सत्य का अनुसरण कैसे करें (7) भाग तीन

यहाँ तक संगति कर लेने के बाद, आओ अब हम इस बारे में संगति करना जारी रखें कि लोगों को अपने आदर्शों, इच्छाओं और अपने कर्तव्यों के बीच के संबंध को कैसे समझना और अनुभव करना चाहिए। सबसे पहले, आदर्शों के बारे में बात करते हैं, विशेष रूप से उन लोगों के आदर्शों के बारे में जिनका हमने पहले जिक्र किया था। क्या लोगों का परमेश्वर के घर में अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करना उचित है? (नहीं, यह उचित नहीं है।) इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह अनुचित क्यों है? (अपने कर्तव्य निभाते समय अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करके वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभाने के बजाय अपनी खूबियाँ दिखाकर अपना करियर स्थापित कर रहे हैं।) मुझे बताओ, क्या अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना गलत है? (हाँ, यह गलत है।) यदि तुम लोग इसे गलत कहते हो, तो क्या यह किसी को उसके मानव अधिकारों से वंचित करता है? (नहीं, नहीं करता है।) फिर समस्या क्या है? (जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें सत्य और उस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जिसका परमेश्वर के वचन उन्हें अनुसरण करने के लिए कहते हैं। यदि वे केवल अपनी इच्छाओं और आदर्शों का अनुसरण करते हैं, तो वे उसका अनुसरण कर रहे हैं जो उनका शरीर चाहता है, जो शैतान द्वारा मन में बिठाई गई एक विचारधारा है।) इस संसार में, अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश को सही माना जाता है। चाहे तुम किसी भी आदर्श का अनुसरण करो, जब तक वे वैध हैं और कोई नैतिक सीमा नहीं लांघते हैं, तो कोई दिक्कत नहीं है। कोई भी किसी चीज पर सवाल नहीं उठाता, और तुम सही या गलत की बातों में नहीं फंसते। तुम जो भी व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हो उसके पीछे भागते हो, और यदि तुम इसे हासिल कर लेते हो, यदि तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हो, तो तुम सफल हो; लेकिन यदि तुम चूक जाते हो, यदि तुम असफल हो जाते हो, तो ये तुम्हारा अपना मामला है। हालाँकि, जब तुम परमेश्वर के घर, एक विशेष स्थान में प्रवेश करते हो, तो चाहे तुम्हारे अपने जो भी आदर्श और इच्छाएँ हों, तुम्हें उन सभी को त्याग देना चाहिए। ऐसा क्यों? आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण, चाहे तुम विशेष रूप से जिसका भी अनुसरण करते हो—अगर केवल अनुसरण के बारे में ही बात करें—इसके काम करने का तरीका और यह जिस रास्ते पर चलता है वह अहंकार, स्वार्थ, रुतबा और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। यह इन्हीं सब चीजों के आस-पास घूमता है। दूसरे शब्दों में, जब लोग अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हैं, तो फायदा सिर्फ उन्हें होता है। क्या किसी व्यक्ति के लिए रुतबे, प्रतिष्ठा, घमंड और शारीरिक हितों की खातिर अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करना न्यायोचित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) व्यक्तिगत और निजी आदर्शों, विचारों और इच्छाओं की खातिर, वे जो तरीके और दृष्टिकोण अपनाते हैं, सभी स्वार्थ और निजी लाभ पर आधारित होते हैं। यदि हम उन्हें सत्य के सामने रखकर मापें, तो वे न तो न्यायोचित हैं और न ही वैध। क्या यह निश्चित नहीं है कि लोगों को उन्हें त्याग देना चाहिए? (हाँ, है।) उन्हें त्याग देना चाहिए, अहंकार को त्याग देना चाहिए, निजी आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। यह उन रास्तों के सार के परिप्रेक्ष्य से दिखाई देता है जिन्हें लोग अपनाते हैं—अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना कोई सकारात्मक बात नहीं है, इसे नकार दिया गया है। यह एक पहलू है। अब दूसरे पहलू पर चर्चा करते हैं, परमेश्वर का घर यानी कलीसिया किस प्रकार का स्थान है, चाहे उसका नाम कुछ भी हो? ये किस तरह की जगह है? कलीसिया यानी परमेश्वर के घर का सार क्या है? सबसे पहले, सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से, यह दुनिया, समाज या समाज की कोई मानव संस्था या संगठन नहीं है। यह संसार या मानवजाति की नहीं है। इसकी स्थापना क्यों की गई? इसकी मौजूदगी और अस्तित्व में होने का कारण क्या है? इसका कारण परमेश्वर और उसका कार्य है, है ना? (हाँ।