सत्य का अनुसरण कैसे करें (3) भाग दो

फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, “ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?” ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, “अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?” जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, “परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।” ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी।

ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हालाँकि सचमुच बीमार महसूस नहीं करते और जिनमें किसी भी बीमारी का निदान नहीं हुआ होता, फिर भी वे जानते हैं कि उनमें कोई बीमारी छिपी हुई है। कौन-सी छिपी हुई बीमारी? मिसाल के तौर पर, हो सकता है यह वंशानुगत बीमारी हो, जैसे दिल की बीमारी, मधुमेह या उच्च रक्तचाप, या हो सकता है अल्जाइमर्स या पार्किन्सन की बीमारी, या किसी किस्म का कैंसर—ये सभी छिपी हुई बीमारियाँ हैं। कुछ लोग जानते हैं कि चूँकि उन्होंने ऐसे परिवार में जन्म लिया है, इसलिए देर-सवेर यह आनुवंशिक बीमारी उन्हें घेर लेगी। वे सोचते हैं, अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखकर सत्य का अनुसरण करें, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाएँ, पर्याप्त नेक कर्म करें और परमेश्वर को खुश कर पाएँ, तो क्या यह छिपी हुई बीमारी उन्हें बिना छुए निकल जाएगी? लेकिन परमेश्वर ने उनसे कभी ऐसा वादा नहीं किया, और उन्हें परमेश्वर में ऐसी आस्था कभी नहीं थी, और कोई गारंटी या अवास्तविक विचार पालने की उन्होंने कभी हिम्मत नहीं की। चूँकि उन्हें कोई गारंटी या आश्वासन नहीं मिल सकता, इसलिए वे अपने कर्तव्य-निर्वहन में अत्यधिक ऊर्जा खपाते हैं, कड़ी मेहनत करते हैं, वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने पर ध्यान देते हैं, और वे यह सोचकर हमेशा दूसरों से ज्यादा काम करते हैं, और दूसरों से अलग दिखाई देते हैं, “कष्ट सहनेवाला पहला और आनंद लेनेवाला आखिरी व्यक्ति मैं बनूँगा।” इस प्रकार के आदर्श वाक्य से वे हमेशा स्वयं को अभिप्रेरित करते हैं, फिर भी छिपी हुई बीमारी को लेकर उनमें गहरे पैठे डर और चिंता को दूर नहीं भगाया जा सकता, और यह चिंता, यह संताप हमेशा उनके साथ बना रहता है। भले ही वे कष्ट सह सकते हों, कड़ी मेहनत कर सकते हों, और अपने कर्तव्य-निर्वाह में कीमत चुकाने को तैयार हों, फिर भी उन्हें लगता है कि वे इस विषय पर परमेश्वर का वादा या उससे एक अचूक वचन पाने में असमर्थ हैं, और इसलिए इस मामले को लेकर वे संताप, व्याकुलता और चिंता से भरे होते हैं। हालाँकि वे अपनी छिपी हुई बीमारी के बारे में कुछ भी न करने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी वे कभी-कभी अवचेतन रूप से किसी दिन, किसी पल, अनजाने ही एकाएक इस छिपी हुई बीमारी से ग्रस्त हो जाने से बचने के लिए तरह-तरह के देसी नुस्खे ढूँढ़ने में लग जाते हैं। कुछ लोग समय-समय पर लेने के लिए कुछ चीनी औषधीय जड़ी-बूटियाँ तैयार कर सकते हैं, कुछ लोग कभी-कभी जरूरत पड़ने पर लेने के लिए देसी नुस्खों के बारे में यहाँ-वहाँ पूछते हैं, और कुछ लोग कभी-कभी ऑनलाइन जाकर कसरतों के नुस्खे ढूँढ़ते हैं, ताकि वे कसरत कर के आजमा सकें। भले ही यह सिर्फ एक छिपी हुई बीमारी हो, फिर भी उनके दिमाग में यह सबसे ऊपर होती है; भले ही ये लोग बीमार महसूस न करें या उनमें कोई लक्षण न हों, फिर भी वे इसे लेकर चिंता और व्याकुलता से भरे होते हैं, और वे इसे लेकर गहराई से संतप्त और अवसाद-ग्रस्त अनुभव करते हैं, और प्रार्थना या अपने कर्तव्य-निर्वहन के जरिए अपने भीतर से इन नकारात्मक भावनाओं को ठीक करने या दूर करने की हमेशा उम्मीद करते हैं। ये लोग जिन्हें सच में कोई बीमारी होती है या जिनमें छिपी हुई बीमारी होती है, उन लोगों के साथ जो भविष्य में बीमार होने को लेकर चिंता करते हैं, और वे जो कमजोर सेहत के साथ पैदा हुए, जिन्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है पर जो निरंतर छोटी बीमारियों का कष्ट सहते हैं, वे विभिन्न शारीरिक बीमारियों और मुश्किलों को लेकर निरंतर संतप्त और चिंतित रहते हैं। वे उनसे बच निकलना चाहते हैं, उनसे दूर भागना चाहते हैं, लेकिन उनके पास ऐसा करने