सत्य का अनुसरण कैसे करें (4) भाग दो

सत्य का अनुसरण करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे अंत तक नहीं पहुँच सकते; यह सुनिश्चित नहीं है। सभी लोग सृजित प्राणी हैं, और अगर वे दानव या शैतान नहीं हैं, तो वे सक्रिय रूप से परमेश्वर पर हमला नहीं करेंगे, या पूरी तरह जानते-बूझते हुए परमेश्वर पर हमला और उसकी ईशनिंदा नहीं करेंगे। इसलिए, परमेश्वर साधारण भ्रष्ट मानवजाति के प्रति निष्पक्ष और वाजिब है, और वह उन्हें उद्धार प्राप्त करने का पूरा मौका देता है। जब मनुष्य उद्धार प्राप्ति का अनुभव करता है, तो परमेश्वर उसके प्रति दयालु होता है, उसकी रक्षा करता है, उसकी देखभाल करता है। तो उन लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है जो दानव और शैतान हैं? वे परमेश्वर को अपना शत्रु मानते हैं, निरंतर उसकी आलोचना कर उस पर हमला और ईशनिंदा करते हैं, उसके कार्य को नष्ट करते हैं, और कभी प्रायश्चित्त करना नहीं जानते। दूसरे लोगों से बातचीत करते समय, कुछ लोगों से उनकी अच्छी बनती है, लेकिन सिर्फ परमेश्वर के समक्ष आने पर उसके साथ मिनट भर या पल भर भी उनकी नहीं बनती; वे किसी भी बात पर परमेश्वर के साथ न कार्य कर सकते हैं, न उसके साथ जी सकते हैं या सहमति बना सकते हैं, और यह दर्शाता है कि वे प्रमाणित दानव और शैतान हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता, और परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को बिल्कुल नहीं रखता। जैसे ही ऐसे किसी व्यक्ति का पता चलता है, उसे हटा दिया जाता है; ऐसी किसी जोड़ी का पता चलने पर, उन्हें भी हटा दिया जाता है; जितने भी लोग उजागर किए जाते हैं, उतने लोग हटा दिए जाते हैं—जिस दिन वे उजागर होते हैं, उसी दिन उनका काम तमाम हो जाता है। देखो, जब नेक लोगों को तरक्की देकर अहम कामों में लगाया जाता है, तभी उन्हें पूर्ण कर आशीष दी जाती है और वे सबसे अधिक फल प्राप्त करते हैं; जब बुरे लोगों और दानवों को तरक्की देकर कामों में लगाया जाता है, तो वे स्वाभाविक रूप से उजागर कर हटा दिए जाते हैं, उनका अंतिम दिन आ जाता है। अपने आसपास के उन लोगों के बारे में सोचो जिन्हें जल्दी ही या शुरुआत में उजागर कर हटा दिया गया या बाहर निकाल दिया गया और जिनके नाम काट दिए गए। ये लोग तब हटाए गए जब वे परमेश्वर के घर में अपने “करियर” के चरम पर थे, तभी उनका अंतिम दिन आया, और परमेश्वर में आस्था के उनके जीवन में एक विशाल विराम चिह्न अंकित हो गया। कलीसिया में छद्म-विश्वासी आते हैं और जाते हैं, उन्हें अपने लिए सही स्थान नहीं मिल पाता, न ही वे कोई कर्तव्य निभा पाते हैं। जैसे ही वे कोई कुकृत्य करते हैं, वे उजागर हो जाते हैं, और उनका अंतिम दिन आ जाता है। दानव बहुत बड़े काम करना चाहते हैं, नाम कमाना चाहते हैं, और जिस दिन वे महिमा का सबसे अधिक आनंद ले रहे होते हैं, वही उनका अंतिम दिन होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्या तुम जानते हो? बात ऐसी ही है। जब वे महिमा का सबसे अधिक आनंद ले रहे होते हैं, तब वे सबसे ज्यादा आत्मतुष्ट होते हैं, और क्या ऐसा नहीं है कि जब वे सबसे ज्यादा आत्मतुष्ट होते हैं, तभी उनके खुद को भूलने की सबसे अधिक संभावना होती है? (हाँ।) जब तक उन्हें कामयाबी और महिमा नहीं मिली होती, तब तक तो ये दानव सिर झुकाए रहते हैं। लेकिन सिर्फ इसलिए कि मैं कहता हूँ कि वे सिर झुकाए रहते हैं, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य पर अमल कर पाते हैं, बस यही है कि वे सावधानी और सतर्कता से काम करते हैं, मगर सतर्क और परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ नहीं। जैसे ही उन्हें कोई अवसर दिखाई देता है या उन्हें कोई सत्ता या रुतबा मिलता है, और वे हवा और वर्षा को भी अपना मनचाहा आदेश देने में समर्थ हो जाते हैं, तो वे यह सोचकर आत्मतुष्ट हो खुद को भूल जाते हैं, “मेरा वक्त आ गया है। अब अपनी काबिलियत और खूबियों को सामने रखने और अपनी क्षमताओं को काम पर लगाने का वक्त है!” फिर वे मैदान में कूद जाते हैं। उनके कर्मों के पीछे की अभिप्रेरणा क्या है, उनके कर्मों का स्रोत क्या है? उनके कर्मों की अभिप्रेरणा और स्रोत कहाँ से प्रस्फुटित होते हैं? ये दानवों से, शैतान से और उनकी निरंकुश महत्वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं से प्रस्फुटित होते हैं। ऐसे हालात में, जो काम वे करते हैं क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकते हैं? क्या काम करते समय वे परमेश्वर का भय मान सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार मामले सँभाल सकते हैं? इन सभी सवालों का जवाब है नहीं, वे नहीं कर सकते। और इसके नतीजे क्या होते हैं? (वे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं।) सही है, परिणाम ये होते हैं कि वे गंभीर गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं, और वे परमेश्वर के घर और कलीसिया कार्य को भी गंभीर रूप से बाधित कर उसे नुकसान पहुँचाते हैं। तो