सत्य का अनुसरण कैसे करें (2) भाग एक

हमारी पिछली सभाओं में, हमने एक बृहत् विषय पर संगति की : सत्य का अनुसरण कैसे करें। सत्य का अनुसरण कैसे करें—हमने इस मसले पर संगति कैसे की? (परमेश्वर ने दो पहलुओं पर संगति की : पहला था “त्याग देना,” और दूसरा “समर्पण करना।” त्याग देने के संदर्भ में, परमेश्वर ने मनुष्य में मौजूद नकारात्मक भावनाओं के बारे में बात की। खास तौर पर, परमेश्वर ने हीनभावना, क्रोध और घृणा की नकारात्मक भावनाओं के हमारे कर्तव्य पर होने वाले विशिष्ट प्रभावों और परिणामों पर संगति की। परमेश्वर की संगति ने हमें सत्य का अनुसरण करने के तरीके की एक अलग समझ दी। हमने देखा कि किस तरह से हम अक्सर उन नकारात्मक भावनाओं की अनदेखी करते हैं जिन्हें हम प्रतिदिन प्रकट करते हैं, और आमतौर पर हम अपनी नकारात्मक भावनाओं को पहचानते और समझते नहीं हैं। हम एकतरफा फैसला कर लेते हैं कि हम बस इसी किस्म के व्यक्ति हैं। हम इन नकारात्मक भावनाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं और उस कर्तव्य के नतीजों पर इसका सीधा असर होता है। यह इस बात पर भी प्रभाव डालता है कि हम लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं और अपने जीवन की समस्याओं से कैसे पेश आते हैं। यह हमारे लिए सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना अत्यंत कठिन बना देता है।) हमारी पिछली सभा में, मैंने सत्य का अनुसरण कैसे करें, इस विषय पर संगति की थी। अभ्यास की बात करें, तो दो मुख्य मार्ग हैं—त्याग देने का, और समर्पण करने का। पिछली बार, हमने प्रथम मार्ग के प्रथम पहलू “त्याग देने” से संबद्ध मुख्य मसलों का सार प्रस्तुत किया था—यानी किसी व्यक्ति को विविध प्रकार की भावनाओं को त्याग देना चाहिए। ये मुख्य रूप से नकारात्मक भावनाएँ होती हैं—जोकि असामान्य, तर्कहीन हैं, और जमीर और विवेक के अनुरूप नहीं हैं। हमारी संगति इनमें से हीनभावना, क्रोध और घृणा की नकारात्मक भावनाओं, और साथ ही इन नकारात्मक भावनाओं में रहने से उत्पन्न कुछ व्यवहारों, कुछ विशेष परिस्थितियों या विकासात्मक पृष्ठभूमि के कारण पैदा हुई विविध नकारात्मक भावनाओं, और एक असामान्य चरित्र द्वारा दिखाई गई नकारात्मक भावनाओं पर केंद्रित थी। इन नकारात्मक भावनाओं को क्यों त्याग देना चाहिए? इसलिए कि वस्तुनिष्ठ रूप से ये भावनाएँ लोगों में नकारात्मक मनोदशाएँ और दृष्टिकोण पैदा करती हैं, जिससे लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर उनका रवैया प्रभावित होता है। तो अभ्यास की इस विधि के प्रथम आयाम—त्याग देने—में आवश्यक है कि लोग हर प्रकार की नकारात्मक भावनाओं को जाने दें। पिछली बार हमने इन नकारात्मक भावनाओं पर कुछ संगति साझा की थी। लेकिन हीनभावना, क्रोध और घृणा की जिन भावनाओं पर हमने संगति की, उनके अलावा भी निस्संदेह ऐसी विविध भावनाएँ हैं जो सामान्य मानवता के दृष्टिकोणों को प्रभावित कर सकती हैं। ये सामान्य मानवता के जमीर, विवेक, सोच और फैसले में दखल दे सकती हैं और मनुष्य के सत्य के अनुसरण के नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं। इसका अर्थ यह है कि सत्य के अनुसरण में मनुष्य को सबसे पहले इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना चाहिए। आज हम इसी विषय—विविध नकारात्मक भावनाओं को कैसे जाने दें—पर संगति जारी रखेंगे। सबसे पहले हम नकारात्मक भावनाओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति करेंगे, और इन अभिव्यक्तियों पर मेरी संगति के जरिये मनुष्य नकारात्मक भावनाओं का ज्ञान अर्जित कर सकेगा, स्वयं से उसकी तुलना कर सकेगा, और अपने रोजमर्रा के जीवन में एक-एक कर इन्हें दूर कर सकेगा। सत्य को खोज कर और समझ कर, नकारात्मक विचारों, राय, और साथ ही नकारात्मक भावनाओं द्वारा लोगों में पैदा होने वाले असामान्य नजरियों और रवैयों को जान कर और विश्लेषित कर, वह इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करना शुरू कर सकता है।

पिछली बार हमने “अवसाद” की नकारात्मक भावना के बारे में चर्चा की थी। सबसे पहले, क्या अधिकतर लोग अवसाद की इस भावना से ग्रस्त होते हैं? क्या तुम लोगों को इसका भान हो पाता है कि अवसाद किस किस्म की भावना और कैसी मनःस्थिति है, और किन रूपों में अभिव्यक्त होती है? (हाँ।) इसे समझना आसान है। हम “अवसाद” के बारे में बहुत विस्तार से बात नहीं करेंगे, बस परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोगों में अवसाद की भावना की अभिव्यक्तियों का ही वर्णन करेंगे। “अवसाद” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है निराश महसूस करना, अच्छा महसूस न करना, अपने किसी भी काम में रुचि न ले पाना, उदासीन होना, अभिप्रेरित न होना, अपने कामों में नकारात्मक और निष्क्रिय रवैया रखना, और कुछ कर दिखाने की ठानने का संकल्प न होना। तो, इन अभिव्यक्तियों का मूल कारण क्या है? यही वह मुख्य समस्या है, जिसका विश्लेषण होना चाहिए। जब एक बार तुम अवसाद की विविध अभिव्यक्तियों, साथ ही इन नकारात्मक भावनाओं से पैदा हुई काम करने से जुड़ी विभिन्न मनःस्थितियों, विचारों और रवैयों को समझ लेते हो, तब तुम समझ लोगे कि इन नकारात्मक भावनाओं के पीछे कौन-से कारण हैं, यानी इन नकारात्मक भावनाओं के मूल में क्या हैं, जिनसे लोगों में ये पैदा होती हैं। लोग आखिर अवसाद-ग्रस्त क्यों होते हैं? वे कुछ करने के लिए अभिप्रेरित क्यों नहीं होते? वे काम करते समय हमेशा क्यों इतने नकारात्मक, निष्क्रिय और दृढ़ संकल्पहीन होते हैं? साफ तौर पर इसका एक कारण है। उदाहरण के लिए, तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो काम करते समय हमेशा अवसाद-ग्रस्त और निष्क्रिय होता है, शक्ति नहीं जुटा पाता, उसकी भावनाएँ और रवैया कुछ ज्यादा सकारात्मक या आशावादी नहीं होते, और वह हमेशा बेहद नकारात्मक, दोषारोपण करने वाला और हताश रवैया दर्शाता है। तुम उसे सलाह देते हो, मगर वह कभी नहीं सुनता, हालाँकि वह मानता है कि तुम्हारा बताया रास्ता सही है और तुम्हारे तर्क बढ़िया हैं, फिर भी काम करते समय वह बिल्कुल शक्ति नहीं जुटा पाता और अभी भी नकारात्मक और निष्क्रिय रहता है। गंभीर मामलों में, उस व्यक्ति की चाल-ढाल, कद-काठी, उसके चलने के तरीके, बोलने के लहजे और शब्दों से तुम समझ सकते हो कि उसकी भावनाओं पर उदासी छाई हुई है, अपने हर काम में वह शक्तिहीन है, निचोड़े हुए फल जैसा है, और जो भी उसके साथ बहुत ज्यादा समय बिताता है उस पर भी उसका असर हो जाएगा। यह सब क्या है? अवसाद में जीने वाले लोगों के विविध व्यवहार, चेहरे