सत्य का अनुसरण कैसे करें (5) भाग एक

इस अवधि में हमने सत्य का अनुसरण कैसे करें, इसके पहले पहलू पर संगति की, जो त्यागने के बारे में है। हमने मुख्य रूप से इस विषय के पहले भाग के बारे में बात की—विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ त्यागना। हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ त्यागने के विषय पर कितनी बार चर्चा की है? (चार बार।) क्या तुम लोगों के पास नकारात्मक भावनाएँ त्यागने का कोई मार्ग है? जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं पर हमने संगति की और सतही तौर पर उनका विश्लेषण किया, वे भावनाओं या विचारों के प्रकार प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में मूलभूत रूप में वे जीवन और मूल्य-प्रणालियों पर लोगों के गलत दृष्टिकोणों और उनके त्रुटिपूर्ण विचारों और नजरियों से उत्पन्न होते हैं। बेशक लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के उद्भव का कारण बनते हैं, जिनके परिणामस्वरूप विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ जन्म लेती हैं। इसलिए विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के उद्भव की अपनी उत्पत्ति और कारण होते हैं। जिन नकारात्मक भावनाओं पर हमने चर्चा की है, वे क्षणिक या आवेगपूर्ण विचार नहीं हैं, न ही वे इन शब्दों के सरल अर्थ में विचार और दृष्टिकोण या क्षणिक मनोदशाएँ हैं। इन भावनाओं में लोगों के जीवन के तरीके, वे जो अभ्यास करते हैं, और उनके विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ उन परिप्रेक्ष्यों और रवैयों को भी प्रभावित करने की क्षमता होती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों और दिमागों में गहरे छिपी होती हैं, वे उनके दैनिक जीवन में लगातार उनके साथ रहती हैं और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते समय उनके परिप्रेक्ष्यों और रुख को प्रभावित करती हैं। इन नकारात्मक भावनाओं का लोगों के दैनिक जीवन, आचरण और जीवन में उनके द्वारा चुने जाने वाले मार्गों पर अहम नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे अदृश्य रूप से लोगों के लिए विभिन्न प्रतिकूल परिणाम देती हैं। इसलिए लोगों को सत्य के अनुसरण के माध्यम से इन नकारात्मक भावनाओं को धीरे-धीरे समझना और हल करना चाहिए और धीरे-धीरे इन्हें त्याग देना चाहिए। इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागना किसी भौतिक वस्तु को त्यागने जैसा नहीं है, जिसके बारे में तुम अब नहीं सोचते और जो बाद में फिर तुम पर हावी नहीं होती; यह इन शब्दों के सरल अर्थ में किसी चीज को उठाकर त्याग देने का मामला नहीं है। तो इस संदर्भ में “त्यागने” का क्या मतलब है? मुख्य रूप से इसका मतलब यह है कि तुम्हें अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को और उन गलत परिप्रेक्ष्यों और रवैयों को उजागर कर उनका गहन विश्लेषण करना चाहिए, जिनसे तुम लोगों और चीजों को देखते हो, जब तक कि तुम सत्य को समझ नहीं लेते। तभी तुम सच में अपनी नकारात्मक भावनाओं को त्यागने में सक्षम होगे। चाहे तुम में जो भी नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हों, तुम्हें प्रासंगिक सत्य खोजकर उनका समाधान करना चाहिए, जब तक कि तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और मार्ग न हों। केवल तभी तुम पीड़ा, बंधन और नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त हो सकते हो, अंततः सत्य के और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए गए परिवेशों के प्रति समर्पित होने की क्षमता प्राप्त कर सकते हो और इस तरह अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रह सकते हो। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम अपनी नकारात्मक भावनाओं और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को पूरी तरह से त्याग सकते हो। उन्हें पूरी तरह से त्यागने के लिए इतनी जटिल प्रक्रिया क्यों आवश्यक है? इसका कारण यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ मूर्त वस्तुएँ नहीं हैं। वे ऐसी भावनाएँ नहीं हैं, जो अस्थायी रूप से व्यक्ति के दिमाग पर कब्जा करती या उसे पीड़ित करती हैं। वे स्थापित, पहले से मौजूद, यहाँ तक कि गहराई से जड़ें जमाए हुए विचार और दृष्टिकोण हैं, जो लोगों के भीतर आकार लेते हैं, और लोगों पर उनका प्रभाव विशेष रूप से गंभीर होता है। इसलिए इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के लिए विभिन्न तरीके और कदम आवश्यक होते हैं। त्यागने की यह प्रक्रिया ही सत्य का अनुसरण करने की भी प्रक्रिया होती है, है न? (हाँ, है।) इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने की प्रक्रिया वाकई सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया है। इसलिए नकारात्मक भावनाओं का सामना करने का एकमात्र तरीका सत्य खोजकर परमेश्वर के वचनों के आधार पर उनका समाधान करना है। क्या तुम इस कथन का अर्थ समझते हो? (हाँ।)

