सत्य का अनुसरण कैसे करें (5) भाग दो
पिछली बार हमने संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति की थी। अब, हम नकारात्मक भावनाओं के एक और पहलू के बारे में संगति करने जा रहे हैं, जो सार में संताप, चिंता और व्याकुलता के ही समान है, लेकिन प्रकृति में और भी ज्यादा नकारात्मक है। वह कौन-सी भावना है? यह मन की वह अवस्था है, जिसका सामना लोग अपने दैनिक जीवन में सबसे ज्यादा बार करते हैं—दमन। क्या तुम सभी ने “दमन” शब्द के बारे में सुना है? (हाँ, सुना है।) तो कृपया “दमन” शब्द का उपयोग करते हुए एक वाक्य बनाओ या कोई उदाहरण दो। मैं एक उदाहरण से शुरुआत करता हूँ। कुछ लोग कहते हैं, “ओह, मैं अक्सर अपना कर्तव्य निभाते समय दमित महसूस करता हूँ और खुद को इससे मुक्त नहीं कर पाता।” क्या यह वाक्य सही ढंग से बनाया गया है? (हाँ।) अब, तुम लोगों की बारी है। (जब मेरे साथ कोई बात हो जाती है, तो मैं हमेशा भ्रष्टता प्रकट करती हूँ और मुझे लगातार चिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करना पड़ता है, इसलिए मैं दमित महसूस करती हूँ।) तुम दमित महसूस करते हो, क्योंकि तुम खुद को बहुत ज्यादा जानने की कोशिश करते हो। इस दमन का संदर्भ क्या है? इसका कारण क्या है? वह यह है कि तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं हो, और ऐसा लगता है कि आगे चलकर न तो तुम्हारे पास कोई संभावना है और न गंतव्य, और तुम्हें कभी भी बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए तुम दमित महसूस करते हो। और कौन साझा करना चाहता है? (बड़े लाल अजगर के देश में परमेश्वर में विश्वास करने से लोग दमित महसूस करते हैं।) यह अपने परिवेश के कारण दमित महसूस करना है। (जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही होती हूँ, तब अपने अगुआ द्वारा लगातार निगरानी किए जाने से मैं दमित महसूस करती हूँ।) अच्छा कहा, यह दमन की भावना को बहुत ठोस रूप से व्यक्त करता है। (अपना कर्तव्य निभाते समय मुझे हमेशा विफलताओं और आघातों का सामना करना पड़ता है, इससे मैं दमित महसूस करता हूँ।) आघात और विफलताएँ तुम लोगों को दमित महसूस कराती हैं, मानो आगे बढ़ने का कोई रास्ता न हो। जब तुम लोगों का काम धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, तो क्या तुम दमित महसूस करते हो? (हाँ।) इसमें कुछ हद तक सकारात्मक संकेतार्थ है। मुझे और बताओ। (जब अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा मेरी काट-छाँट की जाती है, तो मैं दमित महसूस करती हूँ।) यही वास्तविकता है, है न? (जब मुझे अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम नहीं मिलते, तो मैं दमित महसूस करती हूँ।) इस दमन का क्या कारण है? क्या ऐसा सचमुच इसलिए होता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम नहीं मिले होते? क्या तुम्हें यह डर नहीं होता कि तुम्हारा कर्तव्य समायोजित कर दिया जाएगा या तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा? (हाँ।) ये तुम्हारे दमन के ठोस कारण हैं। दमन की कोई अन्य भावनाएँ? मुझे उनके बारे में बताओ। (मेरे सभी साथी मुझसे बेहतर हैं, इसलिए मैं दमित महसूस करता हूँ।) ईर्ष्या के कारण होने वाली परेशानी है—दमन। क्या दमन के कोई अन्य मुद्दे हैं? (मैं अपने कार्यक्षेत्र में लंबे समय से प्रगति की कमी के कारण दमित महसूस करता हूँ।) यह दबाव है या दमन? यह थोड़ा दबाव है। तो यह दबाव होना अच्छी बात है। क्या तुम्हें बस इस दबाव को प्रेरणा में बदलने की जरूरत नहीं है? जब हर टीम के सदस्यों के कर्तव्य हमेशा समायोजित किए जाते हैं, तो क्या तुम लोग दमित महसूस नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) तुम तब भी दमित महसूस करते हो। तुम लोगों द्वारा बोले गए वाक्यों से ऐसा लगता है कि तुम सभी लोग दमन की भावना का अनुभव करते हो। ऐसा लगता है कि लोगों का अंतर्मन बहुत अस्थिर, निरंतर बेचैन और एक तरह के अदृश्य दबाव में रहता है, यही कारण है कि उनके भीतर दमन की भावना उत्पन्न होती है, और फिर वे दमन की इस नकारात्मक भावना के बीच जीते हैं। क्या यह अच्छी चीज है? (नहीं, यह अच्छी चीज नहीं है।) यह अच्छी चीज नहीं है। तो क्या इसका समाधान नहीं किया जाना चाहिए? चूँकि यह अच्छी चीज नहीं है, इसलिए इसका समाधान किया जाना चाहिए। जब लोग लगातार नकारात्मक भावना के बीच रहते हैं, चाहे वह कोई भी भावना हो, छोटे स्तर पर वह उनके शरीर और दिमाग पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है, जिससे उनका स्वस्थ रहना और सशक्त होना बाधित हो सकता है। बड़े स्तर पर, लोगों पर विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव उनके दैनिक जीवन में भोजन, कपड़े, घर और परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतों तक ही सीमित नहीं रहता। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लोगों और चीजों को देखने के उनके तरीके के साथ-साथ उनके आचरण और कार्यों को भी प्रभावित करता है। और भी विशेष रूप से, यह उनके कर्तव्यों में उनकी दक्षता, प्रगति और प्रभावशीलता को प्रभावित करता है। निस्संदेह, इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह इसे प्रभावित करता है कि लोगों को अपने कर्तव्य निभाने से क्या मिलता है और परमेश्वर में उनकी आस्था का उन्हें जो फल मिलना चाहिए, उसे भी प्रभावित करता है। लोगों के मन लगातार इन नकारात्मक भावनाओं से ग्रस्त और बँधे रहते हैं, उनके दिल अक्सर परेशान रहते हैं और वे अक्सर अशांति, बेचैनी और आवेग जैसी भावनाओं में रहते हैं। जब लोग इन भावनाओं में फँस जाते हैं, तो उनका सामान्य जमीर और विवेक, और साथ ही उनका सामान्य जीवन और उनके कर्तव्यों का सामान्य निर्वाह बाधित, प्रभावित और नष्ट हो जाता है। इसलिए, तुम्हें इन नकारात्मक भावनाओं का तुरंत समाधान करना चाहिए और उन्हें अपने सामान्य जीवन और कार्य को और ज्यादा प्रभावित करने से रोकना चाहिए। दमन की