सत्य का अनुसरण कैसे करें (4) भाग तीन

आओ, अब रोग के बारे में चर्चा करें। मनुष्य की इस बूढ़ी देह की बात आने पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों को कौन-सा रोग हुआ है, वह ठीक हो सकता है या नहीं, या उसे किस हद तक सहना होगा, ये सब उसके हाथ में नहीं है—परमेश्वर के हाथ में है। बीमार पड़ने पर अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करते हो, और इस सच्चाई को स्वीकार करने और सहने को तैयार हो जाते हो, तब भी तुम्हें यह रोग रहेगा; अगर तुम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते, तो भी तुम इस रोग से छुटकारा नहीं पा सकते—यह एक तथ्य है। तुम अपना रोग एक दिन तक सकारात्मक होकर झेल सकते हो, या एक दिन तक नकारात्मक होकर। यानी तुम्हारा रवैया चाहे जो हो, तुम इस तथ्य को नहीं बदल सकते कि तुम बीमार हो। विवेकशील लोग कौन-सा विकल्प चुनते हैं और मूर्ख लोग कौन-सा चुनते हैं? मूर्ख लोग संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में जीने को चुनते हैं। वे इन भावनाओं में पूरी तरह घिरकर बाहर भी नहीं निकलना चाहते। वे कोई भी परामर्श नहीं मानते और सोचते हैं, “अरे, मुझे यह बीमारी कैसे हो गई? क्या यह थकान से हुई? चिंता के कारण हुई? या निषेध के कारण?” हर दिन, वे सोचते हैं कि वे बीमार कैसे पड़े और यह कब शुरू हुई, “मैंने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? मैं इतना बेवकूफ होकर अपना कर्तव्य इतनी ईमानदारी से कैसे निभाता रहा? दूसरे लोग हर साल शारीरिक जाँच करवाते हैं, और कम-से-कम अपने रक्तचाप की माप करवाते हैं, एक्स-रे लेते हैं। मुझे यह एहसास क्यों नहीं हुआ कि मुझे शारीरिक जाँच करवानी चाहिए? दूसरे लोग इतनी सावधानी से रहते हैं, मैं इतना कुंद बनकर क्यों जीता रहा? मुझे यह बीमारी हो गयी और मुझे पता भी नहीं चला। मुझे इस बीमारी का इलाज करवाना चाहिए! मुझे कौन-सा इलाज मिल सकता है?” फिर वे ऑनलाइन जाकर खोजते हैं कि उन्हें यह बीमारी कैसे हुई, किस कारण हुई, चीनी दवाओं से इसका इलाज कैसे करें, पश्चिमी दवाओं से कैसे करें, और कौन-से देसी नुस्खे हैं—वे ये तमाम चीजें खोजते हैं। इसके बाद, वे चीनी दवाएँ और फिर पश्चिमी दवाएँ घर ले जाते हैं, बीमार होने को लेकर हमेशा गमगीन, व्याकुल और बेसब्र रहते हैं, और समय के साथ, वे अपना कर्तव्य निर्वहन छोड़ देते हैं, वे परमेश्वर में अपनी आस्था दूर फेंक देते हैं, विश्वास रखना छोड़ देते हैं, और सिर्फ अपनी बीमारी को ठीक करने के बारे में सोचते रहते हैं; उनका कर्तव्य अब अपनी बीमारी ठीक करना है। वे अपनी बीमारी में समा जाते हैं, वे बीमार होने को लेकर हर दिन संतप्त महसूस करते हैं, और कोई भी दिख जाए तो कहते हैं, “अरे, मुझे यह बीमारी ऐसे हुई। मुझे जो हुआ उसे तुम अपने लिए सबक समझो, जब बीमार हो जाओ, तो तुम्हें जाँच करवाकर इलाज करवाना चाहिए। अपनी सेहत की देखभाल करना सबसे अहम है। तुम्हें अक्लमंद होना चाहिए, ज्यादा बेवकूफी से नहीं जीना चाहिए।” वे जिससे भी मिलते हैं यही बातें कहते हैं। बीमार होकर उन्होंने यह अनुभव किया है और यह सबक सीखा है। बीमार पड़ने के बाद, वे खाने-पीने में बड़े सावधान और चलने-फिरने में बड़े सतर्क हो जाते हैं, और वे अपनी सेहत का ख्याल रखना सीख लेते हैं। अंत में, वे एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “लोगों को अपनी सेहत की देखभाल के लिए खुद पर भरोसा करना चाहिए। मैंने पिछले कुछ वर्षों से अपनी सेहत की देखभाल पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, जैसे ही मेरा ध्यान भटका मुझे यह बीमारी हो गई। सौभाग्य से मैंने इसका जल्द पता लगा लिया। अगर देर की होती, तो मैं खत्म हो जाता। बीमार होकर कम उम्र में मर जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। मैंने अब तक जीवन के मजे नहीं लिए हैं, खाने की ढेरों लजीज चीजें मैंने नहीं खाई हैं, इतनी सारी मजेदार जगहों में अब तक नहीं गया हूँ!” वे बीमार होकर यह निष्कर्ष निकालते हैं। वे बीमार होते हैं मगर मरते नहीं, और उन्हें लगता है कि वे चालाक हैं उन्होंने समय रहते बीमारी का पता लगा लिया है। वे कभी नहीं कहते कि ये सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है या उसके द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और अगर किसी को मरना नहीं है, तो वह कितनी भी गंभीर बीमारी से ग्रस्त क्यों न हो, वह नहीं मर सकता, और अगर किसी को मरना है, तो वह बिना बीमार हुए भी मर जाएगा—वे यह नहीं समझते। वे मानते हैं कि उनकी बीमारी ने उन्हें चालाक बना दिया है, जबकि दरअसल वे हद से ज्यादा “चालाकी” दिखाते हैं और बड़े मूर्ख हैं। जब सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बीमार होते हैं, तो क्या वे संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में घिर जाते हैं? (नहीं।) वे बीमारी के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखेंगे? (पहले, वे समर्पण कर पाते हैं, फिर बीमार पड़ने पर वे परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास करते हैं और इस बात पर चिंतन करते हैं कि उनमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं।) क्या ये कुछ शब्द समस्या दूर कर सकते हैं? अगर वे बस चिंतन ही करते हैं, तो क्या उन्हें अब अपनी बीमारी का इलाज करवाने की जरूरत नहीं? (वे इलाज भी करवाएँगे।) हाँ, अगर यह ऐसा रोग है जिसका इलाज होना चाहिए, एक बड़ा रोग है, या इलाज न करवाने पर इसके बदतर हो जाने की संभावना है, तो इसका इलाज होना चाहिए—विवेकशील लोग यही करते हैं। मूर्ख लोग बीमार न होने पर भी हमेशा चिंता करते हैं, “ओह, क्या मैं बीमार हूँ? अगर मैं बीमार हूँ, तो क्या यह रोग बदतर हो जाएगा? क्या मुझे वह रोग लग जाएगा? और अगर वह रोग लग गया, तो क्या वक्त से पहले मर जाऊँगा? मरते वक्त क्या मुझे बहुत पीड़ा होगी? क्या मैं खुशहाल जीवन जियूँगा? अगर मुझे वह रोग लग गया, तो क्या मुझे अपनी मृत्यु की तैयारी कर लेनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द जीवन के मजे ले लेने चाहिए?” मूर्ख लोग ऐसी चीजों को लेकर अक्सर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। वे कभी सत्य या इस मामले में जो सत्य उन्हें समझने चाहिए उन्हें नहीं खोजते। लेकिन विवेकशील लोगों को इस मामले की थोड़ी समझ और अंतर्दृष्टि तब होती है जब कोई दूसरा बीमार पड़ता है या वे अब तक बीमार न पड़े हों। तो उनमें कैसी समझ और अंतर्दृष्टि होनी चाहिए? सबसे पहले, क्या संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने के कारण बीमारी किसी व्यक्ति को छुए बिना ही गुजर जाएगी? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या पहले से किसी के भाग्य में यह नहीं लिखा है कि वह कब किस रोग से बीमार पड़ेगा, किस उम्र में उसकी सेहत कैसी रहेगी, और क्या वह कोई बड़ा या गंभीर रोग पकड़ लेगा? मेरी बात मानो, बिल्कुल लिखा हुआ है, और यह पक्का है। हम अभी इस पर चर्चा नहीं करेंगे कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें कैसे पूर्वनिर्धारित करता है; लोगों का रंग-रूप, नाक-नक्श, डील-डौल और उनकी जन्मतिथि सबको साफ तौर पर पता होती है। गैर-विश्वासी भविष्य बताने वाले, ज्योतिषी और नक्षत्र और लोगों की हथेलियाँ पढ़ सकने वाले, लोगों की हथेलियाँ, चेहरे और जन्मतिथियाँ देखकर यह बता सकते हैं कि उन पर विपत्ति कब टूटेगी, और दुर्भाग्य उन पर कब बरसेगा—ये चीजें पहले से पूर्व-निर्धारित हैं। तो जब कोई बीमार होता है, तो ऐसा लग सकता है कि यह थकान, क्रोध-भाव या गरीबी और कुपोषण के कारण हुआ—ऊपर से ऐसा लग सकता है। यह स्थिति सब पर लागू होती है, तो फिर एक ही आयु-वर्ग के कुछ लोगों को यह रोग क्यों होता है, जबकि दूसरों को नहीं होता? क्या भाग्य में ऐसा लिखा है? (हाँ।) आम आदमी की भाषा में यह भाग्य में लिखा है। हम इसे उन शब्दों में कैसे कह सकते हैं जो सत्य के अनुरूप हैं? ये सब प्रभु की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। इसलिए तुम्हारा खाना-पीना, घर और जीने का माहौल चाहे जैसे हों, इनका तुम कब बीमार पड़ोगे और तुम्हें कौन-सा रोग होगा, इससे कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे हमेशा वस्तुपरक दृष्टिकोण से कारण ढूँढ़ते हैं, और हमेशा यह कहकर बीमारी के कारणों पर जोर देते हैं, “तुम्हें ज्यादा व्यायाम करना चाहिए, ज्यादा साग-सब्जियाँ और कम माँस खाना चाहिए।” क्या सचमुच ऐसा ही है? जो लोग कभी भी माँस नहीं खाते, उन्हें भी उच्च रक्तचाप और मधुमेह हो सकता है, और शाकाहारियों का भी कोलेस्ट्रोल बढ़ सकता है। आयुर्विज्ञान ने इन चीजों के लिए कोई सही और वाजिब स्पष्टीकरण नहीं दिया है। मेरी बात सुनो, परमेश्वर ने जो विविध भोजन मनुष्य के लिए रचे हैं, वे मनुष्य के खाने के लिए हैं; बस इन्हें ज्यादा नहीं, संयम से खाओ। अपनी सेहत की देखभाल का तरीका सीखना जरूरी है, लेकिन हमेशा बीमारी की रोकथाम के बारे में पढ़ते रहना गलत है। जैसा हमने अभी कहा, किसी की सेहत किस उम्र में कैसी रहेगी और क्या उसे कोई बड़ा रोग होगा, ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और वे हथेलियाँ, जन्मतिथियाँ और चेहरे दिखाकर ये बातें जानने के लिए किसी को ढूँढ़ते फिरते हैं, और वे इन बातों पर यकीन करते हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अक्सर सत्य पर धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनते हो, फिर अगर तुम उनमें विश्वास न रखो, तो तुम एक छद्म-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं हो। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है, तो तुम्हें विश्वास करना होगा कि ये चीजें—गंभीर रोग, बड़े रोग, मामूली रोग, और सेहत—सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। किसी गंभीर रोग का आना और किसी खास उम्र में किसी की सेहत कैसी रहती है, ये संयोग से नहीं होते, और इसे समझना एक सकारात्मक और सही समझ रखना है। क्या यह सत्य के अनुरूप है? (हाँ।) यह सत्य के अनुरूप है, यही सत्य है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इस मामले में तुम्हारा रवैया और सोच परिवर्तित होना चाहिए। इन चीजों के परिवर्तित हो जाने के बाद कौन-सी चीज दूर हो जाती है? क्या संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ दूर नहीं हो जातीं? कम-से-कम, रोग को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ सैद्धांतिक रूप से तो दूर हो ही जाती हैं। चूँकि तुम्हारी समझ ने तुम्हारे विचारों और सोच को परिवर्तित कर दिया है, इसलिए यह तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर देता है। यह एक पहलू है : कोई बीमार पड़ेगा या नहीं, उसे कौन-सा गंभीर रोग होगा, और जीवन के प्रत्येक चरण में उसकी सेहत कैसी होगी, उसे मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, बल्कि ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बीमार न पड़ना चाहूँ, तो क्या यह ठीक है? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से रोग दूर कर देने की विनती करूँ? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से इस विपत्ति और दुर्भाग्य से मुझे बाहर निकाल देने को कहूँ?” तुम क्या सोचते हो? क्या ये चीजें ठीक हैं? (नहीं।) तुम यह बात इतनी निश्चितता से कह रहे हो, मगर कोई भी इन चीजों को स्पष्टता से नहीं समझ पा रहा है। शायद कोई वफादारी से अपना कर्तव्य निभा रहा है, उसमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प है, वह परमेश्वर के घर में किसी कार्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, और संभवतः परमेश्वर उसके कर्तव्य, उसके कार्य, उसकी शारीरिक ऊर्जा और शक्ति को प्रभावित करने वाले इस गंभीर रोग को उससे दूर कर देता है, क्योंकि परमेश्वर अपने कार्य की जिम्मेदारी उठाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई व्यक्ति है? ऐसा कौन है? तुम नहीं जानते, है न? शायद ऐसे लोग हैं। अगर सचमुच ऐसे लोग होते, तो क्या परमेश्वर उनके रोगों और दुर्भाग्य को सिर्फ एक वचन से दूर नहीं कर देता? क्या परमेश्वर यह सिर्फ एक विचार से करने में समर्थ नहीं होता? परमेश्वर विचार करेगा : “इस व्यक्ति को इस उम्र में, इस महीने में एक रोग होगा। वह फिलहाल अपने कार्य में बहुत व्यस्त है, तो उसे यह बीमारी नहीं होगी। उसे इस बीमारी का अनुभव करने की जरूरत नहीं। इसे उसके पास से गुजर जाने दो।” ऐसा न होने का कोई कारण नहीं है, और इसके लिए परमेश्वर से सिर्फ एक वचन की जरूरत होगी, है ना? लेकिन ऐसा आशीष कौन पा सकेगा? जिस किसी में ऐसा दृढ़ संकल्प और वफादारी होगी और जो परमेश्वर के कार्य में यह काम कर सके, वैसे ही व्यक्ति के लिए ऐसा आशीष पाना संभव होगा। हमें इस विषय पर बात करने की जरूरत नहीं है, इसलिए हम फिलहाल इस बारे में चर्चा नहीं करेंगे। हम रोग के बारे में चर्चा कर रहे हैं; यह ऐसी चीज है जिसका ज्यादातर लोग अपने जीवन में अनुभव करेंगे। इसलिए, लोगों के शरीरों को कैसा रोग, किस वक्त, किस उम्र में पकड़ेगा, और उनकी सेहत कैसी होगी, ये सारी चीजें परमेश्वर व्यवस्थित करता है और लोग इन चीजों का फैसला खुद नहीं कर सकते; उसी तरह जैसे लोग अपने जन्म का समय स्वयं तय नहीं कर सकते। तो क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह तुम्हारे जीवन को संपन्न करने वाला एक विशिष्ट अनुभव होना चाहिए, और यह अनिवार्य रूप से कोई बुरी चीज नहीं है, है ना? इसलिए रोग की बात आने पर, लोगों को पहले रोग के उद्गम से जुड़े अपने गलत विचारों और सोच को ठीक करना चाहिए, और तब उन्हें उसकी चिंता नहीं होगी; इसके अलावा लोगों को ज्ञात-अज्ञात चीजों का नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है, न ही वे उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हैं, क्योंकि ये तमाम चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। लोगों के पास जो अभ्यास का सिद्धांत और रवैया होना चाहिए, वह प्रतीक्षा और समर्पण का है। समझने से लेकर अभ्यास करने तक, सब-कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए—यह सत्य का अनुसरण करना है।

कुछ लोग यह कहते हुए अपने रोग को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं, “मेरा रोग बढ़ गया तो क्या मैं सह पाऊँगा? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो क्या मैं मर जाऊँगा? क्या मुझे ऑपरेशन करवाना पड़ेगा? अगर मेरा ऑपरेशन हुआ, तो कहीं मैं ऑपरेशन टेबल पर मर न जाऊँ? मैंने समर्पण कर दिया है। क्या इस रोग के चलते परमेश्वर मेरे प्राण ले लेगा?” ये बातें सोचने का क्या तुक है? अगर तुम ये बातें सोचे बिना नहीं रह सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। खुद पर भरोसा करना बेकार है, तुम इसे सहन करने में बिल्कुल असमर्थ रहोगे। कोई भी नहीं चाहता कि उसे रोग हो, और बीमार पड़ने पर कोई भी मुस्कुराता नहीं, बहुत खुश होकर उत्सव नहीं मनाता। ऐसा कोई भी नहीं है क्योंकि यह सामान्य मानवता नहीं है। आम लोग बीमार होने पर हमेशा कष्ट में डूबे रहकर उदास हो जाते हैं, और उनके सहन करने की एक सीमा होती है। वैसे एक बात ध्यान देने की है : अगर लोग बीमार पड़ने पर बीमारी से छुटकारा पाकर बच निकलने के लिए हमेशा अपनी शक्ति पर निर्भर रहने की सोचें, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? अपने रोग के साथ क्या वे और ज्यादा कष्ट नहीं झेलेंगे, और ज्यादा उदास नहीं हो जाएँगे? इसलिए लोग रोग से जितना ज्यादा घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए सत्य और अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। लोग जितना ज्यादा बीमारी से घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी भ्रष्टता और परमेश्वर से की जाने वाली अपने नावाजिब माँगों को जानना चाहिए। तुम बीमारी से जितने ज्यादा घिरे हुए हो, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी सच्चे समर्पण की परख होती है। इसलिए, बीमार पड़ने पर, परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित रहने और अपनी शिकायतों और नावाजिब माँगों के खिलाफ विद्रोह करने की तुम्हारी काबिलियत दिखाती है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सचमुच सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, तुम गवाही देते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण सच्चा है और परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण महज नारेबाजी और सिद्धांत नहीं हैं। बीमार होने पर लोगों को इस बात पर अमल करना चाहिए। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो यह तुम्हारी नावाजिब माँगों और परमेश्वर के प्रति अवास्तविक कल्पनाओं और धारणाओं का खुलासा करने के लिए होता है, यह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी होता है। अगर तुम इन चीजों की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की सच्ची गवाही और असली प्रमाण है। परमेश्वर यही चाहता है, एक सृजित प्राणी के पास यह होना चाहिए और उसे इसे जीना चाहिए। क्या ये सारी चीजें सकारात्मक नहीं हैं? (जरूर हैं।) लोगों को इन सभी चीजों का अनुसरण करना चाहिए। इसके अलावा, अगर परमेश्वर तुम्हें बीमार पड़ने देता है, तो क्या वह कभी भी कहीं भी तुमसे तुम्हारा रोग ले नहीं सकता? (जरूर ले सकता है।) परमेश्वर कभी भी कहीं भी तुम्हारा रोग तुमसे ले सकता है, तो क्या वह ऐसा नहीं कर सकता कि तुम्हारा रोग तुममें बना रहे और तुम्हें कभी न छोड़े? (जरूर कर सकता है।) अगर परमेश्वर ऐसा कुछ करता है कि यह रोग तुम्हें कभी न छोड़े, तो क्या तब भी तुम अपना कर्तव्य निभा पाओगे? क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था रख पाओगे? क्या यह परीक्षा नहीं है? (हाँ है।) अगर तुम बीमार पड़कर कई महीने बाद ठीक हो जाओ, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की