सत्य का अनुसरण कैसे करें (21) भाग एक
इस अवधि के दौरान संगति का विषय काफी व्यापक रहा है। तुम लोग कितना याद कर सकते हो? तुम कितना समझने में सक्षम हो? (परमेश्वर के संगति समाप्त कर लेने के बाद, हम इसमें से कुछ थोड़ा याद कर सकते हैं। इसके अन्य हिस्सों के संबंध में, हम वर्तमान में समान परिस्थितियों का अनुभव करने के कारण थोड़ा-सा प्रभाव प्राप्त करने में सक्षम हैं। और दूसरे हिस्सों के संबंध में, ऐसी स्थितियों का कभी अनुभव न करने के कारण, हम ज्यादा याद करने में सक्षम नहीं हैं।) जब तुम परिस्थितियों का सामना करते हो, तो क्या तुम्हें उन चीजों का कोई आभास होता है, जिनके बारे में संगति की गई थी? (थोड़ा-सा होता है। समान परिस्थितियों का सामना करने पर मैं सत्य का यह पहलू, जिसके बारे में परमेश्वर ने संगति की थी, उसके वचनों के एक-दो वाक्य, याद कर सकता हूँ, और बाद में मैं खाने-पीने के लिए परमेश्वर के ये वचन खोजता हूँ, और मुझे महसूस होता है कि मेरे पास कुछ दिशा है।) क्या तुमने सिद्धांत समझ लिए हैं? (इस संबंध में मुझमें काफी कमी है। मैं अभी भी सिद्धांत पूरी तरह नहीं समझ पा रहा; मैं केवल परमेश्वर के वचनों से जुड़ सकता हूँ, और थोड़ी समझ प्राप्त कर सकता हूँ।) क्या तुम जानते हो कि सत्य को समझने का तात्पर्य और सत्य को समझने की क्षमता होने का तात्पर्य मुख्य रूप से क्या है? जब किसी में सत्य को समझने की क्षमता नहीं होती, तो क्या अक्सर यह नहीं कहा जाता कि “यह व्यक्ति सत्य को नहीं समझता,” या “इसने सत्य-सिद्धांतों का यह पहलू नहीं समझा है”? क्या तुम लोग अक्सर ऐसा ही कुछ नहीं कहते हो? (बिल्कुल, कहते हैं।) जब यह कहा जाता है कि कोई व्यक्ति सत्य को समझता है और उसमें इसे समझने की क्षमता है तो इसका क्या तात्पर्य है? क्या इसका तात्पर्य सत्य के संबंध में कोरा सिद्धांत समझना है? (नहीं। मेरा मानना है कि परमेश्वर की संगति सुनने के बाद अगर इस व्यक्ति में सत्य को समझने की क्षमता होती है, तो वह खुद को सत्य से जोड़कर अपने बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकता है और सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांत ढूँढ़ सकता है।) सत्य को समझने और इसे समझने की क्षमता होना का तात्पर्य मुख्य रूप से सत्य-सिद्धांतों को समझने में सक्षम होना है। अर्थात्, जब किसी सत्य के बारे में संगति की जाती है, तो उसका विशेष ब्योरा और कथ्य चाहे कुछ भी हो, कितने भी उदाहरण दे दिए जाएँ, या कितने भी मामलों या दशाओं पर चर्चा की जाए—इन सबके भीतर एक सत्य-सिद्धांत निहित होता है। अगर तुम इस सत्य-सिद्धांत को समझ-बूझ सकते हो, तो तुममें सत्य को समझने की क्षमता है। सत्य को समझने की क्षमता होने का क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य है सत्य-सिद्धांतों को समझ पाना और जब मसले सामने आएँ तो सत्य-सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने में सक्षम होना। इसे ही सत्य को समझने की क्षमता कहा जाता है। कुछ लोगों के साथ सत्य के बारे में चाहे कैसे भी संगति की जाए, कितने भी उदाहरण दिए जाएँ, कितनी भी दशाओं पर चर्चा की जाए, या कितनी भी विशिष्ट चर्चा क्यों न की जाए, वे फिर भी नहीं जानते कि यहाँ किस सत्य पर चर्चा की जा रही है, और वे सत्य-सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने, और आचरण और कार्य करने में सक्षम नहीं होते। यानी, वे उनसे जुड़ नहीं सकते या इन पर अमल नहीं कर सकते। भले ही वे कुछ शब्दों और सिद्धांतों के बारे में घंटों बात कर सकते हों, उन पर स्पष्ट और तार्किक रूप से चर्चा कर सकते हों, फिर भी, अफसोस की बात है कि वे परमेश्वर के वचनों पर अमल करने में असमर्थ रहते हैं, वे समस्याएँ हल करने या उनसे निपटने के लिए सत्य-सिद्धांतों पर अमल नहीं कर सकते। यह सत्य-सिद्धांतों को समझना या सत्य समझने की क्षमता होना नहीं है। वे चाहे जितने सिद्धांत बघारें, सब बेकार है। सत्य-सिद्धांत सत्य से संबंधित हर मामले और हर श्रेणी की चीज के लिए विशिष्ट अभ्यास-मानदंड हैं। चूँकि ये विशिष्ट अभ्यास-मानदंड हैं, इसलिए ये निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादे हैं। ये वो मानक हैं जिनकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे विशिष्ट मामलों में करता है, और ये अभ्यास का वो विशिष्ट मार्ग हैं जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। ये ही सत्य-सिद्धांत कहलाते हैं। ये न केवल परमेश्वर के इरादे हैं, बल्कि ऐसे मानक भी हैं जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। मान लो कि तुमने सत्य-सिद्धांत समझ लिए हैं, तो फिर तुममें सत्य को समझने की क्षमता है। अगर तुममें सत्य को समझने की क्षमता है, तो मसलों से सामना होने पर तुम सत्य-सिद्धांतों के आधार पर अभ्यास करोगे। तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप आगे बढ़ने और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में सक्षम होगे। इसके विपरीत अगर तुम सत्य-सिद्धांतों को नहीं समझते—यानी अगर तुममें सत्य को समझने की क्षमता नहीं है—तो तुम जो भी करोगे, वह सत्य-सिद्धांतों या परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं होगा। तुम्हारे कार्यों में आधार और मानदंड का अभाव होता है, यानी तुम्हारे पास कोई निश्चित मानक नहीं होते। इसलिए तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते। यह आकलन करने के लिए कि क्या कोई वास्तविक कार्य करने में सक्षम है, यह देखो कि क्या उसमें सत्य को समझने की क्षमता है। अगर है, तो वह वास्तविक समस्याओं का समाधान कर सकता है। अगर नहीं है, तो चाहे वह कितना भी सिद्धांत झाड़ ले, सब बेकार है। जो शब्दों और सिद्धांतों पर चर्चा करना पसंद करता है लेकिन वास्तविक मुद्दे हल नहीं करता, वह किताबी फरीसी है। तुम परमेश्वर के वचनों के चाहे कितने भी अनगिनत अंश याद कर सको, इसका कोई फायदा नहीं। फरीसी धाराप्रवाह धर्मग्रंथों का पाठ कर सकते थे, फिर वे प्रार्थना करने के लिए गली-नुक्कड़ पर जाते थे; वे हर चीज लोगों को दिखाने के लिए, आत्म-प्रदर्शन के लिए करते थे, वास्तविक समस्याएँ हल करने के लिए नहीं। ऐसे लोग हर प्रकार के आध्यात्मिक, सर्वस्वीकृत और प्रशंसित, गहन और गूढ़ ज्ञान, सिद्धांत, शब्द और नारे जुटाने पर ध्यान केंद्रित कर हर जगह उनका ढिंढोरा पीटते हैं। वे सतही तौर पर कुछ अच्छा व्यवहार दिखाकर लोगों को गुमराह करते हैं ताकि उनकी प्रशंसा और स्तुति बटोर सकें। लेकिन जब वास्तविक मुद्दों की बात आती है, तो कानून बनाए रखने और कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत उद्धृत करने के अलावा वे कोई वास्तविक समस्या हल नहीं कर सकते। लोगों की आंतरिक दशाओं या सार के संबंध में, और इन मामलों को कैसे लें और कैसे हल करें, इस बारे में वे कुछ भी समझने या कोई भी सत्य समझने में विफल रहते हैं। वे कुछ शब्दों और सिद्धांतों के बारे में खोखली बातें ही कर सकते हैं। इसे ही किताबी फरीसी कहा जाता है। फरीसियों के सिर्फ शब्दों और सिद्धांतों की ही चर्चा कर सकने और कोई वास्तविक मुद्दे हल न कर सकने का कारण यह है कि वे सत्य नहीं समझते और शुरू से अंत तक मुद्दे का सार नहीं समझ सकते। इसलिए जब मुद्दे हल करने का समय आता है, तो वे झूठ बोलने और हास्यास्पद दृष्टिकोण फैलाने का सहारा लेते हैं। वे किसी व्यक्ति की असलियत जानने या किसी मामले का सार समझने में असमर्थ रहते हैं। नतीजतन, वे किसी भी समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहते हैं। उनमें सत्य को समझने की रत्तीभर क्षमता भी नहीं होती। भले ही उन्होंने कितने भी उपदेश सुने हों या धर्म-सिद्धांत पर कितनी भी चर्चा की हो, वे यह नहीं समझते कि सत्य-सिद्धांत या परमेश्वर के इरादे क्या हैं। दीन-हीन और दयनीय होने के बावजूद वे सत्य समझने का दम भरते हैं और अपने आध्यात्मिक व्यक्ति होने पर इतराते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? (है।) यह दयनीय और घृणास्पद है। वे बहुत सारे शब्दों और सिद्धांतों पर चर्चा कर सकते हैं, यहाँ तक कि कुछ नियमों का पालन भी कर सकते हैं, फिर भी वे किसी ठोस मुद्दे का समाधान नहीं कर सकते। वे बस दूसरों के बोलने के तरीके की नकल उतारते हुए कहेंगे, “ओह, यहाँ कुछ हुआ है। देखो, इस मामले का घटनाक्रम कितना जटिल, विचित्र और असामान्य था। ओह, उस व्यक्ति में जमीर और विवेक नहीं है, उसकी मानवता खराब है और उसमें आत्म-जागरूकता नहीं है। जब भी उसके साथ कुछ होता है, वह लापरवाही बरतता है।” तुम उनसे पूछते हो, “इस व्यवहार को देखते हुए, तुम इस व्यक्ति के साथ कैसे पेश आओगे? तुम इसे किन सिद्धांतों के आधार पर सँभालोगे? इसके व्यवहार का सार क्या है? क्या ऐसा व्यक्ति मसीह-विरोधी होता है या मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलता है? क्या वह नकली अगुआ है या बस उसकी मानवता खराब है या उसकी आस्था की नींव उथली है?” लेकिन वे कहते हैं, “यह समझना कठिन है।” वे नहीं जानते कि इसे कैसे हल किया जाए, और जब विभिन्न मसलों से सामना होता है, तो वे सिर्फ सतही घटनाओं और स्थितियों को देखते हैं। जब विशेष रूप से कुछ व्यक्तिगत व्यवहारों, अभिव्यक्तियों, वचनों और कार्यों की बात आती है, तो वे सिर्फ उनका वर्णन या गणना ही कर सकते हैं, या वे कुछ सरल और प्रारंभिक