सत्य का अनुसरण कैसे करें (19) भाग एक
तुम सब जो भजन सुनते हो, क्या उन्हें तुम अपनी दशाओं और अनुभवों से जोड़ते हो? क्या तुम उन कुछ शब्दों और विषयवस्तु को सुन कर उन पर चिंतन करते हो, जो तुम्हारे अनुभवों और समझ से संबंधित हैं, या जिन्हें तुम हासिल कर सकते हो? (हे परमेश्वर, कभी-कभी कुछ चीजों का अनुभव करते समय मैं सुने हुए भजनों को अपनी हालत से जोड़ता हूँ, और कभी-कभी मैं बिना मन लगाए सुनता हूँ।) ज्यादातर समय तुम सिर्फ बेमन से सुनते हो, है कि नहीं? अगर भजन सुनते वक्त 95 प्रतिशत समय तुम बिना मन लगाए सुनते हो, तो क्या इस तरह सुनने का कोई महत्त्व है? भजन सुनने का प्रयोजन क्या है? कम-से-कम इससे लोगों को शांति मिलती है, विविध पेचीदा मामलों और विचारों से वे अपने दिल को बाहर निकाल पाते हैं, परमेश्वर के समक्ष शांतचित्त हो पाते हैं, और परमेश्वर के वचनों के समक्ष आकर उसके प्रत्येक वाक्य और पैराग्राफ को ध्यान से सुनकर उस पर चिंतन कर पाते हैं। क्या तुम लोग अभी कामों में इतने ज्यादा व्यस्त हो कि तुम्हारे पास सुनने और चिंतन करने का वक्त नहीं है, या तुम परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करना, सत्य पर चिंतन करना और परमेश्वर के समक्ष शांत-चित्त होना जानते ही नहीं? तुम हर दिन बस व्यस्तता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हो; भले ही यह कठिन और थकाऊ हो, फिर भी तुम मानते हो कि तुम्हारा हर दिन संपूर्ण है, और तुम्हें नहीं लगता कि तुम खाली या आध्यात्मिक दृष्टि से बेसहारा हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा दिन बेकार नहीं हुआ; उसका मूल्य है। हर दिन निरुद्देश्य जीने को यूँ ही समय बेकार करना कहा जाता है। ठीक है न? (हाँ।) मुझे बताओ, अगर चीजें यूँ ही चलती रहीं, तो अगले तीन, पाँच, आठ या दस साल में क्या तुम्हारे पास दिखाने को कुछ भी सार्थक रहेगा? (नहीं।) अगर तुम्हारे साथ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित कोई विशेष घटना न हो, या तुम किन्हीं खास हालात का सामना न करो, अगर तुम लोगों को सभाएँ और संगतियाँ देने और विविध लोगों, घटनाओं और चीजों के सार का विश्लेषण करने, तुम्हारा हाथ थाम कर तुम सबको शिक्षा देने के लिए ऊपरवाले से तुम्हें कोई निजी मार्गदर्शन और अगुआई न मिले, तो तुम लोग हर दिन ढेर सारा वक्त वास्तव में व्यर्थ कर रहे हो, तुम्हारी प्रगति धीमी है, और तुम जीवन प्रवेश में सचमुच कुछ भी हासिल नहीं कर रहे हो। इसलिए जब भी कुछ होता है, तो पहचानने-समझने की तुम्हारी क्षमता नहीं बढ़ती, सत्य के तुम्हारे अनुभव और समझ में तरक्की नहीं होती, और तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण का अनुभव कर उसमें तरक्की करने में भी विफल हो जाते हो। जब अगली बार किसी चीज से तुम्हारा सामना होता है, तब भी तुम नहीं जानते कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार उसे कैसे संभालें। अपने कर्तव्य निभाने और विविध चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में, तुम अब भी सक्रियता से सिद्धांत नहीं खोज सकते और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते। यह समय गँवाना है। समय गँवाने के अंतिम नतीजे क्या होते हैं? तुम्हारा समय और ऊर्जा बेकार हो जाते हैं, और तुम्हारी मेहनतकश कोशिशों की लागत बेकार हो जाती है। इतने वर्ष तुम जिस पथ पर चले हो, उसे पौलुस का पथ माना जाता है। अगर तुम अनेक वर्षों तक एक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो, मगर तुम्हारा जीवन प्रवेश उथला है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, और तुम कोई भी सत्य सिद्धांत नहीं समझते, तो तुम उस भूमिका के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं हो, और स्वतंत्र रूप से कोई कार्य करने में असमर्थ हो। अगुआ और कार्यकर्ता अपनी भूमिकाओं के लिए अनुपयुक्त हैं, और आम भाई-बहन स्वतंत्र रूप से कलीसियाई जीवन नहीं जी सकते, परमेश्वर के वचनों को स्वतंत्र रूप से खा-पी नहीं सकते, वे नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और उन्हें जीवन प्रवेश प्राप्त नहीं है। अगर कोई भी उनका निरीक्षण या मार्गदर्शन न करे, तो वे भटक सकते हैं; अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का उनके कामकाज में निरीक्षण और निर्देशन न हो, तो वे भटक सकते हैं, एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकते हैं, और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जा सकते हैं, और अनजाने ही मसीह-विरोधियों का अनुसरण भी कर सकते हैं और इसके बावजूद यह सोच सकते हैं कि वे परमेश्वर के लिए खुद को खपा रहे हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? (जरूर है।) तुम लोगों की मौजूदा हालत ठीक ऐसी ही है : बुरी और दयनीय दोनों। हालात का सामना होने पर तुम बेसहारा हो जाते हो, और तुम्हारे सामने कोई रास्ता नहीं रहता। वास्तविक समस्याओं और कामकाज की वास्तविक विषयवस्तु की बात आने पर तुम नहीं जानते कि काम कैसे करें या क्या करें; सब-कुछ उलझा हुआ होता है, और तुम्हें कुछ पता नहीं होता कि इन्हें कैसे सुलझाएँ। तुम हर दिन इतना व्यस्त रह कर बहुत खुश हो, शारीरिक रूप से तुम थके हुए हो, मानसिक दृष्टि से तुम पर बहुत दबाव है, मगर तुम्हारे कामकाज के नतीजे उतने अच्छे नहीं हैं। प्रत्येक सत्य के सिद्धांत और अभ्यास के पथों की जानकारी परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के जरिये तुम्हें स्पष्ट रूप से दे दी गई है, लेकिन तुम्हारे कार्य का कोई पथ नहीं है, तुम सिद्धांतों का पता नहीं लगा सकते, हालात का सामना होने पर तुम उलझ जाते हो, काम कैसे करें नहीं जानते और तुम्हारा सारा कामकाज गड़बड़ा जाता है। क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल।) यह सचमुच दयनीय स्थिति है।