जिस अवधारणा पर आज हमने चर्चा की है, वह सार में उन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के समान ही है, जिनके बारे में हमने पहले बात की थी। लोग अकसर बहुत-सी चीजों को लेकर चिंतित और शंकित रहते हैं, या अपने दिल की गहराइयों में बहुत बेचैनी पाल लेते हैं, इसलिए वे दमित महसूस करते हैं। अगर दमन की यह भावना लंबे समय तक अनसुलझी रही, तो लोग अपने दिलों में और भी ज्यादा बेचैन और व्यथित हो जाएँगे। कुछ विशिष्ट परिवेशों और संदर्भों में, लोग अपनी स्थितियों पर काबू पाने के लिए कुछ चरम दृष्टिकोण अपनाकर, मानवता के जमीर और विवेक के नियंत्रण से भी मुक्त हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मानव-शरीर की कुछ नकारात्मक भावनाओं को झेलने की सहज क्षमता की एक सीमा होती है। जब वह सीमा और चोटी आ जाती है, तो लोग मानवता के विवेक की रुकावटों से मुक्त हो जाएँगे और अपनी भावनाएँ और अपने दिल की गहराई में मौजूद तमाम तरह के तर्कहीन विचार बाहर निकालने के लिए कुछ चरम नजरिये अपनाएँगे।
तुम लोगों ने अभी स्वयं द्वारा दिए गए वाक्यों के जरिए लोगों के दमित महसूस करने के कुछ अलग कारण व्यक्त किए हैं। आज हम मुख्य रूप से तीन कारणों और वजहों पर संगति करेंगे कि लोगों में दमन की यह नकारात्मक भावना क्यों उभरती है। पहला यह है कि बहुत-से लोग अपने दैनिक जीवन में या अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, महसूस करते हैं कि वे जैसा चाहें वैसा नहीं कर पाते। यह पहला कारण है : जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थता। जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है मन में आने वाली हर इच्छा के अनुसार कार्य न कर पाना। वे जो चाहें, जब चाहें और जैसे चाहें, वैसा कर पाना एक ऐसी अपेक्षा है, जो इन लोगों के काम और जीवन दोनों में होती है। हालाँकि विभिन्न कारणों से, जिनमें कानून, जीवन-परिवेश या किसी समूह के नियम, प्रणालियाँ, शर्तें और अनुशासनात्मक युक्तियाँ आदि शामिल हैं, लोग अपनी इच्छाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। नतीजतन, वे अपने दिल की गहराइयों में दमित महसूस करते हैं। दो-टूक कहें तो यह दमन इसलिए होता है कि लोग व्यथित महसूस करते हैं—कुछ लोगों को अन्याय भी महसूस होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का अर्थ है अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाना—इसका अर्थ है कि व्यक्ति विभिन्न कारणों से और विभिन्न वस्तुनिष्ठ परिवेशों और स्थितियों के प्रतिबंधों के चलते जिद्दी या स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा अनमने रहते हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय ढिलाई बरतने के तरीके ढूँढ़ते हैं। कभी-कभी कलीसिया के काम में शीघ्रता आवश्यक होती है, लेकिन वे वैसे करना चाहते हैं, जैसा वे चाहते हैं। अगर वे शारीरिक रूप से बहुत अच्छा महसूस नहीं करते, या कुछ दिनों तक उनकी मनोदशा खराब रहती है और वे उदासी महसूस करते हैं, तो वे कलीसिया का काम करने के लिए कठिनाई सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होते। वे खास तौर से आलसी और आराम-तलब हो जाते हैं। जब उनमें प्रेरणा की कमी होती है, तो उनका शरीर सुस्त हो जाता है और वे हिलने-डुलने को तैयार नहीं होते, लेकिन उन्हें अगुआओं द्वारा काट-छाँट का और अपने भाई-बहनों द्वारा आलसी कहे जाने का डर होता है, इसलिए अन्य सभी के साथ अनिच्छा से काम करने के सिवाय वे कुछ नहीं कर पाते। लेकिन वे इस बारे में बहुत अनिच्छुक, नाखुश और निरुत्सुक महसूस करेंगे। वे अपकृत, व्यथित, नाराज और थका हुआ महसूस करेंगे। वे अपनी इच्छानुसार कार्य करना चाहते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और व्यवस्थाओं से अलग होने या उनके विरुद्ध जाने का साहस नहीं करते। नतीजतन, समय के साथ उनके भीतर एक भावना उभरने लगती है—दमन। जब यह दमनात्मक भावना उनमें घर कर जाती है, तो वे धीरे-धीरे उदासीन और कमजोर दिखाई देने लगते हैं। किसी मशीन की तरह उन्हें अब इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होती कि वे क्या कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे वही करते हैं जो उनसे रोज करने के लिए कहा जाता है, और उसी तरह करते हैं जिस तरह से उन्हें करने के लिए कहा जाता है। हालाँकि सतह पर वे बिना रुके, बिना थमे, बिना अपने कर्तव्य निभाने वाले परिवेश से दूर गए अपने काम करते रहेंगे, लेकिन अपने दिल में वे दमित महसूस करेंगे और सोचेंगे कि उनका जीवन थकाऊ और शिकायतों से भरा है। उनकी सबसे बड़ी वर्तमान इच्छा यह होती है कि एक दिन वे दूसरों के द्वारा और नियंत्रित न हों, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं द्वारा और प्रतिबंधित न हों, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं से मुक्त हो जाएँ। वे जो चाहें, जब चाहें करना चाहते हैं, अगर उन्हें अच्छा लगता है तो थोड़ा काम करते हैं और अगर अच्छा नहीं लगता तो नहीं करते। वे किसी भी दोष से, कभी भी काट-छाँट या निपटान से, और किसी के निरीक्षण, निगरानी या उनका प्रभारी होने से मुक्ति के लिए लालायित रहते हैं। वे सोचते हैं कि जब वह दिन आएगा, तो वह बड़ा दिन होगा और वे बहुत स्वतंत्र और मुक्त महसूस करेंगे। हालाँकि वे अभी भी छोड़कर जाने या हार मानने को तैयार नहीं होते; वे डरते हैं कि अगर वे अपने कर्तव्य नहीं निभाते, अगर वे वाकई जो चाहते हैं वह करते हैं और एक दिन स्वतंत्र और मुक्त हो जाते हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर से भटक जाएँगे, और वे डरते हैं कि अगर परमेश्वर ने उन्हें और नहीं चाहा, तो वे कोई आशीष प्राप्त नहीं कर पाएँगे। कुछ लोग खुद को दुविधा में पाते हैं : अगर वे अपने भाई-बहनों पर भुनभुनाने की कोशिश करते हैं, तो उनके लिए बोलना मुश्किल हो जाएगा। अगर वे प्रार्थना में परमेश्वर की ओर मुड़ते हैं, तो वे अपना मुँह खोलने में असमर्थ महसूस करेंगे। अगर वे शिकायत करते हैं, तो उन्हें लगेगा कि वे खुद ही दोषी हैं। अगर वे शिकायत नहीं करते, तो वे असहज महसूस करेंगे। उन्हें आश्चर्य होता है कि उनका जीवन इतना शिकायतों से भरा हुआ, उनकी इच्छा के इतना विपरीत और इतना थका देने वाला क्यों लगता है। वे इस तरह से नहीं जीना चाहते, वे बाकी सबके साथ मिल-जुलकर नहीं रहना चाहते, वे जो चाहें, जैसे चाहें करना चाहते हैं, और उन्हें आश्चर्य होता है कि वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते। उन्हें लगता था कि वे सिर्फ शारीरिक रूप से थके हुए हैं, लेकिन अब उनके दिल भी थका हुआ महसूस करते हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि उनके साथ क्या हो रहा है। मुझे बताओ, क्या यह दमनात्मक भावनाओं के कारण नहीं है? (है।)
