सत्य का अनुसरण कैसे करें (19) भाग चार
वयस्क बच्चों से ऐसी अपेक्षाएँ रखने के अलावा, माता-पिता अपने बच्चों से एक ऐसी अपेक्षा रखते हैं जोकि दुनिया भर के माता-पिताओं में एक-जैसी है, और वह यह उम्मीद है कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखेंगे और अपने माता-पिता से अच्छी तरह पेश आएँगे। बेशक, कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों और प्रांतों में बच्चों से और ज्यादा खास अपेक्षाएँ रखी जाती हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने के अलावा, अपने माता-पिता की अंतिम समय तक देखभाल कर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी करनी होती है, वयस्क होने के बाद अपने माता-पिता के साथ रहना पड़ता है, और उनके जीवनयापन की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। अपनी संतान के प्रति माता-पिता की अपेक्षाओं का यह अंतिम पहलू है जिस पर अब हम चर्चा करेंगे—यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें, और बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें। क्या सभी माता-पिता बच्चों को जन्म देने के पीछे यही मूल मंशा नहीं रखते और साथ ही अपने बच्चों से यही बुनियादी अपेक्षा नहीं रखते? (हाँ, जरूर।) जब बच्चे छोटे होते हैं और चीजें नहीं समझते, तभी माता-पिता उनसे पूछते हैं : “जब तुम बड़े होकर पैसे कमाओगे, तो तुम किस पर खर्च करोगे? क्या मम्मी-डैडी पर खर्च करोगे?” “हाँ।” “क्या डैडी के माता-पिता पर खर्च करोगे?” “हाँ।” “क्या तुम मम्मी के माता-पिता पर खर्च करोगे?” “हाँ।” कोई बच्चा कुल कितना कमा सकता है? उसे अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और अपने दूर के रिश्तेदारों को भी सहारा देना है। मुझे बताओ, क्या किसी बच्चे पर यह भारी बोझ नहीं है, क्या वह दुर्भाग्यशाली नहीं है? (हाँ।) हालाँकि वे बच्चों की ही तरह मासूम और नादान ढंग से बोलते हैं और नहीं जानते कि वे वास्तव में क्या बोल रहे हैं, यह एक विशेष वास्तविकता दिखाता है कि माता-पिता अपने बच्चों को एक प्रयोजन से पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, और वह प्रयोजन न तो शुद्ध है और न ही सरल। जब उनके बच्चे बहुत छोटे होते हैं, तभी माता-पिता माँगें तय करना शुरू कर देते हैं, और हमेशा यह पूछकर उनकी परीक्षा लेते रहते हैं, “जब तुम बड़े हो जाओगे, तो क्या मम्मी-डैडी को सहारा दोगे?” “हाँ।” “क्या तुम डैडी के माता-पिता को सहारा दोगे?” “हाँ।” “क्या तुम मम्मी के माता-पिता को सहारा दोगे?” “हाँ।” “तुम्हें सबसे ज्यादा कौन पसंद है?” “मुझे मम्मी सबसे ज्यादा पसंद है।” फिर डैड को जलन होती है, “डैडी का क्या?” “मुझे डैडी सबसे ज्यादा पसंद हैं।” तो मम्मी को जलन होती है, “तुम सचमुच किसे सबसे ज्यादा पसंद करते हो?” “मम्मी और डैडी।” तब दोनों माता-पिता संतुष्ट हो जाते हैं। वे प्रयत्न करते हैं कि उनके बच्चे बोलना सीखते ही संतानोचित निष्ठा रखने लगें, और उम्मीद करते हैं कि बड़े होकर वे उनसे अच्छी तरह पेश आएँगे। हालाँकि ये बच्चे खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते, और ज्यादा कुछ समझ नहीं पाते, फिर भी माता-पिता अपने बच्चों के जवाबों में एक वायदा सुनना चाहते हैं। साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों में अपना भविष्य भी देखना चाहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि जिन बच्चों को वे पाल-पोस कर बड़ा कर रहे हैं वे कृतघ्न नहीं होंगे, बल्कि संतानोचित धर्मनिष्ठ बच्चे बनेंगे जो उनकी जिम्मेदारी उठाएँगे, और उससे भी ज्यादा जिन पर वे भरोसा कर सकेंगे और जो बुढ़ापे में उन्हें सहारा देंगे। हालाँकि वे ये सवाल अपने बच्चों से बचपन से ही पूछते रहे हैं, पर ये सवाल सरल नहीं हैं। ये इन माता-पिता के दिलों की गहराई से निकली संपूर्ण अपेक्षाएँ और आशाएँ हैं, अत्यंत वास्तविक अपेक्षाएँ और अत्यंत वास्तविक आशाएँ। तो जैसे ही उनके बच्चे चीजों की समझ हासिल करने लगते हैं, माता-पिता को आशा होने लगती है कि उनके बीमार होने पर बच्चे चिंता दिखाएँगे, उनके सिरहाने बैठेंगे और उनकी देखभाल करेंगे, भले ही यह उन्हें पीने के लिए पानी देना ही क्यों न हो। हालाँकि बच्चे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, पैसों की या ज्यादा व्यावहारिक मदद नहीं कर सकते, फिर भी उन्हें इतनी संतानोचित निष्ठा का प्रदर्शन करना चाहिए। माता-पिता बच्चों के छोटे होने पर भी यह संतानोचित निष्ठा देखना चाहते हैं, और समय-समय पर इसकी पुष्टि करना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, जब माता-पिता की तबीयत ठीक न हो या वे काम से थक गए हों, तो वे यह देखना चाहते हैं कि क्या उनके बच्चे उनके लिए चाय-कॉफी लाना, जूते लाना, उनके कपड़े धोना, या उनके लिए सरल-सा खाना बनाना या अंडा चावल बनाना जानते हैं, या क्या वे अपने माता-पिता से पूछते हैं, “क्या आप थक गए हैं? अगर हाँ, तो मैं आपके खाने के लिए कुछ बना देता हूँ।” कुछ माता-पिता छुट्टियों के दौरान बाहर चले जाते हैं और जानबूझकर खाने के वक्त खाना बनाने के लिए घर नहीं पहुँचते, बस यह देखने के लिए कि क्या उनके बच्चे बड़े और समझदार हो गए हैं, क्या वे उनके लिए खाना बनाना जानते हैं, क्या वे संतानोचित निष्ठा का पालन करना और विचारशील होना जानते हैं, क्या वे उनकी मुश्किलें बाँट सकते हैं या फिर वे बेदर्द कृतघ्न हैं, क्या उन्होंने उन्हें बेकार ही बड़ा किया। बच्चों के बड़े होते समय और वयस्क अवस्था में भी उनके माता-पिता निरंतर उनकी परीक्षा लेते हुए इस मामले में ताक-झाँक करते रहते हैं, और साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों से निरंतर माँगें करते रहते हैं, “तुझे ऐसा बेदर्द कृतघ्न नहीं होना चाहिए। हम, तेरे माता-पिता ने, तुझे पाल-पोस कर बड़ा क्यों किया? इसलिए कि हमारे बूढ़े हो जाने पर तू हमारी देखभाल करेगा। क्या हमने तुझे बेकार ही बड़ा किया? तुझे हमारी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुझे बड़ा करना हमारे लिए आसान नहीं था। यह कड़ी मेहनत का काम था। तुझे विचारशील होकर ये चीजें जाननी चाहिए।” खास तौर से तथाकथित विद्रोहपूर्ण दौर में, यानी किशोरावस्था से वयस्क अवस्था में आते समय कुछ बच्चे ज्यादा समझदार या विवेकशील नहीं होते और अक्सर अपने माता-पिता की उपेक्षा करते हैं, मुसीबत पैदा करते हैं। उनके माता-पिता रोते हैं, तमाशा करते हैं, और यह कहकर उनका सिर खाते हैं, “तू नहीं जानता, तेरे बचपन में तेरी देखभाल करने के लिए हमने कितने कष्ट सहे! हमें उम्मीद नहीं थी कि तू यूँ बड़ा होगा, बिल्कुल भी संतानोचित निष्ठा नहीं है, घरेलू रोजमर्रा के कामों या हमारी मुश्किलों का बोझ बाँटने के बारे में तू बिल्कुल अनजान है। तू नहीं जानता हमारे लिए यह सब कितना मुश्किल है। तू संतानोचित निष्ठा नहीं रखता, उपेक्षापूर्ण है, अच्छा इंसान नहीं है!” अवज्ञाकारी होने या पढ़ाई या दैनिक जीवन में उग्र व्यवहार दिखाने के लिए अपने बच्चों पर नाराज होने के अलावा, माता-पिता के गुस्से का एक और कारण यह है कि वे अपने बच्चों में अपना भविष्य नहीं देख सकते, या वे देखते हैं कि उनके बच्चे भविष्य में संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाएँगे, वे विचारशील नहीं हैं, न ही अपने माता-पिता के लिए दुखी होते हैं, वे अपने माता-पिता को अपने दिलों में नहीं बसाते, या और सटीक ढंग से कहें तो वे जाकर माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना नहीं जानते। तो माता-पिता की दृष्टि से ऐसे बच्चों से कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती : वे कृतघ्न या उपेक्षापूर्ण हो सकते हैं, और उनके माता-पिता अत्यंत दुखी हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने बच्चों की खातिर