कुछ लोग कहते हैं, “मैंने दस साल से भी ज्यादा से परमेश्वर में विश्वास रखा है; मैं एक मंझा हुआ विश्वासी हूँ।” कुछ कहते हैं, “मैंने बीस साल से परमेश्वर में विश्वास रखा है।” दूसरे कहते हैं, “बीस साल का विश्वास क्या है? मैंने तीस साल से भी ज्यादा से परमेश्वर में विश्वास रखा है।” तुम लोगों ने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और तुममें से कुछ लोगों ने अनेक वर्षों तक अगुआओं या कार्यकर्ताओं के तौर पर भी सेवा की है, और तुम्हें काफी अनुभव है। लेकिन तुम्हारा जीवन प्रवेश कैसा चल रहा है? तुम सत्य सिद्धांतों को कितनी अच्छी तरह समझ सकते हो? तुमने अनेक वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा की है, और अपने कामकाज में थोड़ा अनुभव प्राप्त किया है, लेकिन तरह-तरह के कार्यों, लोगों और चीजों से सामना होने पर, क्या तुम सत्य सिद्धांतों को अपने अभ्यास का आधार बनाओगे? क्या तुम परमेश्वर का नाम कायम रखोगे? क्या तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करोगे? क्या तुम परमेश्वर के कार्य की सुरक्षा करोगे? क्या तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहोगे? मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा कलीसिया के कार्य में पैदा की गई बाधाओं और गड़बड़ियों का सामना होने पर, क्या तुममें उनसे लड़ने का आत्मविश्वास और शक्ति होगी? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा कर सकोगे, परमेश्वर के घर का कार्य बनाए रख सकोगे, परमेश्वर के घर के हितों का बचाव कर उसका नाम कलंकित होने से बचा सकोगे? क्या तुम यह कर सकते हो? मैं जो देख रहा हूँ उससे लगता है कि तुम नहीं कर सकते, न ही तुम लोगों ने यह किया है। हर दिन तुम बहुत व्यस्त रहते हो—तुम किस काम में व्यस्त रहे हो? इतने वर्ष तुमने अपने परिवार और करियर की कुर्बानी दी, कष्ट सहे, कीमत चुकाई, कड़ी मेहनत की, लेकिन तुमने बहुत कम हासिल किया। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने ऐसी ही घटनाओं, लोगों और हालात का कई-कई बार सामना किया है, फिर भी वे वही गलतियाँ करते रहते हैं, और उनके फेर में उनसे वही अपराध होते रहते हैं। क्या यह उनके जीवन में विकास की कमी नहीं दर्शाता? क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है? (हाँ।) क्या यह नहीं दिखाता कि वे अभी भी शैतान की काली ताकत से नियंत्रित हैं और उन्होंने उद्धार प्राप्त नहीं किया है? (हाँ।) जब कलीसिया में तुम्हारे आसपास अलग-अलग वक्त तरह-तरह की घटनाएँ होती हैं, सामने आती हैं, तो तुममें कुछ भी करने की शक्ति नहीं होती। खास तौर पर कलीसिया के कार्य में मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा पैदा की जा रही बाधाओं और गड़बड़ियों का सामना होने पर तुम लोग नहीं जानते कि इन्हें कैसे संभालें। तुम चीजों को होने देते हो, या ज्यादा-से-ज्यादा नाराज होकर गड़बड़ी पैदा करने वालों की काट-छाँट करते हो, लेकिन समस्या अनसुलझी रह जाती है, और तुम्हारे पास कोई वैकल्पिक उपाय नहीं होता। कुछ लोग यह भी सोचते हैं, “मैंने इस काम को पूरी लगन से किया, पूरी शक्ति लगा दी—क्या परमेश्वर ने नहीं कहा कि हमें ये दोनों चीजें देनी हैं? मैंने अपना सब-कुछ दिया है; अगर अभी भी कोई नतीजे नहीं मिले, तो यह मेरी गलती नहीं है। लोग बस बेहद खराब हैं : जब तुम उनके साथ सत्य पर संगति करते हो, तब भी वे नहीं सुनते।” तुम कहते हो कि तुमने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, लगन से काम किया, लेकिन कामकाज में कोई परिणाम नहीं मिले। तुमने कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रखा या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं की, और तुमने बुरे लोगों को कलीसिया को काबू में कर लेने दिया। तुमने शैतान को बेलगाम घूम कर परमेश्वर का नाम शर्मसार करने दिया, और तुम किनारे खड़े देखते रहे, कुछ नहीं कर पाए, अधिकार होने पर भी किसी भी चीज को संभालने में नाकाबिल रहे। तुम परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह सके, फिर भी तुम सोचते हो कि तुमने सत्य को समझ लिया, और तुमने पूरी शक्ति और लगन से काम किया। क्या एक अच्छा चरवाहा होने का यही अर्थ है? (नहीं, यह नहीं है।) जब तरह-तरह के बुरे लोग और छद्म-विश्वासी बाहर आकर दानवों और शैतानों के रूप में तरह-तरह की भूमिकाएँ निभाने लगते हैं, कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाकर कुछ बिल्कुल अलग ही करने लगते हैं, झूठ बोलकर परमेश्वर के घर को धोखा देते हैं; जब वे परमेश्वर के कार्य को बाधित कर उसमें गड़बड़ करते हैं, ऐसे काम करते हैं जिनसे परमेश्वर का नाम शर्मसार होता है और परमेश्वर का घर और कलीसिया कलंकित होते हैं, तो इसे देख कर तुम क्रोधित होने के सिवाय कुछ भी नहीं करते, फिर भी तुम न्याय बनाए रखने के लिए खड़े नहीं हो सकते, बुरे लोगों को उजागर कर, कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रख सकते, इन बुरे लोगों को संबोधित कर उन्हें संभालने और उन्हें कलीसिया कार्य को बाधित करने और परमेश्वर के घर और कलीसिया को कलंकित करने से रोक नहीं सकते। ये चीजें न करके तुम गवाही देने में विफल रहे हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं ये चीजें करने की हिम्मत नहीं करता, डरता हूँ कि अगर मैं बहुत सारे लोगों को संभालूँगा तो शायद वे मुझसे क्रोधित हो जाएँ, और अगर वे सब मुझे दंड देने और कार्यालय से निकाल देने के लिए मेरे खिलाफ एक हो जाएँ, तो मैं क्या करूँगा?” मुझे बताओ, क्या वे कायर और दब्बू हैं, क्या उनके पास सत्य नहीं है, और वे लोगों में फर्क नहीं कर सकते या शैतान की बाधा को नहीं समझ सकते, या वे अपने कर्तव्य निर्वहन में निष्ठाहीन हैं, सिर्फ खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं? यहाँ असली मसला क्या है? क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है? अगर तुम स्वभाव से ही दब्बू, नाजुक, कायर और डरपोक हो; फिर भी परमेश्वर में इतने वर्ष विश्वास रखने के बाद, कुछ तथ्यों की समझ के आधार पर तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था का विकास कर लेते हो, तो क्या तुम अपनी कुछ इंसानी कमजोरियों, दब्बूपन और कोमलता को जीत नहीं सकते, और अब बुरे लोगों से डरे बिना नहीं रह सकते? (बिल्कुल रह सकते हैं।) तो फिर बुरे लोगों को संभालने और उन्हें संबोधित करने की तुम्हारी नाकाबिलियत की जड़ क्या है? क्या ऐसा है कि तुम्हारी मानवता सहज ही कायर, दब्बू और डरपोक है? यह न तो मूल कारण है, न ही समस्या का सार। समस्या का सार यह है कि लोग परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं; वे खुद की रक्षा करते हैं, अपनी निजी सुरक्षा, शोहरत, रुतबा और निकासी के मार्ग की रक्षा करते हैं। उनकी निष्ठाहीनता इस बात में अभिव्यक्त होती है कि वे हमेशा खुद की रक्षा कैसे करते हैं, किसी भी चीज से सामना होने पर, वे कैसे कछुए की तरह अपने कवच में घुस जाते हैं, और अपना सिर तब तक बाहर नहीं निकालते जब तक वह चीज गुजर न जाए। उनका चाहे जिस भी चीज से सामना हो, वे हमेशा बेहद सावधानी बरतते हैं, उनमें बहुत व्याकुलता, चिंता और आशंका होती है, और वे कलीसिया कार्य के बचाव में खड़े होने में असमर्थ होते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या यह आस्था का अभाव नहीं है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था सच्ची है ही नहीं, तुम नहीं मानते कि परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीजों पर है, नहीं मानते कि तुम्हारा जीवन और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। तुम परमेश्वर की इस बात पर विश्वास नहीं करते, “परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान तुम्हारे शरीर का एक रोआँ भी हिला नहीं सकता।” तुम अपनी ही आँखों पर भरोसा कर तथ्य परखते हो, हमेशा अपनी रक्षा करते हुए अपने ही आकलन के आधार पर चीजों को परखते हो। तुम नहीं मानते कि व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है; तुम शैतान से डरते हो, बुरी ताकतों और बुरे लोगों से डरते हो। क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था का अभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में सच्ची आस्था क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लोगों के अनुभव बहुत उथले हैं, और वे इन चीजों को गहराई से नहीं समझ सकते, या फिर इसलिए कि वे बहुत कम सत्य समझते हैं? कारण क्या है? क्या इसका लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से कुछ लेना-देना है? क्या ऐसा इसलिए है कि लोग बहुत कपटी हैं? (बिल्कुल।) वे चाहे जितनी भी चीजों का अनुभव कर लें, उनके सामने कितने भी तथ्य रख दिए जाएँ, वे नहीं मानते कि यह परमेश्वर का कार्य है, या व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। यह एक पहलू है। एक और घातक मुद्दा यह है कि लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्य, परमेश्वर के घर के हितों, उसके नाम या महिमामंडन के लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते, कोई त्याग नहीं करना चाहते। वे ऐसा कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं जिसमें जरा भी खतरा हो। लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं! मृत्यु, अपमान, बुरे लोगों के जाल में फँसने और किसी भी प्रकार की दुविधा में पड़ने के अपने डर के कारण लोग अपनी देह को संरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, किसी भी खतरनाक स्थिति में प्रवेश न करने की कोशिश करते हैं। एक ओर, यह व्यवहार दिखाता है कि लोग बहुत ज्यादा कपटी