सत्य का अनुसरण कैसे करें (7) भाग दो
हम अभी इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि लोगों के आदर्शों को आदर्शवादियों के आदर्शों और यथार्थवादियों के आदर्शों की दो श्रेणियों में कैसे बाँटा जा सकता है। आओ आदर्शवादियों के आदर्शों के बारे में बात शुरू करें। यथार्थवादियों के आदर्शों को पहचानना आसान होना चाहिए। दूसरी ओर, आदर्शवादियों के आदर्श ज्यादा ठोस नहीं होते हैं और वास्तविक जीवन से कुछ हद तक दूर ही रहते हैं। वे मानव जीवन में शामिल व्यावहारिक मामलों, जैसे कि दैनिक जरूरतों से भी बहुत दूर होते हैं। इन आदर्शों में ठोस अवधारणाएँ होती हैं लेकिन इनका कोई विशेष धरातल नहीं होता है। तुम कह सकते हो कि ये आदर्श और इच्छाएँ कपोल-कल्पनाएँ हैं, अपेक्षाकृत खोखली और मानव प्रकृति से अलग हैं। कुछ को अमूर्त माना जा सकता है, और इनमें से कुछ आदर्श और इच्छाएँ ऐसी भी हैं जो एक खंडित व्यक्तित्व से उत्पन्न होती हैं। आदर्शवादियों के आदर्श क्या हैं? आदर्शवाद को समझना आसान होना चाहिए। यह एक दिवास्वप्न है, एक कपोल-कल्पना है, जिसका वास्तविक जीवन की दैनिक जरूरतों के व्यावहारिक मामलों से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, एक कवि होना, एक अमर कवि होना, दुनिया भर में घूमना; या तलवारबाज होना, भटका शूरवीर होना और सारी दुनिया घूमना, अविवाहित और निःसंतान रहना, जीवन की तुच्छ चीजों की उलझनों से आजाद रहना, दैनिक जरूरतों की चिंता से मुक्त होना, आराम और सुकून से जीना, इधर-उधर भटकते रहना, हमेशा अमर रहने की आकांक्षा रखना और वास्तविक जीवन से बचकर भागना। क्या यह एक आदर्शवादी का आदर्श है? (हाँ।) क्या तुम लोगों में से किसी के मन में ऐसे विचार हैं? (नहीं हैं।) चीनी इतिहास के उन मशहूर कवियों के बारे में क्या कहोगे जो शराब पीकर कविताएँ लिखते थे? वे आदर्शवादी थे या यथार्थवादी? (आदर्शवादी।) जिन विचारों का उन्होंने समर्थन किया था वे आदर्शवादियों की कपोल-कल्पनाएँ और दिवास्वप्न थे। वे हमेशा इधर-उधर भटकते रहते थे, अस्पष्ट और अनिश्चित शब्दों में बातें करते थे, कल्पना करते थे कि दुनिया कितनी सुंदर है, मानवजाति कितनी शांतिपूर्ण हो सकती है, कैसे लोग मिलजुलकर रह सकते हैं। उन्होंने खुद को सामान्य मानवता की अंतरात्मा, विवेक और जीवन की जरूरतों से अलग कर लिया। उन्होंने खुद को वास्तविक जीवन की इन समस्याओं से अलग कर लिया और एक आदर्शवादी या काल्पनिक क्षेत्र की कल्पना की जो वास्तविकता से पूरी तरह अलग था। उन्होंने खुद को उस क्षेत्र के और उस दायरे के भीतर रहने वाले प्राणी के रूप में देखा। क्या यही एक आदर्शवादी का आदर्श नहीं है? अतीत की एक कविता है, और उसकी एक पंक्ति में लिखा है, “मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ।” उस कविता का शीर्षक क्या था? (“वाटर मेलोडी।”) उस कविता की पंक्तियाँ पढ़ो। (“मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ। मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है, जेड-पैलेस बहुत ऊँचा है। अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ।”) “अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ” से कवि का क्या तात्पर्य है? क्या ये दो पंक्तियाँ एक आदर्शवादी की दमनकारी और आक्रोशपूर्ण भावनाओं को व्यक्त करती हैं जिनके आदर्श हासिल या साकार नहीं हो पाए? क्या वे ऐसा कुछ हैं जो इस दमनकारी भावना के तहत व्यक्त किए गए हैं? यह किस पर केंद्रित है? कौन-सा वाक्य उस माहौल और पृष्ठभूमि को दर्शाता है जिसमें कवि ने खुद को उस समय पाया था? क्या यह वाला, “मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है”? (हाँ।) वह अफसरशाही के अंधकार और बुराई, जीने की एक भ्रष्ट जगह को उजागर कर रहा था। वह ऐसे माहौल और स्थिति से बचने के लिए अमर बनना चाहता था। क्या उसके लिए केवल एक अधिकारी का पद त्याग देना ही काफी नहीं होता? क्या ऐसा हो सकता है कि वह इस माहौल को बदलना चाहता हो? वह ऐसे माहौल से असंतुष्ट था, उसे लगता था कि यह उस आदर्श जीवन के माहौल से मेल नहीं खाता है जिसकी उसने कल्पना की थी, और वह अंदर ही अंदर दमित महसूस करता था। एक आदर्शवादी के पास इसी प्रकार का आदर्श होता है। आदर्शवादियों के आदर्श अधिकतर कपोल-कल्पना की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे अवास्तविक और अमूर्त होते हैं, वास्तविक जीवन से कटे होते हैं। ऐसा लगता है मानो वे भौतिक संसार के बाहर एक स्वतंत्र और व्यक्तिगत स्थान में, कपोल-कल्पनाओं में लिप्त और वास्तविकता से अलग होकर किसी दूसरी दुनिया में जीते हैं। आधुनिक समाज में रहने वाले कुछ लोगों की तरह, वे भी हमेशा प्राचीन कपड़े पहनना, प्राचीन तरीकों से अपने बालों को संवारना और प्राचीन भाषा में बात करना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “आह, उस तरह का जीवन एकदम अद्भुत है! बिल्कुल एक अमर व्यक्ति की तरह, जो भौतिक देह की परेशानियों और वास्तविक जीवन की विभिन्न कठिनाइयों से मुक्त होकर घूमता और भ्रमण करता रहता है। जीवन जीने के ऐसे माहौल में कोई उत्पीड़न, कोई शोषण, कोई चिंता नहीं है। सभी लोग एक समान हैं, एक-दूसरे की मदद करते हुए मिलजुलकर रहते हैं। जीवन जीने की ऐसी आदर्श परिस्थितियाँ कितनी सुंदर और अभीष्ट हैं!” अविश्वासियों के बीच, कुछ ऐसे लोग हैं जो इन चीजों का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग एक जैसे गीत गाते हैं या एक जैसी कविताएँ लिखते हैं, या एक जैसा अभिनय करते हैं। इसी वजह से, लोग उस दूसरी दुनिया की और भी अधिक लालसा रखते हैं जिसका आदर्शवादी सपना देखते हैं। और जब कुछ लोग ये गाने गाते हैं या ये कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, तो जितना अधिक वे गाते हैं, उनकी मनोदशा उतनी ही ज्यादा उदास होती जाती है, उतना ही अधिक वे उस आदर्श दुनिया के लिए तरसते हैं और उससे चिपके रहते हैं। आखिर में क्या होता है? कुछ लोगों को लंबे समय तक गाने के बाद लगता है कि वे अपनी चिंताओं से भाग नहीं सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी वे मानव संसार का स्नेह महसूस नहीं कर सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी उन्हें लगता है कि उनके आदर्शवाद का काल्पनिक संसार ही बेहतर है। उनका संसार से मोहभंग हो जाता है, वे अब इस मानवीय संसार में नहीं रहना चाहते हैं और आखिर में अपने तरीके से उस आदर्श दुनिया में जाने का दृढ़ निर्णय कर लेते हैं। कुछ लोग जहर पी लेते हैं, कुछ इमारतों से कूद जाते हैं, कुछ अपने पजामों से अपना गला घोंट लेते हैं, तो कुछ भिक्षु बन जाते हैं और आध्यात्मिक अभ्यास करने लगते हैं। उनके शब्दों में, उन्होंने सांसारिक लगाव के भ्रमजाल के पार देख लिया है। वास्तव में, दुनिया के प्रति उनके मोहभंग को दूर करने के लिए ऐसे चरम उपायों और तरीकों का सहारा लेने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के कई तरीके हैं, लेकिन क्योंकि वे इन समस्याओं के अंतर्निहित सार को नहीं समझ पाते हैं, इसलिए वे आखिर में इन कठिनाइयों को हल करने और उनसे बचने के लिए चरम तरीके चुनते हैं, ताकि अपने आदर्शों को साकार करने के उद्देश्य को हासिल कर सकें। यह उन कुछ आदर्शवादियों और उनकी समस्याओं को दर्शाता है जो अविश्वासियों के बीच रहते हैं।