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है। तो, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने और निजी आदर्शों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यकीनन, नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण अस्तित्व में है। इस प्रकार, यह निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने या निजी आदर्शों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह नहीं है। यह दैहिक जीवन, शारीरिक संभावनाओं, शोहरत और धन, रुतबा, प्रतिष्ठा वगैरह के इर्द-गिर्द नहीं घूमता है—यह इन चीजों के लिए काम नहीं करता है। और न ही यह मनुष्यों की सांसारिक शोहरत, रुतबे, आनंद या संभावनाओं के कारण उभरा या अस्तित्व में आया है। तो फिर यह कैसी जगह है? चूँकि कलीसिया यानी परमेश्वर के घर की स्थापना परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण की गई थी, तो क्या इसका उद्देश्य परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना, उसके वचनों का प्रचार करना और उसकी गवाही देना नहीं है? (हाँ।) क्या यह सत्य नहीं है? (बिल्कुल।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है, तो यह केवल परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर सकती है, उसके वचनों का प्रचार कर सकती है, और उसकी गवाही दे सकती है। इसका व्यक्तिगत रुतबे, शोहरत, संभावनाओं या किसी अन्य हित से कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर के घर द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसकी शिक्षाओं पर आधारित होने चाहिए। मोटे तौर पर, ऐसा कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर की इच्छा और उसके कार्य के इर्द-गिर्द घूमती है; विशेष रूप से, यह राज्य का सुसमाचार फैलाने, परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के आस-पास घूमती है। क्या यह सही है? (हाँ।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के अलावा, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर के घर के लिए कोई और बात अधिक महत्वपूर्ण है? (यही वह जगह है जहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके कार्य का अनुभव करते हैं, और शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) तुमने बिल्कुल सही कहा है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। क्या तुमने इसे याद कर लिया? (हाँ, मैंने कर लिया।) इसे पढ़ो। (कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और उसके चुने हुए लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त होता है। यह ऐसी जगह है। ऐसी जगह पर, क्या कोई ऐसा कार्य या परियोजना है, चाहे वह जो भी हो, जो निजी आदर्शों और इच्छाओं की पूर्ति करती हो? निजी आदर्शों और इच्छाओं को पूरा करने के मकसद से कोई कार्य या परियोजना नहीं है, न ही इनका कोई भी पहलू निजी आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए है। तो, क्या परमेश्वर के घर में निजी आदर्श और इच्छाएँ मौजूद होनी चाहिए? (नहीं होनी चाहिए।) नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निजी आदर्श और इच्छाएँ हर उस कार्य के विरोध में होती हैं जो परमेश्वर कलीसिया में करना चाहता है। निजी आदर्श और इच्छाएँ कलीसिया में किए जाने वाले किसी भी कार्य के विपरीत होती हैं। वे सत्य के विपरीत होती हैं; वे परमेश्वर की इच्छा से, उसके वचनों के प्रचार से, उसकी गवाही देने से, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए शुद्धिकरण और उद्धार के कार्य से भटकी हुई होती हैं। किसी के आदर्श चाहे जो भी हों, अगर वे निजी आदर्श और इच्छाएँ हैं, तो वे लोगों को परमेश्वर की इच्छा का पालन करने से रोकेंगी, और उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने में बाधा डालेंगी या प्रभावित करेंगी। बेशक, अगर ये निजी आदर्श और इच्छाएँ हैं, तब तक वे लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करने नहीं दे सकती हैं। यह सिर्फ दो पक्षों के बीच विरोधाभास की बात नहीं है, यह बुनियादी तौर पर एक-दूसरे के विपरीत चलती है। अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हुए, तुम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के कार्य के साथ ही लोगों के और बेशक अपने उद्धार में बाधा डालते हो। संक्षेप में कहें तो लोगों के अपने आदर्श चाहे जो भी हों, वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चलते और परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का वास्तविक नतीजा हासिल नहीं कर सकते। जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं, तो उनका अंतिम उद्देश्य यह नहीं होता कि एक सृजित प्राणी के रूप में सत्य को समझें या यह समझें कि कैसे आचरण करें, कैसे परमेश्वर के इरादे पूरे करें और कैसे अच्छे से अपने कर्तव्य और अपनी भूमिका निभाएँ। इसका उद्देश्य लोगों का परमेश्वर के प्रति सच्चा भय और समर्पण रखना नहीं है। बल्कि, इसके विपरीत, किसी व्यक्ति के आदर्श और इच्छाएँ जितनी अधिक साकार होती हैं, वह उतना ही परमेश्वर से दूर चला जाता है और शैतान के करीब पहुँच जाता है। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति जितना अधिक अपने आदर्शों का अनुसरण करके उन्हें हासिल करता है, उसका दिल परमेश्वर के खिलाफ उतना ही अधिक विद्रोही हो जाता है, वह परमेश्वर से उतना ही दूर चला जाता है, और अंत में, जब वह अपनी इच्छानुसार अपने आदर्शों को पूरा करने और अपनी इच्छाओं को साकार और संतुष्ट करने में सक्षम होता है तो वह परमेश्वर से, उसकी संप्रभुता से और उसके बारे में हर चीज से और अधिक घृणा करने लगता है। यहाँ तक कि वह परमेश्वर को नकारने, उसका प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने के मार्ग पर भी चल सकता है। यही अंतिम परिणाम है।