जब हमने पहली बार नकारात्मक भावनाओं पर संगति करनी शुरू की, तो जिन विभिन्न सत्यों पर हमने पहले संगति की थी, उन्होंने आम तौर पर इस विषय को नहीं छुआ था, इसलिए यह तुम सभी लोगों के लिए एक बहुत ही अनजाना विषय था। लोगों को लगता है कि नकारात्मक भावनाएँ होना सामान्य बात है और वे उन्हें भ्रष्ट स्वभावों से अलग समझते हैं; वे मानते हैं कि नकारात्मक भावनाएँ भ्रष्ट स्वभाव नहीं होते और उनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। यह गलत है। कुछ लोगों का मानना है कि नकारात्मक भावनाएँ केवल अस्थायी विचार या भाव हैं जिनका लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और इसलिए उनका मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे उन्हें त्यागते हैं या नहीं। अब संगति और गहन विश्लेषण के कई सत्रों के माध्यम से यह साबित हो गया है कि नकारात्मक भावनाओं का लोगों पर बेशक वास्तविक प्रभाव पड़ता है। अतीत में हम हमेशा भ्रष्ट स्वभावों को समझने और उनका विश्लेषण करने को लेकर संगति करते थे, और भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते समय हम नकारात्मक भावनाओं को केवल थोड़ा-सा छूते थे, लेकिन हम उन पर ज्यादा विस्तार से संगति नहीं करते थे। अब कई ठोस चर्चाओं के बाद मुझे आशा है कि तुम लोग इस विषय पर ध्यान केंद्रित कर सकते हो और अपने दैनिक जीवन में इन नकारात्मक भावनाओं का गहन विश्लेषण कर उन्हें समझना सीखना शुरू कर सकते हो। जब तुम उनके सार को समझ जाते हो, तो तुम उन्हें अस्वीकार कर उनके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो और धीरे-धीरे उन्हें त्याग सकते हो। केवल इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बाद ही तुम सत्य का अनुसरण करने के सही रास्ते पर आ सकते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो। ये वे कदम हैं जो तुम्हें उठाने ही चाहिए, क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) हालाँकि जब लोगों के जीवन, अस्तित्व और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों की बात आती है, तो हो सकता है कि नकारात्मक भावनाएँ लोगों पर उसी हद तक हावी न हों और उन्हें उसी हद तक नियंत्रित न करें, जिस हद तक भ्रष्ट स्वभाव करते हैं, ये नकारात्मक भावनाएँ अपरिहार्य भी होती हैं। कुछ खास स्थितियों में और कुछ हद तक जब लोगों के विचारों को बाँधने और उनके द्वारा सत्य की स्वीकार्यता को प्रभावित करने की और वे सही मार्ग पर चलते हैं या नहीं, इसकी बात आती है, तो उनके नकारात्मक प्रभाव भ्रष्ट स्वभावों के नकारात्मक प्रभावों से कम उल्लेखनीय नहीं होते। तुम लोग धीरे-धीरे अपने भविष्य के अनुसरणों, अनुभव और अभ्यास में इसे समझना शुरू कर दोगे। फिलहाल चूँकि यह विषय अभी-अभी तुम्हारे सामने आया है, इसलिए तुम में से कुछ लोगों को इसका कोई भान या ज्ञान नहीं होगा, और इसकी समझ तो बिल्कुल भी नहीं होगी। जब तुम भविष्य में इस विषयवस्तु का अनुभव करोगे, तो महसूस करोगे कि नकारात्मक भावनाएँ उतनी सरल नहीं होतीं, जितनी सरल लगती हैं। वे लोगों के विचारों, उनके दिल की गहराइयों, यहाँ तक कि उनके अवचेतन में भी एक महत्वपूर्ण स्थान और जगह रखती हैं। यह कहा जा सकता है कि ये नकारात्मक भावनाएँ काफी हद तक व्यक्तियों को अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य करने के लिए उकसाती और विवश करती हैं और वे लोगों पर भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण और बंधन को उकसाती और विवश करती हैं। जब बात लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने की आती है, तो वे लोगों को हठपूर्वक अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने पर मजबूर कर देती हैं, इसलिए तुम्हें इन नकारात्मक भावनाओं को कम नहीं आँकना चाहिए। वास्तव में एक संदर्भ में नकारात्मक भावनाओं के भीतर कई नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण छिपे होते हैं, और दूसरे संदर्भ में लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के भीतर अलग-अलग मात्रा में विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ छिपी होती हैं। संक्षेप में, ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों पर कब्जा कर लेती हैं, और उनका सार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के समान ही होता है। वे दोनों नकारात्मकता के पहलू हैं और वे नकारात्मक चीजें हैं। यहाँ “नकारात्मक चीजों” का क्या अर्थ है? वे किस बारे में बताती हैं? एक पहलू यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के जीवन-प्रवेश में सकारात्मक भूमिका नहीं निभातीं। वे परमेश्वर के सामने आने, सक्रिय रूप से उसके इरादे खोजने और फिर उसकी आज्ञाकारिता हासिल करने में तुम्हारा मार्गदर्शन या तुम्हारी सहायता नहीं कर सकतीं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भीतर छिपी होती हैं, तो उनके दिल परमेश्वर से दूर होते हैं, वे उससे सावधान रहते और बचते हैं, यहाँ तक कि वे गुप्त रूप से, सूक्ष्मता से और अनजाने ही परमेश्वर पर संदेह कर सकते हैं, उसे नकार सकते हैं और उस पर निर्णय भी सुना सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से क्या ये नकारात्मक भावनाएँ सकारात्मक चीजें हैं? (नहीं, वे सकारात्मक चीजें नहीं हैं।) यह एक पहलू है। दूसरे पहलू में ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों को सत्य के प्रति समर्पित होने के लिए परमेश्वर के समक्ष नहीं ले जातीं। ये लोगों को उन मार्गों पर और उन लक्ष्यों और दिशाओं की ओर ले जाती हैं, जो सत्य का खंडन और विरोध करते हैं। यह निर्विवाद है। ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के भीतर जो कार्य करती हैं, वह है उनसे अपनी और अपने दैहिक हितों की रक्षा करवाना और अपना घमंड, गर्व और हैसियत कायम रखवाना। वे लगातार तुम्हें बेबस करती और बाँधती हैं, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को सुनने, एक ईमानदार व्यक्ति बनने और सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वे तुम्हें विश्वास दिला देती हैं कि अगर तुम सत्य का अभ्यास करोगे तो नुकसान में रहोगे, कि तुम अपनी इज्जत और हैसियत खो दोगे, दूसरे तुम्हारा उपहास उड़ाएँगे और दुनिया के सामने तुम्हारा असली व्यक्तित्व उजागर हो जाएगा। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों को नियंत्रित करती हैं, उनके विचारों पर हावी रहती हैं और उन्हें सिर्फ इन नकारात्मक चीजों के बारे में ही सोचने पर मजबूर कर देती हैं। अब क्या इन नकारात्मक चीजों का सार सत्य के विपरीत है? (हाँ।) इसलिए जहाँ नकारात्मक भावनाएँ तुम्हें लगातार इन चीजों की याद दिलाती हैं, वहीं वे तुम्हें सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने से लगातार रोकती भी हैं। वे सत्य के तुम्हारे अनुसरण में दीवारों की तरह और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की दिशा में तुम्हारे मार्ग में रुकावटों की तरह काम करती हैं। जब भी तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, ईमानदारी से बोलना चाहते हो, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहते हो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहते हो या ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहते हो, कीमत चुकाना चाहते हो और परमेश्वर के प्रति अपनी वफादारी दिखाना चाहते हो, तभी ये नकारात्मक भावनाएँ तुरंत फूट पड़ती हैं और तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक देती हैं। वे लगातार तुम्हारे विचारों में उभरकर और तुम्हारे दिमाग में कौंधकर तुम्हें बताती हैं कि इस तरह से कार्य करने पर तुम क्या खो दोगे, तुम्हारा अंत क्या होगा, परिणाम क्या होंगे और तुम क्या हासिल कर पाओगे। वे तुम्हें बार-बार याद दिलाती और चेतावनी देती हैं, तुम्हें सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से रोकती हैं। इसके बजाय वे तुम्हें अपने बारे में सोचने, अपने हितों पर विचार करने को मजबूर करती हैं, और नतीजतन, तुम सत्य का अभ्यास करने या आसानी से परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ हो जाते हो। पल भर में तुम्हारे विचार इन नकारात्मक भावनाओं से बाधित और नियंत्रित हो जाते हैं। हालाँकि तुम पहले सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के इच्छुक होते हो और उसे संतुष्ट करना चाहते हो, जब तुम्हारे भीतर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तो तुम अनजाने ही उनका अनुसरण करते हो और उनके द्वारा नियंत्रित हो जाते हो। वे तुम्हारा मुँह