का कोई तरीका नहीं होता; वे उन्हें जाने देना चाहते हैं, मगर नहीं जाने दे पाते; वे परमेश्वर से आग्रह करना चाहते हैं कि इन बीमारियों और मुश्किलों को उनसे दूर कर दे, लेकिन वे ये वचन नहीं कह पाते और शर्मिंदा महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसे निवेदन का कोई औचित्य नहीं है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि इन मामलों को लेकर परमेश्वर से विनती नहीं की जा सकती, मगर वे अपने दिलों में शक्तिहीन अनुभव करते हैं; वे सोचते हैं कि अपनी सारी आशाएँ परमेश्वर पर थोपकर क्या उन्हें ज्यादा आराम मिलेगा, उनके जमीर को तसल्ली मिलेगी? इसलिए समय-समय पर वे अपने अंतरतम में इस मामले पर मौन प्रार्थना करते हैं। अगर परमेश्वर से उन्हें कोई अतिरिक्त या अप्रत्याशित कृपा या अनुग्रह मिलता है, तो उन्हें थोड़ी खुशी और आराम मिलता है; अगर परमेश्वर के घर से उन्हें बिल्कुल कोई विशेष देखभाल नहीं मिलती, और वे परमेश्वर की दया का थोड़ा भी अनुभव नहीं करते, तो वे अनजाने ही फिर से संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। हालाँकि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु मानवजाति के लिए शाश्वत हैं और जीवन में इनसे बचा नहीं जा सकता, फिर भी एक विशेष शारीरिक गठन या खास बीमारी वाले कुछ लोग होते हैं, जो अपना कर्तव्य निभाएँ या नहीं, देह की मुश्किलों और बीमारियों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं; वे अपनी बीमारियों के बारे में चिंता करते हैं, उन तमाम मुश्किलों के बारे में चिंता करते हैं जो उनकी बीमारी उन्हें दे सकती है, कहीं उनकी बीमारी गंभीर न हो जाए, गंभीर हो गई तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे, और क्या इससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। खास हालात और कुछ संदर्भों में सवालों के इस सिलसिले से वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते; कुछ लोग तो पहले से जानते हुए कि उन्हें यह गंभीर बीमारी है या ऐसी छिपी हुई बीमारी है जिससे बचने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते, संताप, व्याकुलता और चिंता की दशा में ही जीते हैं, और वे इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं, चोट खाते हैं और नियंत्रित होते हैं। एक बार इन नकारात्मक भावनाओं के नियंत्रण में पड़ने के बाद कुछ लोग उद्धार प्राप्त करने के सारे मौके और पूरी आशा छोड़ देते हैं; वे अपना कर्तव्य-निर्वहन और परमेश्वर की दयालुता पाने का कोई भी मौका छोड़ देना चुनते हैं। इसके बजाय वे किसी दूसरे की मदद माँगे बिना और किसी भी अवसर की प्रतीक्षा किए बिना खुद अपनी बीमारी का सामना कर उसे सँभालने का चुनाव करते हैं। वे अपनी बीमारी का इलाज खुद करने को समर्पित हो जाते हैं, अब कोई कर्तव्य नहीं निभाते, कर्तव्य निभाने में शारीरिक रूप से समर्थ होने पर भी वे उसे नहीं निभाते। इसका कारण क्या है? उन्हें चिंता होती है, “अगर मेरी बीमारी इसी तरह चलती रही, और परमेश्वर मुझे ठीक न करे, तो मैं अभी की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहूँगा और फिर अंत में मर जाऊँगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निर्वाह बंद कर इलाज करवाऊँ, तो दो-चार वर्ष और जी सकूँगा, और संभवतः यह ठीक हो जाए। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा और परमेश्वर ने नहीं कहा कि वह मुझे ठीक कर देगा, तो हो सकता है मेरी सेहत और भी बदतर हो जाए। मैं नहीं चाहता कि 10-20 साल और अपना कर्तव्य निभाऊँ और फिर मर जाऊँ। मैं और कुछ साल जीना चाहता हूँ, मैं इतनी जल्दी नहीं मरना चाहता!” इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कुछ समय तक निभाते हैं, थोड़े समय तक देखते हैं, यूँ कहें कि वे कुछ समय तक देखते हैं कि क्या होता है, और फिर वे सोचने लगते हैं, “मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा हूँ, लेकिन मेरी बीमारी जरा भी ठीक नहीं हुई है, दूर नहीं हुई है। लगता है बेहतर होने की कोई उम्मीद नहीं है। पहले मेरी एक योजना थी कि अगर मैंने सब-कुछ छोड़कर वफादारी से अपना कर्तव्य निभाया, तो शायद परमेश्वर मुझसे यह बीमारी ले लेगा। लेकिन मेरी योजना, अनुमान और कामना के अनुसार कुछ भी