सत्य का अनुसरण कैसे करें (3) भाग तीन
बीमारी के अलावा लोग अक्सर अपने जीवन की कुछ दूसरी वास्तविक समस्याओं को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। जीवन में बहुत-सी वास्तविक समस्याएँ होती हैं, मिसाल के तौर पर, तुम्हारे घर में बड़े-बूढ़े हैं, जिनकी देखभाल करनी है, बच्चे हैं जिन्हें पालना-पोसना है, बच्चों की स्कूली पढ़ाई और दैनिक खर्चों के लिए, बड़े-बूढ़ों के इलाज के लिए पैसों की जरूरत है, और दैनिक आजीविका के लिए ढेर सारा पैसा चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, लेकिन अगर तुम अपनी नौकरी छोड़ दोगे, तो गुजारा कैसे करोगे? तुम्हारी बचत जल्द खत्म हो जाएगी, तब तुम बिना पैसों के क्या करोगे? अगर तुम पैसे कमाने बाहर जाओगे, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह में विलंब होगा, लेकिन अगर कर्तव्य-निर्वाह के लिए तुम अपनी नौकरी छोड़ दोगे, तो तुम्हारे पास घर की मुश्किलें हल करने के लिए कोई रास्ता नहीं होगा। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? बहुत-से लोग ऐसी चीजों से संघर्ष करते हैं और पसोपेश में पड़ जाते हैं, और इसलिए वे सभी परमेश्वर के दिन के लिए तरसते हैं, वे सोचते हैं कि महाविपत्तियाँ जाने कब आ जाएँ और कहीं उन्हें खाने-पीने का सामान घर में जमा करके तो नहीं रखना चाहिए। अगर वे तैयारी करें, तो घर में अतिरिक्त पैसा नहीं होता, और जीवन बहुत मुश्किल हो जाता है। वे दूसरे लोगों को बेहतर कपड़े पहने, बेहतर खाना खाते देखते हैं और दुखी महसूस करते हैं कि उनका जीवन बहुत कष्टप्रद है। वे लंबा वक्त माँस खाए बिना गुजारते हैं, और पास में कुछ अंडे हों, तो भी खाने की इच्छा दबाकर वे जल्द उन्हें बेचकर कुछ डॉलर कमाने बाजार चले जाते हैं। जब ये तमाम मुश्किलें जेहन में आती हैं, वे चिंता करने लगते हैं : “ये मुश्किलें कब खत्म होंगी? लोग हमेशा कहते हैं, ‘परमेश्वर का दिन आ रहा है, परमेश्वर का दिन आ रहा है,’ और ‘परमेश्वर का कार्य जल्द समाप्त हो जाएगा,’ लेकिन मुझे कोई कब बताएगा कि यह दरअसल होगा कब? इस बारे में निश्चित रूप से कौन बता सकेगा?” कुछ लोग वर्षों घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, और समय-समय पर सोचते हैं, “मुझे कोई अंदाजा नहीं कि मेरे बच्चे अब कितने बड़े हैं, मेरे माता-पिता अच्छी सेहत में हैं या नहीं। इतने वर्षों तक मैं घर से दूर रहा हूँ, मैंने उनकी देखभाल नहीं की है। क्या उन्हें कोई दिक्कत है? अगर वे बीमार हो गए तो क्या करेंगे? क्या कोई उनकी देखभाल करेगा? मेरे माता-पिता अब अस्सी-नब्बे के होंगे, न जाने वे जिंदा भी हैं या नहीं।” इन चीजों के बारे में सोचने पर उनके दिलों में एक अनाम व्याकुलता पैदा हो जाती है। व्याकुल होने से बढ़कर वे चिंता करने लगेंगे, लेकिन चिंता करने से कुछ भी हल नहीं होता, इसलिए वे संतप्त अनुभव करने लगते हैं। जब वे बहुत संतप्त अनुभव करते हैं, तो उनका ध्यान परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के दिन की ओर जाता है, और वे सोचते हैं, “अब तक परमेश्वर का दिन क्यों नहीं आया? क्या हमें हमेशा इसी तरह बंजारा और सबसे अलग-थलग जीवन जीते रहना है? परमेश्वर का दिन आखिर कब आएगा? परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा? परमेश्वर इस संसार को कब नष्ट करेगा? इस पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य कब जाहिर होगा? हम परमेश्वर