सत्य का अनुसरण कैसे करें (8) भाग दो
लोगों की रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले आदर्शों और इच्छाओं की प्रकृति क्या है? हम यहाँ लोगों की रुचियों और शौक को उजागर नहीं कर रहे हैं, तो हम वास्तव में किन चीजों को उजागर कर उनका विश्लेषण कर रहे हैं? क्या ये वही लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ नहीं हैं जो लोगों की कुछ विशेष रुचियों और शौक से उत्पन्न होते हैं? (हाँ।) क्या हम लोगों द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले विभिन्न व्यवहारों और उन रास्तों को उजागर नहीं कर रहे हैं जो वे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के कारण अपनाते हैं? क्या हम इसी सार को उजागर नहीं कर रहे हैं? (हाँ।) तो वे कौन से रास्ते हैं जिन्हें लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की खातिर अपनाते हैं? किसी व्यक्ति के लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उसे किस प्रकार के रास्ते पर ले जाते हैं? वे किस प्रकार के लक्ष्य हासिल करते हैं? जब लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को साकार कर रहे होते हैं, तो वे इसमें अपनी ऊर्जा और समय लगाने के साथ ही अधिक कष्ट भी सहते हैं और सभी प्रकार के शारीरिक श्रम, थकान, तनाव और इसी तरह की अन्य कठिनाइयों का सामना करते हैं; सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं? यानी, जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को हासिल करने के लिए कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए? सबसे पहले, इस संसार में अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए, अपने पहले कदम के तौर पर लोगों को किस चीज का अध्ययन करना चाहिए? (सभी प्रकार के ज्ञान हासिल करने चाहिए।) बिल्कुल सही, उन्हें हर प्रकार का ज्ञान सीखना और उसे हासिल करना चाहिए। उनका ज्ञान जितना प्रचुर, व्यापक और गहन होगा, वे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के उतने ही करीब होंगे। उनका ज्ञान जितना अधिक व्यापक, प्रचुर और गहरा होगा, उन्हें अनुभवी व्यक्तियों के रूप में पहचाने जाने की संभावना उतनी ही अधिक होगी, और समाज में उन्हें ऊँचा रुतबा प्राप्त होगा। साथ ही साथ, उनका ज्ञान भी अधिक प्रचुर, गहरा और व्यापक होगा, इसका मतलब है कि उन्हें उतना ही अधिक समय और ऊर्जा खपानी होगी। यह बात शारीरिक ऊर्जा के परिप्रेक्ष्य से कही गई है। इसके अलावा, ज्ञान की नींव प्राप्त करने के बाद, लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के एक कदम और करीब आ जाते हैं। पर्याप्त ज्ञान होना केवल पहला कदम है, सबसे पहली नींव है। इसके बाद, लोगों को समाज में, आम जनता में, विशाल रंगाई-कुंड में या यूँ कहें कि अपने आदर्शों और इच्छाओं से संबंधित उद्योग की चक्की में खुद को डुबो लेना चाहिए, उन्हें चौतरफा ताकतों से लड़ना, संघर्ष करना और उनसे मुकाबला करना होगा, और विभिन्न प्रतियोगिताओं, प्रतिस्पर्धाओं और सेमिनारों में भाग लेना होगा। काफी मात्रा में ऊर्जा खपाते हुए, लोगों को अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए विभिन्न परिस्थितियों और परिवेशों के अनुकूल होने की भी आवश्यकता होती है। साथ ही साथ, इस विशाल रंगाई कुंड में, लोगों को अपने ज्ञान पर भरोसा रखना चाहिए, और उससे भी अधिक भरोसा उस पर रखना चाहिए जो उन्होंने आम जनता से सीखा है, साथ ही, जीवित रहने के उन तरीकों, फलसफों और नियमों पर भी भरोसा करना चाहिए जो उनके पास पहले से मौजूद है, ताकि वे आम जनता के और समाज की कार्य-प्रणालियों और खेल के नियमों के अनुकूल बन सकें। इस प्रक्रिया के माध्यम से, लोग धीरे-धीरे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के करीब पहुँचते हैं। इतनी सारी परीक्षाओं, इतने सारे उतार-चढ़ावों से गुजरने के बाद, अंतिम परिणाम क्या होता है? विजेताओं के रूप में, ताज उनका होता है, और हारने वालों को कुछ नहीं मिलता। अंत में, इस परिणाम के साथ वे अपने जीवन के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को प्राप्त करते हैं, अपने जीवन के लक्ष्यों को साकार करते हैं और अपने उद्योग में मजबूती से पाँव जमा लेते हैं। उस समय तक, लोग आम तौर पर पहले से ही अधेड़ उम्र में या वृद्धावस्था में पहुँच चुके होते हैं, और कुछ लोग तो अपनी उम्र के अंतिम वर्षों में भी हो सकते हैं, उनकी दृष्टि कमजोर हो जाती है, सिर गंजे हो जाते हैं, सुनने की क्षमता कम हो जाती है और दाँत टूट जाते हैं। उस उम्र में, भले ही उन्होंने अपने आदर्शों और इच्छाओं को हासिल कर लिया है, लेकिन उन्होंने कई हानिकारक काम भी किए हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन इसमें झोंक दिया है। अपने पूरे जीवन में, अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए उन्होंने कई ऐसी बातें कही हैं जो उनकी इच्छा के विरुद्ध थीं; उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो नैतिकता और अंतरात्मा के विरुद्ध थे और कुछ सीमाओं को लांघ गए, और यहाँ तक कि वे कई अविवेकपूर्ण और अनैतिक कार्यों में भी शामिल रहे। उन्होंने दूसरों को धोखा दिया है और कई बार धोखा खाया है, उन्होंने दूसरों को