बंद कर देती हैं, तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देती हैं, और तुम्हें वह करने से रोकती हैं जो तुम्हें करना चाहिए और वे शब्द बोलने से रोक देती हैं जो तुम्हें बोलने चाहिए। इसके बजाय तुम झूठे, भ्रामक और आलोचनात्मक शब्द बोल देते हो और ऐसे कार्यों में संलग्न हो जाते हो, जो सत्य का उल्लंघन करते हैं। तुम्हारा हृदय तुरंत भावहीन हो जाता है और मुसीबत में फँस जाता है। तुम्हारे मूल विचार और योजनाएँ अच्छी हैं—तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपनी निष्ठा अर्पित करना चाहते हो और तुम में सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा, आकांक्षा और इच्छाशक्ति है। लेकिन नाजुक क्षणों में ये नकारात्मक भावनाएँ तुम पर नियंत्रण कर लेती हैं। तुम में उनके खिलाफ विद्रोह करने या उन्हें अस्वीकारने की क्षमता नहीं होती, और अंत में तुम सिर्फ इन नकारात्मक भावनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर सकते हो। जब नकारात्मक भावनाएँ लोगों को सताती और परेशान करती हैं, जब वे लोगों के विचारों को नियंत्रित कर उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं, तो लोग बहुत शक्तिहीन, असहाय और दयनीय दिखाई देते हैं। जब कोई बड़ा मुद्दा नहीं होता और जब कोई सिद्धांत शामिल नहीं होते, तो लोग सोचते हैं कि उनके पास असीमित ताकत है, कि वे संकल्प और आस्था में मजबूत हैं, और उन्हें लगता है कि वे प्रेरणा से भरे हुए हैं। वे मानते हैं कि वे परमेश्वर से पर्याप्त प्रेम नहीं कर पाते, वे सोचते हैं कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और वे कोई गलत काम नहीं कर सकते, कि वे विघ्न-बाधाएँ पैदा करने में असमर्थ हैं, और वे निश्चित रूप से जानबूझकर बुराई करने में असमर्थ हैं। लेकिन जब कुछ होता है, तो वे वैसी प्रतिक्रिया दिए बिना क्यों नहीं रह पाते, जैसी प्रतिक्रिया वे देते हैं? उनके ये अनैच्छिक कार्य सुनियोजित या वांछित नहीं होते, लेकिन वे फिर भी होते हैं और वास्तविकता बन जाते हैं, और वे उस तरह बिल्कुल नहीं होते जिस तरह वे लोग कार्य करना चाहते थे। यह कहना होगा कि इन चीजों का घटित होना और ऐसी घटनाओं का बार-बार सामने आना नकारात्मक भावनाओं के कारण होता है। यह स्पष्ट है कि लोगों पर नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव और उनका नियंत्रण उतना सरल नहीं होता जितना लोग कल्पना करते हैं, न ही उन्हें उतनी आसानी से हल किया जा सकता है और उन्हें छोड़ना या उनके खिलाफ विद्रोह करना भी निश्चित रूप से उतना आसान नहीं है। चाहे लोग आम तौर पर कितनी भी जोर से नारे लगाएँ, चाहे उनका संकल्प आम तौर पर कितना भी मजबूत हो, या उनकी आकांक्षाएँ कितनी भी ऊँची हों, या परमेश्वर-प्रेमी दिल और उसमें उनकी आस्था कितनी भी ज्यादा हों, जब वास्तविकता से सामना होता है तो उस संकल्प और आस्था और उन आकांक्षाओं और आदर्शों का कोई प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? वे क्षणिक नकारात्मक भावनाओं से कैसे प्रभावित हो जाते हैं और दबा दिए जाते हैं? इससे स्पष्ट है कि लोगों के जीवन में नकारात्मक भावनाएँ घर कर चुकी हैं; वे लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के साथ सह-अस्तित्व में रहती हैं और उनमें लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों को प्रभावित और नियंत्रित करने की क्षमता होती है, ठीक वैसे ही जैसे भ्रष्ट स्वभावों में होती है। साथ ही और ज्यादा गंभीरता से वे लोगों के शब्दों और कार्यों को नियंत्रित करती हैं, और इससे भी ज्यादा वे तमाम तरह की स्थितियों में उनके हर खयाल और विचार और उनके हर कार्य और व्यवहार को नियंत्रित करती हैं। तो क्या इन नकारात्मक भावनाओं का समाधान करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) नकारात्मक भावनाएँ सकारात्मक चीजें नहीं हैं, इसे दो तरीकों से चित्रित किया जा सकता है : पहले, नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति को सक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आने के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं; दूसरे, वे व्यक्ति को वास्तविकता से सामना होने पर सत्य का सफलतापूर्वक अभ्यास करने और सत्य में प्रवेश करने में सक्षम नहीं बना सकतीं, जैसा कि वे चाहते हैं। वे लोगों के सत्य के अनुसरण में बाधक चीजें हैं, वे लोगों को सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने से रोकती हैं। इसलिए नकारात्मक भावनाओं का समाधान अवश्य करना