सत्य का अनुसरण कैसे करें (19) भाग तीन

अपनी संतान से माता-पिता की अपेक्षाओं के दो पहलू हैं : एक पहलू बच्चों के प्रारंभिक वर्षों के दौरान माता-पिता की अपेक्षाओं से संबंधित है और दूसरा बच्चों के बड़े हो जाने के बाद की अपेक्षाओं से। पिछली बार, हमारी संगति में बच्चों के बड़े हो जाने के बाद की अपेक्षाओं की संक्षेप में बात हुई थी। हमने किस बारे में संगति की थी? (परमेश्वर, पिछली बार हमने माता-पिता की इस आशा के बारे में संगति की थी कि उनके वयस्क बच्चों के कार्यस्थल का माहौल सुगम हो, उनका विवाह खुशहाल और तृप्तिपूर्ण हो, और उनका करियर कामयाब हो।) मोटे तौर पर हमने इसी बारे में संगति की थी। जब माता-पिता अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा कर देते हैं, तो बच्चे वयस्क होकर कामकाज, करियर, शादी, परिवार और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन करने और यहाँ तक कि अपनी संतान को पालने-पोसने से जुड़े हालात का सामना करते हैं। वे अपने माता-पिता को छोड़ कर स्वतंत्र हो जाते हैं, जीवन में आई हर समस्या का अपने दम पर सामना करते हैं। चूँकि अब बच्चे बड़े हो गए हैं, इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल की जिम्मेदारी नहीं उठानी होती, या उनके जीवन, कामकाज, शादी, परिवार वगैरह में सीधे तौर पर नहीं जुड़ना पड़ता। बेशक, भावनात्मक और पारिवारिक बंधनों के कारण माता-पिता सतही परवाह कर सकते हैं, कभी-कभी परामर्श दे सकते हैं, अनुभवी व्यक्ति की भूमिका में कुछ सुझाव या सहायता दे सकते हैं, या अस्थायी तौर पर जरूरत के हिसाब से देखभाल कर सकते हैं। संक्षेप में कहें, तो बच्चों के बड़े हो जाने के बाद, माता-पिता बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ लगभग पूरी कर चुके होते हैं। इसलिए, कम-से-कम मेरे नजरिये से, माता-पिता अपने वयस्क बच्चों से जो अपेक्षाएँ रखते हैं, वे गैर-जरूरी हैं। वे गैर-जरूरी क्यों हैं? क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों से जो भी बनने की अपेक्षा रखते हों, वे उनसे जैसी भी शादी, परिवार, कामकाज या करियर की उम्मीद करते हों, वे अमीर होंगे या गरीब या जो भी माता-पिता की अपेक्षाएँ हों, ये अपेक्षाओं से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और वयस्कों के रूप में, उनके बच्चों का जीवन आखिरकार उनके अपने हाथों में होता है। बेशक, बुनियादी तौर पर कहें, तो उनके बेटे या बेटी के पूरे जीवन की नियति और वे अमीर होंगे या गरीब, सब परमेश्वर द्वारा नियत होता है। इन मामलों पर नजर रखने की माता-पिता की कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है, न ही उन्हें इसमें दखल देने का कोई अधिकार है। इसलिए, माता-पिता की अपेक्षाएँ एक तरह से उनके वात्सल्य से उपजी शुभकामनाएँ हैं। कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनका बच्चा गरीब, अविवाहित, तलाकशुदा हो, उसका परिवार ठीक न चले, या उसे कामकाज में तकलीफ हो। उनमें से कोई भी अपने बच्चे के लिए ऐसी चीज की उम्मीद नहीं करता; वे अपने बच्चों के लिए बेशक सबसे बढ़िया की आशा करते हैं। लेकिन अगर माता-पिता की अपेक्षाएँ उनके बच्चों के जीवन की वास्तविकता से मेल न खाएँ, या अगर वह वास्तविकता उनकी अपेक्षाओं के विपरीत हो, तो उन्हें इसे किस दृष्टि से देखना चाहिए? यही वह विषय है जिस पर हमें संगति करने की जरूरत है। माता-पिता के रूप में, जब वयस्क बच्चों के प्रति अपनाए जाने वाले उनके रवैये की बात आती है, तो उनके बच्चे चाहे जैसे भी जीवनयापन करें, उनकी नियति या जीवन चाहे जैसा भी हो, वे बस मौन आशीष दे कर उनके लिए अच्छी उम्मीद रखकर बस इसे होने दे सकते हैं। कोई भी माता-पिता इसमें से कुछ भी बदल नहीं सकते, न ही उसे नियंत्रित कर सकते हैं। हालाँकि तुमने अपने बच्चों को जन्म दिया है, उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, फिर भी जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, माता-पिता अपने बच्चों की नियति के विधाता नहीं हैं। माता-पिता अपने बच्चों के भौतिक शरीर को दुनिया में लाते हैं और उन्हें बड़े होने तक पालते-पोसते हैं, लेकिन उनके बच्चों की नियति कैसी होगी, यह ऐसी चीज नहीं है जो माता-पिता दे सकते हैं या चुन सकते हैं, और माता-पिता यकीनन इसका फैसला नहीं करते। तुम अपने बच्चों की खुशहाली की कामना करते हो, लेकिन क्या यह गारंटी देती है कि वे खुशहाल होंगे? तुम कामना नहीं करते कि वे दुर्भाग्य, बदकिस्मती, और तरह-तरह की अभागी घटनाओं का सामना करें, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि वे इससे बच पाएँगे? तुम्हारे बच्चे चाहे जिसका भी सामना करें, इनमें से कुछ भी इंसानी इच्छा के अधीन नहीं है, न ही इनमें से कुछ भी तुम्हारी जरूरतों या अपेक्षाओं से नियत होता है। तो यह तुम्हें क्या बताता है? चूँकि बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद अपनी देखभाल करने, चीजों के बारे में स्वतंत्र सोच और नजरिया रखने, आचरण के सिद्धांतों, जीवन के प्रति दृष्टिकोण रखने में सक्षम हैं, और अब वे अपने माता-पिता से प्रभावित, संचालित, प्रतिबंधित या प्रबंधित नहीं होते, इसलिए वे सचमुच वयस्क हो गए हैं। इसका क्या अर्थ है कि वे वयस्क हो गए हैं? इसका अर्थ है कि उनके माता-पिता को चाहिए कि वे जाने दें। लिखित भाषा में, इसे “त्यागना” कहा जाता है, यानी बच्चों को जीवन में स्वतंत्र रूप से खोजबीन कर अपना पथ स्वयं लेने देना। इसे हम बोलचाल की भाषा में क्या कहते हैं? “किनारे हो जाना।” दूसरे शब्दों में माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों को आदेश देना बंद कर देना चाहिए, ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, “तुम्हें यह नौकरी तलाशनी चाहिए, तुम्हें इस उद्योग में काम करना चाहिए। वह काम मत करो, उसमें बहुत जोखिम है!” क्या माता-पिता का अपने वयस्क बच्चों को आदेश देना उपयुक्त है? (नहीं, उपयुक्त नहीं है।) वे हमेशा अपने वयस्क बच्चों के जीवन, कामकाज, शादी और परिवार पर अपना नियंत्रण और अपनी नजर रखना चाहते हैं, और अगर किसी चीज के बारे में न जानें या उसे नियंत्रित न कर पाएँ तो व्याकुल, चिंतित, भयभीत और फिक्रमंद हो जाते हैं, कहते हैं, “अगर मेरा बेटा उस मामले पर सावधानी से विचार न करे तो क्या होगा? कहीं वह कानूनी मुसीबत में फँस गया तो? मेरे पास मुकदमा लड़ने के पैसे नहीं हैं! अगर उस पर मुकदमा चल गया और पैसा न हो, तो कहीं उसे जेल न हो जाए? अगर वह जेल चला गया तो क्या बुरे लोग उसे झूठे आरोप में फँसाकर उसे आठ-दस साल की सजा करा देंगे? उसकी पत्नी उसे छोड़ गई तो? फिर बच्चों की देखभाल कौन करेगा?” वे इस बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, उन्हें उतनी ही अधिक बातों की चिंता होती है। “मेरी बेटी की नौकरी ठीक नहीं चल रही है : लोग उससे हमेशा बुरा बर्ताव करते हैं, उसका बॉस भी उसके साथ अच्छा नहीं है। क्या हम कुछ कर सकते हैं? क्या हम उसके लिए दूसरी नौकरी तलाशें? क्या हमें कुछ प्रभावी लोगों से थोड़ा दबाव डलवाना चाहिए, कोई जुगाड़ लगाना चाहिए, थोड़े पैसे खर्चकर उसे किसी सरकारी विभाग में काम दिलवा देना चाहिए जहाँ एक सरकारी कर्मचारी के रूप में हर दिन उसका काम हल्का ही हो? भले ही वेतन ज्यादा न हो, कम-से-कम उससे बुरा बर्ताव तो नहीं किया जाएगा। हमने बचपन में उस पर हाथ नहीं उठाया, एक राजकुमारी की तरह उसे लाड़-दुलार दिया; अब दूसरे लोग उसे परेशान कर रहे हैं। हम क्या करें?” वे इस हद तक चिंता करते हैं कि न खा पाते हैं, न सो पाते हैं, और व्याकुलता से उनके मुँह में छाले पड़ जाते हैं। जब भी उनके बच्चों का किसी चीज से सामना होता है, वे व्याकुल होकर बात को दिल पर ले लेते हैं। वे हर चीज से जुड़ना चाहते हैं, हर हालत में साथ खड़े होना चाहते हैं। जब भी उनके बच्चे बीमार पड़ते हैं, या उनका किसी मुश्किल से सामना होता है, उन्हें बेहद तकलीफ होती है और वे बहुत दुखी हो जाते हैं, कहते हैं, “मैं बस तुम्हें खुशहाल देखना चाहता हूँ। तुम भले-चंगे क्यों नहीं हो? मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा हर काम सुचारु रूप से चले, चाहता हूँ कि हर चीज उसी तरह हो, जैसा तुम चाहो, जैसे इसके होने की योजना बनाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम कामयाबी के मजे लो, बदकिस्मती तुम्हें न घेरे, तुम धोखा न खाओ, किसी मामले में न फँसो या कानूनी मुसीबत में न पड़ो!” कुछ बच्चे घर गिरवी रखकर ऋण लेते हैं, और यह ऋण चालीस-पचास साल तक भी चल सकता है। उनके माता-पिता चिंता करने लगते हैं, “ये तमाम ऋण कब चुकता होंगे? क्या यह गिरवी गुलाम होने जैसा नहीं है? हमारी पीढ़ी को घर खरीदने के लिए ऋण लेने की जरूरत नहीं थी। हम कंपनी के दिए अपार्टमेंट्स में रहते थे, हर महीने थोड़ा-सा किराया दे देते थे। हमारी जीवन स्थिति बड़ी आरामदेह लगती होती थी। आजकल इन युवा लोगों का सचमुच मुश्किल वक्त है; सच में उनके लिए आसान नहीं है। उन्हें ऋण लेना पड़ता है, और भले ही वे अच्छा जीवन जीते हों, उन्हें हर दिन कड़ी मेहनत करनी पड़ती है—वे पूरी तरह से थक जाते हैं! वे अक्सर ओवरटाइम करते हुए देर तक जागते हैं, उनके खाने-पीने और सोने का वक्त अनियमित होता है, और वे हमेशा बाहर का खाना खाते हैं। उनका पेट भी खराब हो जाता है, और उनकी सेहत भी। मुझे उनके लिए खाना बनाना पड़ता है, उनके घर की सफाई करनी पड़ती है। उनके पास वक्त न होने के कारण मुझे उनका घर ठीक-ठाक करना पड़ता है—उनका जीवन अस्त-व्यस्त है। मैं अब बूढ़ी हड्डियों वाली उम्र-दराज महिला हूँ, और मैं ज्यादा कुछ नहीं कर सकती, इसलिए मैं बस उनकी नौकरानी बन जाऊँगी। अगर वे एक असली नौकरानी रखेंगे तो उन्हें पैसे खर्च करने पड़ेंगे, और हो सकता है वह भरोसेमंद न हो। इसलिए मैं उनकी मुफ्त की नौकरानी बन जाऊँगी।” तो वह उनकी नौकरानी बन जाती है, हर दिन अपने बच्चों का घर साफ करती है, चीजें सजाती-सँवारती है, खाने के वक्त खाना पकाती है, साग-सब्जियाँ और अनाज खरीदती है, और ढेरों जिम्मेदारियाँ उठाती है। वह माँ न रहकर एक नौकरानी, एक बाई बन जाती है। जब बच्चे घर आएँ और अच्छे मूड में न हो, तो उनके हाव-भाव देखकर तब तक सावधानी से बोलना पड़ता है जब तक उसके बच्चे दोबारा खुश न हो जाएँ, और तभी वह खुश हो सकती है। बच्चे खुश हों तो वह खुश होती है, बच्चे चिंतित हों तो वह चिंतित होती है। क्या यह जीने का कोई अच्छा तरीका है? यह अपना अस्तित्व खो देने से बिल्कुल भी अलग नहीं है।