फिर, परमेश्वर के घर में लोगों को सँभालने के सिद्धांतों के अनुरूप, कलीसिया कार्य को ऐसे परिणामों में झोंकने वालों से कैसे निपटा जाए? अगर मामला बहुत छोटा हो, तो ऐसे लोगों को बदल देना चाहिए, और अगर गंभीर हो, तो उन लोगों को हटा देना चाहिए। जब किसी को तरक्की देकर किसी अहम काम में लगाया जाता है, या उनके लिए किसी काम की व्यवस्था की जाती है, तो परमेश्वर का घर उसके साथ हमेशा कार्य करने के सिद्धांतों पर स्पष्ट संगति करता है। उस व्यक्ति को अनेक सिद्धांत और बारीकियाँ समझाई जाती हैं, और उनके इन बातों को समझ लेने, उनकी थाह पा लेने, और उन्हें लिख लेने के बाद ही उसे काम सौंपने का कार्य पूरा माना जाता है। लेकिन जब ऐसे लोगों का कुछ काम कर अपना कर्तव्य निभाने का वक्त आता है, तो वे अपने दानवी पंजे निकालकर इसमें जुट जाते हैं और वे सचमुच में जैसे दानव हैं, वह प्रकट होने लगता है। वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल कार्य नहीं करते, बल्कि इसके बजाय बिल्कुल अपनी ही मर्जी, अपने ही ढंग से करते हैं। उन पर कोई काबू नहीं कर सकता, और वे यह सोचकर किसी की बात नहीं मानते, “परमेश्वर का घर, परमेश्वर और सत्य सबके-सब बाजू में! यहाँ मेरी ही चलती है!” दानव इसी तरह काम करते हैं, और कर्तव्य और सत्य के प्रति दानवों का रवैया यही होता है। अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया ऐसा है, तो तुम उजागर हो जाओगे। अगर तुम परमेश्वर के घर के कार्य और अपने कर्तव्य को तुच्छ मानते हो, परमेश्वर के घर द्वारा निर्दिष्ट सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते, तो तुमसे शिष्टता से बर्ताव नहीं किया जाएगा। लोगों से व्यवहार करने के परमेश्वर के घर के अपने सिद्धांत हैं; जिन्हें उनके पद से बर्खास्त कर देना चाहिए, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है, जिनको हटा दिया चाहिए उन्हें हटा दिया जाता है, और इस बारे में कहने को बस इतना ही है। क्या ऐसा नहीं है? क्या परमेश्वर का घर ऐसा नहीं करता? क्या इसी तरह दानवों का खुलासा नहीं होता? क्या यही उनके काम करने की अभिप्रेरणा, उनके कर्मों और उनके काम करने के तरीके का स्रोत नहीं है? (हाँ।) उनसे इस तरह व्यवहार कर क्या परमेश्वर का घर उनसे अन्यायपूर्वक बर्ताव कर रहा है? (नहीं।) क्या यह उनसे पेश आने का उपयुक्त तरीका है? (हाँ।) यह सचमुच बहुत उपयुक्त है! सामान्य व्यक्ति अपना कर्तव्य स्वीकारता है, तरक्की पाता है, और उसे कुछ महत्वपूर्ण काम दिया जाता है। वह अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपना काम करता है, कमोबेश इसे अपने समझे हुए कार्य सिद्धांतों या परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें पालन करने के लिए सौंपे सिद्धांतों के अनुसार करता है। इस तथ्य के बावजूद कि वह अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, उसके कर्तव्य के सामान्य निर्वहन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। वह चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, खुद को जैसी भी गलत दशा में पाए, या जैसी भी बाधाएँ सहे, अंत में वह अपने कर्तव्य में कुछ सकारात्मक नतीजे जरूर पाएगा, और ये नतीजे सबको स्वीकार्य होंगे। लेकिन वे छद्म-विश्वासी चाहे जितने भी लंबे समय से अपना कर्तव्य निभाते आए हों, कभी भी सकारात्मक नतीजे हासिल नहीं करते। वे हमेशा दुष्कर्म करते हैं, चीजों को बरबाद करने की कोशिश करते हैं, और इससे न सिर्फ कलीसिया कार्य प्रभावित होता है, बल्कि इससे कलीसिया के हितों को भी हानि होती है, उनके काम के चारों ओर दूषित माहौल तैयार होता है, और वह गड़बड़ा जाता है। अगर कोई दानव किसी काम को बाधित कर बरबाद कर देता है, तो परदे के पीछे अनेक लोग होंगे जिन्हें काम को दोबारा शुरू से करना पड़ता है, जिससे परमेश्वर के घर के मानव और वित्तीय संसाधन व्यर्थ हो जाते हैं, और परमेश्वर के अनेक चुने हुए लोग क्रोधित हो जाते हैं। दानव के निकाल दिए जाने के बाद कलीसिया कार्य में तुरंत नई रौनक आ जाती है, और कार्य के नतीजे अलग होते हैं। गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करने वाले दानव को प्रतिबंधित कर देने के बाद लोगों की मानसिकता आजाद और मुक्त हो जाती है, कार्य क्षमता बढ़ जाती है, और सभी लोग अपने कर्तव्य सामान्य ढंग से करने लगते हैं। इसलिए, दानवों और शैतान के ये लोग बाहर से मनुष्य लगते हैं, और वे किसी भी उम्र के हों या जितने भी शिक्षित हों, अगर वे बुरे लोग हैं, तो वे दुष्कर्म कर सकते हैं, और दानवों और शैतान की भूमिका निभाते हुए लोगों को भ्रष्ट और बाधित कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, तुम चिकन सूप बना रहे हो, सभी लोग खाने के इंतजार में हैं, और तभी अचानक एक मक्खी सूप में जा गिरती है। तो बताओ, क्या इस सूप को अब भी लोग खा सकेंगे? कुछ नहीं हो सकता, तुम्हें इसे फेंकना पड़ेगा और दो-तीन घंटे का काम व्यर्थ हो जाएगा। फिर तुम्हें बर्तन को कई-कई बार धोना