परमेश्वर के घर में, कलीसिया में, क्या ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके समान आदर्श हों? यकीनन, तुम लोगों ने अभी तक उन्हें देखा नहीं है, तो मैं तुम्हें उनके बारे में बताऊँगा। ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं, जो धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते हुए, सभी के लिए शांति, सद्भाव, अमन और समानता वाले एक आदर्श समाज के लिए तरसते हैं, जैसा कि अविश्वासियों के बीच मौजूद आदर्शवादी करते हैं। यह आदर्श समाज कुछ कवियों या लेखकों द्वारा चित्रित कल्पना-लोक की तरह है; बेशक, यह अधिकतर कुछ ऐसे क्षेत्रों, जीवन जीने के तरीकों या रहने के माहौल जैसा है जो लोगों की आदर्श दुनिया में होते हैं। ऐसी आवश्यकताओं और आदर्शों से प्रेरित ये लोग, अपने आदर्शों को साकार करने के लिए अनजाने में अपनी आस्था खोज लेते हैं। खोज करते समय, उन्हें पता चलता है कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छा मार्ग और आस्था का एक अच्छा विकल्प है। अपने आदर्शों को साथ लेकर, वे परमेश्वर के घर में आते हैं, आशा करते हैं कि लोगों के बीच उन्हें स्नेह मिलेगा, उनकी परवाह की जाएगी, उन्हें सँजोकर रखा जाएगा और उनकी देख-रेख होगी, और बेशक, वे परमेश्वर के महान प्रेम और सुरक्षा को और भी अधिक महसूस करने की आशा करते हैं। वे अपने आदर्शों के साथ परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, और वे चाहे अपने कर्तव्य निभाएँ या न निभाएँ, हर हाल में उनके आदर्श अपरिवर्तित रहते हैं—वे हमेशा अपने आदर्शों को साथ लेकर चलते हैं। शुरू से अंत तक, उनके आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है : परमेश्वर के घर में प्रवेश करने पर, वे आशा करते हैं कि यह एक ऐसा स्थान है जहाँ वे स्नेह महसूस कर सकते हैं, जहाँ वे स्नेह, खुशी और कल्याण का आनंद ले सकते हैं। वे आशा करते हैं कि यह ऐसी जगह है जहाँ लोगों के बीच कोई विवाद, संदेह या भेदभाव नहीं होता; एक ऐसी जगह जहाँ लोगों के बीच धौंस जमाने, धोखा देने, नुकसान पहुँचाने या अलग-थलग करने की कोशिश नहीं होती है। ये मूल रूप से वे आदर्श हैं जो ऐसे आदर्शवादियों के मन में पाए जा सकते हैं। यानी, वे एक ऐसी जगह की कल्पना करते हैं जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करें, उनका अपना जीवन या कोई विचार न हो, दूसरों से मेलजोल में मित्रता दिखाने और यह दिखाने के लिए कि उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं है, वे यंत्रवत ढंग से मुस्कुराएँ, सिर हिलाएँ और झुककर अभिवादन करें। इस आदर्श स्थान में, लोगों के बीच बहुत प्रेम है, और वे एक-दूसरे की देख-रेख कर सकते हैं, एक-दूसरे को सँजोकर परवाह और मदद कर सकते हैं, एक-दूसरे को समझकर आपस में सामंजस्य बैठा सकते हैं, और यहाँ तक कि एक-दूसरे की ढाल बनकर गलतियाँ भी छिपा सकते हैं। आदर्शवादी इसी तरह की चीजों को आदर्श मानते और उनके सपने देखते हैं। उदाहरण के लिए, जब आदर्शवादी परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, तो उनका आदर्श और उम्मीद यह होती है कि बुजुर्ग लोगों का सम्मान किया जाए, उन्हें सँजोकर उनकी देखभाल की जाए और युवा सदस्य अच्छे से उन पर ध्यान दें और उनका ख्याल रखें। सम्मान के अलावा, वे यह भी आशा करते हैं कि लोग आदरसूचक नामों का उपयोग करेंगे, भाइयों को “फलाँ बड़े ताऊ,” “अमुक अंकल” या “फलाँ अंकल” और बहनों को “अमुक दादी,” “अमुक आंटी,” या “फलाँ बहन” कहकर संबोधित करेंगे—मूल रूप से, हर किसी का अपना अलग संबोधन होगा। वे आशा करते हैं कि लोग बाहरी तौर पर एक-दूसरे के प्रति विशेष रूप से सौहार्दपूर्ण, सामंजस्यपूर्ण और विनम्र होंगे, और किसी के भी मन में सतही तौर पर या दिल की गहराई में कोई दुर्भावना या कोई खराब या बुरी बात नहीं होगी। वे आशा करते हैं कि यदि कोई गलती करता है या कठिनाइयों का सामना करता है, तो हर कोई उनकी सहायता के लिए मदद का हाथ बढ़ा सकता है, और इसके अलावा, उनकी अच्छे से देखभाल कर उनके प्रति सहनशील हो सकता है। खासकर जब कमजोर लोगों और उन अपेक्षाकृत निष्कपट लोगों की बात आती है जिन्हें दुनिया में लोग आसानी से धमकाते या दबाते हैं—तो वे और भी अधिक आशा करते हैं कि जब ऐसे लोग कलीसिया में, परमेश्वर के घर में आएँ, तो उनकी अच्छी देखभाल की जाए, उनका ध्यान रखा जाए और उनके साथ खास तरह का व्यवहार किया जाए। जैसा कि ये आदर्शवादी कहते हैं, जब वे परमेश्वर के घर में आए, तो उन्होंने कामना की थी कि हर कोई खुशहाल और सुखी रहे, और उन्हें उम्मीद थी कि क्योंकि वे सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उनका एक बड़ा परिवार होगा और सभी भाई-बहन एक साथ होंगे। वे सोचते हैं कि यहाँ कोई धौंस जमाने, दंड देने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश नहीं करेगा। उनका मानना है कि यदि कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो लोगों के बीच कोई विवाद या गुस्सा नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी को एक-दूसरे के साथ शांति से, बहुत धैर्य और सहयोग की भावना के साथ व्यवहार करना चाहिए, उन्हें हमेशा दूसरों को सहज महसूस कराना चाहिए, और हरेक व्यक्ति को सिर्फ अपना सबसे अच्छा और सबसे उदार पक्ष ही दिखाना चाहिए और अपने बुरे या दुष्टतापूर्ण पक्ष को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। उनका मानना है कि लोगों को एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करना चाहिए, उन्हें दूसरे लोगों के बारे में कोई नकारात्मक विचार या राय नहीं रखनी चाहिए, और एक-दूसरे के साथ कुछ भी नकारात्मक तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए; वे सोचते हैं कि लोगों को दूसरों के प्रति अच्छे इरादे रखने चाहिए, और यह कहावत बढ़िया बात कहती है, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” वे सोचते हैं कि केवल यही परमेश्वर का सच्चा घर और सच्ची कलीसिया है। हालाँकि, इन आदर्शवादियों के आदर्श अब तक साकार नहीं हुए हैं। उनकी जगह पर, परमेश्वर का घर सिद्धांतों पर ध्यान देता है, लोगों के बीच पारस्परिक सहयोग और समर्थन पर जोर देता है, और हर किसी से यह अपेक्षा करता है कि वे सभी प्रकार के लोगों के साथ सत्य सिद्धांत और परमेश्वर के वचनों के आधार पर व्यवहार करें। परमेश्वर के घर ने कुछ ऐसी अपेक्षाएँ भी सामने रखी हैं जो लोगों के प्रति “विचारशून्य” हैं, जैसे विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर करना और उनके साथ अलग-अलग व्यवहार करना। परमेश्वर का घर लोगों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वालों, कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन करने वालों या सिद्धांतों के विरुद्ध जाने वालों को उजागर करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए उठ खड़े हों, ताकि परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा की जा सके, और यह लोगों को भावनाओं के आधार पर किसी को बचाने या उसकी गलतियाँ छिपाने की अनुमति नहीं देता है। बेशक, परमेश्वर के घर ने अगुआई के विभिन्न स्तर भी निर्धारित किए हैं। एक