नहीं हुआ। मेरी बीमारी बिल्कुल पहले जैसी ही है। इतने साल गुजर गए हैं, और यह बीमारी जरा भी कम नहीं हुई है। लगता है इस बीमारी का इलाज मुझे खुद करना चाहिए। मैं किसी और पर भरोसा नहीं कर सकता, किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अपने भाग्य की कमान मुझे अपने हाथों में लेनी होगी। विज्ञान और टेक्नालॉजी और चिकित्सा विज्ञान भी अब बहुत विकसित हो चुके हैं, हर तरह की बीमारी के इलाज की असरदार दवाएँ उपलब्ध हैं और सभी बीमारियों के लिए उन्नत चिकित्सा पद्धतियाँ मौजूद हैं। मुझे यकीन है कि इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है।” ऐसी योजनाएँ बनाकर वे ऑनलाइन खोज शुरू करते हैं या यहाँ-वहाँ पूछताछ करते हैं, जब तक कि अंत में उन्हें कोई समाधान नहीं मिल जाता। अंत में वे फैसला कर लेते हैं कि कौन-सी दवा लेनी है, अपनी बीमारी का इलाज कैसे करें, कैसे कसरत करें, और अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें। वे सोचते हैं, “अगर मैं अपना कर्तव्य न निभाकर इस बीमारी के इलाज पर ध्यान दूँ, तो ठीक हो जाने की उम्मीद है। ऐसी बीमारी के ठीक हो जाने के बहुत-से उदाहरण हैं।” इस तरह कुछ समय तक योजना बनाकर और उपाय करके वे अंत में अब आगे अपना कर्तव्य न निभाने का फैसला करते हैं, और अपनी बीमारी का इलाज करना उनकी पहली प्राथमिकता बन जाती है—उनके लिए जीने से बढ़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता। उनका संताप, व्याकुलता और चिंता एक प्रकार के व्यावहारिक कार्य में तब्दील हो जाते हैं; उनकी व्याकुलता और चिंता महज सोच से बदलकर एक प्रकार के कार्य में बदल जाती है। गैर-विश्वासियों की एक कहावत है जो इस प्रकार है : “कर्म विचार से बेहतर है, और कर्म से भी बेहतर है तुरंत कर्म।” ऐसे लोग सोचते हैं, फिर कार्य करते हैं, और तेजी से कार्य करते हैं। एक दिन वे अपनी बीमारी का इलाज करने के बारे में सोचते हैं, और अगली सुबह वे अपनी चीजें समेटकर जाने को तैयार हो जाते हैं। कुछ थोड़े-से महीने गुजरते ही बुरी खबर आती है कि बीमारी ठीक हुए बिना ही वे मर गए। क्या वे अपनी बीमारी से ठीक हो पाए? (नहीं।) जरूरी नहीं कि हमेशा अपनी किसी बीमारी को स्वयं ठीक कर पाना संभव हो, मगर क्या यह सुनिश्चित है कि परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते समय तुम बीमार नहीं पड़ोगे? तुमसे ऐसा वादा कोई नहीं करेगा। तो तुम कैसे चुनोगे, और बीमार पड़ने की बात को तुम्हें किस नजरिए से देखना चाहिए? यह बहुत सरल है, और चलने का एक पथ है : सत्य का अनुसरण करो। सत्य का अनुसरण करो, और इस बात को परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार देखो—यही समझ लोगों में होनी चाहिए। तुम्हें अभ्यास कैसे करना चाहिए? ये सभी अनुभव लेकर तुम अपने द्वारा हासिल समझ, और सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्राप्त सत्य-सिद्धांतों का अभ्यास करो, और तुम उन्हें अपनी वास्तविकता और अपना जीवन बनाओ—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य का परित्याग करना ही नहीं चाहिए। चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारी ये बातें बहुत अधिक विचारशील नहीं हैं। मैं बीमार हूँ और मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल है!” जब तुम्हारे लिए यह मुश्किल हो, तब तुम आराम कर सकते हो, अपनी देखभाल कर सकते हो, और इलाज करवा सकते हो। अगर तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम अपने काम का बोझ घटाकर कोई उपयुक्त कर्तव्य निभा सकते हो, जो तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ को प्रभावित न करे। इससे साबित होगा कि तुमने अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं किया है, कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से नहीं भटका है, कि तुमने अपने दिल से परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा है, और तुमने अपने दिल से एक उचित सृजित प्राणी बनने की आकांक्षा का परित्याग नहीं किया है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने यह सब किया है, तो क्या परमेश्वर मेरी यह बीमारी मुझसे ले लेगा?” क्या वह लेगा? (जरूरी नहीं।) परमेश्वर तुमसे वह बीमारी ले या न ले, परमेश्वर