निर्धारण कर सकते हैं, लेकिन वे मुद्दे का सार नहीं समझ सकते। वे नहीं जानते कि ऐसे लोगों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए या उन्हें कैसे सँभाला जाए; सत्य के बारे में कैसे संगति की जाए ताकि वे आत्मचिंतन कर खुद को जान सकें और परमेश्वर के वचनों से जुड़ सकें; उनके जीवन-प्रवेश में उनकी मदद कैसे करें, या जब प्रशासन और कर्मियों की बात आती है तो इन लोगों को उचित स्थान पर कैसे रखा जाए। वे सिर्फ इस या उस श्रेणी के लोगों के विभिन्न व्यवहारों और स्थितियों के बारे में बात कर सकते हैं। जब तुम उनसे पूछते हो, “क्या तुमने इन लोगों को सँभाल लिया है?” तो वे उत्तर देते हैं, “अभी नहीं, मैं अभी भी इनका अवलोकन कर रहा हूँ।” यह है परिणाम। क्या यह समस्या-निवारण क्षमता की कमी नहीं दर्शाता? (हाँ।) क्या समस्या-निवारण क्षमता की कमी सत्य को समझने में असमर्थता का संकेत नहीं देती? (हाँ, देती है।) सत्य को समझने की क्षमता के बिना क्या ये लोग सत्य-सिद्धांतों को समझने में असमर्थ नहीं हैं? वे सत्य-सिद्धांतों को नहीं समझते, तो ऐसा इसलिए नहीं है कि उन्होंने पर्याप्त उपदेश नहीं सुने हैं; बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें सत्य को समझने की क्षमता नहीं है—उनमें यह काबिलियत नहीं है। तो फिर वे आम तौर पर इतनी वाक्पटुता से कैसे प्रवचन कर सकते हैं? चूँकि उन्होंने बहुत-कुछ सुना और अनुभव किया है, और उन्होंने ये सभी सिद्धांत कंठस्थ कर लिए हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे कुछ शब्दों और सिद्धांतों पर चर्चा करने में सक्षम रहते हैं। विशेष रूप से जिन्होंने कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया है : उन्होंने नियमित अभ्यास के माध्यम से खुद को निखारा है, वे विभिन्न शब्दों और सिद्धांतों के बारे में चर्चा और बात कर सकते हैं, और वे विशेष रूप से सहजता से बोलते हैं, मानो भाषण दे रहे हों और निबंध लिख रहे हों। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनका कोई आध्यात्मिक कद है या उनमें वास्तविकता है, न ही इसका मतलब यह है कि वे सत्य-सिद्धांतों को समझते हैं। तुम्हें पहचानने में दक्ष होना चाहिए और ऐसे लोगों से गुमराह नहीं होना चाहिए। जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो, जो सभाओं के दौरान बिना खुद को दोहराए एक-दो दिन तक लगातार बोलने में सक्षम होता है, तो तुम उससे प्रभावित होकर दंग रह जाते हो; क्या यह पहचान की कमी नहीं दर्शाता? क्या इससे यह नहीं दिखता कि तुम सत्य नहीं समझते? (बिल्कुल, दिखता है।) यह दर्शाता है कि तुम सत्य नहीं समझते। अगर तुम सत्य समझते, तो यह जान लेते कि क्या उसके भाषण के किसी हिस्से में अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत हैं या नहीं, जो कुछ निश्चित दशाएँ या समस्याएँ हल कर सकें। मान लो, तुम ध्यान से सुनते हो और पाते हो कि उसमें लोगों की वास्तविक दशाएँ या समस्याएँ हल करने वाला एक भी वाक्य नहीं है, कि वह जो कह रहा है वह सिद्धांतों, विशिष्ट समाधानों और अभ्यास के ठोस मार्गों से रहित सिर्फ नारों, शब्दों, सिद्धांतों का एक पुंज है, और भले ही वह दो-तीन दिनों तक भी बोलता रहे, यह सब खोखला सिद्धांत है। और मान लो, जब तुम उसे सुनते हो तब यह लाभदायक और फलदायी लगता है, लेकिन विचार करने पर तुम सोचते हो, “मैं इस मुद्दे को कैसे हल करूँ? लगता नहीं कि उसने अभी इसका समाधान किया है,” और जब तुम उससे दोबारा पूछते हो, तो वह सिर्फ सिद्धांतों का एक पुंज झाड़ देता है, जिससे तुम अभी भी नहीं जान पाते कि आगे कैसे बढ़ना है। क्या यह मूर्ख बनाना और धोखा देना नहीं है? (है।) तुम अभी भी नहीं जानते कि आगे कैसे बढ़ना है, फिर भी तुम उसकी प्रशंसा और आदर करते हो : यह मूर्ख बनना और धोखा खाना है। क्या तुम लोगों को अक्सर इस तरह चकमा नहीं दिया जाता? (हाँ, दिया जाता है।) तो फिर, अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में क्या तुम लोग अक्सर इस तरह से दूसरों को धोखा नहीं दे रहे? (हाँ, दे रहे हैं।) अब क्या तुम लोगों को इस बात की थोड़ी और समझ मिली है कि सत्य को समझने की क्षमता का क्या मतलब है और सत्य-सिद्धांत क्या हैं? (मैं उन्हें थोड़ा और समझने लगा हूँ।) सत्य-सिद्धांत क्या हैं? (सत्य-सिद्धांत वास्तव में मसलों का सामना करते समय अभ्यास के कुछ मानदंड हैं; इनमें परमेश्वर के इरादों के साथ-साथ कुछ मानक और मार्ग शामिल हैं, जिन्हें अभ्यास में लाया जाना चाहिए। अगर कोई सत्य-सिद्धांतों को समझ लेता है, तो उसमें सत्य को समझने की क्षमता होती है।) सत्य को समझने की क्षमता व्यक्ति को सत्य-सिद्धांतों को