ओर, परमेश्वर का घर सभी स्तरों के अगुआओं से यह अपेक्षा करता है कि वे कलीसिया के रोजमर्रा के कार्य की देख-रेख करें। दूसरी ओर, वह उनसे विभिन्न कार्यों की कड़ाई से निगरानी, प्रबंधन करने और उनकी खोज-खबर रखने के साथ-साथ उनसे हर समय विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों की दशा और कलीसियाई जीवन के बारे में सूचित रहने, उन्हें समझने और उन पर ध्यान देने, कर्तव्य निभाते समय अपने रवैये और प्रवृत्तियों पर गौर करने, और आवश्यक होने पर उचित और उपयुक्त बदलाव करने की अपेक्षा करता है। बेशक, परमेश्वर का घर अगुआओं और कर्मियों से ऐसे किसी भी व्यक्ति की सख्ती से काट-छाँट करने की अपेक्षा करता है जो उन्हें परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाते दिखे या सिद्धांतों का उल्लंघन करे, कलीसिया के कार्य में बाधा डाले और उसे बिगाड़े; उनसे छोटे-मोटे अपराधों के लिए चेतावनियाँ जारी करने, और अधिक गंभीर मामलों से उचित ढंग से निपटने की अपेक्षा भी की जाती है। इस संदर्भ में, कुछ लोगों को हटा दिया गया है, निकाल दिया गया है, या उनके नाम काट दिए गए हैं। यकीनन, जब लोग विभिन्न कर्तव्य निभाने और विभिन्न कार्यों में शामिल होने के लिए परमेश्वर के घर में आते हैं, तो उनमें से कई लोग परमेश्वर के वचनों से आने वाली ताड़ना और न्याय को सुनते, देखते या अनुभव करते हैं; इसके अलावा, वे विभिन्न दर्जे के अगुआओं से काट-छाँट का अनुभव करते हैं। ये अलग-अलग माहौल और मामले, जिनका लोग परमेश्वर के घर में सामना करते हैं, आदर्शवादियों की कल्पना में मौजूद परमेश्वर के आदर्श घर और कलीसिया से बिल्कुल अलग हैं, इस हद तक अलग हैं कि वे उनकी अपेक्षाओं से बिल्कुल बाहर ही हैं, और इस कारण से उनके दिलों में बहुत गहरा दबाव महसूस होता है। एक ओर, उन्हें कलीसिया में होने वाली विभिन्न घटनाएँ या समस्याओं से निपटने के कलीसिया के तरीके और सिद्धांत अकल्पनीय लगते हैं। वहीं दूसरी ओर, अपने आदर्शों के कारण और सकारात्मक चीजों, कलीसिया और परमेश्वर के घर के बारे में अपनी भ्रामक समझ के कारण उनके दिलों की गहराई में दमनकारी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन दमनकारी भावनाओं के उत्पन्न होने पर, क्योंकि वे अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को तुरंत ठीक करने में विफल रहते हैं, या अपने आदर्शों की समस्याओं को समझ नहीं पाते और स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाते, तो उनके भीतर कई धारणाएँ उभरने लगती हैं। इसके अलावा, चूँकि वे सत्य समझने या इन धारणाओं को ठीक करने के लिए सत्य का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं, ये धारणाएँ उनके विचारों या उनकी आत्मा की गहराई में जड़ें जमाना शुरू कर देती हैं, जिसके कारण उनकी दमनकारी भावनाएँ लगातार बढ़ जाती हैं और अधिक से अधिक गंभीर हो जाती हैं। वास्तव में, परमेश्वर, परमेश्वर का घर, कलीसिया, विश्वासी, और ईसाई, सभी इन आदर्शवादियों के आदर्शों वाले काल्पनिक खूबसूरत जन्नत, स्वर्ग या आदर्श-लोक से मेल नहीं खाते। नतीजतन, उनके दिलों की गहराई में छिपा दमन लगातार इकट्ठा होता रहता है, और उनके पास खुद को इससे मुक्त करने का कोई रास्ता नहीं होता। क्या कलीसिया में ऐसे लोग मौजूद हैं? (हाँ।)
कुछ लोग कहते हैं, “अरे, परमेश्वर का घर हमेशा न्याय और ताड़ना को स्वीकारने की बात क्यों करता है? परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी अब भी काट-छाँट का सामना क्यों कर रहे हैं? परमेश्वर का घर लोगों को क्यों बाहर निकाल देता है? इसमें प्रेम तो बिल्कुल नहीं है! ‘धरती पर स्वर्ग’ में ऐसी चीजें कैसे हो सकती हैं? कलीसिया में मसीह-विरोधी कैसे दिख सकते हैं? मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों का दमन करने और उन्हें दंडित करने की घटनाएँ कैसे घट सकती हैं? कलीसिया में, परमेश्वर के घर में लोग कैसे एक-दूसरे को उजागर कर एक-दूसरे का गहन-विश्लेषण कर सकते हैं? यहाँ विवाद कैसे हो सकते हैं? ईर्ष्या और संघर्ष कैसे हो सकता है? यहाँ चल क्या रहा है? चूँकि हम परमेश्वर के घर में आए हैं, तो हमारे बीच प्रेम होना चाहिए, और हम सभी को एक-दूसरे की मदद करने में सक्षम होना चाहिए। ये चीजें अब भी कैसे घटित हो सकती हैं?” क्या ऐसे विचारों वाले बहुत-से लोग हैं? बहुत-से लोग परमेश्वर के घर को अपनी कल्पनाओं की नजरों से देखते हैं। अब, मुझे बताओ, क्या ये कल्पनाएँ और व्याख्याएँ निष्पक्ष हैं? (नहीं, वे निष्पक्ष नहीं हैं।) उनमें निष्पक्षता की कमी कहाँ है? (मानवता गहराई से भ्रष्ट है, और जिन्हें परमेश्वर बचाता है उन सभी के स्वभाव भ्रष्ट हैं, तो वे यकीनन दूसरों के साथ अपने मेलजोल में भ्रष्टता उजागर करेंगे। ईर्ष्या और संघर्ष होगा, और धौंस जमाने और दबाने की घटनाएँ होंगी। इन चीजों का होना निश्चित है। आदर्शवादियों की कल्पना में मौजूद ऐसी चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है। इसके अलावा, कलीसिया के जीवन और कार्य की रक्षा के लिए, कलीसिया सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों की काट-छाँट करेगी, या लोगों में फेरबदल और बदलाव करेगी, या दुष्ट लोगों और छद्म-विश्वासियों को बहिष्कृत कर बाहर निकाल देगी—यह सिद्धांतों के अनुरूप है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करते हैं, तो वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और परेशानी खड़ी करते हैं। अगर कलीसिया ऐसे लोगों की काट-छाँट करने या उन्हें बदलने या हटाने जैसे उपायों को नहीं अपनाएगी, तो यह यथार्थ से मुँह मोड़ना होगा।) यह यथार्थ से मुँह मोड़ना है, इसलिए ऐसे लोगों के विचार आदर्शवादियों के आदर्श हैं। उनमें से कोई भी यथार्थवादी नहीं है, वे सभी खोखले और काल्पनिक हैं, है ना? अभी भी, ऐसे लोगों को यह समझ नहीं आता कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है। परमेश्वर में विश्वास का अर्थ है अच्छे कार्य करना और एक अच्छा इंसान बनना।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) “परमेश्वर में विश्वास करने वालों के दिलों में नेक इरादे होने चाहिए।