तुम्हें ठीक करे या न करे, तुम्हें वही करना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हो या नहीं, तुम कोई काम सँभाल सको या नहीं, तुम्हारी सेहत तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने दे या नहीं, तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर नहीं भटकना चाहिए, और तुम्हें अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार तुम अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और अपना कर्तव्य निभा सकोगे—तुम्हें यह वफादारी कायम रखनी होगी। सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हाथों से काम नहीं कर सकते, और अब बोल नहीं सकते, या अब तुम्हारी आँखें देख नहीं सकतीं, या अब तुम चल-फिर नहीं सकते, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि परमेश्वर को तुम्हें ठीक करना ही होगा, और अगर वह तुम्हें चंगा नहीं करता, तो तुम अपने अंतरतम में उसे नकारना चाहते हो, अपने कर्तव्य का परित्याग करना चाहते हो, और परमेश्वर को पीछे छोड़ देना चाहते हो। ऐसे कर्म की प्रकृति क्या है? (यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात है।) यह विश्वासघात है! कुछ लोग बीमार न होने पर अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना करते हैं, और बीमार होने पर जब वे आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें ठीक कर देगा, खुद को पूरी तरह परमेश्वर पर छोड़ देते हैं, वे तब भी परमेश्वर के समक्ष आएँगे, और उसका परित्याग नहीं करेंगे। हालाँकि कुछ वक्त गुजरने के बाद भी अगर परमेश्वर ने उनका इलाज न किया, तो वे परमेश्वर से निराश हो जाते हैं, वे दिल की गहराई से परमेश्वर का परित्याग कर देते हैं, और अपने कर्तव्यों का परित्याग कर देते हैं। जब उनकी बीमारी उतनी ज्यादा नहीं होती, और परमेश्वर उन्हें ठीक नहीं करता, तो कुछ लोग परमेश्वर का परित्याग नहीं करते; लेकिन जब उनकी बीमारी गंभीर हो जाती है, और मौत उनके सामने होती है, तब वे जान लेते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, वे इतने वक्त से सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करते रहे हैं, और इसलिए वे अपने दिलों से परमेश्वर का परित्याग कर उसे नकार देते हैं। वे मानते हैं कि अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को अस्तित्व में नहीं होना चाहिए; अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को परमेश्वर ही नहीं होना चाहिए, और वह विश्वास रखने लायक है ही नहीं। चूँकि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया इस कारण उन्हें अब तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर खेद होता है, और वे उसमें विश्वास रखना बंद कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? यह परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात है। इसलिए तुम्हें उस रास्ते बिल्कुल नहीं जाना चाहिए—सिर्फ वही लोग जो मृत्यु आने तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं, उन्हीं में सच्ची आस्था होती है।

जब बीमारी दस्तक दे, तो लोगों को किस पथ पर चलना चाहिए? उन्हें कैसे चुनना चाहिए? लोगों को संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबकर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच-विचार नहीं करना चाहिए। इसके बजाय लोग खुद को जितना ज्यादा ऐसे वक्त और ऐसी खास स्थितियों और संदर्भों में, और ऐसी फौरी मुश्किलों में पाएँ, उतना ही ज्यादा उन्हें सत्य खोजकर उसका अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करके ही पहले तुमने जो धर्मोपदेश सुने हैं और जो सत्य समझे हैं, वे बेकार नहीं होंगे, और उनका प्रभाव होगा। तुम खुद को जितना ज्यादा ऐसी मुश्किलों में पाते हो, तुम्हें उतना ही अपनी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति बनाने और इन हालात की व्यवस्था करने में परमेश्वर का प्रयोजन तुम्हें संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में डुबोना नहीं है, यह इस बात के लिए भी नहीं है कि तुम परमेश्वर की परीक्षा ले सको कि क्या वह बीमार पड़ने पर तुम्हें ठीक करेगा, जिससे मामले की सच्चाई पता चल सके; परमेश्वर तुम्हारे लिए ये विशेष स्थितियाँ या हालात