हराया है और पराजित भी हुए हैं। वे किस्मत वाले हैं कि जीवित रह गए और अपने कदम जमा लिए, और उनका जीवन परिपूर्ण लगता है, मानो कि उन्होंने अपनी कीमत समझ ली हो और उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया। उन्होंने जीवन भर अपने आदर्शों और इच्छाओं के लिए संघर्ष किया और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जिया है। फिर भी वे अपने आचरण के उस मार्ग को देखने में विफल रहते हैं जो उन्हें अपनाना चाहिए था, उनके पास जीवन जीने का कोई नीति-वाक्य नहीं है, और उन्होंने मानवता, समाज, और यहाँ तक कि खुद के खिलाफ लड़ते हुए, केवल अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की खातिर अपने जीवन भर में संघर्ष किया है। उन्होंने अपने आचरण के लिए आवश्यक अंतरात्मा, सीमाओं और सिद्धांतों को खो दिया है। भले ही उनके आदर्श और इच्छाएँ साकार हो गई हैं, और कई उतार-चढ़ावों के बाद प्रत्येक चरण में उनके द्वारा निर्धारित जीवन लक्ष्य हासिल हो गए हैं, फिर भी अंदर से वे सहज या संतुष्ट महसूस नहीं करते हैं। सीधे तौर पर कहें, तो अपनी रुचियों और शौक की खातिर उन्होंने जो लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ निर्धारित की हैं, वे आखिर में उन्हें प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने के मार्ग पर ले जाती हैं। भले ही उन्हें ऐसा लग सकता है कि अपने अंतिम लक्ष्यों को प्राप्त करने के बाद, उन्होंने अपनी कीमत जान ली है, अपनी विद्यमानता का एहसास पा लिया है, प्रसिद्धि और लाभ दोनों प्राप्त कर लिया है, फिर भी वे अपने भविष्य, अपनी मंजिल और मानव अस्तित्व के उस मूल्य के बारे में अनजान हैं जो लोगों को वास्तव में समझना चाहिए। जैसे-जैसे वे वृद्धावस्था में पहुँचते हैं, उन्हें यह महसूस होने लगता है कि उन्होंने जो कुछ भी पाने की कोशिश की वह बहुत भ्रामक और खोखला है। यह खोखलापन और भ्रामकता अपने साथ खालीपन और आशंका की लहरें लेकर आता है। बुढ़ापे में आकर ही लोगों को एहसास होता है कि जिन आदर्शों और इच्छाओं का उन्होंने अनुसरण किया, उनसे केवल उनका घमंड पूरा हुआ और उन्हें अस्थायी प्रसिद्धि और लाभ मिला, जो एक क्षणिक दिलासे से अधिक कुछ भी नहीं है। इस तरह की दिलासा जल्द ही एक तरह की बेचैनी और आशंका में बदल जाती है, क्योंकि जैसे-जैसे लोग बुढ़ापे में पहुँचते हैं, वे अपने भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं कि उनका क्या होगा, और मरने के बाद उनके साथ क्या होगा, और जब इन सभी सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता, जब इन मामलों पर उनके पास कोई सही विचार और दृष्टिकोण नहीं होता, तो लोग आशंकित और बेचैन महसूस करने लगेंगे। यह बेचैनी और आशंका उनके साथ तब तक बनी रहती है जब तक वे अपनी आँखें बंद करके मृत्यु को गले नहीं लगा लेते। प्रसिद्धि और लाभ से मिलने वाली खुशी मनुष्य के दिल से तुरंत गायब हो जाती है, और जितना अधिक कोई इस पर पकड़ बनाने और इससे चिपके रहने की कोशिश करता है, उतनी ही आसानी से यह खत्म हो जाती है, और खुशी की यह भावना बड़ी आसानी से बेचैनी और भय में बदल जाती है। नतीजतन, लोगों की विभिन्न रुचियों और शौक से चाहे कोई भी आदर्श और इच्छाएँ उत्पन्न हों, वे आखिर में प्रसिद्धि और लाभ की खोज के मार्ग पर ही लेकर जाती हैं, और अंत में लोगों को जो हासिल होता है वह प्रसिद्धि और लाभ से अधिक कुछ नहीं होता है। यह प्रसिद्धि और लाभ केवल अस्थायी दिलासा और दैहिक घमंड की क्षणिक संतुष्टि प्रदान करता है। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो उन्हें लगता है कि उनके लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ वास्तविक हैं, इससे उन्हें एहसास होता है कि वे जमीन से जुड़े हैं, संसार में अपनी जगह बेहतर ढंग से ढूँढ सकते हैं, अपने जीवन की दिशा को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने और उस पर पकड़ बनाए रखने में सक्षम हैं, और अपने भाग्य के नियंता हैं। हालाँकि, जब उनके आदर्श और इच्छाएँ साकार होती हैं, तब लोगों की आँखें खुलती हैं। इसका क्या कारण है? यह एहसास कि जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन की ऊर्जा समर्पित की है, यह एक खोखली चीज है जिसे न तो हाथ से पकड़ा जा सकता है और न ही दिल से महसूस किया जा सकता है। जितना अधिक वे इस पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश करते हैं, उतना ही यह फिसलती जाती है, जिससे उनमें बहुत अधिक नुकसान और खालीपन की भावना उत्पन्न होती है, और निस्संदेह, भय और पछतावे की भावना भी बढ़ जाती है। क्योंकि लोगों की अपनी रुचियाँ और शौक होते हैं, उनमें आदर्श और इच्छाएँ विकसित होती हैं, और ये आदर्श और इच्छाएँ एक ऐसा भ्रम पैदा करती हैं जिससे लोगों को विश्वास हो जाता है कि उनके पास अपना जीवन नियंत्रित करने, अपने जीवन का मार्ग खुद तय करने और अपने अस्तित्व की रीति और उद्देश्यों को निर्धारित करने की क्षमता है। इस भ्रम की जड़ में यह तथ्य है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उनमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है, और निस्संदेह यह कहना सही होगा कि यह उन लोगों से आता है जो सत्य नहीं