क्या माता-पिता के लिए अपने बच्चों की नियति की कीमत चुकाना संभव है? शोहरत, लाभ और सांसारिक सुखों के पीछे भागने के लिए बच्चे अपने रास्ते में आने वाली हर मुश्किल का सामना करने को तैयार होते हैं। इसके अलावा, वयस्कों के रूप में, क्या जीवित रहने के लिए जरूरी कैसी भी मुश्किल सहना उनके लिए ठीक है? वे जितने मजे लेते हैं उतने ही कष्ट सहने के लिए भी उन्हें तैयार रहना चाहिए—यह स्वाभाविक है। उनके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, फिर उनके बच्चे चाहे जो भी मजे लेना चाहें, उन्हें उसकी कीमत नहीं चुकानी चाहिए। माता-पिता अपने बच्चों के लिए जितना भी अच्छा जीवन चाहते हों, अगर उनके बच्चे अच्छी चीजों के मजे लेना चाहते हैं, तो उसके लिए तमाम दबाव और कष्ट उन्हें खुद झेलने चाहिए न कि उनके माता-पिता को। इसलिए, अगर माता-पिता हमेशा अपने बच्चों के लिए सब-कुछ करना चाहते हैं और उनकी मुश्किलों की कीमत चुकाना चाहते हैं, स्वेच्छा से उनके गुलाम बनना चाहते हैं, तो क्या यह बहुत ज्यादा नहीं है? यह गैर-जरूरी है, क्योंकि यह माता-पिता से जो करने की अपेक्षा होनी चाहिए उससे बहुत ज्यादा है। एक और बड़ा कारण यह है कि तुम अपने बच्चों के लिए जो भी और जितना भी करना चाहो, उनकी नियति नहीं बदल सकते या उनके कष्ट दूर नहीं कर सकते। समाज में आगे बढ़ने की कोशिश करने वाला हर इंसान, चाहे वह शोहरत और लाभ के पीछे भागता हो, या जीवन का सही पथ पकड़ता हो, एक वयस्क के रूप में उसे अपनी आकांक्षाओं और आदर्शों की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए, अपने कामों की कीमत खुद चुकानी चाहिए। ऐसे लोगों के लिए किसी को कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए; उन्हें जन्म दे कर पाल-पोस कर बड़ा करने वाले माता-पिता जोकि उनके सबसे करीबी हैं, वे भी उनके कामों की कीमत चुकाने या उनकी तकलीफें साझा करने को बाध्य नहीं हैं। इस मामले में माता-पिता बिल्कुल अलग नहीं हैं, क्योंकि वे कुछ भी नहीं बदल सकते। इसलिए तुम अपने बच्चों के लिए जो भी करते हो, वह बेकार है। चूँकि यह बेकार है इसलिए तुम्हें ये सारे काम छोड़ देने चाहिए। भले ही माता-पिता बूढ़े हों, अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर चुके हों, भले ही माता-पिता का किया हर काम उनके बच्चों की नजरों में तुच्छ हो, फिर भी उन्हें अपनी प्रतिष्ठा, अपने अनुसरण और पूरा करने के लिए अपना उद्देश्य रखना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी प्रतिष्ठा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक योग्य सृजित प्राणी नहीं हो, और तुम अत्यंत विद्रोहपूर्ण हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। अगर तुम्हारा जीवन और समय सिर्फ तुम्हारी देह और वात्सल्य पर खर्च होते हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए कर्तव्य पर नहीं, तो तुम्हारा जीवन गैर-जरूरी है, मूल्यहीन है। तुम जीने के योग्य नहीं हो, तुम उस जीवन और हर उस चीज का आनंद लेने के योग्य नहीं हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने तुम्हें बच्चे सिर्फ इसलिए दिए कि तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का आनंद ले सको, इससे माता-पिता के रूप में जीवन अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर सको, मानव जीवन में कुछ विशेष और असाधारण अनुभव पा सको और फिर अपनी संतानों को फलने-फूलने दे सको...। बेशक, यह माता-पिता के रूप में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए भी है। यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए माता-पिता के रूप में अगली पीढ़ी के प्रति पूरी करने और साथ ही माता-पिता के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए नियत की है। एक ओर, यह बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की असाधारण प्रक्रिया से गुजरना है, और दूसरी ओर, यह अगली पीढ़ियों की वंशवृद्धि में भूमिका निभाना है। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए और तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँ या वे बेहद कामयाब हो जाएँ या साधारण और सरल व्यक्ति रह जाएँ, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनकी नियति तुम नियत नहीं करते, न ही तुम चुनाव कर सकते हो, और यकीनन तुमने उन्हें यह नहीं दिया है—यह परमेश्वर द्वारा नियत है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत है, इसलिए तुम्हें इसमें दखल नहीं देना चाहिए या उनके जीवन या जीवित रहने में अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। उनकी आदतें, दैनिक कामकाज, जीवन के प्रति उनका रवैया, जीवित रहने की उनकी रणनीतियाँ, जीवन के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य, संसार के प्रति उनका रवैया—इन सबका चयन उन्हें खुद करना है, और ये तुम्हारी चिंता का विषय नहीं हैं। उन्हें सुधारना तुम्हारा दायित्व नहीं है, न ही तुम हर दिन उनकी खुशी सुनिश्चित करने हेतु उनके स्थान पर कोई कष्ट सहने को बाध्य हो। ये तमाम चीजें गैर-जरूरी हैं। हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है। इसलिए, अगर बच्चे किसी मुश्किल का सामना करें, तो माता-पिता को सक्षम होने पर सकारात्मक और सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। अगर नहीं, तो माता-पिता के लिए यह श्रेष्ठ है कि वे आराम करें और इन मामलों को एक सृजित प्राणी के नजरिये से देखें, अपने बच्चों से भी समान रूप से सृजित प्राणियों जैसा बर्ताव करें। जो कष्ट तुम सहते हो, उन्हें भी वे कष्ट सहने चाहिए; जो जीवन तुम जीते हो, वह उन्हें भी जीना चाहिए; अपने छोटे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की जिस प्रक्रिया से तुम गुजरे हो, वे भी उससे गुजरेंगे; समाज और लोगों के बीच जो तोड़-मरोड़, जालसाजी और धोखा तुमने अनुभव किए हैं, जो भावनात्मक उलझनें और आपसी मतभेद और ऐसी ही चीजें जिनका तुमने अनुभव किया है, वे भी उनका अनुभव करेंगे। तुम्हारी तरह वे सब भी भ्रष्ट मनुष्य हैं, सभी बुराई की धारा में बह जाते हैं, शैतान द्वारा भ्रष्ट हैं; तुम इससे बच नहीं सकते, न ही वे बच सकते हैं। इसलिए सभी कष्टों से बचे रहने और संसार के समस्त आशीषों का आनंद लेने में उनकी मदद करने की इच्छा रखना एक नासमझी भरा भ्रम और मूर्खतापूर्ण विचार है। गरुड़ के पंख चाहे जितने भी विशाल क्यों न हों, वे नन्हे गरुड़ की जीवन भर रक्षा नहीं कर सकते। नन्हा गरुड़ आखिर उस मुकाम पर जरूर पहुँचेगा जब उसे बड़े होकर अकेले उड़ना होगा। जब नन्हा गरुड़ अकेले उड़ने का फैसला करता है, तो कोई नहीं जानता कि उसका आसमान किस ओर फैला हुआ है या वह अपनी उड़ान के लिए कौन-सी जगह चुनेगा। इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन शर्त यह है कि तुम चाहे जो मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई ठोस चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए।

माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति जो रवैया अपनाना चाहिए, वह समझ लेने के बाद, क्या उन्हें अपने वयस्क बच्चों से अपनी अपेक्षाओं को भी जाने देना चाहिए? कुछ अनाड़ी माता-पिता जीवन या नियति को समझ नहीं पाते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, और अपने बच्चों के विषय में अज्ञानता के काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों के अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद, उनका सामना कुछ खास हालात, मुश्किलों या बड़ी घटनाओं से हो सकता है, कुछ बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, कुछ कानूनी मुकदमों में फँस जाते हैं, कुछ का तलाक हो जाता है, कुछ धोखे या जालसाजी का शिकार हो जाते हैं, कुछ अगवा हो जाते हैं, उन्हें हानि होती है, उनकी जबरदस्त पिटाई होती है या वे मृत्यु के कगार पर होते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नशेड़ी बन जाते हैं, वगैरह-वगैरह। इन खास और अहम हालात में माता-पिता को क्या करना चाहिए? ज्यादातर माता-पिता की ठेठ प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या वे वही करते हैं, जो माता-पिता की पहचान वाले सृजित प्राणियों को करना चाहिए? माता-पिता विरले ही ऐसी खबर सुन कर वैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं जैसी वे किसी अजनबी के साथ ऐसा होने पर दिखाएँगे। ज्यादातर माता-पिता रात-रात भर जागे रहते हैं जब तक उनके बाल सफेद न हो जाएँ, रात-ब-रात उन्हें नींद नहीं आती, दिन भर उन्हें भूख नहीं लगती, वे दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहते हैं, और कुछ तो तब तक फूट-फूट कर रोते हैं जब तक उनकी आँखें लाल न हो जाएँ और आँसू सूख न जाएँ। वे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं कि परमेश्वर उनकी आस्था को ध्यान में रखकर उनके बच्चों की रक्षा करे, उन पर दया करे, उन्हें आशीष दे, कृपा करे और उनका जीवन बख्श दे। ऐसी हालत में, माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के प्रति उनकी तमाम इंसानी कमजोरियाँ, अतिसंवेदनशीलताएँ और भावनाएँ उजागर हो जाती हैं। इसके अलावा और क्या प्रकट होता है? परमेश्वर के विरुद्ध उनकी विद्रोहशीलता। वे परमेश्वर से विनती कर उससे प्रार्थना करते हैं, उससे अपने बच्चों को विपत्ति से दूर रखने की विनती करते हैं। कोई विपत्ति आ जाए, तो भी वे प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे न मरें, खतरे से बच जाएँ, उन्हें बुरे लोग नुकसान न पहुँचाएँ, उनकी बीमारियाँ ज्यादा गंभीर न हों, वे ठीक होने लगें, वगैरह-वगैरह। वे सच में किस लिए प्रार्थना कर रहे हैं? (हे परमेश्वर, इन प्रार्थनाओं से वे परमेश्वर के समक्ष शिकायती भावना रखते हुए माँगें रख रहे हैं।) एक ओर, वे अपने बच्चों की दुर्दशा से बेहद असंतुष्ट हैं, शिकायत कर रहे हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए था। उनका असंतोष शिकायत में मिश्रित है, और वे परमेश्वर को अपना मन बदलने, ऐसा न करने और उनके बच्चों को खतरे से बाहर निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने, उनकी बीमारी ठीक करने, उन्हें कानूनी मुकदमों से बचाने, कोई विपत्ति आने पर उससे उन्हें बचाने, वगैरह के लिए कह रहे हैं—संक्षेप में, हर चीज को सुचारु रूप से होने देने का आग्रह कर रहे हैं। इस तरह प्रार्थना करके एक ओर वे परमेश्वर से शिकायत कर रहे हैं, और दूसरी ओर वे उससे माँगें कर रहे हैं। क्या यह विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) निहितार्थ में वे कह रहे हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही या अच्छा नहीं है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। चूँकि वे उनके बच्चे हैं और वे स्वयं विश्वासी हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उनके बच्चे दूसरों से अलग हैं; परमेश्वर को आशीष देते समय उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। चूँकि वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं, इसलिए उसे उनके बच्चों को आशीष देने चाहिए, और अगर वह न दे तो वे संतप्त हो जाते हैं, रोते हैं, गुस्सा दिखाते हैं, और फिर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। अगर उनका बच्चा मर जाए तो उन्हें लगता है कि अब वे भी नहीं जी सकते। क्या उनके मन में यही भावना है? (हाँ।) क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का विरोध नहीं है? (जरूर है।) यह परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करना है। यह वैसा ही है जैसा कुत्तों का खाने के वक्त खाना खिलाने की माँग करना और जरा भी देर होने पर चिड़चिड़ापन दिखाना। वे मुँह से कटोरा पकड़ कर दीवार पर दे मारते हैं—क्या यह अविवेकी नहीं है? (बिल्कुल।) कभी-कभी अगर तुम उन्हें कुछ दिन लगातार माँस खाने को दो, मगर