के हाव-भाव, बोलने के लहजे और उनके द्वारा व्यक्त विचारों और दृष्टिकोणों में नकारात्मक गुण होते हैं। तो इन नकारात्मक घटनाओं का कारण क्या है? इसकी जड़ कहाँ है? निस्संदेह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवसाद की नकारात्मक भावना पैदा होने का मूल कारण अलग होता है। किसी एक प्रकार के व्यक्ति में इस बात से अवसाद की भावना आ सकती है कि वह अपनी भयावह नियति के ख्याल से निरंतर घिरा रहता है। क्या यह एक कारण नहीं है? (अवश्य है।) ऐसे लोगों का बचपन गाँव-कस्बे या किसी गरीब इलाके में गुजरा था, उनका परिवार समृद्ध नहीं था, कुछ जरूरी चीजों के अलावा उनके परिवार के पास कीमती चीजें नहीं थीं। शायद उनके पास पहनने के लिए एक-दो जोड़ी फटे-पुराने कपड़े थे, आमतौर पर वे कभी भी अच्छा भोजन नहीं खा पाते थे, और उन्हें माँस-मच्छी खाने के लिए नए साल या छुट्टियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कभी-कभी वे भूखे रह जाते थे, उनके पास शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे, कटोरा भर माँस-मच्छी खाना उनके लिए बस एक सपना था और खाने को एक टुकड़ा फल पाना भी मुश्किल था। ऐसे माहौल में रहते हुए वे बड़े शहरों में रहने वाले उन दूसरे लोगों से अलग महसूस करते, जिनके माता-पिता समृद्ध थे, जो अपने मन का खा और पहन सकते थे, जिनकी पसंद की हर चीज उन्हें फौरन मिल जाती थी और जिन्हें चीजों का अच्छा ज्ञान था। वे सोचते, “ये लोग बहुत भाग्यशाली हैं। मेरा भाग्य इतना खराब क्यों है?” वे हमेशा भीड़ में अलग दिखना चाहते हैं, अपनी नियति बदलना चाहते हैं। मगर किसी के लिए अपनी नियति बदलना इतना आसान नहीं होता। जब कोई ऐसी स्थिति में पैदा होता है, तो कोशिश करके भी वह अपने भाग्य को कितना बदल सकता है, उसे कितना बेहतर बना सकता है? वयस्क होने के बाद ऐसे लोग समाज में जहाँ भी जाते हैं, बाधाएँ उन्हें रोक देती हैं, हर कहीं उन्हें डराया-धमकाया जाता है, ऐसे में वे हमेशा बड़ा अभागा महसूस करते हैं। उन्हें लगता है, “मैं इतना अभागा क्यों हूँ? मेरी मुलाकात हमेशा कमीनों से क्यों होती है? बचपन में मेरा जीवन मुश्किलों में गुजरा, बस ऐसा ही था। अब मेरे बड़े हो जाने पर भी इतना ही बुरा हाल है। मैं हमेशा दिखाना चाहता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, मगर मुझे कभी मौका नहीं मिलता। मुझे मौका न मिले, तो न मिले। मैं बस कड़ी मेहनत कर अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी पैसा कमाना चाहता हूँ। मैं इतना भी क्यों नहीं कर सकता? अच्छी जिंदगी जीना इतना मुश्किल कैसे हो सकता है? मुझे बाकी सबसे बेहतर जिंदगी जीने की जरूरत नहीं। मैं कम-से-कम एक शहरी की जिंदगी जीना चाहता हूँ, ऐसी कि लोग मुझे हेय दृष्टि से न देखें, मैं दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक न रहूँ। कम-से-कम जब लोग मुझे पुकारें, तो यूँ न चिल्लाएँ, ‘ए सुन, इधर आ!’ कम-से-कम वे मुझे मेरे नाम से पुकारें, आदर से संबोधित करें। लेकिन मुझे आदर से संबोधित किए जाने का आनंद भी नहीं मिलता। मेरा भाग्य इतना क्रूर क्यों है? यह कब खत्म होगा?” जब ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास नहीं था, तो वह भाग्य को क्रूर मानता था। मगर परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद और यह देखकर कि यही सच्चा मार्ग है, उसने सोचा, “पहले का वह सारा कष्ट इस लायक था। यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और किया गया था, और उसने यह अच्छे से किया। यदि मैंने उस तरह कष्ट नहीं सहा होता, तो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, तो यदि मैं सत्य को स्वीकार कर सकूँ, तो मेरी नियति बदल कर बेहतर होनी चाहिए। मैं अब कलीसिया में भाई-बहनों के साथ बराबरी का जीवन जी सकता हूँ, लोग मुझे ‘भाई’ या ‘बहन’ कहकर पुकारते हैं, और मुझसे आदरपूर्वक बात करते हैं। मैं अब दूसरों से सम्मान पाने की भावना का आनंद लेता हूँ।” ऐसा लगता है मानो उसकी नियति बदल गई है, वह कष्ट नहीं सह रहा है, और अब वह अभागा नहीं रहा। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने की ठान लेते हैं, वे कठिनाइयाँ झेलने और कड़ी मेहनत करने लायक हो जाते हैं, हर मामले में किसी भी दूसरे से ज्यादा सहने में समर्थ हो जाते हैं, और वे ज्यादातर लोगों की स्वीकृति और आदर पाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उन्हें कलीसिया अगुआ, कोई प्रभारी या टीम अगुआ भी चुना जा सकता है, और तब क्या वे अपने पूर्वजों और अपने परिवार का सम्मान नहीं बढ़ाएंगे? तब क्या उन्होंने अपनी नियति नहीं बदल ली होगी? मगर वास्तविकता उनकी कामनाओं पर खरी नहीं उतरती और वे मायूस होकर सोचते हैं, “मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और अपने भाई-बहनों से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि जब कभी अगुआ, प्रभारी या टीम अगुआ चुनने का समय आता है, मेरी बारी कभी नहीं आती? क्या इसलिए कि मैं दिखने में बहुत साधारण हूँ, या मेरा कामकाज बढ़िया नहीं रहा, और मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया? हर बार चुनाव होने पर मुझे थोड़ी-सी आशा होती है, और मैं एक टीम अगुआ भी चुन लिया जाऊँ तो मुझे खुशी होगी। मुझमें परमेश्वर का प्रतिदान करने का बड़ा जोश है, मगर हर बार चुनाव के समय चुने न जाने के कारण मैं निराश हो जाता हूँ। इसका कारण क्या है? क्या इसलिए कि मैं जीवन भर सच में सिर्फ एक औसत, साधारण और मामूली व्यक्ति ही बना रहूँगा? जब मैं पीछे मुड़कर अपने बचपन, अपने यौवन और अपनी अधेड़ उम्र को देखता हूँ, तो जिस मार्ग पर मैं चला हूँ, वह हमेशा बेहद मामूली रहा है और मैंने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है। ऐसी बात नहीं है कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या मेरी क्षमता बहुत कम है, ऐसा भी नहीं है कि मैं पर्याप्त प्रयास नहीं करता या कठिनाइयाँ नहीं झेल सकता। मेरे संकल्प हैं, मेरे लक्ष्य हैं, और कह सकते हैं कि मैं महत्वाकांक्षी भी हूँ। तो फिर ऐसा क्यों है कि मैं कभी भी भीड़ में सबसे अलग नहीं दिख सकता? अंतिम विश्लेषण यही है कि मेरा ही भाग्य खराब है, दुख सहना मेरी नियति है, और परमेश्वर ने मेरे लिए ऐसी ही व्यवस्था की है।” वे इस बारे में जितना सोचते हैं, उन्हें लगता है कि उनका भाग्य उतना ही खराब है। अपने कर्तव्यों के दौरान, यदि वे कुछ सुझाव देते हैं, कुछ विचार व्यक्त करते हैं, और हमेशा उन्हें उसका खंडन मिलता है, कोई उनकी बात नहीं सुनता या उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, तो वे और अधिक अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं और सोचते हैं, “हाय, मेरा भाग्य बहुत खराब है! मैं जिस भी समूह में होता हूँ, वहाँ हमेशा मुझे आगे बढ़ने से रोकनेवाला, मुझे दबाने वाला कोई अधम व्यक्ति होता है। कोई भी मुझे गंभीरता से नहीं लेता, मैं कभी भी सबसे अलग नहीं दिख सकता। कुल मिलाकर बात बस यही है : मेरी तो किस्मत ही खराब है!” उनके साथ जो भी होता है, उसे वे हमेशा अपनी खराब किस्मत से जोड़ देते हैं; अपनी खराब किस्मत के विचार पर वे निरंतर प्रयास करते हैं, इसकी और गहरी समझ और गुण-दोष विवेचना पाने की कोशिश करते हैं, और जब वे इस बारे में और चिंतन करते हैं, तो अधिक अवसाद में डूब जाते हैं। अपने कर्तव्य में कोई मामूली-सी गलती करने पर वे सोचते हैं, “ओह, मेरी किस्मत इतनी बुरी है, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकता हूँ?” सभाओं में भाई-बहन संगति करते हैं, तो वे बार-बार सोचकर भी उनकी बातें नहीं समझ पाते और सोचते हैं, “ओह, ऐसी फूटी किस्मत हो, तो मैं भला ये बातें कैसे समझ सकता हूँ?” जब कभी वे ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर बोलता है, जो अपनी समझ के बारे में उनसे अधिक स्पष्ट और प्रकाशमान ढंग से चर्चा करता है, तो वे और अधिक अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो कठिनाइयाँ सह सकता है, कीमत चुका सकता है, जिसे अपने कर्तव्य-निर्वहन में परिणाम मिलता है, जिसे भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और जो पदोन्नत होता है, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं। जब वे किसी को अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो अवसाद में और अधिक डूब जाते हैं, और जब वे किसी व्यक्ति को खुद से बेहतर नाचते-गाते देखते हैं, तो उसकी अपेक्षा स्वयं को हीन महसूस करते हैं और अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं। किसी भी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना हो, या उनके सामने कैसी भी स्थितियाँ आएँ, वे हमेशा अवसाद की इस भावना के साथ प्रतिक्रिया देते हैं। वे जब किसी को अपने से अच्छे कपड़े पहने या बेहतर बाल बनाए देखते हैं, तो हमेशा उदास हो जाते हैं, और उनके दिलों में ईर्ष्या और जलन पैदा हो जाती है, जब तक कि वे अवसाद की उस भावना में लौट नहीं जाते। वे इनके क्या कारण बताते हैं? वे सोचते हैं, “हाय, क्या यह इसलिए नहीं कि मेरी किस्मत खराब है? यदि मेरा रंग-रूप थोड़ा अच्छा होता, यदि मैं उन जैसा प्रतिष्ठित होता, यदि मैं लंबा और अच्छी कद-काठी का होता, मेरे पास सुंदर कपड़े, खूब पैसे, और अच्छे माँ-बाप होते, तो क्या चीजें अब जैसी हैं उससे अलग नहीं होतीं? क्या तब लोग मेरा सम्मान नहीं करते, मुझसे ईर्ष्या नहीं करते? कुल मिलाकर देखें तो मेरी किस्मत खराब है, और मैं इसके लिए किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकता। ऐसी फूटी किस्मत होने के कारण मेरे साथ कुछ भी ठीक नहीं होता, और मैं कहीं भी लड़खड़ाए बिना नहीं चल सकता। यह बस मेरी खराब किस्मत है और इस बारे में मैं कुछ नहीं कर सकता।” इसी तरह, जब उनकी काट-छाँट हो, या जब भाई-बहन उन्हें फटकारें, उनकी आलोचना करें, या उन्हें कुछ सुझाव दें, तो वे अवसाद की भावना के साथ इस पर प्रतिक्रिया देते हैं। बहरहाल, उनके साथ या उनके आसपास की हर चीज के साथ कुछ भी हो रहा हो, वे हमेशा अपने अवसाद की भावना से पैदा हुए विविध नकारात्मक विचारों, नजरियों, रवैयों और दृष्टिकोणों के साथ प्रतिक्रिया जताते हैं।

खुद को हमेशा दुर्भाग्यशाली समझने वाले ऐसे लोगों को निरंतर महसूस होता है कि एक विशाल चट्टान उनके दिल को चूर-चूर कर रही है। चूंकि वे हमेशा मानते हैं कि उनके साथ जो कुछ भी होता है वह उनकी फूटी किस्मत के कारण होता है, इसलिए उन्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे इसमें से कुछ भी नहीं बदल सकते। तो फिर वे क्या करते हैं? वे बस नकारात्मक महसूस करते हैं, और सुस्त होकर सब अपने दुर्भाग्य पर छोड़ देते हैं। मेरा यह कहने का तात्पर्य क्या है कि वे सब अपने दुर्भाग्य पर छोड़ देते हैं? वे सोचते हैं, “हाय, मुझे बस इसी तरह निरुद्देश्य जीवन बिताना पड़ेगा!” जब दूसरों की काट-छाँट होती है, तो वे लोग आत्मचिंतन कर यह कह पाते हैं, “मेरी काट-छाँट किसलिए? मैंने ऐसा क्या किया है जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध है? मैंने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है? क्या मेरी समझ पर्याप्त गहरी और ठोस है? मुझे इन मसलों को कैसे समझना और सुलझाना चाहिए?” वे ऐसी बातें कहते हैं, और ये वे व्यक्ति हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। लेकिन जब तथाकथित बुरी किस्मत वाले व्यक्ति की काट-छाँट होती है, तो उसे लगता है कि दूसरे उसे हेय दृष्टि से देख रहे हैं, उसकी किस्मत खराब है, और इसलिए उसे कोई पसंद नहीं करता, और जो भी उसकी काट-छाँट करना चाहे, कर सकता है। जब कोई भी उसकी काट-छाँट नहीं करता, तो उसका अवसाद थोड़ा कम हो जाता है, लेकिन जैसे ही कोई उसकी काट-छाँट करता है, उसका अवसाद और भी बदतर हो जाता है। दूसरे लोग काट-छाँट होने पर कई दिनों तक नकारात्मक महसूस कर सकते हैं। वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और भाई-बहनों की मदद और साथ से वे सत्य स्वीकार करने में समर्थ हो जाते हैं, और वे खुद को फिर से धीरे-धीरे ठीक कर लेते हैं, और उस नकारात्मक दशा को पीछे छोड़ देते हैं। लेकिन जो लोग सोचते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, वे न सिर्फ उस नकारात्मक भावना को नहीं छोड़ते, बल्कि इसके विपरीत उन्हें और ज्यादा यकीन हो जाता है कि उनकी किस्मत सचमुच खराब है। ऐसा क्यों है? वे यह महसूस करते हुए परमेश्वर के घर में आते हैं कि उनके कौशल का पूरा उपयोग नहीं किया जाता है, हमेशा उनका निपटान होता है, और उन्हें बलि का बकरा बनाया जाता है। वे सोचते हैं, “देखा? दूसरे लोग यही सब करते हैं तो उनकी काट-छाँट नहीं की जाती, तो मेरी काट-छाँट क्यों की जाती है? यकीनन यह दर्शाता है कि मेरी किस्मत खराब है!” और इसलिए वे अवसाद और मायूसी में डूब जाते हैं। दूसरे लोग सत्य के बारे में उनके साथ जैसे भी संगति करने की कोशिश करें, यह उनके दिमाग में नहीं उतरती और वे कहते हैं, “तुम लोगों की काट-छाँट क्षण भर के लिए होती है, मगर मेरी बात अलग है। मैं कुछ भी सही नहीं कर सकता और मैं काट-छाँट सहन करने के लिए ही पैदा हुआ हूँ। मैं किसी को दोष नहीं दे सकता, बस मेरी किस्मत ही खराब है।” चूँकि वे हमेशा यही मानते हैं कि वे अभागे हैं, और जब तक जियेंगे ऐसे ही रहेंगे, इसलिए परमेश्वर का घर लोगों को जैसे भी बताए कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाना है, और मानक स्तर तक अपना कर्तव्य कैसे निभाना है, इनमें से कुछ भी उनके दिमाग में नहीं उतरता। चूँकि उन्हें हमेशा के लिए यकीन है कि उनकी किस्मत खराब है, और सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की इस अद्भुत चीज का उनके साथ कुछ लेना-देना नहीं है, इसलिए वे अपना कर्तव्य मन लगा कर नहीं करते। उनके दिलों में यह सुनिश्चित है कि “खराब किस्मत वाले लोग अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते; सिर्फ अच्छी किस्मत वाले लोग ही अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हैं। अच्छी किस्मत वाले लोग जहाँ भी जाते हैं, वहाँ लोग उन्हें पसंद करते हैं, सब-कुछ आसानी से हो जाता है। मेरी किस्मत खराब है, और हमेशा अधम लोगों से मेरा सामना होता है, मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए अच्छा नहीं लगता—ये दुर्भाग्य एक-के-बाद-एक आते जाते हैं!” चूँकि वे मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, इसलिए वे हमेशा मायूस और उदास रहते हैं। वे हमेशा मानते हैं कि सत्य का अनुसरण सिर्फ बोलने की चीज है और उनके जैसे अभागे लोग सत्य का अनुसरण करके कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें लगता है कि वे भले ही सत्य का अनुसरण करें, उन्हें अंत में कुछ भी प्राप्त नहीं होगा, और वे हमेशा सोचते हैं, “खराब किस्मत वाले लोग राज्य में कैसे प्रवेश कर सकते हैं? खराब किस्मत वाले लोग उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हैं?” वे इस पर विश्वास करने की हिम्मत नहीं करते, और इसलिए निरंतर यह सोचकर स्वयं को सीमित कर लेते हैं, “चूँकि मेरी किस्मत खराब है और मैं कष्ट सहने के लिए पैदा हुआ हूँ, इसलिए जीवित रहकर अंत में श्रमिक बन जाना कोई ज्यादा बुरा नहीं है। इसका अर्थ होगा कि मेरे पूर्वजों के नेक कर्म मुझमें फलीभूत होंगे, और वे मुझे सौभाग्य के आशीष देंगे। चूँकि मेरी किस्मत खराब है, इसलिए मैं बस खाना पकाने, सफाई करने, भाई-बहनों के बच्चों की देखभाल करने या कुछ खुदरे काम इत्यादि जैसे मामूली कर्तव्य निभाने के ही योग्य हूँ। परमेश्वर के घर में प्रसिद्धि देने वाले कामों की बात करें, तो शायद जब तक मैं जीवित रहूँगा, मेरा उन कामों के साथ कोई सरोकार नहीं होगा। मैं परमेश्वर के घर में आया तो भरपूर जोश के साथ था, पर अब देखो, मेरा क्या हाल हो गया है? बस खाना पकाता हूँ, श्रमजीवी का काम करता हूँ। इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता या किसी को परवाह नहीं कि मैं कितना थक जाता हूँ या यह काम कितना मुश्किल है। अगर यह मुश्किल काम नहीं है, तो फिर क्या है, मैं नहीं जानता! दूसरे लोग मुख्य अभिनेता या एक्स्ट्रा हैं, फिल्म के बाद फिल्म, वीडियो के बाद वीडियो बनाते जा रहे हैं—यह कितनी अद्भुत बात है! मैं कभी नहीं चमका, एक बार भी नहीं। यह कितना मुश्किल है! मेरी किस्मत बहुत खराब है! मेरी फूटी किस्मत के लिए कौन दोषी है? क्या यह मेरी गलती नहीं है? जब तक मर न जाऊँ, मैं यूँ ही खटता रहूँगा।” इस नकारात्मक भावना में वे गहरे और गहरे डूब जाते हैं। न सिर्फ वे इस पर चिंतन करने और इसे जान पाने में असमर्थ होते हैं कि उनकी नकारात्मक भावनाएँ क्या हैं या क्यों पैदा हुई हैं, या इनका बुरी किस्मत या अच्छी किस्मत से कुछ लेना-देना है या नहीं, न ही वे इन चीजों को समझने के लिए सत्य खोजते हैं, बल्कि वे आँखें मूँदे इस विचार से भी चिपके रहते हैं कि उनकी तमाम समस्याएँ उनकी खराब किस्मत के कारण हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे इन नकारात्मक भावनाओं में गहरे और गहरे डूब जाते हैं, और खुद को उसमें से बाहर नहीं निकाल पाते। अंत में, चूँकि वे हमेशा मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, इसलिए वे मायूसी में डूब जाते हैं, किसी असल मकसद के बिना जीते हैं, बस खाते और सोते हैं, और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं; इस तरह से वे सत्य का अनुसरण करने, अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने, उद्धार प्राप्त करने, और परमेश्वर की ऐसी ही दूसरी अपेक्षाओं में उनकी रुचि घटती जाती है, और वे इन चीजों को और अधिक दूर करते और ठुकराते जाते हैं। वे सत्य का अनुसरण न करने और उद्धार प्राप्त न कर पाने के पीछे आदतन अपनी खराब किस्मत को कारण और आधार मान लेते हैं। उनका जिन स्थितियों से सामना होता है, उनमें वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण नहीं करते, और इस तरह अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर उसे दूर नहीं करते, बल्कि उनका जिस किसी व्यक्ति, घटना और चीज से सामना और अनुभव होता है, उसकी प्रतिक्रिया में वे खराब किस्मत की अपनी दृष्टि का प्रयोग करते हैं, नतीजतन वे अवसाद की भावना में और गहरे डूब जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (अवश्य है।) तो क्या अवसाद की यह भावना जिसमें लोग यह मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, सही है या नहीं? (सही नहीं है।) यह सही क्यों नहीं है? (मेरे ख्याल से यह भावना अत्यंत उग्र है। उनके साथ जो कुछ भी होता है, उसे समझाने और सीमांकित करने के लिए वे अपनी खराब किस्मत को ले आते हैं। अपने साथ कुछ होने पर, वे उस पर चिंतन कर एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते कि ये समस्याएँ क्यों खड़ी होती हैं, न ही वे खोजते या सोच-विचार करते हैं। यह पूरी तरह से चीजों के प्रति एक उग्र और सीमांकित करने वाला तरीका है।) चीजों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखने का यह उग्र और बेतुका तरीका कैसे अस्तित्व में आता है? अवसाद की इस भावना का मूल कारण क्या है? (मेरे विचार से इस भावना का मूल कारण यह है कि वे गलत मार्ग पर चल रहे हैं, और उनके अनुसरण का आरंभ बिंदु गलत है। उनकी कुछ अनियंत्रित आकांक्षाएँ हैं, वे हमेशा दूसरों से होड़ लगाते हैं, उनसे अपनी तुलना करते हैं, और जब वे अपनी अनियंत्रित आकांक्षाओं को संतुष्ट नहीं कर पाते, तो उनके भीतर की यह नकारात्मक भावना सिर उठा लेती है।) तुम लोगों ने इस मसले का सार स्पष्ट रूप से नहीं समझा है—बात मुख्य रूप से यह है कि “भाग्य” के बारे में उनका दृष्टिकोण गलत है। वे हमेशा अच्छे भाग्य के