समझने देती है। यह है दोनों के बीच का संबंध। ऐसा नहीं है कि अगर तुम सत्य-सिद्धांतों को समझते हो तो तुम्हारे पास सत्य को समझने की क्षमता होती है। बल्कि, जब तुममें सत्य को समझने की क्षमता होती है, तब तुम सत्य-सिद्धांतों को समझ सकते हो। क्या यह ऐसे ही काम नहीं करता? (हाँ, करता है।) तो, क्या तुम लोगों में से ज्यादातर के पास सत्य को समझने की क्षमता है? क्या तुम लोग उस समस्त विषय-वस्तु में निहित सत्य-सिद्धांतों को समझ सकते हो, जिसके बारे में मैं हर बार संगति करता हूँ? अगर तुम उसे समझ सकते हो, तो तुममें सत्य ग्रहण करने की क्षमता है, और तुममें आध्यात्मिक समझ है। अगर, सुनने के बाद, तुम्हें सिर्फ संगति के दौरान चर्चा किए गए कुछ लोगों या लोगों की श्रेणियों से जुड़ी कुछ चीजें, कुछ विशिष्ट व्यवहार या काम करने के तरीके ही याद आते हैं, लेकिन तुम यह नहीं समझते कि जिन सत्य-सिद्धांतों के बारे में यहाँ संगति की जा रही है वे वास्तव में क्या हैं, और मामलों का सामना करते समय तुम नहीं जानते कि उन्हें उन विशिष्ट तथ्यों से कैसे जोड़ा जाए जिनके बारे में संगति की गई है, या सत्य-सिद्धांतों के आधार पर कैसे कार्य किया जाए, तो तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है। आध्यात्मिक समझ न होने का अर्थ है सत्य को समझने की क्षमता का अभाव होना। चाहे तुम कितने भी उपदेश सुनो, तुम सत्य-सिद्धांतों को नहीं समझते, और जब मामले उठते हैं तो तुम हतप्रभ महसूस करते हो; तुम सिर्फ सतही स्तर की स्थितियाँ, अभिव्यक्तियाँ आदि देख सकते हो। तुम समस्या का सार नहीं देख सकते, और तुम अभ्यास के मार्ग या समस्याओं के समाधान का उपाय नहीं खोज सकते। यह सत्य-सिद्धांतों की समझ की कमी और सत्य को समझने में असमर्थता दर्शाता है। ऐसे लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती। इन मुद्दों पर विचार करने और गहराई से सोचने में समय लगाओ, और तुम निष्कर्ष पर पहुँच जाओगे। अगर तुम इन मुद्दों पर कभी विचार नहीं करते, अगर तुम्हारा दिमाग भ्रमित रहता है, तो तुम्हें वास्तविक समझ नहीं है।
आओ, उस विषयवस्तु पर संगति करते रहें जिसके बारे में हम इस दौरान लगातार संगति करते रहे हैं। पिछली सभा में हमने लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करने के चौथे भाग पर चर्चा की थी—“करियर” वाले भाग की विशिष्ट विषयवस्तु पर। “करियर” में शामिल विशिष्ट विषयवस्तु, लोगों को करियर के बारे में क्या सही समझ होनी चाहिए, या करियर के संबंध में परमेश्वर लोगों से अभ्यास के जिन विशिष्ट मार्गों और मानदंडों की अपेक्षा करता है, उनके संबंध में हमने चार बिंदु तय किए हैं। वे चार बिंदु क्या हैं? (1. दान-पुण्य न करना; 2. भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना; 3. विभिन्न सामाजिक ताकतों से दूर रहना; 4. राजनीति से दूर रहना।) हमने इन चार बिंदुओं में से दो पर चर्चा की है। पहला बिंदु है दान-पुण्य न करना, और दूसरा बिंदु है भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना। क्या इन चार बिंदुओं में से प्रत्येक का विशिष्ट शब्दांकन करियर का त्याग करने के अभ्यास के ठोस सिद्धांतों का निर्माण नहीं करता? (हाँ, करता है।) अभ्यास के ये चार विशिष्ट सिद्धांत उन मानकों का निर्माण करते हैं, जिनकी अपेक्षा परमेश्वर करियर का त्याग करने के संबंध में मानवजाति से करता है। निस्संदेह, परमेश्वर मानवजाति से जिन मानकों की अपेक्षा करता है, वे करियर का त्याग करने के सत्य-सिद्धांत हैं, और जब लोग इन मामलों का सामना करते हैं तो ये अभ्यास के विशिष्ट मार्ग होते हैं; अर्थात्, इस दायरे के भीतर तुम्हें जो करना चाहिए, उसे करके तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, लेकिन अगर तुम इस दायरे से परे जाते हो, तो तुम सिद्धांतों के खिलाफ, सत्य के खिलाफ और परमेश्वर की अपेक्षाओं के खिलाफ जाते हो। करियर के विषय के संबंध में हमने अभ्यास के दो सिद्धांतों के बारे में संगति की है : पहला है दान-पुण्य न करना, और दूसरा है भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना। दान-पुण्य न करने के पहले बिंदु के संबंध में हमने कुछ खास उदाहरण देकर कुछ विशेष स्थितियों पर चर्चा की है। इस विषय में मुख्य रूप से कौन-से मुद्दे शामिल हैं? मुद्दे की बात यह है कि लोगों को पेशा चुनते समय या करियर के संबंध में क्या करना चाहिए। कम से कम, पहला बिंदु यह है कि दान-पुण्य से संबंधित मामलों में संलग्न न हों; सिर्फ अपने जीवन या आजीविका से संबंधित करियर में शामिल होना ही पर्याप्त है। अगर तुम किसी धर्मार्थ संगठन में कार्यरत हो और सिर्फ नौकरी के बतौर काम करते हो तो यह दान-पुण्य में शामिल होने के समान नहीं है—यह एक विशेष स्थिति है। तुम यहाँ नौकरी कर वेतन पा सकते हो, लेकिन तुम सिर्फ एक कामगार होते हो, वेतनभोगी कर्मचारी से अधिक कुछ नहीं। रही यह बात कि धर्मार्थ संगठन किसमें संलग्न है, प्रतिष्ठान में, सामाजिक कल्याण में, अनाथ बच्चों या जानवरों को गोद लेने में, आपदाग्रस्त या आर्थिक रूप से नष्ट क्षेत्रों में लोगों की सहायता करने में, शरणार्थियों को प्रवेश देने में, इत्यादि, तो इन मुख्य प्रयासों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम प्राथमिक जिम्मेदार व्यक्ति नहीं हो, और तुम्हें इस धर्मार्थ कार्य में अपने समय और ऊर्जा का योगदान नहीं करना है। यह बिल्कुल अलग मामला है। तुम दान-पुण्य नहीं कर रहे हो; तुम एक धर्मार्थ संगठन में काम कर रहे हो। क्या ये प्रकृति से भिन्न नहीं हैं? (हाँ।) इनकी प्रकृति भिन्न है, और इस विशेष स्थिति ने सिद्धांत का उल्लंघन नहीं किया है। इसके अलावा, दान-पुण्य चाहे छोटे पैमाने पर हो या बड़े पैमाने पर, यह चाहे जिस भी क्षेत्र में किया जाता हो, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे करने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। इसे न करके तुम सत्य का उल्लंघन नहीं करते, और अगर तुम इसे करते भी हो, तो भी परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। चूँकि तुम्हारा लक्ष्य सत्य और उद्धार खोजना है, इसलिए तुम्हें अपनी ऊर्जा और समय उन मामलों में नहीं लगाना चाहिए, जिनका उद्धार, सत्य के अनुसरण या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि दान-पुण्य करने का कोई मूल्य या अर्थ नहीं है। इसे करने का कोई मूल्य या अर्थ क्यों नहीं है? चाहे तुम जिसे भी बचाओ या जिसकी भी मदद करो, इससे कुछ नहीं बदल सकता। यह किसी की नियति नहीं बदल सकता या उसकी नियति से जुड़ी समस्याएँ हल नहीं कर सकता, और तुम्हारा समय-समय पर लोगों की मदद करना वास्तव में उन्हें बचाना नहीं है। नतीजतन, अंत में, ऐसे प्रयास निरर्थक और किसी मूल्य या अर्थ से रहित रहते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग भेड़िये पालते हैं : वे एक-दो से शुरू करते हैं और अंततः सैकड़ों-हजारों पाल लेते हैं। वे इसे अपने करियर के रूप में लेते हैं, इसमें अपनी सारी बचत लगा देते हैं, अपने पूरे परिवार को शामिल कर लेते हैं, और बाद के वर्षों में अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर देते हैं। उनकी पूरी ऊर्जा और जिंदगी इसी एक चीज के इर्द-गिर्द घूमती है, और भेड़ियों को सफलतापूर्वक बचाने और संरक्षित करने के बावजूद, अंतिम परिणाम यह रहता है कि वे इस मामले में काफी समय और वर्ष बरबाद कर चुके होते हैं। उनके पास सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए अतिरिक्त समय और ऊर्जा नहीं रहती। इसलिए कर्तव्य निभाने और उद्धार प्राप्त करने की तुलना में कोई भी उपक्रम, भले ही उसे कई लोगों द्वारा मान्यता प्राप्त हो और समाज द्वारा उसकी प्रशंसा की जाती हो, उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना लोगों द्वारा उद्धार और सत्य का अनुसरण करना और अपने कर्तव्य निभाना है। वह इनका अनुसरण करने जितना सार्थक या मूल्यवान नहीं है। एक महत्वपूर्ण बात और है : अगर तुम्हें परमेश्वर ने चुना है, और तुम उसके चुने हुए लोगों में से एक हो, तो परमेश्वर तुम्हें कभी दान-पुण्य में ऐसा करियर बनाने का काम नहीं सौंपेगा जिसे संसार या समाज की मान्यता प्राप्त हो सकती है। परमेश्वर कभी ऐसे काम तुम्हें नहीं सौंपेगा। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर की सबसे बड़ी आशा क्या है? वह है तुम्हारा एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के सामने लौटने में सक्षम होना, और उद्धार प्राप्त करने और बने रहने में सक्षम होना। यही परमेश्वर के इरादों को सबसे अधिक पूरे करता है, यही उसके इरादों को सबसे अच्छे तरीके से पूरे करता है, न कि वे कार्य करना, जिन्हें इस संसार या समाज में लोग महत्वपूर्ण, सार्थक या चमकदार मानते हैं। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति हो, तो वह तुम्हें जो कर्तव्य निभाने को सौंपता है उसका संबंध सिर्फ और सिर्फ परमेश्वर के कार्य और कलीसिया के कार्य से है। कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के प्रबंधन से हटकर कुछ भी तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है। चाहे तुम कुछ भी करो, भले ही तुम उसे अच्छा समझो और करने के लिए तैयार रहो, उसका कोई मूल्य नहीं है, वह याद रखने लायक नहीं है, और परमेश्वर उसे याद नहीं रखता है। चाहे वह कालजयी विरासत बन जाए, सदैव याद रखी जाए, या समकालीन लोगों की प्रशंसा प्राप्त करे, यह सब महत्वहीन है। चाहे कितने भी लोग उसे स्वीकारें, इसका मतलब यह नहीं कि तुम जो करते हो, परमेश्वर उसे स्वीकृति देता है या उसका स्मरण करता है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम जो करते हो, वह सार्थक या मूल्यवान है। इस दुनिया और इस समाज की राय और मूल्यांकन तुम्हारे बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन नहीं दर्शाते। इसलिए, जब करियर की बात आती है, तो तुम्हें अपना सीमित समय और कीमती ऊर्जा व्यर्थ के प्रयासों में बरबाद नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, अपनी ऊर्जा और अपना समय परमेश्वर से मिले कर्तव्य, और सत्य और उद्धार की खोज के मामलों पर केंद्रित करो। यही वास्तव में मूल्य और अर्थ रखता है। इस तरह जीने से तुम्हारा जीवन मूल्यवान और सार्थक बन जाएगा। कुछ लोग हजारों कुत्ते पालते हैं, और उनका हर दिन उनके द्वारा पाले गए कुत्तों की देखभाल और उनके लिए जीने पर केंद्रित होता है। उनके पास खाने और सोने के लिए मुश्किल से ही समय होता है, अपने कपड़े धोने या लोगों से बात करने का समय तो बिल्कुल नहीं होता। जो काम वे हाथ में लेते हैं, वे उनकी क्षमताओं के दायरे से परे होते हैं। वे थकाऊ, दयनीय जीवन जीते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? (है।) तुम उद्धारकर्ता नहीं हो, न बनने का प्रयास करो। दुनिया को बचाने, दुनिया को बदलने, या वर्तमान स्थिति या इस दुनिया में रद्दोबदल करने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करने का कोई भी विचार मूर्खतापूर्ण है। बेशक, ऐसे प्रयास और भी ज्यादा मूर्खतापूर्ण हैं, और अंतिम परिणाम तुम्हें सिर्फ एक भयानक अवस्था में डाल देंगे, तुम्हें थका देंगे, तुम्हें असीम दुख देंगे, और तुम्हें हक्का-बक्का कर देंगे। लोगों में उतनी ऊर्जा नहीं है, न ही उनकी क्षमता और योग्यताएँ इतनी हैं कि कुछ भी बदल सकें। तुम्हारे पास जो थोड़ी-सी ऊर्जा और समय है, उसे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए अर्पित और खर्च करना चाहिए। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे उद्धार प्राप्त करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करने में खर्च और समर्पित करना चाहिए। इन चीजों के अलावा कोई भी अन्य प्रयास निरर्थक है। करियर एक ऐसी चीज है, जिसे व्यक्ति के भौतिक जीवन के एक हिस्से के रूप में अपनाया जाना चाहिए। यह सार्थक होने का मानदंड पूरा नहीं करता; यह सिर्फ भौतिक जीवन और अस्तित्व के लिए आवश्यक है। जीने और अस्तित्व बचाए रखने के लिए तुम्हें किसी व्यवसाय में जुटना होगा; वह व्यवसाय महज एक नौकरी है जो तुम्हें अपना भरण-पोषण करने देता है। वह व्यवसाय समाज के निचले स्तर पर हो या ऊपरी स्तर पर, वह सिर्फ आजीविका का एक तरीका है; उसके श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण होने का सवाल ही नहीं उठता। इसके अलावा, चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण हो, मानवजाति से परमेश्वर की यह अपेक्षा है : अगर तुम सत्य का अनुसरण करना और उद्धार के मार्ग पर चलना चाहते हो, तो आजीविका बनाए रखने के लिए व्यवसाय चुनने का मानक भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना है। अपने भोजन, वस्त्र, आश्रय और परिवहन के लिए इधर-उधर भागने और व्यस्त रहने में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा और समय बर्बाद मत करो—बुनियादी जरूरतें पूरी होना पर्याप्त है। जब तुम्हारा पेट भरा हो और तन नरम और ढका हो; जब तुम जीवित रहने के लिए ये बुनियादी स्थितियाँ प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, अपनी बहुमूल्य ऊर्जा और समय अपने कर्तव्य को और उसे अर्पित करना चाहिए, जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, और अपना हृदय समर्पित करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें सत्य के लिए भी प्रयास करना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना चाहिए और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहिए—बस दिशाहीन मत जीते रहो। यही सिद्धांत है। परमेश्वर तुमसे यह नहीं चाहता कि तुम अपनी सारी ताकत सिर्फ जीवन बचाने और जीते रहने में लगा दो। वह तुमसे भव्य जीवन जीने और उसके माध्यम से उसे महिमामंडित करने की अपेक्षा नहीं करता, न ही वह तुमसे इस दुनिया में कोई महान कर्म करने, कोई चमत्कार करने, मानवजाति के लिए कोई योगदान करने, किसी भी संख्या में लोगों को सहायता प्रदान करने या किसी भी संख्या में लोगों की रोजगार संबंधी समस्याओं का समाधान करने की अपेक्षा करता है। तुम्हारे लिए एक शानदार करियर बनाना, दुनिया भर में प्रसिद्ध होना और फिर इन चीजों का इस्तेमाल करके परमेश्वर के नाम की महिमा करना, और दुनिया में यह ढिंढोरा पीटना अनावश्यक है, “मैं एक ईसाई हूँ, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करता हूँ।” परमेश्वर सिर्फ यह आशा करता है कि तुम इस संसार में एक साधारण जन और एक सामान्य व्यक्ति बन सको। तुम्हें कोई चमत्कार करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें विभिन्न व्यवसायों या क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त करने, या एक प्रसिद्ध व्यक्ति या एक महान हस्ती बनने की जरूरत नहीं है। तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनने की जरूरत नहीं है जो लोगों की प्रशंसा या सम्मान बटोरे, न ही तुम्हें विभिन्न क्षेत्रों में कोई सफलता या सराहना पाने की जरूरत है। परमेश्वर को महिमामंडित करने के लिए तुम्हें विभिन्न व्यवसायों में कोई योगदान देने की निश्चित रूप से कोई जरूरत नहीं है। तुमसे परमेश्वर की अपेक्षा सिर्फ यह है कि तुम अपना जीवन अच्छी तरह से जिओ, बुनियादी जरूरतें पूरी करो, भूखे न रहो, सर्दियों में गर्म और गर्मियों में उपयुक्त कपड़े पहनो। अगर तुम्हारा जीवन सामान्य है और तुममें जीवित रहने की क्षमता है, तो यह पर्याप्त है—परमेश्वर की तुमसे यही अपेक्षा है। तुममें चाहे जो भी गुण, प्रतिभा या विशेष क्षमताएँ हों, परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम उनका उपयोग सांसारिक सफलता प्राप्त करने के लिए करो। इसके बजाय, वह चाहता है कि तुममें जो भी प्रतिभा या काबिलियत है, उसे तुम अपना कर्तव्य निभाने में, जो वह तुम्हें सौंपता है उसमें और सत्य खोजने में और अंततः उद्धार प्राप्त करने में लगाओ। यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है, और परमेश्वर इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहता। अगर तुम अच्छी तरह से जीते हो, तो परमेश्वर यह नहीं कहेगा कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो उसकी महिमा बढ़ाता है। अगर तुम्हारा जीवन साधारण है और तुम समाज के निचले वर्ग में हो, तो यह परमेश्वर का अपमान नहीं है। अगर तुम्हारा परिवार अपेक्षाकृत गरीब है, लेकिन तुम भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहने का परमेश्वर का मानक पूरा करते हो, तो यह भी उसका अपमान नहीं है। अपना जीवन जीते और अस्तित्व बचाए रखते हुए तुम्हारी खोज का लक्ष्य भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना, बुनियादी जरूरतें पूरी कर सामान्य रूप से रहना, अपना दैनिक भोजन जुटाने में सक्षम होना और अपने दैनिक खर्च पूरे करना है—यह पर्याप्त है। जब तुम संतुष्ट होते हो, तो परमेश्वर भी संतुष्ट होता है—परमेश्वर लोगों से यही चाहता है। वह तुमसे कोई अमीर, प्रसिद्ध या ऊँचा व्यक्ति बनने के लिए नहीं कहता, न ही वह तुम्हें भिखारी बनने देता है। भिखारी कोई काम नहीं करते; पूरे दिन वे भोजन माँगते हैं, दयनीय दिखते हैं, लोगों की जूठन खाते हैं, फटे-पुराने और पैबंद लगे कपड़े पहनते हैं, यहाँ तक कि टाट-पट्टी भी ओढ़ते हैं—उनके जीवन की गुणवत्ता विशेष रूप से निम्न है। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम भिखारी की तरह जिओ। भौतिक जीवन से संबंधित मामलों में, परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम उसे महिमामंडित करो, न ही वह कुछ स्थितियों को अपने प्रति अनादर के रूप में परिभाषित करता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति का न्याय इस आधार पर नहीं करता कि वह संघर्ष कर रहा है या समृद्धि में जी रहा है। इसके बजाय, वह तुम्हारा मूल्यांकन इस आधार पर करता है कि तुम कैसे अभ्यास करते हो और क्या तुम सत्य और उन सिद्धांतों की खोज के संबंध में परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, जो परमेश्वर तुमसे चाहता है। बस इतना ही। क्या तुमने करियर से संबंधित अभ्यास के ये दो सिद्धांत समझे-बूझे हैं? पहला सिद्धांत दान-पुण्य न करना है और दूसरा सिद्धांत भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना है। इन दोनों सिद्धांतों को समझना आसान है।
कलीसिया में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो अभी भी दृढ़ता से मानते हैं कि दान-पुण्य करना अच्छी चीज है। वे सोचते हैं, “जहाँ भी जरूरत हो, हमें मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए। जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत बात है, मैंने कपड़े और कुछ पैसे दान किए हैं, यहाँ तक कि मैं आपदाग्रस्त क्षेत्रों में भी जाता हूँ और स्वेच्छा से सेवा प्रदान करता हूँ।” तुम लोग इस मामले का मूल्यांकन कैसे करते हो? क्या इसे रोका जाना चाहिए या इसमें हस्तक्षेप किया जाना चाहिए? (इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।) ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब मैं किसी को भीख माँगते देखता हूँ, खासकर भूखे बच्चों को, तो मुझे उन पर दया आती है।” वे ऐसे लोगों को तुरंत अपने घर ले आते हैं, उनके लिए कुछ अच्छा भोजन बनाते हैं, और फिर वे उन्हें कुछ कपड़े और अच्छी चीजें देकर विदा कर देते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी उनसे मिलने भी जाते हैं। वे दयालुता के ये कार्य करने और इस तरह से आचरण करने के इच्छुक रहते हैं, और मानते हैं कि आचरण करने का यह तरीका न्याय कायम रखता है, और ऐसा करने से परमेश्वर उन्हें याद रखेगा और वे दुनिया के सबसे प्यारे लोग बन जाएँगे। ऐसे लोगों के संबंध में, क्या कलीसिया उन्हें रोकती है या हस्तक्षेप करती है? (वह हस्तक्षेप नहीं करती।) हम वे उपदेश साझा करते हैं जो उनके साथ साझा किए जाने चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के इरादे और सत्य-सिद्धांत समझाते हैं। अगर, सब-कुछ समझने और जानने के बाद भी, वे चीजें अपने तरीके से करने, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने पर जोर देते हैं, तो हम हस्तक्षेप नहीं करते। हर व्यक्ति को अपने शब्दों और कार्यों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और लोग अंतिम परिणाम और इस बात के लिए स्वयं जवाबदेह हैं कि परमेश्वर उन्हें कैसे चिह्नित करता है। दूसरों को यह जिम्मेदारी उठाने की जरूरत नहीं है, उन्हें सहारा देने की जरूरत नहीं है। अगर हमारा सामना ऐसे लोगों से होता है जो सब-कुछ समझते हैं लेकिन फिर भी दान-पुण्य करने पर जोर देते हैं, तो हम उनके विचारों और दृष्टिकोणों को सही नहीं करेंगे, न ही हम हस्तक्षेप करेंगे, और हम निश्चित रूप से उनकी निंदा नहीं करेंगे। अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी सांसारिक चीजों, धन-दौलत, सरकारी पदों या करियर का अनुसरण करते हैं। क्या हम इसमें हस्तक्षेप करते हैं? (हम हस्तक्षेप नहीं करते।) उनके साथ प्रासंगिक सत्यों के बारे में संगति करो ताकि वे समझ जाएँ, और तुम्हारे संगति समाप्त करने के बाद वे खुद चयन कर सकें। यह उन पर निर्भर है कि उन्हें कौन-सा मार्ग अपनाना है। वे क्या चुनते हैं, क्या करना चाहते हैं और उसे कैसे करते हैं—हम इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते। हमारी जिम्मेदारी उनके साथ परमेश्वर के इरादों और सत्य-सिद्धांतों के बारे में संगति करना है। अगर वे समझते-बूझते हैं, तो तुम उनसे पूछ सकते हो, “तो तुम्हारा अगला आध्यात्मिक कदम क्या होना चाहिए? तुम सुसमाचार फैलाना कब शुरू करोगे?” तो वे कहते हैं, “थोड़ा रुको, मुझे सामान की एक खेप लानी है, मेरे पास कुछ व्यवसाय और एक परियोजना है जिसे मुझे सँभालने की जरूरत है, ऐसी चीज जिसके पूरा होने पर मैं बहुत सारा पैसा कमा सकता हूँ। सुसमाचार फैलाने के बारे में बाद में सोचते हैं।” और तुम कहते हो, “मुझे कब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए?” तो वे जवाब देते हैं, “शायद दो-तीन साल।” खैर, तो अलविदा। अब तुम्हें ऐसे लोगों की फिक्र करने की जरूरत नहीं। इसे इसी तरह हल किया जा सकता है, क्या यह आसान नहीं है? (यह आसान है।) इसे ही सच्चे मार्ग को जानना और फिर भी जानबूझकर पाप करना कहा जाता है। ऐसे लोगों को पापबलि नहीं मिलेगी। परमेश्वर ऐसे लोगों को रोकता या उनके मामले में हस्तक्षेप नहीं करता; उस क्षण में भी, वह किसी भी तरह से उनका मूल्यांकन नहीं करता। वह उन्हें स्वतंत्र रूप से चयन करने देता है। तुम लोगों को भी इस सिद्धांत को सीखने की जरूरत है। वे चाहे कितना भी समझ सकें, संक्षेप में, हमारी जिम्मेदारी उन्हें परमेश्वर के इरादे स्पष्ट रूप से बताना है। उसके बाद वे क्या चुनते हैं, उनका अगला कदम क्या होना चाहिए, यह उनका अपना मामला और अपनी स्वतंत्रता है। किसी को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, और उन पर दबाव डालने के लिए उन्हें नफा-नुकसान समझाने की जरूरत नहीं है। क्या यह उचित दृष्टिकोण है? (यह उचित है।) अगर यह उचित है, तो ऐसा ही करना चाहिए। सिद्धांतों के खिलाफ मत जाओ और उन पर उनकी इच्छा के विरुद्ध दबाव मत डालो। अपना करियर त्यागने के ये पहले दो सिद्धांत हैं; इन दोनों को समझना अपेक्षाकृत आसान है और ये सहज बोधगम्य हैं।
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