कुछ लोग कहते हैं, “सभी कहते हैं कि विश्वासी स्वतंत्र और मुक्त होते हैं, विश्वासी विशेष रूप से प्रसन्न, शांतिपूर्ण और आनंदमय जीवन जीते हैं। मैं दूसरों की तरह खुशी और शांति से क्यों नहीं जी पाता? मुझे कोई आनंद महसूस क्यों नहीं होता? मैं इतना दमित और थका हुआ क्यों महसूस करता हूँ? दूसरे लोग इतना सुखी जीवन कैसे जीते हैं? मेरा जीवन इतना दयनीय क्यों है?” बताओ, इसका क्या कारण है? उनका दमन किस कारण हुआ? (उनके भौतिक शरीर संतुष्ट नहीं थे और उनकी देह पीड़ित थी।) जब व्यक्ति का भौतिक शरीर पीड़ित होता है और उसे लगता है कि इसके साथ गलत किया गया है, अगर वह अपने दिलो-दिमाग में इसे स्वीकार सकता है, तो क्या उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसकी शारीरिक पीड़ा अब उतनी बड़ी नहीं रही? अगर उसे अपने दिलो-दिमाग में सुख, शांति और आनंद मिलता है, तो क्या वह अभी भी दमित महसूस करेगा? (नहीं।) इसलिए यह कहना कि दमन शारीरिक पीड़ा के कारण होता है, अमान्य है। अगर दमन अत्यधिक शारीरिक पीड़ा के कारण उत्पन्न होता है, तो क्या तुम लोग पीड़ित नहीं हो? क्या तुम लोग इसलिए दमित महसूस करते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? क्या तुम लोग इसलिए दमनात्मक भावनाओं में फँस जाते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? (नहीं।) क्या तुम लोग अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हो? (कुछ हद तक व्यस्त रहते हैं।) तुम सभी काफी व्यस्त रहते हो, सुबह से शाम तक काम करते रहते हो। सोने और खाने के अलावा तुम अपना लगभग पूरा दिन कंप्यूटर के सामने बिताते हो, अपनी आँखें और मस्तिष्क थका देते हो, अपना शरीर थका देते हो, लेकिन क्या तुम दमित महसूस करते हो? क्या यह थकान तुम में दमन लाएगी? (नहीं।) लोगों के दमन का कारण क्या होता है? यह निश्चित रूप से शारीरिक थकान के कारण नहीं होता, तो इसका कारण क्या होता है? अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है। एक और समूह ऐसे लोगों का है, जो शारीरिक सुख के पीछे नहीं भागते। वे चीजों को अपनी सनक और मनोदशा के अनुसार करना चाहते हैं। जब वे खुश होते हैं तो वे ज्यादा कष्ट सह पाते हैं, वे पूरे दिन लगातार काम कर सकते हैं, और अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उन्हें थकान महसूस होती है, तो वे कहेंगे, “मैं थका हुआ नहीं हूँ, अपना कर्तव्य करने से मैं थक कैसे सकता हूँ!” लेकिन अगर वे किसी दिन नाखुश होते हैं, तो तुम्हारे एक अतिरिक्त मिनट काम करने के लिए कहने पर ही वे नाराज हो जाएँगे, और अगर तुम उन्हें थोड़ा डाँट दो, तो वे कहेंगे, “बोलना बंद करो! मैं दमित महसूस करता हूँ। अगर तुम बोलते रहे, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं करूँगा, और यह तुम्हारी गलती होगी। अगर भविष्य में मुझे आशीष न मिले तो यह तुम्हारी वजह से होगा और इसकी सारी जिम्मेदारी तुम पर होगी!” असामान्य स्थिति में होने पर लोग अस्थिरमति हो जाते हैं। कभी-कभी वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होंगे, लेकिन कभी-कभी थोड़े से कष्ट के बारे में भी शिकायत करेंगे, यहाँ तक कि कोई छोटी-सी समस्या भी उन्हें परेशान कर देगी। जब उनकी मनोदशा खराब होती है, तो वे अपने कर्तव्य करना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, भजन गाना या सभाओं में भाग लेना और धर्मोपदेश नहीं सुनना चाहेंगे। वे बस कुछ समय के लिए अकेले रहना चाहेंगे और किसी के लिए भी उनकी मदद या समर्थन करना असंभव होगा। कुछ दिनों बाद हो सकता है वे इससे उबर जाएँ और बेहतर महसूस करें। जो भी चीज उन्हें संतुष्ट करने में विफल रहती है, वह उन्हें दमित महसूस कराती है। क्या इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी नहीं होता? (हाँ, होता है।) वे खास तौर से जिद्दी होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर वे तुरंत सो जाना चाहते हैं, तो वे ऐसा करने पर जोर देंगे। वे कहेंगे, “मैं थक गया हूँ और अभी सोना चाहता हूँ। जब मुझमें ऊर्जा नहीं रहती, तो मुझे सोना पड़ता है!” अगर कोई कहता है, “क्या तुम दस मिनट और नहीं रुक सकते? यह कार्य सच में जल्दी ही पूरा हो जाएगा, फिर हम सब आराम कर सकेंगे, यह कैसा रहेगा?” वह जवाब देगा, “नहीं, मुझे अभी सोने जाना है!” अगर कोई उन्हें मनाता है, तो वे अनिच्छा से कुछ समय के लिए रुक तो जाएँगे, पर दमित और नाराज महसूस करेंगे। वे अक्सर इन मामलों में दमित महसूस करते हैं और भाई-बहनों से मदद स्वीकारने या अगुआओं द्वारा निरीक्षण किए जाने के लिए तैयार नहीं होते। अगर वे कोई गलती करते हैं, तो वे दूसरों को अपने निपटान या काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देंगे। वे किसी भी तरह से बंधन में नहीं रहना चाहते। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मुझे खुशी मिल सके, तो मैं अपने लिए चीजें कठिन क्यों बनाऊँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों हो? लोगों को खुशी से रहना चाहिए। उन्हें इन नियमों और उन प्रणालियों पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। उनका हमेशा पालन करने से क्या लाभ? अभी इसी क्षण मैं जो चाहूँ सो करने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए।” इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी और स्वच्छंद होता है : वह खुद को किसी भी रुकावट से पीड़ित नहीं होने देता, न ही वह किसी कार्य-परिवेश में रुकावट महसूस करना चाहता है। वे परमेश्वर के घर के नियमों और सिद्धांतों का पालन नहीं करना चाहते, वे उन सिद्धांतों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते जिनका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए, यहाँ तक कि वे उस चीज का भी पालन नहीं करना चाहते जो जमीर और विवेक कहते हैं कि उन्हें करना चाहिए। वे जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, वे वही करना चाहते हैं जिससे उन्हें खुशी मिले, जो उन्हें फायदा पहुँचाए और जिसमें उन्हें आराम महसूस हो। उनका मानना होता है कि इन रुकावटों के तहत रहना उनकी इच्छा का उल्लंघन होगा, यह एक तरह का आत्म-अपमान होगा, यह अपने प्रति बहुत कठोरता होगी, और लोगों को इस तरह नहीं रहना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोगों को अपने दैहिक सुख और कामनाओं के साथ-साथ अपने आदर्शों और इच्छाओं का बेलगाम आनंद लेते हुए स्वतंत्र और मुक्त होकर जीना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने तमाम विचारों का आनंद लेना चाहिए, जो चाहे कहना चाहिए, जो चाहे करना चाहिए और जहाँ चाहे जाना चाहिए और ऐसा उन्हें बिना नतीजों या अन्य लोगों की भावनाओं की परवाह किए और खासकर बिना अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों पर विचार किए करना चाहिए, या उन कर्तव्यों पर जो विश्वासियों को निभाने चाहिए, या उन सत्य वास्तविकताओं पर जिन्हें उन्हें कायम रखना और जीना चाहिए, या उस जीवन-मार्ग पर जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए। लोगों का यह समूह हमेशा समाज में और अन्य लोगों के बीच जैसा चाहे वैसा करना चाहता है, लेकिन चाहे वे कहीं भी जाएँ, वे उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर मानवाधिकारों पर जोर देता है, लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता देता है, वह मानवता की और लोगों के साथ सहनशीलता और धैर्य बरतने की परवाह करता है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद वे अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं में मुक्त रूप से लिप्त हो पाएँगे, लेकिन चूँकि परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश और विनियम हैं, इसलिए वे अभी भी जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। इसलिए परमेश्वर के घर में शामिल होने के बाद भी उनकी इस नकारात्मक दमनात्मक भावना का समाधान नहीं हो पाता। वे किसी तरह की जिम्मेदारियाँ निभाने या कोई मिशन पूरा करने या एक सच्चा इंसान बनने के लिए नहीं जीते। परमेश्वर में उनका विश्वास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए नहीं होता। चाहे वे जिन भी लोगों के बीच हों, जिन भी परिवेशों में हों या जिस भी पेशे में हों, उनका अंतिम लक्ष्य खुद को ढूँढ़ना और तृप्त करना होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य इसी के इर्द-गिर्द घूमता है और आत्म-तृप्ति उनके जीवन भर की इच्छा और उनके अनुसरण का लक्ष्य होती है।
तुम में से कुछ भाई-बहनों की मेजबानी करने और उनके लिए भोजन पकाने के लिए जिम्मेदार हैं और उस स्थिति में तुम्हें भाई-बहनों से पूछना चाहिए कि उन्हें क्या खाना पसंद है, खुद से पूछो कि परमेश्वर के घर के क्या सिद्धांत और अपेक्षाएँ हैं, और फिर इन दो तरह के सिद्धांतों के आधार पर उनकी मेजबानी करो। अगर तुम उत्तरी चीन के लोगों की मेजबानी कर रहे हो, तो गेहूँ के व्यंजन ज्यादा बनाओ, जैसे उबले हुए बन, मंडारिन रोल और भरवाँ बन। कभी-कभी तुम चावल या चावल के नूडल्स भी बना सकते हो, जिन्हें दक्षिणी चीन के लोग खाते हैं। यह सब स्वीकार्य है। मान लो जिन लोगों की तुम मेजबानी कर रहे हो, उनमें से ज्यादातर दक्षिणी चीन से हैं। उन्हें गेहूँ के व्यंजन पसंद नहीं, उन्हें चावल पसंद हैं, और अगर वे चावल न खाएँ तो उन्हें लगता है जैसे उन्होंने खाना ही नहीं खाया। इसलिए उनकी मेजबानी करने पर तुम्हें अक्सर चावल बनाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि तुम्हारे व्यंजन दक्षिणी चीन के लोगों के स्वाद के अनुरूप हों। अगर तुम दक्षिणी और उत्तरी चीन दोनों के लोगों की मेजबानी कर रहे हो, तो तुम दो तरह के भोजन बना सकते हो और लोगों को उनकी पसंद का खाना चुनने दो, जिससे उन्हें चुनाव की स्वतंत्रता मिल सके। इस तरह से भाई-बहनों की मेजबानी करना सिद्धांतों के अनुरूप है—यह बहुत सीधा मामला है। अगर ज्यादातर लोग संतुष्ट हो जाते हैं, तो यह काफी है। तुम्हें कुछ ऐसे व्यक्तियों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं, जो असंतुष्ट रहते हैं। हालाँकि अगर मेजबानी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति सत्य नहीं समझता और सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालना नहीं जानता, और हमेशा अपनी पसंद के आधार पर कार्य करता है, जो चाहे भोजन बना लेता है, बिना यह सोचे कि लोग इसे खाकर खुश होंगे या नहीं—यह किस तरह की समस्या है? यह अत्यधिक जिद्दीपन और स्वार्थपरता है। कुछ लोग चीन के दक्षिण से हैं, और जिन लोगों की वे मेजबानी करते हैं, उनमें से ज्यादातर उत्तर से होते हैं। वे रोज चावल बनाते हैं, बिना इस बात पर विचार किए कि भाई-बहन इसके आदी हैं या नहीं, और जब तुम उनकी काट-छाँट करने की कोशिश करते हो और उन्हें कुछ सलाह देते हो, तो उनके भीतर एक निश्चित प्रकार की भावना उभरती है, और उनका दिल प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी हो जाता है और आक्रोश से भर जाता है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में