सत्य का अनुसरण कैसे करें (3) भाग एक
हमारी पिछली सभा में अपनी संगति के दौरान हम कहाँ पहुँचे थे? हम संगति कर रहे थे कि सत्य का अनुसरण कैसे करें, जो दो प्रमुख विषयों से संबंधित है, जो कि मुख्य रूप से अभ्यास के दो पहलू हैं। पहला पहलू क्या है? (पहला है त्याग देना।) और दूसरा? (दूसरा है समर्पित होना।) पहला है त्याग देना और दूसरा है समर्पित होना। “त्याग देने” के अभ्यास की बात करें, तो पहले हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने पर संगति की थी। “त्याग देने” का पहला पहलू विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने से जुड़ा हुआ है। तो जब हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में बात की, तो हमने किन चीजों का जिक्र किया? (परमेश्वर ने पहले हीनभावना, नफरत और गुस्से के बारे में, और दूसरी बार अवसाद के बारे में बताया।) पहली बार मैंने नफरत, गुस्से और हीनभावना को त्यागने की जरूरत पर बात की—मुख्य रूप से मैंने इन तीन नकारात्मक भावनाओं के बारे में बात की, और मैंने चलते-चलते अवसाद का भी जिक्र किया। दूसरी बार मैंने नकारात्मक भावनाओं में से एक अवसाद को जाने देने को अभ्यास में लाने के बारे में बात की। लोग कई-कई वजहों से अवसाद-ग्रस्त हो सकते हैं, और पिछली बार मैंने मुख्य रूप से उन अनेक तरीकों के बारे में बात की थी, जिनसे अवसाद की नकारात्मक भावना पैदा हो सकती है। बताओ, मैंने अवसाद की भावना पैदा होने के कौन-से मुख्य कारण बताए थे? (हे परमेश्वर, कुल मिलाकर तीन कारण हैं। पहला यह है कि लोगों को हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है; दूसरा यह है कि अपने साथ कुछ घट जाने पर लोग अपने दुर्भाग्य को दोष देते हैं; और तीसरा वो है जब लोगों ने पहले गंभीर अपराध किए हैं, या जब उन्होंने मूर्खतापूर्ण या अज्ञानतापूर्ण काम किए हैं, जिनसे वे अवसाद में डूब जाते हैं।) यही हैं तीन मुख्य कारण। पहला इसलिए कि लोग अपने भाग्य को बुरा मानने के कारण अक्सर अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं; दूसरा इसलिए कि स्वयं को अभागा मानने के कारण भी वे अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं; और तीसरा इसलिए है कि गंभीर अपराध करने के कारण लोग अक्सर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। यही तीन मुख्य कारण हैं। अवसाद की भावना नकारात्मकता या उदासी की क्षणिक भावना नहीं है। बल्कि यह कुछ विशेष कारणों से आदतन मन में बार-बार आने वाली नकारात्मक भावना है। इस नकारात्मक भावना के कारण लोगों के मन में बहुत-से नकारात्मक विचार, मत और दृष्टिकोण और बहुत-से अतिवादी और विकृत विचार, मत, व्यवहार और तरीके आ जाते हैं। यह कोई अस्थायी मनःस्थिति या क्षणिक विचार नहीं है; यह लोगों के मन में आदतन बार-बार आने वाली नकारात्मक भावना है, जो लोगों के अंतरतम और आत्मा की गहराई में रची-बसी होती है और उनके सोच-विचार और कार्यों में झलकती है। यह नकारात्मक भावना न सिर्फ लोगों की सामान्य मानवता के जमीर और विवेक पर असर डालती है, बल्कि दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और उनके आचरण और कार्यों में लोगों के विभिन्न दृष्टिकोणों, मतों और नजरियों को भी प्रभावित कर सकती है। इसलिए इससे पहले कि हम इन्हें जाने दें और एक-एक कर इन्हें बदलें, हमारे लिए यह जरूरी है कि विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करें, उन्हें बारीकी से देखें और पहचानें, और कोशिश कर धीरे-धीरे उन्हें पीछे छोड़ दें, ताकि हमारा जमीर और विवेक और साथ ही हमारी मानवता की सोच सामान्य और व्यावहारिक हो जाए, और ताकि हमारे दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का हमारा तरीका इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित और नियंत्रित न हो, या दबे भी नहीं—इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण कर इन्हें समझने का यही मुख्य उद्देश्य है। मुख्य उद्देश्य यह नहीं है कि तुम मेरी बात सुनो, जानो और समझो, और फिर उसे वहीं-की-वहीं छोड़ दो, बल्कि मेरे वचनों से तुम यह जानो कि नकारात्मक भावनाएँ लोगों के लिए ठीक किस तरह से हानिकारक होती हैं, यह जानो कि वे कितनी हानिकारक हैं, और लोगों के दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और उनके आचरण और व्यवहार के तरीके पर वे कितना बड़ा प्रभाव डालती हैं।
पहले हमने इस पर भी संगति की थी कि ये नकारात्मक भावनाएँ किस तरह से एक हद तक भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के स्तर तक नहीं पहुँचतीं, बल्कि किसी हद तक लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को बढ़ाने में मदद करती हैं, जो उन्हें भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर चीजें करने का आधार देता है और लोगों को इन नकारात्मक भावनाओं का सहारा लेकर अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने की ज्यादा वजह मिल जाती है, और साथ ही किसी भी व्यक्ति या चीज को इन भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर देखने की वजह भी मिल जाती है। इसलिए ये तमाम नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दैनिक जीवन को कमोबेश प्रभावित करती हैं, और एक हद तक ये लोगों के विभिन्न सोच-विचार को प्रभावित और नियंत्रित करती हैं, और सत्य और परमेश्वर के बारे में लोगों के रवैयों, परिप्रेक्ष्यों और दृष्टिकोणों को प्रभावित करती हैं। यह कहा जा सकता है कि इन नकारात्मक भावनाओं का लोगों पर कतई अच्छा असर नहीं होता, न ही कोई सकारात्मक या सहायक प्रभाव पड़ता है, बल्कि उल्टे ये लोगों को सिर्फ नुकसान पहुँचा सकती हैं। इसीलिए जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं, तो उनके दिल इनसे सहज रूप से प्रभावित और नियंत्रित हो जाते हैं, और वे नकारात्मकता की दशा में जीने से खुद को रोक नहीं पाते, और वे बेतुके दृष्टिकोणों के साथ लोगों और चीजों के बारे में भी अतिवादी मत अपना लेते हैं। जब लोग नकारात्मक भावनाओं के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से किसी व्यक्ति या चीज को देखते हैं, तो आचरण और कार्य के जो व्यवहार, दृष्टिकोण और प्रभाव वे प्रदर्शित करते हैं, उनमें स्वाभाविक रूप से अतिवादी, नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाओं की मिलावट होती है। ये नकारात्मक, अवसाद-जनक और अतिवादी भावनाएँ लोगों को परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी और उससे असंतुष्ट होने, परमेश्वर को दोष देने, अवहेलना करने और यहाँ तक कि उसका विरोध करने, और साथ ही बेशक उससे घृणा करने का कारण बनती हैं। मिसाल के तौर पर, जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसका भाग्य बुरा है, तो वह इसके लिए किसे दोष देता है? शायद वे कुछ न बोलें, मगर उन्हें अपने हृदय में लगता है कि परमेश्वर ने गलत किया है, वह अन्यायी है, और वे सोचते हैं, “परमेश्वर ने उसे इतना सुंदर क्यों बनाया? परमेश्वर ने उसे ऐसे बड़े परिवार में क्यों पैदा होने दिया? उसने उसे ऐसे गुण क्यों दिए? उसने उसे इतनी अच्छी काबिलियत क्यों दी? मेरी काबिलियत इतनी बुरी क्यों है? परमेश्वर ने उसके अगुआ बनने की व्यवस्था क्यों की? मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती, मैं एक बार भी अगुआ क्यों नहीं बन सका? उसके लिए सब-कुछ इतना आसान क्यों होता है, और मैं जो भी करता हूँ कभी भी सही या आसानी से नहीं होता? मेरा भाग्य इतना दीन-हीन क्यों है? मेरे साथ होने वाली चीजें इतनी अलग क्यों होती हैं? मेरे