इसलिए बनाता है कि तुम ऐसी स्थितियों और हालात में सत्य में गहन प्रवेश पाने और परमेश्वर को समर्पण करने के लिए व्यावहारिक सबक सीख सको, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट और सही ढंग से जान सको कि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे आयोजित करता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है, और लोग इसे भाँप सकें या नहीं, वे इस बारे में सचमुच अवगत हों या न हों, उन्हें समर्पण करना चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, ठुकराना नहीं चाहिए और निश्चित रूप से परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। किसी भी हालत में तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, और अगर तुम प्रतिरोध करते हो, ठुकराते हो और परमेश्वर की परीक्षा लेते हो, तो यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारा परिणाम कैसा होगा। इसके विपरीत अगर उन्हीं स्थितियों और हालात में तुम यह खोज पाओ कि किसी सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए, यह खोज पाओ कि तुम्हें कौन-से सबक सीखने हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पैदा की गई स्थितियों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें जानने हैं, ऐसी स्थितियों में परमेश्वर के इरादों को समझना है, और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए अपनी गवाही अच्छी तरह देनी है, तो तुम्हें बस यही करना चाहिए। जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, और बीमारी से होने वाली तकलीफों और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारी विविध योजनाओं, फैसलों और चालों को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि मुझे इससे दूर नहीं भागना चाहिए या इसे ठुकराना नहीं चाहिए, और मुझे इससे बच निकलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए यानी तुम कहना चाहते हो कि मुझे जाकर उसका इलाज नहीं करवाना चाहिए!” मैंने ऐसा कभी नहीं कहा; यह तुमने गलत समझा है। तुम्हारी बीमारी के सक्रिय इलाज में मैं तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन मैं नहीं चाहता कि तुम अपनी बीमारी में जियो, या बीमारी से प्रभावित होकर तुम संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाओ, और आखिर बीमारी से हुई पीड़ा के कारण परमेश्वर से भटककर परमेश्वर का परित्याग कर दो। अगर बीमारी तुम्हें बहुत तकलीफ दे रही है, और तुम चाहते हो कि इलाज करवा लो और बीमारी चली जाए, तो बेशक यह ठीक है। यह तुम्हारा अधिकार है; इलाज करवाने का चुनाव तुम्हारा हक है, और किसी को भी तुम्हें रोकने का हक नहीं है। हालाँकि तुम इलाज करवा रहे हो, इसलिए तुम्हें अपनी बीमारी में जीते हुए अपना कर्तव्य निभाने से इनकार नहीं करना चाहिए, न ही अपने कर्तव्य का परित्याग करना या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को ठुकराना चाहिए। अगर तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं हो सकती, तो तुम संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाओगे, और इसलिए परमेश्वर को लेकर तुम्हारे मन में शिकायतें और शंकाएँ भर जाएँगी, तुम परमेश्वर में आस्था भी खो दोगे, आशा खो दोगे, और कुछ लोग अपने कर्तव्यों का परित्याग करना चुन लेंगे—दरअसल यह ऐसा काम है जो तुम्हें नहीं करना चाहिए। बीमारी झेलते वक्त तुम सक्रिय रूप से इलाज की कोशिश कर सकते हो, मगर तुम्हें इसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तुम्हारी बीमारी का चाहे जितना इलाज हो पाए, यह ठीक हो या नहीं, और अंत में चाहे जो हो, तुम्हें हमेशा समर्पण करना चाहिए, शिकायत नहीं। तुम्हें यही रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते, “अगर इस बीमारी से मैं ठीक हो गया, तो मैं विश्वास कर लूँगा कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य है, लेकिन अगर मैं ठीक नहीं हो पाया, तो परमेश्वर से प्रसन्न नहीं होऊँगा। परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी क्यों दी? वह यह बीमारी ठीक क्यों नहीं करता? यह बीमारी मुझे ही क्यों हुई, किसी और को क्यों नहीं? मुझे यह नहीं चाहिए! इतनी छोटी उम्र में, इतनी जल्दी मेरी मृत्यु