सत्य का अनुसरण कैसे करें (4) भाग एक

इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, क्या तुम्हें अपने आस-पास के लोगों और चीजों, और बाहरी दुनिया की स्थिति में हो रहे निरंतर बदलाव का आभास हुआ है? खास तौर से पिछले कुछ वर्षों में, क्या तुमने कोई बड़े बदलाव होते हुए देखे हैं? (हाँ।) तुमने ऐसा होते देखा है। और क्या तुम इसको लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? (परमेश्वर का कार्य समाप्त होने को है।) सही कहा, परमेश्वर का कार्य सचमुच समाप्त होने को है, और तुम्हारे आस-पास के लोगों, घटनाओं, चीजों और माहौल में निरंतर बदलाव हो रहे हैं। मिसाल के तौर पर, पहले इस समूह में दस लोग थे, अब आठ हैं। उन दो जनों का क्या हुआ? एक को बाहर कर दिया गया, और दूसरे का कर्तव्य बदल दिया गया। कलीसिया में विभिन्न प्रकार के तमाम लोग निरंतर बदलाव से गुजर रहे हैं और निरंतर उजागर हो रहे हैं। शुरू में, कुछ लोग बहुत जोशीले दिखाई देते हैं, मगर कुछ वक्त बाद वे एकाएक कमजोर और इतने नकारात्मक हो जाते हैं कि वे काम करना जारी नहीं रख पाते। शुरू में जो जोश, तीव्र ऊर्जा और तथाकथित वफादारी उनमें थी, सब गायब हो जाते हैं, कष्ट सहने का उनका दृढ़ निश्चय खत्म हो जाता है, वे परमेश्वर में विश्वास रखने में जरा भी रुचि नहीं रखते, और न जाने क्यों, अचानक लगने लगता है कि वे बिल्कुल अलग लोग हैं। परिवेश भी निरंतर बदल रहे हैं। लोगों के परिवेशों में कौन-से बदलाव हो रहे हैं? कुछ जगहों पर माहौल शत्रुतापूर्ण होता है, वहाँ गंभीर उत्पीड़न होता है, इसलिए अब लोग एक-साथ इकट्ठा नहीं हो पाते या भाई-बहनों से संपर्क नहीं कर पाते; कुछ जगहों पर, माहौल थोड़ा बेहतर और सुरक्षित होता है; कुछ और दूसरी जगहों पर, कर्तव्य-निर्वहन का माहौल और जीवन जीने की दशाएँ पहले से थोड़ी ज्यादा हितकारी, शांत और स्थिर होती हैं, और यहाँ लोग पहले वाले लोगों के मुकाबले काफी बेहतर ढंग से रह रहे होते हैं; वे सब परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खपते हैं, ऐसे लोग ज्यादा होते हैं जो कष्ट सह कर कीमत चुका पाते हैं, यहाँ सभी कार्य-परियोजनाएँ ज्यादा आसानी और कुशलता से आगे बढ़ती हैं, और मिलने वाले नतीजे और प्रभाव ज्यादा आशाजनक और संतोषजनक होते हैं। यही नहीं, जिन योजनाओं, ढाँचों, विधियों और तरीकों से कार्य परियोजनाएँ पूरी की जाती हैं, उनमें निरंतर सुधार किया जाता है। संक्षेप में, भले ही लोग यह देखते हैं कि तरह-तरह के गलत और नकारात्मक लोग, घटनाएँ और चीजें सामने आ रही हैं, लेकिन साथ ही हर प्रकार के नेक, सही और सकारात्मक लोग, घटनाएँ और चीजें भी निरंतर उभर रही हैं। जब लोग ऐसे सामाजिक परिवेश में जीते हैं जहाँ उनके चारों ओर विविध सकारात्मक और नकारात्मक चीजें निरंतर बारी-बारी से बदल रही हैं, तो दरअसल, अंत में उन लोगों को ही लाभ होता है जो परमेश्वर को पाने की तीव्र आकांक्षा रखते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं और सत्य के लिए लालायित रहते हैं। ये वो लोग होते हैं जो प्रकाश और न्यायता के लिए लालायित रहते हैं, जबकि सत्य का अनुसरण न करने वाले, बुरी आदतों में लिप्त रहने वाले और सत्य से विमुख रहने वाले लोग विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों के संबंध में उजागर हो जाते हैं, हटा दिए जाते हैं, और छोड़ दिए जाते हैं। इन सब विभिन्न परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के उजागर होने और निरंतर नए परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकट होने के पीछे परमेश्वर का इरादा क्या है? इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, क्या तुम सब इस बात को समझ पाए हो? कम-से-कम, क्या तुम्हें भान है कि परमेश्वर यह सब आयोजित कर रहा है, और हमेशा से परमेश्वर ही इन चीजों का मार्गदर्शन करता रहा है? (हाँ।) ये सब करने के पीछे परमेश्वर का प्रयोजन और अर्थ यह है कि उसका अनुसरण करने वाले लोग इस योग्य बनें कि वे सबक सीखें, अपनी अंतर्दृष्टि और अनुभव में विकसित हों, और इस तरह धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें। क्या तुम सबने यह स्वयं हासिल किया है? लोग अपने काम में चाहे जितने व्यस्त हों, या उनका परिवेश चाहे जितना हितकारी या शत्रुतापूर्ण हो, परमेश्वर में विश्वास में उनका लक्ष्य यह है कि वे बिना बदले सत्य का अनुसरण करें। लोगों को सत्य का अनुसरण करना इसलिए नहीं भूलना चाहिए क्योंकि वे कामों या चीजों में व्यस्त हैं, या अपने शत्रुतापूर्ण माहौल से बचना चाहते हैं, न ही यह भूलना चाहिए कि ये तमाम स्थितियाँ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं, और परमेश्वर का इरादा है कि वे इन विविध स्थितियों में सबक सीखें, तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच भेद करना सीखें, सत्य को समझें, अंतर्दृष्टि में विकसित हों, और परमेश्वर को जानें। तुम सबको गंभीरता से इसका सार तैयार करना चाहिए कि क्या तुम लोगों ने ये चीजें हासिल कर ली हैं।

हाल के वर्षों में कलीसिया कार्य अत्यंत व्यस्त रहा है, और इसलिए प्रत्येक समूह में सदस्यों के तबादले, उनके कार्य में बदलाव, और साथ ही उन्हें प्रकट करने, हटा देने और स्वच्छ करने का कार्य अपेक्षाकृत ज्यादा होता रहा है। इस कार्य की प्रक्रिया में, टीम सदस्यों के तबादले खास तौर पर अधिक बार हुए हैं और उनका दायरा भी व्यापक रहा है। लेकिन, चाहे जितने भी तबादले हुए हों, या चीजें चाहे जितनी भी बदल जाएँ, परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखने वाले और परमेश्वर की चाह रखने वाले लोगों का सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ निश्चय नहीं बदलता, उद्धार प्राप्त करने की उनकी कामना नहीं बदलती, परमेश्वर में उनकी आस्था नहीं घटती, वे हमेशा एक अच्छी दिशा में विकसित होते रहे हैं और आज तक अपने कर्तव्य निर्वहन में डटे रहे हैं। इससे भी काफी बेहतर वे लोग हैं जो निरंतर अलग काम सौंपे जाने के माध्यम से अपनी सही जगह पा लेते हैं और अपने कर्तव्य में सिद्धांत खोजना सीख लेते हैं। लेकिन, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जिन्हें सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम नहीं है, और जो सत्य से विमुख महसूस करते हैं, वे अच्छे ढंग से कर्तव्य नहीं निभाते। कुछ लोग फिलहाल कर्तव्य निभाते रहने के लिए स्वयं को मजबूर कर रहे हैं, जबकि दरअसल उनकी अंदरूनी दशा पहले से ही पूरी तरह खस्ता है, और वे बुरी तरह से अवसाद-ग्रस्त और नकारात्मक हैं। लेकिन उन्होंने अभी भी कलीसिया नहीं छोड़ी है, और वे यूँ नजर आते हैं मानो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अब भी अपने कर्तव्य निभाते हैं, मगर असल में उनके दिल बदल गए हैं, वे परमेश्वर से दूर हो गए हैं और उन्होंने उसका परित्याग कर दिया है। कुछ लोग शादी करके अपना जीवन जीने के लिए यह कहते हुए घर लौट आते हैं, “मैं अपनी जवानी बेकार नहीं होने दे सकता। हमें जवानी सिर्फ एक ही बार मिलती है, और मैं अपनी जवानी बिल्कुल भी बेकार नहीं जाने दे सकता! मुझे दिल से यकीन है कि परमेश्वर अवश्य है, लेकिन मैं तुम लोगों जितना सीधा-सादा नहीं हो सकता जो सत्य का अनुसरण करने के लिए अपनी जवानी की बलि चढ़ा देते हैं। मुझे शादी कर अपना जीवन जीना चाहिए। जिंदगी छोटी है, हम कुछ ही वर्ष जवान रहते हैं, जो कि पलक झपकते ही गुजर जाते हैं। जिंदगी देखते-देखते खत्म हो जाती है। मैं अपनी जवानी यहाँ बेकार नहीं होने दे सकता। जब तक जवानी है, तब तक मैं बेपरवाह रह सकता हूँ, कुछ वर्ष तक पूरी तरह जिंदगी के मजे लूट सकता हूँ।” कुछ लोग अमीर होने के अपने सपनों के पीछे भागना जारी रखते हैं; कुछ अधिकारी या नौकरशाह बनने का अपना सपना साकार करने के लिए आधिकारिक करियर बनाने का प्रयास करते हैं; कुछ लोग संतान रूपी समृद्धि के पीछे भागते हैं, इसलिए वे शादी कर लेते हैं और बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ लोगों को परमेश्वर में उनके विश्वास के लिए परेशान किया जाता है, बरसों तक सताया जाता है, वे कमजोर और बीमार पड़ जाते हैं