परीक्षा नहीं होती, और तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती। कुछ महीने तक रोग सहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हारा रोग दो-तीन साल चले, और तुम्हारी आस्था और परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित बने रहने की तुम्हारी कामना बदलने के बजाय और सच्ची हो जाए, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम जीवन में विकसित हो चुके हो? क्या तुम्हें इसका फल नहीं मिलेगा? (हाँ।) तो सत्य का सच्चा अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति बीमार होने पर अपने रोग से आए विविध लाभों से गुजर कर उनका खुद अनुभव करता है। वह व्याकुल होकर अपने रोग से बच निकलने की कोशिश नहीं करता, न ही चिंता करता है कि रोग के लंबा खिंचने पर नतीजा क्या होगा, उसके कारण कौन-सी समस्याएँ पैदा होंगी, कहीं रोग बदतर तो नहीं हो जाएगा, या कहीं वह मर तो नहीं जाएगा—वह ऐसी चीजों के बारे में चिंता नहीं करता। ऐसी चीजों की चिंता न करने के साथ-साथ ऐसे लोग सकारात्मक रुख रख पाते हैं, परमेश्वर में सच्ची आस्था रखकर उसके प्रति समर्पित और वफादार रह पाते हैं। इस तरह अभ्यास करके, वे गवाही हासिल कर पाते हैं, यह उन्हें उनके जीवन-प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन में बड़ा लाभ प्रदान करता है, और यह उनकी उद्धार-प्राप्ति की ठोस बुनियाद बना देता है। यह कितना अद्भुत है! इसके अलावा, रोग बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी। मगर चाहे यह छोटा हो या बड़ा, हमेशा लोगों को शुद्ध करता है। किसी रोग से गुजर कर लोग परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं खोते, वे समर्पित होते हैं, शिकायत नहीं करते, उनका व्यवहार बुनियादी तौर पर स्वीकार्य होता है, और फिर रोग के चले जाने के बाद उन्हें कुछ लाभ मिलते हैं, वे बड़ी खुशी महसूस करते हैं—साधारण बीमारी का सामना करने के बाद लोगों के साथ ऐसा ही होता है। वे ज्यादा लंबे समय तक बीमार नहीं रहते, और उसे सहने में समर्थ होते हैं, और बुनियादी तौर पर यह रोग सहने में वे सक्षम होते हैं। लेकिन कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो कुछ समय इलाज से बेहतर होने के बावजूद दोबारा हो जाते हैं, और बदतर हो जाते हैं। ऐसा बार-बार होता है, जब तक कि आखिर रोग इस हद तक बढ़ जाता है कि उसका इलाज नहीं हो सकता, और आधुनिक चिकित्सा में उपलब्ध कोई साधन काम नहीं आता। रोग किस हद तक पहुँच जाता है? यह उस हद तक पहुँच जाता है कि बीमार व्यक्ति कभी भी कहीं भी मर सकता है। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि उस व्यक्ति का जीवन सीमित है। यह वह समय नहीं है जब वह बीमार न हो और मृत्यु उससे बहुत दूर हो, और उसका कोई अंदेशा नहीं है, मगर इसके बजाय व्यक्ति को आभास हो जाता है कि उसकी मृत्यु का दिन करीब है, और मृत्यु उसके सामने है। मृत्यु का सामना किसी व्यक्ति के जीवन का सबसे मुश्किल और सबसे अहम पल होता है। तो तुम क्या करते हो? जो लोग संतप्त, व्याकुल और चिंतित रहते हैं, वे अपनी मृत्यु को लेकर निरंतर व्याकुल, संतप्त और चिंतित महसूस करते हैं, जब तक कि उनके जीवन की सबसे मुश्किल घड़ी नहीं आ जाती, और जिस चीज को लेकर वे व्याकुल, संतप्त और चिंतित हैं, वह आखिरकार सच्चाई बन जाती है। वे मृत्यु से जितना डरते हैं, उतनी ही वह उनके करीब आती है, और वे इतनी जल्दी न मरना चाहें तो भी मृत्यु उन पर अप्रत्याशित हमला कर देती है। वे क्या कर सकते हैं? क्या वे मृत्यु से दूर भागने की कोशिश करें, मृत्यु को खारिज कर दें, उसका विरोध करें, उसके बारे में शिकायत करें, या परमेश्वर से सौदा करने की कोशिश करें? इनमें से कौन-सा तरीका काम आएगा? कोई भी काम नहीं आएगा, और उनका संताप और व्याकुलता बेकार है। जब वे अपनी मृत्यु की घड़ी पर पहुँच जाते हैं, तो उनके लिए सबसे दुख की बात क्या होती है? उन्हें सूअर का लाल भुना माँस खाना बहुत पसंद था, मगर पिछले कुछ साल से उन्होंने इसे ज्यादा नहीं खाया, उन्होंने बहुत कष्ट सहे और अब उनका जीवन खत्म होने को है। वे सूअर के लाल भुने माँस को याद कर उसे फिर से खाना चाहते हैं, लेकिन उनकी सेहत उस लायक नहीं है, वे उसे नहीं खा सकते, उसमें बहुत तेल होता है। उन्हें सुंदर और आकर्षक ढंग से तैयार होना और बढ़िया कपड़े पहनना पसंद था। अब वे मरने वाले हैं, वे अपनी भरी अलमारी में सजे वस्त्र बस देख सकते हैं, एक भी पहन नहीं सकते। मृत्यु कितनी दुखदाई होती है! मृत्यु सबसे ज्यादा दर्दनाक चीज है, और जब वे इस बारे में सोचते हैं, तो लगता है जैसे कोई उनके दिल को छुरा घुमा-घुमा कर छलनी कर रहा हो, और उनके पूरे शरीर की तमाम हड्डियाँ लुगदी बन गई हों। मृत्यु के बारे में सोचकर उन्हें दुख होता है, वे रोना चाहते हैं, बिलखना चाहते हैं, और वे सचमुच रोते-बिलखते हैं, और आहत होते हैं कि वे अब मरने वाले हैं। वे सोचते हैं, “मैं क्यों नहीं मरना चाहता? मैं मृत्यु से इतना डरता क्यों हूँ? पहले जब मैं गंभीर रूप से बीमार नहीं था, मुझे मृत्यु भयावह नहीं लगती थी। कौन मृत्यु का सामना नहीं करता? कौन नहीं मरता? तो चलो मैं मर ही जाता हूँ! उस बारे में अब सोचता हूँ, तो यह कहना उतना आसान नहीं है, और जब मृत्यु सच में आ जाती है, तो उसका समाधान करना उतना आसान नहीं होता। मुझे इतना दुख क्यों हो रहा है?” क्या तुम मृत्यु के बारे में सोचकर दुखी होते हो? जब भी तुम मृत्यु के बारे में सोचते हो, दुख और पीड़ा का अनुभव करते हो, और यह चीज जो तुम्हें सबसे ज्यादा व्याकुल और चिंतित करती है वह आखिरकार आ जाती है। इसलिए, तुम इस तरह जितना ज्यादा सोचते हो, उतना ही भयभीत और बेबस होते हो, उतना ही कष्ट सहते हो। तुम्हारा दिल बेआराम है, और तुम मरना नहीं चाहते। मृत्यु के इस मामले को कौन सुलझा सकता है? कोई भी नहीं, और निश्चित रूप से तुम खुद तो इसे सुलझा ही नहीं सकते। तुम मरना नहीं