खाना बनाना आसान नहीं है। इन लोगों की सेवा करना बहुत कठिन है। मैं तुम लोगों के लिए खाना बनाने के लिए सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करता हूँ, लेकिन तुम लोग फिर भी बहुत नकचढ़े रहते हो। चावल खाने में क्या बुराई है? क्या हम दक्षिणी लोग दिन में तीन बार चावल नहीं खाते? क्या यह जीने का बहुत अच्छा तरीका नहीं है? हम तुम लोगों से ज्यादा मजबूत हैं और हमारे पास ज्यादा ऊर्जा है। हमेशा नूडल्स और उबले हुए बन खाने में क्या अच्छा है? क्या उससे तुम्हारा पेट भर जाता है? मुझे नूडल्स अच्छे क्यों नहीं लगते? इन्हें खाने से मेरा पेट क्यों नहीं भरता? खैर, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। मैं समझता हूँ, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य करने के लिए मुझे इसे सहना होगा और खुद पर संयम रखना होगा। अगर मैंने खुद पर संयम न रखा, तो मुझे बदला जा सकता है या हटाया जा सकता है। तो फिर मुझे सिर्फ नूडल्स और उबले हुए बन ही बनाने होंगे!” वे रोज नाराजगी जताते हुए ऐसा करते रहते हैं और सोचते हैं, “मैं भोजन में चावल भी नहीं खा सकता। मुझे हर भोजन में खाने को सिर्फ चावल चाहिए। चावल के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। मैं चावल खाना चाहता हूँ!” हालाँकि वे अनिच्छा से रोज नूडल्स और उबले हुए बन बनाते हैं, लेकिन उनकी मनोदशा बेहद खराब रहती है। वे अत्यधिक उदास क्यों महसूस करते हैं? वह इसलिए कि वे दमित महसूस करते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे तुम लोगों की सेवा करनी है और वह खाना बनाना है जो तुम लोगों को पसंद है, न कि वह जो मैं खाना चाहता हूँ। मुझे हमेशा तुम लोगों को ही क्यों संतुष्ट करना पड़ता है, खुद को क्यों नहीं?” वे व्यथित और दमित महसूस करते हैं और उनका जीवन थका देने वाला होता है। वे कोई भी अतिरिक्त कार्य करने से इनकार कर देते हैं, और जब वे थोड़ा-सा काम करते भी हैं तो लापरवाही से करते हैं; कोई काम न करने पर उन्हें बदले जाने या हटा दिए जाने का डर रहता है। नतीजतन, एकमात्र चीज जो वे कर सकते हैं, वह है खुशी, स्वतंत्रता या मुक्ति के किसी क्षण का अनुभव किए बिना अनिच्छा और अरुचि से इस तरह से कार्य करके अपना कर्तव्य करना। लोग उनसे पूछते हैं, “भाई-बहनों की मेजबानी करने और उनके लिए भोजन पकाने के बारे में तुम कैसा महसूस करते हो?” वे जवाब देते हैं, “यह वास्तव में उतना थकाऊ नहीं है, लेकिन मैं दमित महसूस करता हूँ।” लोग कहते हैं, “तुम दमित क्यों महसूस करते हो? तुम्हारे पास चावल, आटा और सब्जियाँ हैं—तुम्हारे पास सब-कुछ है। यहाँ तक कि इन चीजों को खरीदने के लिए तुम्हें अपना पैसा भी खर्च नहीं करना है। तुम्हें बस समय-समय पर खुद को थकाना और अन्य लोगों की तुलना में थोड़ा ज्यादा काम करना है। क्या तुम्हें यही नहीं करना चाहिए? परमेश्वर में विश्वास करना और अपना कर्तव्य करना आनंददायक चीजें हैं। ये स्वैच्छिक होती हैं। तो तुम दमित क्यों महसूस करते हो?” वे उत्तर देते हैं, “हालाँकि मैं ये चीजें स्वेच्छा से ही करता हूँ, पर मैं लगातार चावल नहीं खा सकता और अपनी पसंद की और खुद को स्वादिष्ट लगने वाली चीजें खाते हुए जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। अपने लिए कुछ स्वादिष्ट बनाने की कोशिश करता पाए जाने पर मुझे आलोचना का डर रहता है, इसलिए मैं दमित महसूस करता हूँ और कभी खुश नहीं होता।” इस तरह के लोग दमनात्मक भावनाओं के बीच रहते हैं, क्योंकि वे भोजन की अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाते।
कुछ लोग कलीसिया के खेतों में सब्जियाँ उगाते हैं। उन्हें ऐसा कैसे करना चाहिए? उन्हें ऋतुओं, जलवायु, तापमान, और जिन लोगों को खिलाना है उनकी संख्या के आधार पर सब्जियों की उपयुक्त फसल बोनी चाहिए। विभिन्न सब्जियों की खेती के संबंध में परमेश्वर के घर में नियम हैं, जो कई लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। कुछ सब्जियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें लोग रोजाना खाना पसंद करते हैं और कुछ सब्जियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें खाने में लोगों को मजा नहीं आता। कुछ की मात्रा नियंत्रित होती है और अन्य का सेवन मौसम के अनुसार किया जाता है। इस तरह लोगों के खा सकने की मात्रा सीमित होती है। कुछ लोगों ने सोचा, “ओह, हम कभी इन सब्जियों को खाने का पूरा आनंद नहीं ले पाते। हम थोड़ी-सी ही खाते हैं, और वे चली जाती हैं। वे सबके लिए पर्याप्त नहीं होतीं! चेरी टमाटर की तरह हमें हर बार सिर्फ थोड़ी-सी, मुट्ठी भर ही सब्जियाँ मिलती हैं, और इससे पहले कि हम उनका स्वाद चख सकें, वे खत्म हो जाती हैं। अच्छा हो अगर हम उन्हें कटोरी भरकर खा सकें!” तो जिस जगह तकरीबन दस लोग रहते थे, वहाँ उन्होंने चेरी टमाटर के दो सौ पौधे लगा दिए। वे सुबह उठते ही उन्हें कटोरी भरकर खाना शुरू कर देते और रात को सोने तक खाते रहते थे। कटोरी भरकर चेरी टमाटर और आम टमाटर खाना और टोकरी भर खीरे खाना उनके लिए बहुत रोमांचक होता था। उन्हें लगा कि वे स्वर्गिक, आनंदमय दिन थे। इस तरह के लोग अपने क्रियाकलापों में परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं कर सकते और वे विज्ञान के सिद्धांतों का भी पालन नहीं कर सकते। वे किसी की भी बात सुनने से इनकार कर देते हैं, अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं, हर चीज में सिर्फ अपना ही ध्यान रखते हैं और जैसा चाहे वैसा करते हैं। नतीजतन, परमेश्वर के घर के नियंत्रण, निरीक्षण और प्रबंधन के तहत इन लोगों पर, जो मुँह भरकर फल खाना चाहते थे, प्रतिबंध लगा दिया गया, और कुछ का निपटान और काट-छाँट की गई। मुझे बताओ, तुम लोगों को क्या लगता है कि वे अब कैसा महसूस कर रहे हैं? क्या वे बेहद निराश महसूस नहीं करते? क्या उन्हें नहीं लगता कि दुनिया बेरंग है और परमेश्वर के घर में कोई प्रेम या गर्मजोशी नहीं