समझते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे अक्सर सहज रूप से उन चीजों का अनुसरण करते हैं जो उनकी देह या आत्मा को संतुष्ट महसूस करा सकें। ये चीजें उनसे कितनी भी दूर क्यों न हों, अगर उन्हें लगता है कि वे उन्हें हासिल कर सकते हैं और उन पर पकड़ बनाए रख सकते हैं, वे कीमत चुकाने, और यहाँ तक कि जीवन भर की ऊर्जा और समय भी खपाने के लिए तैयार रहेंगे। क्योंकि लोग सत्य नहीं समझते, इसलिए वे आसानी से अपनी रुचियों और शौक को अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आधारशिला या एक प्रकार की योग्यता या पूंजी समझने की भूल कर बैठते हैं और इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। तुम्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि जैसे ही तुम यह कीमत चुका देते हो, इस मार्ग पर चल पड़ते हो, तो तुम्हारा शैतान द्वारा और संसार के रुझानों और खेल के नियमों द्वारा नियंत्रित रास्ते पर चलना तय हो जाता है। साथ ही, तुम्हारा अनजाने में खुद को समाज के रंगाई कुंड में, समाज की चक्की में झोंक देना भी तय है। चाहे यह तुम पर कोई भी रंग चढ़ाए, चाहे यह तुम्हें किसी भी रूप में पीसे, चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी विकृत हो जाए, फिर भी तुम खुद को दिलासा देते हुए कहते हो, “अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए और अपने भविष्य की खातिर, मुझे सब सहना होगा!” तुम लगातार खुद से यह भी कहते हो, “मुझे इस समाज के अनुरूप ढलना ही होगा, चाहे मुझ पर कोई भी रंग चढ़ा दिया जाए, मुझे इसे स्वीकार कर इसके अनुकूल बनना ही होगा।” जब तुम इन सभी अलग-अलग परिवेशों को अपनाते हो, तो तुम उन विभिन्न रंगों को भी अपनाते हो जिनमें तुम्हें रंगा जा रहा है, और तुम लगातार अलग-अलग शैलियों और चरित्र वाले अपने अलग-अलग रूपों को भी स्वीकारते हो। इस तरह, लोग अनजाने में अधिक से अधिक सुन्न होते चले जाते हैं, और अधिक बेशर्म बनते जाते हैं, और उनकी अंतरात्मा और विवेक उनके विचारों, इच्छाओं और चुनावों को दिशा देने या नियंत्रित करने में अधिक से अधिक असमर्थ हो जाते हैं। अंत में, अलग-अलग स्तर तक, कई लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हुए उन्हें हासिल कर लेते हैं। बेशक, कुछ व्यक्ति, चाहे कैसे भी अनुसरण करें, या कितना भी प्रयास करें और मुश्किलों से गुजरें, फिर भी अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने में असमर्थ होते हैं। अंतिम परिणाम चाहे कुछ भी हो, इससे मनुष्यों को क्या प्राप्त होता है? जो सफल होते हैं वे प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करते हैं, जबकि जो असफल होते हैं वे यह प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने में असमर्थ हो सकते हैं, लेकिन उन्हें भी वही मिलता है जो सफल लोगों को मिलता है—उन्हें भी शैतान द्वारा, इस दुष्ट मानवता द्वारा, और संपूर्ण सामाजिक तंत्र और समाज के बुरे प्रभाव के जरिये व्याप्त विभिन्न प्रकार के नुकसान और नकारात्मक विचार ही प्राप्त होते हैं। वरना, लोग अक्सर इन कहावतों का इस्तेमाल क्यों करते, जैसे : “पुराना चावल होना,” “एक बूढ़ी चालाक लोमड़ी,” “एक शातिर और मक्कार साँप,” या “अनेक तूफानों को झेल चुका” वगैरह? ऐसा इसलिए है क्योंकि जैसे-जैसे तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हो, तुम इस विशाल रंगाई कुंड में और समाज की इस चक्की में बहुत कुछ “सीखते” हो। तुम ऐसी चीजें “सीखते” हो जो तुम्हारे भौतिक सहज ज्ञान में मौजूद नहीं हैं—यहाँ “सीखना” शब्द उद्धरण चिह्नों के भीतर होना चाहिए। “सीखने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि समाज, शैतान और दुष्ट मानवजाति तुममें विभिन्न प्रकार के विचार भरती है जो सामान्य मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक के विरुद्ध होते हैं, जिससे तुम कम से कम अंतरात्मा और विवेक के साथ जीने लगते हो, बेशर्म बनते जाते हो, और सामान्य लोगों और सही मार्ग पर चलने वाले लोगों से घृणा करने लगते हो। वहीं, सबसे खराब परिणाम क्या होता है? तुम न केवल सामान्य मानवता, अंतरात्मा और विवेक वाले लोगों को नीची नजरों से देखोगे, बल्कि तुम उन लोगों के घिनौने कार्यों से ईर्ष्या करोगे और उनकी प्रशंसा भी करोगे, जो अपनी अंतरात्मा और नैतिकता से विश्वासघात करते हैं, और तुम उस प्रचुर भौतिक या आर्थिक लाभ से भी ईर्ष्या करोगे जो उन्हें उनके घिनौने कार्यों और बुरे व्यवहार से प्राप्त होते हैं। क्या यही परिणाम नहीं है? (हाँ।) यह और भी ज्यादा भयानक परिणाम है, यानी, जैसे-जैसे लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करते हैं, उनका चेहरा अधिक कुरूप और भयानक हो जाता है, उनकी अंतरात्मा और उनका विवेक धीरे-धीरे खो जाते हैं, और उनका नैतिक दृष्टिकोण, जीवन के प्रति नजरिया और व्यवहार भी अधिक से अधिक दुष्ट, कुरूप, घृणित और पतित हो जाता है।