और फिर वे अपने कर्तव्य का परित्याग कर अपना शेष जीवन जीने के लिए घर लौट जाते हैं। सभी की स्थिति अलग-अलग होती है। कुछ लोग अपनी मर्जी से चले जाते हैं, और अपने नाम निकलवा देते हैं, कुछ छद्म-विश्वासी होते हैं जिन्हें हटा दिया जाता है, कुछ लोग तरह-तरह के बुरे कृत्यों के कारण निष्कासित कर दिए जाते हैं। इन लोगों की हड्डियों में क्या घुसा होता है? उनका सार क्या है? क्या तुमने इसे स्पष्ट रूप से देखा है? क्या ऐसे लोगों की कहानियाँ हर बार तुम्हारे दिल को छू जाती हैं? तुम सोच सकते हो, “ये लोग आखिर ऐसे कैसे हो गए? वे ऐसी खाई में कैसे गिर गए? वे पहले तो ऐसे नहीं थे, शानदार थे, तो फिर इतनी जल्दी कैसे बदल गए?” तुम इन बातों पर चाहे जितना चिंतन करो, इनका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, ये समझी नहीं जा सकतीं। तुम इस पर थोड़ा विचार कर सोचते हो, “यह व्यक्ति सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता; यह छद्म-विश्वासी है।” कुछ वक्त बाद, उन लोगों की करतूतें, उनका कामकाज, बर्ताव उनकी कुछ बातें, टिप्पणियाँ और उनके प्रयास तुम्हारे मन या लोगों की चेतना से गायब हो जाते हैं, बाद में तुम इन चीजों को भूल जाते हो, और धीरे-धीरे उनको लेकर तुम्हारी भावनाएँ काफूर हो जाती हैं। जब ऐसे लोग, घटनाएँ या चीजें दोबारा सामने आती हैं, तो तुम फिर से सोचते हो, “अरे, यह नामुमकिन है! वे ऐसे कैसे हो गए? वे पहले ऐसे नहीं थे। मैं समझ ही नहीं पा रहा।” तुम फिर से उन्हीं चीजों का अनुभव करते हो, तुम्हारी समझ वैसी ही रहती है। बताओ भला, क्या उन लोगों को उजागर कर हटा दिया जाना शर्म की बात है? (नहीं।) क्या तुम सब उन लोगों को याद नहीं करते? (नहीं।) क्या तुम उन लोगों का पक्ष लेकर पैरवी नहीं करते? (नहीं।) फिर तुम लोग जरूर बेहद बेदिल होगे। तुम सबको उनसे सहानुभूति क्यों नहीं है? उन्होंने कलीसिया छोड़ दी है; तुम उनका पक्ष लेकर पैरवी क्यों नहीं करते और उनके प्रति तुममें कोई सहानुभूति या करुणा क्यों नहीं है? उनके प्रति तुम्हें दया क्यों नहीं आती? क्या तुम सहानुभूति रखने के काबिल ही नहीं हो? क्या तुम बेदिल हो? (नहीं।) बताओ, परमेश्वर के घर के लिए क्या ऐसे लोगों से निपटने का यह उपयुक्त तरीका है? (हाँ।) यह उपयुक्त कैसे है? बताओ मुझे। (इन लोगों ने परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास रखा है और इतने अधिक सत्य सुने हैं कि अब उनका ऐसा बर्ताव और परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उससे दूर हो जाना दिखाता है कि वे छद्म-विश्वासी हैं, हमारी दया के लायक नहीं हैं, याद करने लायक नहीं हैं।) तो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त वे जोश से भरे हुए थे, उन्होंने अपने घर-बार छोड़ दिए, अपनी नौकरियाँ छोड़ दीं, परमेश्वर के घर के लिए अक्सर चढ़ावे दिए, और जोखिम-भरे काम सँभाले। उन्हें जैसे भी देखो, वे पूरी ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते दिखे। तो फिर भला अब वे कैसे बदल गए? क्या इसलिए कि परमेश्वर ने उन्हें पसंद नहीं किया और शुरू से ही उसने उनका फायदा उठाया? (नहीं।) परमेश्वर सभी से निष्पक्षता और बराबरी से पेश आता है, सबको अवसर देता है। उन सबने कलीसियाई जीवन जिया, परमेश्वर के वचनों को खाया-पिया, और परमेश्वर द्वारा पोषण, सिंचन और अगुआई पाकर जीवन-यापन किया, तो फिर वे इतना ज्यादा कैसे बदल गए? परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त उनका व्यवहार और कलीसिया छोड़ते समय उनका व्यवहार ऐसा था मानो वे दो अलग व्यक्ति हों। क्या परमेश्वर के कारण उन्होंने उम्मीद खो दी? क्या परमेश्वर के घर या उसके कार्यों ने उन्हें बुरी तरह निराश कर दिया? क्या परमेश्वर, उसके द्वारा बोले जाने वाले वचनों या उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य ने उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाई? (नहीं।) तो फिर कारण क्या है? इसे कौन समझा सकता है? (मेरे विचार से इन लोगों ने आशीषों की अपनी आकांक्षा के हावी होने के कारण परमेश्वर में विश्वास रखा। उन्होंने सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा। जैसे ही उन्होंने देखा कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रही, वे परमेश्वर से दूर हो गए।) क्या आशीष ठीक उनके सामने नहीं है? अभी उनका कर्तव्य निर्वहन बंद करने का समय नहीं आया है, तो फिर वे इतनी जल्दी में क्यों हैं? वे यह बात भी कैसे नहीं समझ सकते? (हे परमेश्वर, मेरे ख्याल से जब इन लोगों ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो उन्होंने अपने उत्साह और नेक इरादे पर भरोसा किया, और वे कुछ चीजें कर पाए, लेकिन अब परमेश्वर का घर अपने सारे कार्यों को ज्यादा-से-ज्यादा गंभीरता से ले रहा है। उसकी अपेक्षा है कि लोग सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करें। लेकिन ये लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, अपने कर्तव्य निभाते समय मनमानी करते हैं और अक्सर उनकी काट-छाँट होती है। तो वे और ज्यादा महसूस करते हैं कि वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम चला रहे हैं, वे वैसा आगे नहीं कर सकते, अंततः वे परमेश्वर का घर छोड़ देते हैं। मेरे ख्याल से यह एक कारण है।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—यह उन लोगों के बारे में कहा जाता है जो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं। ऐसे कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जैसे-तैसे काम नहीं करते, ईमानदार हैं, जो इस मामले को गंभीरता से लेते हैं, तो ऐसा कैसे हुआ कि उन्होंने काम करना छोड़ दिया? (क्योंकि अपनी प्रकृति से ये लोग सत्य से प्रेम नहीं करते। उन्होंने आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा। वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर हमेशा सत्य पर चर्चा करता है, और वे सत्य से विमुख और उसे लेकर प्रतिरोध महसूस करते हैं, सभाओं में जाकर धर्मसंदेश सुनने की उनकी इच्छा कम होती जाती है, और इसी वजह से वे उजागर हो जाते हैं।) यह एक प्रकार की स्थिति है, और ऐसे बहुत-से लोग हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हमेशा अपने कर्तव्य फूहड़ तरीके से निभाते हैं, जो कभी भी अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाते, या वे जो भी कर्तव्य निभाते हैं उनकी जिम्मेदारी नहीं लेते। ऐसा नहीं है कि वे काबिल नहीं हैं, या उनकी काबिलियत उस कार्य के लायक नहीं है, बात बस इतनी है कि वे अवज्ञाकारी हैं, और वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते। वे हमेशा अपने मन की करते हैं, जब तक उनकी निरंकुशता और मनमानी के कारण आखिरकार कोई रुकावट और बाधा नहीं आ जाती। उनकी चाहे जितनी काट-छाँट हो, वे प्रायश्चित्त नहीं करते, और इसलिए आखिर उन्हें बाहर कर दिया जाता है। जिन लोगों को बाहर कर दिया जाता है, उनका स्वभाव घिनौना होता है, उनकी मानवता अहंकारपूर्ण होती है। वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी ही बात मनवाना चाहते हैं, सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं, तानाशाहों जैसे कृत्य करते हैं, जब तक कि उन्हें हटा नहीं दिया जाता। कुछ लोग बदल दिए जाने और हटा दिए जाने के बाद महसूस करते हैं कि वे जहाँ भी जाते हैं अब उनके लिए कुछ भी आसान नहीं होता, कोई भी उन्हें भाव नहीं देता या कोई उन पर ध्यान नहीं देता। कोई भी उनके बारे में ऊँची राय नहीं रखता, अब वे अपनी बात नहीं मनवा सकते, उनकी मनमानी नहीं चलती, और आशीष प्राप्त करना तो दूर रहा, वे रुतबा पाने की भी उम्मीद नहीं कर सकते। उन्हें लगता है कि अब वे कलीसिया में जैसे-तैसे काम करते हुए जीवन नहीं बिता सकते, अब उन्हें इसको लेकर कोई दिलचस्पी नहीं रही, इसलिए वे छोड़ कर जाने का फैसला लेते हैं—ऐसे बहुत-से लोग हैं।