साथ हमेशा बुरा ही क्यों होता है?” हालाँकि अवसाद-जनक भावनाओं से पैदा हुए इन विचारों के कारण लोग अपनी व्यक्तिपरक चेतना में परमेश्वर को दोष नहीं देते, परमेश्वर या अपने भाग्य का विरोध नहीं करते, फिर भी इनके कारण लोग अपने अंतरतम में अक्सर अनायास ही अवज्ञा, असंतोष, रोष, ईर्ष्या और घृणा की भावनाओं में डूब जाते हैं। गंभीर मामलों में ये लोगों में अधिक अतिवादी विचार और व्यवहार पैदा करने का कारण भी बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर जब कुछ लोग किसी और को उनसे बेहतर प्रदर्शन करते और परमेश्वर की सराहना पाते देखते हैं, तो उनके मन में ईर्ष्या और घृणा जागती है। नतीजतन, तुच्छ कार्यों का तांता लग जाता है : वे दूसरे व्यक्ति की बुराई करते हैं और पीठ पीछे नुकसान पहुँचाते हैं, वे चोरी-छिपे कुछ संदेहास्पद और विवेकहीन कार्य करते हैं, वगैरह-वगैरह। इन मुद्दों की इस कड़ी के पैदा होने का उनके अवसाद और नकारात्मक भावनाओं से सीधा संबंध होता है। अवसाद-जनक भावनाओं से पैदा हुए विचारों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों का यह सिलसिला शुरू में बस कुछ भावनाओं जैसा लग सकता है, लेकिन जैसे-जैसे चीजें आगे बढ़ती हैं, ये नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाएँ लोगों को अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने के लिए और ज्यादा प्रोत्साहित कर सकती हैं। हालाँकि अगर लोग सत्य को समझकर सामान्य मानवता के साथ जिएँ, तो इन नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाओं के उनके भीतर सिर उठाने पर उनका जमीर और विवेक फौरन कार्रवाई कर सकता है और ये लोग इन अवसाद-जनक भावनाओं की मौजूदगी और उनकी बाधाओं को बूझ कर उन्हें समझ सकते हैं। तब वे उन अवसाद-जनक भावनाओं को बहुत तेजी से पीछे छोड़ सकते हैं, और अपनी मौजूदा स्थिति में लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर वे तर्कसंगत फैसले ले सकते हैं और जिन स्थितियों से उनका सामना हो और जिन चीजों का वे अनुभव करें, उनके बारे में सही नजरिए से तर्कसंगत ढंग से सोच-विचार कर सकते हैं। जब लोग ये तमाम चीजें तर्कसंगत ढंग से करते हैं, तो सबसे मूलभूत चीज जो वे हासिल कर पाएँगे, वह सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के शासन को स्वीकार करना है। इससे भी बेहतर, अगर वे सत्य को समझते हैं, तो वे और अधिक तर्कसंगत ढंग से अपने जमीर और विवेक के आधार पर सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकेंगे, और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के प्रभुत्व में अपना आचरण और कार्य नहीं करेंगे। हालाँकि अगर नकारात्मक भावनाएँ उनके दिलों पर हावी हो जाती हैं, उनके विचारों, मतों और उनके मामले सँभालने और आचरण करने के तरीकों पर असर डालती हैं, तो स्वाभाविक रूप से ये नकारात्मक भावनाएँ जीवन में उनकी तरक्की को प्रभावित करेंगी, और उनके विचारों, चुनावों, व्यवहार और दृष्टिकोणों को हर तरह की स्थितियों में अवरुद्ध और बाधित करेंगी। एक तरफ ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को आसान बनाती हैं, जिससे लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों में रहने में आराम और युक्तिसंगत महसूस करते हैं; दूसरी ओर वे लोगों के सकारात्मक चीजों का विरोध करने, नकारात्मकता में जीने, और प्रकाश देखने के लिए अनिच्छुक होने का भी कारण बनती हैं। इस तरह नकारात्मक भावनाएँ लोगों में और ज्यादा व्यापक और गंभीर हो जाती हैं, और ये लोगों को जमीर और विवेक की सीमाओं में तर्कसंगत तरीके से बिल्कुल कार्य नहीं करने देतीं। इसके बजाय ये लोगों को सत्य खोजने और परमेश्वर के समक्ष जीने से रोकती हैं, और इस तरह लोग सहज ही और भी ज्यादा पतित हो जाते हैं, वे न सिर्फ निराश महसूस करते हैं बल्कि परमेश्वर से बहुत दूर भी हो जाते हैं। और चीजों के इसी तरह होते रहने के क्या नतीजे होंगे? न सिर्फ नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को दूर नहीं कर सकेंगी, बल्कि वे उन्हें आसान बना देंगी, जिससे लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर मामले सँभालने लगेंगे, आचरण करने लगेंगे, और अपने ही रास्ते चलने लगेंगे। जब लोगों पर भ्रांतिपूर्ण और अतिवादी विचार और मत हावी हो जाएँगे तो वे क्या करेंगे? क्या वे कलीसिया के कार्य को बाधित करेंगे? क्या वे नकारात्मकता फैलाएंगे, परमेश्वर और परमेश्वर के घर में कार्य-व्यवस्थाओं को अपनी नजर से परखेंगे? क्या वे परमेश्वर को दोष देंगे, उसकी अवहेलना करेंगे? यकीनन वे ऐसा करेंगे! यही हैं अंतिम परिणाम। लोगों में अवज्ञा, असंतोष, नकारात्मकता और विरोध जैसे दृष्टिकोणों का सिलसिला उभरेगा—ये सब लोगों के दिलों पर नकारात्मक भावनाओं के लंबे समय तक हावी होने के परिणाम हैं। जरा गौर करो, एक हल्की-सी नकारात्मक भावना—ऐसी भावना जिसे शायद लोग महसूस भी न कर सकें, लोगों को जिसके होने का भान भी न हो, उन पर उसका जो असर हो रहा है, वह महसूस भी न हो—यह हल्की-सी नकारात्मक भावना अभी भी उनका पीछा करती रहती है मानो उनके पैदा होने के समय से यह उनके साथ हो। यह लोगों को हर आकार-प्रकार के नुकसान पहुँचाती है, और यह उन्हें निरंतर लपेटे में ले रही है, डरा रही है, दबा रही है और बाँध रही है, इस हद तक कि यह हरदम उनके साथ रहती है, जैसे कि तुम्हारा जीवन साथ होता है मगर तुम उससे पूरी तरह बेखबर रहते हो, अक्सर उसके भीतर जीते हो, उसे हल्के मे लेते हो, और ऐसी बातें सोचते हो, “लोगों को इसी तरह सोचना चाहिए, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यह बहुत सामान्य है। ऐसे कुछ सक्रिय विचार किसके मन में नहीं होते? किसके मन में नकारात्मक भावनाएँ नहीं होतीं?” तुम्हें इसका अंदाजा भी नहीं हो पाता कि यह नकारात्मक भावना तुम्हें कितना नुकसान पहुँचा रही है, लेकिन नुकसान बिल्कुल असली होता है, और यह अक्सर अनायास तुम्हें उकसाएगी कि सहज रूप से अपना भ्रष्ट स्वभाव सामने ले आओ, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर आचरण और कार्य करो, जब तक आखिर सब-कुछ अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर ही न करने लगो। तुम कल्पना कर सकते हो कि इसके अंतिम परिणाम क्या हैं : सारे परिणाम नकारात्मक और प्रतिकूल हैं, कुछ भी फायदेमंद या सकारात्मक नहीं, सत्य और परमेश्वर की सराहना पाने में लोगों की मदद कर पाने वाली किसी चीज का होना तो बहुत दूर की बात है—ये आशावादी परिणाम नहीं हैं। इसलिए अगर किसी व्यक्ति में नकारात्मक भावनाएँ मौजूद होती हैं, तो तरह-तरह के नकारात्मक विचार और मत उसके जीवन पर गंभीर प्रभाव डालकर हावी हो जाएँगे। जब तक नकारात्मक विचार और मत उनके जीवन पर हावी रहते हैं, तो सत्य का अनुसरण करने, सत्य का अभ्यास करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से उन्हें रोकने वाली बहुत बड़ी रुकावटें आएँगी। इसलिए यह जरूरी है कि हम लगातार इन नकारात्मक भावनाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करते रहें, ताकि ये सारी-की-सारी दूर की जा सकें।