चाहते, तो फिर क्या कर सकते हो? तुम्हें मरना तो पड़ेगा ही, कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। मृत्यु लोगों को घेर लेती है; वे दिल से मरना नहीं चाहते, मगर बस हमेशा मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं, क्या यह उनके सचमुच मरने से पहले ही मर जाने का मामला नहीं है? क्या वे सचमुच मर सकते हैं? कौन यह पक्के तौर पर कहने की हिम्मत कर सकता है कि वह कब मरेगा या उसकी मृत्यु किस वर्ष होगी? कौन ये बातें जान सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपना भविष्य पढ़वा लिया है, मैं अपनी मृत्यु का वर्ष, माह और दिन जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु कैसी होगी।” क्या तुम इसे पक्के तौर पर कह सकते हो? (नहीं।) तुम इसे पक्के तौर पर नहीं कह सकते। तुम्हें नहीं मालूम तुम कब मरोगे—यह गौण बात है। अहम बात यह है कि जब तुम्हारा रोग तुम्हें सचमुच मौत की दहलीज पर ले आए, तब तुम कौन-सा रवैया अपनाओगे। इस प्रश्न पर तुम्हें चिंतन कर सोचना चाहिए। क्या तुम मृत्यु का सामना समर्पण के रवैये के साथ करोगे, या मृत्यु को तुम प्रतिरोध, अस्वीकृति या अनिच्छा के रवैये से देखोगे? तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? (समर्पण का रवैया।) सिर्फ कह देने भर से यह समर्पण प्राप्त नहीं हो सकता, व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। तुम यह समर्पण कैसे प्राप्त कर सकते हो? स्वेच्छा से समर्पण प्राप्त करने से पहले तुम्हें कैसी समझ की जरूरत है? यह सरल नहीं है, है न? (नहीं, यह सरल नहीं है।) तो बताओ तुम्हारे दिल में क्या है? (अगर मैं गंभीर रूप से बीमार हो जाऊँ, तो सोचूँगी कि अगर मैं सचमुच मर भी जाऊँ, तो यह परमेश्वर के संप्रभुता के अधीन और उसके द्वारा व्यवस्थित किया गया होगा। मनुष्य इतनी गहराई से भ्रष्ट हो चुका है कि अगर मेरी मृत्यु हो जाए, तो परमेश्वर की धार्मिकता से होगी। ऐसा नहीं है कि मुझे जीवित रहना ही चाहिए; मनुष्य परमेश्वर से ऐसी माँग करने योग्य नहीं है। इसके अलावा, मेरे ख्याल से अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, इसलिए चाहे जो हो जाए, मैंने जीवन का सही मार्ग देख लिया है, अनेक सत्य समझ लिए हैं, कि मैं जल्दी मर भी गई तो यह सार्थक होगा।) क्या ऐसा सोचना सही है? क्या यह कोई खास समर्थक सिद्धांत बनाता है? (जरूर बनाता है।) और कौन बोलना चाहता है? (हे परमेश्वर, अगर किसी दिन मैं सचमुच बीमार हो गया, और शायद मेरी मृत्यु हो जाए, तो वैसे भी मृत्यु से बच पाने का कोई तरीका नहीं है। यह परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता है, मैं चाहे जितनी फिक्र या चिंता करूँ, कोई फायदा नहीं। अपना बचा-कुचा समय मुझे इस बात पर ध्यान देने में लगाना चाहिए कि अपना कर्तव्य मैं अच्छे से कैसे निभाऊँ। अगर मैं सचमुच मर भी गया, तो भी मुझे कोई पछतावा नहीं होगा। बिल्कुल अंत में परमेश्वर और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना भय और आतंक में जीने से बेहतर है।) इस समझ के बारे में तुम्हारी क्या सोच है? क्या यह थोड़ी बेहतर नहीं है? (हाँ।) सही है, मृत्यु के विषय को तुम्हें इसी तरह लेना चाहिए। सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध करने और सत्य से विमुख होने का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया समर्पण और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है। एक और भी बात ध्यान देने की है, और वह यह है कि मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है। मृत्यु के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का सामना करते समय लोगों को संतप्त नहीं होना चाहिए, फिक्र नहीं करनी चाहिए और डरना नहीं चाहिए, फिर क्या करना चाहिए? लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए, है ना? (हाँ।) सही? क्या प्रतीक्षा का अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना है? मृत्यु सामने होने पर मृत्यु की प्रतीक्षा करना? क्या यह सही है? (नहीं, लोगों को सकारात्मक होकर इसका सामना करना चाहिए, समर्पण करना चाहिए।) यह सही है, इसका अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है। मृत्यु से बुरी तरह भयभीत मत हो, अपनी पूरी ऊर्जा मृत्यु के बारे में सोचने में मत लगाओ। सारा दिन यह मत सोचते रहो, “क्या मैं मर जाऊँगा? मेरी मृत्यु कब होगी? मरने के बाद क्या करूँगा?” बस, इस बारे में मत सोचो। कुछ लोग कहते हैं, “इस बारे में क्यों न सोचूँ? जब मरने ही वाला हूँ, तो क्यों न सोचूँ?” चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए।

लोग चाहे किसी भी मामले से निपट रहे हों, उन्हें इसे हमेशा सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ देखना चाहिए, बात अगर मृत्यु की हो तो यह और भी ज्यादा सच है। सक्रिय, सकारात्मक रवैया होने का अर्थ मृत्यु के साथ जाना, मृत्यु की प्रतीक्षा करना या सकारात्मक और सक्रिय तरीके से मृत्यु का अनुसरण करने की कोशिश करना नहीं है। अगर इसका अर्थ मृत्यु का अनुसरण करना, मृत्यु के साथ जाना या मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है, तो फिर क्या है? (समर्पित होना।) समर्पण मृत्यु के विषय के प्रति एक तरह का रवैया है, और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका मृत्यु को त्याग देना और उसके बारे में न सोचना है। कुछ लोग कहते हैं, “इस बारे में क्यों न सोचें? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या इससे जीत पाऊँगा? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या मैं इसे जाने दे पाऊँगा?” हाँ, जरूर। भला ऐसा क्यों? मुझे बताओ, जब तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, तो जन्म लेने का विचार क्या तुम्हारा था? तुम्हारा रंग-रूप, तुम्हारी उम्र, जिस उद्योग में तुम काम करते हो, यह तथ्य कि तुम यहाँ बैठे हो, और अभी तुम जैसा महसूस कर रहे हो—क्या तुम्हारे सोचने से यह सब हुआ है? तुम्हारे सोचने से यह सब नहीं हुआ है, ये सब दिन, महीने गुजरने, और तुम्हारे दिन-ब-दिन, एक के बाद एक दिन का सामान्य जीवन जीने के जरिये हुआ है, यहाँ तुम्हारे पहुँचने तक, जहाँ आज तुम हो, और यह बहुत कुदरती है। मृत्यु भी बस वही है। तुम अनजाने ही बड़े होकर वयस्क और फिर अधेड़ हो जाते हो, बूढ़े हो जाते हो, अपने अंतिम वर्षों में पहुँच जाते हो, और फिर मृत्यु आती है—इस बारे में मत सोचो। तुम जिन चीजों के बारे में नहीं सोचते उनके बारे में न सोचने से तुम उनसे बच नहीं सकते, न ही सोचने से वे जल्दी आ जाती हैं; उन्हें मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, ठीक? उनके बारे में मत सोचो। “उनके बारे में मत सोचो” से मेरा तात्पर्य क्या है? चूँकि अगर यह चीज निकट भविष्य में सचमुच होनी है, तो हमेशा उस बारे में सोचते रहने से तुम अपने ऊपर एक अदृश्य दबाव महसूस करोगे। यह दबाव तुममें जीवन और जीवनयापन के प्रति डर पैदा कर देगा, तुम्हारा रवैया सक्रिय और सकारात्मक नहीं रहेगा, और इसके बजाय तुम और भी ज्यादा अवसादग्रस्त हो जाओगे। चूँकि मृत्यु का सामना करने वाले व्यक्ति को किसी भी चीज में रुचि नहीं होती या किसी भी चीज के प्रति उसका रवैया सकारात्मक नहीं होता, इसलिए वह सिर्फ अवसाद-ग्रस्त रहता है। वह मरने वाला है, सब-कुछ खत्म हो गया है, किसी भी चीज का अनुसरण करने या कोई भी काम करने का कोई अर्थ नहीं रहा, उसके लिए कोई संभावना या अभिप्रेरणा नहीं रही, और वह जो भी करता है, वह मृत्यु की तैयारी और मृत्यु की दिशा में जाने के लिए है, तो वह जो कुछ भी करता है, उसका क्या अर्थ है? इसलिए, उसके सभी कामों से नकारात्मकता और मृत्यु के तत्व और उसकी प्रकृति जुड़ी होती है। तो क्या तुम मृत्यु के बारे में नहीं सोच सकते? क्या इसे हासिल करना आसान है? अगर यह मामला सिर्फ तुम्हारे मानसिक तर्क और कल्पना का नतीजा है, तो तुमने खुद के लिए एक नकली खतरे की घंटी बजाई है, तुम खुद को डराते हो, और यह निकट भविष्य में होगा ही नहीं, तो तुम इसके बारे में भला क्यों सोच रहे हो? इस कारण मृत्यु के बारे में सोचना और भी बेकार है। जो होना है वह होकर रहेगा; जो नहीं होना है, उसके बारे में चाहे जैसे सोचो, वह नहीं होगा। इससे डरना वैसे ही बेकार है, जैसे इसके बारे में चिंता करना। मृत्यु की चिंता करके उससे नहीं बचा जा सकता, न ही सिर्फ तुम्हारे डरने के कारण यह तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएगा। इसलिए एक पहलू यह है कि तुम्हें अपने दिल से मृत्यु के विषय को त्याग देना चाहिए, और इसे महत्व नहीं देना चाहिए; तुम्हें इसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, मानो मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना न हो। यह एक ऐसी चीज है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर करता है, तो परमेश्वर को व्यवस्थित करने दो—तब क्या यह सरल नहीं हो जाता? दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें मृत्यु के प्रति सक्रिय और सकारात्मक रवैया रखना चाहिए। बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है! भले ही तुम इसे साफ तौर पर समझा न पाओ, तुम कुछ सत्यों पर अमल करने और कुछ वास्तविकता रखने में समर्थ हो, और इससे साबित होता है कि तुमने जीवन का थोड़ा पोषण प्राप्त किया है, और परमेश्वर के कार्य से कुछ सत्यों को समझा है। तुमने बहुत कुछ हासिल किया है—सच्ची प्रचुरता हासिल की है—और यह कितना महान आशीष है! मानव इतिहास के आरंभ से ही, सभी युगों के दौरान, कभी किसी ने इस आशीष का आनंद नहीं लिया, मगर तुम इसका आनंद ले रहे हो। क्या अब तुम मरने के लिए तैयार हो? ऐसी तत्परता के साथ मृत्यु के प्रति तुम्हारा रवैया सचमुच समर्पण करने वाला होगा, है ना? (हाँ।) एक पहलू यह है कि लोगों को सच्ची समझ होनी चाहिए, उन्हें सकारात्मक और सक्रिय सहयोग देना चाहिए, सचमुच समर्पित होना चाहिए, और मृत्यु के प्रति उनका रवैया सही होना चाहिए। इस तरह से, क्या लोगों की संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ काफी कम नहीं हो जातीं? (जरूर हो जाती हैं।) वे बहुत कम हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अभी-अभी यह संगति पूरी सुनी है, मगर ऐसा नहीं लगता कि ये भावनाएँ कुछ ज्यादा कम हुई हैं। शायद इसमें समय लगता होगा। खास तौर से, बड़े-बूढ़े और बीमार लोग मृत्यु के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं।” लोग अपनी मुश्किलें जानते हैं। लंबे समय से बीमार रहे कुछ लोग उन सबका सारांश बनाकर सोचते हैं, “मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, जिन लोगों को मेरा ही रोग हुआ, वे बहुत पहले मर चुके हैं। अगर उनका पुनर्जन्म हुआ हो, तो अब उनकी उम्र बीस-तीस साल होगी। परमेश्वर के अनुग्रह से मैं इतने वर्ष जी गया, सब कुछ मुझे मुक्त रूप से मिला। अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता, तो कब का मर गया होता। जब मैं जाँच के लिए अस्पताल गया, तो डॉक्टर चौंक गए थे। मुझे कितना बड़ा लाभ और आशीष प्राप्त है! अगर मैं 20 वर्ष पहले मर गया होता, तो मैंने ये सत्य और धर्मसंदेश नहीं सुने होते, उन्हें नहीं समझा होता; अगर मैं यूँ ही मर गया होता, तो मैंने कुछ भी हासिल नहीं किया होता। अगर मैंने लंबा जीवन जिया होता, तो सारा-का-सारा जीवन खोखला और व्यर्थ रहा होता। अब मैं इतने वर्ष अतिरिक्त जिया हूँ, और मुझे इतने लाभ दिए गए हैं। मैंने इतने वर्ष मृत्यु के बारे में नहीं सोचा, और मुझे उसका डर नहीं।” अगर लोग हमेशा मृत्यु से भयभीत रहें, तो वे हमेशा मृत्यु से जुड़े तमाम सवालों के बारे में सोचते रहेंगे। अगर लोग मरने से न डरें, और उन्हें मृत्यु का खौफ न हो, तो यह दिखाता है कि वे काफी कष्ट सह चुके हैं, और अब उन्हें मृत्यु का खौफ नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर किसी को मृत्यु का खौफ नहीं