जिस पल से किसी व्यक्ति में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए रुचियाँ और शौक पैदा होते हैं, इस प्रक्रिया के दौरान, वह जिस मार्ग पर चलता है और जिन गतिविधियों में शामिल होता है—यानी, उसके वर्तमान जीवन की पूरी स्थिति—जीवन की एक ऐसी स्थिति है, जिसे कहा जा सकता है कि समाज और बुरी प्रवृत्तियों की जकड़ में है। वास्तव में, यह एक ऐसी प्रक्रिया भी है जिसके दौरान लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश में अपनी मर्जी से शैतान की चालबाजी, शोषण और उसके द्वारा रौंदे जाने को स्वीकार करते हैं। यकीनन यह एक ऐसी प्रक्रिया भी है जिसके दौरान शैतान लोगों को हर चीज में और अधिक विशेष रूप से भ्रष्ट करता है। तुम्हारे सामने आने वाले हर हालात में, शैतान लगातार तुममें यह विचार भरता है कि अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, तुम्हें हर आवश्यक तरीका इस्तेमाल करना चाहिए, उन चीजों को त्यागना चाहिए जो सकारात्मक हैं और जिनका सामान्य मानवता को पालन करना चाहिए, जैसे कि मानवीय गरिमा, व्यक्तिगत निष्ठा, नैतिक सीमाएँ, अपनी अंतरात्मा, और अपने आचरण का मानदंड। जैसे-जैसे यह तुम्हें इन चीजों को त्यागने के लिए गुमराह करता है, यह तुम्हारी अंतरात्मा, विवेक और नैतिक सीमाओं के साथ-साथ तुम्हारे अंदर बची-कुची शर्म को भी चुनौती देता है। इन चीजों को चुनौती देने के बाद, यह तुम्हें भ्रामक, लालच, नियंत्रण और बुरी प्रवृत्तियों द्वारा रौंदे जाने के बीच लगातार समझौता करने के लिए प्रेरित करता है। निरंतर समझौता करने की प्रक्रिया में, तुम लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के संबंध में शैतान द्वारा भरे गए विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाने का विकल्प चुनते हो; तुम शैतान से प्राप्त विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ अपने आचरण और कार्य करने के उसके दिए तरीकों का सक्रियता से अभ्यास करते हो। तुम अनिच्छा से और न चाहते हुए भी यह सब करते हो, लेकिन साथ ही, अपने आदर्शों और इच्छाओं को हासिल करने के लिए, तुम जानबूझकर और सक्रियता से यह सब बड़े ही समझौतापरक रवैये के साथ करते हो। संक्षेप में, इस प्रक्रिया के दौरान, लोग निष्क्रिय रहते हैं, लेकिन दूसरे परिप्रेक्ष्य से, वे सक्रिय रूप से शैतान के नियंत्रण और भ्रष्टता के साथ चलते हैं। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने का प्रयास करते हुए, वे हर समय समाज की बुरी प्रवृत्तियों के विशाल रंगाई कुंड में, उनकी जकड़ में रहते हैं। इसी तरह, वे इच्छुक और अनिच्छुक दोनों होने की एक जटिल और विरोधाभासी मानसिकता में जीते हैं, और एक ऐसे वास्तविक परिवेश में जीते हैं जो जटिल भी है और विरोधाभासी भी। इस प्रक्रिया में, जैसे-जैसे लोग उन आदर्शों, इच्छाओं और जीवन लक्ष्यों के करीब आते हैं जिनका वे अनुसरण कर रहे हैं, उनमें मनुष्य की सदृशता कम होती जाती है, उनकी अंतरात्मा अधिक से अधिक सुन्न होती जाती है, और उनका विवेक धूमिल पड़ने लगता है। हालाँकि, अपने अंतरतम में लोग मानते हैं कि उनके पास आदर्श और इच्छाएँ हैं, कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि उनके आदर्श और इच्छाएँ उनके दृढ़ निश्चय हैं, कि उनके दिलों में दृढ़ निश्चय के होने का मतलब है कि उनमें विश्वास है, और व्यक्ति को जीवन में विश्वास रखना चाहिए। वे मानते हैं कि चूँकि उनके पास विश्वास है तो वे सामान्य इंसान हैं, और इसलिए उन्हें जीवित रहने के अपने पुराने तरीकों और व्यवस्थाओं के अनुसार अनुसरण करते रहना चाहिए, और जब तक इसके परिणाम अच्छे होते हैं, और यह उन्हें उनके जीवन के आदर्शों और लक्ष्यों के करीब लाता है, तब तक इसके लिए वे जो भी कीमत चुकाते हैं, वह सार्थक है, चाहे इसके लिए सब कुछ खोना ही क्यों न पड़े। इस वजह से, इच्छुक और अनिच्छुक होने की विरोधाभासी मानसिकता के तहत, लोग शैतान के नियंत्रण, उसके विचारों और उसकी चालबाजी और धूर्तता को स्वीकारना जारी रखेंगे। यहाँ तक कि जब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि वे समाज और बुरी प्रवृत्तियों द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं, फिर भी वे इस प्रकार की परिस्थितियों में अपने आदर्शों को साकार करने और अपने जीवन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहेंगे। वे खुद को इस बात की बधाई भी दे सकते हैं कि वे इसके लिए किसी भी हद तक जाने में सक्षम हैं और उन्होंने कभी हार नहीं मानी है, वे अब तक डटे रहने की अपनी क्षमता से खुश होते हैं। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश के दौरान लोगों द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले व्यवहारों के साथ-साथ उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग और उनके विभिन्न परिवर्तनों को देखा जाए, तो लोगों के आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने का मार्ग, किस प्रकार का मार्ग है? (यह विनाश की ओर ले जाने वाला मार्ग है।) इस मार्ग से वापस लौटने का कोई उपाय नहीं है, इस पर लोग जितना आगे जाते हैं, उतना ही वे परमेश्वर से दूर होते जाते हैं। यह कह सकते हैं कि यह विनाश का मार्ग है। लोगों द्वारा तय किए गए आदर्श और इच्छाएँ जीवन के जिन लक्ष्यों की ओर ले जाती हैं, वहाँ शैतान उनकी ताक में बैठा है। और इन जीवन लक्ष्यों के मार्ग में, जो उनके साथ चलता है और उनका अनुसरण करता है वह सत्य नहीं है, वह परमेश्वर के वचन नहीं हैं। तो फिर यह कौन है? (यह शैतान है, जो अपनी बुरी प्रवृत्तियों