचार करते रहते हैं, या ऐसा हो सकता है कि वे लगातार खुद को अपने साकार न हो पाए आदर्शों और इच्छाओं की याद दिलाते रहें, अपने दिल को लगातार यह समझाते रहें कि उनके पास अभी भी ये आदर्श और इच्छाएँ हैं जो अब तक साकार नहीं हुए हैं। भले ही उन्होंने इन चीजों के लिए कभी कोई विशेष कीमत नहीं चुकाई है या इनके लिए कोई विशेष अभ्यास नहीं किया है, फिर भी इन आदर्शों और इच्छाओं ने उनके दिलों में गहराई से जड़ें जमा ली हैं, और वे अब तक उन्हें त्याग नहीं पाए हैं।

इससे पहले, हमने इस बारे में संगति और विश्लेषण किया कि आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के साथ-साथ इस संसार के मार्ग का भी अनुसरण करना, ऐसा मार्ग है जहाँ से वापस लौटना मुमकिन नहीं है, यह मार्ग विनाश की ओर ले जाता है। यह मार्ग और सत्य का अनुसरण, दो समानांतर रेखाओं जैसे हैं, ये दोनों रेखाएँ किसी भी बिंदु पर एक दूसरे को नहीं काटेंगी, और बेशक एक दूसरे से कभी मिलेंगी भी नहीं। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाना चाहते हो, तो तुम्हें उन सभी आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना होगा जो तुम पहले अपने दिल में रखते थे। उन्हें संरक्षित करके या संजोकर मत रखो; उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना और सत्य का अनुसरण करना बिल्कुल तेल और पानी जैसा है। अगर तुम्हारे कुछ आदर्श और इच्छाएँ हैं जिन्हें तुम साकार करना चाहते हो, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर पाओगे। अगर सत्य की समझ हासिल करके और इतने वर्षों के अनुभव के जरिये, तुम व्यावहारिक तरीके से सत्य का अनुसरण करने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने पुराने आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए, उन्हें अपनी चेतना या अपनी आत्मा की गहराइयों से पूरी तरह निकाल देना चाहिए। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हारे आदर्श और इच्छाएँ कभी साकार नहीं होंगी। बल्कि, वे तुम्हारे सत्य के अनुसरण और सत्य वास्तविकता में प्रवेश में बाधक बनेंगी, और तुम्हें नीचे खींचती चली जाएँगी और तुम्हारे सत्य के अनुसरण के मार्ग को कठिन और चुनौतीपूर्ण बना देंगी। क्योंकि तुम्हें पता है कि तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार नहीं कर पाओगे, तो बेहतर है कि उनसे अपने सभी रिश्ते तोड़ दो, और उन्हें पूरी तरह से त्याग दो, दोबारा उनके बारे में मत सोचो, और न ही उनके बारे में कोई वहम पालो। अगर तुम कहते हो, “मुझे अभी भी सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के मार्ग में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। मैं अभी भी यह नहीं जानता कि मैं सत्य का अनुसरण कर सकता हूँ या नहीं, मैं सत्य का अनुसरण करने वालों में से हूँ या नहीं। मुझे उद्धार पाने के इस मार्ग के बारे में अभी भी सब कुछ स्पष्ट नहीं है। इसके विपरीत मेरे पास सांसारिक आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करने का काफी ठोस मार्ग, ठोस योजना और रणनीति है।” अगर यही बात है, तो तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य करने का मार्ग त्याग सकते हो। बेशक, अगर तुम पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि तुम्हें अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करना चाहिए या सत्य का, तो मेरा सुझाव यही है कि तुम कुछ समय के लिए शांत बैठे रहो। अगर हो सके तो परमेश्वर के घर में एक-दो साल और बिताओ : जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों को खाओगे और पीओगे, जितने अधिक परिवेशों का अनुभव करोगे, चीजों को देखने का तुम्हारा परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण उतना ही अधिक परिपक्व होगा, तुम्हारी मनोदशा और स्थिति बेहतर हो जाएगी, जो यकीनन तुम्हारे लिए एक बहुत बड़ी आशीष होगी। हो सकता है कि कुछ सालों के बाद तुम