यह समझने के बाद कि परमेश्वर का घर यानी कलीसिया क्या है, लोगों को यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर के घर में सदस्य बनकर रहते और जीते हुए उन्हें कैसा रवैया और कैसा रुख अपनाना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा है, “तुम हमें हमारे आदर्शों या हमारी इच्छाओं को साकार करने की कोशिश नहीं करने देते।” मैं तुम लोगों को अपने आदर्शों का अनुसरण करने से नहीं रोक रहा हूँ; मैं तुम्हें यह बता रहा हूँ कि परमेश्वर के घर में उचित रूप से कैसे रहना है, उचित रुख कैसे अपनाना है और एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करना है। यदि तुम अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश पर जोर देते हो, तो मैं साफ तौर कह सकता हूँ : यहाँ से चले जाओ! कलीसिया तुम्हारे लिए अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करने की जगह नहीं है। परमेश्वर के घर के बाहर, तुम अपने आदर्शों के अनुसार जो करना चाहो वो कर सकते हो और अपने आदर्शों और आकांक्षाओं का अनुसरण कर सकते हो। तुम्हें बस परमेश्वर का घर छोड़ देना होगा, और फिर कोई तुम्हारे काम में टांग नहीं अड़ाएगा। लेकिन, कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, तुम्हारे लिए अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश के लिए उपयुक्त जगह नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो इस जगह पर तुम्हारे लिए अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करना असंभव है। यदि तुम परमेश्वर के घर यानी कलीसिया में एक दिन के लिए भी रहते हो, तो अपने आदर्शों को साकार करने या उनका अनुसरण करने की कतई मत सोचना। यदि तुम कहते हो कि “मैं अपने आदर्शों को त्याग देता हूँ। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हूँ” तो यह स्वीकार्य होगा। तुम अपनी जगह के अनुसार और परमेश्वर के घर में नियमों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हो। लेकिन यदि तुम अपना जीवन व्यर्थ में नहीं जीने का लक्ष्य रखते हुए, अपने आदर्शों का अनुसरण करने और उन्हें साकार करने पर जोर देते हो, तो तुम अपने कर्तव्यों को त्यागकर परमेश्वर के घर से निकल सकते हो। या फिर तुम यह कहते हुए एक बयान लिख सकते हो, “मैं अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए अपनी इच्छा से सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को त्यागता हूँ। दुनिया बहुत बड़ी है, वहाँ मेरे लिए कोई न कोई जगह जरूर होगी। अलविदा।” इस तरह, तुम उचित और उपयुक्त तरीके से निकलकर अपने आदर्शों का अनुसरण कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम यह कहते हो कि “मैं अपने आदर्शों को त्याग दूँगा, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य अच्छे से निभाऊँगा, एक योग्य सृजित प्राणी बनूँगा और उद्धार का अनुसरण करूँगा” तो हमारे बीच एक साझा आधार हो सकता है। चूँकि तुम एक सदस्य के रूप में परमेश्वर के घर में शांति से रहना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले यह सीखना चाहिए कि एक अच्छा सृजित प्राणी कैसे बनें और अपनी जगह के अनुसार अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करें। परमेश्वर के घर में, फिर तुम एक ऐसे सृजित प्राणी बन जाओगे जो अपने नाम के अनुरूप जीता है। सृजित प्राणी तुम्हारी बाहरी पहचान और उपाधि है, और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और सार होना चाहिए। यह केवल उपाधि रखने की बात नहीं है; चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें उससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। तो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है ना? आज से, तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो, इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के बनाए गए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। इसी के साथ, आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। तुम्हें उन आदर्शों, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण करना छोड़ना और उन्हें त्यागना भी होगा जो तुमने अपने जीवन में पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, एक सृजित प्राणी के पास जो जीवन लक्ष्य और दिशा होनी चाहिए, उसे पाने की योजना बनाने के लिए तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य को बदलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो कोई खास कार्य करता है या जिसे किसी विशेष कौशल में महारत हासिल है। तुम्हारा लक्ष्य परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करना, यानी यह जानना होना चाहिए कि तुम्हें इस समय क्या कार्य करना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि तुम्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना है। तुम्हें खुद से यह पूछना होगा कि परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है और उसके घर में तुम्हारे लिए कौन-से कर्तव्य की व्यवस्था की गई है। तुम्हें उस कर्तव्य के संबंध में उन सिद्धांतों को समझना और उनके बारे में स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए जिन्हें समझा जाना चाहिए, धारण किया जाना चाहिए और जिनका पालन किया जाना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते, तो तुम उन्हें कागज पर लिख सकते हो या अपने कंप्यूटर पर रिकॉर्ड कर सकते हो। उनकी समीक्षा करने और उन पर विचार करने के लिए समय निकालो। सृजित प्राणियों के एक सदस्य के रूप में, तुम्हारे जीवन का प्राथमिक लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक योग्य सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह जीवन का सबसे मौलिक लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें। बेशक, तुम्हारी प्रतिष्ठा, रुतबे, घमंड, भविष्य वगैरह से संबंधित किसी भी लक्ष्य या दिशा को त्याग दिया जाना चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “हमें उन्हें क्यों त्यागना चाहिए?” जवाब आसान है। शोहरत, दौलत और रुतबे का अनुसरण करना परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में बाधा उत्पन्न करेगा, परमेश्वर के घर या कलीसिया में कुछ कार्यों को बाधित करेगा, और यहाँ तक कि कलीसिया के कुछ कार्यों को भी खोखला कर देगा। यह परमेश्वर के वचन फैलाने, उसकी गवाही देने और इससे भी बढ़कर, यह लोगों के उद्धार प्राप्त करने पर असर डालेगा। अपने कर्तव्य को मानक के अनुसार पूरा करने और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के लिए, तुम अपने हिसाब से लक्ष्य निर्धारित कर सकते हो और अपने अनुभवों को सारांशित कर सकते हो, लेकिन तुम्हें कभी भी अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने में अपनाए गए किसी भी सिद्धांत या दृष्टिकोण में तुम्हारे आदर्शों की मिलावट नहीं होनी चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे से और मानक के अनुसार निभाने और एक अच्छा सृजित प्राणी बनने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत विचारों और अवसरों का सारांश तैयार करने के लिए परमेश्वर के वचनों के बाहर नहीं जाना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों के भीतर ही सिद्धांत और अभ्यास का अधिक सटीक मार्ग खोजना चाहिए। अभ्यास के ये सिद्धांत आखिर में इस बात के इर्द-गिर्द घूमते हैं कि एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें और अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ। सब कुछ सत्य को समझने, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने और अंततः अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में या अपने दैनिक जीवन में विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय पालन किए जाने वाले सिद्धांतों को समझने पर केंद्रित है। बात समझ में आई? (बिल्कुल।) बेशक, यदि तुम परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हो, और एक योग्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करते हो तो तुम ये नतीजे हासिल कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हो तो तुम्हें कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी।

अगर लोग सत्य का अनुसरण किए बिना लगातार अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हैं, तो वे आखिर में अधिक अहंकारी, स्वार्थी, आक्रामक, क्रूर और लालची बन जाएँगे। और क्या? वे अधिक से अधिक आडंबरपूर्ण और दंभी हो जाएँगे। हालाँकि, जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना छोड़ देंगे, और इसके बजाय विभिन्न सत्यों के साथ-साथ परमेश्वर के वचनों के विभिन्न पहलुओं की समझ और लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के तरीके से संबंधित सत्य के मानदंडों का अनुसरण करेंगे, तो वे अधिक मानवीय समानता के साथ जीएँगे। विभिन्न कार्य करते हुए या विभिन्न परिवेशों का अनुभव करते हुए, वे अब पहले की तरह हताश और भ्रमित महसूस नहीं करेंगे। इसके अलावा, वे अब नकारात्मक भावनाओं में नहीं फँसे होंगे जैसा कि वे अक्सर हुआ करते थे, जब वे खुद को मुक्त करने में असमर्थ, नकारात्मक विचारों और भावनाओं से बेबस और बंधे हुए महसूस करते थे, और आखिर में विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से नियंत्रित और ढँके हुए होते थे। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना केवल लोगों को परमेश्वर के वचनों और सटीक रूप से योग्य सृजित प्राणी बनने के सिद्धांतों से दूर कर देता है। वे इस बात से अनजान होते हैं कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण कैसे करें, और उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि मानव जीवन, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु क्या हैं। वे नहीं जानते कि नफरत को कैसे सँभालना है और विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से कैसे निपटना है। बेशक, वे इस बारे में भी अनजान होते हैं कि उनके जीवन में आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों से कैसे पेश आएँ। जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना होता है, तो वे असहाय, उलझन से भरे और हक्के-बक्के रह जाते हैं। अंत में, वे केवल नकारात्मक भावनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को अपने दिलों में फैलने और विकसित होने देते हैं, जिससे वे खुद को उनके द्वारा नियंत्रित और बंधे हुए पाते हैं। इसके अलावा, इन नकारात्मक भावनाओं या विचारों और दृष्टिकोणों के कारण, वे चरम व्यवहार में भी संलग्न हो सकते हैं या ऐसी चीजें कर सकते हैं जो उनको और दूसरों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिसके अकल्पनीय परिणाम होते हैं। ऐसे कार्य लोगों के उचित अनुसरण में बाधा डालते हैं और उनमें जो अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए, लोगों के लिए अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अपने दिलों की गहराई में झाँककर देखें कि वे कौन-सी चीजें हैं जिनके लिए वे अभी भी तरसते हैं, और वे कौन-सी चीजें हैं जो दैहिक इच्छाओं से, इस संसार से, और देह के हितों से संबंधित हैं, जैसे कि शोहरत, प्रतिष्ठा, सम्मान, रुतबा, संपत्ति वगैरह, जिनकी वे अभी भी लालसा रखते हैं, जिनकी अभी भी उन्हें जरूरत है, जिनकी असलियत समझने में वे असमर्थ हैं, और जो अक्सर उन्हें बाँधता और ललचाता है। मुमकिन है कि वे इन चीजों में गहराई तक फँस गए हों या उनके मन में उनके प्रति गहरी प्रशंसा हो, और जरा-सी चूक से, वे किसी भी समय और किसी भी स्थान पर आसानी से उनकी पकड़ में आ सकते हैं। ऐसे मामले में, ये चीजें ही उनकी आदर्श होती हैं। जब वे इन आदर्शों को साकार कर लेते हैं, तब वे उनके पतन का कारण और उनके विनाश का स्रोत बन जाते हैं। तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? (लोगों को अपने दिलों की गहराई में झाँककर देखना चाहिए कि वे अभी भी किन चीजों के लिए तरसते हैं। उन्हें दैहिक और सांसारिक शोहरत, प्रतिष्ठा, सम्मान, रुतबा, संपत्ति आदि जैसी चीजों की असलियत समझनी होगी; नहीं तो, वे आसानी से उनके चंगुल में फँस सकते हैं।) वे उनके कब्जे में आ सकते हैं, है ना? तो, ये दैहिक चीजें बहुत खतरनाक हैं। यदि तुम उनकी असलियत नहीं समझ पाते, तो तुम हमेशा उनसे प्रभावित होने या उनके कब्जे में होने तक के खतरे में रहोगे। तो, अब तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन दैहिक चीजों का मैंने पहले उल्लेख किया था, उनका तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर विश्लेषण करके उन्हें समझो। जब तुम उन्हें खोजकर उनकी पहचान कर लो, तो तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए और अपने शरीर, मन और ऊर्जा को एक सामान्य सृजित प्राणी बनने में लगाने के साथ ही अपने मौजूदा कर्तव्यों और कार्य में लगाना चाहिए। अपने आपको एक विशेष या अजेय व्यक्ति के रूप में या असाधारण प्रतिभाओं या क्षमताओं वाले व्यक्ति के रूप में देखना बंद करो। तुम केवल एक मामूली व्यक्ति हो। कितना मामूली? सभी सृजित प्राणियों और परमेश्वर की बनाई हुई सभी चीजों में, तुम केवल उनमें से एक हो, सबसे साधारण हो। तुम किस हद तक साधारण हो? तुम घास के किसी तिनके की तरह, किसी पेड़, पहाड़, पानी की बूँद या यहाँ तक कि समुद्रतट के रेत के एक कण के समान मामूली हो। तुम्हारे लिए घमंड करने या प्रशंसा करने के लायक कुछ भी नहीं है। तुम इतने साधारण हो। इसके अलावा, यदि तुम्हारे दिल की गहराइयों में अभी भी आदर्श लोगों, महान हस्तियों, मशहूर हस्तियों, महान लोगों की बुलंद छवियाँ मौजूद हैं, या कुछ ऐसी चीजें हैं जिनसे तुम ईर्ष्या करते हो, तो तुम्हें उन्हें हटा देना चाहिए, त्याग देना चाहिए। तुम्हें उनकी प्रकृति सार की असलियत जाननी चाहिए, और एक सामान्य सृजित प्राणी