सत्य का अनुसरण कैसे करें (6) भाग एक
हमने पिछली बार “त्यागने” के बारे में संगति की थी, जो सत्य का अनुसरण करने के अभ्यास के सिद्धांतों में से एक है। “त्यागने” के पहले भाग का अर्थ है सभी नकारात्मक भावनाओं को त्यागना। हम पहले ही इस विषय पर कई बार संगति कर चुके हैं। क्या हमने पिछली बार दमन की नकारात्मक भावना पर संगति की थी? (हाँ, की थी।) हमने इस संबंध में क्या संगति की थी? लोग दमित क्यों महसूस करते हैं? (परमेश्वर ने यह संगति की थी कि लोग अपने कर्तव्यों में मनमर्जी करते हैं, और कलीसिया के नियमों और विनियमों का पालन करना या अंकुशों के दायरे में रहना नहीं चाहते हैं। अपनी मनमर्जी करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने के कारण वे अच्छी तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, और इसलिए अक्सर उनके साथ काट-छाँट की जाती है। यदि वे अपने क्रियाकलापों पर विचार नहीं करते और सत्य खोजकर अपनी समस्याओं को हल करने में विफल रहते हैं, तो वे दमित महसूस करेंगे।) पिछली बार हमने एक प्रकार की स्थिति के बारे में संगति की थी जिसमें लोग दमित होने की नकारात्मक भावना महसूस करते हैं, जिसका मुख्य कारण यह है कि वे अपनी मनमर्जी से काम करने में असमर्थ होते हैं। वह संगति मुख्य रूप से इन बातों से संबंधित थी : ऐसी परिस्थितियाँ जहाँ लोग अपनी मनमर्जी से काम करने में असमर्थ होते हैं, कौन-सी चीजें लोग अपनी मनमर्जी से करना चाहते हैं, और दमन की भावना में डूबे रहने वालों में कौन-से आम व्यवहार मौजूद होते हैं। फिर हमने उस मार्ग के बारे में संगति की थी जिसे इस भावना के समाधान के लिए व्यक्ति को चुनना चाहिए। क्या तुम लोग नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने के विषय पर इन संगतियों को सुनने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो, क्या वे मनुष्य की नकारात्मक भावनाओं की अभिव्यक्तियों को उजागर कर रहे थे, या लोगों को उनका त्याग करने का मार्ग बता रहे थे? नकारात्मक भावनाओं को त्यागने का यह अभ्यास किस ओर निर्देशित है? इन संगतियों को सुनने के बाद, क्या तुम लोगों ने इस पर विचार किया? (परमेश्वर, मेरी समझ से यह अभ्यास चीजों पर लोगों के दृष्टिकोणों की ओर निर्देशित है।) सही कहा, यह इसका एक पहलू है। इसका संबंध चीजों पर लोगों के दृष्टिकोणों से है। ये दृष्टिकोण मुख्य रूप से उन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से संबंधित हैं, जिन पर व्यक्ति विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों का सामना करते हुए अड़ा रहता है, और मुख्य रूप से उन विभिन्न समस्याओं की ओर निर्देशित हैं जिनका सामना व्यक्ति अपने सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व में करता है। इसके उदाहरणों में शामिल हैं : दूसरों के साथ कैसे मेलजोल करें, शत्रुता को कैसे कम करें, और विवाह, परिवार, काम, अपनी संभावनाओं, बीमारी, बुढ़ापे, मृत्यु और जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति रवैया कैसा हो। अन्य मसलों के अलावा यह इसकी बात भी करता है कि व्यक्ति को अपने परिवेश और उस कर्तव्य का सामना कैसे करना चाहिए जिसे निभाने की अपेक्षा उससे की जाती है। क्या यह इनके बारे में बात नहीं करता? (करता है।) जहाँ तक उन सभी प्रमुख समस्याओं और सिद्धांत के मामलों का सवाल है जो सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व से संबंधित हैं—यदि व्यक्ति के पास सही विचार, दृष्टिकोण और रवैया है, तो उसकी मानवता अपेक्षाकृत सामान्य होगी। “सामान्य” से मेरा मतलब है सामान्य विवेक होना और चीजों पर एक सामान्य परिप्रेक्ष्य और रुख रखना। जिन लोगों के पास सही विचार और दृष्टिकोण हैं, केवल वे ही सत्य का अनुसरण करते हुए उसे आसानी से समझ पाएँगे और उसमें प्रवेश करने में सक्षम होंगे। इसका मतलब है कि लोगों और चीजों पर सामान्य विचार और सामान्य दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख रखने वाले लोग ही अपने सत्य के अनुसरण में कुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने में सक्षम होंगे। यदि लोगों और चीजों पर किसी व्यक्ति का परिप्रेक्ष्य और रुख, और उसके विचार, दृष्टिकोण और रवैया, सभी नकारात्मक हैं, वे सामान्य मानवता की अंतरात्मा और तर्कसंगतता के अनुरूप नहीं हैं, और कट्टरपंथी, अड़ियल और अशुद्ध हैं—संक्षेप में, यदि वे सभी नकारात्मक, प्रतिकूल और निराशाजनक हैं—जिस व्यक्ति के इस प्रकार के नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण हों, और वह सत्य का अनुसरण करे, तो क्या उसके लिए इसे समझना और इसका अभ्यास करना आसान होगा? (नहीं होगा।) सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से तुम लोगों के लिए यह कहना आसान है, लेकिन वास्तविकता में, तुम लोग इसे अच्छी तरह नहीं समझते। सरल शब्दों में कहें, तो हम जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं पर संगति कर रहे हैं उनके मद्देनजर, यदि किसी व्यक्ति का अपने जीवन में और अपने जीवन पथ पर सामने आने वाले विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के प्रति नकारात्मक और गलत परिप्रेक्ष्य और रुख है, तो क्या वह सत्य की समझ हासिल करने में सक्षम होगा? (नहीं।) यदि लोग हमेशा नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहें, तो क्या वे परमेश्वर के वचनों की स्पष्ट समझ-बूझ प्राप्त कर सकेंगे? (नहीं।) यदि उन पर हमेशा नकारात्मक भावनाओं के विचारों और दृष्टिकोणों का प्रभुत्व, नियंत्रण और प्रभाव रहता है, तो क्या सभी चीजों पर उनका परिप्रेक्ष्य और रुख, और उनके साथ घटित होने वाली चीजों के बारे में उनके दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं होंगे? (बिल्कुल होंगे।) यहाँ “नकारात्मक” का क्या अर्थ है? सबसे पहले, क्या हम कह सकते हैं कि यह तथ्य और वस्तुनिष्ठ नियमों के विपरीत है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के साथ-साथ प्रकृति के उन नियमों का उल्लंघन करता है जिनका पालन मनुष्य को करना चाहिए? (हाँ।) यदि परमेश्वर के वचन सुनते और पढ़ते समय लोगों के मन में ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण हों, तो क्या वे सचमुच उसके वचन स्वीकार कर इनके प्रति समर्पण कर सकेंगे? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसके अनुरूप बन सकेंगे? (नहीं।) मुझे एक उदाहरण देकर समझाओ, ताकि पता चले कि तुम लोग इस बात को समझ गए हो। एक ऐसा उदाहरण ढूँढो जहाँ कोई व्यक्ति अपने जीवन और जीवनयापन की प्रमुख समस्याओं से निपट रहा हो, जैसे कि विवाह, परिवार, बच्चों या बीमारी की समस्याएँ, उनके भविष्य, भाग्य और इससे जुड़ी समस्याएँ कि क्या उनका जीवन सुचारू रूप से चल रहा है, उनकी अहमियत, सामाजिक दर्जा, व्यक्तिगत हित वगैरह की समस्याएँ। (मुझे याद है, पिछली बार परमेश्वर ने संगति की थी कि जब लोग बीमार होते हैं, तो वे संताप, व्याकुलता और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, और मरने से बेहद डरते हैं। इससे उनके कर्तव्य निभाने और सामान्य जीवन जीने की क्षमता प्रभावित होती है, और यह उन्हें वस्तुनिष्ठ नियमों का पालन करने में असमर्थ बना देता है। वास्तव में, लोगों का जीवन और मृत्यु, वे कब बीमार होते हैं, और उन्हें कितना कष्ट होता है, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है। लोगों को उचित, सकारात्मक रवैये के साथ इन स्थितियों का सामना और अनुभव करना चाहिए। उन्हें जिस इलाज की आवश्यकता है उसे खोजना चाहिए, और वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो उनसे निभाने की अपेक्षा की जाती है—उन्हें सकारात्मक स्थिति बनाए रखनी चाहिए और अपनी बीमारी में फँसे नहीं रहना चाहिए। लेकिन जब लोग नकारात्मक भावनाओं में डूब रहे होते हैं, तो वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करते, और वे यह विश्वास भी नहीं करते कि परमेश्वर ने उनके जीवन और मृत्यु को पूर्व-निर्धारित कर रखा है। वे बस अपनी बीमारी को लेकर चिंतित, भयभीत और व्यग्र महसूस करते हैं। वे अधिक से अधिक चिंतित और भयभीत हो जाते हैं—वे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के सत्य से शासित नहीं होते हैं, और न ही परमेश्वर उनके दिलों में होता है।) यह बढ़िया उदाहरण है। क्या इसका संबंध इस प्रश्न से है कि जीवन और मृत्यु के महत्वपूर्ण मामले पर लोगों का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए? (हाँ।) क्या तुम लोग इस विषय के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हो? यह खुद के जीवन और मृत्यु का सामना करने का प्रश्न है। क्या इसका संबंध सामान्य मानवता के दायरे में आने वाली समस्याओं से है? (हाँ।) यह एक प्रमुख समस्या है जिसका हर किसी को सामना करना ही पड़ता है। भले ही तुम जवान हो या तुम्हारी सेहत अच्छी है और तुमने जीवन और मृत्यु की समस्याओं का सामना या उनका अनुभव नहीं किया है, लेकिन यकीनन एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हें ऐसा करना होगा—यह ऐसी चीज है जिसका हर किसी को सामना करना होगा। एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, फर्क नहीं पड़ता कि तुम इससे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होते हो या इससे बहुत दूर हो, मामला चाहे जो हो, यह तुम्हारे सामने आने वाली जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या होगी। तो, मृत्यु के महत्वपूर्ण मामले का सामना करते हुए, क्या लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हें इस समस्या से कैसे निपटना है? क्या वे इससे निपटने के लिए कुछ मानवीय तरीके नहीं अपनाएँगे? लोगों को किन दृष्टिकोणों पर टिके रहना चाहिए? क्या यह एक व्यावहारिक समस्या नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि लोग नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहे, तो वे क्या सोचेंगे? हमने पहले इस पर संगति की थी—यदि लोग नकारात्मक भावनाओं के विचारों और दृष्टिकोणों के साथ जीते हैं, तो उनके क्रियाकलाप और अभिव्यक्तियाँ सत्य के अनुरूप होती हैं या नहीं? वे सामान्य मानवता की सोच के अनुरूप होती हैं या नहीं? (नहीं, वे ऐसी नहीं होतीं।) वे सामान्य मानवता की सोच के अनुरूप नहीं होतीं, सत्य के अनुरूप होना तो दूर की बात है। वे वस्तुनिष्ठ तथ्यों या वस्तुनिष्ठ नियमों के अनुरूप नहीं होतीं, और वे परमेश्वर की संप्रभुता के अनुरूप तो कतई नहीं होती हैं।
विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में हमारी संगति का अंतिम परिणाम क्या है? तुम विशेष रूप से “त्यागने” का कार्यान्वयन और अभ्यास कैसे कर सकते हो ताकि तुम्हारे पास सामान्य मानवता की सोच और विवेक हो, दूसरे शब्दों में, तुम्हारे पास वे विचार, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण हों जो सामान्य मानवता और विवेक वाले व्यक्ति के पास होने चाहिए? इस “त्यागने” से जुड़े अभ्यास के विशिष्ट कदम या मार्ग क्या हैं? क्या पहला कदम यह पहचानना नहीं है कि जिन मामलों का तुम सामना करते हो उनके बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण सही हैं या नहीं और उनमें कोई नकारात्मक भावना तो नहीं है? यह पहला कदम है। उदाहरण के लिए, बीमारी और मृत्यु से निपटने के बारे में हमने पहले जो उदाहरण दिया था, उसके संबंध में तुम्हें पहले ऐसे मामलों के प्रति अपने दृष्टिकोणों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए, कहीं उनमें नकारात्मक भावनाएँ तो नहीं हैं, जैसे कि क्या इन समस्याओं को लेकर तुम कोई संताप, चिंता या व्याकुलता महसूस करते हो और तुम्हारी संताप, चिंता और व्याकुलता कैसे उत्पन्न होती है, और तुम्हें इन समस्याओं के मूल कारण की पड़ताल करनी चाहिए। इसके बाद, गहन-विश्लेषण करते रहो, तब तुम्हें पता लगेगा कि तुमने इन मामलों को पूरी तरह से नहीं समझा है। तुमने स्पष्ट रूप से यह नहीं पहचाना है कि मानवजाति की हर चीज परमेश्वर के हाथों में और उसकी संप्रभुता के अधीन है। यहाँ तक कि बीमार पड़ने या मृत्यु का सामना करने पर भी लोगों को इन चीजों में नहीं