ऐसे भी कुछ लोग हैं जिनके छोड़कर जाने का कारण वही है जो ज्यादातर लोगों के हटाए जाने का कारण है। इन लोगों ने परमेश्वर में चाहे जितने लंबे समय से विश्वास रखा हो, वे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर के घर में बस यही अनुभव करते और देखते हैं कि परमेश्वर के घर में सभाएँ निरंतर परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने, खुद को जानने, सत्य पर अमल करने, न्याय और ताड़ना को स्वीकारने, काट-छाँट को स्वीकारने, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने, स्वभाव में परिवर्तन और अपने भ्रष्ट स्वभाव का त्याग करने के बारे में चर्चा करने को लेकर होती हैं। परमेश्वर जो कार्य करता है, उसकी विषयवस्तु—चाहे कलीसियाई जीवन पर की गई संगति हो, या जो ऊपरवाले द्वारा दिए गए धर्मोपदेशों या संगति में शामिल विषय हो—वह पूरा-का-पूरा सत्य होता है, परमेश्वर का वचन होता है, और पूरी तरह सकारात्मक होता है। लेकिन ये लोग सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते। वे मूल रूप से आशीष प्राप्त करने और फायदा उठाने आए थे। उनका प्रकृति सार देखा जाए, तो न सिर्फ वे सकारात्मक चीजों या सत्य से प्रेम नहीं करते, बल्कि और अधिक गंभीर बात यह है कि वे सकारात्मक चीजों और सत्य से अत्यधिक घृणा करते और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं। इसीलिए परमेश्वर का घर सत्य पर संगति जितनी ज्यादा करता है, सत्य पर अमल करने के बारे में जितना ज्यादा बात करता है, सत्य के अनुसरण और सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने के बारे में जितना ज्यादा बोलता है, ये लोग भीतर से उतना ही ज्यादा बेचैन और घृणित अनुभव करते हैं, और वे सुनने के उतने ही कम इच्छुक होते हैं। बताओ तो, ये लोग क्या सुनना चाहते हैं? क्या तुम लोग जानते हो? (वे मंजिलों और आशीष प्राप्त करने से जुड़े विषयों और सुसमाचार प्रसार कार्य के अभूतपूर्व स्तरों तक पहुँचने के बारे में सुनना चाहते हैं।) ये कुछ चीजें हैं जो वे सुनना चाहते हैं। वे ऊँची आवाज में नारे भी लगाना चाहते हैं, सिद्धांतों का प्रचार करना चाहते हैं और धर्मशास्त्र, सिद्धांत और रहस्यों की चर्चा करना चाहते हैं। समय-समय पर वे इस बारे में बताते हैं कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, महाविपत्तियाँ कब आएँगी, मानवजाति की भविष्य की मंजिल क्या होगी, विपत्तियों के आने पर बुरी ताकतें कैसे धीरे-धीरे नष्ट होंगी, परमेश्वर किस तरह से कुछ चिह्न और चमत्कार प्रदर्शित करेगा, और किस तरह से परमेश्वर के घर की ताकतें और पैमाने निरंतर फैलेंगे और बढ़ेंगे, और किस तरह वे भी दिखावा करते हुए घमंड और शान से अकड़कर चलेंगे-फिरेंगे। यही नहीं, उनके लिए सबसे अहम बात यह है कि उनकी निरंतर तरक्की होगी, और परमेश्वर के घर में उनका सदुपयोग होगा। इस प्रकार, वे कुछ वक्त तक परमेश्वर के घर में बस जैसे-तैसे काम करते रहेंगे, और ऐसे काम करते हुए परमेश्वर या परमेश्वर के घर द्वारा किया गया कोई भी कार्य, उनकी इच्छानुसार नहीं होता और उनकी सुनी और देखी तमाम बातें सत्य से जुड़ी होती हैं। इसलिए वे दिल से कलीसियाई जीवन से बेहद विमुख होते हैं; उन्हें उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती, वे बेचैनी महसूस करते हैं, रह नहीं पाते, और वे इससे सताया हुआ महसूस करते हैं। कुछ लोग कोई हील-हवाला, कोई बहाना बनाकर यह कहते हुए कलीसिया छोड़ने का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं, “मैं एक दुष्ट कार्य करूँगा, थोड़ी नकारात्मकता फैलाऊँगा और कुछ बुरा करूँगा। फिर कलीसिया मुझे हटाकर निष्कासित कर देगी, तब मेरा कलीसिया छोड़कर जाना पूरी तरह उचित होगा।” फिर ऐसे भी लोग होते हैं, जो अपने विदेश जाने का परमिट लेने जाते समय, अलविदा कहे बिना ही, परमेश्वर की अपनी किताबें लौटाकर अपना सामान बाँध कर निकल लेते हैं। ये लोग गुंडे-बदमाशों और आवारा चरित्रहीनों जैसे होते हैं, वे सामान्य लोगों की तरह काम नहीं करते। दूसरे लोगों के बीच रहते समय भद्र महिलाएँ और सामान्य लोग जीवन जीने के गंभीर मामले के बारे में सोचते और बात करते हैं। अच्छा जीवन कैसे जिएँ, कैसे अपने पूरे परिवार को इस लायक बनाएँ कि वे बढ़िया खाएँ-पिएँ, सुंदर कपड़े पहनें, उनके पास रहने की अच्छी जगह हो, किस तरह अपने बच्चों को वयस्क बनाएँ, और कैसे अपने बच्चों को सही मार्ग पर आगे बढ़ाएँ—वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं। लेकिन वे गुंडे-बदमाश और आवारा चरित्रहीन इन चीजों के बारे में कभी नहीं सोचते। अगर तुम इन उचित मामलों के बारे में उनसे बात करो, तो वे तुम पर भड़क जाते हैं, तुमसे घृणा करते हैं, तुमसे दूरी बना लेते हैं। तो फिर वे किस बारे में सोचते हैं? क्या ऐसा है कि वे हमेशा खाने-पीने, पार्टी करने के बारे में सोचते रहते हैं? (हाँ।) वे हमेशा खाने-पीने, पार्टी करने और कामुक चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। जब वे सामान्य लोगों से इन चीजों के बारे में बात करते हैं, तो सामान्य लोग कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते; सामान्य लोग उन जैसे नहीं होते, उनकी बातें एक-जैसी नहीं होतीं, और वे एक ही विचारधारा के नहीं होते। सामान्य लोग जिन चीजों के बारे में बात करते हैं, वे उनके दिलों में नहीं होते, वे उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते, उनकी बातें नहीं सुनना चाहते। वे सोचते हैं कि उस तरह जीना खुद के साथ गंभीर रूप से गलत करना और बिना किसी आजादी के बंधक बन कर जीना है। वे सोचते हैं कि विपरीत लिंग के किसी सदस्य को रिझाने के लिए हमेशा सुंदर कपड़े पहने रहना जीने का एक रोमांचक और बेपरवाह तरीका है—उन्हें लगता है कि यह परिपूर्ण जीवन है! कलीसिया छोड़ने वाले ये लोग गैर-विश्वासियों के जीवन से ईर्ष्या करते हैं, पाप-सुखों से ईर्ष्या करते हैं, और सोचते हैं कि गैर-विश्वासियों की तरह दिन बिताना और उनकी तरह जीना ही खुद को निराश किए बिना रोमांचक और सुखमय जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। गुंडे-बदमाशों और आवारा चरित्रहीनों की तरह ही इन छद्म-विश्वासियों में भी सामान्य मानवता नहीं होती और वे सामान्य लोग नहीं होते। अगर तुम उनसे कुछ सकारात्मक करने को कहोगे, तो वे सरासर इनकार कर देंगे, क्योंकि अपने अंतरतम में, अपने प्रकृति सार में वे सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते और सत्य से विमुख महसूस करते हैं। वे कैसे काम करते हैं? वे कलीसिया में, भाई-बहनों के बीच और अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान क्या करते हैं? वे अपने कर्तव्य लापरवाही से निभाते हैं, बड़े-बड़े सिद्धांत बघारते हैं, हमेशा नारे लगाते हैं, मगर सचमुच कुछ नहीं करते—यही उनका सामान्य व्यवहार होता है। वे कभी भी लगन से अपने कर्तव्य नहीं निभाते, हमेशा लापरवाह होते हैं, सिर्फ बेमन से काम करते हैं, सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए काम करते हैं, और साथ ही दूसरे लोगों के बीच प्रतिष्ठा और फायदे के लिए होड़ करते हैं। ये बुरे लोग दूसरों को कष्ट भी देते हैं, उन्हें दबाते हैं, और बुरे लोग जहाँ भी होते हैं, वहाँ शांति और आराम नहीं होता—सिर्फ अव्यवस्था होती है। जब बुरे लोग प्रभारी बन जाते हैं, तो न सिर्फ कार्य दक्षता से आगे नहीं बढ़ता बल्कि अटक जाता है; कलीसिया का नियंत्रण बुरे लोगों के हाथ में हो, तो नेक लोगों को धमकाया जाता है, कलीसिया असहनीय रूप से अव्यवस्थित हो जाती है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की आस्था ठंडी पड़ जाती है और वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। बुरे लोग जहाँ भी होते हैं, वे बाधाजनक और विनाशकारी भूमिका अदा करते हैं। बुरे लोगों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति यह है कि उनमें अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं होती। वे अपने कर्तव्य निभाएँ, तो भी लापरवाही से निभाते हैं, उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लेते, यही नहीं, वे दूसरों के कर्तव्य में भी बाधा पहुँचाते हैं। एक और बात है, और वो यह है कि बुरे लोग परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ते, कभी प्रार्थना नहीं करते, दूसरों