जिन नकारात्मक भावनाओं पर हमने अभी संगति की है, उनका लोगों पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ता है और ये उन्हें गंभीर नुकसान पहुँचाती हैं, लेकिन दूसरी नकारात्मक भावनाएँ भी हैं, जो इसी तरह लोगों पर असर डालकर नुकसान पहुँचाती हैं। नफरत, गुस्सा, हीनभावना और अवसाद की नकारात्मक भावनाओं के अलावा, जिनके बारे में हम बात कर चुके हैं, संताप, व्याकुलता, और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ भी होती हैं। ये भावनाएँ भी उसी तरह लोगों के अंतरतम में गहरे पैठी होती हैं, और लोगों के दैनिक जीवन, उनकी कथनी और करनी में साथ-साथ चलती हैं। बेशक जब लोगों के साथ कुछ होता है, तो वे उनके भीतर पैदा होने वाले विचार और मत भी प्रभावित करती हैं, और साथ ही उनके दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य भी। आज हम संताप, व्याकुलता, और चिंता की नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण कर उन्हें उजागर करेंगे, और इन्हें अपने भीतर ढूँढ़ने में लोगों की मदद करने की कोशिश करेंगे। जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं को अपने भीतर ढूँढ़ लेंगे, तो उनका अंतिम लक्ष्य होगा इन नकारात्मक भावनाओं को अच्छी तरह जानना, उनकी सफाई करना, उनके प्रभाव में और न जीना, इन नकारात्मक भावनाओं को अपना आधार और बुनियाद बनाकर और नहीं जीना और आचरण नहीं करना। आओ पहले “संताप, व्याकुलता और चिंता” शब्दों पर गौर करें। क्या ये भावनाओं को व्यक्त करने के तरीके नहीं हैं? (जरूर हैं।) इस विषय पर संगति करने से पहले आओ पहले इस बारे में विचार करें, ताकि तुम जान सको कि “संताप, व्याकुलता और चिंता” की सबसे आधारभूत संकल्पना क्या है। चाहे तुम इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ समझो या शाब्दिक अर्थ से परे उनकी गहरी समझ हासिल करो, तुम्हें तब इन नकारात्मक भावनाओं का आधारभूत ज्ञान हो जाएगा। अव्वल तो मुझे यह बताओ कि अतीत में तुम लोग किस वजह से चिंता करते थे, या किन चीजों को लेकर तुम हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता महसूस करते हो। वे ऐसी हो सकती हैं, जैसे तुम किसी बड़ी चट्टान के नीचे पिस रहे हो, या कोई साया हमेशा तुम्हारा पीछा कर रहा है, तुम्हें बाँध रहा है। (हे परमेश्वर, मैं कुछ बोलूँगा। जब मुझे अपने कर्तव्य के कोई नतीजे नहीं मिलते, तो यह भावना बहुत हावी होती है और मुझे फिक्र हो जाती है कि क्या मुझे उजागर कर हटा दिया जाएगा, क्या मेरा भविष्य अच्छा होगा, मेरी मंजिल अच्छी होगी। जब मुझे अपने कर्तव्य में नतीजे मिलते हैं, तो ऐसा महसूस नहीं होता, लेकिन जब कभी मुझे कुछ समय तक इसमें नतीजे नहीं मिलते, तब इस प्रकार की नकारात्मक भावना अत्यंत स्पष्ट हो जाती है।) क्या यह संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) सही है। इस किस्म की नकारात्मक भावना लोगों के अंतरतम में हरदम छुपी रहती है, निरंतर उनके विचारों को प्रभावित करती है। हालाँकि कुछ बुरा न होने पर लोगों को इस किस्म की नकारात्मक भावना का भान नहीं होता, यह एक गंध की तरह, या एक किस्म की गैस की तरह होती है, या उससे भी बढ़कर बिजली की तरंग जैसी होती है। तुम इसे देख नहीं सकते, और जब तुम इससे अनजान होते हो, तो तुम इसे महसूस भी नहीं कर सकते। हालाँकि तुम अपने अंतरतम में हमेशा इसकी मौजूदगी को महसूस कर सकते हो, तथाकथित छठी इंद्रिय की तरह, और तुम्हें हमेशा अवचेतन में ऐसी सोच और भावना के मौजूद होने का एहसास हो सकता है। सही समय, सही जगह और सही संदर्भ में, इस किस्म की नकारात्मक भावना थोड़ा-थोड़ा करके सिर उठाएगी, थोड़ा-थोड़ा करके उभरेगी। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) तो कौन-सी दूसरी चीजें हैं जिनसे तुम लोग संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हो? जिन चीजों का अभी जिक्र हुआ क्या उनके सिवाय और कुछ नहीं है? अगर ऐसा है तो तुम लोग काफी खुशी से जी रहे होते, किसी भी चीज को लेकर बिना चिंता, बिना किसी व्याकुलता, बिना संतप्त हुए—फिर तुम सचमुच एक स्वतंत्र व्यक्ति होते। क्या ऐसा ही है? (नहीं।) तो फिर मुझे बताओ, तुम लोगों के दिलों में क्या है? (जब मैं अपने कर्तव्य को अच्छी तरह नहीं निभा पाता, तो मुझे हमेशा चिंता होती है कि कहीं अपनी शोहरत और रुतबा न खो दूँ, भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे, मेरे अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। साथ ही, भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाते समय जब मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाता रहता हूँ, तो मुझे हमेशा फिक्र होती है कि परमेश्वर में इतने लंबे समय तक विश्वास रखने के बावजूद मैं बिल्कुल नहीं बदला, और ऐसा ही चलता रहा तो शायद किसी दिन मुझे हटा दिया जाएगा। मेरे मन में ये आशंकाएँ रहती हैं।) इन आशंकाओं के होने पर क्या तुम्हारे मन में संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं? (जरूर होती हैं।) तो तुममें से ज्यादातर लोग इसलिए व्याकुल और चिंतित हो, क्योंकि तुम अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा रहे हो, ठीक कहा? (मैं ज्यादातर अपने भविष्य और अपने भाग्य को लेकर चिंतित हूँ।) अपने भविष्य और भाग्य को लेकर चिंता करना प्रमुख है। जब लोग परमेश्वर द्वारा आयोजित माहौल और उसकी संप्रभुता को स्पष्ट रूप से देख, समझ और स्वीकार कर उसके आगे समर्पण नहीं कर पाते, और जब लोग अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करते हैं, या जब ये मुश्किलें सामान्य लोगों के बरदाश्त के बाहर हो जाती हैं, तो अवचेतन रूप में उन्हें हर तरह की चिंता और व्याकुलता होती है, और यहाँ तक कि संताप भी हो जाता है। वे नहीं जानते कि कल या परसों कैसा होगा, या कुछ साल बाद चीजें कैसी होंगी, या उनका भविष्य कैसा होगा, और इसलिए वे हर चीज के बारे में संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा कौन-सा संदर्भ होता है जिसमें लोग हर चीज को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं? होता यह है कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं रखते—यानी वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसे समझ नहीं पाते। अपनी आँखों से देखने पर भी वे उसे नहीं समझ सकते, या उस पर यकीन नहीं कर सकते। वे नहीं मानते कि उनके भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वे नहीं मानते कि उनके जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं, और इसलिए उनके दिलों में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है, और फिर दोषारोपण होता है, और वे समर्पण नहीं कर पाते। दोष मढ़ने और समर्पित न हो पाने के अलावा वे अपने भाग्य का मालिक बनना चाहते हैं, और अपनी ही पहल पर कार्य करना चाहते हैं। जब वे अपनी पहल पर कार्य शुरू कर देते हैं तो फिर असली स्थिति क्या होती है? बस वे अपनी काबिलियत और योग्यता पर भरोसा कर जीने लगते हैं, लेकिन ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वे हासिल नहीं कर पाते, या वहाँ पहुँच नहीं पाते, या अपनी काबिलियत और योग्यताओं से पूरी नहीं कर पाते। मिसाल के तौर पर : भविष्य में उनका क्या होगा, क्या वे कॉलेज में दाखिल हो सकेंगे, कॉलेज पूरा करने पर क्या उन्हें अच्छी नौकरी मिल सकेगी, और नौकरी मिल जाने पर उनके लिए क्या सब-कुछ अच्छा होगा; अगर वे तरक्की पाना चाहें, अमीर होना चाहें, तो क्या वे कुछ ही वर्षों में अपने आदर्श और आकांक्षाएँ हासिल कर पाएँगे; और जब वे एक जीवनसाथी ढूँढ़ना चाहें, शादी कर घर-परिवार बसाना चाहें, तो उनके लिए कैसा जीवनसाथी ठीक रहेगा? मनुष्य के लिए ऐसी चीजें अज्ञात होती हैं। ऐसी अज्ञात चीजों के साथ लोग खोया हुआ महसूस करते हैं। जब लोग खोया हुआ महसूस करते हैं, तो वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हैं—भविष्य की हर चीज को लेकर वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सामान्य मानवता के दायरे में लोग ये सभी चीजें बरदाश्त नहीं कर सकते। कोई नहीं जानता कि कुछ वर्षों में वे कैसे रहेंगे, भविष्य में उनकी नौकरी, शादी या बच्चे कैसे होंगे—लोग ये चीजें जानते ही नहीं। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता की क्षमता के दायरे में पहले से जाना नहीं जा सकता, और इसीलिए इनको लेकर लोग हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। किसी व्यक्ति का मन चाहे जितना सरल हो, जब तक उसमें सोचने की ताकत है, वयस्क होने पर एक-एक कर के ये नकारात्मक भावनाएँ उसके अंतरतम में सिर उठाएँगी। संताप, व्याकुलता और चिंता लोगों के मन में क्यों पैदा होती हैं? इसलिए कि लोग हमेशा अपनी योग्यता के दायरे के बाहर की चीजों को लेकर खीझते और परेशान होते रहते हैं; वे हमेशा अपनी योग्यता से बाहर की चीजों को जानना, समझना और हासिल कर लेना चाहते हैं, यहाँ तक कि सामान्य मानवता की योग्यताओं के दायरे से परे की चीजों को नियंत्रित करना चाहते हैं। वे इन सब पर नियंत्रण करना चाहते हैं, और यही नहीं—वे इन चीजों के विकास की विधियों और परिणामों को भी अपनी ही इच्छा के अनुसार आगे बढ़ाना और पूरा करना चाहते हैं। इसलिए ऐसी विवेकहीन सोच के हावी हो जाने से लोग संताप, व्याकुलता और चिंता महसूस करते हैं, और इन भावनाओं के नतीजे हर व्यक्ति के लिए अलग होते हैं। लोग चाहे जिन चीजों को लेकर तीव्र रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हों, और इस तरह ऐसी नकारात्मक भावनाएँ तैयार कर लेते हों, उन्हें इन चीजों को गंभीरता से लेना चाहिए और इन्हें दूर करने के लिए सत्य को खोजना चाहिए।
हम संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं पर मुख्य रूप से दो पहलुओं की दृष्टि से संगति करेंगे : पहला, वे क्या हैं यह देखने के लिए लोगों की मुश्किलों का विश्लेषण करना होगा, और वहाँ से यह देखना होगा कि संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के सटीक कारण कौन-से हैं, और वे ठीक कैसे पैदा होती हैं; दूसरा होगा परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के विभिन्न रवैयों के संबंध में संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करना। क्या तुम समझे? (हाँ।) कितने पहलू हैं? (दो।) हमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के कारणों का विश्लेषण करना है, पहले लोगों की मुश्किलों से और दूसरे परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के रवैये से। मेरे लिए इसे दोहराओ। (हमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के कारणों का विश्लेषण करना है, पहले लोगों की मुश्किलों से और दूसरे परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के रवैये से।) लोगों को कई मुश्किलें हो सकती हैं, जो सारी-की-सारी उनके दैनिक जीवन में होती हैं, वे मुश्किलें जो सामान्य मानवता का जीवन जीने के दायरे में अक्सर आती हैं। और ये मुश्किलें किस तरह आती हैं? ये इसलिए आती हैं क्योंकि लोग हमेशा चादर से बाहर पैर फैलाने की कोशिश करते हैं, हमेशा अपने भाग्य को नियंत्रित करने, समय से पहले अपना भविष्य जानने की कोशिश करते हैं। अगर उनका भविष्य अच्छा नहीं दिखाई देता, तो कोई उपाय कर उसे सुधारने के लिए वे तुरंत किसी फेंग शुई विशेषज्ञ या भविष्यवक्ता की तलाश में लग जाते हैं। इसीलिए लोगों का अपने दैनिक जीवन में इतनी सारी मुश्किलों से सामना होता है, और इन्हीं मुश्किलों के कारण लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। ये मुश्किलें क्या हैं? आओ पहले गौर करें कि लोग किसे अपनी सबसे बड़ी मुश्किल मानते हैं—वह क्या है? वह है उनकी भविष्य की संभावना, यानी इस जीवनकाल में किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, भविष्य में वे अमीर होंगे या साधारण, क्या वे सबसे अलग दिख पाएँगे, बड़ी सफलता हासिल कर पाएँगे, और दुनिया में और लोगों के बीच समृद्ध हो सकेंगे। खास तौर पर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग शायद यह न जानें कि दूसरों का भविष्य में क्या होगा, लेकिन वे अपने भविष्य की हमेशा चिंता करते हैं और सोचते हैं, “क्या परमेश्वर में आस्था का अर्थ बस इतना ही है? क्या मुझे भविष्य में कभी भीड़ से अलग दिखने का मौका मिल पाएगा? क्या मैं परमेश्वर के घर में कोई अहम भूमिका निभा पाऊँगा? क्या मैं टीम अगुआ या कोई प्रभारी बन पाऊँगा? क्या मैं अगुआ बन पाऊँगा? मेरा क्या होने वाला है? अगर मैं परमेश्वर के घर में इसी तरह अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो अंत में मेरा क्या होगा? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर पाऊँगा? क्या मेरे लिए भविष्य की कोई संभावना है? क्या मुझे अभी भी संसार में अपना काम करते रहना चाहिए? क्या मुझे उस व्यावसायिक कौशल की पढ़ाई जारी रखनी चाहिए जो मैं पहले सीख रहा था, या इसे आगे की शिक्षा में ले जाना चाहिए? अगर मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य पूरे समय निभाता रह सकता हूँ, तो जीवन की बुनियादी जरूरतों को लेकर मुझे कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाता, और मेरा तबादला कर किसी और काम में लगा दिया जाता है, तो फिर मैं कैसे जी पाऊँगा? क्या बदले जाने या हटा दिए जाने से पहले ही मुझे इस मौके को उस संभावना की तैयारी में नहीं लगाना चाहिए?” वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं और देखते हैं कि उन्होंने थोड़ी-बहुत बचत कर रखी है और वे सोचते हैं, “मैंने जो कुछ बचाया है उससे कितने साल गुजारा कर पाऊँगा? मैं अभी तीस की दहाई में हूँ, दस साल में मैं चालीस पार कर लूँगा। अगर मुझे कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया, तो संसार में लौटने पर क्या मैं उस स्थिति के साथ चल पाऊँगा? क्या काम करते रहने के लिए मेरी सेहत ठीक रहेगी? क्या इतना कमा पाऊँगा कि गुजारा कर सकूँ? क्या मेरे लिए जीना मुश्किल होगा? मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाता हूँ, मगर क्या परमेश्वर मुझे अंत तक वहाँ रखेगा?” हालाँकि वे हर पल इन चीजों के बारे में सोचते हैं, मगर उन्हें कभी जवाब नहीं मिलते। हालाँकि कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता, मगर वे इन चीजों के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते—यह उनके नियंत्रण के बाहर होता है। जब किसी मुश्किल या रुकावट से उनका सामना होता है, या कोई चीज उनके मन मुताबिक नहीं होती, तो वे किसी को बताए बिना इन चीजों के बारे में अपने अंतरतम में विचार करते रहते हैं। जब कुछ लोगों की काट-छाँट होती है, जब उनके कर्तव्य बदल दिए जाते हैं, जब उन्हें दूसरे कर्तव्यों में लगा दिया जाता है, या जब वे किसी-न-किसी संकट में फँस जाते हैं, तो वे अनजाने ही पीछे हटने का रास्ता ढूँढ़ते हैं, और अपने अगले कदम के लिए योजनाएँ और उपाय तैयार किए बिना नहीं रह पाते। अंत में चाहे जो भी हो, लोग फिर भी अक्सर उन चीजों के बारे में योजनाएँ और उपाय बनाते हैं जिनको लेकर वे चिंतित, व्याकुल और संतप्त होते हैं। क्या ये चीजें वो नहीं हैं जिनके बारे में लोग अपनी भविष्य की संभावनाओं के लिए सोचते हैं? क्या ये नकारात्मक भावनाएँ इसलिए पैदा नहीं होतीं क्योंकि लोग अपनी भविष्य की संभावनाओं को जाने देने में असमर्थ होते हैं? (हाँ, इसीलिए होती हैं।) जब लोग खास तौर पर जोशीला महसूस कर रहे हों, जब उनके कर्तव्य निर्वहन में सब कुछ आसानी से हो रहा हो, और खास तौर पर जब उन्हें तरक्की मिले, उन्हें किसी अहम काम में लगाया जाए, जब उन्हें ज्यादातर भाई-बहनों का साथ मिले, और जब उनका अपना मूल्य परिलक्षित हो, तो वे इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में नहीं सोचते। जैसे ही उनकी शोहरत, रुतबा और हितों को खतरा पैदा होता है, वैसे ही वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में लौटे बिना नहीं रह पाते। इन नकारात्मक भावनाओं में वापस लौटने पर वे इन नकारात्मक भावनाओं को जिस नजरिए से देखते हैं, वह उनसे दूर भागने या उन्हें ठुकराने का नहीं होता, बल्कि उनका पोषण कर संताप, व्याकुलता और चिंता की इन भावनाओं में डूब जाने, और उनमें गहराई तक जाने के लिए कड़ी मेहनत करने का प्रयास करना होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, तो उनके पास ज्यादा वजहें, या कहें कि बहाने होते हैं और वे बिना रोक-टोक ज्यादा आसानी से अपने भविष्य और अगले कदमों के लिए योजनाएँ बना सकते हैं। ये योजनाएँ बनाते समय वे सोचते हैं कि ऐसा ही होना चाहिए, उन्हें यही करना चाहिए, और वे इस कहावत का प्रयोग करते हैं, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” और एक दूसरी कहावत, “जो भविष्य की योजना नहीं बनाता, मुसीबतें उसके सामने ही खड़ी होंगी,” यानी अगर तुम पहले ही अपने भविष्य और अपने भाग्य का विचार कर योजनाएँ नहीं बनाते, तो किसी और को इस बारे में तुम्हारे लिए चिंता नहीं होगी, और तुम्हारे लिए कोई भी इनकी परवाह नहीं करेगा। जब तुम्हें जरा भी अंदाजा न हो कि अगला कदम कैसे उठाएँ, तो तुम अटपटापन, पीड़ा और शर्मिंदगी का सामना करोगे, और कष्ट और मुश्किलें सहने वाले तुम अकेले होगे। तो लोगों को लगता है कि वे बहुत चतुर हैं, और अपने हर कदम पर उनकी नजर आगे के दस कदमों पर होगी। किसी मुश्किल या निराशा का सामना होते ही वे तुरंत संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में लौट जाते हैं, ताकि खुद की रक्षा कर सकें, अपने भविष्य और जीवन के अगले कदम को पक्का और आसान बना सकें, खाने के लिए रोटी और पहनने के लिए कपड़े संजो सकें, सड़कों-गलियों में भटकते न रहें, और उन्हें कभी भी रोटी-कपड़े की कमी महसूस न हो। इसलिए इन नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में वे यह सोचकर अक्सर खुद को चेतावनी देते हैं, “मुझे पहले ही योजनाएँ बना लेनी चाहिए, कुछ चीजें थाम लेनी चाहिए, और अपने लिए पीछे हटने को पर्याप्त राह बना कर रखनी चाहिए। मुझे बेवकूफ नहीं होना चाहिए—मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में है। लोग अक्सर कहते हैं, ‘हमारा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, और मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है,’ लेकिन ये बस खोखली मीठी बातें हैं। इसे वास्तव में किसने देखा है? परमेश्वर हमारे भाग्य पर संप्रभुता कैसे रखता है? किसी ने परमेश्वर को किसी के लिए भी वास्तव में दिन में तीन बार भोजन की व्यवस्था करते, या जीवन में उनकी जरूरत की तमाम चीजों की व्यवस्था करते देखा है? किसी ने नहीं।” लोग मानते हैं कि जब वे परमेश्वर की संप्रभुता नहीं देख पाते, और अगर वे अपने भविष्य की संभावनाओं को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं, तो ये नकारात्मक भावनाएँ उनके लिए रक्षा की तरह हैं, एक रक्षा कवच, एक सुरक्षित शरण-स्थल की तरह हैं। वे भविष्य की योजनाएँ बनाने के लिए खुद को निरंतर चेताते और याद दिलाते रहते हैं कि उन्हें कल की चिंता करनी चाहिए, उन्हें सारा दिन भरपेट खाकर निठल्ले नहीं पड़े रहना चाहिए; अपने लिए योजनाएँ बनाना, अपने लिए बाहर निकलने का रास्ता खोजना और अपने भविष्य के लिए दिन-रात एक करना गलत नहीं है। वे खुद से कहते हैं कि यह सहज और पूरी तरह न्यायसंगत है, और इसको लेकर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। तो भले ही लोग मानते हों कि संताप, व्याकुलता और चिंता, नकारात्मक भावनाएँ हैं, फिर भी वे कभी नहीं सोचते कि उनका अनुभव करना बुरी बात है, वे कभी नहीं सोचते कि ये नकारात्मक भावनाएँ उन्हें किसी भी तरह से नुकसान पहुँचा सकती हैं, या ये सत्य के अनुसरण और सत्य वास्तविकता में प्रवेश की राह का रोड़ा बन सकती हैं। इसके बजाय वे बिना थके इनके मजे लेते हैं, और स्वेच्छा से बिना थके इन नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं। ऐसा इसलिए कि वे मानते हैं कि केवल इन नकारात्मक भावनाओं में जीकर और भविष्य की संभावनाओं को लेकर निरंतर संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करते हुए ही वे सुरक्षित रह सकते हैं। वरना उनके भविष्य को लेकर और कौन संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेगा? कोई भी नहीं। कोई भी उनसे इतना प्रेम नहीं करता, जितना वे स्वयं से करते हैं, उन्हें स्वयं जितना और कोई नहीं समझता, और स्वयं जितना कोई और नहीं जानता। इसलिए भले ही लोग कुछ हद तक और शाब्दिक, सैद्धांतिक स्तर पर यह पहचान सकें कि ऐसी नकारात्मक भावनाओं का होना उनके लिए हानिकारक है, फिर भी वे ऐसी नकारात्मक भावनाओं को छोड़ने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि ये नकारात्मक भावनाएँ उन्हें अपने भविष्य को समझकर उसे नियंत्रित करने की पहल पर दृढ़ता से पकड़ बनाए रखने देती हैं। क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) इसलिए लोगों के लिए अपने भविष्य को लेकर चिंता करना, व्याकुल रहना और संताप महसूस करना एक जबरदस्त जिम्मेदारी का मामला है। यह शर्मनाक, दयनीय या घिनौना नहीं है, बल्कि उनके लिए यह बस वैसा ही है जैसे होना चाहिए। इसीलिए लोगों के लिए इन नकारात्मक भावनाओं को जाने देना बहुत मुश्किल है, मानो ये जन्म से उनके साथ रही हों। जन्म के बाद से लोग जो कुछ भी सोचते हैं, वह अपने ही लिए होता है, और उनके लिए सबसे अहम बात उनके अपने भविष्य की संभावनाएँ हैं। वे सोचते हैं कि अगर अपने भविष्य पर उनकी पकड़ अच्छी हो और वे उस पर नजर रखें, तो फिर वे चिंताहीन जीवन जी सकेंगे। वे सोचते हैं कि भविष्य की अच्छी संभावनाओं के साथ उनकी चाही हर चीज उनके पास होगी और सब-कुछ बहुत आसान होगा। इसलिए अपने भविष्य को लेकर बार-बार संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने से लोग कभी नहीं उकताते। भले ही परमेश्वर ने वचन दिया हो, भले ही लोगों ने परमेश्वर का अत्यधिक अनुग्रह पाकर आनंद उठाया हो, भले ही उन्होंने परमेश्वर को मानव जाति को हर प्रकार के आशीष देते देखा हो और ऐसे ही दूसरे तथ्य देखे हों, फिर भी लोग संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीना चाहते हैं, और अपने भविष्य की योजनाएँ और खाके तैयार करना चाहते हैं।