है? क्या वे बेहद दमित महसूस नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) वे लगातार सोचते हैं, “जैसा मैं चाहता हूँ वैसा करने में क्या बुराई है? क्या मैं कुछ सब्जियाँ खाने का भी आनंद नहीं ले सकता? वे मुझे कटोरी भर चेरी टमाटर तक नहीं खाने देंगे। कितने कंजूस हैं! परमेश्वर का घर लोगों को आजादी नहीं देता। अगर हम चेरी टमाटर खाना चाहते हैं, तो वे हमें उन लोगों की संख्या के आधार पर उन्हें उगाने के लिए कहते हैं, जिन्हें खिलाने की जरूरत है। मेरे दो-तीन सौ पौधे लगाने में क्या दिक्कत है? अगर हम उन सबको न खा पाए, तो जानवरों को ही खिला देंगे।” क्या तुम्हारे लिए कटोरा भर खाना उचित है? क्या तुम्हारे उपभोग पर संयम और सीमा नहीं होनी चाहिए? परमेश्वर द्वारा सृजित विभिन्न खाद्य पदार्थ जिन्हें लोग खाते हैं, उनके खाने का अनुपात उनकी उपज और मौसमी उपलब्धता पर आधारित होना चाहिए। मुख्य खाद्य पदार्थ वे होने चाहिए जिनकी ज्यादा उपज होती है, जबकि कम उपज, छोटी ऋतुओं वाले, कम विकास-अवधि वाले या प्रतिबंधित उपज वाले खाद्य पदार्थों का कम मात्रा में सेवन किया जाना चाहिए—कुछ विशिष्ट स्थानों में तो लोग उन्हें बिल्कुल भी नहीं खाते, और इससे उन्हें कोई कमी नहीं लगती। यह उचित है। लोग हमेशा इच्छाएँ पालते हैं और लगातार अपनी भूख मिटाना चाहते हैं। क्या यह उचित है? हमेशा इच्छाएँ और भूख पालना उचित नहीं होता। परमेश्वर के घर के अपने नियम हैं। परमेश्वर के घर में कार्य के सभी पहलुओं में विनियम, प्रबंधन और उचित प्रणालियाँ हैं। अगर तुम परमेश्वर के घर के सदस्य बनना चाहते हो, तो तुम्हें इसके विनियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। तुम्हें ढीठ नहीं होना चाहिए, बल्कि समर्पित होना सीखना चाहिए और इस तरीके से कार्य करना चाहिए जो सभी को संतोषजनक लगे। यह जमीर और विवेक के मानकों के अनुरूप होता है। परमेश्वर के घर के कोई भी विनियम किसी एक व्यक्ति के लाभ के लिए स्थापित नहीं किए गए हैं, वे परमेश्वर के घर में सभी लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं। वे परमेश्वर के घर के कार्य और हितों की रक्षा के लिए हैं। ये नियम और प्रणालियाँ उचित हैं और अगर लोगों में जमीर और विवेक है तो उन्हें उनका पालन करना चाहिए। इसलिए चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, एक संदर्भ में तुम्हें उसे परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रणालियों के अनुसार करना चाहिए, और दूसरे संदर्भ में लगातार अपने व्यक्तिगत हितों और परिप्रेक्ष्य के आधार पर कार्य करने के बजाय यह सब बनाए रखना तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व भी है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम परमेश्वर के घर में रहने और काम करने पर विशेष रूप से दमित महसूस करते हो, तो यह परमेश्वर के घर के नियमों, प्रणालियों या प्रबंधकीय तरीकों की किसी समस्या के कारण नहीं है, बल्कि यह तुम्हारी व्यक्तिगत समस्या है। मान लो, तुम हमेशा आत्म-तृप्ति पाना और परमेश्वर के घर में अपनी इच्छाएँ पूरी करना चाहते हो, और हमेशा बिना किसी शांति या खुशी के बेहद दमित, कैद में और बँधा हुआ महसूस करते हो। मान लो, तुम लगातार असहज और अपकृत महसूस करते हो, किसी भी मामले में जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते, जैसा चाहे वैसा नहीं खा या पहन सकते, तुम्हें फैशनेबल या आकर्षक तरीके से कपड़े नहीं पहनने दिए जाते, और इन चीजों के कारण तुम रोज दुखी और असहज महसूस करते हो। मान लो, तुम्हें अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत करना हमेशा असहज लगता है, और तुम सोचते हो, “ये लोग हमेशा मेरे साथ सत्य के बारे में संगति करते हैं, यह बहुत परेशानी भरा है! मैं इस तरह से आचरण नहीं करना चाहता। मैं बस खुशी, संतुष्टि और आजादी से जीना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि मैं उतना खुश और स्वतंत्र नहीं हूँ, जितना मैंने परमेश्वर में विश्वास करते हुए होने की सोची थी। मैं किसी के द्वारा बाध्य नहीं होना चाहता। हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो मुझे प्रबंधित और बाधित करते हैं, और मैं दमित महसूस करता हूँ।” इस तरह के लोग ऐसा जीवन-परिवेश नापसंद करते हैं और उसके प्रति घृणा महसूस करते हैं। लेकिन आशीष प्राप्त करने के लिए उनके पास इसके लिए प्रतिबद्ध होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। उनके पास अपनी निराशा व्यक्त करने के लिए कोई जगह नहीं होती, वे चिल्लाने की हिम्मत नहीं करते और अकसर दमित महसूस करते हैं। ऐसे लोगों से निपटने का एकमात्र समाधान, सबसे अच्छा तरीका उन्हें यह बताना है : “तुम जा सकते हो। जाओ और जो चाहो खाओ, जो कपड़े पहनना चाहो पहनो, जो जीवन जीना चाहो जिओ, जो चीजें करना चाहो करो, अपना मनचाहा करियर बनाओ और जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करना चाहो करो। परमेश्वर का घर तुम्हें रोक नहीं रहा। तुम्हारे हाथ-पैर मुक्त और स्वतंत्र हैं, साथ ही तुम्हारा हृदय भी। तुम किसी से बँधे नहीं हो। एक निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर के प्रति प्रतिबद्ध होने के अलावा किसी ने भी यह कहते हुए तुम पर ये नियम नहीं थोपे हैं कि तुम्हें परमेश्वर के घर में रहना है, रहना चाहिए और रहना पड़ेगा, वरना परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ कुछ कर देगा।” मैं तुम्हें सच बता रहा हूँ, परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ कुछ नहीं करेगा। अगर तुम जाना चाहते हो, तो किसी भी समय जा सकते हो। बस परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें कलीसिया को लौटा दो और तुम्हारे पास जो भी काम है, उसे सौंप दो। तुम जब चाहो जा सकते हो। परमेश्वर का घर तुम पर प्रतिबंध नहीं लगाता, यह तुम्हारी कैद या जेल नहीं है। परमेश्वर का घर एक स्वतंत्र स्थान है और उसके