के साथ सत्य पर कभी संगति नहीं करते, और वे परमेश्वर के वचनों की अपनी किताबें भी कभी नहीं खोलते। कुछ लोग बुरे लोगों की ओर से यह कहकर कुछ झूठी दलीलें देते हैं, “उन्होंने परमेश्वर की किताबें नहीं पढ़ी हैं तो क्या, वे धर्मोपदेश जरूर सुनते हैं।” लेकिन क्या वे उन्हें समझ पाते हैं? वे उन्हें सच्चे दिल से नहीं सुनते, वे परमेश्वर के घर द्वारा निर्मित वीडियो या फिल्में कभी नहीं देखते, भजन नहीं सुनते, अनुभवात्मक गवाहियाँ नहीं सुनते, न ही धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग सुनते हैं। सभाओं में वे उनींदे हो जाते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जो अपने फोन से खेलते रहते हैं, मनोरंजन के कार्यक्रम देखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो वयस्क फिल्में देखते हैं। वे सारा दिन जो-कुछ करते हैं उसका परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं होता। जब परमेश्वर का घर सत्य पर ज्यादा विस्तृत संगतियाँ करता है, तो सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति वे जो घृणा महसूस करते हैं, वह और अधिक स्पष्ट हो जाती है। वे बेचैन महसूस करते हैं, और जब तक बर्दाश्त कर पाते हैं, उस दौरान वे अपनी लालसा की अच्छी मंजिल, अच्छा अंत और महाविपत्तियाँ देख नहीं पाते हैं, और वे इन चीजों के लिए व्यर्थ में प्रतीक्षा करते हैं। वे इन चीजों के लिए व्यर्थ में प्रतीक्षा करते हैं, तो क्या उनके दिल में बेचैनी होती है? (हाँ, होती है।) कैसी बेचैनी होती है? क्या वे हमेशा अपने भीतर हिसाब नहीं करते रहते? वे कभी भी परमेश्वर के न्याय और ताड़ना और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के समक्ष समर्पित होने, और कहीं भी, कभी भी पूरी लगन से अपने कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं होते। उनकी मानसिकता क्या है? वे कभी भी और कहीं भी अपना सामान बाँध लेने और छोड़ कर चले जाने को तैयार रहते हैं। बड़े लंबे समय से वे कभी भी छोड़ कर जाने, कलीसिया और भाई-बहनों को अलविदा कहने, पूरी तरह अलग होकर सारे रिश्ते-नाते तोड़ लेने को तैयार बैठे हैं। उनके छोड़ कर जाने का समय वह होगा जब उनकी बर्दाश्त करने की समय-सीमा समाप्त हो जाएगी। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।)

कुछ लोग, किसी भी कारण से बदल दिए जाने या हटा दिए जाने के बाद भी, भरसक डटकर अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं। कुछ लोग सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, और इसलिए वे आगे से कर्तव्य न निभाने का फैसला कर लेते हैं। जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे थे, तो वे पहले से ही उसके प्रति घृणा और अधीरता दिखाते थे, हमेशा कलीसियाई जीवन से बच निकलना चाहते थे, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते थे। चूँकि ये लोग सत्य में रुचि नहीं रखते, इसलिए उन्हें कलीसियाई जीवन जीना अच्छा नहीं लगता, वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते। वे सिर्फ परमेश्वर के दिन के आगमन की बाट जोहते हैं, ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें; वे पहले की तरह बस जैसे तैसे काम करते नहीं रह पाते हैं, वे देखते हैं कि विपत्तियाँ निरंतर बड़ी होती जा रही हैं और सोचते हैं कि अगर अभी उन्होंने दैहिक सुखों के लिए प्रयास नहीं किए, तो वे ऐसा करने का अवसर खो देंगे। इसलिए वे मुड़कर देखे बिना, बिना हिचकिचाहट के कलीसिया छोड़ देते हैं। उस पल से वे लोगों के विशाल सागर में लुप्त हो जाते हैं, और फिर कलीसिया में कभी कोई उनके बारे में कुछ नहीं जान पाता—छद्म-विश्वासियों को इसी तरह उजागर कर हटा दिया जाता है। परमेश्वर का घर सत्य पर संगति जितनी ज्यादा करता है, और लोगों से सत्य पर अमल करने और वास्तविकता में प्रवेश करने की जितनी अधिक अपेक्षा करता है, वे उतनी ही घृणा का अनुभव करते हैं, इसे बिल्कुल सुनना ही नहीं चाहते। न सिर्फ वे इन चीजों को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका प्रतिरोध करते हैं। वे स्थिति को बड़ी अच्छी तरह समझते हैं : वे जानते हैं कि उन जैसे लोगों के लिए परमेश्वर के घर में कोई जगह नहीं है, वे अपनी आस्था में परमेश्वर के लिए खुद को सचमुच नहीं खपाते, पूरी लगन से अपना कर्तव्य नहीं निभाते, हमेशा अपना काम लापरवाही से करते हैं, वे सत्य से तीव्र घृणा और नफरत महसूस करते हैं; वे यह भी जानते हैं कि देर-सवेर उन्हें हटा दिया जाएगा, और यकीनन यही परिणाम होगा। उन्होंने यह सोचकर अपनी योजना बहुत पहले बना ली थी, “किसी भी स्थिति में, मुझ जैसे किसी व्यक्ति को आशीष नहीं मिलेंगे, तो बेहतर यही होगा कि अभी छोड़ दूँ, कुछ वर्ष बढ़िया जीवन बिताऊँ और खुद को धोखा न दूँ।” क्या वे ऐसी योजनाएँ नहीं बनाते? (जरूर बनाते हैं।) जब लोगों के ऐसे इरादे और योजनाएँ हों तो क्या वे अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा पाएँगे? नहीं, वे नहीं निभा पाएँगे। इसलिए इन लोगों ने चाहे जितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, उन्हें परमेश्वर, उसके घर, कलीसिया, भाई-बहनों या कलीसियाई जीवन से अलग होने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। एक दिन वे कहते हैं कि वे छोड़कर जा रहे हैं, और दूसरे ही दिन एक गैर-विश्वासी जैसी पोशाक में, बन-ठनकर भारी मेकअप लगाकर, तुरंत बिल्कुल एक गैर-विश्वासी की तरह सज-धज जाते हैं, उसकी तरह बोलते हैं और बर्ताव करते हैं; वे तड़क-भड़क वाली पोशाकों में सजते-सँवरते हैं, और तुम्हें सही नहीं लगते, फिर भी वे तुम्हें कैसे दिखाई देते हैं, इस बात से वे अनजान रहते हैं। ऐसा कैसे है कि वे इतने जल्द बदल जाते हैं? (इसलिए कि उन्होंने बहुत पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली थीं, और यही उनकी प्रकृति है।) सही है। उन्होंने बहुत पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली थीं; उन्होंने छोड़ने से कुछ ही दिन पहले ये योजनाएँ नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने बहुत पहले ही पक्का कर लिया था कि वे ऐसा करने वाले हैं। काफी पहले ही उन्होंने साजिश कर योजना बना ली थी कि वे कैसे खाएँगे, पिएँगे और पार्टी करेंगे, कैसा आचरण करेंगे और किस तरह जिएँगे। उन्हें कलीसियाई जीवन जीना, कर्तव्य निभाना या सत्य पर संगति करना पसंद नहीं है, हर दिन धर्मोपदेश सुनना और सभाओं में भाग लेना तो उनके लिए दूर की कौड़ी है। ऐसे कलीसियाई जीवन से उन्हें तीव्र घृणा है, और अगर आशीष प्राप्त करने और अच्छी मंजिल पाने, महाविपत्तियों से बच निकलने की बात न होती, तो वे यहाँ एक भी दिन नहीं टिक पाते—यही उनका असली चेहरा है। तो अगर तुम्हारी ऐसे लोगों से दोबारा मुलाकात हो जाए, तो तुम्हें उन्हें कैसे सँभालना चाहिए? क्या तुम उन्हें मीठी बातों से मनाओगे, या उन्हें ज्यादा सहारा और मदद दोगे? या क्या तुम उन्हें जाता देख दुखी हो जाओगे, और अपने प्रेम से उन्हें बदलने की कोशिश करोगे? उन्हें तुम्हें किस नजरिये से देखना चाहिए? (हमें उन्हें तुरंत छोड़ कर गैर-विश्वासियों की दुनिया में जाने को कहना चाहिए।) सही है, उन्हें दुनिया में लौट जाने को कहो, उन्हें लेकर परेशान न रहो। तुम उनसे कहोगे, “अच्छी तरह सोच लो, ताकि बाद में तुम्हें अपने फैसले पर पछतावा न हो।” वे कहेंगे, “मैंने सोच लिया है, भविष्य में चाहे जैसी मुश्किलें आएँ, मैं पीछे नहीं हटूँगा, मुझे पछतावा नहीं होगा।” तुम कहोगे, “तो फिर जाओ। कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है। हम सब तुम्हारा भला चाहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि तुम अपने आदर्श हासिल करो, अपने सपने साकार करो। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि वह दिन आने पर जब तुम दूसरों को बचाया जाता देखो, तो तुम्हें कोई ईर्ष्या या पछतावा न हो। अलविदा।” क्या उनसे ऐसा कहना बहुत उपयुक्त नहीं है? (जरूर है।) तो इन जैसे लोगों के विषय में एक पहलू यह है कि तुम्हें उनके प्रकृति सार को साफ तौर पर देखना चाहिए, जबकि दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें उन लोगों के प्रति उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अगर वे छद्म-विश्वासी, गैर-विश्वासी होकर भी श्रम करने को तत्पर हों, आज्ञाकारी होकर समर्पण कर सकते हों, तो भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, उनसे कुछ न कहो, उन्हें मत हटाओ। इसके बजाय, उन्हें श्रम करते रहने की अनुमति दे दो, और अगर तुम उनकी मदद कर सको तो करो। अगर उन्हें श्रम करने की भी इच्छा नहीं है, और वे लापरवाही से काम करना शुरू कर दें, बुरे काम करें, तो हमने वह सब कर दिया होगा जिसकी जरूरत है। अगर वे छोड़कर जाना चाहें तो उन्हें जाने दो, और उनके जाने के बाद उन्हें याद मत करो। वे ऐसे मुकाम पर हैं कि उन्हें छोड़कर चले जाना चाहिए, ऐसे लोग हमारी दया के लायक नहीं हैं, क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं। सबसे दयनीय बात तो यह है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो निहायत बेवकूफ हैं, जो बाहर कर दिए गए लोगों के प्रति नर्म भावनाएँ रखते हैं, उन्हें हमेशा याद करते हैं, उनकी ओर से बोलते हैं, उनकी तरफदारी करते हैं, और उनके लिए रोते, प्रार्थना करते और विनती करते हैं। इन लोगों के ऐसे कृत्यों के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह बहुत बड़ी बेवकूफी है।) यह बेवकूफी कैसे है? (छोड़ कर जाने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं, सत्य को नहीं स्वीकारते, वे जरा भी इस लायक नहीं हैं कि उनके लिए प्रार्थना की जाए, उन्हें याद किया जाए। परमेश्वर जिन्हें अवसर देता है और जिनके बचाए जाने की उम्मीद है, बस वही लोग दूसरों के आँसुओं और प्रार्थनाओं के लायक हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी छद्म-विश्वासी या दानव के लिए प्रार्थना करता है, तो वह बहुत बेवकूफ है, अज्ञानी है।) एक पहलू तो यह है कि वे सचमुच यकीन नहीं करते कि परमेश्वर है—वे छद्म-विश्वासी हैं; दूसरा पहलू यह है कि इन लोगों का प्रकृति सार एक गैर-विश्वासी का है। इसमें निहित अर्थ क्या है? वह यह है कि वे इंसान ही नहीं हैं, उनका प्रकृति सार एक दानव, एक शैतान का है, और ये लोग परमेश्वर के विरुद्ध हैं। उनके प्रकृति सार की बात ऐसी ही है। इसके अलावा एक दूसरा पहलू भी है और वह यह है कि परमेश्वर लोगों को चुनता है, दानवों को नहीं। तो बताओ, क्या ये दानव परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं, क्या इन्हें परमेश्वर ने चुना है? (नहीं।) वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं, इसलिए अगर तुम इन लोगों के साथ हमेशा भावनाओं में उलझ जाओ और उनके जाने पर दुखी हो जाओ, तो क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? क्या इससे तुम परमेश्वर के विरुद्ध नहीं हो जाते? अगर तुम्हारे भीतर सच्चे भाई-बहनों के प्रति गहरी भावनाएँ नहीं हैं, लेकिन तुम इन दानवों के लिए गहरी भावनाएँ रखते हो, तो तुम क्या हो? और कुछ नहीं तो तुम एक भ्रमित व्यक्ति तो हो ही, लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते, और अभी भी सही दृष्टिकोण के साथ आचरण नहीं करते, मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं सँभालते। तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो। अगर तुम्हारे मन में इनमें से किसी एक दानव के लिए नर्म भावनाएँ हैं, तो तुम सोचोगे, “अरे, वह तो बड़ा नेक इंसान है, हमारा रिश्ता कितना बढ़िया है! हमारी कितनी अच्छी बनती है, वह मेरी बड़ी मदद करता है! जब मैं कमजोर होता हूँ तो वह मुझे आराम देता है, कुछ गलत करता हूँ तो मेरे साथ सहिष्णुता और धीरज से पेश आता है। वह बहुत प्यारा है!” वह सिर्फ तुम्हारे ही साथ ऐसा था, तो फिर तुम क्या हो? क्या तुम भी बस एक और साधारण भ्रष्ट इंसान नहीं हो? और वह व्यक्ति सत्य, परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपे गए कर्तव्य के साथ कैसा बर्ताव करता है? तुम चीजों को इन नजरियों से क्यों नहीं देखते? क्या अपने निजी हितों, अपनी आँखों और भावनाओं के नजरिये से चीजों को देखना सही है? (नहीं।) साफ तौर पर यह सही नहीं है! और चूँकि यह चीजों को देखने का सही तरीका नहीं है, इसलिए तुम्हें इसे जाने देना चाहिए, उस व्यक्ति को देखने का अपना परिप्रेक्ष्य और नजरिया बदल देना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को आधार मानकर उस व्यक्ति को देखना और सँभालना चाहिए—यही वह दृष्टिकोण और रवैया है जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनाना और रखना चाहिए। जड़बुद्धि मत बनो! क्या तुम सोचते हो कि तुम दूसरों पर तरस खाते हो इसलिए तुम एक दयालु व्यक्ति हो? तुम निहायत बेवकूफ हो और तुम्हारे पास कोई सिद्धांत नहीं है। तुम लोगों से परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आते; शैतान की तरफदारी करते हो, शैतान और दानवों से सहानुभूति रखते हो। तुम्हारी सहानुभूति परमेश्वर के चुने हुए लोगों या उन लोगों के साथ नहीं है जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, और यह सच्चे भाई-बहनों की ओर निर्देशित नहीं है।

ऐसे छद्म-विश्वासी लोग कभी अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं रखते, वे इसे अपनी मर्जी से निभाते हैं। उनके साथ तुम सत्य पर चाहे जैसी संगति कर लो, वे उसे स्वीकार नहीं करते, थोड़ा सत्य समझ भी लें, तो भी उस पर अमल नहीं करते। उनकी एक और मुख्य अभिव्यक्ति है—वह क्या है? वह यह है कि वे अपना कर्तव्य हमेशा फूहड़पन से निभाते हैं, हमेशा फूहड़ होते हैं, और प्रायश्चित्त न करने पर अड़े रहते हैं। वे अपने निजी मामलों पर बहुत ध्यान देते हैं, उनके प्रति ईमानदार और मेहनती होते हैं, और उनकी अनदेखी करने का जरा भी साहस नहीं दिखाते। उन्होंने अपने रोटी-कपड़े, अपने रुतबा, शोहरत, स्वाभिमान, देह-सुखों, बीमारियों, अपने भविष्य, सँभावनाओं, रिटायरमेंट और यहाँ तक कि अपनी मृत्यु को लेकर भी ध्यान से सोच लिया है—उन्होंने हर चीज की कामयाबी सुनिश्चित कर रखी है। लेकिन अपना कर्तव्य निभाने से जुड़े मामलों पर वे बिल्कुल ध्यान नहीं देते, सत्य का अनुसरण करना तो दूर की बात है। कुछ लोग सभाओं में जाने पर हर बार उनींदा महसूस कर झपकी लेने लगते हैं, और मेरी वाणी सुनने से उन्हें घृणा भी होती है। वे बहुत ही असहज महसूस करते हैं, अंगड़ाई और उबासी लेते हैं, अपने कान खुजाते हैं, गाल रगड़ते हैं। वे जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “सभाओं में धर्मोपदेश बड़े लंबे होते हैं, और कुछ लोग इतनी देर नहीं बैठ सकते।” असल में कभी-कभी सभा शुरू होते ही वे कुलबुलाने लगते हैं, और सुनते समय उन्हें घृणा होती है। इसीलिए वे कभी भी धर्मोपदेश नहीं सुनते या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते। जैसे ही वे किसी को सत्य पर संगति करते सुनते हैं, उन्हें घृणा हो जाती है, और लोगों को पूरे ध्यान से सुनते हुए देख उन्हें उनसे घृणा हो जाती है और वे उनसे ऊब जाते हैं। ऐसे लोगों का प्रकृति सार क्या है? उनके शरीर पर इंसानी चमड़ी है; बाहर से तो वे इंसान हैं, मगर उनकी चमड़ी उधेड़ कर देखोगे तो वे दानव हैं, इंसान नहीं। परमेश्वर चाहता है कि अनेक लोग बच जाएँ, मानवता वाले लोग बच जाएँ; वह नहीं चाहता कि दानवों को बचाया जाए। परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता! तुम्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए, और भूलना नहीं चाहिए! तुम्हें ऐसे किसी के भी साथ नहीं जुड़ना चाहिए जिसकी चमड़ी इंसान की हो, मगर जिसकी प्रकृति और सार दानव का हो। अगर तुमने ऐसे व्यक्ति के साथ सारे संबंध नहीं तोड़े हैं, उन्हें खुश करने और उनकी चापलूसी की कोशिश करते हो, तो तुम शैतान के उपहास का विषय बन जाओगे, और परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और कहेगा, “अरे अंधे बेवकूफ, तू किसी को नहीं समझ सकता!” परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता, समझे? (हाँ।) परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता, न ही वह दानवों को चुनता है। दानव कभी सत्य से प्रेम नहीं