भविष्य की संभावनाओं के अलावा कुछ और भी बात महत्वपूर्ण है जिसको लेकर लोग अक्सर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं, और वह है शादी। कुछ लोग इस बारे में चिंता नहीं करते और तीस की दहाई वाली उम्र में भी शादी न होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि आजकल ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने तीस की दहाई में भी शादी नहीं की है। समाज में अक्सर ऐसा देखने में आता है, और इसको लेकर कोई किसी की हँसी नहीं उड़ाता, कोई नहीं कहता कि उनमें कुछ खोट है। हालाँकि अगर कोई व्यक्ति चालीस में पहुँचने पर भी शादी नहीं करता, तो उसके भीतर हल्का-सा डर पैदा होने लगता है, और वे सोचते हैं, “मुझे जीवन साथी तलाशना चाहिए या नहीं? मुझे शादी करनी चाहिए या नहीं? अगर मैंने शादी नहीं की, अपना घर नहीं बसाया, मेरे बाल-बच्चे न हुए, तो बूढ़ा होने पर मेरी देखभाल कौन करेगा? बीमार होने पर मेरी देखभाल कौन करेगा? मेरे मरने पर मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?” लोग इन चीजों की चिंता करते हैं। जो लोग शादी करने की योजना ही नहीं बनाते, वे उतने संतप्त, व्याकुल और चिंतित नहीं होते। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं, “अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, और मैं खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहता हूँ। मैं कोई जीवनसाथी नहीं ढूँढ़ूँगा, शादी नहीं करूँगा। मैं चाहे जितना बूढ़ा हो जाऊँ, इन चीजों को लेकर संतप्त नहीं रहूँगा।” अविवाहित लोग, जो लोग दस-बीस साल से अविवाहित हैं, जो बीस की उम्र से लेकर चालीस तक अविवाहित हैं, उन्हें कोई बड़ी चिंता नहीं होनी चाहिए। हालाँकि कभी-कभार परिवेश या वस्तुपरक कारणों से उन्हें थोड़ी चिंता और संताप महसूस हो सकता है, मगर परमेश्वर में आस्था और अपने कर्तव्य-निर्वहन में व्यस्त रहने और उनके मौजूदा संकल्प के न बदलने की वजह से उनको होने वाली चिंता अस्पष्ट-सी होती है, और यदा-कदा ही आती है और यह कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकार की भावना जो सामान्य कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित नहीं करती लोगों के लिए हानिकारक नहीं है, न ही इसे नकारात्मक भावना कहा जा सकता है, यानी तुम्हारे लिए यह नकारात्मक भावना में तब्दील नहीं हुई है। जो लोग पहले ही शादीशुदा हैं, वे किस तरह की चीजों की चिंता करते हैं? अगर पति-पत्नी दोनों परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो फिर क्या यह शादी कायम रहेगी? क्या परिवार का अस्तित्व होता है? बाल-बच्चों का क्या? इसके अलावा दोनों में से एक सत्य का अनुसरण करे और दूसरा न करे, और अगर सत्य का अनुसरण न करने वाला हमेशा सांसारिक चीजों और आलीशान जीवन के पीछे भागे, और सत्य का अनुसरण करने वाला हमेशा अपना कर्तव्य निभाना चाहे, अगर सत्य का अनुसरण न करने वाला हमेशा अपने साथी को रोकने की कोशिश करे, मगर ऐसा करते हुए शर्मिंदा महसूस करे, कभी-कभार थोड़ी शिकायत करे या अपने साथी को हतोत्साहित करने के लिए नकारात्मक बातें करे, तो फिर सत्य का अनुसरण करने वाला सोचेगा, “अरे, मेरे पति सच में परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो हम लोगों का भविष्य में कैसे चलेगा? अगर हमारा तलाक हो गया, तो मैं अकेली हो जाऊँगी और गुजारा नहीं कर पाऊँगी। अगर मैं उनके साथ रही, तो हम दोनों एक मार्ग पर नहीं चलेंगे, हम दोनों के सपने अलग होंगे, तब मैं क्या करूँगी?” वे इन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हैं। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद कुछ बहनें सोचती हैं कि हालाँकि उनके पति परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे परमेश्वर में उनकी आस्था की राह में रोड़ा बनने की ज्यादा कोशिश नहीं करते, और उन्हें सताया नहीं जा रहा है, तो तलाक लेने की कोई वजह नहीं है। हालाँकि अगर वे साथ रहते हैं, तो हमेशा प्रतिबंधित और प्रभावित महसूस करती हैं। वे किस चीज से प्रभावित होती हैं? उनका अपना स्नेह उन्हें प्रतिबंधित और प्रभावित करता है, और पारिवारिक जीवन और शादी की विभिन्न मुश्किलें, उनके दिलों की गहराई में हलचल पैदा करती हैं, जिससे वे कुछ ऐसे संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करती हैं जो न बड़ी होती है न छोटी। ऐसे हालात में शादी एक औपचारिकता होती है जो सामान्य पारिवारिक जीवन बनाए रखती है, और कुछ ऐसी होती है जिससे पत्नियों की सामान्य सोच, उनका सामान्य जीवन, और यहाँ तक कि उनका सामान्य कर्तव्य-निर्वहन भी बंध जाता है—शादी कायम रखना मुश्किल हो जाता है, मगर वे खुद को उससे बाहर नहीं निकाल पातीं। ऐसी शादी को कायम रखने की कोई खास वजह नहीं होती, न ही तलाक लेने की कोई खास वजह होती है; इनमें से कुछ भी करने का कोई पर्याप्त कारण नहीं होता। वे नहीं जानतीं कि कौन-सा विकल्प चुनना सही है, और वे नहीं जानतीं कि क्या करना गलत है। इसलिए उनमें संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है। संताप, व्याकुलता और चिंता की ये भावनाएँ उनके मन में निरंतर तैरती-उतराती हैं, उनके दैनिक जीवन में उन्हें बांधे रखती हैं, और उनके सामान्य जीवन को भी प्रभावित करती हैं। अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान ये चीजें उनके मन में हमेशा उभरती रहती हैं, और उनके अंतरतम में उठती रहती हैं, जिससे उनका सामान्य कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित होता है। हालाँकि उन पत्नियों को क्या करना चाहिए या उन्हें कौन-सा विकल्प चुनना चाहिए, इस बारे में ये कोई स्पष्ट वचन नहीं लगते, मगर इन बातों से वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में गहराई तक डूब जाती हैं, जिससे वे दबी हुई और फँसी हुई महसूस करती हैं। क्या यह एक अलग किस्म की मुश्किल नहीं है? (जरूर है।) यह एक अलग किस्म की मुश्किल है, ऐसी मुश्किल जो शादी के कारण होती है।
ऐसे भी लोग हैं जो चूँकि परमेश्वर में आस्था रखते हैं, कलीसिया का जीवन जीते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनके पास अपने गैर-विश्वासी बच्चों, अपनी पत्नियों (या पतियों), अपने माता-पिता या दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ सामान्य रूप से जुड़ने का समय ही नहीं होगा। खास तौर से वे अपने गैर-विश्वासी बच्चों की ठीक से देखभाल करने या अपने बच्चों की अपेक्षा का कोई भी काम करने में असमर्थ होंगे, और इसलिए वे अपने बच्चों के भविष्य और संभावनाओं को लेकर चिंता करते हैं। खास तौर से बच्चों के बड़े हो जाने के बाद कुछ लोग खीझना शुरू कर देंगे : मेरा बच्चा कॉलेज जाएगा या नहीं? कॉलेज गया तो कौन-सा मुख्य विषय लेगा? मेरा बच्चा परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता और कॉलेज जाना चाहता है, तो मुझ जैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को क्या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाना चाहिए? क्या मुझे उसकी दैनिक जरूरतों का ख्याल रखना चाहिए, और पढ़ाई-लिखाई में उसका साथ देना चाहिए? और फिर उसकी शादी, नौकरी, परिवार और उसके अपने बच्चों की बात आने पर, मुझे कैसी भूमिका निभानी चाहिए? मुझे कौन-सी चीजें करनी चाहिए और कौन-सी नहीं? उन्हें इन चीजों का कोई अंदाजा नहीं होता। जैसे ही ऐसी कोई चीज सामने आती है, जैसे ही वे खुद को ऐसी स्थिति में पाते हैं, वे समझ नहीं पाते कि क्या करना है, न ही वे जान पाते हैं कि ऐसी चीजों को कैसे सँभालें। समय गुजरने के साथ इन चीजों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है : अगर वे अपने बच्चे के लिए ये काम करते हैं, तो वे डरते हैं कि कहीं यह परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध न हो, परमेश्वर को नाखुश न कर दे, और अगर वे ये काम नहीं करते, तो डरते हैं कि वे माता-पिता वाली जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं, जिसके लिए उनका बच्चा और दूसरे पारिवारिक सदस्य उन्हें दोष देंगे; अगर वे ये चीजें करते हैं, तो डरते हैं कि गवाही खो देंगे, और अगर नहीं करते, तो डरते हैं कि कहीं सांसारिक लोग उनका मजाक न उड़ाएँ, उनके पड़ोसी उन पर न हँसें, ताने न कसें, और उनकी आलोचना न करें; वे डरते हैं कि कहीं वे परमेश्वर का अपमान न कर दें, मगर वे अपनी बदनामी और शर्मिंदा होने से इतना डरते हैं कि वे मुँह नहीं दिखा पाते। इन चीजों के बीच ढुलमुल होने से उनके दिलों में संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है; यह पता न होने पर कि क्या करना