और सांसारिक आचरण के विभिन्न फलसफों के साथ चलता है।) शैतान, उसका नियंत्रण, उसकी भ्रष्टता, धूर्तता और निरंतर प्रलोभन उनके साथ चलते हैं। यह विनाश का मार्ग है, जहाँ से वापसी का तो सवाल ही नहीं है, है न? (बिल्कुल।) क्योंकि जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं, तो वे वास्तव में लक्ष्य के रूप में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि वे प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए इन चीजों के अनुसरण को अपनी प्रेरणा शक्ति और नींव के रूप में उपयोग करते हैं। यही इस मामले का सार और सत्य है। इस मार्ग के कारण लोग अधिक से अधिक प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए और संसार की बुरी प्रवृत्तियों के लिए तरसने लगते हैं। यह मार्ग लोगों को केवल अधिक से अधिक गहराई में डुबोता है, जिससे वे और भी अधिक भ्रष्ट हो जाते हैं, उनमें तर्कसंगतता और अंतरात्मा और कम हो जाती है, और वे सकारात्मक चीजों से दूर हो जाते हैं। साथ ही, यह मार्ग उन्हें जीवन जीने के उन अधिक व्यावहारिक तरीकों और जीवन लक्ष्यों से दूर ले जाता है, जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति में होने चाहिए। यह केवल लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को और अधिक गहराई तक जमा, और उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन से और दूर कर सकता है। बेशक, इससे लोगों के लिए सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करना भी कठिन हो जाता है। यह एक तथ्य है। तो, हम इन समस्याओं को कैसे हल कर सकते हैं? मानवीय लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का सार समझने के बाद, हमें किस बारे में संगति करनी चाहिए? हमें इस बारे में संगति करनी चाहिए कि लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का कैसे त्याग किया जाए, सही कहा न? (बिल्कुल सही।)
अभी हम इस बारे में संगति कर रहे थे कि कैसे अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश एक ऐसा मार्ग है जहाँ से वापस नहीं लौटा जा सकता, यह विनाश का मार्ग है—तो क्या लोगों को जीवन का यह मार्ग त्याग देना चाहिए? (बिल्कुल।) उन्हें अपने जीने का वर्तमान तरीका त्यागकर तरीका बदल देना चाहिए : यह न तो सही दृष्टिकोण है और न ही जीवन का सही मार्ग। क्योंकि यह सही मार्ग नहीं है, तो व्यक्ति को इसे त्याग देना चाहिए, और अपने जीने का तरीका बदलकर जीवन और अस्तित्व के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यकीनन, उन्हें इस बारे में सही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए कि लोगों की रुचियों और शौक के साथ और उनके लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाए। इन रुचियों और शौक के साथ ही लोगों की प्रतिभाएँ और गुण उनके लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ निर्धारित करते हैं, और इनके जरिये ही लोग अपने अनुसरण के लिए लक्ष्य भी तय करते हैं। ये लक्ष्य सही नहीं हैं, और ये लोगों को उस मार्ग पर ले जाएँगे जहाँ से वापस लौटना मुमकिन नहीं है, वे परमेश्वर से दूर होते चले जाएँगे और अंत में उनका विनाश हो जाएगा। चूँकि ये लक्ष्य सही नहीं हैं, तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? आओ पहले यह देखें कि क्या लोगों का रुचियाँ और शौक रखना सही है, यानी क्या उनकी रुचियों और शौक को नकारात्मक चीजों की श्रेणी में रखा जा सकता है? (नहीं, नहीं रखा जा सकता।) लोगों की रुचियाँ और शौक स्वाभाविक रूप से गलत नहीं होते, और यकीनन उन्हें नकारात्मक चीजें कहना भी सही नहीं होगा। उनकी निंदा या आलोचना नहीं करनी चाहिए। कुछ क्षेत्रों में लोगों की रुचि, उनमें शौक और प्रतिभाएँ होना सामान्य मानवता का हिस्सा है—ये हर व्यक्ति में होते हैं। कुछ लोगों को नाचना पसंद होता है, तो कुछ को गाना, चित्रकारी करना, अभिनय करना; कुछ लोगों को मैकेनिक्स, अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, खेती-बारी, नौयाकन या कुछ खास खेलों में मन लगता है, जबकि अन्य लोगों को भूगोल, भूविज्ञान या विमानन के बारे में पढ़ना अच्छा लगता है, और बेशक, ऐसे लोग भी हैं जिनकी रुचि कुछ गूढ़ विषयों का अध्ययन करने में हो सकती है। चाहे व्यक्ति की रुचि और शौक जो भी हो, वे सभी मानवता और सामान्य मानव जीवन का हिस्सा हैं। उन्हें नकारात्मक चीजें बताकर कलंकित नहीं किया जाना चाहिए, और न ही उनकी आलोचना करनी चाहिए, और उन पर प्रतिबंध तो बिल्कुल नहीं लगाया जाना चाहिए। यानी, तुम्हारी कोई भी रुचि या शौक सही है। चूँकि कोई रुचि या शौक सही है और उसे बने रहने देना चाहिए, तो उनसे संबंधित आदर्शों और इच्छाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाए? उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को संगीत पसंद होता है। वे कहते हैं, “मैं संगीतकार या कंडक्टर बनना चाहता हूँ,” और फिर सब कुछ छोड़-छाड़कर वे संगीत में अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए पढ़ाई करने चले जाते हैं; अपने जीवन के लक्ष्यों और दिशा को संगीतकार बनने की ओर मोड़ देते हैं। क्या ऐसा करना सही है? (ऐसा करना सही नहीं है।) अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, अगर