कर सकते, न ही सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, परमेश्वर को समर्पण करना तो दूर की बात है—वे परमेश्वर को कभी समर्पण नहीं कर सकते। वे परमेश्वर में विश्वास इसलिए नहीं रखते हैं क्योंकि उन्हें उसकी धार्मिकता और निष्पक्षता से प्रेम है, न ही इसलिए कि वे उद्धार प्राप्ति का अनुसरण कर सकें। वे अय्यूब के परमेश्वर से भय और बुराई से दूर रहने के प्रति घृणा और तिरस्कार व्यक्त करते हैं, और अपने दिलों में वे सत्य के अनुसरण के प्रति घोर घृणा और प्रतिरोध महसूस करते हैं। अगर तुम मेरी बात पर यकीन नहीं करते, तो बस अपने आसपास के उन लोगों पर नजर डालो जिन्हें बाहर कर दिया गया है, उजागर किया गया है, और देखो कि उनके भीतर गहराई में क्या दबा हुआ है, जब कोई सुन न रहा हो, तो देखो कि वे क्या बोलते हैं, किसकी परवाह करते हैं, अपने जीवन, जीवित रहने, और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों के प्रति उनका रवैया क्या है, और साथ ही वे क्या बोलते हैं, कौन-सी सोच व्यक्त करते हैं। इन सभी अभिव्यक्तियों और उद्गारों से तुम साफ तौर पर देख सकते हो कि असल में वे क्या हैं, वे क्यों छोड़ कर जा पा रहे हैं, और परमेश्वर का घर उन्हें हटाना क्यों चाहता है। क्या यह सीखने लायक सबक नहीं है? (हाँ, जरूर है।) और तुमने कौन-सा सबक सीखा है? वह क्या है जो तुमने समझा है? (हमने सीखा है कि पहचान कैसे करनी है, हमने समझा है कि इन लोगों के भीतर गहराई में सत्य से प्रेम नहीं है और वे सत्य से विमुख महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर में वे बस जैसे तैसे काम करते हैं, और देर-सवेर, उन्हें हटा दिया जाएगा।) अगर तुम चीजों को इस दृष्टि से देखते हो, तो यह दर्शाता है कि तुमने सबक सीख लिया है।

क्या तुम यह देख पाते हो कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान किस प्रकार सत्य से विमुख होते और उससे घृणा करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानव और शैतान किस तरह से परमेश्वर की अवज्ञा कर उसकी ईशनिंदा करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानव और शैतान परमेश्वर पर हमला करने के लिए कौन-से शब्द, कहावतें और तरीके इस्तेमाल करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानवों और शैतान को परमेश्वर क्या करने देता है, वे उसे कैसे करते हैं, और उनका रवैया क्या है? (नहीं।) तुम ये चीजें नहीं देख पाते। इसलिए, परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह तुम्हारे मन में महज एक कल्पना या एक तस्वीर है; यह तथ्य नहीं है। चूँकि तुमने ये चीजें खुद नहीं देखी हैं, इसलिए तुम बस अपनी कल्पना पर भरोसा कर सकते हो और ऐसी नाटकीय झाँकी या किसी कृत्य की कल्पना कर सकते हो। लेकिन, जब तुम्हारी मुलाकात इंसान की खाल पहने इन जीवित दानवों और शैतानों से होती है, तो तुम व्यावहारिक रूप से दानवों और शैतानों के बोलों, कुकृत्यों के संपर्क में आते हो, और साथ ही उनके द्वारा की गई परमेश्वर की आलोचनाओं, उस पर हमलों, उसकी अवज्ञा और ईशनिंदा करने के तथ्यों और साक्ष्यों को देखते हो—तब तुम उनके स्वभाव को पूरी स्पष्टता से देख पाओगे, जोकि सत्य से विमुख होता है, उससे घृणा करता है। इंसानी खाल पहने ये दानव और शैतान परमेश्वर पर उसी तरह हमले करते हैं जैसे कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान करते हैं; वे पूरी तरह से वही हैं, फर्क बस इतना है कि इंसानी खाल वाले दानवों और शैतानों ने परमेश्वर पर हमला करने के लिए एक अलग रूप धर लिया है—फिर भी उनका सार वही रहता है। वे इंसानी खाल पहनकर मनुष्यों में बदल जाते हैं, मगर फिर भी वे परमेश्वर की आलोचना, उस पर हमला करते हैं, उसकी अवज्ञा और ईशनिंदा करते हैं। जिस तरीके से देह में मौजूद ये दानव और शैतान तथा छद्म-विश्वासी परमेश्वर की आलोचना कर उस पर हमले करते हैं, उसकी अवज्ञा करते हैं, और जिस तरह से वे उसके कार्य को नीचे गिराते और कलीसिया कार्य को बाधित करते हैं यह ठीक वही तरीका है जिससे आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान ये सारे काम करते हैं। इसलिए, जब तुम देखते हो कि दुनिया में दानव और शैतान कैसे परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, तो तुम देखते हो कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान किस तरह परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं—इनमें बिल्कुल भी अंतर नहीं है। उनका स्रोत एक ही है और दोनों में एक ही प्रकृति सार है, इसीलिए वे एक-जैसे काम करते हैं। वे चाहे जो रूप धरें, सभी एक ही काम करते हैं। इसलिए इंसानी खाल पहने ये दानव और शैतान परमेश्वर की अवज्ञा कर उस पर हमला करते हैं, और अपनी प्रकृति और खुद को रोक न पाने के कारण, वे सत्य के प्रति चरम घृणा और प्रतिरोध दिखाते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे खुद को रोक नहीं पाते। वे देखने में मनुष्य लगते हैं, दूसरे इंसानों के साथ जीते हैं, दिन में तीन बार खाना खाते हैं, इंसानी शिक्षा और ज्ञान पाते हैं, उनके जीवन कौशल और जीने के तरीके दूसरे इंसानों के ही समान हैं; लेकिन उनकी आंतरिक आत्मा दूसरे इंसानों वाली नहीं है, न ही उनका सार वही है। तो उनकी सोच, और वे जो-कुछ करने के काबिल हैं, उनके पीछे का सार, मूल और स्रोत यह निर्देशित करता है कि वे लोग क्या हैं। अगर वे परमेश्वर पर हमला करते हैं, उसकी ईशनिंदा करते हैं, तो वे दानव हैं, इंसान नहीं। इंसानी रूप में वे चाहे जितनी बढ़िया या सही बातें करें, उनका प्रकृति सार दानवों का ही है। लोगों को गुमराह करने के लिए दानव सुनने में अच्छी लगने वाली बातें कह सकते हैं, फिर भी वे सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, उस पर अमल करना तो बहुत दूर की बात है—बात बिल्कुल यही है। उन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों और परमेश्वर की अवज्ञा कर उसके साथ विश्वासघात करने वाले लोगों पर गौर करो—क्या वे इस किस्म के व्यक्ति नहीं हैं? वे सब बढ़िया बातें कहने के काबिल हैं, लेकिन वे कुछ भी व्यावहारिक करने में सक्षम नहीं हैं। वे हैसियत वाले और सत्ताधारी लोगों, खास तौर से अपने अगले उच्चाधिकारियों को थोड़ा सम्मान दे सकते हैं, उनसे अच्छी बातें कह सकते हैं, लेकिन परमेश्वर के समक्ष आने पर वे देहधारी परमेश्वर को न्यूनतम सम्मान भी नहीं देते। अगर तुम उनसे परमेश्वर के लिए कोई मामला सँभालने को कहो, तो वे उसे बिल्कुल नहीं करना चाहते, और करते भी हैं तो लापरवाही से करते हैं। वे परमेश्वर से ऐसा बर्ताव करने के काबिल क्यों होते हैं? क्या सत्य ने उन्हें निराश किया है? क्या परमेश्वर ने उन्हें निराश किया है? क्या परमेश्वर ने उनके साथ पहले बातचीत की है? इन सवालों का जवाब है नहीं, परमेश्वर की उनसे कभी मुलाकात तक नहीं हुई है। तो फिर परमेश्वर और सत्य को लेकर ये लोग ऐसा रवैया क्यों रखते हैं? एक कारण है, और वह यह कि उनका प्रकृति सार सहज रूप से परमेश्वर के विरुद्ध है। इसीलिए वे परमेश्वर की खिल्ली उड़ाने, ईशनिंदा करने, दिल से परमेश्वर से घृणा करने, उसकी आलोचना कर उस पर हमला करने, और पूरी बेईमानी के साथ ऐसा करने से खुद को रोक नहीं पाते—इसका फैसला उनके प्रकृति सार से होता है। वे ये काम बिना ज्यादा कोशिश किए ही कर लेते हैं, बिना सोचे-विचारे, अनजाने ही बोल उनके मुँह से फूट पड़ते हैं, ये चीजें सहज रूप से बाहर उमड़ पड़ती हैं। वे दूसरे लोगों, हैसियत वालों और साधारण लोगों को सम्मान दे सकते हैं, मगर वे परमेश्वर और सत्य से जबरदस्त घृणा करते हैं। वे लोग क्या हैं? (दानव।) सही है, उनकी उम्र चाहे जो हो, वे दानव हैं, इंसान नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “शायद वे बस कच्चे हैं, चीजों को नहीं समझते।” तुम सोचते हो कि वे कच्चे हैं और चीजें नहीं समझते, लेकिन दुनिया और समाज में जाकर जब वे बड़ों को देखते हैं, तो उन्हें हमेशा उचित ढंग से संबोधित करते हैं। सिर्फ परमेश्वर को देखकर ही वे उसे संबोधित नहीं करते, इसके बजाय कहते हैं, “सुनो,” “तुम जो वहाँ हो,” या बस “तुम।” वे परमेश्वर