चाहिए, वे संतप्त हो जाते हैं, वे चाहे कुछ भी चुनें, गलत काम करने को लेकर वे व्याकुल हो जाते हैं, और यह न जानकर कि वे जो कुछ करते हैं वह उपयुक्त है या नहीं, और वे चिंता करते हैं कि अगर ये चीजें बार-बार होती रहीं, तो फिर एक दिन वे उसे सह नहीं सकेंगे, और अगर वे टूट गए तो उनके लिए चीजें और ज्यादा मुश्किल हो जाएँगी। ऐसी स्थिति में लोग जीवन में पैदा होने वाली इन सब छोटी-बड़ी चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। उनके भीतर एक बार जब ये नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाएँ तो वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और खुद को मुक्त नहीं कर पाते : अगर वे ऐसा करें तो गलत, वैसा करें तो गलत, और वे नहीं जानते कि क्या करना सही है; वे दूसरे लोगों को खुश करना चाहते हैं, मगर परमेश्वर को नाखुश करने से डरते हैं; वे दूसरों के लिए कुछ करना चाहते हैं ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें, लेकिन वे परमेश्वर का निरादर नहीं करना चाहते या नहीं चाहते कि परमेश्वर उनसे घृणा करे। इसीलिए वे हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता की इन भावनाओं में घिर जाते हैं। वे दूसरों और स्वयं अपने लिए संतप्त हो जाते हैं; वे दूसरों और स्वयं अपने लिए व्याकुल हो जाते हैं; और वे दूसरों और स्वयं अपने लिए चीजों को लेकर चिंता करते हैं, और इसलिए वे दोहरी मुश्किल में घिर जाते हैं, जिससे वे बच कर नहीं निकल पाते। ऐसी नकारात्मक भावनाएँ न सिर्फ उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके कर्तव्य-निर्वहन पर भी असर डालती हैं, और बेशक साथ ही कुछ हद तक सत्य के उनके अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं। यह एक किस्म की मुश्किल है, यानी ये मुश्किलें शादी, पारिवारिक जीवन, निजी जीवन से जुड़ी मुश्किलें हैं और इन्हीं मुश्किलों की वजह से लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता में फँस जाते हैं। जब लोग इस किस्म की नकारात्मक भावना में फँस जाते हैं तो क्या वे तरस खाने लायक नहीं हैं? (जरूर हैं।) क्या उन पर तरस खाना चाहिए? तुम लोग अभी भी कहते हो, “जरूर,” जो दर्शाता है कि तुम अब भी उनके प्रति सहानुभूति रखते हो। जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावना में घिर जाता है, तो उस नकारात्मक भावना के पैदा होने की पृष्ठभूमि चाहे जो हो, उसके पैदा होने का कारण क्या होता है? क्या यह माहौल के कारण है, या उस व्यक्ति के चारों ओर के लोगों, घटनाओं और चीजों के कारण है? या परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य से उनके विचलित होने के कारण है? क्या माहौल व्यक्ति को प्रभावित करता है या परमेश्वर के वचन उनके जीवन में बाधा डालते हैं? इसका सटीक कारण क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? मुझे बताओ, यह लोगों के सामान्य जीवन में हो, या उनके कर्तव्य-निर्वहन में, क्या ये मुश्किलें तब मौजूद होती हैं जब वे सत्य का अनुसरण करते हैं, या सत्य को अभ्यास में लाना चाहते हैं? (नहीं।) ये मुश्किलें वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद होती हैं। तुम लोग कहते हो कि ये मौजूद नहीं हैं, तो क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों ने ये मुश्किलें दूर कर ली हों? क्या तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो? ये मुश्किलें दूर नहीं की जा सकतीं, और ये वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में इन मुश्किलों के परिणाम क्या होंगे? और इनके परिणाम उन लोगों में क्या होंगे जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? उनके दो बिल्कुल अलग परिणाम होंगे। अगर लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे इन मुश्किलों में फँस कर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में नहीं डूबेंगे। इसके उलट अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो ये मुश्किलें उनमें पहले की ही तरह मौजूद होती हैं, और परिणाम क्या होगा? ये तुम्हें उलझा देंगी ताकि तुम बच कर निकल न सको, और अगर तुम इन्हें दूर न कर पाओ, तो आखिरकार ये नकारात्मक भावनाएँ बन जाएँगी जो तुम्हारे अंतरतम में गाँठ बन कर पैठ जाएँगी; ये तुम्हारे सामान्य जीवन और तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित करेंगी, और ये तुम्हें दबा हुआ और छुटकारा पाने में असमर्थ महसूस करवाएँगी—तुम पर इनका यह परिणाम होगा। ये दोनों परिणाम भिन्न हैं, है न? (हाँ।) तो आओ मैंने अभी जो पूछा उस सवाल पर लौट चलें। मैंने क्या पूछा था? (लोगों में नकारात्मक भावनाएँ पैदा होने के पीछे माहौल के प्रभाव होते हैं या परमेश्वर के वचनों से लोगों को होने वाली बाधा?) तो कारण क्या है? जवाब क्या है? (ऐसा इसलिए होता है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते।) सही है, इनमें से कोई भी नहीं है, बल्कि यह इसलिए है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। जब लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे अक्सर अतिवादी विचारों और नकारात्मक भावनाओं में घिर जाते हैं और खुद को मुक्त नहीं कर पाते। अभी मैंने जो सवाल पूछा उसे दोहराओ। (लोगों में नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने का कारण उनका माहौल, और उनके चारों ओर के लोग, घटनाएँ और चीजें हैं या यह इसलिए है कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य लोगों को विचलित करता है?) आसान शब्दों में कहें, तो क्या यह माहौल के प्रभाव के कारण है या इसलिए कि परमेश्वर के वचन लोगों को विचलित करते हैं? इनमें से कौन-सा कारण है? (कोई भी नहीं।) सही है, कोई भी नहीं। माहौल सभी को निष्पक्ष रूप से प्रभावित करते हैं; अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो किसी एक माहौल के कारण तुम नकारात्मक भावना में नहीं डूबोगे। हालाँकि अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो सहज रूप से बार-बार अपने माहौल से अभिभूत हो जाओगे, और संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में फँस कर रह जाओगे। इस नजरिए से गौर करें तो क्या सत्य का अनुसरण करना महत्वपूर्ण नहीं है? (जरूर है।) घटने वाली सभी चीजों में खोजने के लिए सत्य-सिद्धांत होते हैं। हालाँकि असलियत में चूँकि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सत्य-सिद्धांतों को नहीं खोजते, या फिर वे साफ तौर पर जानते हैं कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, सत्य-सिद्धांत क्या हैं, उन्हें कौन से मार्ग पर अभ्यास करना चाहिए, और अभ्यास के मानदंड क्या हैं, लेकिन हमेशा अपने चुनाव कर योजनाएँ बनाते समय वे उन पर ध्यान नहीं देते या उनका अनुसरण नहीं करते, तो अंत में उनका क्या होगा? जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, हमेशा किसी-न-किसी चीज के बारे में चिंता करते हैं, तो फिर सिर्फ एक ही परिणाम होता है, और वह यह है कि वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और उसमें से फिर बाहर नहीं निकल पाते। क्या लोगों के लिए यह संभव है कि वे हमेशा अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करें ताकि चीजें हमेशा उनकी इच्छा से हों, वे दूसरे लोगों को खुश रखें और साथ ही परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करें? यह असंभव है! वे हमेशा चीजों को इस तरह से सँभालना चाहते हैं ताकि उनके आसपास के सभी लोग खुश हों, संतुष्ट हों, और उनकी खूब प्रशंसा करें। वे एक अच्छा व्यक्ति कहलाना चाहते हैं, और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, और अगर वे यह मानक प्राप्त नहीं कर पाते, तो संतप्त हो जाते हैं। और क्या वे संतप्त होने के पात्र नहीं हैं? (हाँ।) यही वह चीज है जो लोग अपने लिए चुनते हैं।