पीछे भागते हैं या वे चाहते हैं कि उनका भाग्य ऐसा हो कि सब-कुछ आराम से और आसानी से हो जाए। वे हमेशा लोगों के भाग्य पर गौर करते हैं, और जब वे ऐसी चीज के पीछे भागने लगते हैं, तो उनका क्या होता है? वे अलग-अलग माहौल में रहने वाले लोगों, उनके खान-पान, उनके कपड़ों, उनके मौज-मजे की चीजों पर गौर करते हैं, और फिर उनके साथ अपनी स्थिति की तुलना करते हैं, और तब उन्हें लगता है कि वे हर मामले में बदतर हैं, दूसरे तमाम लोग उनसे बेहतर हैं, और इसलिए वे मान लेते हैं कि उनकी किस्मत खराब है। दरअसल, जरूरी नहीं कि वे ही सबसे बदतर हों, लेकिन वे हमेशा दूसरों से अपनी तुलना करते और मापते हैं, हमेशा “भाग्य” के इस मामले पर सोचने, उसका अवलोकन करने और उसके अध्ययन में गहन शोध करने में मेहनत करते हैं। हर चीज को मापने के लिए वे भाग्य अच्छा है या बुरा, इसके बारे में उनका जो परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण है, उसका प्रयोग करते हैं, वे हमेशा मापते रहते हैं, जब तक कि वे खुद को एक कोने में सिमटा नहीं लेते, और उनके सामने कोई रास्ता नहीं रह जाता, और आखिरकार वे निराशा में डूब जाते हैं। जो भी होता है, उसके बाहरी रंग-रूप को मापने के लिए वे भाग्य अच्छा है या बुरा, इससे जुड़े अपने दृष्टिकोण का निरंतर प्रयोग करते हैं, चीजों का सार नहीं देखते। ऐसा करने में वे कौन-सी गलती करते हैं? उनके विचार और दृष्टिकोण विकृत होते हैं, और भाग्य के बारे में उनके ख्याल गलत होते हैं। मनुष्य का भाग्य एक गूढ़ विषय है, जिसे कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता। यह किसी व्यक्ति की जन्मतिथि या उसके जन्म का सटीक समय भर नहीं है, जो यह संकेत देता है कि उसका भाग्य अच्छा होगा या बुरा—यह एक रहस्य है।

मनुष्य का भाग्य कैसा होगा, वह अच्छा होगा या बुरा, इसे लेकर परमेश्वर की व्यवस्था को मनुष्य या किसी भविष्यवक्ता की दृष्टि से देखा या मापा नहीं जाना चाहिए, न ही उसे इस अनुसार मापना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितने धन और महिमा का आनंद लेता है, वह कितने कष्ट सहता है, या अपनी संभावनाओं, शोहरत और संपत्ति की तलाश में वह कितना सफल है। फिर भी ठीक यही गंभीर गलती वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और साथ ही ज्यादातर लोग अपना भाग्य मापने में इसी तरीके का प्रयोग करते हैं। अधिकतर लोग अपना भाग्य कैसे मापते हैं? सांसारिक लोग कैसे मापते हैं कि किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा? सबसे पहले तो वे उसे इस आधार पर देखते हैं कि उस व्यक्ति का जीवन आराम से गुजर रहा है या नहीं, वह धन और मह‍िमा का आनंद ले पाता है या नहीं, क्या वह दूसरों से बेहतर जीवनशैली के साथ जी पाता है, अपने जीवनकाल में वह कितने कष्ट सहता है और कितना आनंद ले पाता है, वह कितना लंबा जीवन जीता है, उसका करियर क्या है, उसका जीवन श्रमसाध्य है या आरामदेह और आसान है—वे किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा, यह मापने के लिए इनका और ऐसी ही दूसरी चीजों का प्रयोग करते हैं। क्या तुम भी इसे इसी तरह से नहीं मापते? (हाँ।) तो, जब तुममें से ज्यादातर लोगों का सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हें पसंद नहीं, जब मुश्किल वक्‍त आता है, या तुम बेहतर जीवनशैली का आनंद नहीं ले पाते, तो तुम सब सोचोगे कि तुम्हारा भाग्य भी खराब है, और अवसाद में डूब जाओगे। जो लोग कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, जरूरी नहीं कि उनका भाग्य सचमुच खराब हो, इसी तरह से जो लोग कहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है, जरूरी नहीं कि उनका भाग्य सचमुच अच्छा हो। भाग्य अच्छा है या बुरा, यह सही-सही कैसे मापा जाता है? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम्हारा भाग्य अच्छा है, और अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते तो वह अच्छा नहीं है—क्या ऐसा कहना सही है? (जरूरी नहीं।) तुम लोग कहते हो, “जरूरी नहीं,” यानी परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले कुछ लोगों का भाग्य सचमुच खराब होता है और कुछ का भाग्य अच्छा होता है। यदि ऐसा है, तो परमेश्वर में विश्वास न रखनेवाले कुछ लोगों का भी भाग्य अच्छा होता है तो कुछ का खराब—क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं, यह गलत है।) बताओ, भला तुम लोग ऐसा क्यों कहते हो? यह गलत क्यों है? (मैं नहीं मानती कि किसी के भाग्य का इस बात से कुछ लेना-देना है कि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है या नहीं।) यह सही है; किसी व्यक्ति के भाग्य के अच्छे या खराब होने का परमेश्वर में विश्‍वास से कुछ लेना-देना नहीं है। तो फिर इसका किससे लेना-देना है? क्या इसका इससे कुछ लेना-देना है कि लोग किस पथ पर चलते हैं या किसकी तलाश करते हैं? क्या ऐसा है कि यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है तो उसका भाग्य अच्छा होता है, और अगर नहीं करता तो उसका जीवन तकलीफदेह होता है? बोलो, क्या कोई विधवा अच्छे भाग्य वाली होती है? सांसारिक लोगों के लिए, विधवाओं का भाग्य खराब होता है। अगर वे तीस-चालीस की उम्र में विधवा हो जाएँ, तो उनका भाग्य सचमुच खराब होता है, यह उनके लिए बहुत मुश्किल होता है! लेकिन अपने पति को खोने के कारण अगर कोई विधवा बहुत कष्ट सहती है, और परमेश्वर में विश्वास रखने लगती है, तब क्या उसका जीवन मुश्किल होता है? (नहीं।) चूँकि जो महिलाएँ विधवा नहीं हुई हैं, वे खुशहाल जीवन बिताती हैं, उनके साथ सब-कुछ अच्छा चल रहा होता है, उनके पास आश्रय, खाना और कपड़े सब होता है, बच्चों और नाती-पोतों के साथ उनका परिवार भरा-पूरा होता है, किसी मुश्किल या किसी आध्यात्मिक कमी को महसूस किए बिना वे आरामदेह जीवन जीती हैं, इसलिए वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखतीं, और तुम उनके बीच चाहे जितना भी सुसमाचार फैलाने की कोशिश करो वे उसमें विश्वास नहीं रखतीं। तो फिर किसका भाग्य अच्छा है? (विधवा का भाग्य अच्छा है, क्योंकि वह परमेश्वर में विश्वास रखने लगी है।) देखो, चूँकि सांसारिक लोग मानते हैं कि विधवा का भाग्य बुरा है, वह इतने दुख सहती है, इसलिए वह दिशा बदल कर एक अलग मार्ग पर चलने लगती है, और वह परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण करती है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि अब उसका भाग्य अच्छा है और वह खुशी-खुशी जी रही है? (बिल्कुल।) उसका दुर्भाग्‍य सौभाग्‍य में बदल गया है। यदि तुम कहते हो कि उसका भाग्य खराब है, तो जीवन में उसका भाग्य हमेशा खराब होना चाहिए, और वह उसे नहीं बदल सकती; तो फिर इसे कैसे बदला जा सकता है? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से उसका भाग्य बदल गया है? (नहीं, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चीजों के बारे में उसकी सोच बदल गई है।) इसलिए कि उसका चीजों को देखने का तरीका बदल गया है। क्या उसके भाग्य का वस्तुपरक तथ्य बदल गया है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले, विधवा यह सोचकर उन महिलाओं से ईर्ष्या करती थी जो विधवा नहीं हुई थीं, “उसे देखो, उसका भाग्य कितना अच्छा है। उसके पास पति है, घर है, वह एक खुशहाल और संतुष्ट जीवन जी रही है। वह वैधव्‍य की यह पीड़ा नहीं सह रही है।” मगर, परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, वह सोचती है, “मैं अब परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, परमेश्वर ने मुझे उसका अनुसरण करने के लिए चुना है, मैं अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ, और सत्य हासिल कर सकती हूँ। भविष्य में, मैं उद्धार प्राप्त कर राज्य में प्रवेश कर सकूँगी। यह कितना बड़ा सौभाग्‍य है! वह विधवा नहीं हुई है, लेकिन उसका भाग्य क्या है? वह हमेशा कोशिश करती है कि जीवन के मजे ले, शोहरत, धन और हैसियत के पीछे भागे, अपने करियर में कामयाब होने की राह देखे, धन और समृद्धि का आनंद ले, लेकिन फिर मृत्यु के बाद, वह नरक में ही जाएगी। उसका भाग्य खराब है। मेरा भाग्य उसके भाग्य से बेहतर है!” उसके विचार बदल गए हैं, मगर वस्तुपरक तथ्य नहीं बदले हैं। जो महिला परमेश्वर में विश्वास नहीं रखती, वह अब भी सोचती है, “हूँ! मेरा भाग्य तुमसे बेहतर है! तुम एक विधवा हो, मैं नहीं। मेरा जीवन तुमसे बेहतर है। मेरा भाग्य अच्छा है!” लेकिन अब परमेश्वर में विश्वास रखने वाली महिला की दृष्टि में उसका भाग्य अच्छा नहीं है। यह बदलाव कैसे आया? क्या विधवा का वस्तुपरक परिवेश बदल गया है? (नहीं।) तो फिर उसके विचार कैसे बदल गए? (चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के उसके मानदंड बदल गए हैं।) हाँ, चीजों को मापने और मामलों को देखने पर उसकी सोच बदल गई है। जो महिला विधवा नहीं हुई है, उसका भाग्य अच्छा है वाली सोच से वह उसका भाग्य बुरा है, और उसका अपना भाग्‍य बुरा है वाली सोच से उसका अपना भाग्य अच्‍छा है वाली सोच पर पहुँच गई है। ये दोनों सोच पहले की सोच से बिल्कुल अलग हैं, पूरी तरह उलट गए हैं। यहाँ क्या हो रहा है? वस्तुपरक तथ्य और परिवेश नहीं बदले हैं, तो चीजों के बारे में उसकी सोच में बदलाव कैसे आ गया? (सत्य और सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने के बाद, वह चीजों को अच्छे या बुरे के रूप में मापने में अब अपनी सोच में सही मानदंडों का प्रयोग करती है।) चीजों के बारे में उसके विचार बदल गए हैं, मगर क्या वास्तविक तथ्य बदले हैं? (नहीं।) विधवा अब भी विधवा ही है, और खुशी-खुशी जीने वाली महिला अभी भी खुशी-खुशी जी रही है—वास्तविक तथ्यों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। तो, फिर अंत में किसका भाग्य अच्छा है और किसका बुरा? क्या तुम समझा सकते हो? विधवा सोचा करती थी कि उसका भाग्य खराब है, जिसका एक कारण उसके जीवन की वस्तुपरक परिस्थिति और दूसरा कारण उसके वस्तुपरक परिवेश के कारण बने उसके सोच-विचार थे। परमेश्वर के वचन पढ़ने और कुछ सत्‍य समझने पर वह परमेश्वर में विश्‍वास रखने लगती है और उसके विचार भी तदनुरूप बदल जाते हैं, और चीजों के बारे में अब उसका नजरिया अलग है। तो, परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, अब वह नहीं मानती कि उसका भाग्य खराब है, बल्कि वह खुद को सौभाग्‍यशाली मानती है, क्योंकि उसे परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने का मौका मिल गया है, और वह सत्य को समझकर उद्धार प्राप्त कर सकती है—यह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है, और वह अत्यंत धन्य है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, वह केवल सत्य के अनुसरण पर ध्यान देती है, जोकि उन लक्ष्यों से अलग है, जिनका वह पहले अनुसरण करती थी। हालाँकि उसकी जीवन परिस्‍थ‍ितियाँ, उसका परिवेश, उसके जीवन की गुणवत्ता पहले जैसी ही है और बदली नहीं है, फिर भी चीजों के बारे में उसका नजरिया बदल गया है। वास्तव में, क्या परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण उसका भाग्य अच्छा हो गया है? जरूरी नहीं। बात बस इतनी है कि अब वह परमेश्वर में विश्वास रखती है, आशान्वित है, अपने दिल में थोड़ा संतोष अनुभव करती है, अनुसरण करने के उसके लक्ष्य बदल गए हैं, उसके विचार अलग हैं, और इसलिए उसके जीने का मौजूदा परिवेश उसे खुश, संतुष्ट, उल्लसित और शांतिपूर्ण बनाता है। उसे लगता है कि अब उसका भाग्य बहुत अच्छा है, उस महिला के भाग्य से बहुत बेहतर, जो अभी विधवा नहीं हुई है। अब जाकर उसे एहसास हुआ है कि उसकी पहले वाली सोच गलत थी कि उसका अपना भाग्य खराब है। इससे तुम सब क्या समझते हो? क्या “सौभाग्य” और “दुर्भाग्य” जैसा कुछ होता है? (नहीं।) नहीं, ऐसा नहीं होता।

परमेश्वर ने बहुत पहले ही लोगों के भाग्य तय कर दिए थे, और उन्‍हें बदला नहीं जा सकता। यह “सौभाग्‍य” और “दुर्भाग्‍य” हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है, और लोगों के परिवेश और इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा महसूस करते हैं और किसका अनुसरण करते हैं। इसलिए किसी का भाग्य न तो अच्छा होता है न ही बुरा। हो सकता है कि तुम्‍हारा जीवन बहुत कष्‍टमय हो, पर शायद तुम सोचो, “मैं कोई आलीशान जिंदगी नहीं जीना चाहता। बस भरपेट खाना और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े हों, तो मैं खुश हूँ। अपने जीवनकाल में सभी कष्ट सहते हैं। सांसारिक लोग कहते हैं, ‘अगर बारिश न हो, तो तुम इंद्रधनुष नहीं देख सकते,’ तो कष्ट का अपना महत्‍व है। यह बहुत बुरा नहीं है, और मेरा भाग्य भी बुरा नहीं है। स्वर्ग ने मुझे कुछ पीड़ा, कुछ परीक्षण और तकलीफें दी हैं। ऐसा इसलिए कि वह मेरे बारे में अच्‍छी राय रखता है। यह सौभाग्य है!” कुछ लोग सोचते हैं कि कष्ट सहना बुरा है, इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है, और सिर्फ ऐसे ही जीवन का अर्थ, जिसमें कष्ट न हों, आराम और आसानी हो, अच्छा भाग्य होना है। गैर-विश्वासी इसे “मत भिन्‍नता” कहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले “भाग्य” के इस