को संबोधित नहीं करते। वे समाज में बूढ़ों का सम्मान करना, छोटों की परवाह करना जानते हैं, वे सभ्य और विनम्र हैं। लेकिन परमेश्वर के समक्ष आने पर वे ये चीजें नहीं कर पाते, नहीं समझते कि उसका सम्मान कैसे करना है। तो, फिर ये क्या हैं? (दानव।) वे दानव हैं, ठेठ दानव! वे समाज में प्रतिष्ठित, हैसियत वाले और अपने प्रशंसनीय लोगों, और जिन लोगों से वे कुछ फायदा उठा सकते हैं, उनके प्रति सम्मान और विनम्रता दिखा पाते हैं; बस परमेश्वर के समक्ष आने पर ही वे जरा भी सम्मान या विनम्रता नहीं दिखाते, बल्कि इसके बजाय वे तुरंत प्रतिरोध करते हैं, खुले तौर पर उनसे घृणा करते हैं, तिरस्कारपूर्ण रवैये के साथ पेश आते हैं। वे लोग क्या हैं? वे दानव हैं, ठेठ दानव! ये छद्म-विश्वासी, जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की और जिनका सफाया कर निकाल दिया गया, वे सब सौ प्रतिशत इसी किस्म के लोग हैं। वे परमेश्वर से इस तरह तिरस्कारपूर्ण ढंग से पेश आते हैं, और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित कर्तव्य निभाने की बात आने पर, वे उस पर और भी ज्यादा ध्यान नहीं देते। समाज में उनका रुतबा चाहे जो हो, वे कितने भी सुशिक्षित हों, उनकी उम्र या लिंग चाहे जो हो, उनका प्रकृति सार वही है। जब वे दुनिया में होते हैं और किसी अधिकारी से मिलते हैं जो उन्हें कुछ करने को कहता है, तो वे जमीन पर लोटते हुए सलाम ठोकने को बहुत उत्सुक होते हैं। वे अधिकारी के गुलाम बनने को खुशी-खुशी तैयार हो जाते हैं, सबसे उत्तम तरीके से उसकी चापलूसी करने की कोशिश करते हैं। अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति या राष्ट्रपति उनसे हाथ मिला ले या उन्हें गले लगा ले, तो वे सम्मानित महसूस करते हैं, और शायद ताजिंदगी फिर कभी वे अपने हाथ न धोएँ या अपने कपड़े न बदलें। उन्हें लगता है कि ये प्रसिद्ध और महान लोग परमेश्वर से ऊँचे और बढ़कर हैं, और इसीलिए वे दिल से परमेश्वर से घृणा करने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर चाहे जो कहे, या चाहे जो कार्य करे, ये लोग उन्हें जिक्र करने लायक नहीं मानते। न सिर्फ वे उन्हें जिक्र करने लायक नहीं मानते, बल्कि निरंतर परमेश्वर के वचनों पर कार्य करके उन्हें बदल देना चाहते हैं, उनमें अपने अर्थ जोड़ देना चाहते हैं, उन्हें पूरी तरह अपनी सोच के अनुरूप बना देना चाहते हैं—ये सभी लोग अपने प्रकृति सार में समस्या वाले लोग हैं। मुझे बताओ, इन दानवी लोगों या दानवी प्रकृति सार वाले लोगों को क्या परमेश्वर के घर में बने रहने देना उपयुक्त है? (बिल्कुल नहीं।) नहीं, यह उपयुक्त नहीं है। ये परमेश्वर के चुने हुए लोगों के समान नहीं हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के होते हैं, जबकि ये लोग दानवों और शैतान के हैं।

किस प्रकार के लोगों को एक साथ इकट्ठा होना चाहिए ताकि उन्हें कलीसिया कहा जाए? परमेश्वर के घर में किस प्रकार के लोग चाहिए होते हैं? और परमेश्वर का घर किस प्रकार के लोगों का होता है? बताओ। (वैसे लोग जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं।) यह कुछ ज्यादा ही सख्त है। मेरी नजर में, निम्नतम सीमा और न्यूनतम मानक ऐसे लोग होने चाहिए जो श्रम करने को तत्पर हों। हो सकता है उन्हें सत्य से प्रेम न हो, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य से विमुख महसूस करते हैं, वे बिना कोई सवाल किए परमेश्वर के घर द्वारा दिया गया हर काम करते हैं, वे आज्ञाकारी हैं, और समर्पण कर पाते हैं। जब सत्य के अनुसरण की शर्तों की बात आती है, तो कुछ लोग सोच सकते हैं कि वे काबिलियत में कम हैं, उन्हें यह करना अच्छा नहीं लगता, और शायद वे इसमें उतनी रुचि नहीं रखते। हो सकता है वे सोचें कि बार-बार कोई धर्मोपदेश सुनना स्वीकार्य है, और कभी-कभी जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी आँख लग जाती है, और जागने पर वे सोचते हैं, “मैं क्या सुन रहा था? भूल गया। मेरे लिए काम ही अच्छा है। मैं अपना काम कर लूँ यही काफी है।” वे बेलगाम या विघ्नकारक नहीं हैं, उनके लिए जो भी कार्य व्यवस्थित किया जाए, उसे कड़ी मेहनत से करते हैं। उनमें सच्ची ईमानदारी है, वे काम करने वाले टट्टुओं जैसे होते हैं—उनका मालिक उन्हें बस काम करने को कहता है, और यह काम चक्की चलाना हो, हल चलाना हो, खेत-खलिहान में मजदूरी करनी हो, ठेलागाड़ी खींचनी हो, उनमें हमेशा सच्ची ईमानदारी की भावना होती है। वे बिना कोई तकलीफ दिए काम पूरा कर देते हैं। वे लोग क्या सोचते हैं? “मुझसे कहा गया है कि मैं श्रमिक हूँ, तो मैं श्रम करूँगा। मैं किसी काम का नहीं, मैं एक अधम नाचीज हूँ। परमेश्वर के लिए श्रम करने पर वह मुझे ऊँचा उठाता है, मुझे नहीं लगता कि मेरे साथ जरा भी गलत हुआ है।” देखा, उनका रवैया यह होता है। तो ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर में रखना चाहिए। भले ही उनमें कुछ खामियाँ, कमियाँ और बुरी आदतें हों, उनमें काबिलियत की कमी हो या वे बेवकूफ हों, मैं इन सभी लोगों को झेल सकता हूँ और सहन कर सकता हूँ; कोई दिक्कत नहीं है, मैं ऐसे लोगों को अवसर देता हूँ। कैसे अवसर? मैं उन्हें श्रम करने का अवसर देता हूँ या उद्धार प्राप्त करने का? बेशक, दोनों ही। सृजित प्राणियों के रूप में वे परमेश्वर के लिए श्रम और परमेश्वर के घर में श्रम करने को तैयार हैं, ऐसा करना उनका अधिकार है। यही नहीं, उनकी इस आकांक्षा के साथ उन्हें उद्धार प्राप्त करने का भी अवसर दिया जाना चाहिए। फिर भी कुछ ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “लेकिन वे उद्धार प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते!” अगर वे उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो यह उनका अपना मामला है, लेकिन कम-से-कम ऐसे लोगों पर विशेष कृपा कर उन्हें उद्धार प्राप्त करने का अवसर दिया जा सकता है, और उनके लिए बचाए जाने का मौका है। “उनके लिए बचाए जाने का मौका है” कहने से मेरा तात्पर्य क्या है? मेरा तात्पर्य है कि उनमें काबिलियत की कमी है, वे थोड़े बेवकूफ हैं, वे अपने कर्तव्य में बहुत बड़े या अहम कार्य नहीं कर सकते, बस साधारण कर्तव्य निभाते हैं, वे परमेश्वर के घर में कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभाते, परमेश्वर द्वारा उसके कार्य-विस्तार के दौरान कोई महत्वपूर्ण काम नहीं सँभालते, कोई बड़ा योगदान नहीं करते; लेकिन चूँकि उनमें परमेश्वर के लिए श्रम के लिए तत्पर होने की आकांक्षा है, इसलिए उन पर विशेष कृपा कर उन्हें बचाए जाने का मौका दिया गया है—यह उन्हें दी गई विशेष कृपा है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को अनेक अवसर देता है। क्या परमेश्वर लोगों के साथ निष्पक्ष बर्ताव करता है? (हाँ।) वे चाहे जितने भी कमजोर हों, उनकी काबिलियत चाहे जितनी कम हो, वे जितने भी मूर्ख हों, वे साधारण, भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं; वे बस व्यक्तिगत रूप से बहुत सक्रिय होकर सत्य का अनुसरण नहीं करते, मगर वे मनुष्यों के रूप में अभी भी सही हैं। अंत में, चाहे वे सत्य या उद्धार प्राप्त कर पाएँ या नहीं, जहाँ तक परमेश्वर का सवाल है, वह उन पर दया बरसाता है, उन पर विशेष कृपा करता है, क्योंकि ये लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले छद्म-विश्वासियों और दानवों से बिल्कुल अलग ढाँचे में तैयार किए गए हैं, और उनका सार अलग है। वे लोग दानव हैं, परमेश्वर के शत्रु हैं, जबकि ये लोग सिर्फ श्रम करने की कोशिश करने और श्रम करके संतुष्ट हो जाने के बावजूद दिल से परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते। वे कभी भी सक्रिय रूप से परमेश्वर पर हमला नहीं करते, उसकी आलोचना या ईशनिंदा नहीं करते, और वे अपने मन में परमेश्वर के प्रति एक सकारात्मक और सही रवैया रखते हैं, यानी उन्हें उद्धार प्राप्त हो या नहीं, वे परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं। फिर ऐसे भी कुछ लोग हैं जो इनसे थोड़े बेहतर हैं, और जो अपने श्रम के दौरान कुछ सत्यों पर भरसक अमल कर पाते हैं, जो सक्रियता और सकारात्मकता