चाहिए। नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव और सार पर नजर डालने से देखा जा सकता है कि ये सकारात्मक चीजें नहीं हैं। इसके अलावा यह कहा जा सकता है कि उनके सार में, भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में कुछ हद तक लोगों को बाधित और नियंत्रित करने की ज्यादा क्षमता है। तो क्या तुम लोग कहोगे कि इन नकारात्मक भावनाओं की मौजूदगी एक गंभीर समस्या है? (हाँ।) अगर इन नकारात्मक भावनाओं का समाधान न किया जाए, तो किन नतीजों की उम्मीद की जा सकती है? तुम निश्चित हो सकते हो कि ये भावनाएँ व्यक्ति को लंबे समय तक नकारात्मकता में जीने पर मजबूर कर देंगी, और उनमें लोगों को सत्य का अनुसरण करने से रोकते हुए उन्हें विवश और बाध्य करने की और भी ज्यादा क्षमता होती है। क्या ऐसी गंभीर समस्या का समाधान होना चाहिए? इसका समाधान होना चाहिए। अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के साथ-साथ लोगों को अपनी नकारात्मक भावनाओं का भी समाधान करना चाहिए। अगर लोग अपनी नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लें, तो सत्य का उनका अनुसरण बहुत सुचारु रूप से होगा और इसमें कोई उल्लेखनीय बाधा नहीं आएगी।

भ्रष्ट स्वभाव लोगों के कुछ सतही स्तर के उद्गारों और नजरियों के साथ-साथ कुछ अवस्थाओं में भी छिपे होते हैं, तो तुम नकारात्मक भावनाओं को कैसे पहचानोगे? तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कैसे करते हो? क्या तुम लोगों ने पहले इस पर विचार किया है? (नहीं।) स्वभाव और भावनाएँ दो अलग-अलग तरह की चीजें हैं। अगर हम केवल स्वभावों और भावनाओं के बारे में बात करें, तो क्या उनके शाब्दिक अर्थों के बीच अंतर करना आसान है? स्वभावों से तात्पर्य उन चीजों से है जो व्यक्ति के प्रकृति सार से निकलती हैं, जबकि भावनाएँ मूल रूप से एक तरह की मनोवैज्ञानिक अवस्था होती हैं जो लोगों में कुछ करते समय होती है। हम इन शब्दों की शाब्दिक व्याख्या चाहे कैसे भी करें, हर हाल में, लोगों की भावनाओं—विशेष रूप से उनकी नकारात्मक भावनाओं—में कई नकारात्मक विचार होते हैं। जब व्यक्ति ये नकारात्मक भावनाएँ रखता है, तो यह उसे नकारात्मक स्थिति में और विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व में जीने के लिए प्रेरित कर सकता है, है न? (सही है।) ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों में लंबे समय तक छिपी रह सकती हैं, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उन्हें कभी भी इन भावनाओं के बारे में पता नहीं चलेगा या इनकी उपस्थिति महसूस नहीं होगी; ये उनके भ्रष्ट स्वभावों की तरह हर समय लोगों के साथ रहती हैं। कई बार, ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के भीतर छिपी होती हैं, और ये गलत विचार और दृष्टिकोण लोगों के परमेश्वर पर संदेह करने, अपनी वास्तविक आस्था खो देने, यहाँ तक कि परमेश्वर से तमाम तरह की अनुचित माँगें करने और अपना सामान्य विवेक खो देने का कारण बनते हैं। विभिन्न कारणों, विचारों और दृष्टिकोणों की परतों तले ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों और उनके विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों के भीतर छिपी होती हैं, और पूरी तरह से उस व्यक्ति का प्रकृति सार दर्शाती हैं। भ्रष्ट स्वभाव उन विभिन्न अवस्थाओं में अभिव्यक्त होते हैं, जो लोगों के आचरण और कार्यकलापों के माध्यम से प्रकट होती हैं—ये विभिन्न अवस्थाएँ अपने भीतर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव लिए होती हैं। हालाँकि नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव एक-दूसरे से भिन्न हैं, फिर भी कुछ बातों में उनके बीच एक आवश्यक संबंध है, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे से गुँथे हुए और अविभाज्य भी हो सकते हैं। कुछ मामलों में वे एक-दूसरे का समर्थन कर सकते हैं, एक-दूसरे को बढ़ावा दे सकते हैं और एक-दूसरे पर निर्भर होकर सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। उदाहरण के लिए, जिस संताप, चिंता और व्याकुलता के बारे में हमने पिछली बार संगति की थी, वे एक तरह की नकारात्मक भावना हैं। इस तरह की नकारात्मक भावना के कारण लोग संताप, चिंता और व्याकुलता में रहते हैं। जब लोग इन भावनाओं में फँस जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वे कुछ विचार और दृष्टिकोण बना लेते हैं, जो उन्हें परमेश्वर पर संदेह करने, उसके बारे में अटकलें लगाने, उससे सावधान रहने, उसे गलत समझने, यहाँ तक कि