का व्यक्तित्व कब प्रकट होता देखेंगे?” वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचते हैं, और चिंता, व्याकुलता और संताप की नकारात्मक भावनाएँ उनके दिलों में जोर से उफनती हैं, उनके चेहरे पर फौरन चिंता का भाव छा जाता है, उन्हें अब कोई खुशी नहीं होती, वे निरुत्साहित-से चलते हैं, भूख लगे बिना खाते हैं, और उनका मन हर दिन उलझा हुआ रहता है। क्या ऐसी नकारात्मक भावनाओं में जीना अच्छी बात है? (नहीं।) कभी-कभी जीवन में कोई छोटी-सी मुश्किल लोगों को निष्क्रियता की नकारात्मक भावनाओं में डुबा देती है, कभी-कभी बिल्कुल बिना वजह, बिना किसी खास संदर्भ, या किसी खास व्यक्ति के बिना खास कुछ भी कहे ये नकारात्मक भावनाएँ अनजाने ही लोगों के दिलों में उफन जाती हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों में उफनती हैं, तो लोगों की आकांक्षाओं, परमेश्वर के दिन के आने, उसके कार्य के समाप्त होने और उसके राज्य के आने की लालसा और ज्यादा जोर पकड़ लेती है। कुछ लोग सच्चाई से घुटने टेककर आँसुओं की बाढ़ में परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मुझे इस संसार से घृणा है, इस मानव जाति से घृणा है। जितनी जल्दी हो सके इसे समाप्त कर दो, लोगों का दैहिक जीवन और ये तमाम तकलीफें खत्म कर दो।” वे बिना किसी नतीजे के कई-कई बार ऐसी प्रार्थना करते हैं, और चिंता, व्याकुलता और संताप की नकारात्मक भावनाएँ अब भी उनके दिलों को घेरे रहती हैं, उनके विचारों और उनकी अंतरात्मा में गहराई से पैठी होती हैं, उन्हें गहन रूप से प्रभावित करती हैं और घेर लेती हैं। दरअसल यह किसी और वजह से नहीं बल्कि इसलिए होता है कि वे तरसते रहते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्द आए, परमेश्वर का कार्य जल्द समाप्त हो, और जितनी जल्दी हो सके उन्हें आशीष मिलें, एक अच्छी मंजिल मिले, और अपनी धारणाओं में जिस स्वर्ग या राज्य की वे कल्पना करते हैं, उसमें प्रवेश मिल जाए; इसीलिए इन चीजों को लेकर वे अपने अंतरतम में इतने परेशान हो जाते हैं। वे बाहर से तो दिखाते हैं कि परेशान हैं, मगर दरअसल वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस कर रहे होते हैं। जब संताप, व्याकुलता और चिंता की ऐसी भावनाएँ लोगों को निरंतर घेरे रहती हैं, उनके मन में एक विचार सक्रिय हो जाता है, वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर का दिन जल्द नहीं आ रहा, परमेश्वर का कार्य जल्द-से-जल्द समाप्त नहीं होने वाला, तो मुझे अपने यौवन और कड़ी मेहनत करने की अपनी क्षमता का लाभ उठाना चाहिए। मैं काम करके पैसे कमाना चाहता हूँ, दुनिया में कुछ समय तक कड़ी मेहनत करके जीवन के मजे लेना चाहता हूँ। अगर परमेश्वर का दिन जल्द नहीं आ रहा, तो मैं घर लौटकर अपने परिवार से फिर से मिलना चाहता हूँ, जीवन साथी पाकर कुछ समय मजे से गुजारना चाहता हूँ, अपने माता-पिता को सहारा देना चाहता हूँ, अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करना चाहता हूँ। बुजुर्ग हो जाने पर मेरे पास बहुत-से बच्चे होंगे, वे सब मेरे साथ रहेंगे, और हम पारिवारिक जीवन का आनंद लेंगे—यह कितना अद्भुत दृश्य है! कितनी मीठी छवि है!” इस तरह सोचकर वे उस किस्म की जिंदगी के मजे लेने की बाट जोहते हैं। जब कभी लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्द आ जाएगा और परमेश्वर का कार्य शीघ्र समाप्त हो जाएगा, तो उनकी आकांक्षाएँ और अधिक तीव्र हो जाती हैं, परमेश्वर के कार्य के जल्द-से-जल्द समाप्त होने की उनकी लालसा और अधिक तीव्र हो जाती है। ऐसी हालत में जब तथ्य लोगों की कामनाओं से मेल नहीं खाते, जब लोग परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने या परमेश्वर के दिन के आने का कोई संकेत नहीं देख पाते, तो संताप, व्याकुलता और चिंता की उनकी भावनाएँ और अधिक गंभीर हो जाती हैं। वे इस बारे में चिंता करते हैं कि कुछ साल बाद जब वे बूढ़े हो चुके होंगे, और उन्हें जीवन साथी नहीं मिला होगा, तो बुढ़ापे में उनकी देखभाल कौन करेगा। वे चिंता करते हैं कि अगर वे परमेश्वर के घर में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे और पहले ही समाज से तमाम रिश्ते तोड़ चुके हों, तो घर लौटने पर जीवन-यापन के लिए वे समाज में फिर से घुल-मिल पाएँगे या नहीं। उन्हें चिंता होती है कि कुछ साल बाद जब वे व्यापार करने लौटें, या नौकरी पर वापस जाएँ, तो वे समय के साथ कदम मिला पाएँगे या नहीं, भीड़ में अलग दिख पाएँगे या नहीं और गुजारा कर पाएँगे या नहीं। ऐसी चीजों के बारे में वे जितनी ज्यादा चिंता करते हैं, और इनको लेकर वे जितना ज्यादा व्याकुल और संतप्त अनुभव करते हैं, उतना ही वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य शांति से नहीं निभा पाते, और परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाते। इस तरह वे अपने भविष्य, अपनी संभावनाओं, और अपने पारिवारिक जीवन की और ज्यादा चिंता करते हैं, और साथ ही भविष्य में जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों के बारे में भी चिंता करते हैं। वे उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जिन पर वे सोच सकते हैं, उन सभी चीजों की चिंता करते हैं जिनकी कर सकते हैं; वे इस बारे में भी चिंता करते हैं कि उनके नाती-पोतों का, और नाती-पोतों के वंशजों का जीवन कैसा होगा। उनके विचारों की पहुँच दूर तक होती है, और उनके विचार बहुत प्रबल होते हैं, और वे सबकी बारीकी पर ध्यान देते हैं। जब लोगों को ये चिंताएँ, व्याकुलताएँ और संताप की भावनाएँ होती हैं, तो वे शांति से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हो जाते हैं, वे सिर्फ परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाते, बल्कि इसके बजाय उनके मन में अक्सर विचार सक्रिय हो जाते हैं, और वे कभी हाँ कभी ना करते हैं। जब वे सुसमाचार कार्य को बहुत अच्छा होते देखते हैं, तो सोचते हैं, “परमेश्वर का दिन जल्द आएगा। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहिए, हाँ! लगे रहो! मुझे कुछ वर्ष और चलते रहना है, अब जाने में इतना ज्यादा वक्त नहीं है। ये तमाम तकलीफें झेलने योग्य हैं, इन सबका लाभ मिलेगा, और मुझे कोई चिंता नहीं होगी!” लेकिन कुछ वर्ष बाद भी महाविपत्तियाँ नहीं आईं, कोई भी परमेश्वर के दिन का जिक्र नहीं करता, इसलिए उनके दिल ठंडे पड़ जाते हैं। इस प्रकार यह संताप, व्याकुलता और चिंता और साथ ही उनके सक्रिय विचार बार-बार आते-जाते रहते हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्थिति और परमेश्वर के घर की स्थिति के अनुसार बिना किसी अंजाम के घूमते रहते हैं, और वे इन्हें काबू में करने के लिए कुछ नहीं कर सकते—कोई कुछ भी कहे वे जिस दशा में हैं उसे बदलने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) क्या ऐसे लोगों के लिए डटे रहना