तुम इस संसार का हिस्सा हो और अपनी रुचियों और शौक द्वारा निर्धारित किए गए आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने में अपना जीवन बिताते हो, तो हमारे पास इस बारे में कहने को कुछ नहीं है। लेकिन, परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते, अगर तुम्हारी ऐसी रुचियाँ और शौक हैं जिनकी खातिर तुम अपना पूरा जीवन न्योछावर करना चाहते हो, अपनी रुचियों और शौक द्वारा निर्धारित आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए आजीवन कीमत चुकाना चाहते हो, तो यह मार्ग अच्छा है या बुरा? क्या यह बढ़ावा देने लायक है? (वह इस लायक नहीं है।) चलो अभी इस बारे में बात नहीं करते हैं कि यह बढ़ावा देने लायक है या नहीं; हर चीज पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, ऐसे में तुम यह कैसे निर्धारित कर सकते हो कि यह बात सही है या गलत? तुम्हें इस पर विचार करना होगा कि तुमने अपने लिए जो लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ निर्धारित की हैं उनका परमेश्वर की शिक्षाओं, उसके उद्धार और तुमसे उसकी अपेक्षाओं, मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादे, तुम्हारे उद्देश्य, और तुम्हारे कर्तव्य से कोई संबंध है या नहीं, क्या वे तुम्हारा उद्देश्य पूरा करने और तुम्हारे कर्तव्य को अधिक कुशलता से पूरा करने में तुम्हारी मदद करेंगे, या क्या वे तुम्हारे बचाए जाने की संभावनाएँ बढ़ाएँगे और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने में तुम्हारी मदद करेंगे। एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करना तुम्हारा अधिकार है, लेकिन जैसे-जैसे तुम अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करोगे और इस मार्ग पर आगे बढ़ोगे, तो क्या ये तुम्हें उद्धार के मार्ग पर लेकर जाएँगे? क्या ये तुम्हें परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर लेकर जाएँगे? क्या ये अंत में तुम्हें परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण और उसकी आराधना के परिणाम तक लेकर जाएँगे? (नहीं ले जाएँगे।) इसमें कोई शक नहीं। चूँकि वे नहीं ले जाएँगे, तो परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते, जो आदर्श और इच्छाएँ तुम्हारी रुचियों, तुम्हारे शौक, और यहाँ तक कि तुम्हारी प्रतिभाओं और गुणों से विकसित हुई हैं, वे सकारात्मक हैं या नकारात्मक? तुम्हारे पास ये होनी चाहिए या नहीं? (वे नकारात्मक चीजें हैं, जो हमारे पास नहीं होनी चाहिए।) तुम्हारे पास वे चीजें नहीं होनी चाहिए। तो, किसी व्यक्ति के आदर्शों और इच्छाओं की प्रकृति क्या बन जाती है? वे सकारात्मक चीजें बन जाती हैं या नकारात्मक? क्या वे ऐसा अधिकार बन जाती हैं जो तुम्हारे पास होना चाहिए या कुछ ऐसा जो तुम्हारे पास नहीं होना चाहिए? (ये नकारात्मक चीजें बन जाती हैं, जो मेरे पास नहीं होनी चाहिए।) वे ऐसी चीजें बन जाती हैं जो तुम्हारे पास नहीं होनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मेरे पास ये चीजें नहीं होनी चाहिए, तो इसका यही मतलब निकलता है कि तुम मेरे अधिकार छीन रहे हो!” मैं तुम्हारे अधिकार नहीं छीन रहा हूँ; मैं यह बता रहा हूँ कि लोगों को कैसा मार्ग अपनाना चाहिए और सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए। मैं तुम्हारे अधिकार नहीं छीन रहा हूँ; तुम अपना फैसला करने के लिए स्वतंत्र हो, तुम्हें चुनने की अनुमति है। लेकिन जहाँ तक इस मामले की प्रकृति की बात है और इसे कैसे परखा जाना चाहिए, इसके लिए हमारे तर्कों का एक आधार है और हम यूँ ही नहीं बोल रहे हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को आधार मानकर सत्य के परिप्रेक्ष्य से बात करोगे, तो पता लगेगा कि व्यक्ति के आदर्श और इच्छाएँ सकारात्मक चीजें नहीं हैं। बेशक, और स्पष्ट शब्दों में कहें, तो अगर परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते तुम सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाना चाहते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर का भय मानना, बुराई से दूर रहना, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हो, तो तुम्हारे पास सांसारिक लोगों जैसे आदर्श और इच्छाएँ नहीं होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, अगर तुम सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। इसे दूसरी तरह से कहें, तो अगर तुम सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए, और खास तौर पर प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए इन आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए। क्या इसे इस तरह कहा जा सकता है? (जरूर।) अब सब स्पष्ट हो गया है। परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते, चूँकि तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो और उद्धार पाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए, और इस मार्ग को छोड़ देना चाहिए, जो प्रसिद्धि और लाभ पाने का मार्ग है, और तुम्हें इन आदर्शों और इच्छाओं का त्याग कर देना चाहिए। तुम्हें अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने को अपने जीवन के लक्ष्य के तौर पर नहीं चुनना चाहिए; बल्कि यह लक्ष्य सत्य का अनुसरण करना और उद्धार पाना होना चाहिए।