कुछ सत्यों को समझ पाओ, जिससे तुम्हें संसार और मानवता के बारे में गहन अंतर्दृष्टि मिले, तब तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम होगे और अपनी मर्जी से जीवन-भर परमेश्वर का अनुसरण करोगे और उसके आयोजनों को स्वीकार कर पाओगे। परमेश्वर के घर में चाहे तुम्हें कितनी ही बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, तुम अपने कर्तव्य निभाने और अपना मकसद पूरा करने में डटे रह पाओगे। और सबसे जरूरी बात यह कि तुमने अपने पिछले आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने का दृढ़ संकल्प और निर्णय ले लिया होगा, जिससे तुम बिना डगमगाए व्यावहारिक तरीके से सत्य का अनुसरण कर सकोगे। लेकिन, अगर तुम अभी फैसला नहीं कर पा रहे हो और एक या दो साल बाद इस बारे में फिर से सोचना चाहते हो कि तुम सत्य का अनुसरण कर पाओगे या नहीं, तो परमेश्वर का घर तुम पर कोई दबाव नहीं बनाएगा या यह नहीं कहेगा, “तुम भटके हुए और अस्थिर इंसान हो।” एक या दो साल के बाद, जैसे-जैसे तुम परमेश्वर के और अधिक वचनों को पढ़ोगे, अधिक उपदेश सुनोगे, थोड़ा-बहुत सत्य समझोगे, और तुम्हारी मानवता परिपक्व होगी, तो चीजों को देखने का तुम्हारा परिप्रेक्ष्य, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया, और संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा। तब तक, तुम्हारे चुनाव अब की तुलना में कुछ हद तक अधिक सटीक होंगे, या अविश्वासियों की भाषा में कहें, तो तब तक तुम्हें अपनी आवश्यकता का बोध हो जाएगा, तुम समझ जाओगे कि तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना है और कैसा इंसान बनना है। यह एक पहलू है। मान लो कि तुम्हें सचमुच परमेश्वर में विश्वास करने में कोई दिलचस्पी नहीं है और तुमने ऐसा केवल इसलिए किया क्योंकि तुम्हारे माता-पिता या सहकर्मियों ने तुम्हें सुसमाचार सुनाया था, जिसे तुमने अपनी इज्जत बचाने या विनम्रता के कारण स्वीकार लिया; अब तुम अनिच्छा से सभाओं में हिस्सा लेते हो और परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य करते हो, तुम यह भी सोचते हो कि कलीसिया में भाई-बहन इतने भी बुरे नहीं हैं और कम-से-कम, वे लोगों पर रौब तो नहीं झाड़ते, और परमेश्वर का घर विवेक का स्थान है, जहाँ सत्य का शासन है, और लोग एक-दूसरे पर दबाव नहीं डालते और रौब नहीं झाड़ते, और तुम्हें महसूस होता है कि परमेश्वर का घर अविश्वासियों की दुनिया से कहीं बेहतर है; मगर तुमने अपने आदर्शों और इच्छाओं को कभी त्यागा नहीं या खुद को बदला नहीं, बल्कि इसके उलट, तुम्हारे दिल, दिमाग और आत्मा की गहराइयों में पहले से मौजूद ये आदर्श और इच्छाएँ अब और भी ज्यादा सुदृढ़ और स्पष्ट होती जा रही हैं; और जैसे-जैसे ये अधिक स्पष्ट होती जाती हैं, तुम्हें महसूस होता है कि जब परमेश्वर में आस्था रखने की बात आती है, तो जिस सत्य पर संगति की जाती है, और दैनिक वचन, कार्य और जीवन जीने का तरीका वगैरह तुम्हारे लिए बेहद नीरस और शुष्क होता जाता है; तुम बेचैन महसूस करते हो, और सत्य का अनुसरण करने का तो सवाल ही नहीं उठता, सत्य के अनुसरण में तुम्हारी कोई दिलचस्पी नहीं होती है, और जीवन में सही मार्ग पर चलने, सही आचरण करने या सकारात्मक चीजें क्या होती हैं, इन्हें लेकर तुम्हारे मन में कोई अच्छी राय नहीं होती है; अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो, तो मैं तुम्हें यही कहूँगा, फटाफट जाओ और अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करो! इस संसार में तुम्हारे लिए जगह मौजूद है, ऐसी जगह जो बुराई की जटिल और अराजक धाराओं के बीच है। तुमने जैसे सोचा था बिल्कुल वैसे ही अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार कर पाओगे और वह सब प्राप्त कर लोगे जो तुम पाना चाहते थे। परमेश्वर का घर तुम्हारे रहने के लिए उपयुक्त जगह नहीं है; यह तुम्हारा आदर्श स्थान नहीं है, और यकीनन, सत्य का अनुसरण करने का मार्ग