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह भी सही नहीं है।) अपने दिल में नेक इरादे रखना—यह किस प्रकार का कथन है? क्या चाहने मात्र से तुम नेक इरादे रख सकते हो? क्या तुम्हारे इरादे नेक हैं? क्या अपने दिल में नेक इरादे रखना मानवीय आचरण का एक सिद्धांत है? यह सिर्फ एक नारा है, एक धर्म-सिद्धांत है। यह एक खोखली बात है। जब तुम्हारे अपने हित शामिल नहीं होते, तो तुम यह सोचकर बहुत अच्छी तरह से इसे कह सकते हो, “मेरे दिल में नेक इरादे हैं, मैं दूसरों को नहीं धमकाता, नुकसान नहीं पहुँचाता, धोखा नहीं देता या उनका फायदा नहीं उठाता।” लेकिन जब तुम्हारे अपने हित, रुतबा और प्रतिष्ठा शामिल हों, तो क्या “अपने दिल में नेक इरादे रखना” कथन तुम्हें रोक पाने में सक्षम होगा? क्या यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर सकता है? (नहीं, यह नहीं कर सकता।) इसलिए, यह कथन खोखला है; यह सत्य नहीं है। सत्य तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के सार को उजागर करने में सक्षम है, यह तुम्हारे द्वारा की जाने वाली चीजों के सार और वास्तविक प्रकृति को उजागर कर उनका विश्लेषण कर सकता है, और तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले इन कार्यों और दिखाई जाने वाली भ्रष्टता के सार की पड़ताल कर उनकी निंदा भी कर सकता है। फिर यह तुम्हें तुम्हारे जीने के तरीके, आचरण और कार्य करने के तरीके को बदलने के लिए उचित मार्ग और सिद्धांत प्रदान करता है। इस तरह, यदि लोग सत्य को स्वीकार सकें और अपने जीने के तरीके को बदल सकें, तो उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है; लोगों को अपने दिलों में नेक इरादे रखने के लिए आग्रह करने से यह नहीं होगा, केवल सत्य ही यह काम कर सकता है। सत्य किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नारे, सिद्धांत, या विनियम और नियम देकर नहीं करता, बल्कि उसे आचरण के सिद्धांत, मानदंड और दिशा-निर्देश देकर करता है। यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को हटाने और बदलने के लिए इन सिद्धांतों, मानदंडों और दिशा-निर्देशों का उपयोग करता है। जब लोगों के आचरण करने के सिद्धांत, मानदंड, और दिशा-निर्देश बदलकर ठीक कर दिए जाते हैं, तब उनके मन में मौजूद तमाम विकृत सोच और गलत विचार भी स्वाभाविक रूप से बदल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति सत्य समझता है और उसे हासिल करता है, तो उसके विचार तदनुरूप ही बदल जाते हैं। यह अपने दिल में नेक इरादे रखने की बात नहीं, बल्कि अपने विचारों के स्रोत, अपने स्वभाव और अपने सार में बदलाव लाने की बात है। ऐसा व्यक्ति जो उजागर करता और जिसे जीता है, वह सकारात्मक हो जाता है। उनके आचरण की दिशा, तौर-तरीके और स्रोत सभी में बदलाव आता है। वे अपनी कथनी और करनी का आधार और मानदंड परमेश्वर के वचनों को बनाते हैं, और सामान्य मानवता को जी सकते हैं। तो, क्या अब भी उन्हें बस यह बताना जरूरी है कि “अपने दिलों में नेक इरादे रखो”? क्या यह उपयोगी है? वह कथन खोखला है; यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर, कलीसिया में आने के बाद भी आदर्शवादियों के आदर्श साकार नहीं हो पाते हैं, और इस वजह से वे अपने दिलों में दमित महसूस करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कुछ आदर्शवादी सरकार या समाज के भीतर गहराई तक जाने के बाद यह पाते हैं कि उनके आदर्शों को साकार या पूरा नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, वे अक्सर हताश महसूस करते हैं। कुछ लोग अधिकारी या सम्राट बनने के बाद अपने आप में बहुत प्रसन्न महसूस करते हैं और बेहद अहंकारी हो जाते हैं, बिल्कुल उस कविता की एक पंक्ति की तरह जिसमें कहा गया है, “तेज हवा चलती है, बादल छंट जाते हैं।” अगली पंक्ति में क्या कहा गया है? (“अब जबकि मेरा आधिपत्य पूरे महासागर में फैल चुका है, मैं अपने वतन लौट रहा हूँ।”) देखा तुमने, उनके शब्द अजीब लगते हैं। उनमें एक प्रकार की भावना है जिसे सामान्य मानवता और विवेक वाले लोगों के लिए समझना मुश्किल है। ये आदर्शवादी हमेशा उन्नत लहजे में बोलते हैं। उन्नत लहजे में बोलने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे कभी वास्तविकता का सामना नहीं करते या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते हैं। वे नहीं समझते कि वास्तविकता क्या है, वे हमेशा भावनाओं से प्रेरित होते हैं। जब ये लोग परमेश्वर के घर में आते हैं, तो चाहे वे कितना भी सत्य सुनें, वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ या परमेश्वर में विश्वास करने का महत्व नहीं समझ पाते। वे सत्य का मूल्य नहीं समझते, फिर उसका अनुसरण करने का मूल्य समझना तो दूर की बात है। वे हमेशा आदर्शवादियों के आदर्शों का अनुसरण करते हैं। उनका सपना है कि एक दिन परमेश्वर का घर वैसा ही हो जैसा उन्होंने सोचा था, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ सम्मान से पेश आएँ, एक साथ मिल-जुलकर रहें, एक-दूसरे के साथ बहुत अच्छे से तालमेल बनाकर रहें, एक-दूसरे को सँजोकर रखें, देखभाल करें, परवाह करें, मदद करें और एक-दूसरे का धन्यवाद करें। जहाँ लोग एक-दूसरे को अच्छी बातें कहें और आशीष दें, कोई अप्रिय या आहत करने वाले शब्द न कहें, या ऐसे शब्द न कहें जो लोगों के भ्रष्ट सार, या किसी विवाद को उजागर करते हों, या लोग एक-दूसरे को उजागर या एक-दूसरे की काट-छाँट न करें। ऐसे लोग चाहे कितना भी सत्य सुन लें, फिर भी वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ नहीं समझते हैं, या नहीं जान पाते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर लोगों को किस प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहता है। वे न केवल इन चीजों को नहीं समझते, बल्कि यह आशा भी करते हैं कि एक दिन परमेश्वर के घर में वे उस आदर्शवादी व्यवहार का आनंद ले पाएँगे जैसा वे चाहते हैं। यदि उन्हें ऐसा व्यवहार नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ उनके आदर्शों को साकार किया जा सके, न ही उन्हें साकार करने का कोई अवसर मिलता है। इसलिए, कुछ लोग अक्सर दमित महसूस करते हुए हार मानने की सोचते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना उबाऊ और खोखला लगता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले बौद्ध धर्म में विश्वास करने वालों की तरह एक-दूसरे की मदद नहीं करते, एक-दूसरे को नहीं सँजोते और सम्मान नहीं करते हैं। और परमेश्वर में विश्वास करने वाले हमेशा सत्य और सिद्धांतों पर चर्चा करते रहते हैं, वे अक्सर पारस्परिक संबंधों में विवेक की बात करते हैं, उन्हें अक्सर उजागर किया जाता है और उनकी आलोचना होती है, और यहाँ तक कि वे अक्सर काट-छाँट का भी सामना करते हैं। मैं इस तरह का जीवन नहीं चाहता हूँ।” यदि उनके पास अपने आदर्श और यह आशा की किरण नहीं होती कि वे स्वर्ग में पहुँचेंगे, तो इस तरह के आदर्शवादी किसी भी समय कलीसिया छोड़कर कोई दूसरा रास्ता खोज लेते। तो, मुझे बताओ, क्या ये परमेश्वर के घर के लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त हैं? (नहीं, वे उपयुक्त नहीं हैं।) तुम लोगों को क्या लगता है, उन्हें कहाँ जाना चाहिए? (वे मठवासी जीवन जीने के लिए उपयुक्त हैं।) वे बौद्ध या ताओवादी मंदिरों में जा सकते हैं, इनमें से कोई भी ठीक रहेगा। वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया में दमित महसूस नहीं करते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में विशेष रूप से दमित महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि उनके पास अपने आदर्शों को साकार करने का अवसर या उनका उपयोग करने के लिए जगह नहीं है। इसलिए, ये लोग धुएँ के छल्ले उड़ाने वाली और लगातार धूप-दीप जलाने वाली जगहों में रहने के लिए बिल्कुल सही हैं। वे शांत जगहें हैं, और वे तुम्हें आचरण करने के तरीके नहीं सिखाते हैं। वे तुम्हारे तमाम भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर नहीं करते हैं, और वे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उसकी काट-छाँट भी नहीं करते हैं। वहाँ लोगों के बीच दूरी और सम्मान है। लोग दिन भर में बस दो-चार शब्द ही बोलते हैं, और उनके बीच कोई विवाद