जो निवेश या खर्च किए वह बेकार था, उन्होंने बुरा सौदा किया, वह इस लायक नहीं था, वे पछताते हैं, दुखी होते हैं, संतप्त और व्यथित होते हैं। लेकिन वे किया हुआ खर्च वापस नहीं पा सकते, और जितना वे वापस नहीं ले पाते उन्हें उतना ही पछतावा होता है, वे उतना ही यह कहकर माँगना चाहते हैं कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा दिखाएँ, “क्या तू थोड़ी संतानोचित निष्ठा नहीं दिखा सकता? क्या तू थोड़ा समझदार नहीं हो सकता? क्या तेरे बड़े होने पर हम तुझ पर भरोसा कर पाएँगे?” मिसाल के तौर पर, मान लो कि माता-पिता को पैसों की जरूरत हो, और बिन माँगे ही बच्चे उनके लिए पैसे ला कर दे दें। मान लो कि माता-पिता मटन या कुछ लजीज और पोषक खाना चाहते हों, और वे इस बारे में कुछ न बोलें, फिर भी उनके बच्चे उनके लिए वैसा ही खाना घर ले आएँ। ये बच्चे अपने माता-पिता के प्रति खास तौर पर विचारशील हैं—वे काम में चाहे जितने भी व्यस्त हों, या उनका पारिवारिक बोझ जितना भी ज्यादा हो—वे हमेशा अपने माता-पिता का ख्याल रखते हैं। फिर उनके माता-पिता सोचेंगे, “आह, हम अपने बच्चों पर भरोसा कर सकते हैं, वे आखिरकार बड़े हो गए हैं, उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में खर्च की गई पूरी ऊर्जा इस लायक थी, उन पर किया गया खर्च इस योग्य था, हमें अपने निवेश का प्रतिलाभ मिला है।” लेकिन अगर बच्चे माता-पिता की अपेक्षा से थोड़ा भी कम करते हैं, तो वे इस आधार पर उन्हें आँकने लगेंगे कि उनमें कितनी संतानोचित निष्ठा है, वे तय कर देते हैं कि उनमें संतानोचित निष्ठा नहीं है, वे अविश्वसनीय हैं, कृतघ्न हैं और उन्होंने उन्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया।
कुछ ऐसे भी माता-पिता हैं जो कभी-कभी काम में या कुछ छिटपुट चीजों में व्यस्त रहते हैं, और थोड़ा देर से घर आने पर वे देखते हैं कि उनके बच्चों ने रात का खाना बना लिया है और उनके लिए कुछ भी नहीं बचाया है। ये युवा अब तक उस उम्र के नहीं हुए हैं, वे शायद इस बारे में नहीं सोचते या यह करने की उन्हें आदत नहीं है, या हो सकता है कुछ लोगों में बस उस मानवता की कमी हो, और वे दूसरों के प्रति विचारशीलता या परवाह न दिखा पाते हों। हो सकता है वे अपने माता-पिता से प्रभावित हुए हों, या उनकी मानवता सहज ही स्वार्थी हो, इसलिए वे अपने लिए ही खाना बना कर खा लेते हैं, अपने माता-पिता के लिए नहीं रखते या खाना थोड़ा ज्यादा नहीं बनाते। जब माता-पिता घर आकर यह देखते हैं, तो उन्हें गहरा आघात लगता है, वे परेशान हो जाते हैं। वे किस बात को लेकर परेशान हैं? वे सोचते हैं कि उनके बच्चों में न तो संतानोचित निष्ठा है, न ही वे समझदार हैं। खास तौर से एकल माताएँ : जब वे अपने बच्चों को ऐसा बर्ताव करते हुए देखती हैं तो और ज्यादा परेशान हो जाती हैं। वे रोने-चिल्लाने लगती हैं, “तू सोचती है तुझे इतने साल पाल-पोस कर बड़ा करना मेरे लिए आसान था? इतने साल तुझे बड़ा करते हुए मैं तेरी माँ और पिता दोनों थी। मैं कड़ी मेहनत करती हूँ, और जब घर आती हूँ तो तू मेरे लिए खाना तक नहीं बनाती। एक कटोरा दलिया भी होता, गर्म न भी हो, फिर भी यह तेरे प्यार का अच्छा प्रदर्शन रहा होता। तू इस उम्र में भी यह कैसे नहीं समझती?” बच्चे नहीं समझते और उपयुक्त कार्य नहीं करते, लेकिन अगर तुम उनसे यह अपेक्षा न रखते तो क्या इतने नाराज होते? क्या इस मामले को इतनी गंभीरता से लेते? क्या इसे संतानोचित निष्ठा के एक मानदंड के रूप में लेते? अगर वे तुम्हारे लिए खाना न बनाएँ, तो तुम अभी भी अपने लिए बना सकते हो। अगर वे न होते, तो क्या तुम जीते नहीं रहते? अगर वे तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा नहीं रखते, तो क्या तुम्हें उन्हें जन्म नहीं देना चाहिए था? अगर वे सचमुच जीवन भर कभी भी तुम्हें सँजोना और तुम्हारी देखभाल करना न सीख पाएँ, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस मामले से सही ढंग से पेश आना चाहिए या इसे लेकर नाराज, परेशान और पछतावा करते रहना चाहिए, उनसे हमेशा भिड़े रहना चाहिए? क्या करना सही है? (मामले को सही दृष्टि से देखना।) कुल मिलाकर तुम अब भी नहीं जानते कि क्या करना है। अंत में, तुम बस लोगों से कहते हो, “बच्चे मत जनो। तुम जिस भी बच्चे को जन्म दोगे, पछताओगे। बच्चे पैदा करने या उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में कुछ अच्छा नहीं होता। वे हमेशा बड़े होकर बेदिल कृतघ्न हो जाते हैं! बेहतर है खुद के साथ अच्छे हों, किसी से भी कोई उम्मीद न रखें। कोई भी भरोसेमंद नहीं है! सभी कहते हैं कि बच्चों पर भरोसा किया जा सकता है, लेकिन तुम किस पर भरोसा कर सकते हो? बात तो यह है कि वे तुम्हारे भरोसे रह सकते हैं। तुम सौ अलग-अलग तरीकों से उनसे लाड़-प्यार करते हो, लेकिन बदले में वे सोचते हैं कि तुम्हारे साथ थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार करना ही बहुत बड़ी दयालुता है, और यह तुम्हारे साथ उचित व्यवहार करना माना जा सकता है।” क्या यह वक्तव्य गलत है? क्या यह समाज में मौजूद एक प्रकार की राय है, एक प्रकार का विचार या नजरिया है? (हाँ, जरूर है।) “सभी लोग कहते हैं कि बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने से तुम्हें बुढ़ापे में सहारा मिलता है। उनसे अपने लिए एक बार का खाना बनवाना भी आसान नहीं है, बुढ़ापे में सहारा मिलना तो दूर की बात है। उस पर भरोसा मत करो!” यह कैसा वक्तव्य है? क्या यह बस कुढ़ते हुए बहुत बड़बड़ाना नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इस बड़बड़ का स्रोत क्या है? क्या यह नहीं कि माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाएँ बहुत ऊँची होती हैं? उन्होंने उनके लिए मानक और अपेक्षाएँ बना रखी हैं, वे माँग करते हैं कि वे संतानोचित निष्ठा रखें, विचारशील हों, जब वे बड़े हो जाएँ तो उनकी हर बात मानें, और वह सब करें जो संतानोचित निष्ठा रखने के लिए करना चाहिए और वह करें जो एक बच्चे को करना चाहिए। एक बार तुम ये माँगें और मानक तय कर दो, तो तुम्हारे बच्चे कुछ भी करें उनके लिए इन्हें पूरा करना असंभव होगा, और तुम बड़बड़ाते ही रहोगे और ढेरों शिकायतें लिए बैठे रहोगे। तुम्हारे बच्चे चाहे जो भी करें, तुम उन्हें जन्म देने पर पछताओगे, तुम्हें लगेगा कि फायदे के मुकाबले नुकसान ज्यादा हैं, और तुम्हारे निवेश पर कोई प्रतिलाभ नहीं है। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) क्या यह इसलिए नहीं है कि बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का तुम्हारा लक्ष्य ही गलत है? (हाँ।) ऐसे नतीजे लाना सही है या गलत? (यह गलत है।) ऐसे नतीजे लाना गलत है, और स्पष्ट रूप से बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का तुम्हारा शुरुआती लक्ष्य भी गलत था। बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करना अपने आप में इंसानों की एक जिम्मेदारी और दायित्व है। मूल रूप से यह मानवीय सहजज्ञान था, और बाद में यह एक दायित्व और जिम्मेदारी बन गया। बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखना या बुढापे में अपने माता-पिता को सहारा देना जरूरी नहीं है, और ऐसा नहीं है कि लोगों को वैसे ही बच्चे पैदा करने चाहिए जो संतानोचित निष्ठा रखते हों। इस लक्ष्य का उद्गम ही अशुद्ध है, इसलिए इसके कारण आखिरकार लोग ऐसे गलत विचार और नजरिये व्यक्त करते हैं : “अरे बाप रे, कुछ भी करो मगर बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा मत करो।” चूँकि लक्ष्य अशुद्ध है, उसके परिणामस्वरूप आने वाले विचार और नजरिये भी गलत होते हैं। इसलिए क्या उन्हें सुधार कर जाने नहीं देना चाहिए? (बिल्कुल।) किसी को उसे कैसे जाने देना और सुधारना चाहिए? किस प्रकार का लक्ष्य शुद्ध होता है? कैसा विचार और नजरिया सही होता है? दूसरे शब्दों में, बच्चों से अपने रिश्ते को किस तरह सँभालना सही है? सबसे पहले बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का चुनाव तुम्हारा है, तुमने स्वेच्छा से उन्हें जन्म दिया, और जन्म लेने में वे निष्क्रिय थे। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए संतान को जन्म देने के कार्य और जिम्मेदारी के अलावा, और परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने के अलावा, जो लोग माता-पिता हैं उनका व्यक्तिपरक कारण और आरंभ बिंदु यह है कि वे अपने बच्चों को जन्म देने के इच्छुक थे। अगर तुम बच्चे जनने के इच्छुक हो, तो तुम्हें उन्हें पाल-पोसकर और पोषण देकर बड़ा करना चाहिए, उन्हें स्वतंत्र बनने देना चाहिए। तुम बच्चे जनने के इच्छुक हो, और पहले ही उनको पाल-पोसकर बड़ा करने के द्वारा बहुत हासिल कर चुके हो—तुम्हें बहुत लाभ मिल चुका है। सबसे पहले तुमने अपने बच्चों के साथ जीते हुए बड़े उल्लासपूर्ण समय का आनंद लिया है, तुमने उनको पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का भी आनंद लिया है। हालाँकि इस प्रक्रिया के अपने उतार-चढ़ाव थे, फिर भी ज्यादा कर के इसमें तुम्हें अपने बच्चों का साथ देने और उनके साथ जाने की भरपूर खुशी मिली है, जो कि मनुष्य होने की एक जरूरी प्रक्रिया है। तुमने इन चीजों का मजा लिया है, और तुम अपने बच्चों से पहले ही बहुत-कुछ हासिल कर चुके हो, क्या यह सही नहीं है? बच्चे अपने माता-पिता के लिए सुख और साहचर्य लेकर आते हैं, और वे माता-पिता ही हैं जो कीमत चुकाकर और अपने समय और ऊर्जा का निवेश कर इन नन्हे शिशुओं को धीरे-धीरे वयस्क होते देखने का मौका पाते हैं। बिल्कुल कुछ भी न जानने वाले नादान नन्हे शिशुओं के रूप में शुरू होकर, उनके बच्चे धीरे-धीरे बोलना सीखते हैं, शब्दों को साथ जोड़ने की काबिलियत हासिल कर लेते हैं, विविध ज्ञान पाकर उनमें भेद करना, माता-पिता से बातचीत और संवाद करना और मामलों को बराबरी के नजरिये से देखना सीख लेते हैं। माता-पिता इस प्रकार की प्रक्रिया से गुजरते हैं। उनकी इस प्रक्रिया का स्थान कोई भी दूसरी घटना या भूमिका नहीं ले सकती। माता-पिता पहले ही अपने बच्चों से इन चीजों का आनंद ले चुके हैं, इन्हें पा चुके हैं, जोकि उनके लिए एक बहुत बड़ी सांत्वना और पुरस्कार है। दरअसल, सिर्फ बच्चों को जन्म देने और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने के कार्य से ही तुम पहले ही उनसे बहुत-कुछ हासिल कर चुके हो। तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा का पालन करेंगे या नहीं, क्या अपनी मृत्यु से पहले तुम उन पर भरोसा कर सकोगे, और तुम उनसे क्या प्राप्त कर सकोगे, ये चीजें इस बात पर निर्भर करती हैं कि क्या तुम लोगों का साथ रहना नियत है, और यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, तुम्हारे बच्चे कैसे माहौल में जीते हैं, उनके जीवनयापन की दशा कैसी है, क्या वे इस स्थिति में हैं कि तुम्हारी देखभाल कर सकें, क्या उनकी वित्तीय स्थिति ठीक है, क्या उनके पास तुम्हें भौतिक आनंद और सहायता देने के लिए अतिरिक्त धन है, ये भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करते हैं। इसके अलावा, माता-पिता के तौर पर व्यक्तिपरक ढंग से, क्या तुम्हारे भाग्य में है कि तुम अपने बच्चों द्वारा दी जाने वाली भौतिक वस्तुओं, धन या भावनात्मक आराम का आनंद लो, यह भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) ये वे चीजें नहीं हैं जिनकी इंसान माँग कर सकते हैं। देखो, कुछ बच्चे माता-पिता को पसंद नहीं होते, और माता-पिता उनके साथ रहने को तैयार नहीं होते, लेकिन परमेश्वर ने उनका अपने माता-पिता के साथ रहना नियत किया है, इसलिए वे ज्यादा दूर यात्रा नहीं कर सकते या अपने माता-पिता को नहीं छोड़ सकते। वे जीवन भर अपने माता-पिता के साथ ही फँसे रहते हैं—तुम कोशिश करके भी उन्हें दूर नहीं भगा सकते। दूसरी ओर, कुछ बच्चों के माता-पिता उनके साथ रहने के बहुत इच्छुक होते हैं; वे अलग नहीं किए जा सकते, हमेशा एक-दूसरे को याद करते हैं, लेकिन विविध कारणों से वे माता-पिता के शहर या उनके देश में नहीं रह पाते। उनके लिए एक-दूसरे को देखना और आपस में बात करना मुश्किल होता है; हालाँकि संचार के तरीके बहुत विकसित हो चुके हैं, और वीडियो संवाद भी संभव है, फिर भी यह दिन-रात साथ रहने से अलग है। चाहे जिस कारण से उनके बच्चे विदेश जाते हैं, शादी के बाद किसी दूसरी जगह काम करते या जीवनयापन करते हैं, वगैरह, इससे उनके और उनके माता-पिता के बीच एक बहुत बड़ा फासला आ जाता है। एक बार भी मिलना आसान नहीं होता और फोन या वीडियो कॉल करना समय पर निर्भर करता है। समय के अंतर या दूसरी असुविधाओं के कारण वे अपने माता-पिता से अक्सर संवाद नहीं कर पाते। ये बड़े पहलू किससे संबंधित हैं? क्या ये सब परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने से संबद्ध नहीं हैं? (हाँ।) यह ऐसी चीज नहीं है जिसका फैसला माता-पिता या बच्चे की व्यक्तिपरक इच्छाओं से किया जा सकता है; सबसे बढ़कर यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, माता-पिता को चिंता होती है कि क्या वे भविष्य में अपने बच्चों पर भरोसा कर सकेंगे। तुम उन पर किसलिए भरोसा करना चाहते हो? चाय लाने और पानी देने के लिए? यह कैसी निर्भरता है? क्या तुम खुद यह नहीं कर सकते? अगर तुम स्वस्थ हो और चल-फिरकर अपनी देखभाल कर सकते हो, अपने तमाम काम खुद कर सकते हो, तो क्या यह बढ़िया नहीं है? तुम्हें अपनी सेवा के लिए दूसरों के भरोसे रहने की जरूरत क्यों है? क्या अपने बच्चों की देखभाल और साथ का आनंद लेना, और खाने की मेज और दूसरी जगहों पर उनका तुम्हारी सेवा करना सचमुच में खुशी की बात है? जरूरी नहीं। अगर तुम चल-फिर नहीं सकते, और उन्हें सचमुच खाने की मेज और अन्य जगहों पर तुम्हारी सेवा करनी पड़ रही है, तो क्या यह तुम्हारे लिए खुशी की बात है? अगर तुम्हें विकल्प दिया जाए, तो तुम क्या चुनोगे, यह कि तुम स्वस्थ रहो और तुम्हें अपने बच्चों की देखभाल की जरूरत न पड़े, या यह कि तुम लकवे से बिस्तर पर पड़े रहो और तुम्हारे बच्चे तुम्हारे सिरहाने रहें? तुम किसे चुनोगे? (स्वस्थ होना।) स्वस्थ रहना बहुत-बहुत बेहतर है। चाहे तुम 80, 90 या 100 साल तक भी जियो, तुम खुद अपनी देखभाल कर सकते हो। यह जीवन की अच्छी गुणवत्ता है। भले ही तुम बूढ़े हो जाओ, तुम्हारा दिमाग उतना न चले, तुम्हारी याददाश्त कमजोर हो जाए, कम खाने लगो, काम धीरे-धीरे करो, अच्छे ढंग से न कर पाओ, और बाहर जाना उतना सुविधाजनक न हो, फिर भी यह बड़ी बात है कि तुम अपनी बुनियादी जरूरतों का खुद ख्याल रख पाते हो। कभी-कभी हेलो कहने के लिए अपने बच्चों से फोन आना या छुट्टियों के दौरान उनका घर आकर तुम्हारे साथ रहना काफी है। उनसे ज्यादा माँगने की क्या जरूरत है? तुम हमेशा अपने बच्चों के भरोसे रहते हो; क्या तुम तभी खुश होगे जब वे तुम्हारे गुलाम बन जाएँगे? क्या तुम्हारा इस तरह सोचना स्वार्थ नहीं है? तुम हमेशा माँग करते हो कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें और तुम उन पर भरोसा कर सको—भरोसा करने के लिए क्या है? क्या तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भरोसे थे? अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भरोसे थे ही नहीं, तो तुम क्यों सोचते हो कि तुम्हें अपने बच्चों के भरोसे रहना चाहिए? क्या यह बेतुका नहीं है? (बिल्कुल।)