कुछ लोग पूछते हैं, “क्योंकि मैं अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार नहीं कर सकता, और मैंने उन्हें त्याग दिया है, तो मुझे अपनी रुचियों और शौक के बारे में क्या करना चाहिए?” यह तुम्हारा अपना मामला है। भले ही तुम्हारी रुचियाँ और शौक हो सकते हैं, लेकिन अगर वे तुम्हारे सामान्य अनुसरण में खलल नहीं डाल रहे हैं, तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और उद्देश्य को पूरा करने में बाधा नहीं बन रहे हैं, और तुम्हारे जीवन के लक्ष्यों या मार्ग को प्रभावित नहीं कर रहे हैं, तो तुम इन रुचियों और शौक को बरकरार रख सकते हो। बेशक, इसे इस तरह भी समझा जा सकता है : चूँकि ये रुचियाँ और शौक तुम्हारी मानवता का हिस्सा हैं, तो यह कहना भी सही होगा ये परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। व्यक्ति के जीवन का हर एक पहलू, जैसे कि उसकी शक्ल-सूरत, परिवार, पृष्ठभूमि और जीवन जीने का परिवेश, सब परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित हैं। इसलिए, हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि तुम्हारी रुचियाँ और शौक भी परमेश्वर की देन हैं। इस तथ्य को बिल्कुल भी नकारा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग भाषाओं में, चित्रकारी में, संगीत में, आवाजों और रंगों वगैरह को पहचानने में माहिर होते हैं। भले ही ये चीजें तुम्हारे विशेष कौशल या रुचियों और शौक का हिस्सा हों, यह कहना सही होगा कि ये सब मानवता का हिस्सा हैं। परमेश्वर लोगों को कुछ विशेष रुचियाँ और शौक क्यों देता है? यह तुम्हारे मानव जीवन को थोड़ा अधिक समृद्ध और रंगीन बनाने के लिए है, ताकि तुम्हारे जीवन में मनोरंजन और फुरसत वाली कुछ ऐसी चीजें शामिल हों जिनका प्रभाव तुम्हारे जीवन के सही मार्ग पर न पड़े, और तुम्हारा जीवन कम बोरियत भरा, कम नीरस और कम उबाऊ हो। उदाहरण के लिए, जब सभाओं में भजन गाने का समय होता है, तो जो व्यक्ति संगीतमय उपकरण बजा सकता है वह पियानो या गिटार बजाकर भजन गाने वाले लोगों का सहयोग कर सकता है। अगर कोई भी व्यक्ति संगीतमय उपकरण नहीं बजा पाता है, तो सभी लोग इस आनंद से वंचित रह जाएँगे। अगर कोई सहयोग कर सकता है, तो अकेले गाने से ज्यादा बेहतर परिणाम किसी का सहयोग लेकर गाने से होगा, और सभी लोग इसका आनंद ले सकेंगे। साथ ही, यह सीमाओं को व्यापक बनाता है, अनुभवों को समृद्ध करता है, जीवन को और अधिक सार प्रदान करता है, लोग महसूस करते हैं कि जीवन अधिक खूबसूरत है, और उनकी मनोदशा अधिक खुशहाल हो जाती है। यह उनकी सामान्य मानवता के साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास में उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग, दोनों के लिए फायदेमंद है। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें चित्रकारी पसंद है, तो भाई-बहनों का जीवन उबाऊ हो जाने पर, तुम हास्यपूर्ण चित्रकारियाँ कर सकते हो, और कुछ लोगों के नकारात्मक भावों और चेहरों, और नकारात्मक टिप्पणियों को मजाकिया और हास्यप्रद कार्टून के रूप में दिखाकर, उन्हें एक छोटी-सी किताब में संकलित करके उन नकारात्मक लोगों के साथ-साथ दूसरों के बीच बाँट सकते हो। जब वे इसे देखकर कहेंगे, “अरे, क्या यह मेरी तस्वीर है?” तो वे हँस पड़ेंगे और उन्हें खुशी होगी, और तब वे पहले की तरह नकारात्मक महसूस नहीं करेंगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है? इसमें बहुत अधिक मेहनत नहीं लगी, पर इससे उन्हें अपनी नकारात्मकता से आसानी से बाहर निकलने में मदद मिली। अपने खाली समय में, चित्रकारी करने, संगीत उपकरण बजाने, कला के बारे में चर्चा करने, या विभिन्न पात्रों का अभिनय करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के नकारात्मक लोगों, विभिन्न प्रकार के अहंकारी व्यक्तियों, और मनमाने ढंग से कार्य करने वाले मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का चित्रण करने से लोगों की समझ बेहतर हो सकती है और उनके ज्ञान का दायरा बड़ा हो सकता है। क्या यह अच्छी बात नहीं है? ये रुचियाँ और शौक कैसे उपयोगी नहीं हैं? ये लोगों के लिए काफी फायदेमंद हैं। हालाँकि, अगर तुम्हारी रुचियों और शौक के कारण कुछ आदर्श और इच्छाएँ विकसित होती हैं, और वे तुम्हें ऐसे मार्ग की ओर ले जाती हैं जहाँ से वापस लौटना मुमकिन नहीं है, तो फिर ये चीजें तुम्हारे लिए अच्छी नहीं हैं। लेकिन अगर तुम अपनी रुचियों और शौक को अपने जीवन में इस तरह से इस्तेमाल करते हो जिससे वे तुम्हारी मानवता को अंतर्दृष्टि देते हैं, तुम्हारा जीवन और अधिक समृद्ध और रंगीन बनाते हैं, और तुम्हें अधिक विनोदपूर्ण और खुशहाल बनाते हैं, तुम अधिक सुपोषित जीवन जीते हो, और पहले से ज्यादा स्वतंत्र और आजाद महसूस करते हो, तो तुम्हारी रुचियों और शौक का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, इससे सबको फायदा होगा और तुम भी सीखोगे; साथ ही, इसका तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और उद्देश्य पूरा करने पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बेशक, कुछ हद तक ये