हैं, जबकि दूसरी ओर यह उनका आत्म-संरक्षण और स्वार्थ दर्शाता है। तुम स्वयं को परमेश्वर को सौंपने को तैयार नहीं हो, और जब तुम परमेश्वर के लिए खपने को तैयार होने की बात कहते हो, तो यह एक आकांक्षा से अधिक कुछ नहीं है। जब वास्तव में आगे आकर परमेश्वर की गवाही देने, शैतान से लड़ने, और खतरे, मृत्यु और तरह-तरह की मुश्किलों और कठिनाइयों का सामना करने का समय आता है, तो तुम तैयार नहीं होते। तुम्हारी छोटी-सी आकांक्षा भुरभुरा जाती है, तुम पहले अपनी रक्षा करने की भरसक कोशिश करते हो, और बाद में कुछ ऐसे सतही कार्य कर देते हो जो तुम्हें करने होते हैं, ऐसा कार्य जो सबको दिखाई देता है। इंसान का दिमाग मशीन की अपेक्षा अधिक चुस्त-दुरुस्त होता है : वे जानते हैं कि खुद को कैसे ढालें, वे जानते हैं कि हालात का सामना होने पर कौन-से कर्म उनके अपने हितों में योगदान करते हैं और कौन-से नहीं, और वे शीघ्रता से अपने पास का हर तरीका इस्तेमाल कर लेते हैं। नतीजतन जब भी तुम कुछ चीजों का सामना करते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारा थोड़ा-सा भरोसा दृढ़ नहीं रह पाता। तुम परमेश्वर के साथ कपटपूर्ण बर्ताव करते हो, उसके खिलाफ चालें चलते हो, तिकड़में लगाते हो, और यह परमेश्वर में तुम्हारी सच्ची आस्था का अभाव दर्शाता है। तुम सोचते हो कि परमेश्वर विश्वास योग्य नहीं है, शायद वह तुम्हारी रक्षा न कर पाए या तुम्हारी सुरक्षा सुनिश्चित न कर पाए, और संभव है वह तुम्हें मर जाने दे। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर भरोसेमंद नहीं है, और तुम सिर्फ खुद पर भरोसा करके ही सुनिश्चित हो सकते हो। अंत में क्या होता है? तुम्हारा चाहे जैसे भी हालात या मामलों से सामना हो, तुम इन्हीं तरीकों, चालों और रणनीतियों के नजरिये से उन्हें देखते हो, और तुम परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह पाते। हालात चाहे जो हों, तुम एक योग्यताप्राप्त अगुआ या कार्यकर्ता बनने में असमर्थ हो, चरवाहे के गुण या कर्म दर्शाने में असमर्थ हो, और संपूर्ण निष्ठा प्रदर्शित करने में असमर्थ हो, और इस तरह तुम अपनी गवाही गंवा देते हो। तुम्हारा चाहे जितने भी मामलों से सामना हो, तुम वफादारी और अपनी जिम्मेदारी कार्यान्वित करने के लिए परमेश्वर में अपनी आस्था पर भरोसा नहीं कर पाते। नतीजतन, अंतिम परिणाम यह होता है कि तुम कुछ भी हासिल नहीं करते। परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित हर परिस्थिति में, और जब भी तुम शैतान से लड़ते हो, तुम्हारा चयन हमेशा पीछे हट कर भाग जाने का रहा है। तुम परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट या तुम्हारे अनुभव करने के लिए नियत किए गए पथ पर नहीं चले हो। इसलिए, इस युद्ध के बीच तुम उस सत्य, समझ और अनुभव से चूक जाते हो, जो तुम्हें हासिल करना चाहिए था। हर बार जब तुम खुद को परमेश्वर द्वारा आयोजित हालात में पाते हो, तो तुम उनमें से उसी तरह गुजरते हो, और उन्हें उसी तरह समाप्त करते हो। अंत में, जो धर्म-सिद्धांत और सबक तुम सीख पाते हो, वे वही होते हैं। तुम्हारे पास कोई असली समझ नहीं होती, तुमने बस थोड़े-से अनुभव और सबक आत्मसात कर लिए हैं, जैसे कि : “मुझे भविष्य में यह नहीं करना चाहिए। जब मेरा ऐसी स्थितियों से सामना हो तो मुझे इस बारे में सावधान रहना चाहिए, मुझे खुद को यह याद दिलाना चाहिए, मुझे वैसे व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए, उससे बचना चाहिए, और वैसे व्यक्ति से सुरक्षित रहना चाहिए।” बस इतना ही। वह क्या है जो तुमने हासिल किया है? क्या यह चतुराई और अंतर्दृष्टि है, या अनुभव और सबक? अगर तुम जो हासिल करो उसका सत्य से कोई लेना-देना न हो, तो तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया, ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हें हासिल करना चाहिए था। इस तरह परमेश्वर द्वारा आयोजित परिस्थितियों में तुमने उसे निराश किया है; तुमने वह प्राप्त नहीं किया जो उसने तुम्हारे लिए चाहा था, तो तुमने यकीनन परमेश्वर को निराश किया है। परमेश्वर द्वारा आयोजित इस परिस्थिति या परीक्षण में, तुमने वह सत्य हासिल नहीं किया जो वह चाहता था कि तुम प्राप्त करो। परमेश्वर का भय मानने वाला तुम्हारा दिल विकसित नहीं हुआ है, जो सत्य तुम्हें समझने चाहिए वे अस्पष्ट ही हैं, जिन क्षेत्रों में तुम्हें अपने बारे में समझ होनी चाहिए, उस समझ का अभी भी अभाव है, जो सबक तुम्हें सीखने चाहिए वे अभी तुमने नहीं सीखे हैं, और जिन सत्य सिद्धांतों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए वे तुम्हें नहीं मिल पाए हैं। साथ-ही-साथ परमेश्वर में तुम्हारी आस्था भी नहीं बढ़ी है; यह वहीं है जहाँ यह पहले-पहल शुरू हुई थी। तुम एक ही स्थान पर कदम ताल कर रहे हो, तो फिर बढ़ा क्या है? शायद अब तुम कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हो जिन्हें तुम पहले नहीं जानते थे, या तुमने किसी व्यक्ति के बदसूरत भाग को देख लिया है, जिसे तुमने पहले नहीं समझा था। लेकिन सत्य से जुड़ा सबसे छोटा अंश अभी भी तुम्हारी दृष्टि, समझ, पहचान और अनुभव से परे है। अपना कामकाज या