है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि वे मृत्यु को खोज रहे हैं?” नहीं, यह सही नहीं है। मृत्यु को खोजना एक तरह का नकारात्मक रवैया है, बचने का रवैया है, जबकि पहले मृत्यु के बारे में न सोचने को लेकर मैंने जो कहा, वह वस्तुपरक, सकारात्मक रवैया है; यानी मृत्यु को उपेक्षा से देखना, उसे बहुत महत्व न देना, उसे बहुत दुखदायी, व्याकुलता पैदा करने वाली घटना न समझना; उसके बारे में और चिंता न करना, उसको लेकर बिल्कुल चिंतित न होना, मृत्यु की जकड़ में न रहना, उसे खुद से बहुत पीछे छोड़ देना—जो लोग ऐसा कर पाते हैं, उन्हें मृत्यु का थोड़ा निजी ज्ञान और अनुभव होता है। अगर कोई हमेशा बीमारी और मृत्यु से बंधा हुआ और बेबस रहे, हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं से घिरा रहे, सामान्य रूप से अपना कर्तव्य न निभा पाए या सामान्य रूप से न जी पाए, तो उसे मृत्यु के बारे में और ज्यादा अनुभवात्मक गवाही सुननी चाहिए, यह देखना चाहिए कि जो लोग मृत्यु को उपेक्षा से देख पाते हैं, वे उसका कैसे अनुभव करते हैं और अपने अनुभव में मृत्यु को कैसे समझते हैं, तब जाकर वे कोई बहुमूल्य चीज हासिल कर पाएँगे।

मृत्यु एक ऐसी समस्या नहीं है जिसे हल करना आसान हो, यह मनुष्य की सबसे बड़ी मुश्किल है। अगर कोई तुमसे कहे, “तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बहुत गहरा है और तुम्हारी मानवता भी अच्छी नहीं है। अगर तुम सच्चे दिल से सत्य का अनुसरण न करके भविष्य में अनेक दुष्कर्म करोगे, तो नरक में दंडित किए जाओगे!” तो इसके बाद तुम थोड़ी देर परेशान रहोगे। तुम शायद इस पर चिंतन करो, रात भर सो लेने के बाद काफी बेहतर महसूस करो, और तब तुम उतने परेशान न रहो। लेकिन अगर तुम एक घातक रोग से ग्रस्त हो जाते हो, तुम्हारे जीने का ज्यादा समय न बचा हो, तो यह ऐसी चीज नहीं है जो रात भर सो लेने से ठीक हो जाए, और इसे उतनी आसानी से जाने नहीं दिया जा सकेगा। इस मामले में तुम्हें कुछ वक्त तपने की जरूरत है। सत्य का सच्चे दिल से अनुसरण करने वाले लोग इस विषय को पीछे छोड़ पाते हैं, सभी चीजों में सत्य खोज सकते हैं, और इसे दूर करने के लिए सत्य का प्रयोग कर सकते हैं—ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे वे हल नहीं कर सकते। लेकिन अगर लोग मनुष्य के तरीके इस्तेमाल करें, तो आखिरकार वे मृत्यु को लेकर सिर्फ निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते रहेंगे। जिन चीजों का समाधान नहीं किया जा सकता, वे उन्हें सुलझाने की कोशिश में अतिवादी तरीके काम में लेते हैं। कुछ लोग यह कहकर अवसादग्रस्त और नकारात्मक नजरिया अपनाते हैं, “तो मैं बस मर जाऊँगा। मौत से कौन डरता है? मृत्यु के बाद, मैं पुनर्जन्म लेकर फिर से जियूँगा!” क्या तुम इसका सत्यापन कर सकते हो? तुम्हें बस सुकून देने वाले कुछ वचनों की तलाश है, और इससे समस्या हल नहीं होती। दृश्य या अदृश्य, भौतिक या अभौतिक, तमाम चीजें और हर चीज सृष्टिकर्ता के हाथों नियंत्रित और शासित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी नियति का नियंत्रण नहीं कर सकता, मनुष्य को बीमारी या मृत्यु, दोनों के प्रति बस एक ही रवैया अपनाना चाहिए, और वह है समझ, स्वीकार्यता, और समर्पण का; लोगों को अपनी कल्पनाओं या धारणाओं के भरोसे नहीं रहना चाहिए, उन्हें इन चीजों से बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूँढ़ना चाहिए, और इन चीजों को ठुकराना या उनका प्रतिरोध तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने ही तरीकों से आँखें बंद करके बीमारी और मृत्यु के मसलों को दूर करने की कोशिश करोगे, तो तुम जितना लंबा जिओगे उतना ही ज्यादा कष्ट सहोगे, उतना ही अवसादग्रस्त हो जाओगे, और उतना ही फँसा हुआ अनुभव करोगे। अंत में, तब भी तुम्हें मृत्यु के पथ पर चलना पड़ेगा, तुम्हारा अंत सचमुच तुम्हारी मृत्यु जैसा ही होगा—तुम सचमुच मर जाओगे। अगर तुम सक्रिय होकर सत्य खोज सको, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित रोग या मृत्यु की समझ को लेकर तुम सकारात्मक और सक्रिय ढंग से सत्य खोज सको, इस प्रकार की बड़ी घटना के बारे में सृष्टिकर्ता के आयोजनों, संप्रभुता और व्यवस्थाओं को खोज सको, और सच्चा समर्पण कर पाओ, तो यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। अगर तुम ये तमाम चीजें झेलने के लिए मनुष्य की शक्ति और तरीकों के भरोसे रहो, इन्हें ठीक करने या इनसे बच निकलने की जबरदस्त कोशिश करो, तो भले ही तुम न मरो, अस्थायी रूप से मृत्यु की मुश्किल से बचने का प्रबंध कर लो, तो भी परमेश्वर और सत्य के प्रति सच्ची समझ, स्वीकार्यता और समर्पण न होने से तुम इस मामले में गवाही नहीं दे पाओगे, और इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि जब तुम उसी मसले का दोबारा सामना करोगे, तब भी यह तुम्हारे लिए एक बड़ी परीक्षा बना रहेगा। तुम्हारे लिए अब भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर गिर पड़ने की संभावना होगी, और बेशक तुम्हारे लिए यह खतरनाक चीज होगी। इसलिए, अगर तुम फिलहाल रोग या मृत्यु का सचमुच सामना कर रहे हो, तो मैं बता दूँ, सत्य को खोज कर इस मामले को जड़ से मिटा देने के लिए अभी इस व्यावहारिक स्थिति का फायदा उठाना बेहतर है, बजाय इसके कि मृत्यु के सचमुच एकाएक आ जाने की प्रतीक्षा करो, खोया हुआ, विकल और बेसहारा महसूस करो जिससे तुम ऐसी चीजें करो कि तुम्हें जीवन भर पछताना पड़े। अगर तुम ऐसे काम करते हो जिनके लिए तुम्हें खेद और पछतावा होता है, तो यह तुम्हें विनाश की ओर बढ़ा सकता है। इसलिए, मसला चाहे जो भी हो, तुम्हें हमेशा उस विषय की समझ के साथ और जो सत्य तुम्हें समझने चाहिए, उनके साथ ही अपना प्रवेश प्रारंभ करना चाहिए। अगर तुम रोग जैसी चीजों को लेकर निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हो, और ऐसी नकारात्मक भावनाओं में घिरे रहते हो, तो तुम्हें तुरंत सत्य की खोज शुरू कर देनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द इन समस्याओं को दूर करना चाहिए।