आसान होता है? (नहीं।) अपने कर्तव्य-निर्वाह में उनका रवैया और मनःस्थिति और जो ऊर्जा वे अपने कर्तव्यों में लगाते हैं, वे सब “ताजा खबरों” पर आधारित होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “विश्वस्त समाचारों के अनुसार परमेश्वर का सुसमाचार अद्भुत ढंग से फैल रहा है!” और कुछ लोग कहते हैं, “ताजा खबर यह है कि अब पूरी दुनिया में विपत्तियाँ बड़ी तेजी से आ रही हैं, और जाहिर तौर पर संसार की स्थिति और विपत्तियों ने अब प्रकाशित वाक्यों की किताब की अमुक विपत्ति को साकार किया है। परमेश्वर का कार्य जल्द ही पूरा हो जाएगा, परमेश्वर का दिन जल्द ही आने वाला है, और पूरे धार्मिक संसार में कोलाहल है!” जब भी वे “ताजा खबर” या “विश्वस्त समाचार” सुनते हैं, तो उनका संताप, और उनकी व्याकुलता और चिंता अस्थायी रूप से समाप्त हो जाती हैं, अब उन्हें और परेशान नहीं करते, और वे कुछ वक्त के लिए अपने सक्रिय विचारों को जाने देते हैं। हालाँकि जब उन्होंने हाल में कोई “विश्वस्त समाचार” या “सही समाचार” नहीं सुना होता, तो उनके संताप, व्याकुलता और चिंता और साथ ही उनके सक्रिय विचारों की बाढ़ आने लगती है। कुछ लोग नौकरी के लिए कहाँ आवेदन करना है, कहाँ काम करना है, कितने बच्चे होने हैं, कुछ वर्षों में उनके बच्चे कहाँ स्कूल जाएँगे, उनके कॉलेज की फीस कैसे जोड़नी है, इस बारे में सोचकर तैयारी भी करने लगते हैं, और वे एक घर खरीदने, जमीन खरीदने या कार खरीदने की भी योजना बना लेते हैं। हालाँकि “विश्वस्त समाचार” सुनने के बाद ये चीजें अस्थायी रूप से ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं। क्या यह एक मजाक नहीं लगता? (जरूर लगता है।) कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर का काम जान लेने के बाद, कुछ लोग परमेश्वर के प्रति गवाही दे पाते हैं, कहते हैं : “परमेश्वर में आस्था जीवन का सही पथ है; यही सबसे सार्थक जीवन है। इस तरह जीने का सर्वाधिक मूल्य है। परमेश्वर चाहे जैसे मेरी अगुआई करे, या परमेश्वर चाहे जो करे, मुझे यकीन है कि परमेश्वर का किया सब-कुछ लोगों को बचाने के लिए होता है, और इसलिए मैं अंत समय तक परमेश्वर का अनुसरण करूँगा। चाहे यह तब तक चले, जब तक स्वर्ग और पृथ्वी बूढ़े न हो जाएँ, जब तक तारे अपनी स्थिति न बदल लें, जब तक समुद्र सूख न जाएँ, चट्टानें धूल न बन जाएँ, या समुद्र जमीन न बन जाएँ, और जमीन समुद्र, मेरा दिल बिल्कुल नहीं बदलेगा और यह तय है। शेष जीवन के लिए मेरा हृदय परमेश्वर को अर्पित होगा, और अगर इस जीवन के बाद एक और जीवन हुआ, तब भी मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँगा।” लेकिन अपने जीवन में अनेक मुश्किलें झेलने वाले लोग इस तरह नहीं सोचते। परमेश्वर में उनकी आस्था बस कुछ समय देखने से जुड़ी है, और वे अपना जीवन वैसे ही जीते हैं जैसा वे सोचते हैं कि उन्हें जीना चाहिए। वे अपनी जीवनशैली या मूल अनुसरण सिर्फ इसलिए नहीं बदलेंगे क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। कई सालों तक कुछ भी बदले बिना वे परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, गैर-विश्वासियों की तरह, वे उसी तरह जीते रहते हैं जैसे वे पहले जिया करते थे। फिर भी परमेश्वर में आस्था एक खास चीज से जुड़ी होती है, जो यह है कि परमेश्वर का दिन जल्द आएगा, परमेश्वर का राज्य जल्द आएगा, महाविपत्तियाँ आएँगी, और परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग तब विपत्तियों से बच कर निकल जाएँगे, वे विपत्तियों में नहीं फँसेंगे, और उन्हें बचाया जा सकता है। सिर्फ इसी एक विशेष चीज के कारण वे परमेश्वर में विश्वास रखने में इतनी ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। इसलिए उनका प्रयोजन और परमेश्वर में विश्वास के लिए वे जिस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वह बस यही एकमात्र चीज होती है। वे चाहे जितने धर्मोपदेश सुनें, लोगों द्वारा संगति में जितने भी सत्य सुनें, या उन्होंने परमेश्वर में चाहे जितने लंबे समय से विश्वास रखा हो, फिर भी परमेश्वर में उनके विश्वास का तरीका कभी नहीं बदलता, और वे इसे कभी नहीं छोड़ते। न तो वे जो धर्मोपदेश सुनते हैं, और न ही उन सत्यों के कारण जो वे समझते हैं, उनसे वे परमेश्वर में विश्वास को लेकर अपनी गलत सोच को बदलते हैं या छोड़ते हैं। और इसलिए बाहरी संसार में या परमेश्वर के घर में कोई बदलाव आए, या उस स्थिति के बारे में कोई बात कही जाए, उसका हमेशा उस चीज पर प्रभाव पड़ता है, जिसे लेकर वे अपने अंतरतम में बहुत चिंतित रहते हैं। अगर वे सुनते हैं कि परमेश्वर का कार्य जल्द ही पूरा हो जाएगा, तो उन्हें बेहद खुशी होती है; लेकिन अगर वे सुनते हैं कि इतनी जल्दी परमेश्वर का कार्य पूरा नहीं हो सकता, और वे चलते नहीं रह सकते, तो उनका संताप, व्याकुलता और चिंता दिन-ब-दिन बढ़ती जाएँगी, और वे परमेश्वर के घर से बिल्कुल अलग हो जाने के लिए किसी भी वक्त परमेश्वर का घर छोड़ने और भाई-बहनों को अलविदा कहने को तैयार होने लगते हैं। बेशक ऐसे लोग भी हैं जो किसी भी वक्त सभी भाई-बहनों के संपर्क विवरण पूरी तरह मिटा देने और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें भेजी गई परमेश्वर के वचनों की किताबें कलीसिया को वापस भेजने की तैयारी करने लगते हैं। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने के इस मार्ग पर चलता नहीं रह सकता। मैंने सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है कि मैं एक खुशहाल जीवन जियूँगा, मेरे बच्चे होंगे, मुझे आशीष मिलेंगे और मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करूँगा। अब चूँकि यह खूबसूरत सपना चूर-चूर हो गया है, मैं अब भी एक खुशहाल जीवन जीना, बच्चों के साथ जीवन के मजे लेना चुनूँगा। फिर भी मैं परमेश्वर में अपना विश्वास नहीं छोड़ सकता। अगर मौका मिला तो इसी जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पा सकूँगा, क्या यह और भी बेहतर नहीं होगा?” परमेश्वर में विश्वास पर उनकी यह सोच है, यह उनकी योजना है, और बेशक यही वे करते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करने वाले जो लोग अपने दैहिक जीवन को लेकर हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं, उनके अंतरतम में यही सोच और योजना होती है और यह उस मार्ग को दर्शाता है जिसका वे परमेश्वर में अपने विश्वास में अनुसरण करते हैं और जिस पर वे चलते हैं। वह क्या चीज है जो उनके मन में घर कर गई है? जो चीज उनके मन में सबसे ज्यादा घर कर गई है वह यह है कि परमेश्वर का दिन कब आएगा, परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, महाविपत्तियाँ कब आएँगी, और वे महाविपत्तियों से बच कर निकल पाएँगे या नहीं—यही बात है जो उनके मन में सबसे ज्यादा पैठी हुई है।