फँसना चाहिए। इसके बजाय, उन्हें बीमारी या मृत्यु से भयभीत या पूरी तरह परास्त हुए बिना, परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। उन्हें इन चीजों से डरना नहीं चाहिए, न ही इनसे अपने सामान्य जीवन और कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित होने देना चाहिए। एक ओर, उन्हें बीमारी का सामना करते समय सक्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव करना और उसे समझना चाहिए, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, और जरूरत पड़ने पर वे इलाज कराने जा सकते हैं। यानी, उन्हें सक्रिय रूप से इस प्रक्रिया का सामना करना चाहिए, इसका अनुभव कर इसे समझना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, उन्हें इन मामलों के बारे में अपने दिलों में सही समझ विकसित करनी चाहिए और यह विश्वास करना चाहिए कि सब परमेश्वर के हाथों में है। मनुष्य केवल अपनी भूमिका निभा सकता है, और बाकी चीजों के लिए उसे स्वर्ग की इच्छा के प्रति समर्पित होना चाहिए। क्योंकि सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है और लोगों का जीवन-मरण सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। भले ही लोग वही करें जो उन्हें करना चाहिए, इन सबका अंतिम परिणाम उनकी इच्छा के अनुसार नहीं बदलता है, और यह लोगों द्वारा निर्धारित नहीं होता है, है न? (बिल्कुल।) बीमार पड़ने पर तुम्हें सबसे पहले अपने दिल में झाँक कर देखना चाहिए और उसमें मौजूद किसी भी नकारात्मक भावना की पहचान करनी चाहिए। तुम्हें मामले के बारे में अपनी समझ और अपने दिलों में मौजूद दृष्टिकोण का आकलन करना चाहिए कि कहीं तुम नकारात्मक भावनाओं की बेबसी या बंधन में तो नहीं हो और ये नकारात्मक भावनाएँ कैसे उत्पन्न हुई हैं। तुम्हें इन चीजों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए, जैसे कि तुम किस बारे में चिंतित हो, तुम्हें किस बात का डर है, तुम कहाँ असुरक्षित महसूस करते हो, और तुम अपनी बीमारी के कारण किस चीज को त्यागने में असमर्थ हो, फिर उन चीजों के कारण की जाँच करनी चाहिए जो तुम्हें चिंतित, भयभीत या डरा हुआ महसूस कराती हैं, और धीरे-धीरे एक-एक करके उन्हें हल करना चाहिए। तुम्हें सबसे पहले गहन-विश्लेषण करके यह पता लगाना चाहिए कि क्या ये नकारात्मक तत्व तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, और यदि वे मौजूद हैं, तो उनका गहन-विश्लेषण करके पता लगाना चाहिए कि वे सही हैं या नहीं या क्या ऐसे तत्व मौजूद हैं जो सत्य से मेल नहीं खाते हैं। यदि तुम्हें ऐसे तत्व मिलते हैं जो सत्य से मेल नहीं खाते, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए धीरे-धीरे सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें ऐसी दशा तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ तुम इन नकारात्मक तत्वों से परेशान, प्रभावित या बंधे हुए न हो, तुम्हें ऐसा करना चाहिए जिससे वे तुम्हारे सामान्य जीवन या कार्य या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर न डालें, या तुम्हारे जीवन की लय को न बिगाड़ दें। और, बेशक, उन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास और उसके अनुसरण को प्रभावित नहीं करना चाहिए। संक्षेप में, तुम्हारा लक्ष्य यह है कि तुम अंत में विवेक, सही ढंग, वस्तुनिष्ठता और सटीकता के साथ इस प्रकार की समस्याओं का सामना करने में सक्षम हो जाओ जो तुम्हारे समक्ष आती हैं या आएँगी। क्या यह त्यागने की प्रक्रिया नहीं है? (बिल्कुल है।) यह अभ्यास का विशिष्ट मार्ग है। क्या तुम लोग संक्षेप में बता सकते हो कि अभ्यास का विशिष्ट मार्ग क्या है? (सबसे पहले, व्यक्ति को उस मसले को समझना चाहिए जिसका वे सामना कर रहे हैं, इस प्रक्रिया के दौरान यह गहन-विश्लेषण करना चाहिए कि उनमें नकारात्मक भावनाएँ तो नहीं हैं, फिर परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजने चाहिए, इन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, और खुद को इन नकारात्मक भावनाओं से परेशान नहीं होने देना चाहिए, न ही इनसे अपने जीवन और कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ने देना चाहिए। साथ ही, उन्हें यह विश्वास रखना चाहिए कि जिन मसलों का वे सामना करते हैं वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं। इस तरह की समझ के साथ, लोग अंत में समर्पण करके सकारात्मक और सक्रिय अभ्यास कर सकेंगे।) मुझे बताओ, यदि लोग नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहें, तो बीमारी का सामना होने पर उनका ठेठ व्यवहार क्या होता है? तुम्हें यह कैसे एहसास होता है कि तुममें नकारात्मक भावनाएँ हैं? (सबसे पहले, मन में बहुत डर होता है, और ऐसे-वैसे विचार आने लगते हैं, जैसे कि “यह कैसी बीमारी है? अगर मैं इसे ठीक नहीं कर सका तो क्या इससे मुझे बहुत पीड़ा होगी? क्या इससे अंत में मेरी मौत हो जाएगी? क्या मैं बाद में भी अपना कर्तव्य निभा पाऊँगा?” हम इन चीजों के बारे में सोचते हैं और इनके बारे में चिंता करके डरते हैं। कुछ लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने लगते हैं, अपने कर्तव्य निभाने के लिए कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते, यह सोचते हैं कि यदि वे कम कीमत चुकाएँगे, तो शायद उनकी बीमारी कम हो जाए। ये सभी नकारात्मक भावनाएँ हैं।) नकारात्मक भावनाओं की जाँच दो तरह से की जा सकती है। एक ओर, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो सोच सकते हो, “अरे नहीं, मुझे यह बीमारी कैसे हुई? क्या किसी और से मुझे यह बीमारी हुई है? क्या यह मेरी थकावट के कारण हुई? यदि मैं अपने आप को थकाता रहूँ, तो क्या यह बीमारी और भी बदतर हो जाएगी? क्या यह और अधिक दर्दनाक हो जाएगा?” यह एक पहलू है; तुम अपने विचारों में मौजूद चीजों को समझ सकते हो। दूसरी ओर, जब तुम्हारे मन में ये विचार आते हैं, तो वे तुम्हारे व्यवहार में कैसे अभिव्यक्त होते हैं? जब लोगों में ये विचार होते हैं, तो उनके कार्य उसी के अनुसार