बच्चे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, इस अपेक्षा के मामले में माता-पिता को एक ओर यह जानना चाहिए कि सब-कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित होता है और यह परमेश्वर के विधान पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, लोगों को विवेकी होना चाहिए और बच्चों को जन्म दे कर माता-पिता को जीवन में सहज ही कुछ विशेष अनुभव होता है। उन्होंने अपने बच्चों से पहले ही बहुत-कुछ पा लिया है, और परवरिश करने का सुख-दुख समझ लिया है। यह प्रक्रिया उनके जीवन का समृद्ध अनुभव है, और बेशक यह एक यादगार अनुभव भी है। यह उनकी मानवता में मौजूद कमियों और अज्ञान की भरपाई करता है। बतौर माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण से उन्हें जो प्राप्त होना चाहिए वे पहले ही प्राप्त कर चुके हैं। अगर वे इससे संतुष्ट न हों और माँग करें कि उनके बच्चे सहायकों या गुलामों की तरह उनकी सेवा करें, और अपेक्षा करें कि उनके पालन-पोषण के एवज में बच्चे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, उनका अंतिम संस्कार करें, उन्हें ताबूत में रखें, घर में उनके शव को सड़ने से बचाएँ, उनके मरने पर उनके लिए जोरों से रोएँ, तीन साल तक उनके लिए शोक मनाएँ, आदि, उनके बच्चे इस तरह उनका कर्ज चुकाएँ, तो यह अनुचित और अमानवीय हो जाता है। देखो, लोगों को उनके माता-पिता से पेश आने का तरीका सिखाने के संदर्भ में परमेश्वर बस इतनी अपेक्षा रखता है कि वे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, और बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि मृत्यु होने तक वे माता-पिता को सहारा दें। परमेश्वर लोगों को यह जिम्मेदारी और दायित्व नहीं देता—उसने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। परमेश्वर केवल बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने का परामर्श देता है। माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखना एक विशाल दायरे वाला सामान्य वक्तव्य है। आज अगर हम इस बारे में विशिष्ट अर्थ में बात करें तो इसका अर्थ है अपनी काबिलियत और हालात के अंदर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना—यह काफी है। इतनी सरल बात है, बच्चों से बस यही एकमात्र अपेक्षा है। तो माता-पिता को यह बात कैसे समझनी चाहिए? परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि “बच्चों को माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए, और उन्हें विदा करना चाहिए।” इसलिए, जो माता-पिता हैं उन्हें अपना स्वार्थ छोड़ देना चाहिए और अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनके बच्चों की हर बात सिर्फ इसलिए उनसे जुड़ी होगी क्योंकि उन्होंने उन्हें जन्म दिया। अगर बच्चे अपने माता-पिता के आसपास नहीं मंडराते और उन्हें अपने जीवन का केंद्र नहीं मानते, तो माता-पिता के लिए यह ठीक नहीं कि वे उन्हें निरंतर डाँटते रहें, उनके जमीर को परेशान करें, और ऐसी बातें कहें, “तू कृतघ्न है, तुझमें संतानोचित निष्ठा नहीं है, बात नहीं मानता, और इतने समय तक तेरी परवरिश करके भी मैं तुझ पर भरोसा नहीं कर सकता,” हमेशा अपने बच्चों को इस तरह डाँटते रहना और उन पर बोझ डालना ठीक नहीं है। यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें और उनके साथ रहें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, फिर मृत्यु होने पर दफनाएँ, और जहाँ भी जाएँ हमेशा उनके बारे में सोचते रहें, सहज रूप से यह काम करने का गलत रास्ता है, एक अमानवीय सोच और विचार है। शायद ऐसी सोच कमोबेश अलग-अलग देशों या अलग-अलग विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों में हो, लेकिन पारंपरिक चीनी संस्कृति पर गौर करें तो चीनी लोग खास तौर से संतानोचित निष्ठा पर जोर देते हैं। प्राचीन काल से वर्तमान तक, लोगों की मानवता के हिस्से और किसी के अच्छे-बुरे होने की माप के मानक के रूप में इस पर हमेशा चर्चा होती रही है। बेशक, समाज में, एक सामान्य प्रथा और लोकमत भी है कि अगर बच्चे संतानोचित निष्ठा नहीं रखते, तो उनके माता-पिता भी शर्मिंदा महसूस करेंगे, और बच्चे अपने नाम पर यह कलंक सह नहीं पाएँगे। विविध कारकों के प्रभाव में माता-पिता भी इस पारंपरिक सोच से गहराई से विषाक्त हो जाते हैं, और बिना सोचे-जाने माँग करते हैं कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें। बच्चों के पालन-पोषण का क्या तुक है? यह तुम्हारे अपने प्रयोजनों के लिए नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी और दायित्व है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। एक पहलू यह है कि बच्चों का पालन-पोषण करना मानवीय सहज ज्ञान से संबंधित है, जबकि दूसरा यह है कि यह इंसानी जिम्मेदारी का अंश है। तुम सहज ज्ञान और जिम्मेदारी के कारण बच्चों को जन्म देते हो, इस खातिर नहीं कि तुम अपने बुढ़ापे की तैयारी करो और बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल हो। क्या यह दृष्टिकोण सही नहीं है? (बिल्कुल।) क्या जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं, वे बूढ़े होने से बच सकते हैं? क्या बूढ़े होने का अर्थ अनिवार्य रूप से दुखी होना है? जरूरी नहीं है, है ना? जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं वे भी बुढ़ापे तक जी सकते हैं, कुछ तो स्वस्थ भी रहते हैं, अपने बुढ़ापे का आनंद लेते हैं, और शांति से कब्र में चले जाते हैं। क्या बच्चों वाले लोग निश्चित रूप से अपने बुढ़ापे में खुश और सेहतमंद रहने का आनंद लेते हैं? (जरूरी नहीं।) इसलिए, उम्र-दराज माता-पिता की सेहत, खुशी और जीवन स्थिति, साथ ही उनके भौतिक जीवन की गुणवत्ता का उनके बच्चों के उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखने से बहुत कम ही लेना-देना होता है, और दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारी जीने की स्थिति, जीवन की गुणवत्ता, और बुढ़ापे में शारीरिक दशा का संबंध उससे होता है, जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किया है, और जो जीने का माहौल व्यवस्थित किया है, इनका तुम्हारे बच्चों के संतानोचित निष्ठा रखने से कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारी जीने की हालत की जिम्मेदारी उठाने को तुम्हारे बच्चे बाध्य नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (बिल्कुल।) इसलिए, अपने माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया चाहे जैसा हो, चाहे वे उनकी देखभाल करना चाहें, या उसे ठीक से न करें, या उनकी बिल्कुल ही देखभाल न करना चाहें, यह बच्चों के तौर पर उनका अपना रवैया है। चलो, अभी के लिए बच्चों के नजरिये से बोलना छोड़कर सिर्फ माता-पिता के नजरिये से बोलें। माता-पिता को यह माँग नहीं करनी चाहिए कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, और अपने माता-पिता की उम्र-दराज जिंदगी का बोझ उठाएँ—इसकी कोई जरूरत नहीं है। एक ओर यह वह रवैया है जो माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति रखना चाहिए, और दूसरी ओर, यह वह आत्म-सम्मान है जो माता-पिता में होना चाहिए। बेशक, एक और भी महत्वपूर्ण पहलू है : यह वह सिद्धांत है जिसका सृजित प्राणियों के रूप में माता-पिता को अपने बच्चों से पेश आते समय पालन करना चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे चौकस हों, संतानोचित निष्ठा रखते हों, और तुम्हारी देखभाल करने को तैयार हों, तो तुम्हें उन्हें मना करने की जरूरत नहीं है; अगर वे अनिच्छुक हों, तो तुम्हें दिन भर रोते-सुबकते नहीं रहना चाहिए, दिल से परेशान और असंतुष्ट महसूस नहीं करना चाहिए, या अपने बच्चों के खिलाफ दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन और जीवित रहने की जिम्मेदारी और बोझ खुद उठाना चाहिए, और इसे दूसरों, खास तौर से अपने बच्चों पर नहीं डालना चाहिए। तुम्हें अपने बच्चों के साथ या सहायता के बगैर खुद सक्रियता और सही ढंग से अपने जीवन का सामना करना चाहिए, और अपने बच्चों से दूर होने पर भी तुम्हें जीवन में आई तमाम चीजों का अपने आप सामना करना चाहिए। बेशक, अगर तुम्हें अपने बच्चों से अनिवार्य मदद की जरूरत हो, तो तुम उनसे इसका आग्रह कर सकते हो, लेकिन यह इस विचार पर आधारित नहीं होना चाहिए कि तुम्हारे बच्चों को तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए या तुम्हें उनके भरोसे रहना चाहिए। इसके बजाय, दोनों को अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के नजरिये से एक-दूसरे के लिए काम सँभालने चाहिए, ताकि माता-पिता और बच्चे के बीच के रिश्ते को तर्कपूर्ण ढंग से सँभाल सकें। बेशक, अगर दोनों पक्ष तर्कपूर्ण हों, एक-दूसरे को स्थान दें, एक-दूसरे का सम्मान करें, तो अंत में वे यकीनन बेहतर ढंग से सद्भावना के साथ मिल-जुलकर रह सकेंगे, इस पारिवारिक स्नेह को सँजो सकेंगे, एक-दूसरे के लिए अपनी परवाह, चिंता और प्रेम को सँजो सकेंगे। बेशक, आपसी सम्मान और समझ के आधार पर ये काम करना ज्यादा मानवीय और उचित है। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) जब बच्चे अपनी जिम्मेदारियों को सही दृष्टि से देख सकें और पूरा कर सकें, और बतौर उनके माता-पिता तुम अपने बच्चों से कोई बहुत ज्यादा या असंगत माँगें नहीं करते, तो तुम पाओगे कि उनका किया हुआ हर काम बहुत स्वाभाविक और सामान्य है, और तुम सोचोगे कि यह बहुत बढ़िया है। तुम पहले की तरह उनके साथ आलोचनात्मक दृष्टि से पेश नहीं आओगे, उनके हर काम को अप्रिय, गलत या परवरिश का कर्ज चुकाने के लिए नाकाफी नहीं मानोगे। इसके विपरीत तुम हर चीज का सही रवैये के साथ सामना करोगे, अपने बच्चों से तुम्हें मिले साथ और उनकी संतानोचित निष्ठा के लिए परमेश्वर का आभार मानोगे, और सोचोगे कि तुम्हारे बच्चे बहुत अच्छे हैं, मानवीय हैं। अगर तुम्हें बच्चों का साथ और संतानोचित निष्ठा न भी मिले, तो तुम परमेश्वर को दोष नहीं दोगे, न ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने पर पछताओगे, उनसे घृणा करना तो दूर की बात है। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता के लिए यह सर्वोपरि है कि उनके प्रति उनके बच्चों का रवैया चाहे जैसा भी हो उसका वे सही ढंग से सामना करें। इसका सही ढंग से सामना करने का अर्थ है कि वे उनसे अत्यधिक माँगें न करें, उनके प्रति अतिरेकी व्यवहार न करें, और उनके हर काम की अमानवीय या नकारात्मक आलोचना कर उसके बारे में राय न बनाएँ। इस प्रकार, तुम आत्मसम्मान के साथ जीना शुरू कर दोगे। बतौर माता-पिता अपनी क्षमता, हालात और निस्संदेह परमेश्वर के विधान के अनुसार, तुम्हें परमेश्वर द्वारा दी गई हर चीज का आनंद लेना चाहिए, और अगर वह तुम्हें कुछ न दे, तो भी तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद कर उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हें यह कहकर दूसरों से अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए, “अमुक व्यक्ति के परिवार को देखो, उनका बच्चा संतानोचित निष्ठा रखता है, हमेशा अपने माता-पिता को गाड़ी में घुमाता है, और दक्षिणी प्रांतों में छुट्टियों पर ले जाता है। वे जब भी लौट कर आते हैं, ढेरों छोटे-बड़े बैग लाते हैं। वह बच्चा संतान होने का फर्ज निभाता है! उनके बच्चे को देखो, उस पर वे भरोसा कर सकते हैं। बुढ़ापे में देखभाल करने के लिए तुम्हें उस जैसे बेटे की परवरिश करनी चाहिए। अब हमारे बेटे को देखो : वह खाली हाथ घर आता है, हमारे लिए कभी कुछ नहीं खरीदता; न सिर्फ वह खाली हाथ होता है, बल्कि घर भी कभी-कभी ही आता है। अगर मैं उसे न बुलाऊँ, तो वह घर आता ही नहीं। लेकिन एक बार घर लौट आए तो उसे बस खाना-पीना ही चाहिए, वह कोई काम भी नहीं करना चाहता।” चूँकि बात ऐसी है इसलिए उसे घर वापस मत बुलाओ। अगर तुम उसे घर वापस बुलाते हो, तो क्या तुम दुखी होना नहीं चाह रहे हो? तुम जानते हो कि वह घर आएगा तो बस मुफ्त की रोटी तोड़ेगा, तो फिर उसे क्यों बुलाना? अगर ऐसा करने के पीछे तुम्हारी कोई मंशा न हो, क्या फिर भी तुम उसे घर बुलाओगे? क्या यह इसलिए नहीं कि तुम खुद को गिरा रहे हो और स्वार्थी हो रहे हो? तुम हमेशा उस पर भरोसा करना चाहते हो, इस उम्मीद से कि उसे पाल-पोसकर बड़ा करना बेकार नहीं था, यह उम्मीद करना कि तुमने खुद जिसे पाला-पोसा वह शायद बेदर्द कृतघ्न न हो। तुम हमेशा यह साबित करना चाहते हो कि तुमने जिसकी परवरिश की वह बेदर्द कृतघ्न नहीं है, तुम्हारा बच्चा संतानोचित निष्ठा रखता है। यह साबित करने का क्या लाभ? क्या तुम अपना जीवन अच्छे ढंग से नहीं जी सकते? क्या तुम बच्चों के बिना नहीं जी सकते? (हाँ।) तुम जी सकते हो। ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं, हैं कि नहीं?
कुछ लोग यह कहकर एक सड़ी हुई और पुरानी धारणा से चिपके रहते हैं, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या लोग इसलिए बच्चे जनते हैं कि वे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, न ही इससे कि जब वे जीवित हों तो उनके बच्चे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखते हैं या नहीं, लेकिन उनके मर जाने पर, उनके बच्चों को उनकी ताबूत को कंधा देना ही चाहिए। अगर उनके बच्चे उनके साथ न हों, तो उनके मरने की किसी को खबर नहीं होगी और उनका शव उनके घर में सड़ता रहेगा।” अगर कोई न जान सके तो क्या? जब तुम मर जाते हो तो मृत हो, अब किसी भी चीज के बारे में सचेत नहीं हो। तुम्हारे शरीर के मर जाने पर तुम्हारी आत्मा तुरंत उसे छोड़ देती है। मृत्यु के बाद शरीर चाहे जहाँ भी हो, या जैसा भी दिखे, वह तो मृत ही रहेगा ना? भले ही इसे शानदार अंत्येष्टि के लिए ताबूत में ले जाया जाए और जमीन में दफन कर दिया जाए, फिर भी शव तो सड़ेगा ही, है कि नहीं? लोग सोचते हैं, “तुम्हें ताबूत में रखने के लिए बच्चों का तुम्हारे साथ होना, उनका तुम्हें दफनाने वाले कपड़े पहनाना, मेकअप करना और शानदार अंत्येष्टि की व्यवस्था करना एक बड़ी अच्छी बात है। अगर तुम मर जाओ और कोई तुम्हारी अंत्येष्टि या अंतिम विदाई की व्यवस्था न करे, तो यूँ लगेगा मानो तुम्हारे संपूर्ण जीवन का उचित समापन नहीं हुआ।” क्या यह विचार सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) आजकल, युवा लोग इन चीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, लेकिन अभी भी दूर-दराज की जगहों में ऐसे लोग हैं और थोड़ी-सी अंतर्दृष्टि वाले कुछ बूढ़े लोग हैं जिनके दिलों में यह सोच और नजरिया बैठा हुआ है कि बच्चों को अपने माता-पिता की बुढ़ापे में देखभाल करनी चाहिए और उन्हें विदा करना चाहिए। तुम सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति करो, वे इसे स्वीकार नहीं करते—इसका अंतिम नतीजा क्या होता है? नतीजा यह होता है कि वे बहुत कष्ट सहते हैं। यह गाँठ उनके भीतर बहुत समय से दबी हुई है, और उनमें इसका जहर फैल जाएगा। इसे खोद कर बाहर निकाल देने पर उनमें इसका जहर नहीं रहेगा और उनका जीवन आजाद हो जाएगा। कोई भी गलत कर्म गलत विचारों के कारण होता है। अगर उन्हें अपने घर में मर जाने और सड़ जाने का डर है, तो वे हमेशा सोचते रहेंगे, “मुझे एक बेटे को पाल-पोसकर बड़ा करना है। उसके बड़े हो जाने पर मैं उसे ज्यादा दूर नहीं जाने दे सकता। मेरी मृत्यु के समय अगर वह मेरे पास न रहा तो क्या होगा? बुढ़ापे में मेरी देखभाल करने वाला या मुझे विदा करने वाला कोई न हुआ तो यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पछतावा होगा! अगर मेरे लिए यह करने वाला कोई मेरे पास हुआ, तो मेरा जीवन बेकार नहीं हुआ होगा। यह एक पूर्ण जीवन होगा। कुछ भी हो जाए मैं अपने पड़ोसियों द्वारा उपहास का विषय नहीं बन सकता।” क्या यह एक सड़ी हुई विचारधारा नहीं है? (हाँ, जरूर है।) यह संकीर्ण और अधम सोच है, जो भौतिक शरीर को बहुत ज्यादा महत्त्व देती है! असल में, भौतिक शरीर बेकार होता है : जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का अनुभव करने के बाद कुछ नहीं बचता। अगर लोगों ने जीवित रहते हुए सत्य प्राप्त कर लिया हो, तभी बचाए जाने पर वे सदा-सर्वदा जीवित रहेंगे। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे शरीर के मर जाने और नष्ट हो जाने के बाद कुछ भी नहीं बचेगा; तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति चाहे जितने भी संतानोचित निष्ठा रखते हों, तुम इसका आनंद नहीं ले पाओगे। जब कोई व्यक्ति मर जाता है और उसके बच्चे उसके शव को ताबूत में रख कर दफना देते हैं, तो क्या वह बूढ़ा शव कुछ महसूस कर सकेगा? क्या वह कोई चीज समझ सकेगा? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) उसमें लेश मात्र भी अनुभूति नहीं होती। लेकिन जीवन में, लोग इस मामले को बहुत महत्त्व देते हैं, अपने बच्चों से बहुत-सी माँगें करते हैं कि क्या वे उन्हें विदा कर सकेंगे—जोकि मूर्खता है, है कि नहीं? (हाँ, जरूर है।) कुछ बच्चे अपने माता-पिता से कहते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। जब तक आप लोग जीवित हैं, हम आपके प्रति संतानोचित निष्ठा रखेंगे, आपकी देखभाल करेंगे, आपकी सेवा करेंगे। लेकिन आपकी मृत्यु होने पर हम आपकी अंत्येष्टि की व्यवस्था नहीं करेंगे।” यह सुनकर माता-पिता नाराज हो जाते हैं। वे तुम्हारी और किसी बात पर नाराज नहीं होते, मगर जैसे ही तुम इसका जिक्र करते हो, वे यह कहकर फट पड़ते हैं, “तूने क्या कहा? नालायक, मैं तेरी टांगें तोड़ दूँगा! मैं तुझे पैदा ही न करता तो अच्छा रहता—मैं तुझे मार डालूँगा!” तुम्हारी और कोई बात उन्हें परेशान नहीं करती, सिर्फ यही करती है। उनके जीवन काल में उनके बच्चों के पास उनसे बढ़िया ढंग से पेश आने के कई मौके थे, लेकिन वे अड़े रहे कि वे अपने माता-पिता को अंतिम विदाई दें। फिर चूँकि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास रखने लगे, इसलिए उन्होंने उनसे कहा, “आपकी मृत्यु होने पर हम आपका कोई संस्कार नहीं करेंगे : हम आपका दाह संस्कार कर देंगे और अस्थि-कलश रखने के लिए कोई जगह ढूँढ़ लेंगे। जब तक आप जीवित हैं तब तक हम आपको हमारे साथ होने के आशीष का आनंद लेने देंगे, हम आपको खाना-कपड़ा मुहैया करेंगे, आपके साथ कुछ गलत नहीं होने देंगे।” क्या यह यथार्थवादी नहीं है? माता-पिता जवाब देते हैं, “इन सबका कोई लाभ नहीं। मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद तू मेरी अंत्येष्टि की व्यवस्था करे। अगर तू मेरे बुढ़ापे में मेरी देखभाल कर मुझे अंतिम विदाई नहीं देगा, तो मैं इस बात को कभी नहीं छोडूँगा!” जब कोई व्यक्ति इतना मूर्ख हो, तो वह ऐसा सरल तर्क नहीं समझ सकता, और तुम उन्हें चाहे जैसे भी समझाओ, वे समझ ही नहीं सकेंगे—वे एक पशु की तरह हैं। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो बतौर माता-पिता सबसे पहले तुम्हें उन पारंपरिक, सड़े-गले, अधम विचारों और नजरियों को त्यागना होगा जो इससे जुड़े हैं कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित धर्मनिष्ठ हैं या नहीं, बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल करेंगे या नहीं, और दफना कर तुम्हें अंतिम विदाई देंगे या नहीं और तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखना होगा। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति सचमुच संतानोचित हैं, तो इसे उचित ढंग से स्वीकार करो। लेकिन अगर तुम्हारे बच्चों के हालात ठीक न हों, उनमें तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा रखने और तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारे सिरहाने बैठकर देखभाल करने या तुम्हें अंतिम विदाई देने की ऊर्जा या इच्छा न हो, तो तुम्हें इसकी माँग करने की या दुखी होने की जरूरत नहीं है। सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है। जन्म का अपना समय होता है, मृत्यु का अपना स्थान होता है, और लोग कहाँ जन्म लेंगे और कहाँ उनकी मृत्यु होगी, यह परमेश्वर द्वारा नियत है। भले ही तुम्हारे बच्चे यह कहकर कुछ वादे करें, “आपके मरने पर, मैं निश्चित रूप से आपके साथ रहूँगा; आपको कभी निराश नहीं करूँगा,” परमेश्वर ने ऐसे हालात आयोजित नहीं किए हैं। जब तुम मरने की कगार पर पहुँचोगे, तो हो सकता है तुम्हारे बच्चे तुम्हारे साथ न हों, वे कितनी भी कोशिश कर लें समय रहते पहुँच न पाएँ—आखिरी बार शायद वे तुम्हें न देख पाएँ। तुम्हारे आखिरी साँस लेने के बाद शायद चार-पाँच दिन हो जाएँ और तुम्हारा शव लगभग नष्ट हो जाए, तभी वे लौट कर आएँ। क्या उनके वादे किसी काम के हैं? वे अपने जीवन के भी विधाता नहीं हो सकते। मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ, मगर तुम इसे मानते ही नहीं। तुम अड़े रहते हो कि वे वादा करें। क्या उनके वादे किसी काम के हैं? तुम भ्रमों से संतुष्ट हो रहे हो, और सोचते हो कि तुम्हारे बच्चे अपने वादे के पक्के होंगे। क्या तुम सचमुच सोचते हो कि वे पक्के हो सकेंगे? नहीं हो सकेंगे। हर दिन वे कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे, उनके भविष्य में क्या होना है—ये चीजें वे खुद भी नहीं जानते। उनके वादे वास्तव में तुम्हें धोखा देने का काम कर रहे हैं, तुम्हें सुरक्षा की झूठी भावना दे रहे हैं, और तुम उन पर यकीन करते हो। तुम अभी भी यह नहीं समझ सकते कि किसी व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है।
माता-पिता और उनके बच्चों के भाग्य में कितना साथ रहना नियत है, और माता-पिता अपने बच्चों से कितना कुछ पा सकते हैं—गैर-विश्वासी इसे “सहायता पाना” या “सहायता न पाना” कहते हैं। हम इसका अर्थ नहीं जानते। आखिरकार, क्या कोई अपने बच्चों पर भरोसा कर सकता है, यह सरल शब्दों में कहें तो, परमेश्वर द्वारा नियत और विधित होता है। ऐसा नहीं है कि सब-कुछ तुम्हारी कामना के अनुसार होता है। बेशक, सभी चाहते हैं कि चीजें अच्छे ढंग से हों, और वे अपने बच्चों से लाभ पाएँ। लेकिन तुमने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि यह तुम्हारे भाग्य में है या नहीं या तुम्हारी नियति में लिखा हुआ है या नहीं? तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच का बंधन कितना लंबा चलेगा, जीवन में तुम जो भी काम करते हो क्या उसका तुम्हारे बच्चों से संबंध होगा, क्या परमेश्वर ने तुम्हारे बच्चों के लिए यह व्यवस्था की है कि वे तुम्हारे जीवन की अहम घटनाओं में सहभागी बनें, और क्या तुम्हारे जीवन में कोई बड़ी घटना होने पर इससे जुड़े लोगों में तुम्हारे बच्चे होंगे—ये सब परमेश्वर के विधान पर निर्भर करते हैं। अगर परमेश्वर के विधान में यह न हो, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर वयस्क बनाने के बाद भले ही तुम उन्हें घर से बाहर न खदेड़ो, समय आने पर वे खुद ही छोड़कर चले जाएँगे। यह ऐसी चीज है जो लोगों को समझनी चाहिए। अगर तुम यह बात नहीं समझते, तो हमेशा निजी आकांक्षाएँ और माँगें पकड़े रहोगे, और अपने शारीरिक आनंद की खातिर विविध नियम स्थापित कर विविध विचारधाराएँ स्वीकार करोगे। अंत में क्या होगा? जब तुम्हारी मृत्यु होगी तो पता चल जाएगा। तुमने अपने जीवनकाल में बहुत-सी मूर्खतापूर्ण चीजें की हैं, बहुत-सी अवास्तविक चीजों के बारे में सोचा है जो तथ्यों या परमेश्वर के विधान के अनुरूप नहीं हैं। अपनी मृत्युशय्या पर इन सबका एहसास करोगे तो क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होगी? क्या स्थिति ऐसी नहीं है? (बिल्कुल।) जब तक तुम जीवित हो और तुम्हारा दिमाग संभ्रमित नहीं है, जब तक तुम कुछ खास सकारात्मक चीजों को समझाने में समर्थ हो, और शीघ्रता से उन्हें स्वीकार कर पाते हो, तब तक इसका फायदा उठाओ। उन्हें स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उन्हें विचारधारा के सिद्धांत या नारे में बदल दो, बल्कि यह है कि तुम ये