पड़ेगा और बार-बार धोने के बाद भी यह तुम्हें साफ नहीं लगेगा, और हल्की-सी घृणा बनी रहेगी। तुम्हें किस चीज ने विचलित किया? (मक्खी ने।) हालाँकि मक्खी बहुत छोटी-सी है, उसका अशुद्ध सार बहुत घिन पैदा करता है। दानवों के ये लोग मक्खियों जैसे हैं। वे किसी तरह कलीसिया में घुस जाते हैं, कलीसिया जीवन के सामान्य क्रम में गंभीर बाधा खड़ी करते हैं, और कलीसिया कार्य की सामान्य प्रगति को बाधित कर देते हैं। तो क्या अब तुम दानवों के इन लोगों की स्पष्ट समझ हासिल कर पाए हो? उनसे थोड़ी सेवा करवाने और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करवाने की कोशिश करना किसी गाय को पेड़ पर चढ़ाने जैसा है; यह किसी बत्तख को पेड़ की शाखा पर बिठाने की कोशिश जैसा है। सबसे कठिन काम है दानवों और शैतानों से सत्य पर अमल करवाने की कोशिश करना, छद्म-विश्वासियों को वफादारी से उनका कर्तव्य निभाने के लिए मनाने की कोशिश करना भी वैसा ही है। बात ऐसी ही है। अगर तुम लोग शैतान के लोगों और छद्म-विश्वासियों के संपर्क में आते हो और तुम्हें अस्थायी तौर पर उनसे किसी काम में मदद माँगने की जरूरत पड़े, तब तो ठीक है। लेकिन अगर तुम उनके कोई कर्तव्य निभाने या कोई काम करने की व्यवस्था करते हो, तो तुम्हारी आँखें बंद हैं, तुम्हें धोखा मिलेगा। खास तौर पर अगर तुम उनसे कोई अहम काम करने को कहो, तो तुम और भी ज्यादा बेवकूफ हो। अगर तुम्हें सचमुच किसी काम के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल रहा और इसलिए तुम उनसे मदद माँग रहे हो, तो उनसे कोई काम करने के लिए कहना ठीक है, लेकिन तुम्हें उन पर नजर रखनी चाहिए और मामले को दरकिनार नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग बिल्कुल भरोसेमंद नहीं होते; चूँकि वे मानव नहीं दानव हैं, इसलिए वे बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। तो अब टीमों और टीम अगुआओं का प्रभार सँभालने वालों और अहम कर्तव्य और महत्वपूर्ण कार्य निभाने वाले लोगों पर नजर दौड़ाओ और देखो कि क्या वे इन दानवों जैसे हैं। अगर तुम ऐसे लोगों को बदल सको, तो जल्द-से-जल्द बदल दो; अगर किसी दूसरे उपयुक्त व्यक्ति के न मिलने के कारण तुम उन्हें नहीं बदल सकते, तो उन पर कड़ी नजर रखो, पर्यवेक्षण करो और बारीकी से जाँचते रहो। तुम्हें दानवों और शैतानों को बाधाएँ खड़ी करने का मौका नहीं देना चाहिए। दानव हमेशा दानव ही रहता है, उसमें कोई मानवता नहीं होती, उनमें कोई जमीर और विवेक नहीं होता—तुम्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए! सभी छद्म-विश्वासी दानवों और शैतान के होते हैं, और तुम्हें उन पर यकीन नहीं करना चाहिए! चलो, इस विषय पर संगति यहीं समाप्त करते हैं।

पहले, सत्य का अनुसरण कैसे करें, विषय पर संगति करते समय हमने दो चीजों के बारे में चर्चा की थी। पहली चीज क्या थी? (त्याग देना।) एक थी त्याग देना। दूसरी क्या थी? (समर्पित होना।) समर्पित होना। हमने पहले विषय, “त्याग देना” पर तीन बार चर्चा की। पिछली बार हमने किस विषय पर संगति की थी? (पिछली बार, परमेश्वर ने लोगों के मुश्किलों का सामना करने के परिप्रेक्ष्य से उनमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के उत्पन्न होने के कारणों और परमेश्वर के कार्य और सत्य के प्रति उनके रवैये का विश्लेषण किया था।) संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ कई कारणों से पैदा हो सकती हैं, मगर आम तौर पर वे इस वस्तुपरक कारण से होती हैं कि लोग सत्य को नहीं समझते। यह एक कारण है। एक और भी कारण है, और वही मुख्य कारण है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। जब लोग सत्य को नहीं समझते या उसका अनुसरण नहीं करते और उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती, तो वे सचमुच में समर्पण नहीं करते, और इसी वजह से उनमें सहज रूप से हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। चूँकि लोग अपने दैनिक जीवन में व्यावहारिक दिक्कतों का अनुभव करते हैं, अपनी सोच में तरह-तरह की समस्याओं का सामना करते हैं, इसलिए वे अपने वस्तुपरक परिवेश में हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ अनुभव करते हैं। खास तौर से संताप, व्याकुलता और चिंता की जिन नकारात्मक भावनाओं के बारे में हमने पिछली बार बात की थी, वे सब इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि लोग अपने शारीरिक जीवन से जुड़ी तरह-तरह की दिक्कतों और समस्याओं का सामना करते हैं। इन समस्याओं का सामना होने पर लोग सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर की बात पर यकीन नहीं करते, परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना और समझकर उस पर अमल करना तो दूर की बात है, जो उन्हें इन चीजों के बारे में अपनी गलत सोच, गलत विचारों और नजरियों को जाने देता है और साथ ही इन चीजों को सँभालने और देखने के गलत तरीकों को जाने देता है, इस कारण से दिन गुजरते जाते हैं, वक्त बीतता जाता है और दैनिक जीवन में लोग