द्वार पूरी तरह खुले हैं। अगर तुम दमित महसूस करते हो, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते, और इसका मतलब यह है कि यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। यह वह सुखद निवास नहीं है जिसे तुम पाना चाहते हो, न ही यह वह जगह है जहाँ तुम्हें रहना चाहिए। अगर तुम ऐसे तरीके से रह रहे हो जो तुम्हारी इच्छा के बहुत विरुद्ध है, तो तुम्हें चले जाना चाहिए। क्या तुम समझ रहे हो? परमेश्वर का घर कभी छद्म-विश्वासियों या सत्य का अनुसरण न करने वालों को मजबूर नहीं करता। अगर तुम व्यवसाय करना, अमीर बनना, करियर बनाना या दुनिया में जाकर नाम कमाना चाहते हो, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत लक्ष्य है, और तुम्हें धर्मनिरपेक्ष दुनिया में लौट जाना चाहिए। परमेश्वर का घर कभी लोगों की स्वतंत्रता में आड़े नहीं आता। परमेश्वर के घर के दरवाजे खुले हैं। छद्म-विश्वासी और सत्य का अनुसरण न करने वाले किसी भी समय परमेश्वर का घर छोड़कर जा सकते हैं।
कुछ लोग अपने कर्तव्य करने और सत्य के बारे में संगति करने के लिए तैयार ही नहीं होते। उन्होंने कलीसियाई जीवन के साथ सामंजस्य नहीं बैठाया है, वे इससे सामंजस्य बैठाने में असमर्थ हैं और हमेशा खास तौर से दुखी और असहाय महसूस करते रहते हैं। खैर मैं उन लोगों से कहूँगा : तुम्हें जल्दी से चले जाना चाहिए। अपने लक्ष्य और दिशा तलाशने के लिए धर्मनिरपेक्ष दुनिया में जाओ और वह जीवन जिओ, जो तुम्हें जीना चाहिए। परमेश्वर का घर कभी किसी पर दबाव नहीं डालता। कलीसिया का कोई भी नियम, प्रणाली या प्रशासनिक आदेश एक व्यक्ति के रूप में तुम पर लक्षित नहीं है। अगर तुम उन्हें कठिन पाते हो, उनका पालन नहीं कर सकते, और खास तौर से दुखी और दमित महसूस करते हो, तो तुम छोड़कर जाने का चुनाव कर सकते हो। जो लोग सत्य स्वीकारने और सिद्धांत कायम रखने में सक्षम हैं, वे ही कलीसिया में बने रहने के लिए उपयुक्त हैं। बेशक अगर तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हो, तो क्या तुम्हारे लिए कोई और उपयुक्त जगह होगी? हाँ, दुनिया बहुत बड़ी है, और तुम्हारे लिए कोई उपयुक्त जगह होगी। संक्षेप में, अगर तुम यहाँ दमित महसूस करते हो, अगर तुम मुक्ति नहीं पा सकते, अगर तुम बार-बार अपना गुस्सा जाहिर करना चाहते हो और तुम्हारी प्रकृति के फूट पड़ने की आशंका हमेशा रहती है, तो तुम खतरे में हो और परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हो। दुनिया बहुत बड़ी है, और तुम्हारे लिए हमेशा कोई न कोई उपयुक्त जगह होगी। उसे खुद आराम से ढूँढ़ो। क्या यह इस मामले को सँभालने का उचित तरीका नहीं है? क्या यह तर्कसंगत नहीं है? (हाँ, है।) अगर ये लोग इतने असहज महसूस करते हैं, और तुम अभी भी इन्हें यहाँ रखना चाहते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? उन्हें जाने दो और अपने सपने साकार करने में उनकी सफलता की कामना करो, ठीक है? उनके सपने क्या हैं? (कटोरी भर-भरकर चेरी टमाटर खाना।) वे पूरे साल हर भोजन में चावल और मछली भी खाना चाहते हैं। उनके और क्या सपने हैं? रोज स्वाभाविक रूप से जागना, जब चाहें तब काम करना, और जब वे काम न करना चाहें तो किसी के द्वारा उनका प्रबंधन या निरीक्षण न किया जाना। क्या यही उनका सपना नहीं है? (हाँ, यही है।) कितना भव्य सपना है! कितना ऊँचा है! मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों के पास अच्छी संभावनाएँ हैं? क्या वे अपना उचित कार्य करते हैं? (नहीं।) संक्षेप में कहें तो इस तरह के लोग हमेशा दमित महसूस करते हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो उनकी इच्छा दैहिक सुख भोगने और अपनी इच्छाएँ पूरी करने की होती है। वे बहुत स्वार्थी हैं, वे सब-कुछ अपनी सनकों के अनुसार और जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, नियमों की अवहेलना करते हैं और मामले सिद्धांतों के अनुसार नहीं सँभालते, बस अपनी भावनाओं, प्राथमिकताओं और इच्छाओं के आधार पर चीजें और अपने हितों के अनुसार कार्य करते हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव होता है और ऐसे लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। जो लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते, वे जो कुछ भी करते हैं, जहाँ भी जाते हैं, उसमें दमित महसूस करते हैं। यहाँ तक कि अगर वे अकेले भी रह रहे होते, तो भी वे दमित महसूस करते। अच्छे शब्दों में कहें तो ये लोग होनहार व्यक्ति नहीं होते और अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। ज्यादा सटीक रूप से कहें तो उनकी मानवता असामान्य होती है और वे थोड़े सीधे-सादे होते हैं। अपना उचित कार्य करने वाले लोग कैसे होते हैं? वे भोजन, कपड़े, मकान और परिवहन जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों को सरल तरीके से लेने वाले लोग होते हैं। अगर ये चीजें सामान्य मानक तक होती हैं, तो उनके लिए यही पर्याप्त होता है। वे जीवन में अपने मार्ग, मनुष्यों के रूप में अपने मिशन, अपने जीवन-दृष्टिकोण और मूल्यों के बारे में ज्यादा परवाह करते हैं। मंदबुद्धि लोग पूरे दिन किस बारे में सोचा करते हैं? वे उचित मामलों पर विचार न करके हमेशा इस बारे में सोचा करते हैं कि कैसे काम में ढिलाई बरतें, कैसे चालें चलें ताकि जिम्मेदारी से बच सकें, कैसे अच्छा खाएँ और मौज-मस्ती करें, कैसे शारीरिक आराम और सुख से रहें। इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करने की व्यवस्था और परिवेश में दमित महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर में लोगों से अपने कर्तव्यों से संबंधित कुछ सामान्य और व्यावसायिक ज्ञान सीखने की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे उन्हें बेहतर ढंग से निभा सकें। परमेश्वर के घर में लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे बार-बार परमेश्वर के वचनों को खाएँ-पिएँ ताकि वे