जहाँ तक उन लोगों का सवाल है, जो अपने दैहिक जीवन को लेकर हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित रहते हैं, परमेश्वर में विश्वास में उनका प्रयास “इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाना” होगा। लेकिन वे इस बारे में नहीं सुनना चाहते कि परमेश्वर का कार्य कितना आगे बढ़ा है, क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे उद्धार प्राप्त करने के नतीजे हासिल कर पाते हैं, कितने लोगों ने सत्य प्राप्त किया है, परमेश्वर को जाना है, अच्छी गवाही दी है, मानो इन चीजों का उनके साथ कोई लेना-देना न हो। तो वह क्या है जो वे सुनना चाहते हैं? (परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा।) उनकी उम्मीदें ज्यादा बड़ी हैं, है न? ज्यादातर लोग बहुत ओछे हैं। देखो, उनकी नजर किस पर है और वे सिर्फ महान चीजों की उम्मीद रखते हैं—वे कितनी ऊँची दशा में हैं! ज्यादातर लोग बस बहुत अभद्र हैं, हमेशा स्वभाव में बदलावों, परमेश्वर के प्रति समर्पण, वफादारी से अपना कर्तव्य निभाने, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार काम करने की बात करते हैं—ये लोग क्या हैं? ये बहुत ओछे लोग हैं! चीनी लोग क्या कहते हैं? ये बहुत कमीने हैं। कमीने का क्या अर्थ है? यह बहुत अभद्र है। और इन लोगों की नजर किस पर होती है? वे बड़ी चीजों, ऊँची चीजों, आलीशान चीजों की उम्मीद रखते हैं। जो लोग आलीशान चीजों की उम्मीद रखते हैं, वे हमेशा ऊपर चढ़ना चाहते हैं, तब भी बेवजह उम्मीद करते हुए कि एक-न-एक दिन परमेश्वर उससे मिलने के लिए उन्हें हवा में ऊपर उठा लेगा। तुम परमेश्वर से मिलना चाहते हो, मगर यह नहीं पूछते कि परमेश्वर तुमसे मिलना चाहता है या नहीं—तुम बस ऐसी शानदार चीजें चाहते रहते हो! क्या तुमने परमेश्वर से सिर्फ कुछ बार भेंट की है? लोग परमेश्वर को नहीं जानते, इसलिए जब तुम उससे मिलते हो तब भी तुम उसकी अवज्ञा करोगे। तो इन लोगों के संताप, व्याकुलता और चिंता के पीछे का कारण क्या है? क्या यह सचमुच पूरी तरह से उनके जीवन की मुश्किलों के कारण है? नहीं, ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में सचमुच मुश्किलें हैं, कारण यह है कि उन्होंने परमेश्वर में अपनी आस्था का केंद्र बिंदु अपने दैहिक जीवन को बना लिया है। उनके प्रयासों का केंद्र सत्य नहीं, बल्कि एक सुखी जीवन जीना है, अच्छे जीवन के मजे लेना है, एक अच्छे भविष्य का आनंद उठाना है। क्या इन लोगों की समस्याओं को दूर करना आसान है? क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? वे हमेशा दूसरों से पूछते हैं, “बताओ भला, परमेश्वर का दिन कब आएगा? क्या कुछ वर्ष पहले यह नहीं कहा गया था कि परमेश्वर के कार्य का अंत होने ही वाला है? तो यह अब तक समाप्त क्यों नहीं हुआ?” क्या ऐसे लोगों से निपटने का कोई तरीका है? उनसे बस एक बात कहो, उनसे बोलो, “जल्द!” जब ऐसे लोगों की बात आए तो पहले उनसे पूछो, “तुम हमेशा इस बारे में पूछते हो। क्या तुमने कुछ योजनाएँ बनाई हैं? अगर ऐसा है, तो अगर तुम यहाँ नहीं रहना चाहते तो यहाँ रहने की जहमत मत उठाओ। वही करो जो तुम चाहते हो। अपनी आकाँक्षाओं के खिलाफ मत जाओ, और अपना जीवन कठिन मत बनाओ। परमेश्वर के घर ने तुम्हें यहाँ नहीं रखा है, वह तुम्हें यहाँ नहीं फँसा रहा है। तुम जब चाहो जा सकते हो। हमेशा यह मत पूछते रहो कि नई अफवाह क्या है। अफवाहों की खबरों पर तुम्हें बताया जाएगा ‘जल्द!’ अगर तुम उस जवाब से खुश नहीं हो, तुमने अपने दिल में पहले ही योजनाएँ बना ली हों, और उन्हें देर-सवेर अमल में लाओगे, तो मेरी सलाह मानो : जल्द-से-जल्द परमेश्वर के वचनों की किताबें कलीसिया को लौटा दो, अपना सामान बांधो और चले जाओ। हम एक-दूसरे को बस अलविदा कह देंगे और तुम्हें इन चीजों को लेकर फिर कभी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। घर लौट जाओ और अपनी जिंदगी जियो। खुश रहो! मैं तुम्हें सुखी और संतुष्ट जीवन की शुभकामना देता हूँ, आशा करता हूँ कि भविष्य में तुम्हारे साथ सब-कुछ ठीक होगा!” तुम इस बारे में क्या सोचते हो? (अच्छा है।) उन्हें कलीसिया छोड़ देने की सलाह दो; उन्हें रखने की कोशिश मत करो। उन्हें रखने की कोशिश क्यों न करें? (वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्हें रखने का कोई तुक नहीं है।) सही है; वे छद्म-विश्वासी हैं! छद्म-विश्वासियों को रखने और उन्हें न निकालने का क्या तुक है? कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया है, और उन्होंने किसी भी चीज में बाधा नहीं पहुँचाई है।” क्या उन्हें किसी चीज को बाधित करने की जरूरत है? मुझे बताओ, क्या लोगों के एक समूह में किसी एक ऐसे व्यक्ति का रहना बाधित करना नहीं है? वे जहाँ भी जाते हैं, उनकी चाल-ढाल और कर्म पहले ही बाधा बन जाते हैं। वे कभी भी आध्यात्मिक भक्ति कार्य नहीं करते, वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, वे कभी प्रार्थना नहीं करते या सभाओं में संगति नहीं करते, वे बस अपने कर्तव्य निभाने का नाटक करते हैं, हमेशा पूछते रहते हैं कि नई अफवाह क्या है। वे खास तौर पर कुछ ज्यादा ही भावुक और चंचल होते हैं। वे खास तौर पर खाने-पीने, मौज-मस्ती में ज्यादा मन लगाते हैं, और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आलसी होते हैं, खाने-पीने में लगे रहते हैं, सोते रहते हैं, गड़बड़ियाँ करते हैं, और वे परमेश्वर के घर में सिर्फ संख्या बढ़ाने के लिए रहते हैं। उन्हें अपने कर्तव्य निर्वाह की फिक्र नहीं होती, वे बस आवारा होते हैं। परमेश्वर के घर में वे अपने लाभ की चीजें ढूँढ़ने और फायदा उठाने के लिए आते हैं। अगर वे फायदा नहीं उठा सकते, तो वे तुरंत बिना किसी हिचकिचाहट के चले जाते हैं। यह देखकर कि वे बिना किसी हिचकिचाहट के तुरंत चले जाएँगे, क्या यह बेहतर नहीं है कि वे देर किए बिना तुरंत चले जाएँ? ऐसे लोग अंत तक मजदूरी नहीं कर सकते और उनकी मजदूरी का कोई अच्छा असर नहीं होता। वे मजदूरी करते भी हैं, तो सही चीजें नहीं करते—वे बस छद्म-विश्वासी हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में वे चीजों को एक तीसरे नजरिए से देखते हैं। जब परमेश्वर का घर समृद्ध होता है, तो वे यह सोचकर खुश होते हैं कि वे आशीष पाने की आशा रख सकते हैं, वे फायदे में हैं, परमेश्वर में उनका विश्वास व्यर्थ नहीं हुआ है, वे हारे नहीं है, और उन्होंने विजेता पक्ष पर दाँव लगाया है। लेकिन अगर परमेश्वर का घर शैतानी ताकतों के नीचे दब गया है, समाज ने उसका परित्याग कर दिया है, उसकी बदनामी कर उसे सताया गया है, वह खस्ता हाल है, तो न सिर्फ वे परेशान नहीं होते, बल्कि उस पर हँसते भी हैं। क्या हम ऐसे लोगों को कलीसिया में रख सकते हैं? (नहीं।) वे छद्म-विश्वासी और दुश्मन हैं! अगर कोई दुश्मन तुम्हारे बाजू में हो और तुम उसे भाई या बहन मानो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? अगर ऐसे लोग स्वेच्छा