उसकी आलोचना कर उस पर हमला करने की ओर ले जाते हैं और वे परमेश्वर से अनुचित और लेनदेनपरक माँगें भी कर सकते हैं। इस बिंदु पर, ये नकारात्मक भावनाएँ पहले ही बिगड़कर भ्रष्ट स्वभावों में ढल चुकी होती हैं। तो, इस उदाहरण से तुम लोगों ने क्या समझा है? क्या तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कर सकते हो? मुझे बताओ। (नकारात्मक भावनाएँ कुछ गलत विचारों और दृष्टिकोणों को जन्म देती हैं, जबकि भ्रष्ट स्वभाव ज्यादा गहराई तक दबे होते हैं और लोगों को परमेश्वर को गलत समझने और उससे सावधान रहने के लिए प्रेरित करते हैं।) मैं एक उदाहरण देता हूँ। संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को ले लो। मान लो, कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाता है, और वह अपनी बीमारी के बारे में सोचता है और नतीजतन संताप, चिंता और व्याकुलता का अनुभव करता है। ये चीजें उसके दिल पर नियंत्रण कर लेती हैं, जिससे उसे अपनी बीमारी के गंभीर होने और मृत्यु के साथ आने वाले विभिन्न परिणामों का डर रहता है। फिर वह मृत्यु से डरने लगता है, मृत्यु को अस्वीकारने लगता है और उससे बचना चाहता है। विचारों और भावों की यह श्रृंखला उसकी बीमारी के कारण उत्पन्न होती है। इस बीमारी के संदर्भ में यह व्यक्ति कई सक्रिय विचार उत्पन्न करता है। इन सक्रिय विचारों का स्रोत उसके दैहिक हितों पर आधारित होता है और स्पष्ट रूप से यह सत्य पर या इस तथ्य पर आधारित नहीं होता कि परमेश्वर सभी चीजों को नियंत्रित करता है। इसीलिए हम इन्हें नकारात्मक भावनाओं की श्रेणी में रखते हैं। उस व्यक्ति को अपनी बीमारी के कारण बुरा लगता है, लेकिन बीमारी तो उसे पहले ही हो चुकी है, और उसे इसका सामना करना होगा—वह इससे बच नहीं सकता, इसलिए वह सोचता है, “अरे नहीं, मुझे इस बीमारी का सामना कैसे करना चाहिए? मुझे इसका इलाज करना चाहिए या नहीं? अगर मैंने इलाज नहीं करवाया तो क्या होगा? अगर इलाज करवाया तो क्या होगा?” सोचते-सोचते वह व्यग्र हो जाता है। अपनी बीमारी के बारे में उसके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण उसे संताप, चिंता और व्याकुलता में फँसा देते हैं। तो क्या इस नकारात्मक भावना ने पहले ही प्रभावी होना शुरू नहीं कर दिया है? (हाँ, कर दिया है।) जब वह पहली बार अपनी बीमारी का अनुभव करना शुरू करता है, तो वह उसका इलाज करने का प्रयास करने का इरादा रखता है, लेकिन फिर उसे लगता है कि ऐसा करना उचित नहीं है, और इसके बजाय वह अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाते हुए अपनी आस्था के अनुसार जीने की सोचता है, जबकि अभी भी उसे बीमारी के गंभीर होने की चिंता लगी रहती है। इसे सँभालने का उचित तरीका क्या है? उसके पास मार्ग नहीं है। अपनी नकारात्मक भावनाओं के प्रभुत्व के तहत वह इस मामले को लेकर हमेशा संतप्त, चिंतित और व्याकुल महसूस करता है, और जब उसके भीतर संताप, चिंता और व्याकुलता पैदा हो जाती है, तो वह उन्हें त्याग नहीं पाता। वह अपनी बीमारी से त्रस्त रहता है—उसे इसके बारे में क्या करना चाहिए? वह सोचने लगता है, “सब ठीक है, मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ। परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा। मुझमें आस्था है।” लेकिन, कुछ समय बाद, बीमारी में सुधार नहीं होता, और परमेश्वर उसे ठीक नहीं करता। व्यक्ति इस मामले को लेकर संतप्त, चिंतित और व्याकुल महसूस करता रहता है, कहता है, “परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं? मुझे बस इंतजार करना होगा, परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा। मुझमें आस्था है।” वह कहता है कि उसमें आस्था है, लेकिन वास्तव में वह अंदर ही अंदर यह सोचते हुए अपनी नकारात्मक भावनाओं के बीच जी रहा होता है, “क्या होगा अगर परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया और मैं गंभीर रूप से बीमार हो गया और मर गया? क्या मैंने अपना कर्तव्य व्यर्थ ही निभाया होगा? क्या मैं कोई आशीष प्राप्त नहीं कर पाऊँगा? मुझे परमेश्वर से कहना चाहिए कि मुझे ठीक कर दे।” इसलिए वह परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है, “परमेश्वर, मेरे कई वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के आधार पर क्या तुम मेरी बीमारी दूर कर सकते हो?” आगे सोचने पर उसे एहसास होता है, “मेरा परमेश्वर से यह कहना सही नहीं है। मुझे परमेश्वर के सामने ऐसी फालतू माँगें नहीं रखनी चाहिए। मुझमें आस्था होनी चाहिए।” जब उसमें आस्था होती