न तो तुम अपनाना चाहते हो और न ही तुम्हें इसकी आवश्यकता है। अभी जब तुम्हारे आदर्श और इच्छाएँ आकार ले रही हैं, तुम जवान हो और तुम्हारे पास संसार में जाकर संघर्ष करने की ऊर्जा और संसाधन मौजूद हैं, तो अभी इनका फायदा उठाओ, जल्द-से-जल्द परमेश्वर का घर छोड़ दो और जाकर अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करो। परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं रोकेगा। उस दिन का इंतजार मत करो जब तुम आशीष पाने की उम्मीद खो दोगे और तुम्हारे पास अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में कहने को कुछ भी नहीं होगा, जब तुमने अच्छी तरह अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया होगा और आखिरकार पचास, साठ, सत्तर, या अस्सी साल की उम्र में तुम्हारी आँखें खुलेंगी, और तुम सत्य का अनुसरण करना चाहोगे—तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। अगर तुम परमेश्वर के घर में नहीं रहना चाहते, तो अपनी ही बर्बादी का कारण बन जाओगे। तुम्हारे जैसे लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जैसा कि मैंने बताया था, लोगों के लिए अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के लिए जरूरी है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या भले ही अब तक तुमने सत्य का अनुसरण करना शुरू नहीं किया है, लेकिन तुमने सत्य का अनुसरण करने का मन बना लिया है, और चाहे तुम्हें उद्धार प्राप्त हो या न हो, चाहे तुम जियो या मरो, फिर भी तुम परमेश्वर का घर नहीं छोड़ोगे। मैं ऐसे लोगों की बात कर रहा हूँ। बेशक, मुझे एक खंडन भी जोड़ देना चाहिए : चूँकि मैं आज “लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने” के विषय पर संगति कर रहा हूँ, इसका आधार यह है कि लोग सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना चाहते हैं। यह खास तौर से उन लोगों के लिए है जो सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना चाहते हैं। उनके अलावा, जिन्हें सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के मार्ग, दिशा, इच्छा या संकल्प से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें आज के विषय को सुनने की कोई जरूरत नहीं। मैंने यह खंडन जोड़ दिया है; यह जरूरी है, है न? (हाँ।) हम लोगों को आजादी देते हैं, हम किसी को मजबूर नहीं करते। कोई भी सत्य सिद्धांत, कोई भी शिक्षा, पोषण, सहयोग, या मदद लोगों को तर्कसंगत आधार पर और इस शर्त पर दी जाती है कि वे इसे पाना चाहते हैं। अगर तुम नहीं सुनना चाहते, तो तुम अपने कान बंद कर सकते हो, तब न तो तुम्हें इसे सुनना पड़ेगा और न ही इसे स्वीकारना पड़ेगा, या फिर तुम उठकर जा भी सकते हो—दोनों बातें मंजूर हैं। परमेश्वर के घर में सत्य की संगति को स्वीकारने के लिए किसी पर दबाव नहीं बनाया जाता है। परमेश्वर लोगों को आजादी देता है और किसी को मजबूर नहीं करता। बताओ, क्या यह अच्छी बात है? (बिल्कुल।) क्या उन पर दबाव बनाने की जरूरत है? (नहीं।) दबाव बनाने की कोई जरूरत नहीं। सत्य जीवन देता है, शाश्वत जीवन। अगर तुम सत्य पाना चाहते हो, और तुम इसे स्वीकार करके इसके प्रति समर्पण करते हो, तो तुम्हें यह मिलेगा। अगर तुम इसे नहीं स्वीकारते, बल्कि इसे ठुकराकर इसका विरोध करते हो, तो तुम्हें यह कभी नहीं मिलेगा। चाहे तुम्हें यह प्राप्त हो या न हो, तुम्हें इसके परिणामों को स्वीकारना चाहिए। यही बात है न? (हाँ।)

