सत्य का अनुसरण कैसे करें (20) भाग एक

हम जिन विविध विषयों पर संगति कर रहे हैं, उनमें दैनिक जीवन के व्यावहारिक मामले शामिल हैं। यह विषयवस्तु सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को ऐसा नहीं लगता कि सत्य खोखला नहीं है, यह कोई नारा, किसी प्रकार का सिद्धांत या खासकर, किसी प्रकार का ज्ञान नहीं है? सत्य का संबंध किससे है? (इसका संबंध हमारे वास्तविक जीवन से है।) सत्य का संबंध वास्तविक जीवन से है, वास्तविक जीवन में घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं से है। यह मानव जीवन के सभी पहलुओं को छूता है, दैनिक जीवन में लोगों के समक्ष आने वाले विभिन्न मुद्दों को छूता है, और विशेष रूप से यह लोगों द्वारा अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्यों और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों से संबंधित है। इनमें से कोई भी सत्य खोखला नहीं है और निश्चित रूप से यह अनावश्‍यक तो नहीं ही है; लोगों के पास इन सभी का होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में, जब कुछ व्यावहारिक मुद्दों की बात आती है, तो यदि तुम इन्हें, जिन सत्य सिद्धांतों के बारे में हम संगति करते हैं, उनके आधार पर देख सकते हो, इनका हल निकाल सकते हो और इन्‍हें संभाल सकते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो। यदि अपने दैनिक जीवन में, तुम सत्य से जुड़े इन मुद्दों के प्रति अपने मूल विचारों और दृष्टिकोणों पर कायम रहते हो और बदलते नहीं हो, यदि तुम इन मुद्दों को अपने मानवीय दृष्टिकोण से देखते हो, और तुम्हारे इन चीजों को देखने के तरीके के सिद्धांत और उसके आधार का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो स्‍पष्‍ट रूप से तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहा है, न ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम सत्य के किस पहलू पर संगति कर रहे हैं, इसमें शामिल सभी विषय विभिन्न मामलों में लोगों के गलत विचारों, दृष्टिकोणों, धारणाओं और कल्पनाओं को सुधारने और उन्‍हें पलट देने से संबंधित हैं, ताकि उनके पास दैनिक जीवन में सामने आने वाले विभिन्न मामलों पर सही विचार और दृष्टिकोण हो सकें, और वे वास्तविक जीवन में घटित होने वाली इन चीजों को सही दृष्टिकोणों और नजरियों से देख सकें, फिर उन्हें हल करने और उनसे निपटने के लिए सत्य को अपने मानदंड के रूप में उपयोग कर सकें। उपदेश सुनने का संबंध सिद्धांत या ज्ञान से सुसज्जित होने से नहीं है, अपनी सोच का दायरा बढ़ाने या अंतर्दृष्टि प्राप्त करने से नहीं है—इसका संबंध सत्य समझने से है। सत्य समझने का उद्देश्य अपने विचारों या आत्मा को समृद्ध करना, या अपनी मानवता को समृद्ध करना नहीं है, बल्कि लोगों को इस योग्य बनाना है कि वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हुए वास्तविक जीवन से कट न जाएँ, और वे दैनिक जीवन में विभिन्न चीजों का सामना करते हुए हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपना आधार और सत्‍य को अपना मानदंड रखते हुए लोगों और चीजों को देखें, आचरण और कार्य करें। यदि तुम कई वर्षों से उपदेश सुनते रहे हो और तुमने ज्ञान और सिद्धांत के क्षेत्र में प्रगति की है, तुम आध्यात्मिक रूप से समृद्ध महसूस करते हो और तुम्‍हारे विचार और भी उच्‍च हो गए हैं, लेकिन जब तुम दैनिक जीवन में अनेक चीजों का सामना करते हो, तो अब तक भी तुम इन मुद्दों को सही परिप्रेक्ष्य से नहीं देख पाते, न ही तुम सत्‍य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने में डटे रह पाते हो तो स्पष्ट रूप से, तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, न ही एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहा है। और भी गंभीर बात यह है कि तुम अभी तक सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हो। निश्‍चित रूप से, इस बात की अत्‍यंत स्‍पष्‍टता से पुष्टि की जा सकती है कि तुमने उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू नहीं किया है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।)

तुम लोगों के वास्तविक आध्‍यात्मिक कद और मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर तुम्‍हें क्या लगता है, किन पहलुओं में तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? तुम्‍हें किन पहलुओं में उद्धार की आशा है? तुम्‍हें किन क्षेत्रों में अब भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है लेकिन उद्धार के मानक से बहुत पीछे हो? क्या तुम इसे माप सकते हो? (ऐसी परिस्थितियों में, जबकि मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, मुझमें न्याय की समझ और परमेश्वर के प्रति सच्ची वफादारी की कमी है। मैं खड़े होकर परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हूँ, और इन महत्वपूर्ण मामलों में मेरे पास कोई गवाही नहीं है। इस संबंध में, मैं स्पष्ट रूप से उद्धार के मानक से बहुत पीछे हूँ।) यह एक वास्तविक समस्या है। चलो, सभी इस पर आगे चर्चा करते हैं। मसीह-विरोधियों को समझने और अस्वीकार करने के मुद्दों से जुड़े अपने आध्‍यात्मिक कद को पहचानने के अलावा, अन्य मामलों में, तुमने अपने दैनिक जीवन में किन चीजों का सामना किया है जिनसे तुम्‍हें लगा कि तुमने वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, कि तुम सत्‍य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते और सिद्धांत समझने के बावजूद तुम्‍हारे पास सत्‍य संबंधी स्‍पष्‍टता और एक स्पष्ट मार्ग का अभाव है, और तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादों के साथ कैसे तालमेल बिठाना है, या सिद्धांतों का पालन कैसे करना है? (इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद मैंने सोचा कि मैं अपने परिवार तथा करिअर को त्‍याग सकती हूँ, और अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के प्रति अपनी भावनाओं को कुछ हद तक छोड़ सकती हूँ। लेकिन, कभी-कभार मेरा सामना कुछ ऐसी वास्तविक जीवन परिस्थितियों से हुआ है, जिनसे मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर अभी भी भावनाएँ हैं, और मैं अपने माता-पिता की देखभाल करने और अपने संतानोचित कर्तव्‍य‍ निभाने के लिए उनके पास रहना चाहती हूँ। अगर मैं ऐसा नहीं कर पाती तो मुझे लगता है कि मैं उनकी ऋणी हूँ। हम पर माता-पिता का कोई ऋण नहीं है, इस बारे में परमेश्वर की हाल की संगति सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य के इस पहलू को नहीं समझती, और मैंने सत्य या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है।) और कौन इस बातचीत को आगे बढ़ाना चाहेगा? क्या तुम लोग अपने दैनिक जीवन में कठिनाइयों का सामना नहीं करते? या क्या तुम लोग शून्य में रहते हो और कभी किसी समस्या का सामना नहीं करते? क्या तुम लोग अपने कर्तव्य निभाते समय कठिनाइयों का सामना करते हो? क्या तुम लोग कभी अनमने होते हो? (हाँ।) क्या तुम कभी शारीरिक सुख और आराम में लिप्त रहते हो? क्या तुम प्रसिद्धि और रुतबे के लिए काम करते हो? क्या तुम अपनी भविष्य की संभावनाओं और राहों के बारे में अक्सर चिंतित रहते हो? (हाँ।) तो इन परिस्थितियों का सामना करने पर तुम उनसे कैसे निपटते हो? क्या तुम उन्हें हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में समर्थ हो? जब तुम्‍हें पदोन्नत किया जाता है तो तुम कोई गड़बड़ हो जाने पर एक वैकल्पिक योजना तैयार रखते हो, और अपने पद से हटा दिए जाने पर अपनी संभावनाओं और गंतव्‍य के बारे में चिंता करते हो, परमेश्वर को गलत समझते हो और उसे दोष देते हो, या अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हो—क्या तुममें ये समस्याएँ हैं? (हाँ।) ऐसी परिस्थितियों के सामने आने पर तुम उन्हें कैसे संभालते और हल करते हो? क्‍या तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के अनुरूप चलते हो या फिर सत्य सिद्धांतों को कायम रख पाते हो, दैहिक इच्‍छाओं से विद्रोह कर पाते हो, और सत्य का अभ्यास करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव से विद्रोह कर पाते हो? (परमेश्वर, मैं जब भी इन परिस्थितियों का सामना करता हूँ तो सैद्धांतिक रूप से समझता हूँ कि मुझे अपनी देह की प्राथमिकताओं या अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य नहीं करना चाहिए। कभी-कभी मेरी अंतरात्मा बेचैन होकर धिक्कार महसूस करती है, और मैं अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करता हूँ। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं है कि इन मामलों पर मेरा दृष्टिकोण बदल गया है, या मैं सत्य का अभ्यास करने में समर्थ हूँ। कभी-कभी, यदि मेरी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ अपेक्षाकृत प्रबल होती हैं, और मुझे लगता है कि यह कठिनाई बहुत बड़ी है, तो भले ही मुझमें ऊर्जा का विस्फोट हो, फिर भी मैं इसका अभ्यास नहीं कर पाता। उस समय, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव का अनुसरण करता हूँ, और अच्छा व्यवहार तो बाहरी तौर पर भी नहीं बचता।) यह कैसी परिस्थिति है? क्या तुम अंततः सत्य का अभ्यास करते हो और अपनी गवाही पर दृढ़ रहते हो, या असफल रहते हो? (मैं असफल रहता हूँ।) क्या तुम बाद में चिंतन करते हो और पछतावा महसूस करते हो? क्या दोबारा ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करने पर तुम सुधार कर सकते हो? (असफल होने के बाद, मुझे अपनी अंतरात्मा में थोड़ी बेचैनी महसूस होती है, और जब मैं परमेश्वर के वचनों को खाता-पीता हूँ तो मैं उन्हें खुद से जोड़कर देख पाता हूँ, लेकिन अगली बार इन परिस्थितियों का सामना करने पर वही भ्रष्ट स्वभाव फिर से खुद को प्रकट करता है। इस पहलू में प्रगति अपेक्षाकृत कम है।) क्या अधिकतर लोग स्वयं को इस स्थिति में नहीं पाते हैं? तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? जब भी लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो जिस तरह से वे उन्हें संभालते हैं, इसके अलावा कि उनके विवेक के प्रभाव के कारण उनके व्यवहार में सुधार होता है, या उनका व्यवहार उस समय की स्थितियों और अवस्थाओं के अनुसार और उनकी अलग-अलग मनोदशाओं के अनुसार कभी-कभी अपेक्षाकृत अच्छा और कभी-कभी अपेक्षाकृत निम्नकोटि का होता है—इनके अलावा, उनके अभ्यास का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। इसमें समस्या क्या है? क्या यह व्यक्ति के आध्‍यात्मिक कद का प्रतिनिधित्व करता है? यह कैसा आध्‍यात्मिक कद है? क्या यह छोटा आध्‍यात्मिक कद है, या यह उनकी मानवता की कोई कमजोरी, कमी है या सत्य का अभ्यास न करने का प्रकटन है? यह क्या है? (छोटा आध्‍यात्मिक कद।) जब किसी का आध्‍यात्मिक कद छोटा होता है, तो वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, और चूँकि वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, इसलिए उसका आध्‍यात्मिक कद छोटा होता है। यह कितना छोटा है? इसका मतलब है कि तुमने अभी तक इस मामले में सत्य प्राप्त नहीं किया है। इसका क्या अर्थ है कि तुमने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है? इसका मतलब है कि परमेश्वर के वचन अभी तक तुम्‍हारा जीवन नहीं बने हैं; परमेश्वर के वचन अभी तक तुम्‍हारे लिए एक प्रकार का पाठ, सिद्धांत, या तर्क हैं। वे अभी तक तुममें गढ़े नहीं गए हैं या तुम्‍हारा जीवन नहीं बन पाए हैं। परिणामस्वरूप, तुम्‍हें समझ में आने वाले ये तथाकथित सत्य केवल एक प्रकार का सिद्धांत या नारा हैं। मैं ऐसा क्‍यों कहता हूँ? क्योंकि तुम इस सिद्धांत को अपनी वास्तविकता में नहीं बदल सकते। जब तुम दैनिक जीवन में विभिन्‍न चीजों का सामना करते हो, तो उन्हें सत्य के अनुसार नहीं संभालते; तुम अब भी उन्हें शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार और अंतरात्मा के प्रभाव में संभालते हो। तो जाहिर है, कम-से-कम, इस मामले में तुम्‍हारे पास सत्‍य नहीं है, और तुमने जीवन प्राप्त नहीं किया है। जीवन प्राप्‍त न करने का अर्थ है जीवन न होना; जीवन न होने का अर्थ यह है कि इस मामले में, तुम्‍हें बिल्कुल भी बचाया नहीं गया है, और तुम अब भी शैतान की शक्ति के अधीन जी रहे हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अंतरात्मा के प्रभाव में जो किया जाता है वह अच्छा व्यवहार है या किसी प्रकार का प्रकटीकरण, यह जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता; यह महज सामान्य मानवता का प्रकटीकरण है। यदि इस प्रकटीकरण पर अंतरात्मा का प्रभाव है, तो अधिक-से-अधिक यह एक प्रकार का अच्छा व्यवहार है। यदि अंतरात्मा नहीं, बल्कि व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव मुख्‍य कारक है, तो इस व्यवहार को अच्छा व्यवहार नहीं माना जा सकता; यह भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। तो, तुम लोगों ने किन मामलों में पहले से ही सत्य को वास्तविकता बना लिया है, और जीवन प्राप्त कर लिया है? किन मामलों में तुमने अभी तक सत्य को प्राप्त नहीं किया है और उसे अपना जीवन नहीं बनाया है, और अभी तक सत्य को अपनी वास्तविकता नहीं बनाया है? दूसरे शब्दों में, तुम किन मामलों में परमेश्वर के वचनों को जी रहे हो और उन्हें अपना मानदंड मान रहे हो, और किन मामलों में तुमने अभी भी ऐसा नहीं किया है? हिसाब लगाओ कि ऐसे कितने मामले हैं। यदि तुमने उन सभी का हिसाब लगा लिया है, फिर भी दुर्भाग्यवश ऐसा एक भी मामला नहीं है जिसमें तुमने परमेश्वर के वचनों के आधार पर कार्य किया हो या जीवन जिया हो, बल्कि तुमने अपने क्रोध, अपनी धारणाओं, प्राथमिकताओं या दैहिक इच्‍छाओं या भ्रष्‍ट स्‍वभाव के अनुसार कार्य किया है, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? परिणाम तो बुरा होगा, है न? (हाँ।) तुम लोगों ने कई वर्षों से लेकर आज तक उपदेश सुने हैं, अपने परिवार को त्यागा है, अपना करिअर छोड़ा है, कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है। यदि यह परिणाम है, तो क्या यह खुश होने और जश्न मनाने की बात है या दुखी और चिंतित होने की बात है? (दुखी और चिंतित होने की।) जो व्यक्ति सत्य को वास्तविकता नहीं बनाता, जो परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन नहीं बनाता, वह किस प्रकार का व्यक्ति है? क्या यह वह व्यक्ति नहीं है जो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के पूर्ण नियंत्रण में रहता है, जो उद्धार की आशा देखने में असमर्थ है? (हाँ।) क्या आम तौर पर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते और खुद को जाँचते समय तुम लोगों ने कभी इन प्रश्‍नों के बारे में सोचा है? अधिकतर लोगों ने नहीं सोचा है, सही है न? अधिकतर लोग बस यह सोचते हैं, “मैंने सत्रह वर्ष की उम्र में परमेश्वर में विश्‍वास करना शुरू किया था और अब मैं सैंतालीस का हूँ। मैंने इतने वर्ष परमेश्वर में विश्‍वास किया है और कई बार मुझे पकड़ने की कोशिश की गई है लेकिन परमेश्वर ने मुझे सुरक्षित रखा है और बच निकलने में मेरी मदद की है। मैं गुफाओं और घास की झोपड़ियों में रहा हूँ, कितने ही दिन-रात बिना कुछ खाए गुजारे हैं और घंटों बिना सोए बिताए हैं। मैंने केवल अपना कर्तव्‍य निभाने, अपना काम करने और स्‍वयं को सौंपे गए कार्य को पूरा करने के लिए बहुत कष्‍ट सहे हैं और मैं मीलों चला हूँ। मेरा उद्धार होने की आशा बहुत अधिक है, मैंने पहले ही उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। मैं बहुत भाग्यशाली हुँ! सच में, परमेश्वर को धन्यवाद। यह उसका अनुग्रह है! मैं लौकिक दुनिया की नजरों में बेकार था, कोई भी मुझे ज्‍यादा महत्‍व नहीं देता था, और मैंने खुद को कभी विशेष नहीं माना था, लेकिन परमेश्वर के ऊपर उठाने के कारण, क्योंकि उसने मुझे—जरूरतमंद को—गोबर के ढेर से बाहर निकाला, मैं उद्धार के मार्ग पर आ गया, जिससे मुझे उसके घर में अपना कर्तव्य निभाने का सम्‍मान मिला। उसने मुझे ऊँचा उठाया और वह मुझसे प्रेम करता है! अब मैं इतना अधिक सत्‍य को समझता हूँ और मैंने इतने अधिक वर्षों तक काम किया है। भविष्य में मेरा इनाम मिलना निश्चित बात है। उसे कौन छीन सकता है?” यदि अपना निरीक्षण करते समय तुम केवल इन्‍हीं चीजों के बारे में सोच सके हो, तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं होगी? (हाँ।) मुझे बताओ, तुम लोगों ने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, तुमने इतने कष्‍ट सहे हैं, इतनी दूर तक यात्रा की है, और इतना काम किया है। इतना विश्वास करने के बावजूद अब कुछ लोगों को समूह “ब” में क्यों भेज दिया गया है? अनेक अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अब भेंट फिर से क्यों चुकानी पड़ती है और कर्ज का बोझ क्यों उठाना पड़ता है? क्या चल रहा है? क्या उन्हें पहले ही बचाया नहीं जा चुका है? क्या उनके पास पहले से ही सत्य नहीं है और क्या उन्होंने जीवन प्राप्त नहीं किया है? कुछ लोग स्वयं को परमेश्वर के घर के स्तंभ और आधारशिला मानते थे, यहाँ की दुर्लभ प्रतिभाएँ मानते थे। अब हालात कैसे हैं? यदि इतने वर्षों की पीड़ा और कीमत चुकाने के परिणामस्वरूप उन्हें जीवन और सत्य वास्तविकता प्राप्त होती, उनमें परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण होता, परमेश्वर के प्रति सच्चा भय होता और वे निष्‍ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाते तो क्या इन लोगों को बरखास्त कर दिया गया होता या समूह “ब” में भेजा गया होता? क्या उन पर कर्ज का बोझ डाला गया होता या उन्हें बड़ा दोष दिया गया होता? क्या ये समस्याएँ हुई होतीं? यह काफी शर्मनाक है, है ना? (हाँ।) क्या तुमने कभी सोचा है कि मामला क्या है? कोई व्यक्ति कितना कष्ट सह सकता है या परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए कितनी कीमत चुकाता है, यह उद्धार या सत्य वास्तविकता में प्रवेश का चिह्न नहीं है, न ही यह इस बात का चिह्न है कि उसके पास जीवन है। तो फिर, जीवन और सत्य वास्तविकता होने का चिह्न क्या है? मोटे तौर पर, वह यह है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभाल सकता है; विशेष रूप से यह कि क्या कोई व्यक्ति सत्‍य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखता है, तदनुसार आचरण और कार्य करता है, क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है। यदि अपने कर्तव्य निभाते हुए, तुम अपने देह को अधीन कर सकते हो, कष्ट सह सकते हो, और अपने हर काम में कीमत चुका सकते हो, लेकिन दुर्भाग्य से सबसे महत्वपूर्ण बिंदु को प्राप्त करने में असमर्थ हो, अर्थात् सत्य सिद्धांतों को कायम नहीं रख पाते; तुम चाहे कुछ भी करो, यदि तुम हमेशा अपने हितों के बारे में सोचते हो, हमेशा अपने लिए बच निकलने का रास्ता तलाशते हो, हमेशा खुद को सुरक्षित रखना चाहते हो; और यदि तुम कभी भी सत्य सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते, और परमेश्वर के वचन तुम्‍हारे लिए महज सिद्धांत हैं, तो इस बारे में बात भी मत करो कि तुम मूल्यवान हो या नहीं, या तुम्‍हारे जीवन का कोई मूल्य है या नहीं; सबसे बुनियादी बात यह है कि तुम्‍हारे पास जीवन नहीं है। जीवन विहीन व्यक्ति सबसे अधिक दयनीय होता है। जो व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है और फिर भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करता, और जीवन प्राप्त नहीं करता, ऐसा व्‍यक्ति सबसे दयनीय प्रकार का व्यक्ति होता है और यह सबसे अधिक शोचनीय बात होती है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) मैं यह नहीं कहता कि तुम लोग हर चीज में सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम रहो, लेकिन कम-से-कम, अपने महत्वपूर्ण कर्तव्यों के पालन में और सिद्धांतों से संबंधित अपने दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण मामलों में, तुम्हें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना चाहिए। स्‍वयं में उद्धार की आशा देखने के लिए तुम्‍हें कम-से-कम इस मानक को हासिल करना होगा। लेकिन जहाँ तक अभी की बात है, तुम लोग सबसे बुनियादी अपेक्षा भी पूरी नहीं कर पाए हो, तुमने इसका कोई भाग हासिल नहीं किया है। यह अत्यंत शोचनीय एवं गहन चिंता का विषय है।

परमेश्वर में विश्वास के पहले तीन वर्षों में, लोग खुश और आनंदित रहते हैं। वे प्रतिदिन आशीर्वाद प्राप्त करने और एक शानदार गंतव्य पाने के बारे में सोचते हैं। वे मानते हैं कि बाहरी अच्छे व्यवहार, जैसे परमेश्वर के लिए कष्ट सहना, दौड़-भाग करना और दूसरों की और भी ज्‍यादा मदद करना, और ज्‍यादा अच्छे काम करना और भेंटस्‍वरूप अधिक धन देना, ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर के विश्वासियों को करनी चाहिए। तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, हालाँकि वे कुछ सिद्धांत समझ जाते हैं, लेकिन फिर भी लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करते हैं। इसके बजाय कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार जिएँ, या परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन और वह मानदंड बनाएँ जिससे वे लोगों और चीजों को देखते हैं तथा आचरण और कार्य करते हैं, वे तो अच्छे व्यवहार, अपनी अंतरात्मा और अच्छी मानवता के अनुसार जीते हैं। ऐसे लोग किस रास्ते पर चल रहे हैं? क्या यह वह मार्ग नहीं है जिसका पौलुस ने अनुसरण किया था? (वही है।) वर्तमान में, क्या तुम लोग स्वयं को इस अवस्था में नहीं पाते? यदि तुम अधिकांश समय स्वयं को इसी अवस्था में पाते हो तो क्या इतने उपदेश सुनना उपयोगी है? चाहे तुम किसी भी प्रकार के उपदेश सुनते हो, तुम सत्य को समझने, या अपने दैनिक जीवन में सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के लिए नहीं सुन रहे हो, बल्कि तुम उन्‍हें अपने आध्यात्मिक जगत और मानवीय अनुभवों को समृद्ध करने के लिए सुन रहे हो। ऐसी स्‍थि‍ति में, तुम्‍हें उन्‍हें सुनने की कोई जरूरत नहीं है, है क्‍या? कुछ लोग कहते हैं, “उपदेश नहीं सुनने से काम नहीं चलेगा। यदि मैं उपदेश नहीं सुनता, तो परमेश्वर में मेरा विश्‍वास उत्‍साहपूर्ण नहीं रहता, और जब अपना कर्तव्य निभाने की बात आती है तो मुझमें उत्साह या प्रेरणा नहीं होती। समय-समय पर उपदेश सुनते रहने से, मेरे विश्वास में थोड़ा उत्साह आता है, मैं थोड़ा अधिक परिपूर्ण और समृद्ध महसूस करता हूँ, और फिर जब मैं अपने कर्तव्य में किसी कठिनाई या नकारात्मकता का सामना करता हूँ, तो मेरे पास कुछ प्रेरणा होती है और अधिकतर मैं नकारात्मक नहीं होता।” क्या उपदेश इसी प्रभाव को प्राप्त करने के लिए सुने जाते हैं? अधिकतर लोग जिन्होंने वर्षों से उपदेश सुने हैं, वे कलीसिया नहीं छोड़ते, फिर चाहे कैसे भी उनकी काट-छाँट की जाए, कैसे भी उन्‍हें अनुशासित किया जाए या ताड़ना दी जाए। इस प्रभाव की प्राप्ति का उपदेश सुनने के साथ एक संबंध है, लेकिन मैं केवल यह नहीं देखना चाहता कि प्रत्येक उपदेश सुनने के बाद तुम्‍हारे हृदय की बुझती आग फिर से प्रज्वलित हो जाए। यह बस इस बारे में नहीं है। खाली उत्‍साह व्‍यर्थ है। उत्साह का प्रयोग बुरे कार्य करने अथवा सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। उत्साह का काम है तुम्‍हें एक लक्ष्य और दिशा के साथ सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करना—तुम्‍हें सत्य सिद्धांतों के संबंध में प्रयास करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। तो क्या उपदेश सुनने से यह प्रभाव प्राप्त हो सकता है? प्रत्येक उपदेश के बाद, ऐसा लगता है जैसे तुम्‍हारे हृदय में कोई अग्नि प्रज्‍वलित हो गई हो, तुम्‍हें बिजली का झटका दिया गया हो या तुममें प्राण फूँक दिए गए हों। तुम फिर से उत्साह से परिपूर्ण महसूस करते हो, तुम जानते हो कि अब तुम्‍हें किस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए, तुम बिल्‍कुल भी सुस्‍ताते नहीं या नकारात्‍मक नहीं होते और बमुश्किल ही कमजोर महसूस करते हो। हालाँकि, ये प्रकटन उद्धार प्राप्त करने की शर्तें नहीं हैं। उद्धार प्राप्त करने की कई शर्तें हैं : सबसे पहले, तुममें परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उपदेश सुनने की इच्‍छा होनी चाहिए; दूसरी बात, और यह सबसे महत्वपूर्ण शर्त भी है, चाहे तुम्‍हारा अपने दैनिक जीवन में किसी भी छोटे या बड़े मामले से सामना हो, खासकर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के घर के प्रमुख कार्य से संबंधित मामलों में, अपने ही विचारों के आधार पर कार्य करने, अपनी इच्‍छानुसार कार्य करने या मनमाना और लापरवाह होने के बजाय तुम्‍हें सत्‍य सिद्धांतों को खोजने में सक्षम होना चाहिए। सत्य के बारे में तुम लोगों के साथ अथक रूप से संगति करने और इस तरह के विभिन्न मामलों के सिद्धांतों को समझाने के पीछे मेरा उद्देश्य तुमसे असंभव काम करवाना या तुम्‍हें तुम्‍हारी क्षमताओं से अधिक काम करने को मजबूर करना नहीं है, और यह केवल तुम लोगों को उत्साही बनाना भी नहीं है। बल्कि, यह तुम लोगों को परमेश्वर के इरादे अधिक सटीक रूप से समझाने, विभिन्न चीजों को करने के सिद्धांतों और आधार को समझाने और यह समझाने के लिए है कि लोगों को परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए, यह समझाने के लिए है कि विभिन्‍न मामलों का सामना होने पर अपने भ्रष्ट स्वभावों, विचारों और दृष्टिकोण तथा ज्ञान के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि इन चीजों की जगह सत्य सिद्धांतों से काम लेना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा लोगों को बचाने के प्रमुख तरीकों में से एक है। ऐसा इसलिए है कि तुम अपने सामने आने वाली हर चीज में परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सिद्धांतों के रूप में रख सको ताकि हर मामले में उसके वचनों का शासन हो। दूसरे शब्दों में, ऐसा इसलिए है कि तुम हर मामले में मानवीय बुद्धि और प्राथमिकताओं पर भरोसा करने या मानवीय पसंद, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार उन्‍हें समझने के बजाय, परमेश्वर के वचनों के आधार पर उन्‍हें संभालने और हल करने में सक्षम हो। सत्य के बारे में इस भाँति उपदेश देकर और संगति करके लोगों में परमेश्वर के वचनों और सत्य को गढ़ दिया जाता है जिससे उन्हें ऐसा जीवन मिल जाता है जिसमें सत्य उनकी वास्तविकता होता है। यह उद्धार का लक्षण है। चाहे तुम्‍हें किसी भी चीज का सामना करना पड़े, तुम्‍हें सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के वचनों के संबंध में अधिक प्रयास करना चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति उद्धार का अनुसरण करता है और बुद्धिमान होता है। जो लोग हमेशा बाहरी व्यवहारों, औपचारिकताओं, सिद्धांतों और नारों के संबंध में प्रयास करते हैं, वे मूर्ख होते हैं। वे उद्धार का अनुसरण करने वाले लोग नहीं होते। तुम लोगों ने पहले कभी इस तरह की चीजों पर विचार नहीं किया है, या शायद ही कभी विचार किया हो, इसलिए जब सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करने के इन मामलों की बात आती है, तो तुम लोगों का दिमाग मूल रूप से खाली होता है। तुम लोग नहीं सोचते कि यह मामला महत्वपूर्ण है, इसलिए तुम जब भी सत्य सिद्धांतों से संबंधित स्थितियों का सामना करते हो, खासकर जब यह कुछ प्रमुख स्थितियों की बात आती है, जब तुम्‍हारा सामना कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे मसीह-विरोधियों या बुरे लोगों से होता है तो तुम लोग हमेशा बहुत निष्क्रिय रहते हो। तुम नहीं जानते कि इन मामलों को कैसे संभालना है और इन्‍हें अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों और भावनाओं के आधार पर समझते हो। तुम कलीसिया के काम की रक्षा में खड़े होने में असमर्थ हो, और अंततः, हमेशा असफल रहते हो, और लापरवाही और जल्दबाजी में मामले को रफा-दफा कर देते हो। यदि इन मामलों में कोई जाँच नहीं की जाती है, तो तुम जैसे-तैसे अपना काम करते रहोगे। यदि यह पता लगाने के लिए जाँच की जाती है कि कौन जिम्मेदार है तो तुम्‍हें अपने पद से हटाया जा सकता है या किसी अलग कर्तव्य में लगाया जा सकता है; या इससे भी बदतर, तुम्‍हें समूह “ब” में भेजा जा सकता है, या कुछ लोगों को बाहर भी किया जा सकता है। क्या तुम लोग ऐसे परिणाम चाहते हो? (नहीं।) यदि किसी दिन वास्तव में तुम्‍हें अपने पद से हटा दिया जाता है या अपना कर्तव्‍य निभाने से रोक दिया जाता है, या अधिक गंभीर स्थिति में यदि तुम्‍हें किसी साधारण कलीसिया या समूह “ब” में भेज दिया जाता है, तो क्या तुम लोग आत्‍मचिंतन करोगे? “क्या मैंने परमेश्वर में इसलिए विश्वास किया था कि मैं यहाँ पहुँच जाऊँ? क्या मैंने समूह ‘ब’ में डाले जाने या बाहर निकाल दिए जाने के लिए अपनी नौकरी, अपनी संभावनाएँ, अपना परिवार और इतना सब कुछ त्यागा था? क्या मैंने परमेश्वर का विरोध करने के लिए उस पर विश्वास किया था? निश्चित रूप से परमेश्वर में मेरी आस्था का यह उद्देश्य तो नहीं होना चाहिए? तो फिर मैं परमेश्वर में विश्वास किस लिए कर रहा हूँ? क्या मुझे इस पर विचार नहीं करना चाहिए? परमेश्वर पर विश्वास करने की बात अलग रखते हुए अभी के लिए बस उसके इरादे पूरे करने के लिए कम-से-कम मुझे जीवन प्राप्त करना चाहिए और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। कम से कम, मुझे यह समझने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और सत्य का कौन-सा पहलू मेरा जीवन बन गया है। मुझे जीने के लिए, शैतान और स्‍वयं अपने भ्रष्‍ट स्‍वभावों पर विजय पाने के लिए सत्‍य पर निर्भर होने में समर्थ होना चाहिए और मुझे अपनी देह की इच्छाओं से विद्रोह करने और धारणाओं को त्‍यागने में सक्षम होना चाहिए। जब मुझ पर विपत्ति आए तो मुझे सत्‍य सिद्धांतों को कायम रखना चाहिए। मुझे अपने भ्रष्‍ट स्‍वभावों के अनुसार कार्य नहीं करना चाहिए। मुझे बिना किसी समस्‍या या बाधा के, परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्‍वाभाविक और सुचारू रूप से कार्य करने में समर्थ होना चाहिए। मुझे गहराई से महसूस करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन और सत्य पहले से ही मुझमें गढ़ दिए गए हैं, मेरा जीवन बन गए हैं, और मेरी मानवता का हिस्सा बन गए हैं। यह एक आनंददायक और उत्‍सव मनाने लायक बात है।” क्या तुम लोग आम तौर पर ऐसा महसूस करते हो? परमेश्वर में अपने विश्‍वास के दौरान वर्षों तक तुमने जिन कष्टों को सहा है और जिन कीमतों को चुकाया है, जब तुम उनका जायजा लोगे तो अपने दिल में अद्भुत महसूस करोगे, तुम्‍हें महसूस होगा कि तुम्‍हारे उद्धार की आशा है, और तुमने सत्य समझने और स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने की मिठास का स्‍वाद चख लिया है। क्या तुम लोगों ने ऐसी चीजों को महसूस या अनुभव किया है? यदि नहीं किया है, तो तुम लोगों को क्या करना चाहिए? (सत्य का अभी से गंभीरता से अनुसरण करना शुरू करना चाहिए।) अभी से गंभीरता से इसका अनुसरण करना शुरू करो—लेकिन तुम्‍हें इसका अनुसरण कैसे करना चाहिए? तुम्हें उन मामलों पर विचार करने की जरूरत है जिनमें तुम अक्सर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो। परमेश्वर ने तुम्‍हें सबक सिखाने के लिए बार-बार तुम्‍हारे लिए परिस्थितियाँ तैयार की हैं, ताकि इन मामलों के माध्यम से तुम बदल सको, उसके वचन तुममें कार्यरत हों, और तुम सत्य वास्तविकता के किसी पहलू में प्रवेश कर सको, उन मामलों में तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना बंद करके परमेश्वर के शब्दों के अनुसार जिओ, और उसके वचन तुममें गढ़ दिए जाएँ और वे तुम्‍हारा जीवन बन जाएँ। लेकिन तुम अक्सर इन मामलों में परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, न तो उसके प्रति समर्पण करते हो और न ही सत्य स्वीकार करते हो, न ही उसके वचनों को ऐसे सिद्धांतों के रूप में लेते हो जिनका तुम्‍हें पालन करना चाहिए, और न ही उसके वचनों को जीते हो। इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचती है और तुम बार-बार उद्धार का अवसर खो देते हो। तो तुम्‍हें स्‍वयं को कैसे बदलना चाहिए? आज से ही, ऐसे मामलों में जिनकी तुम आत्‍मचिंतन के जरिये पहचान कर सकते हो और स्‍पष्‍ट रूप से समझ सकते हो, तुम्‍हें परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण करना चाहिए, उसके वचनों को सत्य वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना चाहिए, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और अपने जीने के तरीके को बदलना चाहिए। इस तरह की स्‍थ‍ितियों का सामना करने पर तुम्‍हें अपनी देह की इच्छाओं और प्राथमिकताओं से विद्रोह करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (हाँ है।) यदि तुम केवल भविष्य में ईमानदारी से प्रयास करने का इरादा रखते हो, लेकिन अभ्यास के एक विशिष्ट मार्ग का अभाव है, तो यह किसी काम का नहीं है। यदि तुम्‍हारे पास अभ्यास का यह विशिष्ट मार्ग है और तुम अपनी देह की इच्छाओं से विद्रोह कर इस तरह से नई शुरुआत करने को तैयार हो, तो तुम्‍हारे लिए अभी भी आशा बनी हुई है। यदि तुम इस तरह से अभ्यास करने को तैयार नहीं हो और इसके बजाय पुराने विचारों से चिपके हुए उन्हीं पुराने रास्तों पर टिके रहते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते रहते हो तो हमारे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है। यदि तुम केवल मजदूर बनकर ही संतुष्ट हो, तो कहने को और बचा ही क्या है? उद्धार के मामले का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, और तुम्‍हारी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए चर्चा करने के लिए और कुछ नहीं है। यदि तुम वास्तव में सत्य और उद्धार का अनुसरण करने के इच्छुक हो, तो पहला कदम अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपने विभिन्न भ्रामक विचारों, धारणाओं और कार्यों से अलग होने से शुरुआत करना है। उन वातावरणों को स्वीकार करो जो परमेश्वर ने तुम्‍हारे लिए दैनिक जीवन में व्यवस्थित किए हैं, उसकी जाँच, परीक्षण, ताड़ना और न्याय को अपनाओ, जब खुद पर संकट आता है तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार धीरे-धीरे अभ्यास करने का प्रयास करो और परमेश्वर के वचनों को उन सिद्धांतों और मानदंडों में बदल दो जिनसे तुम अपने दैनिक जीवन तथा अपने जीवन में आचरण और कार्य करते हो। यही वह चीज है जो सत्य का अनुसरण करने वाले में प्रकट होनी चाहिए, और यही वह चीज है जो उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में प्रकट होनी चाहिए। यह आसान लगता है, ये चरण सरल हैं और इनकी कोई लंबी व्याख्या नहीं है, लेकिन इसे अभ्यास में लाना इतना आसान नहीं है। ऐसा इसलिए है कि लोगों के भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें हैं : उनकी क्षुद्रता, छोटे-छोटे षड्यंत्र, स्वार्थ और नीचता, उनके भ्रष्ट स्वभाव और सभी प्रकार की चालें। इस सबसे बढ़कर, कुछ लोगों के पास ज्ञान होता है, उन्होंने सांसारिक आचरण के लिए कुछ फलसफे और समाज में जोड़-तोड़ की तरकीबें सीखी होती हैं, और उनमें उनकी मानवता के संदर्भ में कुछ कमियाँ और खामियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग पेटू और आलसी, कुछ वाचाल तो कुछ गंभीर रूप से कुटिल प्रकृति वाले होते हैं, वहीं कुछ लोग घमंडी या अपने कार्यों में उतावले और आवेगी होते हैं साथ ही उनमें अन्‍य अनेक दोष होते हैं। ऐसी कई कमियाँ और समस्याएँ हैं जिन्हें लोगों को उनकी मानवता के संबंध में दूर करने की आवश्यकता है। हालाँकि, यदि तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहते हो, और सत्य तथा जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्‍हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए, उसके वचनों का अभ्‍यास करने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ होना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को कायम रखने से शुरुआत करनी चाहिए। ये केवल कुछ सरल वाक्य हैं, फिर भी लोग नहीं जानते कि इनका अभ्यास या अनुभव कैसे किया जाए। तुम्‍हारी क्षमता या शिक्षा जो भी हो, और तुम्‍हारी उम्र कितनी भी हो या विश्वास करते कितने भी वर्ष बीते हों, चाहे जो हो, यदि तुम सही लक्ष्यों और दिशा के साथ सत्य का अभ्यास करने के सही रास्ते पर हो, और यदि तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सब सत्य का अभ्यास करने के लिए है, तो अंततः तुम जो हासिल करोगे वह निस्संदेह सत्य वास्तविकता होगी और परमेश्वर के वचन तुम्‍हारा जीवन बन जाएँगे। पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करो, फिर धीरे-धीरे इस मार्ग के अनुसार अभ्यास करो और अंततः तुम्‍हें कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त होगा। क्या तुम्‍हें इस पर विश्वास है? (हाँ।)

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