मामले को किस तरह देखते हैं? क्या हम “सौभाग्‍य” या “दुर्भाग्‍य” होने की बात करते हैं? (नहीं।) हम ऐसी बातें नहीं कहते। मान लो कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण तुम्हारा भाग्य अच्छा है, फिर यदि तुम अपने विश्‍वास में सही मार्ग पर नहीं चलते, तुम्हें दंडित किया जाता है, उजागर कर हटा दिया जाता है, तब इसका क्या अर्थ है, तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो संभवतः तुम्हें उजागर किया या हटाया नहीं जा सकता। गैर-विश्वासी और धार्मिक लोग, लोगों को उजागर करने या समझने की बात नहीं करते, और वे निकाले या हटाए जा रहे लोगों की बात भी नहीं करते। इसका अर्थ होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने में समर्थ होने पर लोगों का भाग्य अच्छा है, मगर यदि अंत में वे दंडित होते हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है? एक पल उनका भाग्य अच्छा है और दूसरे ही पल बुरा—तो फिर वह कैसा है? किसी का भाग्य अच्छा है या नहीं, यह एक ऐसी बात नहीं है जिसका फैसला हो सकता हो, लोग इसका फैसला नहीं कर सकते। यह सब परमेश्वर द्वारा होता है, और परमेश्वर की हर व्यवस्था अच्छी होती है। बस इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य-पथ या उसका परिवेश, वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनसे उसका वास्‍ता पड़ता है, और अपने जीवन में वह जिस जीवन मार्ग का अनुभव करता है, वे सब भिन्न होते हैं; ये चीजें हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीने के परिवेश और विकास करने के परिवेश की व्यवस्था परमेश्वर करता है और ये दोनों ही अलग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जिन चीजों का अनुभव करता है, वे अलग-अलग होती हैं। कोई तथाकथित सौभाग्‍य या दुर्भाग्‍य नहीं होता—परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था करता है, और परमेश्वर ही ये सब करता है। यदि हम इस मामले को इस नजरिए से देखें कि यह सब परमेश्वर करता है, परमेश्वर का हर कार्य अच्छा और सही होता है; तो बस इतना ही है कि लोगों के झुकाव, भावनाओं और चुनावों के नजरिए से देखें, तो कुछ लोग आरामदेह जीवन जीना चुनते हैं, शोहरत, संपत्ति, प्रतिष्‍ठा, संसार में समृद्धि और अपनी सफलता चुनते हैं। वे मानते हैं कि इसका अर्थ अच्छे भाग्य का होना है, और जीवन भर औसत दर्जे का और असफल रहना, हमेशा समाज के बिल्कुल निचले तबके में जीना भाग्‍य का खराब होना है। गैर-विश्वासियों और सांसारिक चीजों के पीछे भागने वाले और संसार में जीने की इच्छा रखने वाले सांसारिक लोगों के नजरिए से चीजें यूँ ही नजर आती हैं, और इस तरह से सौभाग्‍य और दुर्भाग्‍य का विचार पैदा होता है। सौभाग्‍य और दुर्भाग्‍य का विचार भाग्य के बारे में मनुष्य की संकीर्ण समझ और सतही नजरिए से, और लोग कितना शारीरिक कष्ट सहते हैं, कितना आनंद, शोहरत और संपत्ति प्राप्त करते हैं, इत्यादि पर लोगों की सोच से पैदा होता है। दरअसल, यदि हम इसे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता के नजरिए से देखें, तो अच्छे भाग्य और बुरे भाग्य की ऐसी कोई व्याख्याएँ नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के नजरिए से मनुष्य के भाग्य को देखो, तो परमेश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही होता है, और हर व्यक्ति को इसी की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है कि पिछले और वर्तमान जीवन में कारण और प्रभाव अपनी भूमिका अदा करते हैं, ये परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, इन पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और परमेश्वर इनकी योजना बनाता और इनकी व्यवस्था करता है—मानवजाति के पास कोई विकल्प नहीं है। यदि हम इसे इस नजरिए से देखें, तो लोगों को यह फैसला नहीं करना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, ठीक है न? यदि लोग इस बारे में यूँ ही सोच बना लेते हैं तो क्या वे एक भयानक गलती नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर की योजनाओं, व्यवस्थाओं और संप्रभुता पर फैसला करने की गलती नहीं कर रहे हैं? (जरूर कर रहे हैं।) और क्या यह गलती गंभीर नहीं है? क्या यह उनके जीवन-पथ को प्रभावित नहीं करेगी? (जरूर करेगी।) फिर यह गलती उन्हें विनाश की ओर ले जाएगी।

जब बात यह हो कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है और वह इसकी व्यवस्था करता है तो उन्हें क्या करना चाहिए? (परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण।) पहले, तुम्हें यह खोजना चाहिए कि सृष्टिकर्ता ने तुम्हारे लिए इस तरह के भाग्य और जीने के परिवेश की व्यवस्था क्यों की है, क्यों वह तुम्हारा कुछ खास चीजों से सामना और उनका अनुभव कराता है, और क्यों तुम्हारा भाग्य ऐसा है। इससे तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारा दिल किस चीज के लिए लालायित है और इसे किस चीज की जरूरत है, और तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को जानना चाहिए। इन चीजों को समझने और जानने के बाद तुम्हें अवज्ञाकारी नहीं होना चाहिए, अपनी पसंदगियाँ नहीं रखनी चाहिए, अस्वीकार नहीं करना चाहिए, प्रतिरोधी नहीं होना चाहिए या पलायन का प्रयास नहीं करना चाहिए—बेशक तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुम्हें क्यों समर्पण करना चाहिए? क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम अपने भाग्य को आयोजित नहीं कर सकते और तुम्हारी उस पर संप्रभुता नहीं हो सकती है। तुम्हारे भाग्य के बारे में अंतिम निर्णय का अधिकार परमेश्वर के पास है। अपने भाग्य के सामने तुम्हारे हाथ खड़े होते हैं और तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं होता। एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है समर्पित होना। तुम्हें अपने भाग्य के बारे में अपने चुनाव नहीं करने चाहिए या उससे बचना नहीं चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए, अपने भाग्य के खिलाफ नहीं जाना चाहिए या शिकायत नहीं करनी चाहिए। बेशक, तुम्हें खासकर ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, “परमेश्वर ने मेरे लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है, वह खराब है। वह दयनीय और दूसरों के भाग्य से बदतर है,” या “मेरा भाग्य खराब है और मुझे कोई सुख या समृद्धि नहीं मिल रही। परमेश्वर ने मेरे लिए खराब तरह से चीजों की व्यवस्था की है।” ये शब्द आलोचनाएँ हैं और इन्हें बोलकर तुम अपने स्थान से बाहर जा रहे हो। ये ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन्हें सृजित प्राणी द्वारा बोला जाना चाहिए और ये ऐसा दृष्टिकोण या रवैये नहीं हैं, जो सृजित प्राणी में होने चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें भाग्य की ये भ्रामक समझ, परिभाषाएँ, विचार और बोध छोड़ देने चाहिए। साथ ही, तुम्हें एक सही रवैया और रुख अपनाने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम उन सभी चीजों के प्रति समर्पित हो सको, जो उस भाग्य के हिस्से के रूप में घटित होंगी जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। तुम्हें प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, और निश्चित रूप से तुम्हें खिन्न होकर शिकायत नहीं करनी चाहिए कि स्वर्ग निष्पक्ष नहीं है, कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चीजें खराब तरह से व्यवस्थित की हैं, और तुम्हें सर्वोत्तम चीजें प्रदान नहीं की हैं। जब भाग्य चुनने की बात आती है तो सृजित प्राणियों के पास यह अधिकार नहीं होता है; परमेश्वर ने तुम्हें इस तरह का दायित्व नहीं दिया है और उसने तुम्हें यह अधिकार नहीं दिया है। इसलिए तुम्हें प्राथमिकताएँ तय करने, परमेश्वर के साथ बहस करने या उससे अतिरिक्त माँगें करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। परमेश्वर की व्यवस्थाएँ चाहे जो भी हों, तुम्हें उन्हीं के अनुसार खुद को ढालना और उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर ने जो कुछ भी व्यवस्थित किया है, तुम्हें उसका सामना करना चाहिए और उसका अनुभव करने और उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिस वांछित अनुभव की व्यवस्था की है, तुम्हें हर उस चीज के प्रति पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है, तुम्हें उसे मानना चाहिए। अगर तुम्हें कोई चीज पसंद नहीं भी हो या अगर तुम्हें उसके कारण कष्ट भी उठाना पड़े, अगर वह तुम्हारे आत्मसम्मान और चरित्र को चुनौती देती या कुचलती भी हो, तो भी अगर वह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अनुभव करना चाहिए, कोई ऐसी चीज जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए आयोजित और व्यवस्थित किया है, तो तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और तुम अपनी कोई प्राथमिकता नहीं रख सकते हो। चूँकि परमेश्वर ने लोगों के भाग्य की व्यवस्था की है और उस पर उसकी संप्रभुता है, इसलिए इस बारे में उसके साथ मोल-तोल नहीं किया जा सकता है। इसलिए अगर लोग समझदार हैं और उनमें सामान्य मानवता का विवेक है, तो उन्हें हमेशा यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि उनका भाग्य खराब है या अपनी इस या उस समस्या के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्य को, अपने जीवन को, उस मार्ग को जिस पर वे परमेश्वर में अपने विश्वास में चलते हैं, उन सभी स्थितियों को जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, या उनसे परमेश्वर की अपेक्षाओं को इस वजह से हताश रवैये के साथ नहीं ले लेना चाहिए कि उन्हें अपना भाग्य खराब लगता है। इस किस्म की हताशा कोई साधारण या क्षणिक विद्रोहीपन नहीं है, न ही यह भ्रष्ट स्‍वभाव का क्षणिक प्रकटन है, भ्रष्‍ट अवस्‍था का प्रकटन तो बिल्‍कुल भी नहीं। इसके बजाय, यह परमेश्वर का मौन विरोध है, और परमेश्वर ने उनके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है उसके प्रति असंतोष से उपजा मौन विरोध भी है। भले ही यह एक साधारण नकारात्मक भावना हो, लेकिन लोगों के लिए इसके दुष्परिणाम भ्रष्ट स्वभाव के नतीजों से भी ज्यादा गंभीर होते हैं। यह तुम्‍हें अपने कर्तव्य, अपने दैनिक जीवन और जीवन यात्रा के प्रति सकारात्मक और सही रवैया अपनाने से तो रोकता ही है, लेकिन उससे भी गंभीर बात यह है कि यह तुम्हें अवसाद के जरिए नष्ट भी कर सकता है। इसलिए, बुद्धिमान लोगों को फटाफट इन भ्रामक विचारों को पूरी तरह बदल देना चाहिए, आत्मचिंतन कर परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में खुद को जानना चाहिए, और यह मालूम करना चाहिए कि वे किन कारणों से अपने भाग्य को खराब मान बैठे हैं; उन्हें यह पता करना चाहिए कि उनकी गरिमा या उनके दिल को ऐसे कैसे चोट पहुँची है कि उनमें अपना भाग्य खराब होने की नकारात्मक सोच पैदा हो गई, जिसने उन्हें अवसाद की नकारात्मक भावना की खाई में धकेल दिया है, जिससे वे कभी उबर ही नहीं पाए हैं, आज तक भी नहीं। यह एक ऐसा मसला है जिसे तुम्हें आत्मचिंतन कर जाँचना चाहिए। हो सकता है कुछ मामले तुम्हारे दिलों में गहराई से पैठे हों, किसी ने तुमसे कोई बुरी बात कह दी हो, जिससे तुम्हारा आत्मसम्मान आहत हुआ हो, और इससे तुम्हें लगा हो कि तुम्हारा भाग्य खराब है, और इस तरह तुम अवसाद में डूब गए हो; या शायद तुम्हारे जीवन में या बड़े होते समय कोई शैतानी या सांसारिक विचार या ख्याल जागा हो जिसने भाग्य के बारे में तुम्‍हारी यह गलत समझ पैदा कर दी हो और तुम इस बात को लेकर बहुत ही संवेदनशील हो गए हो कि तुम्‍हारा भाग्‍य अच्‍छा है या खराब; या शायद किसी समय किसी व्‍यथित करने वाली चीज का अनुभव करके तुम अपने भाग्य के प्रति बहुत ही गंभीर और संवेदनशील हो गए, और फिर तुममें अपना भाग्य बदलने की धुन सवार हो गई—तुम्हें इन सभी चीजों की जाँच करनी चाहिए। लेकिन तुम इन चीजों की जाँच चाहे कैसे भी करो, तुम्हें अंततः यह समझना चाहिए : तुम्हें अपने भाग्य को मापने के लिए अच्छे-बुरे भाग्य संबंधी प्रचलित विचारों और सोच का प्रयोग नहीं करना चाहिए। किसी व्यक्ति के जीवन का भाग्य परमेश्वर की मुट्ठी में होता है और परमेश्वर बहुत पहले ही इसकी व्यवस्था कर चुका है; यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग बदल सकते हों। मगर अपने जीवनकाल में कोई व्यक्ति किस प्रकार के मार्ग पर चलता है और वह मूल्यवान जीवन जीता है या नहीं, इन विकल्पों को वह स्वयं चुन सकता है। तुम मूल्यवान जीवन जीने, मूल्यवान चीजों के लिए जीने, सृष्टिकर्ता की योजनाओं और प्रबंधन के लिए जीने और मानवजाति के उचित आदर्श के लिए जीने का विकल्प चुन सकते हो। बेशक, तुम सकारात्मक चीजों के लिए जीने की बजाय शोहरत और लाभ, किसी आधिकारिक करियर, धन और सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागने का जीवन भी चुन सकते हो। तुम किसी भी प्रकार के मूल्‍य से रहित जीवन जीने का विकल्प चुनकर एक चलते-फिरते मुर्दे जैसे बन सकते हो। ये वे तमाम विकल्प हैं जो तुम चुन सकते हो।

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