सत्य का अनुसरण करने के दौरान हम कुछ विशेष चीजों को त्यागने की आवश्यकता के बारे में संगति इसलिए करते हैं क्योंकि सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना एक मैराथन में भाग लेने जैसा है। मैराथन में भाग लेने वाले प्रतियोगियों को असाधारण शारीरिक ताकत या असाधारण कौशल की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उनमें बस थोड़ी सहनशक्ति और दृढ़ता होनी चाहिए, और उनके पास विश्वास और डटे रहने का दृढ़ संकल्प होना आवश्यक है। बेशक, मैराथन में भाग लेने की प्रक्रिया में, इन आध्यात्मिक चीजों के अलावा, लोगों को अधिक आसानी से, अधिक स्वतंत्र रूप से, या अपनी इच्छाओं के अनुरूप चुने गए तरीके से अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए धीरे-धीरे कुछ बोझों को भी त्यागना होगा। मैराथन, एक खेल के रूप में, इसकी परवाह नहीं करता कि प्रतियोगी अपनी मंजिल तक किस क्रम में पहुँच रहे हैं; बल्कि, पूरी दौड़ के दौरान हरेक प्रतियोगी के व्यक्तिगत प्रदर्शन, उसकी दृढ़ता, सहनशक्ति और इस दौरान वे जो कुछ भी झेलते हैं उसे महत्व दिया जाता है। ऐसा ही होता है न? (बिल्कुल।) जब परमेश्वर में विश्वास रखने की बात आती है, तो सत्य का अनुसरण करना और अंत में उद्धार पाना एक मैराथन जैसा ही है; यह एक बहुत लंबी प्रक्रिया है, और इस प्रक्रिया में ऐसी कई चीजों को त्यागने की आवश्यकता होती है जिनका सत्य के अनुसरण से कोई संबंध नहीं है। ये चीजें न केवल सत्य से संबंधित नहीं हैं, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधा डाल सकती हैं। इसलिए, इन चीजों को त्यागने और इनका समाधान करने की प्रक्रिया में, व्यक्ति को यकीनन थोड़ा कष्ट सहना, कुछ चीजों को त्यागना, और सही चुनाव करने पड़ सकते हैं। सत्य का अनुसरण करने के लिए लोगों को कई चीजें त्यागनी पड़ती हैं, क्योंकि ये चीजें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से भटकाती हैं और जीवन के उन सही लक्ष्यों और दिशा के विपरीत जाती हैं जिनकी ओर परमेश्वर लोगों को ले जाता है। ऐसी कोई भी चीज जो सत्य के विरुद्ध जाती है और व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने और जीवन में सही मार्ग अपनाने से रोकती है, वह नकारात्मक चीज है, यह सब केवल प्रसिद्धि और लाभ पाने या ढेर सारी धन-दौलत जैसे नतीजे पाने के लिए हैं। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश का यह मार्ग लोगों की क्षमताओं के साथ-साथ उनके ज्ञान, उनके भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों, और उनके सांसारिक आचरण के विभिन्न फलसफों के साथ-साथ उनके विभिन्न तरीकों, चालों और साजिशों पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति जितना अधिक अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के पीछे भागेगा, उतना ही वह सत्य से, परमेश्वर के वचनों से, और परमेश्वर ने उनके लिए जो सही मार्ग बताया है उससे दूर होता चला जाएगा। व्यक्ति के दिल में बसी तथाकथित आदर्श और इच्छाएँ वास्तव में खोखली चीजें हैं, वे तुम्हें आचरण करना, परमेश्वर की आराधना करना या उसे समझना, या परमेश्वर और उसकी इच्छा के प्रति और परम प्रभु के प्रति समर्पण करना और इस तरह की अन्य सकारात्मक चीजें नहीं सिखा सकतीं। जब तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करोगे, तो तुम्हें इनमें से ऐसी कोई भी सकारात्मक और मूल्यवान चीज हासिल नहीं होगी जो सत्य के अनुरूप हो। लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की ओर निर्देशित जीवन के किसी भी मार्ग का अंतिम लक्ष्य, सार और प्रकृति एक ही होती है—वे सभी सत्य के विरुद्ध जाते हैं। हालाँकि, सत्य के अनुसरण का मार्ग अलग है। यह तुम्हारे जीवन के मार्ग की ओर सही राह दिखाएगा—यह इस बात को कहने का थोड़ा व्यापक तरीका है। अधिक सटीकता से कहें, तो यह विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों से पेश आने को लेकर तुम्हारे गलत और विकृत विचारों और दृष्टिकोण को उजागर करेगा। साथ ही, यह तुम्हें सूचित करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, तुम्हें सही और सटीक विचार और दृष्टिकोण देगा और सिखाएगा। बेशक, यह तुम्हें यह भी बताएगा कि लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के प्रति तुम्हें किस तरह के विचार और दृष्टिकोण रखने चाहिए। सत्य का अनुसरण करने का यह मार्ग तुम्हें आचरण करना, सामान्य मानवता