कर्तव्य-निर्वहन जारी रखते हुए भी तुम उन सिद्धांतों को नहीं समझते या जानते जिनका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए बहुत निराशाजनक है। कम से कम इस स्थिति विशेष में तो तुमने परमेश्वर के प्रति निष्ठा और आस्था नहीं बढ़ाई है जो तुम्हारे अंदर सहज रूप से बढ़नी चाहिए थी। तुमने दोनों में से किसी एक को भी हासिल नहीं किया है, जो बिल्कुल दयनीय है! कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम दावा करते हो कि मैंने कुछ भी हासिल नहीं किया, मगर यह सही नहीं है। कम-से-कम मैंने आत्मज्ञान और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों का ज्ञान अर्जित किया है। मुझे मानवता और खुद की समझ पहले से बेहतर है।” क्या इन चीजों की समझ को सच्ची प्रगति माना जा सकता है? भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास न रखो, चालीस-पचास वर्ष के हो जाने पर तुम इन चीजों से कमोबेश परिचित हो ही जाओगे। थोड़ी काबिलियत या औसत काबिलियत वाले लोग यह हासिल कर सकते हैं; वे खुद को, अपनी मानवता के लाभ और हानियों, खूबियों और कमजोरियों को समझ सकते हैं, और साथ ही यह कि वे किसमें अच्छे हैं और किसमें नहीं। चालीस-पचास की उम्र में पहुँचने तक उन्हें उन तरह-तरह के लोगों की मानवता की कमोबेश समझ हो जानी चाहिए, जिनसे वे अक्सर मिलते-जुलते हैं। उन्हें जान लेना चाहिए कि किस प्रकार के लोग मेल-जोल के लिए उपयुक्त हैं और किस प्रकार के नहीं, किस प्रकार के लोगों के साथ जुड़ा जा सकता है और किनके साथ नहीं, किन लोगों से उन्हें दूरी बनाए रखनी चाहिए, और वे किनके करीब हो सकते हैं—वे कमोबेश ये तमाम चीजें समझने में समर्थ हो जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति उलझा रहता है, कमजोर काबिलियत का है, बेवकूफ है, या मानसिक रूप से अपंग है, तब उसे यह समझ नहीं होती। अगर तुमने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, बहुत सत्य सुने हैं, बहुत-से अलग-अलग हालात का अनुभव किया है, और तुम्हारी एकमात्र प्राप्ति लोगों की मानवता के क्षेत्र की है, लोगों को पहचानने या कुछ सरल मामलों को समझने की है, तो क्या इसे एक सच्ची प्राप्ति माना जा सकता है? (नहीं, नहीं माना जा सकता।) तो सच्ची प्राप्ति क्या है? यह तुम्हारे आध्यात्मिक कद से संबंधित है। अगर तुम कुछ हासिल करते हो, तो तरक्की करते हो, और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ता है; अगर तुम सच में कुछ भी हासिल नहीं करते, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं बढ़ता। तो इस प्राप्ति का संदर्भ किससे है? कम-से-कम यह सत्य से तो संबंधित है ही; खास तौर से, सत्य सिद्धांतों से। जब तुम समझते हो, अनुसरण कर सकते हो, और विविध मामलों और लोगों को संभालते समय जिन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास कर सकते हो, और ये तुम्हारे अपने आचरण के सिद्धांत और मानक बन जाते हों, तब यह सच्ची प्राप्ति है। जब ये सत्य सिद्धांत तुम्हारे अपने आचरण के लिए अनुसरण के सिद्धांत और कसौटियाँ बन जाएँ, तो ये तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। जब सत्य का यह पहलू तुममें गढ़ जाता है, तो यह तुम्हारा जीवन बन जाता है, और तभी तुम्हारे जीवन का विकास होता है। अगर ऐसे मामलों से जुड़े सत्य सिद्धांत तुम अब भी नहीं समझ पाए हो, और उनका सामना होने पर तुम अब भी उन्हें संभालना नहीं जानते, तो तुमने इस बारे में सत्य प्राप्त नहीं किया है। साफ तौर पर, सत्य का यह पहलू तुम्हारा जीवन नहीं है, और तुम्हारा जीवन विकसित नहीं हुआ है। बोलने में कुशल होना बेकार है—वैसे भी ये बस धर्म-सिद्धांत ही हैं। क्या तुम इसे माप सकते हो? (हाँ, मैं माप सकता हूँ।) क्या तुमने इस दौरान तरक्की की है? (नहीं, नहीं की है।) तुमने कुछ अनुभवों का सारांश प्रस्तुत करने के लिए महज अपनी इंसानी इच्छा और विवेक का इस्तेमाल किया है, जैसे कि यह कहना, “इस बार मैंने सीखा कि किस प्रकार की चीजें मैं नहीं कहूंगा या करूँगा, कौन-सी चीजें मैं कम या ज्यादा करूँगा, और ऐसा क्या है जो मैं निश्चित रूप से नहीं करूँगा।” क्या यह तुम्हारे जीवन के विकास का लक्षण है? (नहीं, यह नहीं है।) यह इस बात का लक्षण है कि तुममें आध्यात्मिक समझ का गंभीर अभाव है। तुम सिर्फ नियमों, वचनों और नारों का सारांश बना सकते हो, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। क्या यही वह चीज नहीं है जो तुम सब कर रहे हो? (हाँ।) हर बार किसी चीज का अनुभव होने पर, प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना के बाद, तुम खुद को यह कह कर फटकारते हो, “ओह, भविष्य में मुझे यह फलाँ-फलाँ ढंग से करना चाहिए।” लेकिन अगली बार जब वैसी ही घटना होती है, तो भी तुम्हें नाकामयाबी मिलती है, और तुम यह कह कर हताश हो जाते हो, “मैं ऐसा क्यों हूँ?” यह सोच कर कि तुम अपनी ही अपेक्षाएँ पूरी करने में नाकामयाब रहे, तुम खुद से नाराज हो जाते हो। क्या यह किसी काम का है? ऐसा नहीं है कि तुम अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने में नाकामयाब रहे, या तुम मूर्ख हो, या परमेश्वर ने जो हालात आयोजित किए वे गलत