जिन दिक्कतों का सामना करते हैं, उनसे उनके मन में विचलित कर बेबस करने वाले तरह-तरह के विचार पैदा होते जाते हैं। अनजाने में ही, ये विचार उनमें उनके दैहिक जीवन और उनकी विभिन्न समस्याओं को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ पैदा कर देते हैं। असल में, जब लोग परमेश्वर के समक्ष नहीं आए होते, या उन्हें सत्य की समझ नहीं होती, तो ये समस्याएँ कमोबेश हर व्यक्ति में संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ पैदा करती हैं—इससे बचा नहीं जा सकता। जो लोग देह में जीवन जीते हैं, उनके साथ होने वाली कोई भी चीज जरूर उनके जीवन और विचारों में कुछ गड़बड़ी पैदा कर उन्हें प्रभावित करेगी। जब यह गड़बड़ी और प्रभाव उनकी सहनशीलता से ज्यादा हो जाते हैं, या जब उनका सहज बोध, काबिलियत और सामाजिक हैसियत उन्हें सहारा देने या इन दिक्कतों को सुलझाने या दूर करने के लिए नाकाफी हों, तो संताप, व्याकुलता और चिंता उनके दिलों में सहज ही गहराई से पैदा होकर जमा हो जाएँगी, और फिर ये भावनाएँ उनकी सामान्य दशा बन जाएँगी। अपने भविष्य की संभावनाओं, खान-पान, शादी, भविष्य में जीवित रहने या सेहत, बुढ़ापे, समाज में हैसियत और प्रतिष्ठा जैसी विविध चीजों के बारे में फिक्र करना एक ऐसी हालत है, जो मनुष्य के सत्य न समझने और परमेश्वर में विश्वास न रखने के कारण पूरी मानवजाति में समान रूप से होती है। लेकिन एक बार जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, जब वे थोड़ा-बहुत सत्य समझ लेते हैं, तो सत्य के अनुसरण का उनका संकल्प मजबूत होता जाता है। इस प्रकार, जिन व्यावहारिक दिक्कतों और समस्याओं का वे सामना करते हैं, वे धीरे-धीरे घट जाएँगी, और संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कमजोर होकर कम हो जाएँगी—यह बहुत स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए है कि लोगों के परमेश्वर के वचन पढ़ लेने और परमेश्वर में विश्वास में कुछ सत्य समझ लेने के बाद, वे ताजिंदगी हमेशा अपने सामने आने वाले मुद्दों के सार, मूल और उत्पत्ति को परमेश्वर के वचनों के अनुसार समझेंगे और देखेंगे। अंतिम विश्लेषण में, वे आखिरकार यह समझ सकेंगे कि उनका भाग्य और अपने जीवन में उनके द्वारा अनुभव की गई तमाम चीजें, सब परमेश्वर के हाथ में हैं, और इसलिए एक सामान्य परिप्रेक्ष्य में यह समझ पाएँगे कि यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और कुछ भी उनके अपने हाथ में नहीं है। इसलिए, लोगों के लिए सबसे सरल काम समर्पण करना है—स्वर्ग की व्यवस्थाओं और संप्रभुता को समर्पण करना। उन्हें अपने भाग्य से संघर्ष नहीं करना चाहिए, बल्कि इसके बजाय जब किसी भी मामले से उनका सामना हो, तो उन्हें हमेशा सकारात्मक और सक्रिय होकर परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए, और वहाँ से मसला सुलझाने का सबसे उपयुक्त तरीका ढूँढ़ना चाहिए—यह वह सबसे बुनियादी चीज है जो लोगों को समझनी चाहिए। यानी यह कह सकते हैं कि लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, उनके समझे हुए सत्य और बुनियादी ढंग से परमेश्वर को समर्पित हो जाने के कारण, उनका संताप, व्याकुलता और चिंता धीरे-धीरे कम हो जाती है। इसका अर्थ है कि ये भावनाएँ अब उन्हें उतनी गंभीरता से परेशान नहीं करतीं, या उलझन या पशोपेश में नहीं डालतीं या उन्हें यह महसूस नहीं करातीं कि उनका भविष्य धूमिल या अनिश्चित है, जिससे वे अक्सर इन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करें। इसके विपरीत चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास रखने लगे हैं, कुछ सत्य समझने लगे हैं और जीवन की तमाम चीजों को पहचान कर उन्हें समझने लगे हैं, या इन चीजों से निपटने का ज्यादा सही तरीका जान चुके हैं, इसलिए संताप, व्याकुलता और चिंता की उनकी नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाती हैं। लेकिन तुम्हारे अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने, अनेक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी, संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ अभी भी दूर या कमजोर नहीं हुई हैं—यानी लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के प्रति तुम्हारा रवैया, तुम्हारे विचार, नजरिये और परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले के, चीजों से निपटने के तुम्हारे तरीके नहीं बदले हैं—यानी परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद परमेश्वर के वचन पढ़कर और धर्मोपदेश सुनकर तुमने न तो सत्य को स्वीकारा और न इसे प्राप्त किया, न ही इन मसलों को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग किया, और इस तरह संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं को दूर नहीं किया। अगर इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करने के लिए तुमने कभी सत्य नहीं खोजा, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम्हारे साथ कोई समस्या