की सीमाओं के भीतर रहना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण करना सिखाता है। कम से कम, तुम्हें अंतरात्मा और विवेक के मानक से नीचे नहीं गिरना चाहिए—तुम्हें एक मनुष्य की तरह और एक मनुष्य के तौर पर जीवन जीना चाहिए। इसके अलावा, यह मार्ग तुम्हें उन विचारों, दृष्टिकोणों, परिप्रेक्ष्यों और रुख के बारे में अधिक विशेष रूप से जानकारी देता है जो तुम्हारे पास हर मामले को देखने और हर चीज को करने के दौरान होने चाहिए। इसी के साथ, ये सही विचार, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख, अपने आचरण और व्यवहार के वे सही मानदंड और सिद्धांत भी हैं जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। जब कोई व्यक्ति पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने की वास्तविकता को प्राप्त कर लेता है या उसमें प्रवेश कर लेता है, तो उस व्यक्ति को बचा लिया गया है। जब कोई व्यक्ति बचा लिया जाता है और उसे सत्य प्राप्त हो जाता है, तो चीजों के प्रति उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल जाएगा, उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप और परमेश्वर के अनुकूल हो जाएगा। इस चरण पर पहुँचने के बाद, व्यक्ति फिर कभी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करेगा, और न ही परमेश्वर अब उसे ताड़ना देगा या उसका न्याय करेगा, और न ही उससे घृणा करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह व्यक्ति अब परमेश्वर का शत्रु नहीं है, वह अब परमेश्वर के विरोध में नहीं खड़ा है, और परमेश्वर वास्तव में और उचित रूप से अब अपने सृजित प्राणियों का सृष्टिकर्ता बन गया है। अब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में वापस लौट चुके हैं, और परमेश्वर उस भक्ति, समर्पण, और भय का आनंद लेता है जो लोगों को उसके प्रति व्यक्त करना चाहिए। फिर सब कुछ स्वाभाविक रूप से चलने लगता है। परमेश्वर की बनाई सभी चीजें मानवजाति के लिए हैं, और इसके बदले में, मानवजाति परमेश्वर की संप्रभुता के तहत सभी चीजों का प्रबंधन करती है। सभी चीजें मानवजाति के प्रबंधन के दायरे में आती हैं, सब कुछ परमेश्वर के बनाए नियमों और व्यवस्थाओं के हिसाब से चलता है, सब व्यवस्थित तरीके से प्रगति करता और आगे बढ़ते रहता है। मानवजाति परमेश्वर की बनाई सभी चीजों का आनंद लेती है, और मानवजाति के प्रबंधन में सभी चीजें व्यवस्थित तरीके से रहती हैं। सभी चीजें मानवजाति के लिए हैं, और मानवजाति सभी चीजों के लिए है। यह सब बहुत ही सामंजस्यपूर्ण और व्यवस्थित है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार से आता है। यह वाकई बेहद शानदार चीज है। यह लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के मुख्य अर्थों में से एक है। भले ही तुम अभी अपने अस्थायी आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दो, पर अंत में, तुम्हें सत्य प्राप्त होगा, यही जीवन है, यह सबसे कीमती चीज है। इन बेकार आदर्शों और इच्छाओं की तुलना में जिन चीजों का तुम त्याग करते हो, वे न जाने कितने हजारों गुना या यूँ कहें कि दस हजार गुना ज्यादा कीमती हैं। उनकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। ऐसा ही है न? (बिल्कुल है।) बेशक, एक बात स्पष्ट कर देनी चाहिए : लोगों को यह समझना चाहिए कि आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करने से वे आचरण करना नहीं सीख पाएँगे। तुम्हारे पैदा होने के दिन से ही तुम्हारे माता-पिता ने तुमसे कहा है, “तुम्हें झूठ बोलना और अपनी रक्षा करना सीखना चाहिए, और दूसरों को खुद पर धौंस जमाने नहीं देना चाहिए। जब कोई तुम पर धौंस जमाए तो तुम्हें सख्त होना चाहिए, कमजोर नहीं पड़ना चाहिए, दूसरों को यह मत सोचने दो कि तुम पर धौंस जमाना आसान है। इतना ही नहीं, तुम्हें ज्ञान प्राप्त करके खुद को मजबूत भी बनाना चाहिए, ताकि तुम समाज में दृढ़ता से खड़े रह सको। तुम्हें