कुछ लोग जो विकृतियों की ओर प्रवृत्त होते हैं वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर ने इतने सारे वचन नहीं बोले होते, तो मैं एक नेक इंसान होने के नैतिक मानकों के अनुसार काम करता। वह बहुत सरल होता, और इतने वक्तव्य नहीं दिए जाते। जैसे कि अनुग्रह के युग में लोग आज्ञाओं का पालन करते थे, सहन और बर्दाश्त करते थे, क्रूस को ढोते और कष्ट उठाते थे, और यह बड़ा सरल था। क्या बात यहाँ खत्म नहीं हो जाती थी? अब परमेश्वर द्वारा बोले गए अनेक सत्य और संगति में अभ्यास के इतने सिद्धांत दिए जाने के बाद, इतना लंबा वक्त गुजरने पर भी लोग उन्हें क्यों हासिल नहीं कर पाते? लोगों में काबिलियत की बड़ी कमी है, वे ये सब बातें नहीं समझ पाते, और ऐसे बहुत से सत्य हैं जो वे हासिल नहीं कर पाते; सत्य को अमल में लाने को लेकर भी लोगों की बहुत-सी मुश्किलें हैं, भले ही वे इसे समझ लें, फिर भी इसे हासिल करना उनके लिए कठिन होता है। तुम सत्य को समझ कर भी उसे अमल में नहीं लाते, तो तुम्हें बेचैनी होती है, लेकिन जब तुम इसे अमल में लाते हो, तो बहुत-सी व्यावहारिक मुश्किलें आती हैं।” लोग मानते हैं कि परमेश्वर के वचन उन्हें परेशान करते हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) इसे नासमझ और तर्कहीन होना कहा जाता है। वे सत्य से विमुख हैं, और सत्य का अनुसरण नहीं करते, न ही सत्य का अभ्यास करते हैं, लेकिन फिर भी वे आध्यात्मिक होने का, सत्य के अभ्यास का ढोंग करना चाहते हैं, और वे उद्धार पाना चाहते हैं। अंत में जब वे ये चीजें हासिल नहीं कर पाते, तो यह सोचकर अवसाद-ग्रस्त और संतप्त अनुभव करते हैं, “कौन इन सबमें संतुलन बना सकता है? बेहतर होता अगर परमेश्वर अपने मानकों का स्तर थोड़ा घटा देता, तब लोग ठीक रहते, परमेश्वर ठीक रहता, सब लोग ठीक रहते—वह जीवन कितना स्वर्गिक होता!” ऐसे लोग हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन मनुष्य के प्रति अविवेकी हैं। दरअसल, संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ होने पर वे कई चीजों को लेकर परमेश्वर से असंतुष्ट होते हैं। खास तौर से, जब सत्य-सिद्धांतों के प्रति उनके दृष्टिकोण की बात आती है, तो वे उन्हें हासिल या प्राप्त नहीं कर पाते, उनके बारे में बिल्कुल बात नहीं कर पाते, और दूसरे लोगों की नजर में उनकी शोहरत और प्रतिष्ठा पर, आशीष पाने की उनकी आकांक्षा पर इसका गंभीर प्रभाव होता है, जिसके कारण वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और इसीलिए वे मानते हैं कि परमेश्वर द्वारा की गई ऐसी बहुत-सी चीजें हैं, जिनको लेकर वे खुश नहीं हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर धार्मिक है, मैं इसे नहीं नकारता; परमेश्वर पवित्र है और मैं यह भी नहीं नकारता। निश्चित रूप से परमेश्वर का कहा सब-कुछ सत्य है, बस यह शर्म की बात है कि अब परमेश्वर जो कहता है वे बड़ी ऊँची बातें हैं, लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत कठोर हैं, और लोगों के लिए ये सब पूरा करना आसान नहीं है!” उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है और वे सारी जिम्मेदारी परमेश्वर पर थोप देते हैं। वे इस आधार पर शुरू करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, वह पवित्र है, और वे मानते हैं कि यह सब सच है। परमेश्वर धार्मिक है, वह पवित्र है—क्या तुम्हारे लिए परमेश्वर के सार को स्वीकारना जरूरी है? ये तथ्य हैं; वे सिर्फ इसलिए सच नहीं हैं क्योंकि तुम उन्हें स्वीकारते हो। परमेश्वर को दोष देने के कारण उनकी निंदा न हो, इसलिए वे जल्दी से कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर पवित्र है। लेकिन परमेश्वर के धार्मिक और पवित्र होने को लेकर वे चाहे जो कहें, संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ अब भी उनमें मौजूद हैं, और न सिर्फ ये भावनाएँ मौजूद हैं बल्कि वे इन भावनाओं को जाने देने और उन्हें पीछे छोड़ देने को भी अनिच्छुक हैं, अभ्यास के अपने सिद्धांतों, अपने अनुसरण की दिशा, और अपने जीवन-पथ को बदलने को अनिच्छुक हैं। ऐसे लोग दयनीय और घृणित दोनों होते हैं। वे सहानुभूति के लायक ही नहीं हैं, और वे चाहे जितने कष्ट सहें, वे हमारे तरस के लायक नहीं हैं। हमें बस उन्हें ये कुछ शब्द ही कहने चाहिए : तुम्हारे साथ ठीक हो रहा है! अगर तुम बहुत संतप्त होकर मर भी जाओ, तो भी कोई तुम पर तरस नहीं खाएगा! अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोजने से तुम्हें किसने रोका था? किसने तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ बनाया था? किसकी खातिर तुम संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव कर रहे हो? क्या तुम इन चीजों का अनुभव सत्य प्राप्त करने के लिए कर रहे हो? या परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए? या फिर परमेश्वर के कार्य की खातिर? या फिर परमेश्वर की महिमा की खातिर? (नहीं।) तो फिर तुम ये भावनाएँ किस बात के लिए अनुभव कर रहे हो? ये सब तुम्हारे लिए है, तुम्हारे बच्चों, तुम्हारे परिवार, तुम्हारे आत्म-सम्मान, तुम्हारी शोहरत, तुम्हारे भविष्य और संभावनाओं के लिए है, उन सबके लिए है जिनसे तुम्हारा लेना-देना है। ऐसा व्यक्ति कुछ भी नहीं छोड़ता, कोई भी चीज जाने नहीं देता, किसी भी चीज के खिलाफ विद्रोह नहीं करता, या किसी भी चीज का परित्याग नहीं करता; परमेश्वर में वे सच्ची आस्था नहीं रखते, अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी कोई सच्ची निष्ठा नहीं होती। परमेश्वर में अपने विश्वास में वे सच में खुद को नहीं खपाते, वे सिर्फ आशीष पाने के लिए विश्वास रखते हैं, और आशीष प्राप्त करने के दृढ़विश्वास के साथ ही वह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्यों और उसके वादों में “आस्था” से पटे होते हैं, लेकिन परमेश्वर ऐसी आस्था की सराहना नहीं करता, न ही उसे याद रखता है, बल्कि वह उससे घृणा करता है। ऐसे लोग परमेश्वर द्वारा उनसे अपेक्षित कोई भी मामला सँभालने के लिए सिद्धांतों का अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, वे उन चीजों को नहीं जाने देते जिन्हें जाने देना चाहिए, वे उन चीजों को नहीं छोड़ते जिन्हें छोड़ देना चाहिए, वे उन चीजों का परित्याग नहीं करते, जिनका उन्हें परित्याग करना चाहिए, और वे वह निष्ठा नहीं दिखाते जो उन्हें दिखानी चाहिए, और इसलिए वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाने लायक हैं। हालाँकि वे जितने भी कष्ट सहें, ऐसा सिर्फ अपने लिए करते हैं, अपने कर्तव्य के लिए और कलीसिया के कार्य के लिए नहीं। इसलिए ऐसे लोग सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते—वे सिर्फ परमेश्वर में नाम के लिए विश्वास रखने वाले लोगों का जत्था होते हैं। वे ठीक-ठीक जानते हैं कि यह सच्चा मार्ग है, लेकिन वे उसका अभ्यास नहीं करते, न ही उस पर चलते हैं। उनकी आस्था दयनीय है, उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती, और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। ऐसे लोग अपने घरेलू जीवन की ढेरों मुश्किलों के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में घिर जाते हैं।
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