क्यों होनी चाहिए? दूसरे लोगों को कैसे जीते रहने का मौका मिलता है? क्यों?” मत पूछो क्यों, यह परमेश्वर का आयोजन है। कोई कारण नहीं है, और तुम्हें नहीं पूछना चाहिए कि क्यों। सवाल उठाना विद्रोहपूर्ण बात है, और यह प्रश्न किसी सृजित प्राणी को नहीं पूछना चाहिए। मत पूछो क्यों, क्यों का प्रश्न ही नहीं है। परमेश्वर ने इस तरह चीजों की व्यवस्था की है, चीजों को यूँ नियोजित किया है। अगर तुम पूछोगे क्यों, तो फिर केवल यही कहा जा सकता है कि तुम बहुत ज्यादा विद्रोही हो, बहुत हठी हो। जब तुम किसी बात से असंतुष्ट होते हो, या परमेश्वर तुम्हारे चाहे अनुसार नहीं करता, या तुम्हें अपनी मनमानी नहीं करने देता, तो तुम नाखुश हो जाते हो, नाराज हो जाते हो, और हमेशा पूछते हो क्यों। तो परमेश्वर तुमसे पूछता है, “एक सृजित प्राणी के रूप में तुमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से क्यों नहीं निभाया? तुमने वफादारी से अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया?” फिर तुम उसका क्या जवाब दोगे? तुम कहते हो, “क्यों का प्रश्न नहीं है। मैं बस ऐसा ही हूँ।” क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) परमेश्वर के लिए तुमसे इस तरह बात करना स्वीकार्य है, मगर तुम्हारा परमेश्वर से इस तरह बात करना स्वीकार्य नहीं है। तुम गलत स्थान पर खड़े हो, तुम बेहद नासमझ हो। कोई सृजित प्राणी चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है कि तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, बड़ा किया, और तुम उन्हें माता-पिता कहते हो—यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और ऐसा ही होना चाहिए; क्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। तो परमेश्वर तुम्हारे लिए इन सब चीजों का आयोजन करता है, तुम आशीष का आनंद पाते हो या तकलीफें सहते हो, यह भी पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और इस बारे में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम बिल्कुल अंत तक समर्पण कर सकते हो, तो पतरस की तरह उद्धार प्राप्त कर सकते हो। हालाँकि अगर तुम किसी अस्थायी बीमारी के कारण परमेश्वर को दोष दो, उसका परित्याग करो और उसके साथ विश्वासघात करो, तो पहले तुमने जो कुछ छोड़ा, खपाया, अपना कर्तव्य निभाया और कीमत चुकाई, वह व्यर्थ हो जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले की तुम्हारी कड़ी मेहनत ने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या एक सृजित प्राणी के रूप में उचित स्थान धारण करने के लिए कोई बुनियाद नहीं रखी होगी, और इससे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदला होगा। फिर बीमारी के कारण यह तुम्हें परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की ओर बढ़ाएगा, और तुम्हारा अंत पौलुस जैसा होगा, अंत में दंड पाओगे। इस दृढ़ता का कारण यह है कि तुमने पहले जो कुछ भी किया वह एक ताज पाने और आशीष पाने की खातिर था। आखिर जब तुम बीमारी और मृत्यु का सामना करते हो, अगर तब भी तुम बिना किसी शिकायत के समर्पण कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि पहले तुमने जो कुछ किया वह परमेश्वर के लिए निष्ठा से और इच्छापूर्वक किया था। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो, और आखिर तुम्हारा समर्पण परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के जीवन का पूर्ण अंत अंकित करेगा, और परमेश्वर इसकी सराहना करता है। इसलिए बीमारी तुम्हें अच्छा अंत दे सकती है, या फिर बुरा अंत; तुम्हें जो अंत मिलता है, वह तुम्हारे अनुसरण के पथ और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है।