प्रभावित होते हैं। लोगों के कार्य, व्यवहार और तरीके, सभी विभिन्न विचारों से संचालित होते हैं। जब लोगों में ये नकारात्मक भावनाएँ होती हैं, तो उनसे विभिन्न विचार उत्पन्न होते हैं, और इन विचारों के नियंत्रण में आकर कर्तव्य निभाने संबंधी उनके रवैयों या तौर-तरीकों में बदलाव आता है। उदाहरण के लिए, पहले कभी-कभी वे नींद से जागते ही अपने कर्तव्य निभाना शुरू कर देते थे। लेकिन अब, जब बिस्तर से उठने का समय होता है, तो वे सोचने लगते हैं, “क्या यह बीमारी थकावट के कारण हुई है? शायद मुझे थोड़ी देर और सोना चाहिए। मैं बहुत अधिक कष्ट उठाता था और थकावट महसूस होती थी। अब मुझे अपने शरीर की देखभाल पर ध्यान देना होगा ताकि बीमारी बदतर न हो जाए।” इन सक्रिय विचारों से प्रेरित होकर वे अधिक देर से उठने लगते हैं। जब खाना खाने की बात आती है, तो वे सोचते हैं, “मेरी बीमारी पोषण की कमी से संबंधित हो सकती है। पहले मैं कुछ भी खा लेता था, लेकिन अब मुझे चुनिंदा चीजें खानी होंगी। मुझे ज्यादा अंडे और मांस खाना चाहिए ताकि मेरा पोषण बना रहे और मेरा शरीर मजबूत बन सके—इस तरह मुझे अपनी बीमारी से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा।” जब अपने कर्तव्य निभाने की बात आती है, तो वे लगातार यह भी सोचते रहते हैं कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करें। पहले, एक या दो घंटे तक लगातार काम करने के बाद वे ज्यादा-से-ज्यादा हाथ-पैर हिलाते या टहलते थे। लेकिन अब, उन्होंने अपने लिए हर आधे घंटे में घूमने का नियम बना लिया है, ताकि वे थके नहीं। सभाओं में संगति करते समय, वे कम से कम बोलने की कोशिश करते हैं; सोचते हैं, “मुझे अपने शरीर की देखभाल करना सीखना होगा।” पहले, चाहे कोई उनसे कभी भी कुछ भी सवाल पूछता, वे बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब देते थे। लेकिन अब वे कम बोलना चाहते हैं, अपनी ऊर्जा बचाए रखना चाहते हैं, और अगर कोई बहुत ज्यादा सवाल पूछता है, तो वे कहते हैं, “मुझे आराम की जरूरत है।” देखो, वे विशेष रूप से अपने शरीर के बारे में अधिक चिंता करने लगे हैं, जो पहले से अलग है। अक्सर वे पूरक आहार लेने, फल खाने और नियमित रूप से व्यायाम करने पर भी लगातार ध्यान देते हैं। वे सोचते हैं, “पहले, मैं बहुत मूर्ख और अज्ञानी था, मुझे नहीं पता था कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करनी है। मैं अपनी भूख के कारण बहुत खाना खाता था। अब जबकि मेरे शरीर में समस्याएँ हो गई हैं, यदि मैं अपने स्वास्थ्य पर ध्यान न दूँ और बीमारी गंभीर होने पर मैं अपना कर्तव्य न निभा पाऊँ, तो क्या मुझे तब भी आशीष मिलेगी? मुझे भविष्य में अपने शरीर की देखभाल पर ध्यान देना चाहिए और किसी भी तरह की बीमारी को उभरने नहीं देना चाहिए।” इसलिए वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं और अब अपने कर्तव्य पूरी निष्ठा से नहीं निभाते। उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते समय पहले जो कष्ट सहे और जो कीमत चुकाई, उसे लेकर भी पछताकर खिन्न रहते हैं। क्या ये विचार और व्यवहार नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित नहीं हैं और क्या ये इनसे ही उत्पन्न नहीं होते हैं? ये विचार और व्यवहार वास्तव में इन नकारात्मक भावनाओं के कारण ही उत्पन्न होते हैं। तो क्या उनकी नकारात्मक भावनाओं के साथ-साथ ये विचार और व्यवहार उन्हें परमेश्वर में अधिक विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निभाने में अधिक समर्पित होने में मदद कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अंतिम नतीजा क्या होगा? वे निष्ठा के बिना और अनमने होकर अपने कर्तव्य निभाएंगे। कार्य करते समय क्या वे सत्य खोज सकते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) इन नकारात्मक भावनाओं के काबू में रहकर वे अपनी मनमर्जी करेंगे, सत्य को संजोने और उसका अभ्यास करने के बजाय उसे दरकिनार करेंगे। वे जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी अभ्यास में लाते हैं, वह उनकी नकारात्मक भावनाओं से उत्पन्न विचारों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य के अनुसरण का लक्ष्य हासिल कर सकता है? (नहीं, वह नहीं कर सकता।) तो क्या इस प्रकार के विचार सामान्य मानवता वाले लोगों में होने चाहिए? (नहीं होने चाहिए।) क्योंकि इस प्रकार के विचार सामान्य मानवता वाले लोगों में नहीं होने चाहिए, तो तुम लोगों को क्या लगता है कि लोग कहाँ गलती कर बैठते हैं? (लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के बारे में कोई समझ नहीं है। वास्तव में, ये सभी बीमारियाँ परमेश्वर के हाथों में हैं। किसी व्यक्ति को कितना कष्ट सहना है यह भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित और व्यवस्थित होता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं में रहता है, तो वह षडयंत्रों का सहारा लेता है और भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से संचालित होता है। वह मानवीय तरीकों पर भरोसा करता है और अपने शरीर को संजोता है।) क्या किसी व्यक्ति के लिए अपने शरीर को इस तरह संजोना सही है? जब कोई व्यक्ति अपने शरीर के बारे में बहुत चिंता करता है और उसे सुपोषित, स्वस्थ और मजबूत रखता है, तो उसके लिए इसका क्या महत्व है? ऐसे जीने का क्या अर्थ है? व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। मुझे बताओ, यदि जीवन भर किसी व्यक्ति के दैनिक क्रियाकलाप और विचार केवल बीमारी और मृत्यु से बचने, अपने शरीर को स्वस्थ और बीमारियों से मुक्त रखने और दीर्घायु होने की कोशिश पर केंद्रित होते हैं, तो क्या व्यक्ति के जीवन का यही मूल्य होना चाहिए? (नहीं, यह नहीं होना चाहिए।) किसी व्यक्ति के जीवन का यह मूल्य नहीं होना चाहिए। तो, व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या होना चाहिए? अभी-अभी, किसी ने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का जिक्र किया था, जो एक विशिष्ट पहलू है। क्या इसके अलावा कुछ और भी