चीजें करने की कोशिश करो और उनका अभ्यास करो। धीरे-धीरे अपने खुद के विचारों और स्वार्थी आकांक्षाओं को जाने दो, यह मत सोचो कि बतौर माता-पिता तुम जो भी करते हो वह सही और स्वीकार्य है, या तुम्हारे बच्चों को इसे स्वीकार करना ही चाहिए। इस प्रकार का तर्क संसार में कहीं भी मौजूद नहीं है। माता-पिता इंसान हैं—क्या उनके बच्चे नहीं हैं? बच्चे तुम्हारे अनुषंगी या गुलाम नहीं हैं; वे स्वतंत्र सृजित प्राणी हैं—वे संतानोचित हैं या नहीं इसका तुमसे क्या लेना-देना है? इसलिए, तुम लोग चाहे जैसे भी माता-पिता हो, तुम्हारे बच्चे जितने भी बड़े हों, या क्या वे तुम्हारे प्रति संतानोचित होने या स्वतंत्र रूप से जीने की उम्र के हो चुके हैं, बतौर माता-पिता तुम्हें ये विचार अपनाने चाहिए और अपने बच्चों से पेश आने को लेकर सही विचार और नजरिये स्थापित करने चाहिए। तुम्हें अति नहीं करनी चाहिए, न ही तुम्हें हर चीज को उन गलत, पतित या पुराने अप्रचलित विचारों और नजरियों से मापना चाहिए। वे विचार और नजरिये शायद मानवीय धारणाओं, मानवीय रुचियों और इंसानों की शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों के अनुरूप हों, मगर वे सत्य नहीं हैं। तुम इन्हें उचित मानो या अनुचित, ये चीजें अंत में तुम्हारे लिए बस तरह-तरह की तकलीफें और बोझ ही ला सकती हैं, तुम्हें तरह-तरह की दुविधाओं में फँसा सकती हैं, और तुम्हें अपने बच्चों के सामने गर्ममिजाजी दिखाने पर मजबूर कर सकती हैं। तुम अपना तर्क बताओगे और वे अपना, और अंत में तुम दोनों एक-दूसरे से घृणा करोगे, एक-दूसरे को दोष दोगे। परिवार अब परिवार जैसा नहीं रह जाएगा : तुम एक-दूसरे के विरुद्ध होकर दुश्मन बन जाओगे। अगर सभी लोग सत्य, सही विचार और नजरिये स्वीकार कर लें, तो इन मामलों का सामना करना आसान हो जाएगा, और उनसे उपजने वाले विरोधाभास और विवाद दूर हो जाएँगे। लेकिन अगर वे पारंपरिक धारणाओं पर अड़े रहे, तो न सिर्फ समस्याएँ हल नहीं होंगी, बल्कि उनके विरोधाभास गहरा जाएँगे। पारंपरिक संस्कृति अपने-आप में मामलों के आकलन का मानदंड नहीं है। इसका मानवता से संबंध है, और लोगों के स्नेह, स्वार्थी आकांक्षाओं और गर्ममिजाजी जैसी दैहिक चीजें इसमें मिश्रित होती हैं। बेशक, एक और भी चीज है जो पारंपरिक संस्कृति के लिए सबसे अनिवार्य है और वह है दोगलापन। लोग अपने बच्चों के संतानोचित होने का प्रयोग यह साबित करने के लिए करते हैं कि उन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा दी और उनके बच्चों में मानवता है, इसी तरह बच्चे माता-पिता के प्रति संतानोचित होकर यह साबित करते हैं कि वे कृतघ्न नहीं बल्कि विनम्र, सादे भद्रपुरुष और महिलाएँ हैं, और इस तरह वे समाज में विविध प्रजातियों और समूहों में पाँव जमाकर इसे जीवित रहने का साधन बना लेते हैं। यह सहज रूप से पारंपरिक संस्कृति का सबसे पाखंडी और अनिवार्य पहलू है, और यह मामलों के आकलन का कोई मानदंड नहीं है। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों से रखी जाने वाली इन अपेक्षाओं को जाने दें और अपने बच्चों से पेश आने और अपने प्रति अपने बच्चों के रवैये को देखने के लिए सही विचारों और नजरियों का प्रयोग करें। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और तुम उसे नहीं समझते, तो कम-से-कम इसे मनुष्य होने के नजरिये से देखना चाहिए। इसे मनुष्य होने के नजरिये से कैसे देखा जाए? इस समाज में विविध समूहों, नौकरी के पदों और सामाजिक वर्गों में जीने वाले बच्चों का जीवन आसान नहीं होता। उन्हें अलग-अलग माहौल में चीजों का सामना कर उनसे निपटना पड़ता है। परमेश्वर द्वारा स्थापित उनका अपना जीवन और नियति होती है। जीवित रहने के उनके अपने तरीके भी होते हैं। बेशक, आधुनिक समाज में, किसी स्वतंत्र व्यक्ति पर पड़ने वाले दबाव भी बहुत भारी होते हैं। वे जीवित रहने, उच्च अधिकारियों और मातहतों के बीच रिश्तों, और बच्चों से जुड़ी समस्याएँ आदि झेलते हैं—इन सबका दबाव बहुत भारी होता है। सच कहें तो किसी के लिए भी आसान नहीं होता। खास तौर से आजकल के अराजक, तेज-गति माहौल में जहाँ हर कहीं स्पर्धा और खूनी संघर्ष का दौर है, किसी का भी जीवन आसान नहीं है—सभी का जीना दूभर है। मैं इस बारे में नहीं बोलूँगा कि यह सब कैसे हुआ। ऐसे माहौल में रहते हुए अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास न रखे और अपना कर्तव्य न निभाए तो उसके लिए कोई रास्ता नहीं रह जाता। उसका एकमात्र पथ संसार का अनुसरण करना है, खुद को जीवित रखना है, निरंतर इस संसार के अनुसार ढलना है, और प्रत्येक दिन गुजारने के लिए हर कीमत पर अपने भविष्य और जीवित रहने के लिए लड़ना है। असल में उनका हर दिन दुखदाई होता है, और वे हर दिन संघर्ष करते हैं। इसलिए, अगर माता-पिता अतिरिक्त माँगें करें कि उनके बच्चे अमुक-अमुक काम करें, तो बेशक यह जले पर नमक छिड़कना होगा, उनके तन-मन को त्रस्त कर उन्हें सताना होगा। माता-पिता का अपना सामाजिक वर्ग, जीवनशैली और जीने का माहौल होता है, और बच्चों का भी अपना जीने का माहौल, स्थान और अपनी जीने की पृष्ठभूमि होती है। अगर माता-पिता बहुत ज्यादा दखल दें या अपने बच्चों से अत्यधिक माँगें करें, अपने बच्चों के लिए उन्होंने जो भी प्रयास किए उनका कर्ज चुकाने के लिए बच्चों को अमुक-अमुक काम करने को कहें; अगर तुम इसे इस नजरिये से देखो तो अत्यंत अमानवीय है, है कि नहीं? उनके बच्चे चाहे जैसे भी जिएँ या जीवित रहें या समाज में वे जिन भी मुश्किलों का सामना करें, उनके लिए कुछ भी करने की कोई जिम्मेदारी या दायित्व माता-पिता का नहीं होता। इसके अलावा, माता-पिता को अपने बच्चों के पेचीदा जीवन या जीने के मुश्किल हालात में और मुसीबतें या बोझ भी नहीं लादने चाहिए। यही वह है जो माता-पिता को करना चाहिए। अपने बच्चों से बहुत ज्यादा की माँग न करें, उन पर ज्यादा दोष न लगाएँ। तुम्हें उनके साथ निष्पक्ष और बराबरी से पेश आना चाहिए, उनकी स्थिति पर समवेदना से विचार करना चाहिए। बेशक, माता-पिता को अपना जीवन भी सँभालना चाहिए। बच्चे ऐसे माता-पिता का आदर करेंगे, और वे सम्मान के योग्य होंगे। बतौर माता-पिता अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखकर अपना कर्तव्य निभाते हो, तो परमेश्वर के घर में चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारे पास ऐसी माँगें करने के लिए वक्त नहीं होगा कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित हों, और तुम बुढ़ापे में सहारे के लिए उन पर भरोसा नहीं रखोगे। अगर अभी भी ऐसे लोग हैं, तो वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं और वे यकीनन सत्य का अनुसरण करने वालों में नहीं हैं। वे सब बस भ्रमित लोग और छद्म-विश्वासी हैं। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) अगर माता-पिता व्यस्त हैं, अगर उन्हें कर्तव्य निभाने हैं, और वे काम में व्यस्त हैं, तो उन्हें निश्चित रूप से यह बात नहीं उठानी चाहिए कि उनके बच्चे संतानोचित हैं या नहीं। अगर माता-पिता हमेशा यह कहकर यह विषय उठाते हैं, “मेरे बच्चे संतानोचित नहीं हैं : मैं उन पर भरोसा नहीं कर सकता, और वे बुढ़ापे में मेरा सहारा नहीं बन पाएँगे,” तो फिर वे बस अकर्मण्य और आलसी हैं, बेवजह मुसीबत तलाश रहे हैं। क्या स्थिति ऐसी नहीं है? ऐसे माता-पिता से सामना हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? उन्हें सबक सिखाओ। तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? बस यह कहो, “क्या आप अपने दम पर जीने में असमर्थ हैं? क्या आप ऐसे मुकाम पर हैं कि आप खा-पी नहीं सकते? क्या आप ऐसे मुकाम पर आ चुके हैं कि जीवित नहीं रह सकते? अगर आप जी सकते हैं तो जिएँ; नहीं तो मर जाएँ!” क्या तुम ऐसा कुछ कहने की हिम्मत कर सकते हो? मुझे बताओ, क्या ऐसा कहना अमानवीय है? (मैं यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता।) तुम यह कहने में असमर्थ हो, है कि नहीं? तुम ऐसा कहना बर्दाश्त नहीं कर सकते। (सही है।) जब तुम लोग थोड़े बड़े हो जाओगे, तब तुम कह सकोगे। अगर तुम्हारे माता-पिता ने बहुत-से गुस्सा दिलाने वाले काम किए हों, तब तुम यह कह सकोगे। वे तुम्हारे साथ सचमुच अच्छे थे, उन्होंने कभी तुम्हारा दिल नहीं दुखाया; अगर वे तुम्हारा दिल दुखाएँगे तो तुम यह कह पाओगे। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) अगर वे हमेशा यह कहकर माँग करते हैं कि तुम घर आ जाओ, “ए कृतघ्न बेटे, घर आओ, मेरे लिए पैसे लाओ!” और हर दिन तुम्हें डाँटें और श्राप दें, तो तुम ऐसा कह सकोगे। तुम कहोगे, “आप जी सकते हैं तो जिएँ; नहीं तो मर जाएँ! क्या आप बच्चों के बिना नहीं जी सकते? उन बेऔलाद उम्र-दराज लोगों को देखिए, क्या वे खुशहाल जिंदगी नहीं जी रहे हैं, वे काफी खुश नहीं हैं? वे हर दिन अपने जीवन की देखभाल करते हैं, अगर थोड़ा खाली वक्त हो, तो सैर करते हैं, अपने शरीर की कसरत करते हैं। हर दिन उनका जीवन बहुत संतृप्त दिखाई देता है। खुद को देखिए—आपको किसी चीज की कमी नहीं है, फिर आप क्यों नहीं जी सकते? आप खुद को गिरा रहे हैं, आप मर जाने योग्य हैं! क्या हमें आपके प्रति संतानोचित होना चाहिए? हम आपके गुलाम नहीं हैं, न ही आपकी निजी संपत्ति हैं। आपको खुद अपने पथ पर चलना चाहिए, हम यह जिम्मेदारी उठाने को बाध्य नहीं हैं। हमने आपको खाने, पहनने और इस्तेमाल करने के लिए काफी कुछ दिया है। आप बेकार की गड़बड़ क्यों कर रहे हैं? अगर आप गड़बड़ करते रहे, तो हम आपको किसी नर्सिंग होम में भेज देंगे!” ऐसे माता-पिता से यूँ ही निपटना चाहिए, है कि नहीं? तुम उन्हें बिगाड़ नहीं सकते। अगर उनके बच्चे उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास न हों, तो वे दिन भर रोते-सुबकते रहते हैं, मानो आसमान गिर रहा हो, और वे जिंदा नहीं रह सकते। अगर वे जिंदा नहीं रह सकते, तो उन्हें मरने दो, उन्हें खुद देखने दो—लेकिन वे मरेंगे नहीं, वे अपने जीवन को काफी सँजोते हैं। जीवन जीने का उनका फलसफा यह है कि वे बेहतर, आजाद और अपनी इच्छा से जीने के लिए दूसरों पर निर्भर रहें। उन्हें अपने बच्चों की तकलीफों पर अपनी खुशी और उल्लास की इमारत बनानी है। क्या ऐसे माता-पिता को मर नहीं जाना चाहिए? (बिल्कुल।) अगर उनके बच्चे हर दिन उनके साथ रहकर उनकी सेवा करें, तो वे खुश, प्रफुल्लित और गर्वीला महसूस करते हैं, जबकि उनके बच्चों को कष्ट सहकर इसका बोझ उठाना पड़ता है। क्या ऐसे माता-पिता को मर नहीं जाना चाहिए? (हाँ।)
चलो, माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाओं के अंतिम विषय से जुड़ी अपनी संगति आज यहीं समाप्त करते हैं। बच्चे संतानोचित, भरोसेमंद और बुढ़ापे में उनकी देखभाल कर उन्हें अंतिम विदाई देने वाले हैं या नहीं, इस बारे में माता-पिता के नजरिये को लेकर बात स्पष्ट कर दी गई है या नहीं? (बिल्कुल कर दी गई है।) बतौर माता-पिता तुम्हें अपने बच्चों से ऐसी माँगें नहीं करनी चाहिए, ऐसे विचार और नजरिये नहीं रखने चाहिए, या ऐसी उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। तुम्हारे बच्चों पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है। उनका पालन-पोषण कर उन्हें बड़ा करना तुम्हारी जिम्मेदारी है; तुम यह अच्छे ढंग से करते हो या नहीं, यह एक अलग बात है। उन पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है : वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं और शुद्ध रूप से एक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए तुम्हारी देखभाल करते हैं, कोई कर्ज चुकाने के लिए नहीं, क्योंकि उन पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है। इसलिए, वे इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वे तुम्हारे प्रति संतानोचित हों, या ऐसे बन जाएँ कि तुम उन पर निर्भर हो सको या भरोसा कर सको। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) वे तुम्हारी देखभाल करते हैं, वे ऐसे हैं जिन पर तुम भरोसा कर सकते हो, और वे तुम्हें खर्च करने के लिए थोड़े पैसे देते हैं—यह बच्चों के रूप में बस उनकी जिम्मेदारी है, यह संतानोचित होना नहीं है। हमने पहले उस रूपक का जिक्र किया था जिसमें कौए अपने माता-पिता को खाना खिलाते हैं और मेमने दूध चूसने के लिए घुटनों पर बैठते हैं। पशु भी यह सिद्धांत समझते हैं और इसे कार्यान्वित कर सकते हैं, बेशक इंसानों को भी करना चाहिए! सभी जीवित चीजों में इंसान सबसे उन्नत प्राणी हैं, जिन्हें परमेश्वर ने विचारों, मानवता और भावनाओं के साथ रचा है। बतौर इंसान, वे इसे बिना सिखाए ही समझते हैं। बच्चे संतानोचित हो सकते हैं या नहीं, यह मोटे तौर पर इस पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर ने तुम दोनों के बीच एक नियति का विधान किया है, क्या तुम दोनों के बीच एक पूरक और आपसी सहायता का रिश्ता होगा और क्या तुम यह आशीष पा सकोगे; बारीकी से देखें तो यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम्हारे बच्चों में मानवता है। अगर उनमें सचमुच में जमीर और विवेक है, तो तुम्हें उन्हें शिक्षित करने की जरूरत नहीं है—वे बचपन से ही यह समझ लेंगे। अगर वे बचपन से ही ये सब समझ लें, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि बड़े होने पर वे इसे और ज्यादा समझ लेंगे? क्या ऐसी बात नहीं है? (बिल्कुल।) छोटी उम्र से ही वे ऐसे सिद्धांत समझ लेते हैं जैसे कि “माता-पिता पर खर्च करने के लिए पैसे कमाना वह काम है जो अच्छे बच्चे करते हैं,” तो क्या वे इस बात को बड़े होने पर और ज्यादा नहीं समझेंगे? क्या अभी भी उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है? क्या माता-पिता को उन्हें अभी भी ऐसी विचारधारा वाले सबक सिखाने होंगे? कोई जरूरत नहीं है। इसलिए, माता-पिता का अपने बच्चों से यह माँग करना एक मूर्खतापूर्ण काम है कि उनके बच्चे संतानोचित हों, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, और फिर उनकी अंतिम विदाई करें। क्या जिन बच्चों को तुम जन्म देते हो, वे इंसान नहीं हैं? क्या वे पेड़ या प्लास्टिक के फूल हैं? क्या वे सचमुच नहीं समझते, क्या तुम्हें उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है? कुत्ते भी यह समझते हैं। देखो, जब दो छोटे-छोटे कुत्ते अपनी माँ के साथ हों और दूसरे कुत्ते उनकी माँ की ओर दौड़ना और भौंकना शुरू कर दें, तो वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे : वे बाड़ के पीछे से अपनी माँ की रक्षा करते हैं, और दूसरे कुत्तों को उनकी माँ पर भौंकने नहीं देते। कुत्ते भी यह समझते हैं, बेशक इंसान को तो समझना ही चाहिए! उन्हें सिखाने की कोई जरूरत नहीं है : जिम्मेदारियाँ पूरी करना ऐसी बात है जो इंसान कर सकते हैं, और माता-पिता को अपने बच्चों के मन में ऐसे विचार बिठाने की जरूरत नहीं है—वे खुद-ब-खुद यह कर लेंगे। अगर उनमें मानवता नहीं है, तो हालात सही होने पर भी वे यह नहीं करेंगे; अगर उनमें मानवता है और हालात सही हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से यह करेंगे। इसलिए, बच्चे संतानोचित हैं या नहीं, इसे लेकर माता-पिता को अपने बच्चों से माँग करने, उन्हें प्रेरित करने या दोष देने की जरूरत नहीं है। ये सब बेकार हैं। अगर तुम अपने बच्चों की संतानोचित धर्मनिष्ठा का आनंद ले सकते हो, तो इसे एक आशीष माना जाता है। अगर तुम इसका आनंद नहीं ले सकते, तो इसे तुम्हारा नुकसान नहीं माना जाएगा। सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियत है, है कि नहीं? ठीक है, चलो आज के लिए हम अपनी संगति यहीं समाप्त करें। अलविदा!
27 मई 2023
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