क्या बीमारी के कारण लोगों की नकारात्मक भावनाओं में डूबने की समस्या अब दूर हो गई है? (हाँ, दूर हो गई है।) क्या अब बीमारी का सामना करने को लेकर तुम्हारे मन में सही सोच और विचार हैं? (हाँ।) क्या तुम इसे अभ्यास में लाना जानते हो? अगर नहीं, तो मैं तुम्हें करने के लिए सही युक्ति, सबसे बढ़िया चीज दूँगा। क्या तुम लोग जानते हो कि यह क्या है? अगर तुम्हें बीमारी हो जाए, और तुम सिद्धांत को चाहे जितना समझ लो, फिर भी इस पर विजय न पा सको, तुम्हारा दिल अभी भी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होगा, और न सिर्फ तुम इस मामले का शांति से सामना नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम्हारा दिल भी शिकायतों से भर जाएगा। तुम निरंतर सोचते रहोगे, “किसी दूसरे व्यक्ति को यह बीमारी क्यों नहीं हुई? मुझे ही यह बीमारी क्यों पकड़ा दी गई? मेरे साथ ऐसा कैसे हो गया? यह इसलिए हुआ कि मैं दुर्भाग्यशाली हूँ, मेरा भाग्य खराब है। मैंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, न ही मैंने कोई पाप किया, तो फिर मुझे यह क्यों हुआ? परमेश्वर मुझसे बहुत अनुचित बर्ताव कर रहा है!” देखा, संताप, व्याकुलता और चिंता के अलावा तुम अवसाद में भी डूब जाते हो, एक नकारात्मक भावना के बाद दूसरी, और तुम जितना भी चाहो, इनसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। चूँकि यह एक असली बीमारी है, इसलिए इसे आसानी से तुमसे दूर नहीं किया जा सकता या ठीक नहीं किया जा सकता, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम समर्पण करना चाहते हो, मगर नहीं कर सकते, और अगर किसी दिन तुम समर्पण कर भी दो और अगले ही दिन तुम्हारी हालत बिगड़ जाए, बहुत तकलीफ हो, तब तुम और समर्पण नहीं करना चाहते हो, और फिर से शिकायत करना शुरू कर देते हो। तुम इसी तरह हमेशा आगे-पीछे होते रहते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आओ, मैं तुम्हें सफलता का रहस्य बताता हूँ। तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, “आपकी यह बात सुनकर मुझे प्रेरणा मिली है, और मेरे पास इससे भी बेहतर विचार है। न सिर्फ मैं मृत्यु से नहीं डरूँगा, मैं उसकी याचना करूँगा। क्या इससे गुजरना तब आसान नहीं हो जाएगा?” मृत्यु की याचना क्यों? मृत्यु की याचना करना एक अतिवादी विचार है, जबकि मृत्यु से न डरना उसे अपनाने का एक वाजिब रवैया है। सही है न? (सही है।) मृत्यु से न डरने का सही रवैया क्या है जो तुम्हें अपनाना चाहिए? अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? “मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।” मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है। एक पहलू है चिंता न करना, और दूसरा है मृत्यु से न डरना। एक और पहलू है यह कहकर व्याकुल न होना, “क्या मेरी मृत्यु के बाद मेरे पति (या पत्नी) दूसरी शादी कर लेंगे? मेरे बच्चे की देखभाल कौन करेगा? मेरा कर्तव्य कौन सँभालेगा? मुझे कौन याद करेगा? मेरी मृत्यु के बाद परमेश्वर मेरे अंत के बारे में क्या निर्धारित करेगा?” ये मामले ऐसे नहीं हैं कि तुम इनकी चिंता करो। मरने वाले लोगों के लिए जाने के उचित स्थान होते हैं और परमेश्वर ने व्यवस्थाएँ कर रखी हैं। जीवित रहने वाले जीते रहेंगे; किसी एक व्यक्ति के होने न होने से मानवजाति की सामान्य गतिविधि और जीवित रहने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, न ही किसी एक व्यक्ति के गायब हो जाने से कुछ भी बदल जाएगा, तो ये चीजें कुछ भी नहीं हैं कि तुम इनकी चिंता करो। अपने विभिन्न रिश्तेदारों के बारे में चिंता करना जरूरी नहीं है, और यह तो और भी जरूरी नहीं है कि तुम इस बात की चिंता करो कि तुम्हारी मृत्यु के बाद कोई तुम्हें याद करेगा या नहीं। किसी के याद करने से आखिर क्या हो जाएगा? अगर तुम पतरस जैसे थे, तो तुम्हें याद करने का कोई महत्व भी होगा; अगर तुम पौलुस जैसे थे, तो तुम लोगों पर कहर ही बरपा करोगे, तो कोई भला तुम्हें क्यों याद करना चाहेगा? चिंता का एक और विषय है जो लोगों के मन में सबसे ज्यादा वास्तविक विचार होता है। वे कहते हैं, “एक बार मैं मर गया, तो कभी भी इस संसार पर नजर नहीं डाल पाऊँगा, सांसारिक जीवन की इन सब चीजों का फिर कभी आनंद नहीं ले पाऊँगा। एक बार मैं मर गया, तो इस संसार की किसी भी चीज से मेरा कोई वास्ता नहीं रह जाएगा, और जीने की भावना चली जाएगी। मर जाने के बाद मैं कहाँ जाऊँगा?” तुम कहाँ जाओगे, तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। न ही यह ऐसी चीज है जिसके बारे में तुम्हें व्याकुल होना चाहिए। तब तुम एक जीवित व्यक्ति नहीं रहोगे, और तुम इस बात की चिंता कर रहे हो कि तुम इस भौतिक संसार के सभी लोगों, घटनाओं, चीजों, माहौल वगैरह को भाँप नहीं पाओगे। इसकी चिंता करने की तो तुम्हें और भी जरूरत नहीं है, तुम भले