है? (हाँ।) यह कौन-सी समस्या दिखाता है? तुम अनेक वर्षों से परमेश्वर के विश्वासी रहे हो, और अब भी महसूस करते हो कि तुम्हारा भविष्य बिल्कुल धूमिल और निराशामय है। तुम अब भी अक्सर दिल में खाली और बेबस महसूस करते हो, अक्सर खोया हुआ महसूस करते हो, और तुम्हें लगता है कि आगे अब कोई रास्ता नहीं रहा। तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारा जीवन किस ओर जा रहा है, तुम्हें लगता है तुम आगे बढ़ने के लिए बिना किसी राह और दिशा के अँधेरे में तीर चला रहे हो। इसका अर्थ क्या है? इसका इतना अर्थ तो है ही कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, है ना? अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो इतने वर्षों से तुम क्या करते रहे हो? क्या तुम सत्य का अनुसरण करते रहे हो? (नहीं।) अगर चीजों को त्यागते हुए, खुद को खपाते हुए, अपने कर्तव्य निभाते हुए तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते रहे हो, और व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं करते रहे हो, तो इतने समय से तुम क्या करते रहे हो? (आलस्य करते और बस जैसे-तैसे काम निपटाते रहे हैं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपना कर्तव्य लापरवाही से करते हैं, और ये लोग असल में श्रम कर रहे हैं। श्रमिक अपने कर्तव्य निभाने, थोड़ी कीमत चुकाने और थोड़े कष्ट सहने से संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसीलिए, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, वे जरा भी नहीं बदलते। ये लोग दरअसल श्रमिक हैं, और अगर पहले जैसा कहा जाता था वैसा कहें तो वे धार्मिक गतिविधियों में लगे हुए हैं। धार्मिक संसार की उन धार्मिक गतिविधियों पर गौर करो—रविवार के दिन लोग आराधना करने और सभाएँ करने जाते हैं और आम तौर पर वे सुबह प्रार्थना करते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करते हैं और सभी चीजों के लिए धन्यवाद देते हैं, अपनी प्रार्थनाओं से लोगों को आशीष देते हैं, और जब वे दूसरे लोगों को देखते हैं तो कहते हैं, “परमेश्वर तुम्हें आशीष देता है, तुम्हारी रक्षा करता है।” जब किसी संभावित उम्मीदवार पर उनकी नजर पड़ती है, तो सुसमाचार का प्रचार करते हैं और उसे बाइबल से एक अंश पढ़कर सुनाते हैं। थोड़े बेहतर लोग कलीसिया की साफ-सफाई करते हैं, और किसी प्रचारक के आने पर, वे उन्हें अपने घरों में ठहराते हैं; जब वे ऐसे बड़े-बूढ़ों से मिलते हैं जिनके जीवन में कुछ मुश्किलें हैं, तो उनकी मदद करते हैं, और उनकी मदद करने में उन्हें आनंद आता है। क्या ये धार्मिक गतिविधियाँ नहीं हैं? ईस्टर पर ईस्टर के अंडे खाना, क्रिसमस उत्सव मनाना, और क्रिसमस भजन गाना—वे इन गतिविधियों में संलग्न होते हैं। अब तुम्हारी गतिविधियाँ धार्मिक लोगों की गतिविधियों से थोड़ी ज्यादा बार की जाती हैं। तुममें से अनेक लोग अपने घर छोड़कर पूरा समय कर्तव्य निभाते हैं। तुम सुबह के वक्त अपना आध्यात्मिक भक्ति-कार्य करते हो, दिन में कुछ कलीसिया कार्य करते हो, नियमित सभाओं में जाकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, और रात को सोने से पहले, तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे रक्षा करने, रात में गहरी नींद देने और बुरे स्वप्न दूर रखने की विनती करते हो, और फिर अगले दिन यही सब काम दोहराते हो। तुम्हारा दैनिक जीवन अत्यधिक नियमित होता है, फिर भी वह बेहद फीका और मंद भी होता है। लंबे समय तक तुम कुछ हासिल नहीं करते, कुछ नहीं समझते, और कभी इस पर चिंतन नहीं करते या इन सर्वाधिक मौलिक नकारात्मक भावनाओं को नहीं पहचानते और न ही तुमने कभी उन्हें खोदकर निकाला और दूर किया है। अगर कभी तुम अपने खाली वक्त या अपने कर्तव्य में किसी ऐसी चीज का सामना करते हो जो तुम्हें पसंद नहीं, या तुम्हारे घर से कोई संदेश आए कि तुम्हारे माता-पिता की तबीयत खराब है, या घर में कोई अनहोनी घट गयी है, तो तुम्हें अब अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं होती, और कई दिन तक तुम कमजोर हो जाते हो। कमजोरी की इस हालत में, लंबे समय से तुम्हारे भीतर जमा हो रही ये नकारात्मक भावनाएँ फिर से उमड़ पड़ती हैं। तुम दिन-रात उनके बारे में सोचते हो, और वे साये की तरह तुम्हारा पीछा करती हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले से कुछ ऐसे विचार और सोच रखते थे, जो उनके कमजोर और नकारात्मक महसूस करते वक्त अचानक फिर से फूट पड़ते हैं, और वे सोचते हैं, “शायद बेहतर रहा होता अगर मैं कॉलेज चला गया होता, किसी विषय में विशेषज्ञता लेकर अच्छी नौकरी ढूँढ़ लेता—अब तक मेरी शादी भी हो चुकी होती। स्कूल में पढ़ते समय मेरा अमुक सहपाठी कुछ खास नहीं था, लेकिन स्कूल के बाद वह कॉलेज चला गया। नौकरी मिलने के बाद उसकी तरक्की भी हो गई, और अब उसका घरेलू जीवन बहुत खुशहाल है। उसके पास अपना घर है, गाड़ी है और वह बढ़िया जीवन जी रहा है।” जब वे इन चीजों के बारे में सोचकर इन नकारात्मक दशाओं में डूब जाते हैं, तो