कर्तव्य निभाने में तुम्हारी मदद भी करेंगे। जब तुम उदास या हताश महसूस कर रहे हो, तो कोई गाना गाने, कोई संगीत उपकरण बजाने, या कोई जोशीला और लयबद्ध संगीत चलाने से तुम्हारा मिजाज बेहतर हो सकता है, जिससे तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करने में मदद मिलेगी। इसके बाद तुम नकारात्मक महसूस नहीं करोगे, शिकायत करना या हार मानना नहीं चाहोगे। इसी के साथ, तुम्हें अपनी कमजोरियों और दोषों का पता चलेगा, तुम्हें एहसास होगा कि तुम बहुत नाजुक हो और गुस्से या असफलताओं का सामना करने के लिए असमर्थ हो। कोई संगीत उपकरण बजाने से तुम्हारा मिजाज ठीक हो सकता है; इसे कहते हैं जीवन जीने का तरीका जानना। क्या इन रुचियों और शौक का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है? (बिल्कुल पड़ा है।) रुचियों और शौक को ऐसी चीजों के रूप में देखा जा सकता है, जिनका सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो वे तुम्हारा मिजाज ठीक कर सकते हैं, जिससे तुम्हें अधिक सामान्य और तर्कसंगत जीवन जीने में मदद मिलती है। कुछ हद तक, वे सत्य वास्तविकता में तुम्हारे प्रवेश को तेज या सुविधाजनक बना सकते हैं और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अतिरिक्त साधन का काम कर सकते हैं। बेशक, कुछ लोगों की मानवता खराब और बुरी होती है; वे हमेशा महत्वाकांक्षी होते हैं, उनमें मसीह-विरोधी स्वभाव होता है या वे खुद मसीह-विरोधी होते हैं। उनके लिए, रुचियाँ और शौक रखना परेशानी भरा हो सकता है, क्योंकि वे उन्हें अपनी पूँजी के तौर पर इस्तेमाल करके दंभी बन सकते हैं, और यकीनन यही चीजें बुरे कर्म करने में उनकी आक्रामकता और ढिठाई को बढ़ावा देती हैं। इसलिए, रुचियाँ और शौक अपने आप में स्वाभाविक रूप से बुरी या नकारात्मक चीजें नहीं हैं। अच्छे और सामान्य लोग इनका इस्तेमाल सकारात्मक चीजों के लिए करते हैं, जबकि खराब, बुरे, और नकारात्मक व्यक्ति इन्हें दुष्टतापूर्ण या बुरे कार्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं। तो, रुचियाँ और शौक या तो तुम्हें बेहतर बना सकती हैं या बदतर, यही बात है न? (बिल्कुल।) अब इस विषय पर वापस आते हैं कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को कैसे त्याग सकते हैं। रुचियों और शौक का सार समझने के बाद, लोगों को किसी की रुचियों और शौक को रंगीन चश्मे से नहीं देखना चाहिए, और उन्हें रुचि या शौक रखने वाले लोगों को ठुकराना भी नहीं चाहिए। रुचियाँ और शौक सामान्य मानवता का हिस्सा हैं और लोगों को उनके प्रति सही रवैया रखना चाहिए। अगर तुम्हारी रुचियाँ और शौक दूसरों के जीवन को प्रभावित करने लगती हैं या उनके लिए असुविधा पैदा करती हैं, या अगर तुम दूसरों को प्रभावित करने या परेशान करने की कीमत पर अपनी रुचियों और शौक को बनाए रखते हो, तो यह अनुचित है। ऐसा न हो तो, तुम्हारी रुचियाँ और शौक सही हैं, और यह आशा की जाती है कि लोग उनके प्रति सही रवैया रखेंगे और उनका सही तरीके से इस्तेमाल करेंगे। बेशक, उन्हें इस्तेमाल करने का सबसे अच्छा और सबसे सही तरीका यही है कि तुम अपनी रुचियों और शौक का अधिकतम प्रभाव अपने कार्यों और अपने द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों पर पड़ने दो, और उन्हें बर्बाद होने देने के बजाय जितना हो सके उतना उनका उपयोग करो। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी रुचियाँ और शौक मेरे कर्तव्यों को करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इस क्षेत्र में मेरा ज्ञान अभी पर्याप्त और व्यापक नहीं है। मैं इस क्षेत्र से संबंधित विषयों के बारे में बेहतर और अधिक व्यवस्थित अध्ययन करके खुद का ज्ञान बढ़ाना चाहता हूँ, फिर इसे अपने कर्तव्यों में लागू करना चाहता हूँ। क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ?” हाँ, तुम ऐसा कर सकते हो। परमेश्वर का घर तुम लोगों को सीखते रहने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करता है। ज्ञान एक साधन है, और अगर इसमें व्यक्ति के विचारों को बिगाड़ने या नष्ट करने जैसा कुछ भी नहीं है, तो तुम उनका अध्ययन करके अपने ज्ञान को और गहरा कर सकते हो। तुम इसे अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए एक सकारात्मक और लाभकारी साधन के रूप में उपयोग कर सकते हो, जिससे यह कारगार साबित होगा और इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा। क्या यह अच्छी बात नहीं है? क्या यह सही दृष्टिकोण नहीं है? (हाँ।) बेशक, इस ढंग से अभ्यास करके तुम अपनी रुचियों और शौक को सही से संभाल सकते हो; साथ ही, यह लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने का एक सही तरीका भी है। तुम अपनी रुचियों और शौक का इस्तेमाल व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और लालसाओं को संतुष्ट करने का लक्ष्य पूरा करने के लिए नहीं, बल्कि सही चीजों के लिए कर रहे हो। तो फिर, यह अभ्यास करने का एक वैध और सटीक तरीका है, और यकीनन यह अभ्यास का एक सही और सकारात्मक तरीका भी है। इसके अलावा, यह हमें अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के लिए एक ठोस मार्ग भी दिखाता है।
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