थे, और यकीनन ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों से अन्यायपूर्ण तरीके से पेश आ रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, उसे खोज नहीं रहे हो, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार कर्म नहीं कर रहे हो, और तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुन रहे हो। तुम इसमें हमेशा इंसानी इच्छा को ला रहे हो; तुम स्वयं अपने स्वामी हो, और परमेश्वर के वचनों को नियंत्रण नहीं लेने देते। परमेश्वर के वचनों के बजाय तुम दूसरों की बातें सुनोगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, जरूर है।) क्या तुम सोचते हो कि सिर्फ एक घटना या किसी खास हालत से कुछ अनुभव और सबक इकट्ठा करके तुमने प्रगति कर ली है? अगर तुमने सच में प्रगति की है, तो अगली बार जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेगा, तो तुम परमेश्वर के नाम का बचाव कर पाओगे, परमेश्वर के घर के हितों और कार्य की रक्षा कर पाओगे, सुनिश्चित करोगे कि सारा काम सुचारु रूप से चले, और इसमें कोई बाधा या रुकावट न आए। तुम सुनिश्चित करोगे कि परमेश्वर का नाम शुद्ध और निष्कलंक रहे, भाई-बहनों के जीवन के विकास में कोई हानि न हो, और परमेश्वर के चढ़ावे सुरक्षित रहें। इसका अर्थ है कि तुमने प्रगति की है, तुम काम के लायक हो, और तुम्हें जीवन प्रवेश प्राप्त है। फिलहाल, तुम लोग अब भी वहाँ नहीं पहुँच पाए हो; हालाँकि तुम्हारे दिमाग छोटे हैं, मगर उनमें बहुत-सी चीजें भरी हुई हैं और तुम सरल नहीं हो। हालाँकि तुममें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की ईमानदारी, और उसके लिए सभी चीजों को जाने देने और उनका परित्याग करने की आकांक्षा हो सकती है, फिर भी मामलों का सामना होने पर तुम अपनी विविध तृष्णाओं, इरादों और योजनाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाते। परमेश्वर के घर और परमेश्वर के कार्य के सामने तरह-तरह की जितनी ज्यादा मुश्किलें आती हैं, तुम उतना ही पीछे खिसकते हो, तुम उतना ही ज्यादा अदृश्य हो जाते हो, और तुम्हारे आगे आ कर उस काम का प्रभार लेने, परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर के कार्य को सुरक्षित रखने को तैयार होने की संभावना उतनी ही कम हो जाती है। तो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की तुम्हारी ईमानदारी का क्या हुआ? ऐसा क्यों है कि यह थोड़ी-सी ईमानदारी इतनी नाजुक और असुरक्षित है? परमेश्वर के लिए सब-कुछ अर्पित कर देने और सबका परित्याग कर देने की तुम्हारी छोटी-सी इच्छाशक्ति का क्या हुआ? इसमें दृढ़ता क्यों नहीं है? किस वजह से यह इतनी असुरक्षित है? इससे किस बात की पुष्टि होती है? इससे पुष्टि होती है कि तुममें असली आध्यात्मिक कद नहीं है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही तुच्छ है, और कोई छोटा-सा दानव तुम्हें उलझा सकता है : छोटी-सी रुकावट आते ही तुम इस छोटे दानव का अनुसरण करने के लिए मुड़ जाओगे। भले ही तुम्हारे पास थोड़ा आध्यात्मिक कद हो, यह तुम्हारे निजी हितों से असंबद्ध सतही मामलों के तुम्हारे अनुभव तक ही सीमित है, तुम अभी भी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा बड़ी मुश्किल से ही कर पाते हो, और थोड़े-से छोटे-छोटे काम कर पाते हो जो तुम्हें लगता है कि तुम कर पाओगे और जो तुम्हारी काबिलियत के दायरे में हैं। जब अपनी गवाही में सचमुच दृढ़ रहने की बात आती है, जब कलीसिया में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी होती है और बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की गड़बड़ियों से सामना होता है, तब तुम कहाँ रहते हो? तुम क्या कर रहे होते हो? क्या सोच रहे होते हो? यह समस्या को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, है कि नहीं? अगर अपना कर्तव्य निभाते समय कोई मसीह-विरोधी अपने ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा दे, बेहद लापरवाही से काम करे, कलीसिया कार्य को बाधित कर उसमें गड़बड़ करे, चढ़ावे लुटाए, भाई-बहनों से अपना अनुसरण करवाने के लिए उन्हें गुमराह करें, और तुम न सिर्फ उसे पहचान नहीं पाते, उसकी कोशिशों को रोक नहीं पाते, या उसकी शिकायत नहीं करते, बल्कि तुम मसीह-विरोधी के साथ होकर उसे वे नतीजे हासिल करने में मदद करते हो जो वह ये तमाम काम करके पाना चाहता है, तो मुझे बताओ, परमेश्वर के लिए खुद को सच में खपाने के तुम्हारे छोटे-से संकल्प पर क्या असर होता है? क्या यह तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं है? जब मसीह-विरोधी, बुरे लोग, और तरह-तरह के छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ कर उसे नष्ट करते हैं, खास तौर से जब वे कलीसिया को कलंकित करते हैं, परमेश्वर के नाम का निरादर करते हैं, तो तुम क्या करते हो? क्या तुम परमेश्वर के घर के कार्य के बचाव में बोलने के लिए खड़े हुए हो? क्या तुम उनकी कोशिशों को रोकने या उन्हें प्रतिबंधित करने के लिए खड़े हुए हो? न सिर्फ तुमने खड़े हो कर उन्हें रोका नहीं है, बल्कि बुराई करने में मसीह-विरोधियों का साथ दिया है, उनकी मदद की है, उन्हें बढ़ावा