है? मुझे उन आकांक्षाओं के बारे में बताओ जो आम तौर पर प्रार्थना करते या संकल्प लेते समय तुम लोगों के मन में होती हैं। (हमारे लिए परमेश्वर की जो व्यवस्थाएँ और आयोजन हैं, उनके प्रति समर्पित होना।) (परमेश्वर ने हमें जो भूमिका सौंपी है उसे अच्छी तरह से निभाना, और अपने लक्ष्य और जिम्मेदारी को पूरा करना।) और कुछ? एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ और हरसंभव योगदान देने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता, और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं कर रहे हैं; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कलीसिया में, कुछ लोग अपनी सारी कोशिश सुसमाचार फैलाने में लगा देते हैं, अपने पूरे जीवन की ऊर्जा समर्पित करते हैं, बड़ी कीमत चुकाते और कई लोगों को जीतते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है, उसका मूल्य है और यह राहत देने वाला है। बीमारी या मृत्यु का सामना करते समय, जब वे अपने पूरे जीवन का सारांश निकालते हैं और उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जो उन्होंने कभी की थीं, जिस रास्ते पर वे चले, तो उन्हें अपने दिलों में तसल्ली मिलती है। उन्हें किसी दोषारोपण या पछतावे का अनुभव नहीं होता। कुछ लोग कलीसिया में अगुआई करते समय या कार्य के किसी खास पहलू की अपनी जिम्मेदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग करते हैं, अपनी पूरी ताकत लगाते हैं, अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते हैं और जो काम करते हैं उसकी कीमत चुकाते हैं। अपने सिंचन, अगुआई, सहायता और समर्थन से, वे कई लोगों को उनकी कमजोरियों और नकारात्मकता के बीच मजबूत बनने और दृढ़ रहने में मदद करते हैं ताकि वे पीछे हटने के बजाय परमेश्वर की उपस्थिति में वापस आएँ और अंत में उसकी गवाही भी दें। इसके अलावा, अपनी अगुआई की अवधि के दौरान, वे कई महत्वपूर्ण कार्य पूरे करते हैं, बहुत-से दुष्ट लोगों को कलीसिया से निकालते हैं, परमेश्वर के चुने हुए अनेक लोगों की रक्षा करते हैं, और कई बड़े नुकसानों की भरपाई भी करते हैं। ये सभी चीजें उनकी अगुआई के दौरान ही हासिल होती हैं। वे जिस रास्ते पर चले, उसे पीछे मुड़कर देखते हुए, बीते बरसों में अपने द्वारा किए गए काम और चुकाई गई कीमत को याद करते हुए, उन्हें कोई पछतावा या दोषारोपण महसूस नहीं होता। वे मानते हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उन्हें पछताना पड़े, और वे अपने दिलों में मूल्य, स्थिरता और शांति की भावना के साथ जीते हैं। यह कितना अद्भुत है! यही परिणाम होता है न? (हाँ।) स्थिरता और राहत की यह भावना, पछतावे का न होना, सकारात्मक चीजों और सत्य का अनुसरण करने का परिणाम और पुरस्कार हैं। आओ, लोगों के लिए ऊँचे मानक स्थापित न करें। एक ऐसी स्थिति पर विचार करें जहाँ व्यक्ति को ऐसे कार्य का सामना करना पड़ता है जो उसे अपने जीवनकाल में करना चाहिए या वह करना चाहता है। अपना पद जान लेने के बाद, वह दृढ़ता से उस पर बना रहता है बहुत कष्ट उठाता है, कीमत चुकाता है, और जिस चीज पर काम करना चाहिए और जिसे पूरा करना चाहिए उसे हासिल और पूरा करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर देता है। जब वह अंत में हिसाब देने के लिए परमेश्वर के सामने खड़ा होता है, तो वह काफी संतुष्ट महसूस करता है, उसके दिल में कोई दोषारोपण या पछतावा नहीं होता है। उसमें राहत और फलवान होने की भावना होती है कि उसने एक मूल्यवान जीवन जिया है। क्या यह एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नहीं है? इसका पैमाना चाहे जो भी हो, मुझे बताओ, क्या यह व्यावहारिक है? (यह व्यावहारिक है।) क्या यह विशिष्ट है? यह पर्याप्त रूप से विशिष्ट, व्यावहारिक और यथार्थवादी है। तो, एक मूल्यवान जीवन जीने और अंत में इस प्रकार का पुरस्कार प्राप्त करने के लिए, क्या व्यक्ति के शरीर का थोड़ा कष्ट सहना और थोड़ी कीमत चुकाना सार्थक है, भले ही वह थकान और शारीरिक बीमारी का अनुभव करे? (यह सार्थक है।) जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता है, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को केवल उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है, इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने और उसे समझने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें अपनी सारी ऊर्जा लगाने, कीमत चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो, और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन के लिए अधिक हितकर है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीने का अर्थ है अपने दिल में परिणाम और सुकून महसूस करना। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना। “जीवन व्यर्थ रहने” का क्या अर्थ है? (अपना जीवन बर्बाद करना।) जीवन व्यर्थ रहना, अपना जीवन बर्बाद करना—इन दो वाक्यांशों का आधार क्या है? (अपने जीवन के अंत में उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है।) फिर व्यक्ति को क्या हासिल करना चाहिए? (उन्हें सत्य प्राप्त करना चाहिए या इस जीवन में मूल्यवान और सार्थक चीजें हासिल करनी चाहिए। एक सृजित प्राणी को जो चीजें करनी चाहिए वे उन्हें अच्छे से करनी चाहिए। यदि वे यह सब करने में विफल रहते हैं और केवल अपने शरीर के लिए जीते हैं, तो उन्हें लगेगा कि उनका जीवन व्यर्थ चला गया और बर्बाद हो गया।) मृत्यु का सामना होने पर, वे सोचेंगे कि उन्होंने जीवन भर क्या किया है। वे कहेंगे, “ओह, मैं हर दिन केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के बारे में सोचता रहा। मेरा स्वास्थ्य अच्छा था और मुझे कोई बीमारी नहीं हुई। मेरा पूरा जीवन शांतिपूर्ण था। लेकिन अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और मरने वाला हूँ, मरने के बाद मैं कहाँ जाऊँगा? मैं नर्क में जाऊँगा या स्वर्ग में? परमेश्वर मेरे अंत की व्यवस्था कैसे करेगा? मेरी मंजिल कहाँ होगी?” उन्हें बेचैनी महसूस