ही इन चीजों को जाने न दे पाओ, पर इनका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा। लेकिन जिस चीज से तुम्हें थोड़ा आराम मिल पाएगा, वह यह है कि शायद तुम्हारी मृत्यु या तुम्हारा प्रस्थान तुम्हारे अगले देहधारण की नई शुरुआत, एक बेहतर शुरुआत, एक स्वस्थ शुरुआत, पूरी तरह से अच्छी शुरुआत, तुम्हारी आत्मा के फिर से वापस लौट आने की शुरुआत हो पाएगी। जरूरी नहीं कि यह बुरी चीज हो, क्योंकि तुम शायद अलग तरह से एक अलग रूप-रंग में अस्तित्व के लिए वापस आ जाओ। यह ठीक कौन-सा आकार लेगा, यह परमेश्वर और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। इस बात पर कहा जा सकता है कि सभी को बस प्रतीक्षा करके देखना चाहिए। अगर तुम इस जीवन में मृत्यु के बाद बेहतर ढंग से एक बेहतर आकार में जीना चुनते हो, तो तुम्हारी बीमारी चाहे जितनी बदतर हो जाए, सबसे अहम बात यह है कि तुम इसका सामना कैसे करते हो, और तुम्हें कौन-से नेक कर्म करने चाहिए, तुम्हारा बेकार के संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबे रहना अहम नहीं है। जब तुम इस तरह से सोचते हो, तो क्या मृत्यु से डर, आतंक, और उसे ठुकराने का स्तर कम नहीं हो जाता? (हाँ।) अभी हमने कितने पहलुओं की बात की? एक था मृत्यु से न डरना। दूसरे कौन-से पहलू थे? (हमें चिंता नहीं करनी चाहिए कि हमारी बीमारियाँ बदतर हो जाएँगी या नहीं, और हमें अपने पति या पत्नी या बच्चों के बारे में, या अपने खुद के अंत और अपनी मंजिल वगैरह के बारे में व्याकुल नहीं होना चाहिए।) ये सब कुछ परमेश्वर के हाथ में छोड़ दो। और क्या रह गया? (मरने के बाद हम कहाँ जाएँगे इस बारे में हमें चिंता करने की जरूरत नहीं।) इन चीजों के बारे में चिंता करना बेकार है। वर्तमान में जियो, और यहाँ और अभी जो काम तुम्हें करने चाहिए, वो अच्छी तरह करो। तुम्हें नहीं मालूम कि भविष्य में क्या होगा, इसलिए तुम्हें यह सब परमेश्वर के हाथों में छोड़ देना चाहिए। और क्या बचा? (हमें भविष्य की मंजिल के लिए जल्दी से नेक कर्म करने चाहिए।) सही है, लोगों को भविष्य के लिए ज्यादा नेक काम करने चाहिए, उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य को समझे, और जिसे सत्य वास्तविकता प्राप्त हो। कुछ लोग कहते हैं, “अभी तुम मृत्यु की बात कर रहे हो, तो क्या तुम कहना चाहते हो कि भविष्य में सबको मृत्यु का सामना करना होगा? क्या यह एक बुरा शगुन है?” यह एक बुरा शगुन नहीं है, न ही यह तुम्हें कोई बचाव का टीका लगा रहा है, किसी को मृत्यु का शाप देना तो दूर की बात है—ये कथन शाप नहीं हैं। तो ये क्या हैं? (ये लोगों के लिए अभ्यास का रास्ता हैं।) सही कहा, ये वे हैं जो लोगों को अभ्यास में लाना चाहिए। ये लोगों द्वारा अपनाने की सही सोच और रवैये हैं, और ये वे सत्य हैं जो लोगों को समझने चाहिए। जो लोग किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं हैं, उन्हें भी मृत्यु का सामना करने के लिए ऐसा रवैया अपनाना चाहिए। तो कुछ लोग कहते हैं, “अगर हम मृत्यु से न डरें, तो क्या इसका अर्थ यह है कि मृत्यु हमारे पास नहीं फटकेगी?” क्या यह सत्य है? (नहीं।) तो फिर यह क्या है? (यह एक धारणा है, और उनकी कल्पना है।) यह विकृत है, यह तार्किक विवेक और शैतानी फलसफा है—यह सत्य नहीं हैं। बात यह नहीं है कि अगर तुम मृत्यु से नहीं डरते या चिंतित नहीं होते, तो मृत्यु तुम तक नहीं आएगी, और तुम नहीं मरोगे—यह सत्य नहीं है। मैं उस रवैये की बात कर रहा हूँ जो मृत्यु और बीमारी के प्रति लोगों को अपनाना चाहिए। जब तुम ऐसा रवैया अपनाते हो, तो तुम संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं को पीछे छोड़ सकते हो। तब तुम अपनी बीमारी में नहीं फँसोगे, और बीमारी का तथ्य तुम्हारी सोच और तुम्हारी जिजीविषा को नुकसान नहीं पहुँचाएगा या विचलित नहीं करेगा। लोग जिस एक निजी दिक्कत का सामना करते हैं वह है उनके भविष्य की संभावनाएँ, और दूसरी है बीमारी और मृत्यु। भविष्य की संभावनाएँ और नश्वरता लोगों के दिलों को नियंत्रण में ले सकती हैं, लेकिन अगर तुम इन दो समस्याओं का सही ढंग से सामना कर सको और अपनी नकारात्मक भावनाओं पर विजय पा सको, तो आम मुश्किलें तुम्हें हरा नहीं पाएँगी।

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