सत्य की बेहतर समझ प्राप्त कर सकें, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें और जान सकें कि प्रत्येक कार्य के लिए सिद्धांत क्या हैं। ये सभी चीजें जिनके बारे में परमेश्वर का घर संगति करता है और जिनका उल्लेख करता है, उन विषयों, व्यावहारिक मामलों आदि से संबंधित होते हैं, जो लोगों के जीवन और उनके द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के दायरे में आती हैं, और वे लोगों को अपना उचित कार्य करने और सही मार्ग पर चलने में मदद करने के लिए होती हैं। ये व्यक्ति जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते और मनमर्जी करते हैं, ये उचित चीजें नहीं करना चाहते। जो कुछ भी वे चाहते हैं, उसे करके वे जो अंतिम लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, वह है शारीरिक सुख, आनंद और आराम, और किसी भी तरह से प्रतिबंधित या अपकृत न होना। वे जो चाहते हैं यह उसे पर्याप्त रूप से खा पाने और जैसा चाहे वैसा कर पाने के लिए होता है। यह उनकी मानवता की गुणवत्ता और उनके आंतरिक लक्ष्यों के कारण होता है कि वे अक्सर दमित महसूस करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति कर लो, वे नहीं बदलेंगे और उनके दमन का समाधान नहीं होगा। वे बस इसी तरह के लोग होते हैं; वे बस ऐसी चीजें हैं जो अपना उचित कार्य नहीं करतीं। हालाँकि सतही तौर पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने कोई बड़ी बुराई की है या वे बुरे लोग हैं, और हालाँकि वे सिर्फ सिद्धांतों और विनियमों को कायम रखने में विफल रहे प्रतीत होते हैं, पर वास्तव में उनका प्रकृति सार यह होता है कि वे अपना उचित कार्य नहीं करते या सही मार्ग पर नहीं चलते। इस तरह के लोगों में सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का अभाव होता है और वे सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता प्राप्त नहीं कर सकते। वे उन लक्ष्यों के बारे में नहीं सोचते, उन पर विचार नहीं करते या उनका अनुसरण नहीं करते, जिनका सामान्य मानवता वाले लोगों को अनुसरण करना चाहिए, या उन जीवन रवैयों और अस्तित्व के उन तरीकों के बारे में जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को अपनाना चाहिए। उनका दिमाग रोजाना इस विचार से भरा रहता है कि शारीरिक आराम और आनंद कैसे पाया जाए। लेकिन कलीसियाई जीवन-परिवेश में वे अपनी शारीरिक प्राथमिकताएँ पूरी नहीं कर पाते, इसलिए वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनकी ये भावनाएँ इसी तरह उत्पन्न होती हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों का जीवन थका देने वाला नहीं होता? (होता है।) क्या उनका जीवन दयनीय होता है? (नहीं, वह दयनीय नहीं होता।) यह सही है, वह दयनीय नहीं होता। हलके ढंग से कहें तो ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। समाज में कौन लोग होते हैं, जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते? वे आलसी, मूर्ख, कामचोर, गुंडे, बदमाश और आवारा—ऐसे ही लोग होते हैं। वे कोई नए कौशल या क्षमताएँ नहीं सीखना चाहते, न ही वे गंभीर करियर बनाना या नौकरी ढूँढ़ना चाहते हैं ताकि अपना गुजारा कर सकें। वे समाज के आलसी और आवारा लोग हैं। वे कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, और फिर बिना कुछ दिए कुछ पाना चाहते हैं, और अपने हिस्से के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। वे अवसरवादी हैं। ये अवसरवादी कभी अपने कर्तव्य करने को तैयार नहीं होते। अगर चीजें थोड़ी-सी भी उनके अनुसार नहीं होतीं, तो वे दमित महसूस करते हैं। वे हमेशा स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, वे किसी भी तरह का काम नहीं करना चाहते, और फिर भी वे अच्छा खाना और अच्छे कपड़े पहनना चाहते हैं, और जो चाहे खाना और जब चाहे सोना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब ऐसा दिन आएगा, तो वह निश्चित ही अद्भुत होगा। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं सहना चाहते और भोग-विलास के जीवन की कामना करते हैं। इन लोगों को जीना भी थका देने वाला लगता है; वे नकारात्मक भावनाओं से बँधे होते हैं। वे अकसर थका हुआ और भ्रमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। वे अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहते या अपने उचित मामले नहीं सँभालना चाहते। वे किसी नौकरी पर टिके रहना और उसे अपना पेशा और कर्तव्य, अपना दायित्व और जिम्मेदारी मानकर शुरू से आखिर तक लगातार करते रहना नहीं चाहते; वे उसे खत्म करके परिणाम प्राप्त करना नहीं चाहते, न ही उसे यथासंभव सर्वोत्तम मानक के अनुसार करना चाहते हैं। उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। वे बस बेमन से कार्य करना चाहते हैं और अपने कर्तव्य को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब उन्हें थोड़ा दबाव या किसी तरह के नियंत्रण का सामना करना पड़ता है, या जब उन्हें थोड़ा ऊँचे स्तर पर रखा जाता है या थोड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनके भीतर ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें जीना थका देने वाला लगता है और वे दुखी रहते हैं। जीना थका देने वाला लगने का एक बुनियादी कारण यह है कि ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है। उनकी समझ क्षीण होती है, वे पूरा दिन कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, सपनों में जीते हैं, दिवा-स्वप्न देखते हैं, हमेशा अत्यधिक अजीबोगरीब चीजों की कल्पना करते हैं। यही कारण है कि उनके दमन का समाधान करना बहुत कठिन होता है। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं। एकमात्र चीज जो हम कर सकते हैं, वह यह है कि उन्हें परमेश्वर का घर छोड़ने, दुनिया में लौटने और आराम और सुख की अपनी जगह खोजने के लिए कह दें।
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