से मजदूरी करने में असमर्थ होते हैं, तो उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए, है न? (सही है।) सचमुच सही है, यह फौरन और अच्छी तरह से करो। उन्हें परामर्श देने की कोई जरूरत नहीं, बस आराम से उन्हें जाने को कहो। तुम्हें उन लोगों पर अपना समय और ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं, बस उनका सामान बंधवा कर घर भेज दो। सार रूप में, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर के घर के हैं, वे बस छद्म-विश्वासी हैं, जो कलीसिया में घुस आए हैं। वे वहाँ लौट सकते हैं जहाँ से आए थे, और तुम उन्हें बस जाने को कह सकते हो। कलीसिया में प्रवेश करने के बाद कुछ लोग वास्तव में अपने और परमेश्वर के घर के भाई-बहनों के बीच एक स्पष्ट भेद बना लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे जानते हैं वे क्या करने आए हैं, वे जानते हैं कि वे सचमुच विश्वास रखते हैं या नहीं, और परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने की उम्मीद के अलावा वे आशीष पा सकेंगे या नहीं, परमेश्वर के घर का कोई भी कार्य या परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित किसी भी सत्य में प्रवेश का उनसे कोई लेना-देना नहीं होता; वे इन चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते, वे कलीसिया द्वारा उन्हें पढ़ने के लिए भेजी गई परमेश्वर के वचनों की किताबें नहीं पढ़ते, उन्हें बिना खोले बस पैकेजिंग के साथ यूँ ही छितरा कर छोड़ देते हैं। ऐसे लोग ऐसा कहते भर हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; ऊपर से तो वे दूसरों की तरह विश्वास रखते-से लगते हैं, अपना कर्तव्य निभाने का नाटक करते हैं, मगर वे परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ते। उन्होंने कभी एक बार भी परमेश्वर के वचनों की किताब नहीं खोली, एक भी पन्ना नहीं पलटा—उन्होंने उसमें से कुछ भी नहीं पढ़ा। वे कभी भी परमेश्वर के घर द्वारा ऑनलाइन पोस्ट किए जाने वाले अनुभवात्मक गवाही के वीडियो, सुसमाचार फिल्में, भजन वगैरह के वीडियो भी नहीं देखते। वे आम तौर पर क्या देखते हैं? वे खबरें, लोकप्रिय कार्यक्रम, वीडियो क्लिप और हास्य कार्यक्रम देखते हैं, जिन्हें देखना बेमानी है। ये लोग क्या हैं? कभी-कभार वे यह पूछने के लिए कलीसिया जाते हैं, “अब तक सुसमाचार कार्य कितने देशों में फैल चुका है? कितने लोगों ने परमेश्वर के प्रति रुझान दिखाया है? अब तक कितने देशों में कलीसिया स्थापित की गई हैं? कुल कितनी कलीसिया हैं? परमेश्वर का कार्य किस चरण में है?” अपने खाली समय में वे हमेशा इन्हीं चीजों के बारे में पूछते हैं। क्या इससे शक नहीं होता कि यह व्यक्ति जासूस है? बताओ भला, क्या किसी ऐसे को रखना ठीक है? (नहीं।) अगर वे अपनी मर्जी से कलीसिया नहीं छोड़ते, तो तुम लोगों को उनका पता चलते ही उन्हें निकाल देना चाहिए, और कलीसिया को इनके अभिशाप से मुक्त कर देना चाहिए। उन्हें रखना बेतुका है, और कलीसिया को इन आफतों से छुटकारा दिला देना चाहिए। ये लोग जिन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं, उनका हम लोगों से रत्ती भर भी लेना-देना नहीं है। उन्हें परामर्श देने की जहमत मत उठाओ, उनके साथ सत्य पर संगति करना बेकार है। बस उनसे पीछा छुड़ाओ, और खत्म करो—ऐसे लोगों से निपटने का सबसे बढ़िया तरीका यही है।
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