एकाएक हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं। वे घर और अपनी माँ के बारे में सोचते हैं, पहले जैसे जीवन को तरसते हैं, अच्छी-बुरी चीजें, खुशी की बातें, दिल दुखाने वाली बातें और न भुलाई जाने वाली चीजें उनके दिमाग में भर जाती हैं, और इन सबके बारे में सोचकर वे दुखी हो जाते हैं, उनकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती है। यह सब क्या दर्शाता है? यह दिखाता है कि तुम्हारे जीने और जीवन चलाने के तरीके समय-समय पर उभर कर तुम्हारे मौजूदा जीवन और उसकी दशा को विचलित कर सकते हैं। ये चीजें तुम्हारी मौजूदा जीवनशैली, जीवन में तुम्हारे रवैये, और साथ ही चीजों के बारे में तुम्हारी सोच पर हावी हो सकती हैं। ये तुम्हारे जीवन को निरंतर विचलित कर उस पर हावी हो जाती हैं। ऐसा तुम जानबूझकर नहीं करते, बल्कि इसके बजाय यह मामला तुम्हारे सहज ही इन नकारात्मक भावनाओं में घिर जाने का है। अभी शायद तुम्हें लगे कि तुममें ये भावनाएँ नहीं हैं, मगर सिर्फ इसलिए कि सही वक्त और माहौल नहीं आया है। सही वक्त और माहौल के आते ही, कभी भी कहीं भी तुम इन्हीं भावनाओं में डूब सकते हो। इन भावनाओं में डूबने पर तुम खतरे में हो, अपने मूल विचारों और सोच के काबू में हो जाने और कभी भी कहीं भी अपनी मूल जीवनशैली में वापस जाने के खतरे में हो—यह बेहद खतरनाक है। यह खतरा तुमसे कभी भी कहीं भी, तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने के मौके और आशा को छीन सकता है, और कभी भी कहीं भी यह तुम्हें परमेश्वर में आस्था के रास्ते से दूर ले जा सकता है। इसलिए, अभी अपना कर्तव्य निभाने का तुम्हारा संकल्प और आकांक्षा चाहे जितनी प्रबल हो, तुम्हारे समझे हुए सत्य चाहे जितने भी गूढ़ और ऊँचे क्यों न लगते हों, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे जितना भी ऊँचा हो, जब तक तुम्हारे विचार नहीं बदलते, जीवन के बारे में तुम्हारा नजरिया नहीं बदलता, तुम्हारी जीवनशैली नहीं बदलती, और जब तक तुम जीवन से जो चाहते हो, वह आकांक्षा नहीं बदलती—जो तमाम चीजें इन भावनाओं के निर्देशन के अधीन हैं वे नहीं बदलतीं—तो तुम हमेशा हर कहीं खतरे में रहोगे; जब तुम्हें इन विचारों और सोच से कभी भी कहीं भी निगला जा सके, अभिभूत कर बहाया जा सके, तब तुम खतरे में हो। इसलिए, इन नकारात्मक भावनाओं को हल्के में मत लो। कभी भी कहीं भी ये उद्धार प्राप्त करने का तुम्हारा मौका छीन सकते हैं, तुम्हारे बचाए जाने का मौका नष्ट कर सकते हैं, और यह कोई छोटी बात नहीं है।

मनुष्य की सारी नकारात्मक भावनाएँ विविध गलत विचारों, गलत सोच, गलत जीवनशैली, और जीवन के गलत शैतानी फलसफों के कारण पैदा होती हैं। तुम्हारे असल जीवन में भी कुछ चीजें होती हैं, खास तौर से तब जब तुम इन चीजों के सार को स्पष्ट रूप से समझ पाने में असमर्थ होते हो, तो तुम बड़ी आसानी से इन चीजों का रंग-रूप देख भयभीत हो कर इनसे घिर सकते हो, और बड़ी आसानी से उलझन में पड़ सकते हो, जिससे तुम वापस अपनी पुरानी जीवनशैली अपना सकते हो; तुम अनजाने ही अपनी रक्षा करने लगोगे, परमेश्वर और सत्य का परित्याग कर, बच निकलने की राह खोजने, जीने का तरीका और जीते रहने की आशा खोजने के लिए अपने ही उन तरीकों और विधियों का प्रयोग करोगे जिन्हें तुम सर्वाधिक पारंपरिक और भरोसेमंद मानते हो। हालाँकि ऊपर से ये नकारात्मक भावनाएँ सिर्फ भावनाओं के रूप में मौजूद होती हैं, और अगर हम इन भावनाओं का शब्दों में बयान करें, तो वे शाब्दिक अर्थ में सादी लगती हैं और उतनी गंभीर नहीं लगतीं, कुछ लोग इन नकारात्मक भावनाओं से कस कर चिपक जाते हैं, और उन्हें जाने नहीं देते, मानो उस तिनके से चिपके हुए हों, जो उन्हें डूबने से बचाएगा, और वे इन चीजों से कस कर बंध और जकड़ जाते हैं। दरअसल, उनके इन नकारात्मक भावनाओं से बंधे होने का कारण वे विविध तरीके हैं जिन पर मनुष्य अपने जीवित रहने के लिए भरोसा करता है, और साथ ही वे विविध विचार और सोच हैं जो उस पर हावी होती हैं, और उनके वे तमाम रवैये हैं जो वे निजी जीवन और जीवित रहने के प्रति अपनाते हैं। इसलिए, भले ही अवसाद, संताप, व्याकुलता, चिंता, हीनता, घृणा, क्रोध वगैरह की तमाम भावनाएँ नकारात्मक होती हैं, फिर भी लोगों को लगता है कि इन पर भरोसा किया जा सकता है, इन भावनाओं में डूबने के बाद ही वे सुरक्षित महसूस करते हैं, और उन्हें लगता है कि उन्होंने खुद को पा लिया है और वे अस्तित्व में हैं। वास्तविकता यह है कि लोगों का इन भावनाओं में घिर जाना, सत्य से विपरीत दिशा में जाता है, और सत्य से, साथ ही सोचने के सही तरीकों, सही विचारों और सोच से, और चीजों के प्रति उस सही रवैये और सोच से बहुत दूर चला जाता है जिसे परमेश्वर उन्हें अपनाने के लिए कहता है। तुम चाहे जिस भी नकारात्मक भावना का अनुभव करो, तुम उसमें जितनी गहराई तक डूबोगे, उससे उतने ही बंध जाओगे; तुम उससे जितना ज्यादा बंधोगे, उतना ही खुद की रक्षा करने की जरूरत महसूस करोगे; तुम रक्षा की जितनी ज्यादा जरूरत महसूस करोगे, उतना ही ज्यादा तुम सशक्त, सक्षम और काबिल बनने की आशा करोगे ताकि जीने के अवसर जीत सको, दुनिया पर विजय पाने हेतु विविध जीवनशैलियाँ ढूँढ़ सको, दुनिया में तुम्हारे सामने आने वाली तमाम मुश्किलों पर विजय पा सको और जीवन की तमाम मुश्किलों और कठिनाइयों से उबर सको। तुम इन भावनाओं में जितना ज्यादा डूबोगे, उतना ही ज्यादा तुम अपने जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों को काबू में करना और उन्हें दूर करना चाहोगे। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो फिर मनुष्य के ये विचार कैसे उपजते हैं? आओ, मिसाल के तौर पर शादी को लें। तुम शादी को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हो, मगर इन सबके पीछे आखिर वास्तविक मसला क्या है? तुम किस बारे में चिंतित हो? यह चिंता कहाँ से आती है? इसका स्रोत तुम्हारा यह न जानना है कि यह शादी भाग्य द्वारा व्यवस्थित और शासित है और स्वर्ग द्वारा व्यवस्थित और शासित है। यह न जानने के कारण तुम हमेशा खुद फैसले लेकर, योजना, प्रस्ताव और रूपरेखा बनाना चाहते हो, बार-बार ऐसी चीजें सोचते हो, “मुझे कैसा जीवनसाथी तलाशना चाहिए? उसकी लंबाई कितनी होनी चाहिए? उसका रंग-रूप कैसा होना चाहिए? उसका व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए? उसे कितना शिक्षित होना चाहिए? उसका खानदान कैसा होना चाहिए?” तुम्हारी योजना जितनी ज्यादा विस्तृत होती है, तुम उतनी ही फिक्र करते हो, क्या ऐसा नहीं है? तुम्हारी अपेक्षाएँ जितनी ऊँची और जितनी ज्यादा होती हैं, तुम उतनी ही चिंता करते हो, है ना? और जीवनसाथी ढूँढ़ना उतना ही मुश्किल हो जाता है, है ना? (हाँ।) जब तुम नहीं जानते कि कोई तुम्हारे लिए उपयुक्त है या नहीं, तो तुम्हारी मुश्किलें उतनी ही बड़ी हो जाती हैं, और तुम्हारी मुश्किलें जितनी बड़ी हो जाती हैं, संताप और व्याकुलता की भावनाएँ उतनी ही गंभीर हो जाती हैं, सही है या नहीं? संताप और व्याकुलता की तुम्हारी भावनाएँ जितनी गंभीर होती हैं, उतनी ही ज्यादा ये भावनाएँ तुम्हें जाल में फँसा लेती हैं। तो तुम्हें इस समस्या को कैसे सुलझाना चाहिए? मान लो कि तुम्हें शादी के सार की समझ है, और तुम आगे के सही रास्ते और दिशा जानते-समझते हो—तो फिर शादी को लेकर सही दृष्टिकोण क्या है? तुम कहते हो, “शादी जीवन की एक बड़ी घटना है, और लोग चाहे जो चुनें, यह सब बहुत पहले ही पूर्वनिर्धारित हो चुका है। परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित और व्यवस्थित कर दिया था कि तुम्हारा जीवनसाथी कौन और कैसा होगा। लोगों को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, या अपनी कल्पनाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए, अपनी पसंद पर तो बिल्कुल भी नहीं। अपनी कल्पनाओं और पसंद पर भरोसा करना और जल्दबाजी करना, ये सभी अज्ञानता की अभिव्यक्तियाँ हैं, ये वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं। लोगों को अपनी चाहत को खुले नहीं उड़ने देना चाहिए, और सारी कल्पनाएँ असलियत के विपरीत होती हैं। सबसे व्यावहारिक चीज जो करनी चाहिए वह है चीजों को सहज रूप से आगे बढ़ने देना और उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करना जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है।” तो इस सिद्धांत और इस व्यावहारिक समझ को अपनी बुनियाद बनाकर इस विषय पर तुम्हें कैसे अमल करना चाहिए? तुम्हें आस्था रखनी चाहिए, परमेश्वर के समय और उसकी व्यवस्था की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर परमेश्वर इस जीवन में तुम्हारे लिए एक उपयुक्त जीवनसाथी की व्यवस्था करता है, तो वह सही समय, सही जगह और सही माहौल में प्रकट हो जाएगा। यह हालात के पूरी तरह तैयार होने पर हो जाएगा, तुम्हें बस इतना करना होगा कि ऐसे समय, स्थान और माहौल में सहयोग देनेवाला व्यक्ति बनना होगा। तुम बस प्रतीक्षा ही कर सकते हो—इस समय, इस स्थान और इस माहौल की प्रतीक्षा करो, इस व्यक्ति के प्रकट होने और इन सब चीजों के होने की प्रतीक्षा करो, न सक्रिय होकर न ही निष्क्रिय होकर, बल्कि बस इन चीजों के होने और आने की प्रतीक्षा करो। “प्रतीक्षा” से मेरा क्या अर्थ है? मेरा तात्पर्य है एक समर्पण का रवैया रखना, न सक्रिय होना न निष्क्रिय; ऐसा रवैया अपनाना जो हठी न हो बल्कि खोजी और समर्पण का हो। एक बार जब तुम ऐसा रवैया अपना लेते हो, तो भी क्या तुम शादी को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करोगे? (नहीं।) तब तुम्हारी अपनी योजनाएँ, कल्पनाएँ, कामनाएँ, झुकाव और तमाम अज्ञानी सोच जोकि तथ्यों के विपरीत हैं, गायब हो जाते हैं। तब तुम्हारा हृदय शांत होता है, और तुम शादी को लेकर कोई नकारात्मक भावनाएँ अनुभव नहीं करते। तुम इस मामले में निश्चिंत, मुक्त और आजाद महसूस करते हो, और चीजों को स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़ने देते हो। एक बार सही रवैया अपना लेने के बाद, तुम जो भी करते हो और जो कुछ व्यक्त करते हो, वह तर्कसंगत और