होगी। जीवन भर भौतिक सुख-सुविधाओं का आनंद लेते हुए, उन्हें पहले कोई जागरूकता नहीं थी, लेकिन अब जब मृत्यु करीब आ रही है तो वे असहज महसूस करते हैं। क्योंकि वे असहज महसूस करते हैं, तो क्या वे सुधार करने के बारे में सोचना शुरू नहीं कर देंगे? क्या तब सुधार करने का समय बचा होगा? (जरा भी समय नहीं होगा।) अब उनमें न तो दौड़ने की शक्ति बची है, न ही बोलने की शक्ति है। अगर वे थोड़ी-सी कीमत चुकाना चाहें या थोड़ी कठिनाई सहना चाहें, तब भी उनकी शारीरिक शक्ति इसके लिए पर्याप्त नहीं है। भले ही वे बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करना चाहें, लेकिन उनकी शारीरिक स्थिति इस लायक नहीं है। इसके अलावा, वे जरा भी सत्य नहीं समझते हैं और इसके बारे में थोड़ी भी संगति नहीं कर सकते हैं। अब उनके पास सुधार करने का समय नहीं बचा है। मान लो कि वे कोई भजन सुनना चाहते हैं। भजन सुनते हुए वे सो जाते हैं। मान लो वे कोई उपदेश सुनना चाहते हैं। उसे सुनते हुए उन्हें नींद आने लगती है। उनके पास अब ऊर्जा नहीं बची है, और वे ध्यान केंद्रित करने में असमर्थ हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने इतने वर्षों तक क्या किया और उन्होंने अपनी ऊर्जा कहाँ खपाई। अब उनकी उम्र बढ़ गई है और वे अपना उचित काम करना चाहते हैं, लेकिन उनका ढलता शरीर अब उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। उनमें अब ऊर्जा नहीं बची है, वे चाहकर भी कुछ नहीं सीख सकते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हो गई हैं। वे कई सत्यों को नहीं समझ सकते, और जब वे दूसरों के साथ संगति करने का प्रयास करते हैं, तो हर कोई व्यस्त होता है और उनके पास उनके साथ संगति करने का समय नहीं होता है। उनके किसी भी कार्य में सिद्धांत या मार्ग नहीं होता है। अंत में उनका क्या होता है? वे जितना अधिक विचार करते हैं उतना ही असहज महसूस करते हैं। जितना अधिक वे सोचते हैं, उतना ही उन्हें पछतावा होता है। जितना अधिक वे विचार करते हैं, उतना ही उनका मन पछतावे से भर जाता है। अंत में उनके पास मौत का इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता। उनका जीवन समाप्त हो गया है, और सुधार करने का कोई रास्ता नहीं है। क्या उन्हें पछतावा महसूस होता है? (हाँ।) अब बहुत देर हो चुकी है! कोई समय नहीं बचा है। मृत्यु का सामना करते समय, उन्हें एहसास होता है कि शारीरिक आराम के जीवन का आनंद लेना बिल्कुल खोखला है। वे हर चीज समझते हैं और सत्य का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य पूरा करने और कुछ अच्छे से करने से पीछे हटना चाहते हैं, लेकिन वे किसी भी तरह से कुछ भी हासिल नहीं कर पाते हैं या किसी भी चीज के लिए कोशिश नहीं कर पाते हैं। यह जीवन लगभग समाप्त हो गया है, यह पछतावे के साथ समाप्त होता है, इसमें अफसोस और बेचैनी होती है। मृत्यु का सामना करते समय ऐसे लोगों का अंतिम परिणाम क्या होता है? वे केवल अफसोस, पछतावे और बेचैनी के साथ मर जाते हैं। यह जीवन व्यर्थ चला गया! उनके भौतिक शरीरों ने कोई कष्ट नहीं सहा। उन्होंने तेज हवा या धूप नहीं झेली, कोई जोखिम नहीं उठाया, केवल आराम का आनंद लिया। उन्होंने कोई कीमत नहीं चुकाई। वे अच्छे स्वास्थ्य में जिए, शायद ही कभी किसी बीमारी का अनुभव किया, यहाँ तक कि उन्हें सर्दी भी नहीं हुई। उन्होंने अपने भौतिक शरीर की अच्छी तरह से देखभाल की, लेकिन दुर्भाग्य से, उन्होंने कोई भी कर्तव्य पूरा नहीं किया या कोई सत्य प्राप्त नहीं किया। केवल मृत्यु के पल में ही उन्हें पछतावा होता है। और यदि उन्हें पछतावा हो, तब भी क्या होगा? इसे कहते हैं अपने कर्मों के फल के रूप में कष्ट भोगना!
यदि कोई व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक जीवन जीना चाहता है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, जीवन के प्रति उसका नजरिया सही होना चाहिए, साथ ही, अपने जीवन में और जीवन पथ में सामने आने वाले विभिन्न बड़े-छोटे मसलों पर उसके विचार और दृष्टिकोण भी सही होने चाहिए। उसे अपने जीवनकाल के दौरान या अपने दैनिक जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं को चरम या कट्टरपंथी विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके देखने के बजाय इन सभी मसलों को सही परिप्रेक्ष्य और रुख से देखना चाहिए। बेशक, उसे इन चीजों को सांसारिक परिप्रेक्ष्य से भी नहीं देखना चाहिए, बल्कि ऐसे नकारात्मक और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए। यदि तुम इसे हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले लोगों के मन में बैठे विभिन्न नकारात्मक विचारों का गहन-विश्लेषण करना, उन्हें उजागर करना और पहचानना चाहिए, और फिर अपनी विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को बदलने और सुधारने, उन्हें त्यागने, सही और सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण रखने के साथ-साथ लोगों और चीजों को देखने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और रुख हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। ऐसा करने से, तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने वाली अंतरात्मा और आवश्यक विवेक होगा। बेशक, यह विशेष रूप से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के पास लोगों और चीजों को देखने के लिए सही दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख होने का मतलब यही है कि उसमें सामान्य मानवता है। यदि लोगों में इस प्रकार की सामान्य मानवता और ऐसे सही विचार और दृष्टिकोण हैं, तो उनके लिए सत्य का अनुसरण करना बहुत कम चुनौतीपूर्ण और काफी आसान हो जाता है। यह ऐसा ही है जैसे जब कोई व्यक्ति किसी मंजिल पर पहुँचना चाहता है—यदि वह सही रास्ते पर है और सही दिशा में बढ़ रहा है, तो उसकी रफ्तार चाहे जो भी हो, वह अंत में अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाएगा। लेकिन, यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छित मंजिल की विपरीत दिशा में जा रहा है, तो चाहे वह कितना भी तेज या कितना भी धीमा चल रहा हो, वह अपने लक्ष्य से केवल दूर ही होता जाएगा। यह तो वही कहावत हुई कि “उत्तर की दिशा में गाड़ी चलाकर दक्षिण की ओर जाने की कोशिश करना।” यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करके उद्धार पाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भी भागते हैं, जिसका अर्थ है कि उनके पास उद्धार पाने का कोई रास्ता नहीं है। उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? यह यकीनन सजा ही होगी। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति को कैंसर हो गया है और वह मरने से डरता है। वह मृत्यु को स्वीकारने से इनकार करता है और लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे मृत्यु से बचाए और उसका जीवन कुछ और वर्षों के लिए बढ़ा दे। वह हर गुजरते दिन के साथ, संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को साथ लेकर चलता है; भले ही वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहने, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने और मृत्यु को टालने से मिलने वाली खुशी का अनुभव करने में कामयाब होता है। वह खुद को भाग्यशाली मानता है और विश्वास करता है कि परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह वाकई शानदार है। अपने प्रयासों, बार-बार की गई विनती, खुद से प्रेम और खुद की देखभाल से, वह मृत्यु से बच जाता है, और अंत में, अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने लगता है। वह परमेश्वर के संरक्षण, अनुग्रह, प्रेम और दया के लिए आभार व्यक्त करता है। हर दिन वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है और इसके लिए स्तुति करने उसके समक्ष आता है। वह भजन गाते समय और परमेश्वर के वचनों पर विचार करते समय अक्सर रो पड़ता है और सोचता है कि परमेश्वर कितना अद्भुत है : “वाकई जीवन और मृत्यु पर परमेश्वर का नियंत्रण है; उसने मुझे जीने का अवसर दिया।” हर दिन अपना कर्तव्य निभाते समय वह अक्सर इस बात पर विचार करता है कि दुख को पहले और सुख को आखिर में कैसे रखा जाए, और हर चीज में दूसरों से बेहतर कैसे किया जाए, ताकि वह अपना जीवन सुरक्षित रख सके और मृत्यु से बच सके—अंत में वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहता है और काफी संतुष्ट और खुश महसूस करता है। लेकिन फिर एक दिन, उसकी बीमारी बढ़ जाती है, और डॉक्टर उसे आखिरी चेतावनी देते हुए अंत के लिए तैयार रहने को कहता है। अब वह मृत्यु का सामना कर रहा है; वास्तव में वह मौत की कगार पर है। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? उसका सबसे बड़ा डर अब सामने आ गया है, उसकी सबसे बड़ी चिंता असलियत बन गई है। वो दिन आ गया है जिसे वह कभी देखना या अनुभव करना नहीं चाहता था। एक पल में उसका दिल बैठ जाता है और उसकी मनोदशा बिगड़ जाती है। उसका मन अब अपना कर्तव्य निभाने का नहीं करता है, और उसके पास परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कोई शब्द भी नहीं बचे हैं। वह अब परमेश्वर की स्तुति नहीं करना चाहता, न उसके कोई वचन सुनना चाहता है और न ही चाहता है कि वो कोई सत्य प्रदान करे। वह अब यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर प्रेम, धार्मिकता, दया और उदारता का नाम है। साथ ही, उसे पछतावा भी होता है, “इतने बरसों तक मैं अच्छा खाना खाना और खाली समय में घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करना भूल गया। अब मेरे पास वो सब करने का मौका ही नहीं है।” उसका मन शिकायतों और विलापों से भर जाता है, और उसका दिल पीड़ा के साथ-साथ परमेश्वर के लिए शिकायतों, नाराजगी और इनकार से भर जाता है। फिर उसी पछतावे के साथ वह इस दुनिया से चला जाता है। उसके जाने से पहले, क्या परमेश्वर उसके दिल में मौजूद था? क्या उसे अभी भी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास था? (वह अब विश्वास नहीं करता था।) यह परिणाम कैसे आया? क्या इसकी शुरुआत उन गलत दृष्टिकोणों से नहीं हुई जो वह शुरू से ही जीवन और मृत्यु के प्रति रखता था? (हाँ।) उसने न केवल शुरु से ही गलत विचार और दृष्टिकोण रखे, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि इसके बाद भी वह अपने विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार ही चलता रहा और उनके अनुरूप ही बना रहा। उसने कभी हार नहीं मानी और पीछे मुड़कर देखे बिना बड़ी तेजी से गलत रास्ते पर आगे बढ़ता रहा। नतीजतन, आखिरकार, परमेश्वर से उसका विश्वास उठ गया—इस प्रकार उसकी आस्था की यात्रा समाप्त हो गई और उसका जीवन भी समाप्त हो गया। क्या उसे सत्य प्राप्त हुआ? क्या परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया? (नहीं।) जब उसकी मृत्यु हुई, तो मृत्यु के प्रति जिन परिप्रेक्ष्यों और रवैयों पर वह अड़ा हुआ था, क्या वे बदल गए? (नहीं।) वह आराम, खुशी और शांति से मरा या फिर अफसोस, अनिच्छा और कड़वाहट के साथ? (वह अनिच्छा और कड़वाहट के साथ मरा।) उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसने सत्य प्राप्त नहीं किया और न ही परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया। तो क्या तुम लोग यह कहोगे कि ऐसे व्यक्ति को उद्धार प्राप्त हुआ है? (नहीं।) उसे बचाया नहीं गया है। अपनी मृत्यु से पहले क्या उसने बहुत भागदौड़ नहीं की और काफी हद तक खुद को नहीं खपाया? (बिल्कुल ऐसा ही किया।) दूसरों की तरह वह भी परमेश्वर में विश्वास रखता था और अपना कर्तव्य निभाता था, बाहरी तौर पर, उसके और किसी अन्य के बीच कोई अंतर नहीं मालूम पड़ता था। जब उसने बीमारी और मृत्यु का अनुभव किया, तो उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और तब भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। वह उसी स्तर पर काम करता रहा, जिस पर पहले करता था। लेकिन, एक बात लोगों को समझनी और पहचाननी चाहिए : इस व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण लगातार नकारात्मक और गलत बने रहे। उसके कष्टों