कभी किसी दिन माँस न दो, तो कुत्ते अपने पाशविक आवेश में फर्श पर खाना बिखेर सकते हैं, या फिर कटोरे को मुँह से पकड़ कर जमीन पर मार सकते हैं, तुम्हें यह बताते हैं कि वे माँस चाहते हैं, वे मानते हैं कि उन्हें माँस मिलना चाहिए, और माँस न देना उन्हें नामंजूर है। लोग भी इतने ही अविवेकी हो सकते हैं। जब उनके बच्चे बाधाओं का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से शिकायत करते हैं, उससे माँग करते हैं और उसके विरुद्ध विरोध करते हैं। क्या यह कमोबेश पशुओं का व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल।) पशु सत्य को या लोगों के तथाकथित सिद्धांतों और मानवीय भावनाओं को नहीं समझते। जब वे गुस्सा दिखाएँ या नाटक करें, तो कुछ हद तक समझ आता है। लेकिन जब लोग परमेश्वर के विरुद्ध इस तरह विरोध करते हैं, तो क्या वे उचित हैं? क्या उन्हें क्षमा किया जा सकता है? अगर पशु ऐसा व्यवहार करें, तो लोग कह सकते हैं, “इस छोटे नवाब की तो नाक पर गुस्सा रहता है। इसे तो विरोध करना भी आता है; बड़ा चालाक है। मुझे लगता है कि इसे कम नहीं आँकना चाहिए।” उन्हें यह दिलचस्प लगता है, और वे सोचते हैं कि यह पशु सीधा-सादा तो है ही नहीं। इसलिए जब कोई पशु चिड़चिड़ापन दिखाता है, तो लोग उसका मान करते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करे, तो क्या परमेश्वर को उन्हें वैसा ही मान देकर कहना चाहिए, “यह व्यक्ति ऐसी माँगें करता है; यह सीधा-सादा तो है ही नहीं!” क्या परमेश्वर तुम्हें ऐसा ऊँचा मान देगा? (नहीं।) तो परमेश्वर इस व्यवहार को कैसे परिभाषित करता है? क्या यह विद्रोह नहीं है? (जरूर है।) क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग नहीं जानते कि यह व्यवहार गलत है? क्या “प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है” वाला युग बहुत समय पहले ही गुजर नहीं गया? (हाँ, गुजर गया है।) तो फिर लोग अभी भी क्यों इस तरह उपवास और प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर से अपने बच्चों की रक्षा कर उन्हें आशीष देने की बेशर्मी से विनती करते हैं? वे अभी भी यह कहकर परमेश्वर के विरुद्ध विरोध और संघर्ष करने की हिम्मत क्यों करते हैं, “अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो मैं प्रार्थना करता रहूँगा; मैं उपवास रखूँगा!” उपवास रखने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है भूख हड़ताल पर जाना, जो एक दूसरे अर्थ में बेशर्मी से काम करना और नखरे दिखाना है। जब लोग दूसरों के प्रति बेशर्मी से कुछ करते हैं, तो वे जमीन पर पैर पटकते हुए कह सकते हैं, “अरे, मेरा बच्चा गुजर गया; मैं अब जिंदा नहीं रहना चाहता, मैं जी नहीं सकता!” परमेश्वर के समक्ष होने पर वे ऐसा नहीं करते; वे बड़े कायदे से बोलते हैं, कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं तुमसे अपने बच्चे की रक्षा करने और उसकी बीमारी ठीक करने की भीख माँगता हूँ। हे परमेश्वर, तुम लोगों को बचाने वाले महान चिकित्सक हो—तुम सब-कुछ कर सकते हो। मैं तुमसे उसकी निगरानी और रक्षा करने की विनती करता हूँ। तुम्हारा आत्मा हर जगह है, तुम धार्मिक हो, तुम वह परमेश्वर हो जो लोगों पर कृपा करता है। तुम उनकी देखभाल करते हो, उन्हें सँजोते हो।” इसके क्या मायने हैं? उनकी कोई भी बात गलत नहीं है, बस यह ऐसी बातें कहने का सही समय नहीं है। निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर तुम्हारे बच्चे को बचा कर उसकी रक्षा नहीं करता, अगर वह तुम्हारी कामनाएँ पूरी नहीं करता, तो वह प्रेमपूर्ण परमेश्वर नहीं है, वह प्रेम से रिक्त है, वह कृपालु परमेश्वर नहीं है, और वह परमेश्वर नहीं है। क्या मामला यह नहीं है? क्या यह बेशर्मी दिखाना नहीं है? (बिल्कुल।) क्या बेशर्मी दिखाने वाले लोग परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हैं? क्या उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? (नहीं।) बेशर्मी दिखाने वाले लोग बदमाशों जैसे होते हैं—उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता। वे परमेश्वर के विरुद्ध संघर्ष और विरोध करने की हिम्मत करते हैं, और अनुचित ढंग से कर्म भी करते हैं। क्या यह मृत्यु को तलाशने के समान ही नहीं है? (हाँ।) तुम्हारे बच्चे इतने खास क्यों हैं? जब परमेश्वर किसी और के भाग्य को आयोजित या शासित करता है, तो जब तक इसका तुमसे लेना-देना न हो, तुम्हें यह ठीक लगता है। लेकिन तुम सोचते हो कि उसे तुम्हारे बच्चों के भाग्य पर शासन करने में समर्थ नहीं होना चाहिए। परमेश्वर की नजरों में, पूरी मानवजाति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और कोई भी परमेश्वर के हाथों स्थापित संप्रभुता और व्यवस्था से बच नहीं सकता। तुम्हारे बच्चे इसका अपवाद क्यों हों? परमेश्वर की संप्रभुता उसके द्वारा नियत और नियोजित है। क्या तुम्हारा उसे बदलने की चाह रखना ठीक है? (नहीं, ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। इसलिए, लोगों को मूर्खतापूर्ण या अनुचित चीजें नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है वह पिछले जन्मों के कारणों और प्रभावों पर आधारित होता है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम परमेश्वर की संप्रभुता का प्रतिरोध करते हो, तो तुम मृत्यु को तलाश रहे हो। अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे बच्चे इन चीजों का अनुभव करें, तो इसका स्रोत न्याय, कृपा या दयालुता नहीं बल्कि स्नेह है—यह महज तुम्हारे स्नेह के प्रभाव के कारण है। भावना स्वार्थ की प्रवक्ता है। तुममें जो भावना है, वह प्रदर्शन करने योग्य नहीं है; तुम इसे खुद के सामने भी उचित नहीं ठहरा सकते, फिर भी तुम परमेश्वर को ब्लैकमेल करने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते हो। कुछ लोग यह भी कहते हैं, “मेरा बच्चा बीमार है, अगर वह मर गया तो मैं जिंदा नहीं रहूँगा!” क्या तुममें मर जाने का साहस है? फिर मरने की कोशिश करो! क्या ऐसे लोगों की आस्था सच्ची है? अगर तुम्हारा बच्चा मर गया तो क्या तुम सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दोगे? उनकी मृत्यु संभवतः क्या बदलाव ला सकती है? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो न परमेश्वर की पहचान बदलेगी न ही उसकी हैसियत। परमेश्वर अब भी परमेश्वर है। वह परमेश्वर इसलिए नहीं है कि तुम उसमें विश्वास रखते हो, न ही वह तुम्हारे अविश्वास के कारण परमेश्वर नहीं रहता। भले ही संपूर्ण मानवजाति उसमें विश्वास न रखे फिर भी परमेश्वर की पहचान और सार अपरिवर्तित रहेगा। उसकी हैसियत अपरिवर्तित रहेगी। वह सदैव वही एकमात्र परमेश्वर रहेगा जो पूरी मानवजाति और ब्रह्मांड संसार का संप्रभु है। इसका इस बात से लेना-देना नहीं है कि तुम उसमें विश्वास रखते हो या नहीं। अगर तुम विश्वास रखते हो, तो तुम्हारा पक्ष लिया जाएगा। अगर तुम विश्वास नहीं रखते, तो तुम्हें उद्धार का अवसर नहीं मिलेगा और तुम उसे प्राप्त नहीं करोगे। तुम अपने बच्चों से प्रेम कर उनकी रक्षा करते हो, तुममें अपने बच्चों के प्रति स्नेह है, तुम उन्हें त्याग नहीं सकते, और इसलिए तुम परमेश्वर को कुछ भी नहीं करने देते। क्या इसका कोई अर्थ है? क्या यह सत्य, नैतिकता या मानवता के अनुरूप है? यह किसी भी चीज के अनुरूप नहीं है, नैतिकता के भी नहीं, क्या यह सही नहीं है? तुम अपने बच्चों को नहीं सँजोते, तुम उन्हें बचा रहे हो—तुम अपने स्नेह के प्रभाव के अधीन हो। तुम यह भी कहते हो कि अगर तुम्हारा बच्चा मर गया, तो तुम जिंदा नहीं रहोगे। चूँकि तुम अपने खुद के जीवन के प्रति इतने गैर-जिम्मेदार हो, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिया गया जीवन सँजोते नहीं हो, तो अगर तुम अपने बच्चों के लिए ही जीना चाहते हो, तो जाओ उन्हीं के साथ जाकर मर जाओ। क्या ऐसा करना आसान नहीं है? मरने के बाद जब तुम आध्यात्मिक क्षेत्र में पहुँचते हो, तो तुम जाँच सकते हो और देख सकते हो : क्या तुम और तुम्हारा बच्चा एक ही तरह की आत्माएँ हैं? क्या तुम्हारे बीच अब भी वही शारीरिक संबंध है? क्या अब भी तुम्हारा एक दूसरे के प्रति स्नेह है? जब तुम दूसरे संसार में लौट जाओगे, तो बदल जाओगे। क्या यह सच नहीं है? (बिल्कुल।) जब लोग अपनी आँखों से चीजें देखकर उन्हें परखते हैं कि वे अच्छी हैं या बुरी, या उनकी प्रकृति क्या है, तो वे किस पर भरोसा करते हैं? वे अपने विचारों पर भरोसा करते हैं। सिर्फ चीजों को अपनी आँखों से देखकर वे भौतिक संसार के पार नहीं देख सकते; वे आध्यात्मिक क्षेत्र के भीतर नहीं देख सकते। लोग अपने मन में क्या सोचेंगे? “इस संसार में जिन लोगों ने मुझे जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वे मेरे सबसे निकटतम और सबसे प्रिय हैं। मैं भी मुझे जन्म देने वाले और पाल-पोस कर बड़ा करने वाले लोगों से प्रेम करता हूँ। जो भी समय हो, मेरा बच्चा हमेशा मेरे सबसे करीब है, और मैं अपने बच्चे को सबसे ज्यादा सँजोता हूँ।” यह उनके मानसिक परिदृश्य और क्षितिज की सीमा है; उनका मानसिक परिदृश्य इतना ही “विस्तृत” है। ऐसा कहना मूर्खता है या नहीं? (यह मूर्खता है।) क्या यह बचकाना नहीं है? (यह बचकाना है।) बहुत बचकाना है! तुम्हारे बच्चे सिर्फ इस जीवन में तुमसे रक्त से जुड़े हुए हैं; उनके पिछले जीवन का क्या, तब वे तुमसे किस तरह से संबंधित थे? अपनी मृत्यु के बाद वे कहाँ जाएँगे? मरते ही, उनका शरीर आखिरी साँस लेता है, उनकी आत्मा दूर चली जाती है, और वे तुमसे पूरी तरह से विदा हो जाते हैं। वे अब तुम्हें नहीं पहचानेंगे, एक पल के लिए भी नहीं रुकेंगे, बस एक दूसरे संसार में लौट जाएँगे। उनके दूसरे संसार लौट जाने पर तुम रोते हो, उन्हें याद करते हो, और यह कहकर बेहद दुखी और संतप्त महसूस करते हो, “आह, मेरा बच्चा चला गया, मैं अब उसे कभी नहीं देख पाऊँगा!” क्या मृत व्यक्ति में कोई चेतना होती है? उन्हें तुम्हारे बारे में कोई जागरूकता नहीं होती, वे तुम्हें जरा भी याद नहीं करते। अपना शरीर छोड़ते ही वे तुरंत तीसरा पक्ष बन जाते हैं, फिर उनका तुमसे कोई रिश्ता नहीं होता। वे तुम्हें किस दृष्टि से देखते हैं? वे कहते हैं, “वह बूढ़ी महिला, वह बूढ़ा आदमी—वे किसके लिए रो रहे हैं? ओह, वे तो एक शरीर के लिए रो रहे हैं। मुझे लगता है मैं अभी-अभी उस शरीर से अलग हुआ हूँ : मैं अब उतना भारी नहीं हूँ, अब मुझे बीमारी का दर्द नहीं है—मैं आजाद हूँ।” वे बस यही महसूस करते हैं। मरने और अपना शरीर छोड़ देने के बाद उनका अस्तित्व एक दूसरे संसार में जारी रहता है, वे एक दूसरे रूप में प्रकट होते हैं, और अब उनका तुम्हारे साथ कोई रिश्ता नहीं होता। तुम यहाँ उनके लिए रोते और तरसते हो, उनकी खातिर कष्ट सहते हो, मगर उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, वे कुछ भी नहीं जानते। कई साल बाद, हो सकता है भाग्य या संयोग से वे तुम्हारे सहकर्मी या सह-देशवासी बन जाएँ, या तुमसे कहीं बहुत दूर रहें। एक ही संसार में रह कर भी तुम दो अलग लोग होगे जिनका आपस में कोई संबंध नहीं है। भले ही कुछ लोग किन्हीं खास हालात या कही गई किसी खास बात से यह जान लें कि पिछले जीवन में वे अमुक लोग थे, फिर भी जब वे तुम्हें देखते हैं, तो