उपयुक्त हो जाता है। तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर से अभिव्यक्त भावनाएँ सहज रूप से संताप, व्याकुलता और चिंता नहीं हो सकतीं, बल्कि ये शांत और स्थिर होती हैं। भावनाएँ अवसादग्रस्त करने वाली या उग्र नहीं होतीं—तुम बस प्रतीक्षा करो। तुम्हारे मन में अभ्यास और रवैये का एकमात्र तरीका है प्रतीक्षा और समर्पण करना : “मैं परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज के प्रति समर्पण करना चाहता हूँ। मेरी कोई भी निजी अपेक्षा या योजना नहीं है।” ऐसा करके क्या तुमने इन नकारात्मक भावनाओं को जाने नहीं दिया है? और क्या ऐसा नहीं है कि ये भावनाएँ पैदा नहीं होंगी? तुमने भले ही इन्हें महसूस किया हो, लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें धीरे-धीरे जाने दोगे? तो इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने की प्रक्रिया किस किस्म की प्रक्रिया है? क्या यह सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्ति है? यह दिखाती है कि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास दोनों कर रहे हो। सत्य का अनुसरण करने से हासिल अंतिम परिणाम सत्य का अभ्यास करना होता है—सत्य का अभ्यास करने के जरिये इसे लागू किया जाता है। जब तुम सत्य का अभ्यास करने का स्तर हासिल कर लोगे, तो संताप, व्याकुलता और चिंता अब साये की तरह तुम्हारा पीछा नहीं करेंगी; ये तुम्हारे अंतरतम में से पूरी तरह निकाली जा चुकी होंगी। क्या इन भावनाओं को निकालने की प्रक्रिया त्याग देने की प्रक्रिया है? (हाँ।) सत्य पर अमल करना इतना सरल है। क्या यह आसान है? सत्य पर अमल करना विचारों और सोच में परिवर्तन है, और इससे भी ज्यादा यह चीजों को लेकर व्यक्ति के रवैये में परिवर्तन है। एक सरल नकारात्मक भावना को त्याग देने के लिए, व्यक्ति को इन प्रक्रियाओं का अभ्यास कर उन्हें हासिल करना चाहिए। पहले तो व्यक्ति के विचारों और सोच में परिवर्तन होना चाहिए, फिर अभ्यास के तरीके, अभ्यास के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग में परिवर्तन से पहले अभ्यास के प्रति रवैये में परिवर्तन होना चाहिए। तब क्या तुमने उस नकारात्मक भावना को जाने नहीं दिया होगा? यह इतना ही सरल है। “त्याग देने” के जरिये जो अंतिम परिणाम तुम हासिल करते हो, वह यह है कि तुम अब इस नकारात्मक भावना से परेशान, विकल, और नियंत्रित नहीं होते, और साथ ही तुम अब इस नकारात्मक भावना से उपजने वाले हर तरह के नकारात्मक विचारों और सोच से त्रस्त नहीं होते। इस प्रकार, तुम निश्चिंत, आजाद और मुक्त महसूस करते हुए जियोगे। बेशक निश्चिंत, आजाद और मुक्त महसूस करना महज मानवीय भावनाएँ हैं—लोगों को असली फायदा यह होता है कि वे सत्य समझ लेते हैं। मनुष्य के अस्तित्व का आधार सत्य और परमेश्वर के वचन हैं। अगर लोग आत्म-रक्षा के लिए विविध नकारात्मक भावनाओं में जीने के लिए अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, अगर वे अपनी सुरक्षा के लिए खुद पर और अपनी काबिलियत, साधनों और विधियों पर भरोसा करते हैं, और अपने ही रास्ते चलते हैं, तो फिर वे सत्य और परमेश्वर से भटक गए होंगे, और स्वाभाविक रूप से शैतान की सत्ता में रहने लग गए होंगे। इसलिए जब तुम ऐसी ही मुश्किलों और स्थितियों का सामना करते हो, तब तुम्हें अपने दिल में यह समझ रखनी चाहिए और फिर तुम सहज ढंग से सोचोगे, “मुझे इन चीजों की चिंता करने की जरूरत नहीं। चिंता करने का कोई तुक नहीं। विवेकशील और बुद्धिमान लोग परमेश्वर पर भरोसा करते हैं, ऐसी तमाम चीजें परमेश्वर को सौंप देते हैं, उसकी संप्रभुता को समर्पित हो जाते हैं, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित सभी चीजों की प्रतीक्षा करते हैं, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित समय, स्थान, व्यक्ति या चीज की प्रतीक्षा करते हैं। मनुष्य सिर्फ सहयोग कर समर्पण कर सकता है और उसे यही करना चाहिए—यही चुनाव सबसे समझदारी भरा है।” बेशक अगर तुम यह नहीं करते और इस तरह अभ्यास नहीं करते, तो भी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित तमाम चीजें अंत में जरूर होंगी—मनुष्य अपनी इच्छा से किसी भी व्यक्ति, घटना, स्थिति को नहीं बदल सकता। मनुष्य का संताप, व्याकुलता और चिंता बस एक निरर्थक न्योछावर है, और ये बस मनुष्य के मूर्खतापूर्ण विचार और उसकी अज्ञानतापूर्ण अभिव्यक्तियाँ हैं। संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ चाहे जितनी गंभीर क्यों न हों, या तुम किसी मामले पर जितने भी विस्तृत ढंग से क्यों न सोचो, अंत में ये सब बेकार है और इसे त्याग देना चाहिए। मनुष्य अपनी इच्छा से अंतिम तथ्यों और परिणामों को नहीं बदल सकता। अंत में मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन ही जीना होगा; ये चीजें कोई नहीं बदल सकता, और कोई भी इन चीजों से छूट नहीं सकता। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।)

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