संताप, व्याकुलता और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाओं की प्रकृति भी दूसरी विविध नकारात्मक भावनाओं जैसी ही होती है। ये सब तरह-तरह की नकारात्मक भावनाएँ हैं जो लोगों में पैदा होती हैं, क्योंकि वे सत्य नहीं समझते और अपने बहुविध शैतानी भ्रष्ट स्वभावों में जकड़े रहते हैं, या वे तरह-तरह के शैतानी विचारों से परेशान और प्रभावित होकर जीते रहते हैं। इन नकारात्मक भावनाओं के कारण लोग हमेशा हर तरह के गलत विचारों और सोच के साथ जीते हैं, साथ ही हर तरह के गलत विचारों और सोच से नियंत्रित रहते हैं, जो उनके सत्य के अनुसरण को रोककर उसे प्रभावित करते हैं। बेशक, संताप, व्याकुलता और चिंता की ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के जीवन को बाधित करती हैं, उसे निर्देशित करती हैं, उनके सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हैं, और उन्हें सत्य का अनुसरण करने से दूर रखती हैं। इसलिए, भले ही ये नकारात्मक भावनाएँ सरल अर्थ में भावनाएँ ही हैं, मगर उनके कार्य को कम नहीं आंका जा सकता; ये लोगों पर जो प्रभाव डालती हैं, लोगों के अनुसरण और जिस पथ पर वे चलते हैं, उसका जो परिणाम करती हैं, वे खतरनाक हैं। किसी भी स्थिति में, जब किसी व्यक्ति के मन में तरह-तरह की नकारात्मक भावनाएँ अक्सर उफन कर उन्हें बाधित करती हैं, तो उन्हें तुरंत इनका पता लगा कर विश्लेषण करना चाहिए कि ये नकारात्मक भावनाएँ अक्सर क्यों सिर उठाती हैं, और वे अक्सर इन नकारात्मक भावनाओं से क्यों तंग रहते हैं। साथ ही, किसी खास माहौल में ये नकारात्मक भावनाएँ उस व्यक्ति को निरंतर तंग कर उसके सत्य के अनुसरण को बुरी तरह बाधित करती हैं—ये ऐसी चीजें हैं जिनकी समझ लोगों को होनी चाहिए। एक बार ये चीजें समझ लेने के बाद, उन्हें यह सोचना चाहिए कि इस विषय में सत्य कैसे खोजें और समझें, इन गलत विचारों और सोच से परेशान और प्रभावित न रहने की कोशिश करनी चाहिए, और उनका स्थान परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सत्य सिद्धांतों को दे देना चाहिए। एक बार सत्य सिद्धांतों को समझ लेने के बाद, उनका अगला कदम परमेश्वर द्वारा उन्हें सिखाए गए सत्य सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करना होना चाहिए। ऐसा करने पर, उनकी सभी नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे उन्हें बाधित करने के लिए उभरेंगी, और फिर एक-एक-कर धीरे-धीरे ठीक कर दी जाएँगी और इनके खिलाफ विद्रोह होगा, जब तक कि वे लोग अनजाने ही इन तमाम नकारात्मक भावनाओं को पीछे न छोड़ दें। तो विविध नकारात्मक भावनाओं का समाधान किसके भरोसे होता है? यह उनको लेकर लोगों के विश्लेषण और समझ के भरोसे होता है, लोगों की सत्य की स्वीकार्यता और उससे भी ज्यादा लोगों के सत्य के अनुसरण और अभ्यास के भरोसे होता है। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।) जैसे-जैसे लोग धीरे-धीरे सत्य का अनुसरण कर उस पर अमल करते हैं, उनकी विविध नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे ठीक हो जाती हैं और त्याग दी जाती हैं। तो अब इस पर गौर करते हुए, तुम्हारे ख्याल से किस चीज को त्याग देना और ठीक करना आसान है, इन विविध नकारात्मक भावनाओं को या भ्रष्ट स्वभावों को? (नकारात्मक भावनाओं का समाधान ज्यादा आसान है।) तुम सोचते हो कि नकारात्मक भावनाओं को ठीक करना ज्यादा आसान है? यह हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है। इनमें से कोई एक कठिन या आसान नहीं होता, यह बस व्यक्ति पर निर्भर करता है। किसी भी स्थिति में, हमने नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने के बारे में संगति शुरू करते हुए, हमने लोगों के स्वभावगत परिवर्तन के अनुसरण में थोड़ी विषयवस्तु जोड़ी है, और वह है विविध नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना। नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने का काम मुख्य रूप से कुछ गलत विचारों और सोच को दुरुस्त करने के लिए किया जाता है, जबकि भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करने के लिए भ्रष्ट स्वभावों के सार की समझ जरूरी होती है। बताओ मुझे, क्या ज्यादा आसान है, नकारात्मक भावनाओं को ठीक करना या भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना? असल में इनमें से किसी भी समस्या को हल करना आसान नहीं है। अगर तुम सचमुच दृढ़संकल्प हो, और सत्य खोज सकते हो, तो फिर चाहे जो भी समस्या हल करना चाहो, उसमें कोई मुश्किल नहीं होगी। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और भाँप नहीं पाते, कि ये दोनों समस्याएँ कितनी गंभीर हैं, तो तुम किसी भी समस्या को हल करने की कोशिश करो यह आसान नहीं होगा। इन नकारात्मक प्रतिकूल चीजों के विषय में, तुम्हें उन्हें ठीक करने के लिए सत्य को स्वीकार कर उस पर अमल करने, सत्य को समर्पित होने और उन चीजों को सकारात्मक चीजों से बदलने की जरूरत है। हमेशा यही प्रक्रिया होती है, और इसमें हमेशा लोगों के नकारात्मक चीजों के खिलाफ विद्रोह करने और सकारात्मक, सक्रिय और सत्य के अनुरूप चीजों को स्वीकारने की जरूरत होती है। एक पहलू तुम्हारे विचारों और सोच पर कार्य करना है, और दूसरा तुम्हारे स्वभावों पर कार्य करना; एक है तुम्हारे विचारों और सोच को दुरुस्त करना और दूसरा तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना। बेशक कभी-कभी ये दोनों चीजें एक-साथ उभरती हैं, और एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं। किसी भी स्थिति में, लोगों को सत्य का अनुसरण करते समय, नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने पर अमल करना चाहिए। ठीक है, चलो, आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।

29 अक्तूबर 2022

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