है, तो उसे अपनी बीमारी में थोड़ा सुधार हुआ महसूस होता है, लेकिन थोड़ी देर बाद वह सोचता है, “मुझे नहीं लगता कि मेरी बीमारी वास्तव में सुधरी है। लगता है कि यह और भी बदतर हो गई है। मुझे क्या करना चाहिए? मैं और ज्यादा प्रयास करूँगा और अपना कर्तव्य और ज्यादा मेहनत से निभाऊँगा, मैं और ज्यादा पीड़ा सहूँगा, ज्यादा कीमत चुकाऊँगा, और प्रयास करूँगा कि परमेश्वर मुझे ठीक कर दे। मैं परमेश्वर को अपनी निष्ठा और आस्था दिखाऊँगा, और उसे दिखाऊँगा कि मैं यह परीक्षण स्वीकार कर सकता हूँ।” कुछ समय बाद, न केवल उसकी बीमारी में सुधार नहीं होता, बल्कि वह और भी बदतर हो जाती है, और वह अधिकाधिक दुखी महसूस करता है और सोचता है : “परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया है। मुझे क्या करना चाहिए? परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं?” उसका संताप, चिंता और व्याकुलता और बढ़ जाती है। इस संदर्भ में, वह लगातार अपनी बीमारी के कारण संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाओं के बीच जीता है। समय-समय पर, वह परमेश्वर में कुछ “आस्था” विकसित करता है और समय-समय पर अपनी थोड़ी-सी वफादारी और दृढ़ संकल्प अर्पित करता है। चाहे वह कुछ भी करे या कोई भी तरीका अपनाए, हर हाल में, वह लगातार संताप, चिंता और व्याकुलता की भावनाओं में फँसा रहता है। वह अपनी बीमारी से गहराई से बँधा रहता है और जो कुछ भी करता है, अपनी बीमारी सुधारने, ठीक करने और उससे मुक्ति पाने के लिए करता है। जब व्यक्ति ऐसी नकारात्मक भावनाओं के बीच रहता है, तो वह सिर्फ थोड़े समय के लिए अपनी बीमारी के बारे में नहीं सोचता; बल्कि, उन नकारात्मक भावनाओं के प्रभुत्व के तहत, उसकी सोच अक्सर बहुत सक्रिय होती है। जब ये सक्रिय विचार साकार नहीं किए जा सकते या जब वास्तविकता उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होती, तो समय-समय पर, अपनी इच्छा के विरुद्ध उसके मन में अनगिनत विचार या नजरिये उभरते हैं। वह कहता है, “अगर परमेश्वर मुझे ठीक नहीं करता, तो भी मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा, लेकिन अगर परमेश्वर वाकई मुझे ठीक नहीं करता, तो उसमें मेरी आस्था बेकार है और मुझे बीमारी का इलाज खुद करना होगा।” देखो, वह मन ही मन सोचता है, “अगर परमेश्वर मुझे ठीक नहीं करता, तो भी मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगा—परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है,” लेकिन साथ ही, वह यह भी सोच रहा होता है, “अगर परमेश्वर वाकई मुझे ठीक नहीं करेगा, तो मुझे बीमारी का इलाज खुद करना होगा। अगर इसका इलाज मुझे खुद करना पड़ा, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा। अगर परमेश्वर में मेरी आस्था मेरी बीमारी भी ठीक नहीं कर सकती, तो मुझे परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए? क्यों परमेश्वर दूसरों को तो ठीक करता है, पर मुझे नहीं?” वह लगातार अपनी नकारात्मक भावनाओं में उलझा रहता है, और न केवल वह अपने गलत विचार और दृष्टिकोण उलटने या बदलने में असमर्थ रहता है, बल्कि अपनी बीमारी का अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान ये नकारात्मक भावनाएँ उसे धीरे-धीरे परमेश्वर को गलत समझने, परमेश्वर के बारे में शिकायत करने और परमेश्वर पर संदेह करने के लिए प्रेरित कर देती हैं। यह प्रक्रिया उसकी नकारात्मक भावनाओं के क्रमिक परिवर्तन और उसके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करने लगने की प्रक्रिया है। जब कोई भ्रष्ट स्वभाव व्यक्ति के क्रियाकलापों पर नियंत्रण कर लेता है, तो उस व्यक्ति में अब केवल नकारात्मक भावनाएँ ही नहीं होंगी—उसके भीतर कुछ विचार और दृष्टिकोण या निर्णय और संकल्प उत्पन्न होंगे, जो कुछ क्रियाकलाप उत्पन्न करेंगे। जब किसी तरह की भावना किसी तरह की अवस्था में बदल जाती है, तो यह केवल नकारात्मक भावनाओं, किसी चीज के बारे में सोचने या किसी निश्चित स्थिति में रहने का मामला नहीं रह जाता, यह उस स्थिति के विचार, दृष्टिकोण और संकल्प उत्पन्न करने, गतिविधि और क्रियाकलाप उत्पन्न करने का मामला हो जाता है। तो, इन विचारों, दृष्टिकोणों, गतिविधियों और कार्यकलापों पर कौन हावी रहता है? यह एक भ्रष्ट स्वभाव होता है, जो उन पर हावी रहता है। क्या परिवर्तन की यह प्रक्रिया अब पूरी तरह सुगम नहीं हो गई होती? (हाँ, हो गई होती है।) पहले, लोग किसी निश्चित संदर्भ में नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न करते हैं, और ये नकारात्मक