भी नहीं होता है। तुम किसी की निगरानी या नियमन के अधीन नहीं होते। तुम वहाँ एक आत्मनिर्भर जीवन जियोगे, वर्ष भर में शायद ही कभी अजनबियों से तुम्हारा सामना होगा। तुम्हें दैनिक मामलों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी। यदि तुम्हें अपने शारीरिक भरण-पोषण के लिए किसी चीज की आवश्यकता होगी, तो तुम एक छोटा-सा कटोरा या भीख माँगने वाला कटोरा लेकर आम जनता से खैरात माँग सकते हो, और खाने के लिए कुछ भोजन प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें पैसे कमाने की भी कोई जरूरत नहीं होगी। उन स्थानों पर सभी सांसारिक कष्ट दूर हो जाते हैं। लोग एक दूसरे के साथ बहुत उदारता से व्यवहार करते हैं और कोई किसी से बहस नहीं करता। अगर कोई मतभेद होता है तो वह लोगों के दिलों में रहता है। दिन सुकून और आराम से बीतते हैं। इसे ही परम आनंद की भूमि कहते हैं, यही आदर्शवादियों के आदर्शों का स्थान है, और वह स्थान जहाँ आदर्शवादी अपने आदर्शों को साकार कर सकते हैं। इन लोगों को अपनी कल्पना की जगह पर ही रहना चाहिए, कलीसिया में नहीं। ऐसे लोगों को कलीसिया में बहुत सारे कार्य करने पड़ेंगे। हर दिन, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने होंगे, सभाओं में भाग लेना होगा, प्रत्येक सिद्धांत को सीखना होगा, और हर समय सत्य पर संगति करनी होगी और अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझना होगा; कुछ लोग, जो अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य करते हैं और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, और कुछ लोग तो अक्सर इसका सामना करते हैं। ये लोग यहाँ विशेष रूप से दमित और दुखी महसूस करते हैं। कलीसिया उनका आदर्श माहौल नहीं है। उनका मानना है कि इस जगह पर अपना समय बर्बाद करने या अपनी जवानी बर्बाद करने से बेहतर होगा कि वे जल्द किसी ऐसी जगह पर जाकर रहने लगें जो उन्हें पसंद हो। वे सोचते हैं कि लगातार दमित महसूस करने और असहज, आनंदहीन और दुखी जीवन जीने में अपना समय यहाँ बर्बाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह आदर्शवादियों के आदर्शों की एकमात्र विशिष्ट अभिव्यक्ति है जिस पर हमने चर्चा की है। इन लोगों के बारे में कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति करो, वे उसे नहीं सुनेंगे। सारा दिन वे कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, और जिन चीजों के बारे में सोचते हैं वे सभी बहुत अवास्तविक और अस्पष्ट हैं, और सामान्य मानवता से बहुत अलग हैं। वे दिन भर इन्हीं चीजों के बारे में सोचते रहते हैं और सामान्य लोगों से बात नहीं कर पाते। सामान्य लोग भी यह नहीं समझ पाते हैं कि उनकी दुनिया किस चीज से बनी है। इसलिए, चाहे ये लोग किसी भी प्रकार के विचार और दृष्टिकोण रखें, उनके आदर्श खोखले होते हैं। क्योंकि उनके आदर्श खोखले होते हैं, तो उनके विचार और दृष्टिकोण भी स्वाभाविक रूप से खोखले होते हैं। वे गहन-विश्लेषण करने या बहुत गहराई से समझने लायक नहीं होते हैं। चूँकि वे खोखले होते हैं तो उन्हें ऐसे ही रहने दो। ये लोग जहाँ चाहें वहाँ जा सकते हैं, और परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि वे परमेश्वर के घर में रहना और अपने कुछ कर्तव्य निभाना या मजदूरी करना चाहते हैं, तो जब तक वे परेशानी खड़ी नहीं करते या कुछ बुरा नहीं करते हैं, हम उनकी जरूरतों को पूरा करेंगे और उन्हें पश्चात्ताप करने का अवसर देंगे। संक्षेप में, यदि वे भाई-बहनों के प्रति, परमेश्वर के घर और कलीसिया के प्रति सौहार्दपूर्ण रहते हैं, तो हमें इस प्रकार के व्यक्ति पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि वे खुद ही यहाँ से जाने की इच्छा जाहिर नहीं करते। अगर ऐसा है, तो आओ हम इसका खुले दिल से स्वागत करें, ठीक है? (ठीक है।) तो फिर, यह बात खत्म हुई।
आदर्शवादियों के आदर्श खोखले होते हैं, जबकि यथार्थवादियों के आदर्श कहीं अधिक व्यावहारिक होते हैं और लोगों के जीवन और वास्तविक माहौल के काफी अनुरूप होते हैं। बेशक, वे मानव जीवन और अस्तित्व के साथ-साथ अपना घर बसाकर नया जीवन शुरू करने से जुड़े सवालों से भी ठोस संबंध रखते हैं। घर बसाने और अपना जीवन शुरू करने में लोगों द्वारा अर्जित कौशल, योग्यताएँ और प्रतिभाएँ, उनके द्वारा हासिल की गई विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ, और उनकी खूबियाँ, काबिलियत और विशेषज्ञता शामिल होती हैं। यथार्थवादियों के आदर्शों में ये पहलू शामिल होते हैं। यथार्थवादियों के आदर्शों के क्षेत्र में, चाहे उनका उद्देश्य अपने जीवन की स्थितियों में सुधार लाना हो या अपने आध्यात्मिक संसार को संतुष्ट करना, ये आदर्श लोगों के वास्तविक जीवन में ठोस रूप में दिखते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अगुआई करने की क्षमताएँ होती हैं और वे सुर्खियों में बने रहना पसंद करते हैं। वे सार्वजनिक रूप से बोलने या मौखिक संचार में माहिर हो सकते हैं, या उनमें लोगों की गहरी समझ और उनका उपयोग करने की निपुणता होती है, और सटीक ढंग से कहें तो वे लोगों को आदेश देने में निपुण होते हैं। नतीजतन, इस तरह के लोग विशेष रूप से कोई पद संभालने, अगुआ की भूमिकाएँ निभाने या मानव संसाधन में काम करने के शौकीन होते हैं। जब वे इन क्षेत्रों में अपनी योग्यता को पहचान लेते हैं, तो वे लोगों के बीच अगुआ या आयोजक बनने, कार्यों और कर्मियों की निगरानी करने या यहाँ तक कि किसी कार्य का निर्देशन करने की इच्छा रखते हैं। उनका प्राथमिक आदर्श अगुआ बनना है। बेशक, वे समाज में भी इसी तरह व्यवहार करते हैं। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, तो वे इसे एक धार्मिक संगठन के रूप में देखते हैं, जो अपने आप में अनोखा है। कलीसिया में शामिल होने के बाद भी उनके आदर्शों में कोई बदलाव नहीं आता। जिस माहौल या पृष्ठभूमि में वे रहते हैं, उसमें होने वाले बदलावों का उनके आदर्शों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे अपने साथ परमेश्वर के घर में अगुआई का वही आदर्श लेकर आते हैं। उनकी इच्छा परमेश्वर के घर में अगुआ के पद पर बने रहने की होती है, जैसे कलीसिया की अगुआई करना, किसी विशिष्ट स्तर के लिए जिम्मेदार होना या किसी समूह की अगुआई करना। यही उनका आदर्श है। चूँकि, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं में अगुआओं या कर्मियों के चयन के लिए सिद्धांत और नियम मौजूद हैं, और ये लोग उन योग्यताओं को पूरा नहीं कर पाते, इसलिए यदि वे कभी-कभी किसी विशिष्ट स्तर के लिए अगुआई की चयन प्रक्रिया में भाग लेते भी हैं, तो वे आखिर में अपने आदर्श को साकार कर अपनी इच्छा के अनुरूप अगुआ नहीं बन पाते। जितना अधिक वे अगुआ बनने या अपना आदर्श कार्य करने में असमर्थ होते हैं, उतना ही उनके आदर्श उनके भीतर हलचल मचाते हैं, जिससे अगुआ बनने की उनकी लालसा और तीव्र हो जाती है। नतीजतन, वे कई चीजों में बहुत अधिक प्रयास करते हैं, चाहे यह उनके भाई-बहनों के बीच हो या फिर उच्च-स्तरीय अगुआओं के सामने, वे खुद को प्रदर्शित करने, खुद को उत्कृष्ट और असाधारण दिखाने, और यह पक्का करने के लिए कि उनकी प्रतिभाओं को पहचाना जाए, बेहद प्रयास करते हैं। वे अपने