वे कुछ भी महसूस नहीं करते और उन्हें देख कर तुम्हें भी कुछ महसूस नहीं होता। भले ही पिछले जन्म में वह तुम्हारा बच्चा रहा हो, तुम अब उसके लिए कुछ महसूस नहीं करते—तुम बस अपने मृत बच्चे के बारे में ही सोचते हो। वह भी तुम्हारे लिए कुछ महसूस नहीं करता : उसके अपने माता-पिता हैं, उसका अपना परिवार है, उसका वंशनाम भी अलग है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन तुम अब भी वहीं हो, उसे याद करते हो—तुम क्या याद कर रहे हो? तुम सिर्फ एक भौतिक शरीर और उस नाम को याद कर रहे हो, जिसका कभी तुमसे रक्त संबंध था; यह बस एक छवि है, एक प्रतिच्छाया है जो तुम्हारे विचारों या मन में बसी हुई है—इसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। वह पुनर्जन्म ले चुका है, एक मनुष्य या किसी दूसरे जीवित प्राणी के रूप में बदल चुका है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। इसलिए, जब कुछ माता-पिता कहते हैं, “अगर मेरा बच्चा मर गया, तो मैं भी जिंदा नहीं रहूँगा!”—यह निरी अज्ञानता है! उसके जीवन काल का अंत हो चुका है, मगर तुम्हें जीवित क्यों नहीं रहना चाहिए? तुम इतनी गैर-जिम्मेदारी से कैसे बोलते हो? उसके जीवनकाल का अंत हो गया है, परमेश्वर ने उसकी डोर काट दी है, और उसे कोई दूसरा कर्म करना है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम्हारे लिए कोई दूसरा कर्म नियत है तो परमेश्वर तुम्हारी भी डोर काट देगा; लेकिन अभी तुम्हारे लिए नियत नहीं हुआ है, इसलिए तुम्हें जीते रहना होगा। अगर परमेश्वर तुम्हें जीवित रखना चाहता है तो तुम मर नहीं सकते। चाहे यह व्यक्ति के जीवन में उसके माता-पिता, बच्चों या रक्त द्वारा संबंधित किसी अन्य रिश्तेदार या लोगों से संबंधित हो, स्नेह के विषय में लोगों को ऐसा दृष्टिकोण और समझ रखनी चाहिए : रक्त द्वारा संबंधित लोगों के बीच जो स्नेह होता है, उसके विषय में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेना काफी है। जिम्मेदारियाँ पूरी करने के अलावा लोगों का कुछ भी बदलने का दायित्व नहीं होता, न ही उनमें यह काबिलियत होती है। इसलिए, माता-पिता का यह कहना गैर-जिम्मेदारी है, “अगर हमारे बच्चे गुजर जाएँ, अगर बतौर माता-पिता हमें अपने बच्चों के शवों को दफनाना पड़े, तो हम जिंदा नहीं रहेंगे।” अगर बच्चों के शवों को सचमुच माता-पिता दफनाएँ, तो बस यही कहा जा सकता है कि इस संसार में उनका समय बस इतना ही था, उन्हें जाना ही था। लेकिन उनके माता-पिता अभी यहीं हैं, इसलिए उन्हें अच्छे ढंग से जीते रहना चाहिए। बेशक अपनी मानवता के अनुसार लोगों का अपने बच्चों के बारे में सोचना सामान्य है, लेकिन उन्हें अपने मृत बच्चों को याद करके अपना शेष समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह बेवकूफी है। इसलिए इस मामले से निपटते समय, एक ओर लोगों को अपने जीवन की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, और दूसरी ओर उन्हें पारिवारिक रिश्तों को पूरी तरह से समझना चाहिए। लोगों के बीच सचमुच में जो रिश्ता होता है, वह देह और रक्त के बंधनों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह रिश्ता परमेश्वर द्वारा रचे गए दो जीवित प्राणियों के बीच होता है। इस प्रकार के रिश्ते में देह और रक्त के बंधन नहीं होते; यह केवल दो स्वतंत्र सृजित प्राणियों के बीच होता है। अगर तुम इस बारे में इस दृष्टि से सोचो, तो बतौर माता-पिता जब तुम्हारे बच्चे दुर्भाग्यवश बीमार पड़ जाएँ या उनका जीवन खतरे में हो, तो तुम्हें ये मामले सही ढंग से झेलने चाहिए। अपने बच्चों के दुर्भाग्य या गुजर जाने के कारण तुम्हें अपना शेष समय, जिस पथ पर तुम्हें चलना चाहिए, और जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व तुम्हें पूरे करने हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए—तुम्हें यह मामला सही ढंग से झेलना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सही हैं और तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो, तो तुम मायूसी, वेदना और लालसा पर जल्द काबू पा सकते हो। लेकिन अगर तुम इसकी असलियत नहीं समझ सके तो क्या होगा? तो हो सकता है यह जीवन भर, मृत्यु के दिन तक तुम्हें परेशान करता रहे। लेकिन अगर तुम इस हालत की असलियत समझ सकते हो, तो तुम्हारे जीवन का यह दौर सीमित रहेगा। यह सदा नहीं चलेगा, न ही यह तुम्हारे जीवन के अगले हिस्से में तुम्हारे साथ रहेगा। अगर तुम इसकी असलियत समझ लेते हो, तो इसका एक अंश जाने दे सकते हो, जोकि तुम्हारे लिए अच्छी बात है। लेकिन अगर तुम अपने बच्चों के साथ के पारिवारिक बंधनों की असलियत नहीं समझ सकते, तो तुम जाने नहीं दे सकोगे, और यह तुम्हारे लिए एक क्रूर बात होगी। अपने बच्चों के गुजर जाने पर कोई भी माता-पिता भावुक हुए बिना नहीं रहते। जब किसी माता-पिता को अपने बच्चों के शवों को दफनाने का अनुभव करना पड़ता है या जब वे अपने बच्चों को किसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में देखते हैं, तो वे अपना बाकी जीवन पीड़ा में फँसकर उनके बारे में सोचते और चिंता करते हुए बिताते हैं। कोई भी इससे बच नहीं सकता : यह आत्मा पर एक दाग है, एक अमिट निशान है। शारीरिक जीवन जीते हुए लोगों के लिए इस भावनात्मक लगाव को जाने देना आसान नहीं है, इसलिए वे इसका दुख झेलते हैं। लेकिन, अगर तुम अपने बच्चों के साथ इस भावनात्मक लगाव की असलियत समझ सको, तो इसकी तीव्रता कम हो जाएगी। बेशक, तुम्हारा दुख काफी कम हो जाएगा; बिल्कुल कष्ट न हो, यह तो नामुमकिन है, लेकिन तुम्हारा कष्ट बहुत कम हो जाएगा। अगर तुम