भावनाएँ सिर्फ कुछ सरल विचार, दृष्टिकोण और भाव होते हैं, पर ये तमाम विचार नकारात्मक होते हैं। ये नकारात्मक विचार लोगों की भावनाओं में स्थिर हो जाते हैं और उनके विभिन्न गलत अवस्थाएँ उत्पन्न करने का कारण बनते हैं। जब लोग गलत अवस्थाओं में रह रहे होते हैं, और निर्णय ले रहे होते हैं कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, और कौन-से नजरिये अपनाने चाहिए, तो उनके भीतर गलत दृष्टिकोण और सिद्धांत बन जाते हैं, और तब इसमें उनका भ्रष्ट स्वभाव शामिल हो जाता है। यह इतनी सीधी-सी बात है। क्या यह अब स्पष्ट है? (हाँ, यह स्पष्ट है।) तो, मुझे इसके बारे में बताओ। (कुछ संदर्भों में, लोग कुछ नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। पहले तो ये नकारात्मक भावनाएँ कुछ नकारात्मक विचारों से आगे नहीं बढ़तीं। जब ये नकारात्मक विचार विभिन्न गलत अवस्थाओं को जन्म देते हैं और लोग यह निर्णय लेना कि क्या करना चाहिए, और कुछ नजरिये अपनाना शुरू कर देते हैं, तो उन पर कुछ विचार और सिद्धांत हावी हो जाते हैं। तब इसमें उनका भ्रष्ट स्वभाव शामिल हो जाता है।) इस पर विचार करो और देखो कि क्या तुम इसे समझते हो। क्या यह आसान नहीं है? (है।) यह आसान लगता है, लेकिन क्या तुम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर कर सकते हो? चाहे सैद्धांतिक रूप से उनमें अंतर करना आसान हो या नहीं, क्या तुम लोगों ने नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतर समझ लिया है? (हाँ।)

अगर वे विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ, जिनके बारे में हमने संगति की है, तुम लोगों के हृदय में मौजूद हैं, तो क्या तुम उन्हें पहचानकर उनका विश्लेषण कर सकते हो? (हम उन्हें कुछ हद तक पहचान सकते हैं।) अगर वे तुममें हों, तो तुम्हें उन्हें पहचानने में सक्षम होना चाहिए। नकारात्मक भावनाओं को पहचानने का उद्देश्य सिर्फ उनके बारे में सामान्य सैद्धांतिक समझ हासिल करना या उनका अर्थ समझना ही नहीं है। यह नकारात्मक भावनाओं की व्यावहारिक समझ हासिल करने के बाद उनकी यातना से मुक्त होना और उन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागना है जो लोगों के भीतर मौजूद नहीं होनी चाहिए, जैसे कि वे नकारात्मक भावनाएँ, जिनके बारे में हमने पहले संगति की थी। अब, नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच के अंतर के आधार पर, जिसके बारे में हमने अभी संगति की है, क्या हम कह सकते हैं कि नकारात्मक भावनाएँ वह मूल कारण या संदर्भ है, जो लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के लिए प्रेरित करता है? उदाहरण के लिए, बीमारी के मामले में, अगर तुम बीमारी के कारण संताप, चिंता और व्याकुलता जैसी नकारात्मक भावनाएँ विकसित नहीं करते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हें उस मामले का ज्ञान और अनुभव है, कि तुममें सही विचार और दृष्टिकोण और सच्चा समर्पण है। नतीजतन, उस संबंध में तुम्हारे विचार और क्रियाकलाप सत्य के अनुरूप होने चाहिए। इसके विपरीत, अगर तुम किसी मामले को लेकर लगातार नकारात्मक भावनाएँ अनुभव करते हो, और इसके कारण लगातार नकारात्मक भावनाओं में फँसे रहते हो, तो यह स्वाभाविक है कि इन नकारात्मक भावनाओं के कारण तुममें विभिन्न नकारात्मक अवस्थाएँ उत्पन्न होंगी। जब तुम इन गलत अवस्थाओं में होगे, तो ये नकारात्मक अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने का कारण बनेंगी। तब तुम शैतानी फलसफों के आधार पर कार्य करोगे, हर तरह से सत्य का उल्लंघन करोगे और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जिओगे। इसलिए, चाहे हम नकारात्मक भावनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बीच कैसे भी अंतर करें, संक्षेप में, ये दोनों चीजें जुड़ी हुई और अविभाज्य हैं। विशेष रूप से, ये इस बात में एकसमान सार साझा करती हैं कि नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव दोनों ही नकारात्मक चीजें हैं—वे एकसमान सार और अंतर्निहित विचार और दृष्टिकोण साझा करते हैं। जो विचार और दृष्टिकोण नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं, वे सब नकारात्मक होते हैं, वे सब शैतानी फलसफे होते हैं, और ये नकारात्मक चीजें लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने और अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर आचरण और कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।)

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