से कुछ सत्य सिद्धांतों की तलाश करते हैं, और जो सिद्धांतों के विरुद्ध न जाने का प्रयास करते हैं। उनमें यह आकांक्षा होती है, यह रवैया होता है, और इसलिए परमेश्वर उन पर दया करता है। परमेश्वर उनसे अनुचित बर्ताव नहीं करता, वह उन्हें छोड़ नहीं देता, और हमेशा उन्हें अवसर देता है। परमेश्वर का कार्य समाप्त होते-होते, अगर उन्होंने परमेश्वर के प्रति समर्पण पा लिया हो, और वे शैतान के प्रभाव से बच पाए हों, तो परमेश्वर उन्हें राज्य का रास्ता दिखाता है—यही वह मंजिल है, जो उन्हें मिलनी चाहिए। परमेश्वर इन लोगों को बचाना चाहता है, और वह उनसे उम्मीद नहीं छोड़ेगा; परमेश्वर यह कैसे करेगा और ये वचन कैसे पूरे करेगा, यह तुम एक दिन जान जाओगे। दानवों और शैतानों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? (वह उनसे विमुख महसूस करता है।) उसका रवैया उनसे विमुख होने का है। कहने की जरूरत नहीं कि वह उनसे विमुख होता है। सही समय, स्थान और स्थिति में और सही चीजों के साथ श्रम करने के लिए परमेश्वर दानवों और शैतानों का प्रयोग करता है, और श्रम पूरा होते ही लिहाज किए बिना उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले और सत्य से घृणा करने वाले उनके प्रकृति सार को तरह-तरह की स्थितियों में निरंतर उजागर किया जाता है। परमेश्वर उन पर दया नहीं करता, क्योंकि वह उनसे विमुख होता है और उनसे अत्यधिक चिढ़ा हुआ है। लेकिन कमजोर काबिलियत वाले ये मूर्ख लोग, जिनमें से कुछ संभ्रमित भी हो सकते हैं, परमेश्वर के लिए श्रम करने के इच्छुक होते हैं, और वे “परमेश्वर के लिए श्रम करने और इसके लिए कभी न पछताने” का रवैया और दृढ़ निश्चय रखते हैं। इसलिए, दैनिक जीवन में, परमेश्वर उनकी बेवकूफी को हमेशा माफ कर देगा, उनकी कमजोरी को बर्दाश्त कर लेगा, और साथ ही उनकी रक्षा और देखरेख करेगा। मेरे यह कहने का क्या तात्पर्य है कि परमेश्वर उनकी रक्षा और देखरेख करेगा? मेरा तात्पर्य है कि वे जिन थोड़े-से सत्यों की थाह पा लेते हैं, उनके शाब्दिक अर्थों के बारे में परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, और उन सत्यों को समझने देगा जिनकी थाह वे पा चुके हैं; परमेश्वर उनके साथ है, उन्हें शांति और उल्लास दे रहा है, और जब वे प्रलोभनों के सामने होंगे, तो परमेश्वर इनसे उनकी रक्षा करने के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करेगा। मुख्य प्रलोभन क्या हैं? प्रलोभन अनेक हैं : शादी, पुरुषों, स्त्रियों के बीच अनुचित संबंध, पैसा, रुतबा, शोहरत और लाभ, प्रसिद्धि, साथ ही अच्छी नौकरी, अच्छा वेतन, वगैरह-वगैरह—ये तमाम प्रलोभन हैं। परमेश्वर और किन तरीकों से लोगों की रक्षा करता है? वह तुम्हें कष्ट से बचाने के लिए तुम्हारी बीमारी दूर कर देता है, वह तुम्हें बुरे लोगों के जाल में फँसने और उनके हमले से बचाता है, वगैरह-वगैरह। यही नहीं, जब किन्हीं मुश्किलों या विनाशकारी लगने वाली चीजों से तुम्हारा सामना होता है, तो परमेश्वर इन आपदाओं, और मुश्किलों से तुम्हारी रक्षा करने के लिए कुछ लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता है, जिससे तुम अपनी कामना के अनुसार अंत तक आसानी से परमेश्वर के लिए श्रम करने लायक बन जाते हो—क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ, जरूर है।) तो हर चीज आसानी से और तुम्हारी कामना के अनुसार हो, यह किस प्रकार हो सकता है? (परमेश्वर की रक्षा द्वारा।) सही है, यह परमेश्वर की रक्षा, देखरेख और दयालुता से होता है। लेकिन दानवों के लोग दानवी चीजें किए बिना नहीं रह सकते। वे अपने सभी कामों में गलतियाँ करते हैं, उनके इरादे बुरे होते हैं। अक्सर प्रलोभनों में पड़ना उनके लिए आम बात है; उन्हें ठीक यही चाहिए, आसमान से गिरने वाले किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह यह उनके सिर पर गिरता है, उन्हें चकनाचूर कर देता है, और फिर वे मर जाते हैं। परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार लोग भी इन चीजों का सामना करते हैं, लेकिन परमेश्वर की चमत्कारिक रक्षा से यह विपत्ति उन पर नहीं पड़ती, उनके पास से गुजर जाती है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, “परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है, यह मेरे मरने का समय नहीं है!” परमेश्वर ने तुम्हें जीवित रखा है, क्योंकि तुम अब भी उसके लिए उपयोगी हो। परमेश्वर ने तुम्हें तुम्हारा जीवन दिया, और चूँकि तुम उस के लिए श्रम करने को तैयार हो, और खुद को समर्पित करना चाहते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारी रक्षा क्यों नहीं करेगा? परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेगा। क्या परमेश्वर लोगों से काफी कुछ चाहता है? (नहीं।) ये लोग जो परमेश्वर के लिए श्रम करना चाहते हैं, वे दरअसल बहुत प्रतिभाशाली नहीं हैं, और उनकी काबिलियत भी उतनी बढ़िया नहीं है; उन्हें सत्य की सीमित समझ है, इतनी है कि वे सिर्फ कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत ही समझ सकते हैं, और दूसरे लोगों की तरह बोलना सीख सकते हैं। लेकिन वे सत्य सिद्धांतों को तो समझ ही नहीं पाते, न ही वे सत्य का अनुसरण करने या उद्धार प्राप्त करने तक पहुँच पाते हैं। परमेश्वर के प्रति उनका समर्पण महज परमेश्वर के घर द्वारा बताया गया कार्य करने से जुड़ा होता है, ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे सत्य को समर्पित हो सकें, बात बस इतनी है। तो चूँकि वे सिर्फ साधारण भ्रष्ट इंसान हैं और परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं, इसलिए परमेश्वर उन्हें निकाल नहीं देता। इसलिए, जिन लोगों का सफाया कर दिया जाता है वे यकीनन अच्छे लोग नहीं होते हैं। अगर तुम लोग सचमुच अच्छे हो, अगर तुम सचमुच वह लोग हो जिन्हें परमेश्वर ने चुना है, अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पण का रवैया है, परमेश्वर के लिए श्रम करने की आकांक्षा और इच्छुक होने और कभी न पछताने का रवैया है, तो परमेश्वर तुम्हें कभी नहीं निकालेगा, बल्कि इसके बजाय वह तुम्हें दया दिखाएगा। यह तुम्हारे लिए वरदान होगा, और परमेश्वर ऐसे ही लोग चाहता है। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है—काबिलियत में कमी के कारण वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और सत्य को नहीं समझ पाते, फिर भी वे परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं। जो दूसरे प्रकार के लोग परमेश्वर चाहता है वे वो लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, सत्य से प्रेम करते हैं, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो सत्य को समर्पित होना चाहते हैं, और जो सत्य की थाह पाकर उसे समझ लेने के बाद, सत्य को जानकर उसकी बारीकियाँ पकड़ लेने के बाद, सत्य के अनुसार आज्ञा मानकर समर्पण और अभ्यास कर सकते हैं। इसके अलावा, इन लोगों में सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय होता है, और उन्होंने कभी भी परमेश्वर पर शक नहीं किया है। ये लोग बेशक वे हैं, जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है, जिन्हें बचाना चाहता है। लेकिन क्या तुम इस मानक को पूरा कर सकते हो? और अगर नहीं कर पाए तो तुम क्या करोगे? कम-से-कम, परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया दानवों और शैतान वाला नहीं होना चाहिए, कम-से-कम तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति के मानक के करीब पहुँचना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार होना चाहिए। अगर तुम निरंतर परमेश्वर के विरोध में रहते हो, परमेश्वर के विपरीत काम करते हो, हमेशा परमेश्वर पर हमला करते हो, दिल में ईशनिंदा करते हो, तो फिर तुम खुद को तकलीफदेह और खतरनाक स्थिति में पाओगे। तुम्हारे मन में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, और जिन विभिन्न प्रकार के लोगों के बारे में मैं यहाँ चर्चा करता रहा हूँ, उनके अनुसार तुम्हें खुद को वर्गीकृत करना चाहिए।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें