सत्य का अनुसरण कैसे करें (2) भाग दो

इस प्रकार संगति करने से, क्या तुम सब समझ पाए हो कि हमेशा अपने भाग्य को खराब बताने वाले लोगों के विचार और नजरिए सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) साफ तौर पर, अतिवाद में फँसने के कारण इन लोगों को अवसाद की भावना का अनुभव होता है। चूँकि उनमें अतिवादी विचारों और नजरियों की वजह से अवसाद की यह अति भावना होती है, इसलिए वे जीवन में होनेवाली चीजों का सही ढंग से सामना नहीं कर पाते, जो कार्य लोगों को अमल में लाने चाहिए, वे उन्हें नहीं ला पाते, न ही एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा पाते हैं। इसलिए, वे विविध किस्म के उन लोगों जैसे ही होते हैं, जो नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, जिनकी चर्चा हमने अपनी पिछली संगति में की थी। हालाँकि अपने भाग्य को खराब समझनेवाले ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, चीजों को छोड़ने में समर्थ होते हैं, और खुद को खपाकर परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, फिर भी वे उसी तरह परमेश्वर के घर में एक स्वतंत्र, मुक्त और आरामदेह तरीके से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? इसलिए कि वे अपने भीतर बहुत-से चरम और असामान्य विचार और नजरिये छुपाए होते हैं, जिनसे उनमें अतिवादी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन अतिवादी भावनाओं के कारण चीजों की उनकी परख, उनकी सोच, और चीजों के बारे में उनका नजरिया एक अतिवादी, गलत और विकृत दृष्टिकोण से उपजता है। वे समस्याओं और लोगों को इस अतिवादी और गलत दृष्टिकोण से देखते हैं, जिससे वे बार-बार इस नकारात्मक भावना के असर और प्रभाव में जीते, लोगों और चीजों को देखते एवं आचरण और कार्य करते हैं। अंत में, वे जैसे भी जियें, वे इतने थके हुए लगते हैं कि परमेश्वर में आस्था और सत्य के अनुसरण के लिए कोई जोश नहीं जुटा पाते। वे अपना जीवन किसी भी तरह से जीना पसंद करें, वे सकारात्मक या सक्रिय ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद वे हृदय और प्राण से अपना कर्तव्य निभाने या अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने पर कभी ध्यान नहीं देते, जाहिर है, सत्य का अनुसरण करना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। ऐसा क्यों है? अंतिम विश्लेषण में, ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और इससे उनमें गहन अवसाद की भावना पैदा हो जाती है। वे पूरी तरह से मायूस, विवश, जिंदा लाश की तरह, शक्तिहीन हो जाते हैं, कोई सकारात्मक या आशावादी व्यवहार नहीं दर्शाते, अपने कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित करने का संकल्प या सहनशीलता दिखाना तो दूर की बात है। इसके बजाय वे अनमने ढंग से हर दिन एक ढुलमुल रवैये के साथ निरुद्देश्य और भ्रमित होकर संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि अनजाने ही दिन गुजारते जाते हैं। उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि वे कब तक यूँ ही जैसे तैसे काम चलाते रहेंगे। अंत में, उनके पास यह कहकर खुद को फटकारने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होता, “ओह, जब तक जैसे तैसे काम चल जाए, तब तक मैं जीता रहूँगा! अगर किसी दिन मैं आगे इसी तरह जीता न रह सकूँ, और कलीसिया मुझे निष्कासित कर हटा देना चाहे, तो उसे बस मुझे हटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मेरा भाग्य खराब है!” देखा, उनकी बातें भी बेहद हारी हुई होती हैं। अवसाद की यह भावना सिर्फ एक सरल-सी मनःस्थिति नहीं है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण तौर पर लोगों के विचारों, दिलों और उनके अनुसरण पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। यदि तुम समय रहते तेजी से अपनी अवसादपूर्ण भावना को नहीं पलट सकते, तो यह न सिर्फ तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करेगी, बल्कि तुम्हारे जीवन को नष्ट कर तुम्हें मृत्यु के कगार पर भी पहुँचा देगी। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास रखो, फिर भी सत्य हासिल कर उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे, और अंत में, तुम नष्ट हो जाओगे। इसीलिए जो लोग मानते हैं कि उनका भाग्य खराब है, उन्हें अब जाग जाना चाहिए; हमेशा गौर करते रहना कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब, हमेशा किसी किस्म के भाग्य का अनुसरण करना, हमेशा अपने भाग्य को लेकर परेशान रहना—यह अच्छी बात नहीं है। हमेशा अपने भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेने पर, थोड़ी-सी गड़बड़ी या निराशा होने, या विफलता, रुकावटें आने या शर्मिंदगी होते ही तुम फौरन यह मानने लगते हो कि यह तुम्हारे खराब भाग्य और बदकिस्मती के कारण है। इसलिए, तुम बार-बार खुद को याद दिलाते हो, कि तुम एक खराब भाग्य वाले व्यक्ति हो, दूसरे लोगों की तरह तुम्हारा भाग्य अच्छा नहीं है, और तुम बार-बार खुद को अवसाद में डुबो लेते हो, अवसाद की नकारात्मक भावना से घिरकर बंध जाते हो और उसी में फँसे रहते हो, और उसमें से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा होना बहुत डरावनी और खतरनाक बात है। हालाँकि अवसाद की इस भावना से शायद तुम अधिक अहंकारी और कपटी न बनो, या तुम धूर्तता या हठ या ऐसे ही अन्य भ्रष्ट स्वभाव न दिखाओ; यह शायद इस स्तर तक न पहुँचे कि तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर परमेश्वर की अवज्ञा करो, या तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाकर सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करो, या तुम बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करो, या बुरे काम करो, फिर भी सार के संदर्भ में, अवसाद की यह भावना लोगों के वास्तविकता के प्रति असंतोष की अत्यंत गंभीर अभिव्यक्ति है। सार रूप में, वास्तविकता के प्रति असंतोष की यह अभिव्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति भी असंतोष है। और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति असंतोष के क्या परिणाम होते हैं? वे निश्चित रूप से बहुत गंभीर हैं, और ये कम-से-कम तुमसे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसकी अवज्ञा करवायेंगे, और तुम्हें इस ओर आगे बढ़ाएँगे कि तुम परमेश्वर के कथनों और पोषण को स्वीकार करने में असमर्थ हो जाओ, और उसकी शिक्षाओं, आग्रहों, अनुस्मारकों, चेतावनियों को सुनने में असमर्थ हो जाओ। चूँकि तुम अवसाद की भावना से भरे हुए हो, इसलिए तुम परमेश्वर के मौजूदा कथनों को स्वीकार करने में असमर्थ हो, और तुम्हारे पास परमेश्वर के यथार्थवादी कार्य, और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन, मदद, समर्थन और पोषण को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं है। हालाँकि परमेश्वर कार्यरत है, लेकिन तुम उसे महसूस करने में असमर्थ हो; हालाँकि परमेश्वर और पवित्र आत्मा कार्यरत हैं, तुम उसे स्वीकार करने में असमर्थ हो। तुम परमेश्वर से इन सकारात्मक चीजों, अपेक्षाओं और पोषण को स्वीकार नहीं कर सकते, तुम्हारा दिल और कुछ नहीं, बस अवसाद की इस भावना से भरा हुआ है, और परमेश्वर के किसी भी कार्य का तुम पर असर नहीं होता। अंत में, तुम परमेश्वर के कार्य के हर कदम से चूक जाओगे, उसके कथनों के प्रत्येक चरण से चूक जाओगे, परमेश्वर के कार्य के हर चरण और तुम्हारे लिए उसके पोषण से भी वंचित रह जाओगे। जब परमेश्वर के कथन और उसके कार्य के सभी कदम पूरे हो चुके होंगे, तो भी तुम अपनी अवसाद की भावना को दूर नहीं कर पाओगे, तुम उसे पीछे नहीं छोड़ पाओगे, तुम अवसाद की भावना से घिरे रहोगे, उससे भरे रहोगे, और फिर तुम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य से चूक गए होगे। एक बार जब तुम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य से चूक जाओगे, तो आखिरकार तुम्हें मानवजाति के लिए उसके खुले न्याय और निंदा का सामना करना पड़ेगा, और वही समय होगा जब परमेश्वर मानवजाति के अंत की घोषणा करेगा। तभी तुम्हें एहसास होगा, “ओह, मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए, मुझे अवसाद की इस भावना को पीछे छोड़ देना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना चाहिए, परमेश्वर के समक्ष आकर उसकी मदद और समर्थन, उसका पोषण, उसकी ताड़ना और न्याय स्वीकार करने का तरीका खोजना और शुद्ध होना चाहिए, ताकि मैं उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकूँ।” बहुत देर हो चुकी है! यह सब अब तुम पीछे छोड़ आए हो। अब जागने में बहुत देर हो चुकी है, और तुम्हारी प्रतीक्षा में क्या है? तुम अपनी छाती पीटकर रोओगे, और खेद से भर जाओगे। भले ही अवसाद बस एक प्रकार की भावना है, मगर इसकी प्रकृति और इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं, इसलिए तुम्हें सावधानी से अपनी जाँच करनी चाहिए, और अवसाद की इस भावना को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए, या इन्हें अपने विचारों और अनुसरण के लक्ष्यों को नियंत्रित नहीं करने देना चाहिए। तुम्हें इसे दूर करना होगा, सत्य के अनुसरण के तुम्हारे मार्ग का रोड़ा नहीं बनने देना होगा, और परमेश्वर के समक्ष आने से तुम्हें रोकनेवाली दीवार नहीं बनने देना होगा। यदि तुम साफ तौर पर इससे अवगत हो जाते हो, या आत्म-परीक्षा से तुम अवसाद की इस गंभीर भावना को देखते हो, तो तुम्हें फौरन रास्ता बदल देना चाहिए, इस भावना को त्याग देना चाहिए, और अवसाद की इस भावना को पीछे छोड़ देना चाहिए। तुम्हें अड़ियल ढंग से यह सोचकर जिद के साथ अपने रास्ते में अड़े नहीं रहना चाहिए, “परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे या करे, मुझे मालूम है कि मेरा भाग्य खराब है। जब भाग्य ही खराब है, तो मुझे अवसादित महसूस करना चाहिए। खराब भाग्य के साथ मुझे बस उसे स्वीकार कर लेना चाहिए और पूरी आशा छोड़ देनी चाहिए।” जो कुछ भी होता है उसका ऐसे नकारात्मक रवैये के साथ सामना करना, एकनिष्ठा से अड़ियल होना है। जब तुम्हें एहसास होता है कि तुममें अवसाद की यह भावना है, तो तुम्हें खुद को पूरी तरह बदलकर जल्द-से-जल्द इसे दूर करना चाहिए। यह तुम्हें पूरी तरह नियंत्रित कर ले, तब तक प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तब जागोगे तो बहुत देर हो चुकी होगी।

बोलो, क्या भाग्य पर विश्वास करना सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है? (नहीं, यह नहीं है।) तो भाग्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में लोगों को कौन-सा सही रवैया अपनाना चाहिए? (उन्हें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में विश्वास रखना चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए।) सही बात है। अगर कोई हमेशा इस बात पर ध्यान दे कि उसका भाग्य अच्छा है या खराब, तो इससे कौन-सी समस्या हल होगी? यह मान लेना कि उसका भाग्य खराब है लेकिन यह विश्वास करना कि उसके खराब भाग्य को परमेश्वर ने आयोजित और व्यवस्थित किया है, और फिर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होना—यह दृष्टिकोण सही है या नहीं? (नहीं, यह गलत है।) यह गलत कैसे है? (क्योंकि इस दृष्टिकोण में उसके भाग्य के अच्छे या खराब होने की व्याख्या निहित है।) क्या यह एक नियम है? यहाँ वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए? (भाग्य को अच्छा या खराब नहीं कहा जा सकता। परमेश्वर द्वारा तय की गई हर चीज अच्छी है, और लोगों को परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए।) लोगों को विश्वास करना चाहिए कि भाग्य को परमेश्वर ही आयोजित और व्यवस्थित करता है, और चूँकि इसे परमेश्वर ही आयोजित और व्यवस्थित करता है, इसलिए वे उसके अच्छे या खराब होने की बात नहीं कर सकते। यह अच्छा है या खराब, इसका फैसला लोगों के नजरियों, राय, झुकावों, और भावनाओं के आधार पर होता है, और यह फैसला उनकी कल्पनाओं और विचारों पर आधारित होता है, और यह सत्य के अनुरूप नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा भाग्य अद्भुत है, मैं विश्वासियों के परिवार में पैदा हुआ था। मैं कभी भी गैर-विश्वासियों संसार के माहौल से प्रभावित नहीं हुआ, और कभी भी गैर-विश्वासियों की प्रवृत्तियों से प्रभावित, प्रलोभित या गुमराह नहीं हुआ। हालाँकि मुझमें भी भ्रष्ट स्वभाव हैं, पर मैं कलीसिया में बड़ा हुआ और कभी भी नहीं भटका। मेरा भाग्य इतना अच्छा है!” क्या उनकी बात सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? (उनका विश्वासियों के परिवार में पैदा होना परमेश्वर द्वारा तय किया गया था, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। इसका उनके भाग्य के अच्छे या खराब होने से कोई लेना-देना नहीं है।) सही है, तुमने बिल्कुल सच्ची बात कही है। यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। यह एक तरीका है जिसमें परमेश्वर मनुष्य के भाग्य की व्यवस्था कर उस पर संप्रभुता रखता है, और यह एक रूप है जो भाग्य ले सकता है—लोगों को इस मामले को इससे नहीं परखना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब। कुछ लोग कहते हैं कि उनका भाग्य इसलिए अच्छा है क्योंकि वे एक ईसाई परिवार में जन्मे थे, तो तुम इसका खंडन कैसे करोगे? तुम कह सकते हो, “तुम एक ईसाई परिवार में पैदा हुए और मान लिया कि तुम्हारा भाग्य अच्छा है, यानी ईसाई परिवार में पैदा न होनेवाले हर व्यक्ति का भाग्य खराब होना चाहिए? क्या तुम कह रहे हो कि परमेश्वर ने इन सबके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है वह खराब है?” क्या उनकी बात का ऐसे खंडन करना सही है? (जरूर है।) ऐसे खंडन करना सही है। उनका ऐसे खंडन करके तुम दिखा रहे हो कि उनके इस कथन का समर्थन नहीं किया जा सकता और यह सत्य के अनुरूप नहीं है कि ईसाई परिवारों में जन्मे लोगों का भाग्य अच्छा होता है। अब, क्या अच्छे और खराब भाग्य के बारे में तुम्हारी राय पहले से थोड़ी ज्यादा सही है? (हाँ।) भाग्य में विश्वास करने को लेकर लोगों को कौन-सा नजरिया अपनाना चाहिए जो सबसे सही, सबसे उपयुक्त, और सत्य के अनुरूप हो? अव्वल तो सांसारिक लोगों के नजरिये से तुम भाग्य के अच्छे या खराब होने का फैसला नहीं कर सकते। यही नहीं, तुम्हें मानना चाहिए कि मानवजाति के प्रत्येक सदस्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों व्यवस्थित हुआ है। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर के हाथों व्यवस्थित होने का अर्थ क्या यह है कि इसे परमेश्वर स्वयं व्यवस्थित करता है?” नहीं, यह अर्थ नहीं है। अनेक तरीकों, उपायों और माध्यमों से परमेश्वर मनुष्य के भाग्य की व्यवस्था करता है और आध्यात्मिक क्षेत्र में इसकी जटिल बारीकियाँ हैं, जिसके बारे में मैं यहाँ नहीं बोलूँगा। यह एक बहुत जटिल विषय है, मगर साधारणतः इन सबकी व्यवस्था सृजनकर्ता करता है। विविध किस्म के लोगों के लिए इनमें से कुछ व्यवस्थाएँ परमेश्वर स्वयं करता है, जबकि कुछ में परमेश्वर द्वारा तय अधिनियमों, प्रशासनिक आदेशों, सिद्धांतों और प्रणालियों के अनुसार विविध प्रकार के लोगों और लोगों के समूहों का वर्गीकरण शामिल होता है; आध्यात्मिक क्षेत्र में, परमेश्वर द्वारा तय श्रेणी और भाग्य के पथ के अनुसार लोगों के भाग्य व्यवस्थित और सूत्रबद्ध किए जाते हैं, और वे जन्म लेते हैं। यह एक बहुत विस्तृत विषय है, लेकिन साधारणतः परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था कर उन पर अपनी संप्रभुता रखता है। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के सिद्धांत, कानून और नियम होते हैं। यहाँ कुछ भी अच्छा या खराब नहीं होता, परमेश्वर के लिए बेशक यह कारण और प्रभाव से जुड़ी सहज बात है। लोग भाग्य के बारे में कैसा महसूस करते हैं, उसे लेकर उनकी भावनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, हो सकता है ऐसे भाग्य हों जिनमें सब-कुछ आसानी से हो जाए, ऐसे भाग्य हों जिनके रास्तों में रोड़े भरे हों, ऐसे भाग्य हों जो कठिन हों, दुःख देते हों—भाग्य अच्छे या खराब नहीं होते। भाग्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, सक्रियता और मेहनत से इन सब चीजों की व्यवस्था में सृष्टिकर्ता का प्रयोजन और अर्थ खोजना चाहिए, और सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा इस जीवन में तुम्हारे लिए व्यवस्थित बड़े-से-बड़े कार्यकलाप पूरे करने चाहिए, सृजित प्राणी के कर्तव्य, दायित्व और उत्तरदायित्व निभाने चाहिए, और अपने जीवन को तब तक और अधिक सार्थक और मूल्यवान बनाना चाहिए जब तक कि अंततः सृष्टिकर्ता खुश होकर तुम्हें याद न रखने लगे। बेशक, इससे भी अच्छा यह होगा कि तुम अपनी खोज और मेहनतकश प्रयासों से उद्धार प्राप्त करो—यह परिणाम सर्वोत्तम होगा। किसी भी हाल में, भाग्य के मामले में, सृजित मानवजाति को जो सबसे उपयुक्त रवैया अपनाना चाहिए, वह मनमाने फैसले और परिभाषा का नहीं है, या इससे निपटने के लिए अतिवादी विधियों के प्रयोग करने का नहीं है। बेशक लोगों को अपने भाग्य का प्रतिरोध करने, उसे चुनने या बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसके बजाय उन्हें सकारात्मक ढंग से इसका सामना करने से पहले, अपने दिल से इसकी सराहना कर, खोजना, अधिक जानना और इसका पालन करना चाहिए। अंततः जीने के माहौल और जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय यात्रा में, तुम्हें वह आचरण विधि खोजनी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हें सिखाता है, वह मार्ग खोजना चाहिए जिसे अपनाने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, और इस प्रकार परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करना चाहिए, और अंत में, तुम आशीष पाओगे। जब तुम सृष्टिकर्ता द्वारा इस तरह तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करोगे, तब तुम जिसे समझ पाओगे वह सिर्फ दुख, विषाद, आँसू, पीड़ा, निराशा और विफलता ही नहीं, बल्कि अधिक अहम तौर पर तुम उल्लास, शांति और सुकून का अनुभव करोगे, और साथ ही प्रबुद्धता और सत्य की रोशनी का भी अनुभव करोगे, जो परमेश्वर तुम्हें प्रदान करता है। इसके अलावा, जब तुम जीवन के अपने मार्ग में खो जाओगे, जब निराशा और विफलता से तुम्हारा सामना होगा, और तुम्हें एक विकल्प चुनना होगा, तब तुम सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुभव करोगे, और अंत में, तुम अत्यंत सार्थक जीवन जीने के तरीके की समझ और अनुभव हासिल कर उसे सराह सकोगे। फिर अपने भाग्य को खराब मानने के कारण अवसाद की भावना में डूबना तो दूर की बात रही, तुम कभी भी जीवन में दोबारा खोओगे नहीं, कभी भी निरंतर व्याकुलता की अवस्था में नहीं रहोगे, और बेशक कभी भी भाग्य खराब होने की शिकायत नहीं करोगे। यदि तुम ऐसा रवैया रखो और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित भाग्य का सामना करने के लिए इस तरीके का प्रयोग करो, तो न केवल तुम्हारी मानवता और अधिक सामान्य हो जाएगी, तुम सामान्य मानवता वाले बन जाओगे और तुम्हारे पास सामान्य मानवता की चीजों को देखने के तरीके पर सोच, नजरिया और सिद्धांत होंगे, बल्कि बेशक तुम जीवन के उस अर्थ के बारे में नजरिये और समझ पा लोगे, जो गैर-विश्वासियों के पास कभी नहीं होगा। गैर-विश्वासी हमेशा कहते हैं, “हम कहाँ से आते हैं? हम कहाँ जाते हैं? हम जीवित क्यों हैं?” हमेशा ऐसा कोई-न-कोई होता है जो यह सवाल पूछता है, और अंत में वे क्या जवाब देते हैं? उनके उत्तर प्रश्नचिह्नों में समाप्त होते हैं, उत्तर में नहीं। वे इन प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं ढूँढ़ पाते? हालाँकि कुछ बुद्धिमान लोग भाग्य में विश्वास करते हैं, पर वे नहीं जानते कि भाग्य के मामले से कैसे पेश आएँ, या उनके भाग्य में पैदा होनेवाली अनगिनत कठिनाइयों, निराशाओं, विफलताओं और अप्रसन्नता को कैसे झेलें; न ही वे यह जानते हैं कि उनके भाग्य में होनेवाली उन चीजों से कैसे पेश आएँ जो उन्हें उल्लास और खुशी देती हैं—वे नहीं जानते कि उन्हें कैसे सँभालें। एक क्षण वे कहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है, और दूसरे ही क्षण कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है; एक क्षण वे कहते हैं कि उनका जीवन खुशहाल है, और दूसरे ही क्षण कहते हैं कि उनका जीवन अभागा है—वे उसी मुँह से दोनों बातें कहते हैं। वे खुश होने पर एक बात कहते हैं और अप्रसन्न होने पर दूसरी; वे चीजें आसानी से हो जाने पर एक बात कहते हैं और चीजें आसानी से न होने पर दूसरी; वे ही हैं जो खुद को अभागा बताते हैं, और वे ही अपने भाग्य को अच्छा भी कहते हैं। साफ तौर पर, वे बिना किसी स्पष्टता और समझ के जीते हैं। वे हमेशा धुंधलके में टटोलते रहते हैं, पशोपेश में जीते हैं, और उनके सामने कोई रास्ता नहीं है। इसलिए, इस बारे में लोगों के सामने स्पष्ट समझ के साथ स्पष्ट मार्ग होना चाहिए कि भाग्य के साथ सही ढंग से कैसे पेश आएँ, वे क्या करें, और जीवन में इस बड़े मसले का सामना कैसे करें। एक बार यह समस्या दूर हो जाए, तो भाग्य को लेकर लोगों के रवैये और नजरिये अपेक्षाकृत ज्यादा सही होने चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिए, और फिर वे कभी भी इस विषय में अतिवादी नहीं होंगे।

मैंने अभी भाग्य के बारे में जिन कहावतों पर संगति की है, क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? (जरूर हैं।) क्या तुम जानते हो कि सत्य के अनुरूप होनेवाली कहावतों के लक्षण क्या होते हैं? (इन्हें सुनने पर लोग ज्यादा स्पष्टता और ज्यादा आराम महसूस करते हैं।) (वे अधिक व्यावहारिक होते हैं और इनमें अभ्यास के मार्ग निहित होते हैं।) यह सही है, ये ज्यादा व्यावहारिक हैं; यह इस बात को रखने का अधिक सही तरीका है। इसका वर्णन करने के और भी अधिक सही तरीके हैं। अब आगे कौन बोलेगा? (ये लोगों की मौजूदा समस्याएँ हल कर सकती हैं।) यह उनकी व्यावहारिकता का प्रभाव है। ये व्यावहारिक होने के कारण समस्याएँ सुलझा सकती हैं। लोग भाग्य में विश्वास करते हैं, लेकिन उनके दिमाग हमेशा अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विचार में उलझे रहते हैं, तो बताओ भला, क्या वे अपने अंतरतम में मुक्त और स्वतंत्र हैं, या वे बंधे हुए हैं? (वे बंधे हुए हैं।) यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम निरंतर इस विचार से बंधे रहोगे। एक बार सत्य समझ लेने पर, यह महसूस करने के अलावा कि यह व्यावहारिक है और तुम्हारे पास आगे का रास्ता है, तुम और क्या महसूस करोगे? (मुक्त।) सही है, तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे। जब तुम्हारे सामने अभ्यास का मार्ग हो और अब तुम फँसे हुए नहीं हो, तब क्या तुम्हारी आत्मा मुक्त और स्वतंत्र नहीं होगी? वे विकृत और बेतुके विचार तुम्हारी सोच या तुम्हारे हाथ-पाँव को बाँध नहीं पाएँगे; तुम्हारे पास अनुसरण का मार्ग होगा, और तुम अब उन नजरियों से नियंत्रित नहीं रहोगे। एक बार मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संगति सुन लेने पर तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे, और कहोगे, “ओह, तो ऐसा है! वाह, पहले भाग्य के बारे में मेरी समझ कितनी विकृत और अतिवादी थी! अब मैं समझ गया हूँ और अब मैं भाग्य के अच्छे या खराब होने के भ्रामक विचार से परेशान नहीं होता। मुझे अब यह बात परेशान नहीं करती। यदि मैंने इसे नहीं समझा होता, तो मैं हमेशा सोचता रहता कि एक क्षण मेरा भाग्य अच्छा है और अचानक दूसरे ही क्षण खराब, और अंदाजा लगाता कि मेरा भाग्य अच्छा है या खराब! मैं इस बारे में निरंतर परेशान रहता।” एक बार तुम इस सत्य को समझ लो, तो तुम्हारे सामने अनुसरण का मार्ग होगा, इस विषय पर तुम्हारी राय सही होगी, और तुम्हारे पास अभ्यास का एक सही मार्ग होगा—इसका अर्थ है कि तुम स्वतंत्र और मुक्त हो। इसलिए, यह परखने के लिए कि क्या किसी व्यक्ति के शब्द सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, और क्या वे सत्य हैं, तुम्हें इस पर ध्यान देना चाहिए कि ये शब्द व्यावहारिक हैं या नहीं; साथ-ही-साथ, तुम्हें यह देखना होगा कि एक बार ये शब्द सुन लेने के बाद क्या तुम्हारी कठिनाइयाँ और समस्याएँ दूर हो गई हैं—अगर दूर हो गई हों, तो तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे, मानो एक भारी बोझ तुम पर से उतर गया है। इसलिए, हर बार जब तुम किसी सत्य सिद्धांत को समझ लेते हो, तो तुम कुछ संबंधित समस्याओं को दूर कर पाते हो और कुछ हद तक सत्य को अमल में ला पाते हो, और इससे तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे। क्या परिणाम यह नहीं होगा? (जरूर होगा।) क्या तुम अब समझ गए हो कि सत्य का ठीक क्या प्रभाव होता है? (हाँ।) सत्य का क्या प्रभाव हो सकता है? (यह लोगों की आत्मा को स्वतंत्र और मुक्त कर सकता है।) क्या सत्य का सिर्फ यही एकमात्र प्रभाव होता है? सिर्फ यही एकमात्र भावना पैदा होती है? (मुख्य रूप से यह लोगों के मन में चीजों के बारे में छुपे भ्रामक और अतिवादी नजरियों को दूर करता है। एक बार जब लोग चीजों को शुद्ध रूप में और सत्य के अनुरूप देखते हैं, तो उनकी आत्मा स्वतंत्र और मुक्त महसूस करती है, और वे अब शैतान से आनेवाली नकारात्मक चीजों से बंधे नहीं रहते या विचलित नहीं होते।) अपनी आत्मा में स्वतंत्र और मुक्त महसूस करने के अलावा, अहम चीज यह है कि यह तुम्हें एक निश्चित सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने योग्य बना सकता है, ताकि तुम त्रुटिपूर्ण और विकृत सोच और नजरियों से बंधे न रहो और उनके बहकावे में न आओ। उनका स्थान सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत ले लेते हैं, और फिर तुम उस सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। मैं अब उन लोगों की अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति समाप्त करूँगा, जो अपने भाग्य को खराब समझने के कारण अवसाद महसूस करते हैं।

कुछ लोग अवसाद-ग्रस्त क्यों हो जाते हैं, इसका एक और कारण यह है कि हालाँकि उन्हें नहीं लगता कि उनका भाग्य खराब है, मगर उन्हें लगता है कि वे हमेशा दुर्भाग्यशाली रहते हैं, और उनके साथ कभी कुछ अच्छा नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे गैर-विश्वासी कहते हैं, “भाग्य का देवता हमेशा मुझसे रूठा रहता है।” हालाँकि उन्हें अपनी परिस्थितियाँ बहुत बुरी नहीं लगतीं, वे लंबे कद-काठी वाले, सुंदर, शिक्षित, प्रतिभाशाली और सक्षम कर्मचारी हैं, फिर भी वे सोचते रहते हैं कि भाग्य का देवता कभी उन पर मेहरबान क्यों नहीं होता। इससे वे हमेशा असंतुष्ट रहते हैं, और खुद को हमेशा अभागा मानते हैं। कॉलेज की प्रवेश-परीक्षाएँ देते ही उनके मन में कॉलेज जाने की आस भर जाती है, मगर परीक्षा का दिन आते ही उन्हें फ्लू हो जाता है, बुखार चढ़ जाता है। इससे वे परीक्षा सही ढंग से नहीं दे पाते, और दो-तीन अंकों से कॉलेज में दाखिला पाने से चूक जाते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं : “मैं इतना अभागा कैसे हो सकता हूँ? पढ़ाई-लिखाई में अच्छा हूँ, आम तौर पर कड़ी मेहनत करता हूँ। सब दिनों में से सिर्फ कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा के दिन ही बुखार क्यों आ गया? मेरी किस्मत ही खराब है। हे ईश्वर! मेरे जीवन की पहली बड़ी घटना में ही झटका लग गया। अब मैं क्या करूँ? उम्मीद है आगे आनेवाले दिनों में मेरा भाग्य बेहतर होगा।” लेकिन बाद में उनके जीवन में, हर तरह की कठिनाई और समस्या से उनका सामना होता है। मिसाल के तौर पर, कोई कंपनी नए कर्मचारियों की नियुक्ति कर रही है, और वे आवेदन की तैयारी कर ही रहे होते हैं, कि तभी पता चलता है कि तमाम खाली जगहें भर दी गई हैं और कंपनी को किसी और की जरूरत नहीं है। वे सोचते हैं, “मेरा भाग्य इतना खराब कैसे हो सकता है? जब भी कोई अच्छी चीज आती है, मेरे हाथ से क्यों निकल जाती है? कैसा बड़ा दुर्भाग्य है!” और जब वे कहीं काम शुरू करते हैं, तो पहले ही दिन, दूसरे लोग तरक्की पाकर प्रबंधक, उप प्रबंधक, विभाग प्रमुख बन जाते हैं। वे कितनी भी कड़ी मेहनत करें, कोई फायदा नहीं होता; तरक्की पाने के लिए उन्हें अगले मौके की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उनके काम अच्छा करने और वरिष्ठों की उनके बारे में अच्छी राय होने से उन्हें लगता है कि अगली बार उन्हें तरक्की मिल जाएगी, लेकिन अंत में, उनके वरिष्ठ कहीं बाहर से किसी को प्रबंधक नियुक्त कर ले आते हैं, और वे फिर से मौका खो देते हैं। तब वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अरे भाई! लगता है मेरा भाग्य सचमुच खराब है। कभी भी मेरा भाग्य अच्छा नहीं होता—भाग्य का देवता मुझसे रूठा ही रहता है।” बाद में, वे परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, और लेखन में रुचि होने के कारण उन्हें लेखन-आधारित कर्तव्य निभा सकने की उम्मीद होती है, मगर आखिर में वे परीक्षा में बढ़िया प्रदर्शन नहीं कर पाते और विफल हो जाते हैं। उन्हें लगता है, “आम तौर पर मैं बढ़िया लिखता हूँ, फिर मैं परीक्षा अच्छे से क्यों नहीं दे पाया? परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया, मुझे रास्ता नहीं दिखाया! मैंने सोचा था कि लेखन-आधारित कर्तव्य निभाकर मैं परमेश्वर के वचनों को ज्यादा खा-पी सकूँगा, और सत्य को ज्यादा समझ सकूँगा। बहुत बुरी बात है कि मैं दुर्भाग्यशाली रहा। हालाँकि योजना अच्छी थी, मगर सफल नहीं हो पाई।” अंत में वे यह कहकर बहुत-से दूसरे कर्तव्यों में से कोई चुन लेते हैं, “मैं एक सुसमाचार टीम में शामिल होकर सुसमाचार फैलाऊँगा।” सुसमाचार टीम में शुरू में सब-कुछ ठीक चला, और उन्हें लगा कि इस बार उन्हें अपनी जगह मिल गई है, और वे अपने कौशल का अच्छा प्रयोग कर पाएँगे। उन्हें लगता है कि वे चतुर हैं, अपने काम में सक्षम हैं, और व्यावहारिक कार्य करने को तैयार हैं। प्रयास करके वे कुछ नतीजे भी हासिल कर लेते हैं, और पर्यवेक्षक बन जाते हैं। लेकिन वे कोई गलती करते हैं, और उनके अगुआ को पता चल जाता है। उनसे कहा जाता है कि उन्होंने जो भी किया वह सिद्धांतों के विरुद्ध है, और इससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ा है। उनकी टीम की काट-छाँट के बाद, कोई उनसे कहता है, “तुम्हारे आने से पहले हम बढ़िया काम कर रहे थे। फिर तुम आए और पहली बार हमारी काट-छाँट हुई।” वे सोचते हैं, “क्या यह भी मेरा दुर्भाग्य नहीं है?” कुछ समय बाद, सुसमाचार कार्य में परिवर्तन के कारण लोगों का फिर से आवंटन होता है, उन्हें पर्यवेक्षक पद से उतार कर टीम का एक आम सदस्य बना दिया जाता है, और सुसमाचार फैलाने के लिए उन्हें एक नए क्षेत्र में भेज दिया जाता है। वे सोचते हैं, “अरे नहीं, तरक्की पाने के बदले मैं नीचे जा रहा हूँ। मेरे वहाँ पहुँचने से पहले किसी का कार्यस्थल नहीं बदला गया था, तो मेरे आने के बाद इतना बड़ा बदलाव कैसे हो रहा है? अब चूँकि मुझे यहाँ भेज दिया गया है, मुझे अब कभी तरक्की पाने की कोई उम्मीद नहीं रही।” इस नए क्षेत्र में बहुत कम कलीसिया और थोड़े से कलीसियाई सदस्य हैं। काम शुरू करने में उन्हें दिक्कतें पेश आती हैं, और उन्हें कोई अनुभव नहीं है। उन्हें काम समझने में कुछ समय लगता है, भाषा की दिक्कतें भी होती हैं, तो फिर वे क्या कर सकते हैं? वे हाथ उठाकर वहाँ से चले जाना चाहते हैं, मगर हिम्मत नहीं करते; वे अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहते हैं, मगर यह बहुत मुश्किल और थकाऊ है, और वे सोचते हैं, “ओह, ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बहुत बदकिस्मत हूँ! मैं अपना भाग्य कैसे बदल सकता हूँ?” वे जिधर भी मुड़ते हैं सामने रुकावट होती है, उन्हें हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है, उनके हर काम में कोई न कोई चीज रुकावट डाल रही है, और उनका हर कदम मुश्किल है। कुछ नतीजे पाने और थोड़े आशान्वित होने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करने पड़े, फिर उनके हालात बदल गए, उनकी उम्मीद काफूर हो गई, और उनके पास दोबारा शुरू करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा। वे यह सोचकर और अधिक अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं, “मेरे लिए थोड़े-से नतीजे हासिल करना और लोगों की स्वीकृति पाना इतना कठिन क्यों है? लोगों के एक समूह में मजबूती से पैर जमाना इतना मुश्किल क्यों है? ऐसा व्यक्ति बनना इतना मुश्किल क्यों है जिसे लोग स्वीकृत कर पसंद करें? हर चीज का अच्छे ढंग से और आसानी से होना इतना मुश्किल क्यों है? मेरे जीवन में इतनी सारी चीजें गलत क्यों हो जाती हैं? इतनी बाधाएँ क्यों हैं? अपने हर काम में मैं हमेशा ठोकर क्यों खाता हूँ?” खास तौर पर, कुछ लोग कहीं भी जाएँ, अपने कर्तव्य कभी भी अच्छे ढंग से नहीं निभाते, उनकी जगह हमेशा किसी और को दे दी जाती है और उन्हें हटा दिया जाता है। वे बहुत अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं और हमेशा यह सोचकर खुद को बदकिस्मत मानते हैं, “मैं एक तेज घोड़े जैसा हूँ, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जैसी कि कहावत है, ‘तेज घोड़े तो बहुत-से हैं, मगर उन्हें पहचानने वाले बहुत कम हैं।’ मैं एक तेज घोड़े जैसा हूँ जिसे लोग नहीं पहचानते। अंत में, मैं बस अभागा हूँ, कहीं भी जाऊँ, कुछ भी हासिल नहीं कर सकता या किसी भी क्षेत्र में अच्छा नहीं कर सकता। मैं कभी भी अपनी खूबियाँ अमल में नहीं ला सकता, उन्हें दिखा नहीं सकता, या जो चाहूँ वह नहीं पा सकता। ओह, मैं बेहद अभागा हूँ! यहाँ चल क्या रहा है?” उन्हें हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है, और वे हर दिन यह सोचकर व्याकुलता के भँवर में बिताते हैं, “अरे नहीं! कृपा करके फिर किसी दूसरे काम में मुझे मत लगाओ,” या “अरे नहीं! कृपा करके कुछ भी बुरा न होने दो,” या “अरे नहीं! कृपा करके कोई भी चीज बदलने न दो,” या “नहीं! कृपा करके कोई भी बड़ी समस्या न होने दो।” न सिर्फ वे अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं, बल्कि वे बहुत ज्यादा परेशान, अधीर, चिड़चिड़े और बेचैन भी हो जाते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, इसलिए वे बहुत अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं, और यह अवसाद उनके बदकिस्मत होने की आत्मपरक भावना से पैदा होता है। वे हमेशा अभागा महसूस करते हैं, उनकी कभी तरक्की नहीं होती, वे कभी भी टीम अगुआ या पर्यवेक्षक नहीं बन सकते, और उन्हें कभी भी लोगों के बीच श्रेष्ठ होने का मौका नहीं मिलता। ऐसी अच्छी चीजें उनके साथ कभी नहीं होतीं, और वे समझ नहीं पाते कि आखिर ऐसा क्यों होता है। उन्हें लगता है, “मुझमें किसी तरह की कोई कमी नहीं है, तो जहाँ भी जाऊँ, कोई मुझे पसंद क्यों नहीं करता? मैंने किसी का अपमान नहीं किया, कभी किसी को तकलीफ नहीं देनी चाही, तो फिर मैं इतना अभागा क्यों हूँ?” हमेशा ऐसी भावनाओं से चिपके रहने के कारण अवसाद की यह भावना उन्हें यह कह कर निरंतर याद दिलाती रहती है, “तुम अभागे हो, इसलिए सुस्त मत रहो, डींग मत हाँको, और हमेशा श्रेष्ठ दिखने की चाह मत रखो। तुम अभागे हो, इसलिए अगुआ बनने की सोचो भी नहीं। तुम अभागे हो, इसलिए तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय और अधिक सावधान होना चाहिए और खुद को थोड़ा रोककर रखना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि एक दिन तुम्हें उजागर कर बदल दिया जाए, या कहीं कोई पीठ पीछे तुम्हारी शिकायत कर दे, तुम्हें हानि पहुँचाने के लिए तुम्हारी कोई बात पकड़ ले, या कहीं तुम हमेशा आगे-आगे रहते हुए कोई गलती न कर दो और तुम्हारी काट-छाँट हो जाए। तुम भले ही अगुआ बन जाओ, फिर भी तुम्हें हर वक्त सतर्क और सावधान रहना होगा, मानो तुम तलवार की धार पर चल रहे हो। अहंकारी मत बनो, तुम्हें विनम्र होना चाहिए।” यह नकारात्मक भावना उन्हें हमेशा याद दिलाती रहती है कि विनम्र रहो, पूँछ दबाकर दबे पाँव इधर-उधर जाओ, और फिर कभी भी प्रतिष्ठा के साथ आचरण मत करो। यह विचार, सोच, नजरिया या जागरूकता कि उनका भाग्य खराब है, हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि सकारात्मक या सक्रिय मत बनो, मुखर मत बनो, अपनी गर्दन आगे न करो। इसके बजाय, उन्हें अवसाद-ग्रस्त बने रहना चाहिए, दूसरों के सामने जीने की हिम्मत नहीं करनी चाहिए। भले ही सभी लोग उसी घर में रहें, उन्हें एक अँधेरे कोने में दुबके रहना चाहिए ताकि उन पर किसी का ध्यान न जाए। उन्हें बहुत अहंकारी नहीं दिखना चाहिए, क्योंकि जिस क्षण वे कोई अहंकार दिखाना शुरू करेंगे, उनका खराब भाग्य उन्हें ढूँढ़ लेगा। चूँकि अवसाद की भावना उन्हें निरंतर घेरे रहती है, और उनके अंतरतम में इन चीजों के बारे में हमेशा चेतावनी देती रहती है, वे अपने हर काम में दब्बू और सावधान होते हैं। वे अपने दिलों में हमेशा परेशान रहते हैं, उन्हें अपना उचित स्थान कभी नहीं मिलता, और वे अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करने में कभी अपना पूरा दिल, दिमाग और शक्ति नहीं लगा सकते। मानो वे किसी चीज से बच रहे हैं, और किसी चीज के होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे दुर्भाग्य के आने, और बुरी चीजों और अपने दुर्भाग्य से होनेवाली शर्मिंदगियों से बच रहे हैं। इसलिए, उनके अंतरतम में चल रहे संघर्षों के अलावा, अवसाद की यह भावना उन विधियों और तरीकों पर ज्यादा हावी होती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, और आचरण और कार्य करते हैं। वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य का प्रयोग हमेशा अपने व्यवहार को और इसे मापने के लिए करते हैं कि जिन तरीकों से वे लोगों और चीजों को देखते या स्वयं आचरण और कार्य करते हैं, क्या वे सही हैं, और इसीलिए वे बार-बार अवसाद की इस भावना में डूब जाते हैं, खुद को बाहर नहीं निकाल पाते, और वे तथाकथित “दुर्भाग्यपूर्ण” चीजों का सामना करने के लिए या जिसे वे भयानक भाग्य कहते हैं उसे संभालने या दूर करने के लिए सही सोच और नजरिए का प्रयोग नहीं कर पाते। ऐसे क्रूर चक्र में, वे अवसाद की इस भावना से निरंतर नियंत्रित और प्रभावित होते रहते हैं। बहुत अधिक प्रयास करके, वे दूसरों से अपनी दशा या अपने विचारों के बारे में दिल खोलकर संगति कर पाते हैं, लेकिन फिर सभाओं में, संगति में भाई-बहनों द्वारा बोली गई बातें जानबूझकर या अनजाने में उनकी दशा और मसले के सार को छू जाती हैं जिससे उन्हें लगता है कि उनके गौरव और उनकी प्रतिष्ठा पर आघात हुआ है। वे अब भी मानते हैं कि यह उनके दुर्भाग्य की अभिव्यक्ति है, और वे सोचते हैं, “देखा? मेरे लिए अपने मन की बात कहना कितना मुश्किल था, और जैसे ही मैंने बोला, किसी ने मेरी बात पकड़कर मुझे हानि पहुँचाने की कोशिश की। मैं बहुत बदकिस्मत हूँ!” वे मान लेते हैं कि कामकाज में यह उनका दुर्भाग्य है, और जब कोई व्यक्ति अभागा होता है तो हर चीज उसके विरुद्ध होती है।

खुद को हमेशा अभागा माननेवालों के साथ समस्या आखिर क्या है? उनके कार्य सही हैं या गलत यह मापने के लिए, और उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, किन चीजों का अनुभव करना चाहिए, और सामने आनेवाली समस्याओं के आकलन के लिए वे हमेशा भाग्य के मानक का प्रयोग करते हैं। यह सही है या गलत? (गलत।) वे बुरी चीजों को दुर्भाग्यपूर्ण और अच्छी चीजों को भाग्यशाली या फायदेमंद बताते हैं। यह नजरिया सही है या गलत? (गलत।) ऐसे नजरिये से चीजों को मापना गलत है। यह चीजों को मापने का एक अतिवादी और गलत तरीका और मानक है। ऐसा तरीका लोगों को अक्सर अवसाद में डुबो देता है, यह अक्सर उन्हें परेशान कर देता है, और कभी कोई चीज उनके चाहे जैसे नहीं होती, और उन्हें कभी अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती, जिससे आखिरकार वे निरंतर बेचैन, चिड़चिड़े और परेशान रहने लगते हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ दूर नहीं होतीं, तो ये लोग निरंतर अवसाद में डूब जाते हैं, और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन पर कृपा नहीं करता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर दूसरों से ज्यादा अनुग्रह से पेश आता है, उनसे नहीं, और परमेश्वर दूसरों की देखभाल करता है, उनकी नहीं। “हमेशा मैं ही क्यों परेशान और बेचैन रहता हूँ? हमेशा मेरे ही साथ बुरी चीजें क्यों होती हैं? अच्छी चीजें मेरे हाथ क्यों नहीं आतीं? मैं बस एक ही बार माँग रहा हूँ!” जब तुम चीजों को ऐसे गलत तरीके की सोच और नजरिये से देखोगे, तो अच्छे और खराब भाग्य के झाँसे में फँस जाओगे। जब तुम लगातार इस झाँसे में गिरते रहते हो, तो तुम निरंतर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो। इस अवसाद के बीच, तुम खास तौर से इस बात को लेकर संवेदनशील रहते हो कि जो चीजें तुम्हारे साथ हो रही हैं वे भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली। ऐसा होने पर, यह साबित हो जाता है कि अच्छे और खराब भाग्य के इस नजरिये और विचार ने तुम्हें नियंत्रण में ले लिया है। जब तुम ऐसे नजरिये से नियंत्रित होते हो, तो लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और रवैये सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में नहीं रह जाते, बल्कि एक प्रकार की अति में डूब चुके होते हैं। जब तुम ऐसी अति में डूब जाओगे, तो फिर अपने अवसाद में से निकल नहीं पाओगे। तुम बार-बार फिर से अवसाद-ग्रस्त होते रहोगे, और भले ही तुम आम तौर पर अवसाद-ग्रस्त महसूस न करो, मगर जैसे ही कुछ गलत होगा, जैसे ही तुम्हें लगेगा कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हो गया है, तुम तुरंत अवसाद में डूब जाओगे। यह अवसाद तुम्हारी सामान्य परख और निर्णय-क्षमता और तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को भी प्रभावित करेगा। जब यह तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को प्रभावित करता है, तो यह तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह और साथ ही परमेश्वर का अनुसरण करने की तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा को भी बाधित और नष्ट करता है। जब ये सकारात्मक चीजें नष्ट हो जाती हैं, तो जो थोड़े-से सत्य तुमने समझे हैं, उन्हें तुम भूल जाते हो और तुम्हारे लिए ये जरा भी उपयोगी नहीं रह जातीं। इसीलिए, इस क्रूर चक्र में फँसने पर, जिन थोड़े-से सत्य सिद्धांतों को तुम समझते हो, उन्हें अमल में लाना तुम्हारे लिए मुश्किल होता है। सिर्फ यह महसूस करने पर ही कि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे साथ है, और जब तुम अवसाद से दबे नहीं होते, तभी तुम अनिच्छा से थोड़ी-सी कीमत चुका सकते हो, थोड़ी कठिनाई सह सकते हो, और तुम जो कार्य करने को तैयार हो, उन्हें करते समय थोड़ी-सी ईमानदारी दिखा सकते हो। जैसे ही तुम महसूस करते हो कि भाग्य ने तुम्हारा साथ छोड़ दिया है, और तुम्हारे साथ फिर से दुर्भाग्यपूर्ण चीजें हो रही हैं, वैसे ही तुम्हारा अवसाद तुम्हें फिर से जल्द काबू में कर लेता है, और तुम्हारी ईमानदारी, निष्ठा और कठिनाइयाँ सहने की इच्छा तुम्हें फौरन छोड़ देती है। इसलिए, जो लोग खुद को अभागा मानते हैं, या जो लोग भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेते हैं, वे उन लोगों जैसे हैं जिन्हें लगता है कि उनका भाग्य खराब है। उनकी भावनाएँ अक्सर अत्यंत तीव्र होती हैं—खास तौर पर वे अवसाद जैसी नकारात्मक भावनाओं में बार-बार डूब जाते हैं। वे खास तौर पर निराश और कमजोर होते हैं, और उनकी मनःस्थितियाँ भी एकाएक बदल सकती हैं। भाग्यशाली महसूस करने पर, वे उल्लास से भर जाते हैं, स्फूर्तिवान हो जाते हैं, कठिनाइयाँ झेल सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं; रात में कम सो सकते हैं, दिन में कम खाना खा सकते हैं, वे कोई भी कठिनाई झेलने को तैयार रहते हैं, और क्षणिक तौर पर जोश में आने पर, वे खुशी-खुशी अपने प्राण भी दे सकते हैं। लेकिन, जिस क्षण वे महसूस करते हैं कि हाल में वे दुर्भाग्यशाली थे, उनके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था, तो अवसाद की भावना उनके दिल पर फौरन कब्जा कर लेती है। उनके द्वारा पहले लिए हुए शपथ और संकल्प नकार दिए जाते हैं; वे अचानक एक पिचकी हुई गेंद जैसे हो जाते हैं और कोई जोश नहीं जुटा पाते, या लुंजपुंज हो जाते हैं, कुछ भी करने या कहने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है, “सत्य सिद्धांत, सत्य का अनुसरण करना, उद्धार प्राप्त करना, परमेश्वर को समर्पित होना—इन सबका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं अभागा हूँ, कितने भी सत्य का अभ्यास करूँ या कितनी भी कीमत चुकाऊँ, मैं कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। मेरा काम तमाम हो चुका है। मैं एक अशुभ टोटका हूँ, एक अभागा व्यक्ति। जाने दो, किसी भी हाल में मैं दुर्भाग्यशाली ही हूँ!” देखा, एक क्षण वे हवा से भरी हुई गेंद जैसे हैं, जो फटने ही वाली है, और अगले ही क्षण वे पिचक जाते हैं। क्या यह कष्टप्रद नहीं है? यह कष्ट कैसे आता है? इसका मूल कारण क्या है? वे हमेशा अपने भाग्य को ताकते रहते हैं मानो वे शेयर बाजार को देख रहे हों कि यह ऊपर जा रहा है या नीचे, तेजी का बाजार है या मंदी का। वे हमेशा तंत्रिका विकार से ग्रस्त होते हैं, अपने भाग्य को लेकर बेहद संवेदनशील, और बेहद जिद्दी। ऐसा अतिवादी व्यक्ति अक्सर अवसाद की भावना में फँसा रहता है, क्योंकि वह अपने भाग्य की बड़ी परवाह करता है और अपनी मनःस्थितियों के आधार पर जीता है। सुबह उठने पर अगर ऐसे लोगों की मनःस्थिति खराब हो, तो वे सोचते हैं, “बाप रे! शर्त लगी, आज का दिन भाग्यशाली नहीं होगा। कई दिनों से मेरी बाईं आँख फड़क रही है, जीभ सख्त लग रही है, और दिमाग सुस्त है। खाना खाते समय मैंने अपनी जीभ काट ली, कल रात नींद में मुझे अच्छा सपना नहीं आया।” या वे सोचते हैं, “आज सबसे पहले जो शब्द मैंने सुने, वे अपशकुन-से लगते हैं।” वे निरंतर कुछ गड़बड़ होने की आशंका करते हैं, ऐसी बकवास पर बोलते ही जाते हैं, और ऐसी चीजों का अध्ययन करते रहते हैं। वे हर दिन और हर अवधि में, अपने भाग्य, दिशा, और मनःस्थिति के बारे में बेहद चिंतित रहते हैं। वे कलीसिया में भाई-बहनों की उनके प्रति दृष्टि, रवैये और वाणी के लहजे का भी निरीक्षण करते हैं। उनके दिलों में ये चीजें भरी हुई हैं, जिससे वे निरंतर अवसाद-ग्रस्त रहते हैं। उन्हें मालूम है कि वे अच्छी दशा में नहीं हैं, फिर भी वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न ही अपनी दशा ठीक करने के लिए सत्य खोजते हैं, और वे चाहे जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करें, उन पर कोई ध्यान नहीं देते या उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। क्या यह एक समस्या नहीं है? (जरूर है।)

ये लोग, जो हमेशा चिंतित रहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब—चीजों के बारे में क्या उनका नजरिया सही है? क्या अच्छे भाग्य या खराब भाग्य का अस्तित्व है? (नहीं।) यह कहने का क्या आधार है कि इनका अस्तित्व नहीं है? (हर दिन हम जिन लोगों से मिलते हैं और जो चीजें हमारे साथ घटती हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय किए जाते हैं। अच्छा भाग्य या खराब भाग्य जैसी कोई चीज है ही नहीं; हर चीज जरूरत पड़ने पर होती है और उसके पीछे एक अर्थ होता है।) क्या यह सही है? (बिल्कुल।) यह नजरिया सही है, और यही यह कहने का सैद्धांतिक आधार है कि भाग्य का अस्तित्व नहीं है। तुम्हारे साथ चाहे जो हो, अच्छा या बुरा, सब-कुछ सामान्य है, ठीक चार ऋतुओं के मौसम की तरह—प्रत्येक दिन धूपवाला नहीं हो सकता। तुम नहीं कह सकते कि परमेश्वर धूपवाले दिनों की व्यवस्था करता है, और बादलवाले दिनों, वर्षा, हवा और तूफान की व्यवस्था नहीं करता। सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय होती हैं, और प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा उत्पन्न की जाती हैं। यह प्राकृतिक पर्यावरण परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और स्थापित विधियों और नियमों के अनुसार पैदा होता है। ये सब जरूरी और अनिवार्य हैं, इसलिए मौसम चाहे जैसा भी हो, यह प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न होता है। इसमें कुछ भी अच्छा या खराब नहीं है—इस बारे में सिर्फ लोगों की भावनाएँ अच्छी या खराब होती हैं। वर्षा होने, तेज हवा चलने, बादल छाने या ओले पड़ने पर लोगों को अच्छा नहीं लगता। खास तौर पर लोगों को तब अच्छा नहीं लगता जब वर्षा हो रही हो और सब-कुछ गीला हो; उनके जोड़ों में दर्द होता है, और वे कमजोर महसूस करते हैं। तुम्हें बारिश के दिन बुरे लग सकते हैं, लेकिन क्या तुम कह सकते हो कि बारिश के दिन अशुभ हैं? यह सिर्फ एक भावना है जो मौसम लोगों के मन में जगाता है—बारिश होने का भाग्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम कह सकते हो कि धूपवाले दिन अच्छे होते हैं। अगर तीन महीने तक धूप खिली हो, पानी की एक बूँद भी न गिरे, तो लोगों को अच्छा लगता है। वे हर दिन सूर्य को देख सकते हैं, दिन सूखा और गर्म है, कभी-कभार धीमी बयार चलती है, वे जब चाहें बाहर जा सकते हैं। लेकिन पौधे इसे नहीं सह सकते, और फसलें सूखे के कारण मर जाती हैं, इसलिए उस वर्ष फसल नहीं कटती। तो क्या तुम्हें अच्छा लगने का अर्थ यह है कि यह सचमुच अच्छा है? शरद ऋतु आने पर, जब तुम्हारे पास खाने को कुछ नहीं होगा, तो तुम कहोगे, “अरे यार, बहुत सारे धूपवाले दिन हों, तो भी अच्छा नहीं है। बारिश न हो तो फसलें चौपट हो जाती हैं, कटाई के लिए कोई फसल नहीं होती, और लोग भूखे रह जाते हैं।” तब तुम्हें एहसास होता है कि लगातार धूपवाले दिन भी अच्छे नहीं होते। तथ्य यह है कि कोई व्यक्ति किसी चीज के बारे में अच्छा महसूस करता है या बुरा, यह उस चीज के सार के बजाय, उसकी अपनी स्वार्थी मंशाओं, आकांक्षाओं और आत्म-हित पर आधारित होता है। इसलिए जिस आधार पर लोग अनुमान लगाते हैं कि कोई चीज अच्छी है या बुरी, वह गलत है। आधार गलत होने के कारण जो अंतिम निष्कर्ष वे निकालते हैं, वे भी गलत होते हैं। अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विषय पर वापस लौटें, तो अब सब जानते हैं कि भाग्य के बारे में यह कहावत निराधार है, और यह न अच्छा होता है न खराब। जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा तय किए जाते हैं, इसलिए तुम्हें उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर से वह स्वीकार करो जो अच्छा है, और जो कुछ बुरा है, उसे भी परमेश्वर से स्वीकार करो। जब कुछ अच्छा घटे, तो मत कहो कि तुम भाग्यशाली हो, और बुरा घटे तो खुद को अभागा मत कहो। यही कहा जा सकता है कि इन सभी चीजों में लोगों के लिए सीखने के सबक होते हैं, और उन लोगों को इन्हें ठुकराना या इनसे बचना नहीं चाहिए। अच्छी चीजों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करो, साथ ही बुरी चीजों के लिए भी उसका धन्यवाद करो, क्योंकि इन सभी चीजों की व्यवस्था उसी ने की है। अच्छे लोग, घटनाएँ, चीजें और परिवेश सबक देते हैं जो उन्हें सीखने चाहिए, मगर बुरे लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों से और भी ज्यादा सीखने को मिलता है। ये सभी वो अनुभव और कड़ियाँ हैं जो किसी के जीवन का भाग होनी चाहिए। इन्हें मापने के लिए लोगों को भाग्य के विचार का प्रयोग नहीं करना चाहिए। तो, चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के लिए भाग्य का प्रयोग करनेवाले लोगों की सोच और नजरिये क्या होते हैं? ऐसे लोगों का सार क्या होता है? वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य पर इतना अधिक ध्यान क्यों देते हैं? भाग्य पर अत्यधिक ध्यान देनेवाले लोग क्या आशा करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो या खराब? (वे आशा करते हैं कि यह अच्छा हो।) सही कहा। दरअसल, वे प्रयास करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो और उनके साथ अच्छी चीजें हों, और वे बस उनका लाभ उठाकर उनसे फायदा कमाते हैं। वे परवाह नहीं करते कि दूसरे कितने कष्ट सहते हैं, या दूसरों को कितनी मुश्किलें या कठिनाइयाँ सहनी पड़ती हैं। वे नहीं चाहते कि ऐसी कोई चीज उनके साथ हो, जिसे वे अशुभ समझते हैं। दूसरे शब्दों में, वे नहीं चाहते कि उनके साथ कुछ बुरा घटे : कोई रुकावट, कोई विफलता या शर्मिंदगी नहीं, काट-छाँट नहीं, चीजें खोना या हारना नहीं, और कोई धोखा न खाना। ऐसा कुछ भी हुआ, तो उसे खराब भाग्य के रूप में लेते हैं। अगर बुरी चीजें होती हैं, तो व्यवस्था चाहे जो भी करे, वे अशुभ ही हैं। वे आशा करते हैं कि तमाम अच्छी चीजें—पदोन्नति, सबमें श्रेष्ठ होना, दूसरों के खर्चे पर लाभ उठाना, किसी चीज से फायदा लेना, ढेरों पैसे बनाना, या कोई उच्च अधिकारी बनना—उन्हीं के साथ हों, और उन्हें लगता है कि यह अच्छा भाग्य है। वे भाग्य के आधार पर ही उन लोगों, घटनाओं और चीजों को मापते हैं, जिनसे उनका सामना होता है। वे अच्छे भाग्य का पीछा करते हैं, दुर्भाग्य का नहीं। जैसे ही कोई छोटी-से-छोटी चीज गलत हो जाती है, वे नाराज हो जाते हैं, तुनक जाते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। दो टूक कहें, तो इस तरह के लोग स्वार्थी होते हैं। वे दूसरे लोगों के खर्चे पर खुद फायदा उठाने, अपना फायदा करने, सबसे ऊपर आकर सबसे अलग दिखने का प्रयास करते हैं। यदि प्रत्येक अच्छी चीज सिर्फ उन्हीं के साथ हो तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। यही उनका प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है।

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