भाई-बहनों की प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए अपनी अंतरात्मा से भी समझौता कर सकते हैं, कुछ खास चीजें कर और कह सकते हैं और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं द्वारा अगुआ से जो अपेक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, उसके अनुरूप होने के लिए जानबूझकर कुछ खास तरह का व्यवहार दिखा सकते हैं। हालाँकि, उनके लगातार प्रयासों के बावजूद भी, वे अगुआ बनने के अपने आदर्शों को साकार नहीं कर पाते। ऐसे लोग भी होते हैं जो निराश, हताश और खुद से कटा हुआ महसूस करते हैं। दमन की जो नकारात्मक भावनाएँ उन्होंने पहले अनुभव की थीं, वे तब अधिक तीव्र हो जाती हैं जब वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य स्वीकार नहीं कर पाते या अपनी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाते। उन्होंने हमेशा किसी पद पर बने रहने और अगुआ बनने की इच्छा रखी, और ये आदर्श उनके परमेश्वर में विश्वास करने से पहले ही उनके दिलों में अंकुरित हो चुके थे। क्योंकि वे अपने आदर्शों को साकार करने में असमर्थ थे, इसलिए उनके भीतर गहराई में दमन की एक अदृश्य भावना हमेशा बनी रहती थी। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद भी, जहाँ उनके आदर्श अभी भी साकार नहीं हो पाते, उनके भीतर मौजूद दमन की भावनाएँ अधिक मजबूत और भारी हो जाती हैं। इनकी अगुआई की क्षमताओं का उपयोग नहीं किए जाने के कारण, ये लोग नाराज हो जाते हैं, और खुद को बदकिस्मत, निराश और दमित महसूस करते हैं, क्योंकि उनके आदर्श साकार नहीं हो पाए। क्योंकि उनके आदर्श अधूरे रह जाते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। जब उनके पास अपनी क्षमताएँ दिखाने का कोई रास्ता नहीं होता, तो वे जीवन और आगे बढ़ने के मार्ग को लेकर हताश हो जाते हैं। नतीजतन, अपने दैनिक जीवन में, विभिन्न कार्य करते समय वे अक्सर दमन की भावना लेकर चलते हैं। कुछ लोग अनेक प्रयासों और कोशिशों के बाद भी अगुआ नहीं बन पाते या अपना आदर्श साकार नहीं कर पाते। ऐसी स्थितियों में, वे अपनी भावनाएँ जाहिर करने और अपने दमन को व्यक्त या उजागर करने के लिए विभिन्न साधनों का सहारा लेना शुरू कर देते हैं। बेशक, परमेश्वर के कुछ विश्वासी, पद पर बने रहने के अपने आदर्शों पर कायम रहते हुए कलीसिया में अगुआ बनने की अपनी दिली इच्छा पूरी कर लेते हैं। लेकिन वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते। साथ ही, वे न खुद को परमेश्वर के घर और अपने भाई-बहनों की अपेक्षाओं और निगरानी के तहत अनिच्छा से अगुआ की भूमिकाएँ निभाते हुए पाते हैं। भले ही उन्होंने अपने आदर्शों को हासिल कर लिया है और ऐसे कार्य कर रहे हैं जो वे आदर्श रूप से करना चाहते थे, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत आदर्शों को साकार करने की नींव के आधार पर अगुआई कर रहे हैं, और भले ही वे बाहरी या सतही तौर पर परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित कार्यों को पूरा करते हुए प्रतीत होते हों, उनके आदर्श इन जिम्मेदारियों से कहीं आगे जाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ, आदर्श, इच्छाएँ और दर्शन उनकी वर्तमान भूमिकाओं के दायरे से कहीं आगे जाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के कारण, उनके कार्यों और विचारों के साथ-साथ उनकी योजनाएँ और इरादे, बंधे हुए और प्रतिबंधित होते हैं। इसलिए, अगुआई का पद पाने के बाद भी वे दमित महसूस करते हैं। इन समस्याओं का कारण क्या है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगुआ बनने के बाद भी वे अपने आदर्शों और अपने आदर्शों में किए गए वादों को साकार करने की कोशिश में लगे रहते हैं। हालाँकि, परमेश्वर के घर या कलीसिया में अगुआओं के रूप में सेवा करने से उनके आदर्श और इच्छाएँ साकार नहीं हो पाती हैं, और उनकी भावनाएँ मिश्रित और एक-दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। इन संघर्षों और अपने आदर्शों और लक्ष्यों का त्याग नहीं कर पाने के कारण, वे अक्सर अंदर ही अंदर दमित महसूस करते हैं और राहत पाने में असमर्थ होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है। परमेश्वर के घर में, इन आदर्शवादियों के बीच, ऐसे लोग भी हैं जो अपने आदर्शों के लिए लड़ते हुए भी उन्हें साकार नहीं कर पाते हैं, और ऐसे लोग भी हैं जो अपने आदर्शों के लिए लड़ते हैं और आखिर में उन्हें साकार कर लेते हैं, पर फिर भी दमित महसूस करते हैं। चाहे वे खुद को किसी भी स्थिति में पाएँ, ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने आदर्शों को नहीं त्यागा है और अभी भी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए और अपना जीवन जीते हुए इनका अनुसरण करते रहते हैं।
ऐसे अन्य लोग भी हैं जिनके पास लेखन, मौखिक संचार और साहित्य की प्रतिभा है। वे अपने साहित्यिक कौशल से अपने विचारों को व्यक्त करने की उम्मीद करते हैं और साथ ही, इन कौशलों का प्रदर्शन करके परमेश्वर के घर में अपनी क्षमता, मूल्य और योगदान की ओर लोगों का ध्यान खींच पाते हैं। उनका आदर्श एक उत्कृष्ट और सुयोग्य लेखक और बुद्धिजीवी बनना होता है। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं और लिखने-पढ़ने संबंधी कर्तव्य निभाना शुरू करते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी क्षमताओं का उपयोग करने के लिए एक जगह मिल गई है। वे लेखक और बुद्धिजीवी बनने के अपने आदर्श को साकार करने के लिए उत्सुकता से अपनी खूबियों और प्रतिभाओं का प्रदर्शन करते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं, लेकिन अपने आदर्शों को नहीं त्यागते। यह कहा जा सकता है कि उनके कर्तव्य निर्वहन का 80 से 90 प्रतिशत भाग उनके आदर्शों पर आधारित है; दूसरे शब्दों में, उनके कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा उनके इन आदर्शों के अनुसरण और आशा से आती है। नतीजतन, इस तरह के लोगों के लिए कर्तव्यों का निर्वहन बहुत मिलावटी होता है, जिससे उनके लिए सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के अपेक्षित मानकों के अनुसार कर्तव्य निर्वहन के मानकों पर खरा उतरना मुश्किल हो जाता है। वे केवल अच्छे से अपने कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर में नहीं आते हैं, बल्कि वे अपने कर्तव्य निभाने के अवसर का लाभ उठाकर अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं, वे अपने आदर्शों को हासिल करने की लालसा रखते हैं और अपनी प्रतिभाओं के प्रदर्शन के माध्यम से अपनी अहमियत साबित करना चाहते हैं। इसलिए, अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार अच्छे से निभाने में उनकी सबसे बड़ी बाधा उनके आदर्श ही हैं, यानी कर्तव्य निभाने की उनकी प्रक्रिया में निजी प्राथमिकताओं और तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके विचारों और परिप्रेक्ष्यों का घालमेल हो जाता है। कुछ लोगों में खास पेशेवर कौशल की समझ होती है या उनमें कोई खास प्रतिभा होती है; उदाहरण के लिए, कुछ लोग कंप्यूटर तकनीक को समझते हैं और कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में काम करने का आनंद लेते हैं। वे चश्मे पहनते हैं, पेशेवर तरीके से पोशाक पहनते हैं और सबसे खास बात यह है कि उनके पास ऐसे लैपटॉप होते हैं जो अनूठे होते हैं या जिन्हें दूसरे लोग शायद ही कभी देख पाते हैं। वे चाहे जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने लैपटॉप के साथ बैठते हैं और उसे खोलकर विभिन्न वेबपेजों पर जानकारी ढूंढते हैं और कंप्यूटर की मदद से विभिन्न समस्याओं को पेशेवर तरीके से हल करते हैं। संक्षेप में, कंप्यूटर इंजीनियरिंग उद्योग में पेशेवर बनने का प्रयास करते हुए, वे खुद से एक पेशेवर परिप्रेक्ष्य, व्यवहार, बोली और तौर-तरीके अपनाने की अपेक्षा करते हैं और दूसरों के सामने इसका दिखावा करते हैं। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद, ये लोग आखिर में अपने आदर्श को साकार करते हैं और कंप्यूटर तकनीक से संबंधित कार्य करते हैं। वे लगातार तकनीक का अध्ययन करके अपने कौशल को निखारते हैं, उद्योग के रुझानों के साथ बने रहने और अपने क्षेत्र में नई जानकारी को बढ़ावा देने और प्रकाशित करने के उद्देश्य से निष्ठापूर्वक विभिन्न समस्याओं की पहचान कर उनका समाधान करते हैं। इस तरह के लोगों की एक विशिष्ट पेशेवर कौशल में विशेष रुचि और समझ होती है, जो उन्हें पेशेवर और विशेषज्ञ बनाती है। नतीजतन, उनका आदर्श पेशेवर बनना है और वे आशा करते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान पर रखेगा, उनका सम्मान करेगा और उन पर भरोसा दिखाएगा। बेशक, परमेश्वर के घर में और मौजूदा समय में, ऐसे अधिकांश लोगों ने वास्तव में अपनी खूबियों का उपयोग किया है और अपने आदर्शों को साकार किया है। लेकिन, अपने आदर्शों को साकार करते हुए क्या इन लोगों ने इस बात पर विचार किया है कि अपना कार्य करने में वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं या अपने आदर्शों का अनुसरण कर रहे हैं? यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, है ना? वे जिस कार्य में लगे हैं वह विशिष्ट, जटिल और बहुत मेहनत वाला है। लेकिन उनके पास जो कौशल हैं वे इस कार्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत कम हैं। इसलिए अपने आदर्शों का अनुसरण करते हुए और अपने कर्तव्य निभाते हुए वे कुछ हद तक खुद को बँधा हुआ और नियंत्रित महसूस करते हैं। जब ये लोग परमेश्वर में विश्वास के विभिन्न सत्यों और कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों का सामना करते हैं, तो अपने दिलों में मौजूद आदर्शों के कारण वे एक हद तक दमन महसूस कर सकते हैं। लोगों का एक तबका ऐसा ही है।
लोगों का एक और समूह है जो सुसमाचार फैलाने में लगा है। वे लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य में अगुआ बनने, सबसे आगे होने, और जिस कलीसिया का हिस्सा हैं उसमें अगुआई करने और उत्कृष्टता प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं, कभी पीछे रहकर संतुष्ट नहीं होते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हैं और अपना कार्य करते हैं, पर उनका अनुसरण उनके अपने आदर्शों और उन लक्ष्यों के लिए होता है जिनकी वे योजना बनाते और कल्पना करते हैं, जिनका परमेश्वर में विश्वास या सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लक्ष्यों और आदर्शों को उजागर करके इसे वर्गीकृत किया जाता है, या उनके सामने कुछ बाधाएँ आती हैं, और इन लोगों को एहसास होता है कि उनके आदर्शों को साकार नहीं किया जा सकता और न ही उनकी अहमियत को साबित किया जा सकता है, तो वे विशेष रूप से दमित और असंतुष्ट महसूस करते हैं। उनमें से कई लोग अपने आदर्शों का अनुसरण करते हुए समर्थन और मान्यता पाना चाहते हैं। जब उन्हें ये चीजें नहीं मिलती हैं या जब उनके प्रयासों का फल तुरंत नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि यह सार्थक नहीं है, यह अनुचित है, तो वे दमित महसूस करते हैं। क्या वे ऐसा व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) सुसमाचार फैलाने में शामिल लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हमेशा से सुयोग्य और अनुकरणीय प्रचारक या उपदेशक बनने की इच्छा रही है। जब वे किसी के मशहूर प्रचारक और उपदेशक बनने की बात सुनते हैं, तो ईर्ष्या से भर जाते हैं और आशा करते हैं कि एक दिन वे भी ऐसे बन सकेंगे, आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें याद रखेंगी और उनकी प्रशंसा की जाएगी, और परमेश्वर उन्हें याद रखेगा। वे अपने आदर्श को अपने लक्ष्य और प्रेरणा के रूप में इस्तेमाल करते हुए, परमेश्वर के घर में प्रचारक बनने और शोहरत पाने या आने वाली पीढ़ियों द्वारा याद रखे जाने के लिए हमेशा अपने आदर्श तरीके से प्रचार करना चाहते हैं। यही उनका आदर्श है। लेकिन, परमेश्वर के घर में किसी भी कार्य के लिए सख्त अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं जिनके अनुसार परमेश्वर ने लोगों को यह कार्य करने के लिए कहा है। नतीजतन, ऐसे व्यक्ति दमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे अपने आदर्श के मुताबिक प्रचारक नहीं बन सकते, वे अक्सर निगरानी और नियमन के अधीन होते हैं, और अगुआ और कर्मी अक्सर उनके कार्य के संबंध में खोजबीन और पूछताछ करते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो विशेष कौशल या प्रतिभाएँ होने के कारण, परमेश्वर के घर में आने के बाद भी अपने आदर्शों का अनुसरण करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, जो अभिनेता हैं उनमें से कुछ अभिनय में कुशल हैं और उन्हें अभिनय तकनीकों की बुनियादी समझ है। वे एक आदर्श अभिनेता बनना चाहते हैं, आशा करते हैं कि एक दिन वे अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय मशहूर अभिनेताओं जैसे बन सकेंगे : बड़ी हस्तियाँ, सितारे, राजाओं और रानियों जैसे। हालाँकि, परमेश्वर के घर में, इस संबंध में भ्रष्टता का स्वभाव और अभिव्यक्ति हमेशा उजागर होती है, और अभिनेताओं के लिए विशिष्ट अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं। अभिनेता के रूप में थोड़ी प्रसिद्धि हासिल करने के बाद भी, वे ऐसी मशहूर हस्ती नहीं बन पाते जिनकी लोग पूजा और अनुसरण करते हैं, जिसके कारण वे दमित महसूस करते हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर का घर कष्टों से भरा है। वे हमेशा हर चीज में लोगों पर प्रतिबंध लगाते रहते हैं। मशहूर हस्तियों की मिसाल का अनुसरण करने में क्या गलत है? थोड़ी-सी शख्सियत और अपेक्षाओं के साथ अलग ढंग के कपड़े पहनने में क्या बुराई है?” परमेश्वर के घर में अभिनेताओं की वेशभूषा और विशिष्ट अभिनय की अपेक्षाओं के कारण, उनकी नजर में इन अपेक्षाओं और मशहूर हस्ती और बड़े सितारे बनने के उनके आदर्श के बीच हमेशा संघर्ष और असंगतता रहती है। नतीजतन, वे यह सोचकर अपने दिलों में गहरी निराशा महसूस करते हैं, “मेरे आदर्शों को साकार करना इतना कठिन क्यों है? परमेश्वर के घर में मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना क्यों करना पड़ता है?” जब वे ऐसे विचारों का अनुभव करते हैं या ये अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। दमन की इस भावना के पीछे उनका यह विश्वास है कि उनके आदर्श वैध और मूल्यवान हैं। वे यह भी