की सीमा चाहे जो भी रही हो या अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने जो भी कीमत चुकाई हो, उसने अपने अनुसरण में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को बरकरार रखा। वह लगातार उनके काबू में रहा और अपनी नकारात्मक भावनाओं को अपने कर्तव्य में लाता रहा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, जीवित रहने के बदले उसने परमेश्वर के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन का सौदा करना चाहा। उसके अनुसरण का लक्ष्य सत्य समझना या उसे प्राप्त करना नहीं था, न ही उसका लक्ष्य परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। उसके अनुसरण का लक्ष्य इसके ठीक विपरीत था। वह अपनी इच्छा और जरूरतों के अनुसार जीना चाहता था, जिसका वह अनुसरण कर रहा था उसे पाना चाहता था। वह अपने भाग्य और यहाँ तक कि अपने जीवन और मृत्यु को भी खुद ही व्यवस्थित और आयोजित करना चाहता था। और इसलिए, रास्ता खत्म होने पर उसका परिणाम यह हुआ कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसे सत्य प्राप्त नहीं हुआ और आखिर में उसने परमेश्वर को नकार दिया और उसमें विश्वास खो दिया। यहाँ तक कि जब मृत्यु निकट आ गई, तब भी वो यह समझने में असफल रहा कि लोगों को कैसे जीना चाहिए और एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही ऐसे लोगों की सबसे दयनीय और दुखद बात है। मृत्यु की कगार पर भी, वो इस बात को समझने में असफल रहा कि व्यक्ति के पूरे जीवन में, सब-कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है। यदि सृष्टिकर्ता चाहता है कि तुम जीवित रहो, तो भले ही तुम किसी घातक बीमारी से पीड़ित हो, तब भी तुम नहीं मरोगे। यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी मृत्यु चाहता है, तो भले ही तुम जवान, स्वस्थ और मजबूत हो, जब तुम्हारा समय आएगा, तो तुम्हें मरना ही होगा। सब-कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है, यह परमेश्वर का अधिकार है, और कोई भी इससे ऊपर नहीं उठ सकता। वह इतने सरल तथ्य को समझने में असफल रहा—क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास रखने, सभाओं में भाग लेने, धर्मोपदेश सुनने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखने के बावजूद उसने बार-बार इस बात को नकारा कि जीवन, मृत्यु और मनुष्य का भाग्य उसकी इच्छा के अनुसार नहीं चलता, बल्कि यह परमेश्वर के हाथों में है। कोई भी केवल इसलिए नहीं मरता क्योंकि वह मरना चाहता है, और कोई भी केवल इसलिए जीवित नहीं रहता क्योंकि वह जीना चाहता है और मृत्यु से डरता है। वह इतने सरल तथ्य को समझने में विफल रहा, आसन्न मृत्यु का सामना करने पर भी वह इसे नहीं समझ पाया और यह भी नहीं जान पाया कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु उसके हिसाब से निर्धारित नहीं होते, बल्कि सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं। क्या यह दुखद नहीं है? (दुखद है।) इसलिए, भले ही विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ लोगों को महत्वहीन लगें, लेकिन वे सभी उस रवैये में शामिल होती हैं जिसके साथ व्यक्ति सामान्य मानवता के दायरे में लोगों और चीजों को देखता है। यदि कोई व्यक्ति सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व में होने वाली हर तरह की चीज को सकारात्मक रवैये के साथ देखता है, तो उसमें अपेक्षाकृत कम नकारात्मक भावनाएँ होंगी। यह भी कहा जा सकता है कि उसकी अंतरात्मा और विवेक अपेक्षाकृत सामान्य होगा, जिससे उसके लिए सत्य का अनुसरण करना और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा और उसके सामने आने वाली कठिनाइयों और बाधाओं में कमी आएगी। यदि किसी व्यक्ति का दिल सभी प्रकार की नकारात्मक भावनाओं से भरा हुआ है, जिसका मतलब यह है कि जीवन और अस्तित्व की चुनौतियों के प्रति अपने रवैये में वह विभिन्न नकारात्मक विचारों से भरा हुआ है, तो उसे सत्य खोजने में अधिक बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। यदि सत्य का अनुसरण करने की उसकी इच्छा प्रबल नहीं है, यदि उसमें ज्यादा उत्साह नहीं है या परमेश्वर के लिए इतनी जबरदस्त चाह नहीं है, तो सत्य का अनुसरण करने में उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ और बाधाएँ आएँगी। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करेगा। उसके भ्रष्ट स्वभाव की गंभीरता को तो छोड़ ही दें, ये नकारात्मक भावनाएँ अकेले ही उसे बाँध लेंगी, जिससे एक-एक कदम चलना कठिन हो जाएगा। जब कुछ लोगों को घृणा, क्रोध, विभिन्न प्रकार की पीड़ा या अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो उनके मन में जो अलग-अलग विचार आते हैं, वे नकारात्मक होते हैं। यानी लगभग हर मामले में उनकी मनोदशा पर हमेशा नकारात्मक भावनाएँ हावी रहती हैं। यदि तुममें इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करने और नकारात्मक भावनाओं की इस मनोदशा से उबरने के लिए जरूरी दृढ़-संकल्प और दृढ़ता की कमी है, तो तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। यह आसान नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि सत्य का अनुसरण करने की वास्तविकता में प्रवेश करने से पहले, लोगों के पास पहले सामान्य मानवता से संबंधित हर समस्या के संबंध में सबसे बुनियादी सही विचार, दृष्टिकोण और रुख होना चाहिए। तभी वे सत्य को समझ और स्वीकार करके धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे। सत्य का औपचारिक रूप से अनुसरण करने से पहले, तुम्हें पहले अपनी विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का समाधान करते हुए इस चरण को पार करना होगा। एक बार जब लोग इस चरण को पार कर लेंगे और विभिन्न मामलों से संबंधित उनके विचार और दृष्टिकोण लोगों और चीजों को देखने के उनके परिप्रेक्ष्य और रुख, सभी सही हो जाएँगे, तो सत्य का अनुसरण करना और वास्तविकता में प्रवेश करना उनके लिए आसान हो जाएगा।
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