होने के मार्ग पर लौटना चाहिए। एक सामान्य सृजित प्राणी होना और अपने कर्तव्यों को पूरा करना सबसे बुनियादी कार्य है जो तुम्हें करना चाहिए। फिर, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के इस विषय पर वापस लौटकर सत्य पाने के लिए और अधिक कोशिश करनी चाहिए। बाहरी खबरों, सूचनाओं, घटनाओं और मशहूर हस्तियों की प्रोफाइलों से अपना संपर्क कम रखने की कोशिश करो। ऐसी किसी भी चीज से बचना सबसे अच्छा है जो अपने आदर्शों को साकार करने की तुम्हारी इच्छा को फिर से जगा सकती है। अब, तुम्हें उन लोगों, घटनाओं और चीजों से दूरी बनानी होगी जो तुम्हारे लिए बिल्कुल भी फायदेमंद नहीं हैं और नकारात्मक हैं। खुद को इन चीजों से अलग कर लो और इस जटिल और अराजक संसार में हर चीज से दूर रहने की कोशिश करो। भले ही वे तुम्हारे लिए कोई खतरा या प्रलोभन न हों, फिर भी तुम्हें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे मूसा चालीस वर्ष तक जंगल में रहा; क्या उसने तब भी अच्छा जीवन नहीं जीया? अंत में, उसकी बोलने की क्षमता अच्छी न होने के बाद भी, परमेश्वर ने उसे चुना, जो उसके जीवन की सबसे सम्मानजनक बात थी। इसमें कुछ भी बुरा नहीं था। इसलिए, सबसे पहले, अपने विचारों की गहराई में अपने दिल को पुनः पा लो, तुम्हारे विचारों की गहराई में धार्मिकता की भूख और प्यास वाली मानसिकता होनी चाहिए, जो तुम्हारी आस्था में सत्य का अनुसरण करे। तुम्हारी ऐसी ही योजना होनी चाहिए, ऐसी इच्छाशक्ति और चाह रखनी चाहिए, न कि लगातार अपने आदर्शों पर सोच-विचार करना या निरंतर यह कोशिश और चिंतन करना चाहिए कि तुम उन्हें हासिल कर पाओगे या नहीं। तुम्हें पिछले आदर्शों और इच्छाओं के साथ अपना लगाव पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए, और एक योग्य और सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करनी चाहिए। सामान्य सृजित प्राणियों में शुमार होना कोई बुरी बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? यह वास्तव में एक अच्छी बात है। जिस पल से तुम अपने दैहिक आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना शुरू करते हो, जिस पल से तुम बिना किसी विशेष रुतबे, ओहदे या मूल्य के एक सामान्य सृजित प्राणी बनने का दृढ़ निर्णय लेते हो, इसका मतलब है कि तुममें परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आत्म-समर्पण करने की इच्छा और दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर को अपने जीवन का आयोजन करने और उस पर शासन करने देते हो। तुममें समर्पण करने, निजी आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने और किनारे करने, परमेश्वर को अपना प्रभु बनाने और अपनी नियति पर शासन करने देने की चाह है, तुममें ऐसी मानसिकता के साथ एक योग्य सृजित प्राणी बनने और ऐसी मानसिकता और रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने की चाह है। जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया ऐसा होना चाहिए। क्या यह सही है? क्या यही सत्य है? (हाँ।) तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और जीवन की दिशा किस पर केंद्रित है? (एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को निभाने पर।) यही सबसे बुनियादी चीज है। और क्या? (एक सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करने पर।) और कुछ? (उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने पर।) यह एक और हो गया। और कुछ? (परमेश्वर के वचनों पर ध्यान केंद्रित करने और सत्य खोजने के लिए अधिक कोशिश करने पर।) ये थोड़ा ज्यादा ठोस है, है न? तुम्हारे जीवन के सभी लक्ष्य और जीवन की दिशा परमेश्वर के वचनों के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए, और तुम्हें सत्य खोजने के लिए अधिक कोशिश करनी चाहिए। अस्पष्ट आदर्शों का अनुसरण करने का जो उत्साह तुममें पहले था, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में लगाओ, और देखो कि तुम सत्य की ओर प्रगति कर पाते हो या नहीं। यदि तुमने वास्तव में सत्य की ओर प्रगति की, तो तुम्हारे भीतर विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होंगी। यानी, जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ सिद्धांतों से जुड़ी चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तब तुम हक्के-बक्के, भ्रमित, परेशान या उलझे हुए नहीं रहोगे। इसके बजाय, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, उसके वचनों से मार्गदर्शन लोगे, तुम्हारा हृदय शांत और स्थिर होगा, और तुम जानोगे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके इरादे पूरे करने वाले तरीके से कैसे कार्य करना है। तभी तुम वास्तव में जीवन में सही मार्ग पर होगे। बहुत-से लोग अपने जीवन में धीमी प्रगति करते हैं, क्योंकि अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में वे हमेशा अपने आदर्शों, शोहरत, रुतबे और स्वयं द्वारा कल्पित जीवन के लक्ष्यों का पीछा करते हैं, और अपनी दैहिक इच्छाओं को साकार करते हुए आशीष पाना चाहते हैं। नतीजतन, वे अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से पूरा नहीं कर पाते हैं और उन्हें सच्चे जीवन प्रवेश का अनुभव नहीं होता है। शुरू से अंत तक वे वास्तविक अनुभवजन्य गवाही साझा करने में असमर्थ होते हैं। इस कारण चाहे वे कितने ही समय से अपने कर्तव्य निभा रहे हों, जीवन और सत्य में प्रवेश करने की उनकी प्रगति न्यूनतम रहती है, और उन्हें बहुत कम परिणाम मिलते हैं। यदि तुमने वास्तव में अपने कर्तव्य निभाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया है, अपनी सारी ऊर्जा सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए कड़ी मेहनत करने में लगा दी है तो तुम लोग खुद को वर्तमान दशा, आध्यात्मिक कद और स्थिति में नहीं पाओगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग आम तौर पर केवल नीरस कार्यों, पेशेवर कार्य और मौजूदा काम पर ध्यान देते हैं, और इन गतिविधियों का अंतर्निहित सार अपने आदर्शों को साकार करते हुए निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करना है। ये आदर्श क्या हैं? ये आदर्श हैं कि लोग हमेशा खुद को अपने काम में लगे देखना, और कुछ उपलब्धियाँ हासिल करना, कुछ परिणाम अर्जित करना, और दूसरों से सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं; साथ ही, वे अपनी अहमियत दिखाने के लिए हमेशा अपने सपनों और अपने लक्ष्यों को साकार करना चाहते हैं। तभी वे परिपूर्ण महसूस करते हैं। लेकिन, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह केवल अपने भीतर के खोखलेपन को संतुष्ट करना और अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए काम का उपयोग करना है। ऐसा ही होता है न? (बिल्कुल।) इसलिए, चाहे कोई व्यक्ति कितनी भी देर कार्य करता हो या उसने कितना भी काम किया हो, इन सबका सत्य से कोई संबंध नहीं है। वे अभी भी सत्य को नहीं समझते और उसका अनुसरण करने से कोसों दूर हैं। अपने कार्य की जिम्मेदारियों से संबंधित सिद्धांतों के संदर्भ में लोगों के पास अभी भी कोई प्रवेश या समझ नहीं है। इसी वजह से तुम सब थके हुए महसूस करते हो और सोचते हो, “हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? हमने बहुत प्रयास किए, बहुत कठिनाइयाँ सहीं और भारी कीमत चुकाई। फिर भी हमारी काट-छाँट क्यों की जा रही है?” ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो। तुमने सिद्धांतों को कभी नहीं समझा या कभी उस पर पकड़ नहीं बनाई है, न ही उन्हें पाने की पूरी कोशिश की है। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों ने सत्य खोजने की, परमेश्वर के वचनों को समझने की कोशिश नहीं की है। तुम बस कुछ नियमों का पालन करके अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हो। तुम हमेशा अपने आदर्शों और धारणाओं की दुनिया में रहते हो, और तुम जो कुछ भी करते हो उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। तुम अपना करियर बना रहे हो, न कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल रहे हो। यानी, तुम अभी भी परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों को नहीं समझते हो, और अंत में, कुछ लोगों को मजदूर करार दिया जाता है और उन्हें यह अन्याय लगता है। क्या कारण है कि उन्हें यह अन्याय लगता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि उनका कष्ट सहना और कीमत चुकाना सत्य का अभ्यास करने के बराबर है। दरअसल, उनका कष्ट सहना और कीमत चुकाना बस थोड़ी कठिनाई का सामना करना है। यह सत्य का अभ्यास करना या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो इसका सत्य का अभ्यास करने से कोई लेना-देना नहीं है; यह केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना है। क्या केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना ही अपने कर्तव्यों को मानकों के अनुसार अच्छे से निभाना है? क्या यह एक योग्य सृजित प्राणी होना है? (नहीं।) इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है।