प्रसिद्धि और लाभ का अनुसरण करना चाहिए, महिलाओं को स्वतंत्र होना चाहिए, और पुरुषों को संसार का बोझ उठाना चाहिए।” छोटी-सी उम्र से, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें ऐसी शिक्षा दी, मानो वे तुम्हें सही आचरण करना सिखा रहे हों; पर असलियत यह है कि वे तुम्हें इस संसार में, बुराई के इस ज्वार में धकेलने के लिए प्रयासरत थे, वे किसी भी हद तक जाना चाहते थे, और यहाँ तक कि अपना जीवन भी दांव पर लगाते दिख रहे थे, ताकि तुम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बोध से अनजान रहो, न्याय और अन्याय के बीच अंतर न कर सको, और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में भेद करना न जानो। इसी के साथ, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें यह भी सिखाया, “जो बन पड़े वो करो, दूसरों के साथ बहुत विनम्र मत बनो। दूसरों के प्रति सहनशीलता अपने आप से क्रूरता है।” जब से तुमने चीजों को समझना शुरू किया है तभी से वे तुम्हें इस तरह की शिक्षा दे रहे हैं, और फिर स्कूल में, और समाज में भी हर कोई तुम्हें यही चीजें सिखाता है। वे तुम्हें यह इसलिए नहीं सिखाते कि तुम एक मनुष्य की तरह आचरण करना सीखो, बल्कि इसलिए ताकि तुम राक्षस बन जाओ, झूठ बोलो, बुराई करो और तुम्हारा विनाश हो जाए। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद ही तुम्हें पता चलता है कि व्यक्ति को एक ईमानदार इंसान की तरह आचरण करना चाहिए और सच व तथ्य ही बोलने चाहिए। तुम साहस जुटाते हो और आखिरकार सच बोलने में सफल होते हो, तुम एक बार सच बोलने के लिए अपनी अंतरात्मा और नैतिक सीमाओं पर निर्भर होते हो, मगर फिर समाज तुम्हें ठुकरा देता है, तुम्हारा परिवार तुम पर उँगली उठाता है, यहाँ तक कि तुम्हारे दोस्त भी तुम्हारा उपहास करते हैं, और अंत में क्या होता है? तुम्हें बहुत ठेस पहुँचती है, तुम इसे सह नहीं पाते हो, और तुम नहीं जानते कि अब कैसा आचरण करना चाहिए। तुम्हें लगता है कि मनुष्य जैसा आचरण करना बेहद कठिन है, राक्षस बनना अधिक आसान है। राक्षस बन जाओ और इस समाज की बुराई के मार्ग पर चलो—कोई कुछ नहीं कहेगा। इस पूरी मानवजाति में कोई भी तुम्हें सही आचरण करना नहीं सिखाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद उसके द्वारा कहा गया हर वचन जो तुम सुनते हो और उसके द्वारा किया गया सारा कार्य जो तुम देखते हो, वह तुम्हें यह सिखाने के लिए है कि तुम्हें कैसे आचरण करना है, सत्य का अभ्यास कैसे करना है ताकि तुम एक सच्चे मनुष्य बन सको। केवल परमेश्वर के वचनों में ही तुम्हें इस प्रश्न का सही उत्तर मिल सकता है कि सच्चा मानव जीवन क्या है। इसलिए, लोगों और चीजों को देखने, और आचरण और कार्य करने का तरीका, सत्य को कसौटी मानकर पूरी तरह परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। इसे ही कहते हैं इंसान की तरह व्यवहार करना। जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करने के आधार को समझ जाओगे और सत्य सिद्धांतों को समझकर उनमें प्रवेश करोगे, तो तुम सही आचरण करना सीख जाओगे, और सच्चे इंसान बन जाओगे। यही स्वयं के आचरण की नींव है, और केवल ऐसे ही व्यक्ति का जीवन सार्थक है, केवल वे ही जीने लायक हैं और उन्हें मरना नहीं चाहिए। वहीं दूसरी ओर, जो लोग राक्षसों की तरह व्यवहार करते हैं, इंसानी चमड़ी में दिखने वाली वे जिंदा लाशें, उन्हें जीने का कोई हक नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि परमेश्वर ने जो कुछ भी बनाया है वह मानवजाति के लिए, परमेश्वर के सृजित प्राणियों के लिए है, राक्षसों के लिए नहीं। तो फिर ऐसे लोग आज भी जिंदा क्यों हैं? क्या वे उन लोगों के बीच रहकर फायदा नहीं उठा रहे जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता था? अगर इस चरण में परमेश्वर का उद्धार कार्य न होता, सेवा करने के लिए दानवों और शैतानों का उपयोग करने की जरूरत न