मानते हैं कि अपने आदर्शों का अनुसरण करने में कुछ भी गलत नहीं है, ऐसा करना उनका अधिकार है और इसी वजह से, उनके भीतर दमनकारी भावनाएँ उभरने लगती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ निर्देशकों को लगता है कि कई फिल्मों का निर्देशन करने के बाद उन्हें काफी अनुभव प्राप्त हुआ है। वे मानते हैं कि उनकी फिल्में दिखाए जाने लायक हैं, और उनमें सिनेमैटोग्राफी, संपादन, अभिनेता के अभिनय और सभी प्रकार के समान प्रबंधन के मामले में पहले की तुलना में काफी सुधार हुआ है। ऊपरवाले का मार्गदर्शन प्राप्त करने के बाद, उनकी फिल्में आखिरकार उचित मानकों पर खरी उतरती हैं और समय पर रिलीज होती हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि एक योग्य निर्देशक बनने की उनकी चाह एक उपयुक्त, वैध और आवश्यक आकांक्षा है। हालाँकि, एक योग्य निर्देशक बनने के अपने लक्ष्य को पूरा करते हुए, उनके कुछ सिद्धांतहीन विचारों, दृष्टिकोणों और कार्यों को अक्सर अस्वीकार कर दिया जाता है, पलट दिया जाता है या अनदेखा कर दिया जाता है। उन्हें अक्सर काट-छाँट तक का सामना करना पड़ सकता है। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में निर्देशक बनना इतना कठिन क्यों है? अविश्वासियों की दुनिया के उन निर्देशकों को देखो, वे कितने आकर्षक हैं। उनके पास ऐसे लोग हैं जो उन्हें चाय परोसते हैं, उन्हें पेय पिलाते हैं और यहाँ तक कि उनके पैर भी धोते हैं। परमेश्वर के घर में निर्देशक होने से कोई रुतबा नहीं मिलता या कोई रौब नहीं होता, और कोई भी हमारा सम्मान या प्रशंसा नहीं करता है। हमेशा हमारी काट-छाँट क्यों की जाती है? हम चाहे जो भी करें, वो कभी सही नहीं होता। कितना दमनकारी है यह! हमारे अपने विचार, दृष्टिकोण और पेशेवर क्षमताएँ हैं, तो फिर हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? क्या अपने आदर्शों का अनुसरण करना गलत है या फिर ऐसा है कि हमारे आदर्शों का अनुसरण ही नाजायज है? हमारे आदर्शों को साकार करना इतना कठिन क्यों है? यह बहुत दमनकारी है!” चाहे वे इसके बारे में किसी भी तरह से सोचें, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसे कुछ गायक भी हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर के घर में, मैं एक योग्य गायक बनने, अच्छा गाने, अपनी शैली दिखाने और अपने श्रोताओं से प्यार पाने के अलावा और कुछ नहीं चाहता।” लेकिन परमेश्वर का घर भजन गाने के लिए अक्सर विभिन्न अपेक्षाएँ और सिद्धांत सामने रखता है, और अक्सर उन अपेक्षाओं का उल्लंघन करने के लिए इन गायकों की काट-छाँट की जाती है। जब उनकी काट-छाँट नहीं की जाती है, तो उन्हें लगता है कि वे अपने आदर्शों को सुचारु रूप से साकार कर सकते हैं। लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उन्हें कुछ असफलताएँ मिलती हैं तो उन्हें लगता है कि उस अवधि के दौरान उनके प्रयास और उपलब्धियाँ अमान्य कर दी गई हैं, और वे आकर फिर वहीं खड़े हो गए हैं जहाँ वे पहले थे। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “आह, अपने आदर्शों को साकार करना वाकई बहुत कठिन है! दुनिया बहुत बड़ी है, फिर भी ऐसा लगता है कि इसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं है। परमेश्वर के घर में भी यही हाल है। अपना करियर बनाना इतना कठिन क्यों है? जो चीजें मैं करना चाहता हूँ उन्हें करना इतना कठिन क्यों है? कोई भी मेरा समर्थन नहीं करता, मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और मेरी लगातार काट-छाँट की जाती है। यह सब सचमुच चुनौतीपूर्ण और दमनकारी है! अविश्वासियों के संसार में, वे हमेशा साजिश रचते और एक-दूसरे के साथ लड़ते रहते हैं, और हर जगह करियर संबंधी बाधाएँ होती हैं, इसलिए दमित महसूस करना सामान्य बात है। लेकिन अपने आदर्शों के साथ परमेश्वर के घर में आकर भी मैं दमित महसूस क्यों करता हूँ?” जो लोग परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों में लगे होते हैं, उन्हें अक्सर अपने आदर्शों का अनुसरण करने में असफलताओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें अक्सर अमान्य कर दिया जाता है, उनकी अक्सर काट-छाँट की जाती है और उन्हें अक्सर मान्यता नहीं मिलती। निष्क्रिय रूप से इन चीजों का अनुभव करने के बाद, वे अनजाने में ही निराश होने लगते हैं, उन्हें लगता है कि उनका जीवन भी खत्म हो चुका है और उनके आदर्शों को साकार करना असंभव है। परमेश्वर के घर में आने से पहले वे सोचते थे, “मैं अपने साथ अपने आदर्श और आकांक्षाएँ लेकर चलता हूँ। मेरी अपनी इच्छाएँ हैं, और परमेश्वर के घर में इनके लिए अनंत संभावनाएँ हैं। मैं एक योग्य निर्देशक, अभिनेता, लेखक या एक योग्य नर्तक, गायक या संगीतकार तक बन सकता हूँ।” जब वे अपनी प्रतिभाएँ दिखाने और अपने आदर्शों को साकार करने में असमर्थ थे, तो उनका मानना था कि परमेश्वर का घर उन्हें उनका अपना मंच, एक विशाल स्थान प्रदान करेगा, जहाँ उनके आदर्श, सपने और आकांक्षाएँ साकार हो सकेंगी। उन्हें लगता था कि परमेश्वर के घर का मंच विशेष रूप से बहुत बड़ा है। हालाँकि, इतने वर्षों के बाद, वे सोचते हैं, “मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मेरे पैरों तले मंच सिकुड़ा जा रहा है? मेरी दुनिया छोटी क्यों होती जा रही है? मेरे आदर्शों को साकार करने की संभावना लगातार दूर होती जा रही है और यहाँ तक कि असंभव भी। यह क्या हो रहा है?” इस मोड़ पर भी, ये लोग अपने आदर्शों को नहीं त्यागेंगे या इन आदर्शों और इच्छाओं की शुद्धता पर सवाल नहीं उठाएँगे। वे अभी भी अपने कर्तव्य निभाने में इन आदर्शों और इच्छाओं को लेकर चलते हैं। नतीजतन, लोगों की दमनकारी भावनाएँ हर जगह उनके साथ रहती हैं, फिर चाहे अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करने का समय हो या फिर अपने वास्तविक कर्तव्य निभाने का समय हो। जो लोग दमनकारी भावनाएँ रखते हैं या जो इन्हें त्याग नहीं सकते, इन दोनों के बीच विरोधाभास को सुलझाया नहीं जा सकता। वे अपने आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन, दोनों में ही दमन की भावना रखते हैं। इसलिए, चाहे जो भी हो, अपने कर्तव्य निभाते हुए लोग लगातार खुद को समायोजित कर रहे हैं, लगातार अपने आदर्शों और सपनों का अनुसरण कर रहे हैं। तुम यह भी कह सकते हो कि लोग अपने कर्तव्य विरोधाभासी रवैये के साथ निभाते हैं, हर समय दमित और अनिच्छुक महसूस करते हैं। लेकिन अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए, अपनी अहमियत साबित करने और इन आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण के लिए, उनके पास अपने कर्तव्य निभाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। वे नहीं जानते कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, क्या हासिल करना चाह रहे हैं, किस उद्देश्य को हासिल करने, अनुसरण करने या साकार करने की कोशिश कर रहे हैं। यह उनके लिए लगातार अस्पष्ट होता जाता है, और आगे का रास्ता अधिक से अधिक अस्पष्ट लगने लगता है। ऐसी स्थिति में, क्या उनके लिए अपनी दमनकारी भावनाओं को त्यागना या उनका समाधान करना कठिन नहीं है? (हाँ।)
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