इसकी असलियत नहीं समझ सके, तो यह बात तुम्हें क्रूर लगेगी। अगर समझ सके, तो यह एक विशेष अनुभव होगा जिससे गंभीर भावनात्मक पीड़ा पहुँचेगी, और तुम्हें जीवन, पारिवारिक बंधनों और मनुष्यता की गहरी समालोचना और समझ मिलेगी, और तुम्हारे जीवन अनुभव का संवर्धन होगा। बेशक, यह एक ऐसा संवर्धन है जिसे कोई नहीं पाना चाहता या जिसका सामना कोई नहीं करना चाहता। कोई भी इसका सामना नहीं करना चाहता, लेकिन अगर यह मामला सामने आ जाए, तो तुम्हें इससे सही ढंग से निपटना होगा। खुद को क्रूरता से बचाने के लिए, तुम्हें पहले माने हुए पारंपरिक, सड़े-गले, गलत विचारों और नजरियों को जाने देना चाहिए। तुम्हें अपने भावनात्मक और रक्त बंधनों का सही ढंग से सामना करना चाहिए, और अपने बच्चों के गुजर जाने को सही दृष्टि से देखना चाहिए। इसे सच में समझ लेने के बाद, तुम इसे पूरी तरह से जाने दे पाओगे, और तब यह मामला तुम्हें परेशान नहीं करेगा। मेरी बात समझ रहे हो, है न? (हाँ, मैं समझ रहा हूँ।)

कुछ लोग कहते हैं, “बच्चे परमेश्वर द्वारा माता-पिता को दी हुई पूँजी हैं, इसलिए वे माता-पिता की निजी संपत्ति स्वरूप हैं।” क्या यह वक्तव्य सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) यह सुन कर कुछ माता-पिता कहते हैं, “यह सही वक्तव्य है। दूसरी बाहरी चीजें हमारी नहीं हैं, केवल हमारे बच्चे ही हमारे हैं, वे हमारा अपना खून और शरीर हैं। वही हमें सबसे प्रिय हैं।” क्या यह वक्तव्य सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? तुम सब अपना तर्क दो। क्या बच्चों से अपनी निजी संपत्ति की तरह पेश आना उपयुक्त है? (नहीं, यह उपयुक्त नहीं है।) यह क्यों उपयुक्त नहीं है? (क्योंकि निजी संपत्ति व्यक्ति की अपनी होती है, दूसरों की नहीं। लेकिन बच्चों और माता-पिता के बीच का रिश्ता देह के नाते से बढ़कर कुछ नहीं है। मानव जीवन परमेश्वर से आता है, यह परमेश्वर द्वारा दी हुई साँस है। अगर कोई यह मानता है कि अपने बच्चों को जीवन उसने दिया है, तो उसका परिप्रेक्ष्य और सोच सही नहीं है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था में भी बिल्कुल विश्वास नहीं रखता।) क्या ऐसा नहीं है? देह के नाते को छोड़ दें, तो परमेश्वर की नजरों में बच्चों और माता-पिता दोनों का जीवन स्वतंत्र है। वे एक दूसरे के नहीं हैं, न ही उनका कोई अधिक्रमिक रिश्ता है। बेशक, उनके बीच यकीनन स्वामित्व होने या स्वामित्व में होने का रिश्ता नहीं है। उनका जीवन परमेश्वर से आता है, और उनकी नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है। बात बस इतनी है कि बच्चे अपने माता-पिता से जन्म लेते हैं, माता-पिता अपने बच्चों से बड़े होते हैं, और बच्चे माता-पिता से छोटे होते हैं; फिर भी इस रिश्ते, इस सतही घटना के आधार पर, लोग मानते हैं कि बच्चे माता-पिता का सामान हैं, उनकी निजी संपत्ति हैं। यह मामले को उसकी जड़ से देखना नहीं है, बल्कि सिर्फ सतही तौर पर, देह और वात्सल्य के स्तर पर इस पर गौर करना है। इसलिए, इस तरह विचार करना ही अपने आप में गलत है, और यह एक गलत परिप्रेक्ष्य है। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।) चूँकि बच्चे माता-पिता का सामान या निजी संपत्ति नहीं बल्कि स्वतंत्र लोग हैं, तो बच्चों के बड़े होने के बाद माता-पिता अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ रखें, ये अपेक्षाएँ उनके मन के विचारों के रूप में ही रहनी चाहिए—उन्हें वास्तविकता में तब्दील नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक रूप से भले ही माता-पिता अपने वयस्क बच्चों से अपेक्षा रखें, पर उन्हें उनको साकार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न ही उन्हें अपने वायदों की भरपाई करने के लिए इनका इस्तेमाल करना चाहिए, न ही उनके लिए कोई त्याग या कीमत चुकानी चाहिए। तो माता-पिता को क्या करना चाहिए? जब उनके वयस्क बच्चे स्वतंत्र जीवनयापन करने और जीवित रहने की क्षमता प्राप्त कर लें, तो उन्हें जाने देना चाहिए। जाने देना ही उन्हें सम्मान देने और उनकी जिम्मेदारी लेने का एकमात्र सच्चा मार्ग है। माता-पिता का हमेशा अपने बच्चों पर हावी होना, उन पर नियंत्रण रखना, या उनके जीवन और जीवित रहने में दखल देना और भाग लेना अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण व्यवहार है, और यह काम करने का बचकाना तरीका है। माता-पिता अपने बच्चों से चाहे जितनी भी ऊँची अपेक्षाएँ क्यों न रखें, वे कुछ भी नहीं बदल सकते और शायद उनकी अपेक्षाएँ साकार हों ही नहीं। इसलिए अगर माता-पिता ज्ञानी हों, तो उन्हें इन यथार्थवादी या अयथार्थवादी अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए, अपने बच्चों के साथ अपने रिश्ते को सँभालने के लिए और अपने वयस्क बच्चों के साथ हुए प्रत्येक कार्य या घटना को देखने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यही सिद्धांत है। क्या यह उपयुक्त है? (हाँ, यह उपयुक्त है।) अगर तुम इसे पूरा कर सकते हो, तो साबित होता है कि तुम इन सत्यों को स्वीकार करते हो। अगर नहीं कर सकते, और मनमानी करने पर जोर देते हो, सोचते हो कि पारिवारिक स्नेह दुनिया की सबसे महान, सबसे अहम और सबसे महत्वपूर्ण चीज है, मानो तुम अपने बच्चों के भाग्य की निगरानी कर सकते हो और उनकी नियति अपने हाथों में ले सकते हो, तो आगे बढ़ो और कोशिश करो—देखो आखिरी नतीजा क्या होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे अंत में दुखदाई हार ही होगी, कोई अच्छा नतीजा नहीं मिलेगा।

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