दमन की नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के विषय के संबंध में, आज के लिए हम अपनी संगति यहीं पर रोकते हैं। क्या तुम उन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख सकते हो जो उन लोगों के लिए उत्पन्न होती हैं जो अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार नहीं कर पाने के कारण दमित महसूस करते हैं? (हाँ, यह स्पष्ट है।) क्या स्पष्ट है? आओ इसका सार निकालें। सबसे पहले, बात करते हैं कि आदर्श क्या हैं। यहाँ जिन आदर्शों का विश्लेषण किया जा रहा है वे नकारात्मक हैं, वे न्यायसंगत या सकारात्मक चीजें नहीं हैं। आदर्श क्या हैं? “आदर्शों” की परिभाषा देने के लिए सटीक भाषा का उपयोग करो। (वे खोखले विचार हैं जो सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक से भटके हुए हैं, जिनकी कल्पना मनुष्य खुद करते हैं, लेकिन वे वास्तविकता के साथ मेल नहीं खाते। वे वास्तविक नहीं हैं।) तुमने जिनका जिक्र किया है वे आदर्शवादियों के आदर्श हैं। तुम आम तौर पर आदर्शों को कैसे परिभाषित करोगे? क्या तुम लोग उन्हें परिभाषित कर सकते हो? क्या उन्हें परिभाषित करना कठिन है? वे कौन से लक्ष्य हैं जिन्हें लोग अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित करते हैं? (लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आदर्श हैं।) क्या यह परिभाषा सही है? (हाँ।) अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए लोगों के निर्धारित लक्ष्य आदर्श और इच्छाएँ हैं। क्या यह अविश्वासियों द्वारा बताई गई आदर्शों की व्यापक परिभाषा है? हम इसे इसके अंतर्निहित सार के आधार पर परिभाषित कर रहे हैं, है ना? (हाँ।) आदर्शों का विशिष्ट प्रकार चाहे जो हो, चाहे वे बहुत उच्च, निम्न या औसत दर्जे के हों, वे लोगों द्वारा अपने हितों के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य हैं। ये लक्ष्य उनके आदर्श या इच्छाएँ हैं। क्या यह उन लोगों का आदर्श नहीं है जिनके बारे में हमने पिछले उदाहरणों में संगति की और जिनका विश्लेषण किया था? लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं, हितों वगैरह के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आदर्श और इच्छाएँ हैं। जो लोग आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं लेकिन उन्हें साकार नहीं कर पाते, वे अक्सर कलीसिया के भीतर दमित महसूस करते हैं। ये लोग खुद को दमित महसूस करते हैं। एक मिनट के लिए सोचो, क्या तुम भी ऐसी दशा और स्थिति में हो? क्या तुम भी अक्सर ऐसी स्थिति में, ऐसी भावनाओं के साथ जीते हो? यदि तुममें ये भावनाएँ हैं, तो तुम क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हो? यह सब तुम्हारे अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए है। तुम्हारे द्वारा निर्धारित किए गए आदर्श और लक्ष्य अक्सर सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिबंधित और बाधित होते हैं—उन्हें साकार नहीं किया जा सकता है। इस वजह से, तुम दुखी महसूस करते हो और दमन की भावनाओं के साथ जीते हो। यही बात है न? (हाँ।) यही मानवीय आदर्शों की समस्या है। पहले, हमने मानवीय आदर्शों का विश्लेषण किया, उसके बाद हमने किस बारे में संगति की? हमने संगति की कि कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, लोगों के लिए अपने आदर्शों को पूरा करने की जगह नहीं है। फिर हमने उन सही लक्ष्यों के बारे में संगति की जिनका अनुसरण लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में करना चाहिए, जैसे एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें और एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को कैसे अच्छे से निभाएँ। सही कहा न? (हाँ।) इन चीजों के बारे में संगति करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि उन्हें अपने आदर्शों और कर्तव्यों को कैसे चुनना चाहिए और उनके साथ कैसे पेश आना चाहिए। लोगों को अपने अनुचित आदर्शों को त्याग देना चाहिए, जबकि इस जीवन में उनके कर्तव्य ही वे हैं जिनके लिए उन्हें कीमत चुकानी चाहिए और अपना पूरा जीवन समर्पित करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के कर्तव्य सकारात्मक चीजें हैं, जबकि मानवीय आदर्श ऐसे नहीं हैं और उन पर कायम रहने के बजाए उन्हें त्याग देना चाहिए। लोगों को एक योग्य सृजित प्राणी बनने का अनुसरण करना चाहिए, उस पर कायम रहना चाहिए और इसी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तो, जब लोगों के आदर्श उनके कर्तव्यों से टकराते हों, तो उन्हें क्या करना चाहिए? (उन्हें अपने आदर्शों को त्याग देना चाहिए और उनसे दूर हो जाना चाहिए।) उन्हें अपने आदर्शों को त्याग देना चाहिए और अपने कर्तव्यों पर कायम रहना चाहिए। चाहे जब भी हो या लोग जिस उम्र तक भी जिएँ, उन्हें जो करना चाहिए और जिस चीज का अनुसरण करना चाहिए, वह इसी बात के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए कि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य कैसे निभाएँ और परमेश्वर, उसके वचनों, और सत्य के प्रति समर्पण कैसे करें। केवल ऐसे अभ्यास से ही व्यक्ति सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकता है, है न? (हाँ।) ठीक है, आओ आज की हमारी संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!

10 दिसंबर 2022

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