होती, अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नकारात्मक चीजों की पहचान करने और शैतान के सार को जानने देने की बात न होती, तो परमेश्वर उन्हें बहुत पहले ही नष्ट कर चुका होता, क्योंकि ये लोग परमेश्वर की बनाई सभी चीजों का आनंद लेने के लायक नहीं हैं, और वे परमेश्वर की बनाई चीजों को तबाह और बर्बाद कर देते हैं। तुम्हें क्या लगता है, यह सब देखकर परमेश्वर को कैसा महसूस होगा? क्या उसे अच्छा लगेगा? (बिल्कुल नहीं।) इसलिए, परमेश्वर सामान्य मानवता वाले लोगों के एक समूह को तत्काल बचाना चाहता है जो सच्चे इंसान हैं, और उन्हें आचरण करना सिखाना चाहता है। जब ये लोग उद्धार प्राप्त कर लेंगे, जिंदा रहने और नष्ट न किए जाने के योग्य बन जाएँगे—तब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाएगा। कहने का मतलब है कि चाहे ये चीजें सटीक और सही होने के स्तर पर पहुँचें या नहीं, लेकिन कम से कम उनके जीवित रहने के नियम, जीवन के बारे में उनके दृष्टिकोण, उनके चुने गए मार्ग और उनके अनुसरण, और परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के साथ पेश आने के उनके रवैये तो सत्य के विरुद्ध नहीं जाते हैं, और यकीनन वे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की हद तक बिल्कुल नहीं जाते; जब इन लोगों को इसलिए नष्ट नहीं किया जाएगा, क्योंकि वे बुनियादी तौर पर परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं—तब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाएगा। इस महान कार्य के पूरा होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जिन्हें परमेश्वर ने बचाया है वे हमेशा अस्तित्व में रह सकते हैं, हमेशा जीवित रह सकते हैं। इंसानी भाषा में कहें, तो इसका मतलब है कि इस मानवजाति के उत्तराधिकारी होंगे, परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्यों के पूर्वजों के उत्तराधिकारी होंगे, और ऐसे मनुष्य होंगे जो सभी चीजों का प्रबंधन करने में सक्षम होंगे। तब, परमेश्वर सुकून महसूस करेगा, तब वह आराम करेगा, और उसे हर चीज के बारे में परवाह करने की आवश्यकता नहीं होगी। सभी चीजों के अपने नियम और व्यवस्थाएँ हैं, जो परमेश्वर ने पहले ही निर्धारित कर दी हैं, और परमेश्वर को उनके बारे में एक बार भी सोच-विचार करने या योजना बनाने की आवश्यकता नहीं है। सभी चीजें अपने संबंधित नियमों और व्यवस्थाओं के भीतर मौजूद रहती हैं, मनुष्यों को उन्हें बनाए रखना और प्रबंधित करना होगा। मनुष्यों की ऐसी नस्ल के साथ, क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को अभी भी चिंता करने की आवश्यकता होगी? क्या उसे अब भी इन चीजों की परवाह करनी होगी? परमेश्वर आराम करेगा, और जब वह आराम करेगा, तब उसके महान कार्य के पूरा होने का समय आ गया होगा। बेशक, यह मनुष्यों के लिए भी जश्न मनाने का समय होगा—यानी, वे आखिरकार सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की नींव पर उद्धार प्राप्त करेंगे, अब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करेंगे, बल्कि उसके इरादों के अनुरूप चलेंगे। परमेश्वर ने मनुष्यों को प्राप्त कर लिया होगा, और अब उन्हें मृत्यु का स्वाद नहीं चखना होगा—तब उन्हें पहले ही उद्धार प्राप्त हो चुका होगा। क्या यह जश्न मनाने लायक बात नहीं है? (बिल्कुल है।) अब, क्योंकि इसके ऐसे जबरदस्त फायदे होंगे, और तुम जान गए हो कि परमेश्वर के ऐसे इरादे हैं, तो क्या लोगों के लिए उन छोटे-छोटे आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना सार्थक नहीं होगा जो वे पहले रखते थे? (जरूर होगा।) तुम चाहे इसे जैसे भी आँको, यह सही है। तो, अगर यह बात सही है, तो क्या तुम्हें इसे त्यागना नहीं चाहिए? (बिल्कुल।) सैद्धांतिक रूप से तो सभी जानते हैं कि उन्हें त्याग देना चाहिए, मगर यह किया कैसे जाता है? दरअसल, यह काफी सरल है। इसका मतलब है कि अब तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं पर कोई काम नहीं करोगे, इनके लिए कोई प्रयास नहीं करोगे, या इनके लिए कोई कीमत नहीं चुकाओगे। अब तुम उन्हें अपने दिमाग पर हावी नहीं होने दोगे या उनके लिए कोई त्याग नहीं करोगे। बल्कि तुम परमेश्वर के पास वापस लौटोगे, अपने निजी आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करोगे, उनके पीछे भागना बंद कर दोगे, और यहाँ तक कि उनके सपने देखना भी छोड़ दोगे। धीरे-धीरे तुम अपने दिल में अपनी दिशा और रुख को सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के मार्ग की ओर मोड़ोगे। दिन-ब-दिन, तुम जो कुछ भी करोगे, जो भी विचार करोगे, ऊर्जा खपाओगे और कीमत चुकाओगे, वह सब सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने की खातिर होगा—इस तरह तुम धीरे-धीरे त्याग कर सकते हो।

“लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने” के विषय पर आज की संगति के संबंध में, क्या मैंने इसके बारे में समझ आने लायक संगति की है? क्या तुम त्याग करना जानते हो? कुछ लोग कह सकते हैं, “अरे, मैं तो तब से ही त्याग कर रहा हूँ जब तुमने यह बात छेड़ी भी नहीं थी।” लेकिन जरूरी नहीं कि यह बात सच हो। वास्तव में, केवल सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया से गुजरकर ही लोग धीरे-धीरे संसार की बुराई के ज्वार को समझ पाते हैं और धीरे-धीरे अविश्वासियों द्वारा अपनाए जाने वाले प्रसिद्धि और लाभ के मार्ग को पहचानकर उसे त्याग पाते हैं। अगर तुमने अभी तक सत्य का अनुसरण नहीं किया है, और तुम केवल अपने दिल में त्याग करने के बारे में सोच रहे हो, तो यह वास्तव में त्याग करने के बराबर नहीं है। तुम्हारा त्याग करने की तैयारी करना और वास्तव में त्याग करना, दो अलग-अलग चीजें हैं—इनमें अभी भी एक अंतर है। इसलिए, सबसे महत्वपूर्ण बात है सत्य का अनुसरण शुरू करना, और यह कभी भी नहीं बदलना चाहिए—यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। एक बार जब तुम सत्य का अनुसरण करना शुरू कर देते हो, तो आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना आसान हो जाता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, पर कहते हो, “मैं वाकई इन आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चाहता हूँ। मैं विशाल रंगाई कुंड में रंगा जाना या चक्की में पिसना नहीं चाहता,” और अगर तुम इस पर भी जीवित रहना चाहते हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ कि यह मुमकिन नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता, तुम्हें इतना अच्छा सौदा नहीं मिलेगा! अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करना चाहते, लेकिन फिर भी आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चाहते हो, तो यह नामुमकिन है। सभी सामान्य लोगों के पास आदर्श और इच्छाएँ होती हैं, खासकर जिनके पास कुछ गुण या प्रतिभाएँ हैं। ऐसा कोई व्यक्ति कहाँ है जो अकेले रहकर खुश हो और अपनी इच्छा से सांसारिक जीवन जीने की इच्छा को त्याग दे? ऐसा व्यक्ति कहीं नहीं है। हर कोई अलग दिखना चाहता है, कुछ बनना चाहता है, चाहता है उसके चारों ओर एक खास आभामंडल हो और उसका जीवन अधिक आरामदायक बने। अगर तुम अपने निजी आदर्शों और इच्छाओं को त्याग कर उद्धार पाना चाहते हो, और एक सार्थक जीवन जीना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य को स्वीकारना, सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करना होगा—इस तरह तुम्हारे लिए उम्मीद बनी रहेगी। परमेश्वर के वचन सुनना और परमेश्वर का अनुसरण करना ही एकमात्र मार्ग है। इसलिए, सभी प्रत्यक्ष बदलावों के बावजूद एक चीज कभी नहीं बदलती—और वह है सत्य का अनुसरण। यही सबसे महत्वपूर्ण विषय है, है न? (बिल्कुल है।) ठीक है, तो चलो हमारे विषय पर आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं। फिर मिलेंगे!

17 दिसंबर 2022

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