दिया है, और तुमने उनके साधन और गुर्गे के रूप में कार्य किया है। इसके अलावा, जब कोई मसीह-विरोधियों की किसी समस्या की सूचना देने के लिए पत्र लिखता है, तो तुम पत्र को बक्से में डाल देते हो, और उस मामले से न निपटने का फैसला करते हो। तो इस अहम घड़ी में, क्या परमेश्वर के लिए सच्चाई से खपने और सभी चीजों का परित्याग करने के तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा का जरा भी प्रभाव पड़ा? अगर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह तथाकथित आकांक्षा और संकल्प तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं हैं, ये वे नहीं हैं जो तुमने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने से प्राप्त किए हैं। ये सत्य का स्थान नहीं ले सकते; ये न सत्य हैं और न ही जीवन प्रवेश। ये जीवन प्राप्त व्यक्ति का द्योतक नहीं हैं, ये महज खयाली पुलाव हैं, वह लालसा और ललक है जो लोगों में सुंदर चीजों के प्रति होती है—इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, तुम लोगों को जागना चाहिए, और अपना आध्यात्मिक कद स्पष्ट रूप से देखना चाहिए। मत सोचो कि थोड़ी काबिलियत होने, और शिक्षा, करियर, परिवार, विवाह और दैहिक संभावनाओं जैसी बहुत-सी चीजों का परित्याग कर देने के कारण तुम्हारा आध्यात्मिक कद किसी तरह से महान है। कुछ लोग परमेश्वर में अपनी आरंभिक आस्था की नींव डालने के समय से ही अगुआ या कार्यकर्ता भी रह चुके हैं। इस दौरान उन्होंने कुछ अनुभव और सबक इकठ्ठा किए हैं, और वे कुछ बातों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका आध्यात्मिक कद दूसरों से बड़ा है, उन्हें जीवन प्रवेश प्राप्त है, वे परमेश्वर के घर के भीतर के खंभे और स्तंभ हैं, जिन्हें परमेश्वर पूर्ण कर रहा है। यह सही नहीं है। खुद को अच्छा मत समझो—तुम लोग अभी भी उससे बहुत दूर हो! तुम मसीह-विरोधियों को पहचान भी नहीं पाते; तुम लोगों का कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है। हालाँकि तुम अनेक वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करते रहे हो, फिर भी ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ तुम उपयुक्त हो सकते हो, तुम ज्यादा असल कार्य नहीं कर सकते हो, और अनिच्छा से ही तुम्हें काम में इस्तेमाल किया जा सकता है। तुम बहुत प्रतिभाशाली नहीं हो। अगर तुम लोगों में से किसी में कड़ी मेहनत करने और कष्ट सहने की भावना हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा तुम वजन ढोने वाले खच्चर हो। तुम लोग उपयुक्त नहीं हो। कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता सिर्फ इसलिए बन जाते हैं क्योंकि वे उत्साही हैं, उनकी शैक्षणिक बुनियाद है और उनमें थोड़ी काबिलियत है। इसके अलावा, कुछ कलीसियाओं को प्रभारी बनने के लिए आदर्श व्यक्ति नहीं मिल पाता, इसलिए इन लोगों को नियम के अपवाद के रूप में पदोन्नत कर दिया जाता है, और ये प्रशिक्षणार्थी बन जाते हैं। तरह-तरह के लोगों को उजागर करने की प्रक्रिया में, इनमें से कुछ को धीरे-धीरे बदला गया है, हटा दिया गया है। हालाँकि कुछ लोग जो अब भी अनुसरण में हैं, वे अभी बचे हुए हैं, पर अब भी किसी चीज की पहचान नहीं कर पाते। वे बस इसलिए बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने कुछ बुरा नहीं किया है। इसके अलावा, पूरी तरह से ऊपरवाले से मिली कार्य व्यवस्थाओं, और साथ ही सीधे मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, पूछताछ, जाँच, निरीक्षण और काट-छाँट की वजह से ही वे कुछ कार्य कर पाते हैं—इसका यह अर्थ नहीं है कि वे उपयुक्त व्यक्ति हैं। ऐसा इसलिए है कि तुम लोग अक्सर दूसरों की आराधना करते हो, उनका अनुसरण करते हो, भटक जाते हो, गलत काम करते हो, और कुछ अपधर्मों और भ्रांतियों से उलझन के भँवर में पड़ जाते हो, अपनी दिशा का भान खो देते हो, और आखिर में यह भी जान नहीं पाते कि आखिर तुम सचमुच किसमें विश्वास रखते हो। यही है तुम्हारा वास्तविक आध्यात्मिक कद। अगर मैं कहूँ कि तुम्हें जीवन प्रवेश बिल्कुल भी प्राप्त नहीं है, तो यह तुम्हारे साथ अन्याय होगा। मैं बस इतना कह सकता हूँ कि तुम लोगों के अनुभवों का दायरा बहुत सीमित है। तुम्हें काट-छाँट और गंभीर रूप से अनुशासित किए जाने के बाद ही प्रवेश मिल पाता है, लेकिन महत्वपूर्ण सिद्धांतों के विषय पर, खास तौर पर मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं द्वारा गुमराह किए जाने और बाधित किए जाने पर तुम लोगों के पास दिखाने के लिए अपना कुछ नहीं होता, और तुम्हारे पास गवाही होती ही नहीं। जीवन अनुभवों और जीवन प्रवेश के संदर्भ में तुम्हारे अनुभव बहुत उथले हैं, और तुम्हें परमेश्वर की सच्ची समझ नहीं है। इसे लेकर तुम्हारे पास दिखाने को अब भी कुछ नहीं है। जब कलीसिया के वास्तविक कार्य की बात आती है तो तुम लोग नहीं जानते कि सत्य पर संगति कैसे करें, और समस्याएँ कैसे सुलझाएँ; यहाँ तुम्हारे पास दिखाने को कुछ भी नहीं होता। इन पहलुओं में, तुम लोगों के पास खुद के लिए दिखाने को कुछ भी नहीं होता। इसलिए तुम लोग अगुआ और कार्यकर्ता की भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं हो। लेकिन, साधारण विश्वासियों के रूप में, तुममें से ज्यादातर लोगों को थोड़ा-सा जीवन प्रवेश प्राप्त है, हालाँकि यह बहुत कम है, और सत्य वास्तविकता के लिए काफी नहीं है। तुम परीक्षाएँ झेल सकते हो या नहीं इसका निरीक्षण अभी बाकी है। सिर्फ बड़े परीक्षणों, अहम प्रलोभनों या परमेश्वर से गंभीर और सीधी ताड़ना और न्याय के सचमुच आने पर ही वे परख सकते हैं कि तुममें सच्चा आध्यात्मिक कद और सत्य वास्तविकता है या नहीं, तुम अपनी गवाही में अडिग रह सकते हो या नहीं, परीक्षा पत्र में तुम्हारे उत्तर क्या होंगे, और क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर पाते हो—तभी तुम्हारे सच्चे आध्यात्मिक कद का खुलासा होगा। अभी के लिए यह कहना कि तुममें आध्यात्मिक कद है, अभी भी समयपूर्व है। अगुआ और कार्यकर्ता की भूमिका की बात करें तो तुममें कोई असल आध्यात्मिक कद नहीं है। मामलों का सामना होने पर तुम उलझन में पड़ जाते हो, और बुरे लोगों या मसीह-विरोधियों की बाधाओं से आमना-सामना होने पर तुम हार जाते हो। तुम कोई भी महत्वपूर्ण कार्य स्वतंत्र रूप से पूरा नहीं कर सकते; तुम्हें काम पूरा करने हेतु हमेशा निगरानी करने, मार्गदर्शन और सहयोग देने के लिए किसी की जरूरत होती है। दूसरे शब्दों में, तुम नाव नहीं खे सकते। तुम मुख्य भूमिका निभाओ या सहायक भूमिका, तुम लोग अपने दम पर इसकी जिम्मेदारी नहीं ले सकते, या कोई कार्य स्वतंत्र रूप से पूरा नहीं कर सकते; ऊपरवाला निगरानी न करे और चिंता न जताए तो तुम लोग कोई भी काम अच्छे ढंग से करने में बेहद असमर्थ हो। अगर अंत में, तुम्हारे कार्य की समीक्षा दर्शाती है कि तुम लोगों ने सभी पहलुओं में अच्छा किया है, तुमने अपने कार्य के हर भाग में अपना दिल लगाया है, तुमने सब-कुछ अच्छे ढंग से किया है, और उचित ढंग से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार संभाला है, तुमने सत्य की स्पष्ट समझ और सत्य सिद्धांतों को खोजने के आधार पर कार्य किया है, ताकि तुम मसलों को सुलझा कर अपना कार्य अच्छे ढंग से कर सको, तो तुम उपयुक्त हो। लेकिन अब तक तुमने जो कुछ भी अनुभव किया है, उस आधार पर परखा जाए तो तुम उपयुक्त नहीं हो। तुम्हारी उपयुक्तता के साथ अहम मसला यह है कि तुम्हें सौंपे गए कार्य तुम स्वतंत्र रूप से पूरे नहीं कर सकते—यह एक पहलू है। एक और बात यह है कि अगर ऊपरवाला निगरानी न करे, तो तुम लोग लोगों को भटका सकते हो या उनसे सही पथ छुड़वा सकते हो। तुम उन्हें परमेश्वर के समक्ष नहीं ला सकते, या कलीसिया के भाई-बहनों को सत्य वास्तविकता में या परमेश्वर में आस्था के सही पथ पर नहीं ला सकते, ताकि परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग अपना कर्तव्य निभा सकें। तुम इनमें से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। अगर ऐसी कोई समयावधि हो जिसमें ऊपरवाला पूछताछ न करे, तो तुम जिस काम के लिए जिम्मेदार हो, उसके दायरे में हमेशा अनेक भटकाव और कमियाँ होती हैं, साथ ही हर प्रकार की छोटी-बड़ी समस्याएँ होती हैं; और अगर ऊपरवाला इसे न सुधारे, निगरानी न करे या व्यक्तिगत रूप से इन्हें न संभाले, तो कौन जाने ये भटकाव कितने बड़े होंगे या कब रुकेंगे। यही तुम लोगों का असली आध्यात्मिक कद है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोग बहुत अनुपयुक्त हो। क्या तुम सब यह सुनना चाहते हो? क्या इसे सुन कर तुम नकारात्मक महसूस नहीं करते? (हे परमेश्वर, हम दिल से बहुत परेशान महसूस कर रहे हैं, लेकिन परमेश्वर जिस बारे में संगति कर रहा है वह सचमुच एक तथ्य है। हममें जरा भी आध्यात्मिक कद या सत्य वास्तविकता नहीं है। जब मसीह-विरोधी प्रकट होंगे, तो हम उन्हें पहचान नहीं पाएँगे।) मुझे तुम लोगों का ध्यान इनकी ओर खींचना है; वरना तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे साथ हमेशा गलत होता है, बुरा बर्ताव होता है। तुम लोग सत्य नहीं समझते; तुम लोग सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो। अब तुम सभाओं में धर्म-सिद्धांत की बात करने के लिए कोई आलेख भी तैयार नहीं करते, तुम्हें अब मंच का भय भी नहीं है, और तुम सोचते हो कि तुममें आध्यात्मिक कद है। अगर तुममें आध्यात्मिक कद है, तो फिर तुम उपयुक्त क्यों नहीं हो? तुम सत्य पर संगति क्यों नहीं कर पाते, मसलों का समाधान क्यों नहीं कर पाते? तुम सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो, ताकि भाई-बहन तुम्हें स्वीकार सकें। इससे परमेश्वर संतुष्ट नहीं होता, और यह तुम्हें उपयुक्त नहीं बना देता। इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने की तुम्हारी काबिलियत किन्हीं वास्तविक समस्याओं को हल नहीं कर सकती। परमेश्वर तुम्हें उजागर करने वाली किसी एक छोटी-सी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, और यह स्पष्ट हो जाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना छोटा है, तुम सत्य बिल्कुल नहीं समझते हो, और तुम किसी चीज की असलियत नहीं समझ सकते; यह उजागर कर देता है कि तुम कमजोर, दयनीय, अंधे और अज्ञानी हो। क्या बात यह नहीं है? (हाँ।) अगर तुम ये चीजें स्वीकार कर सकते हो, तो अच्छा है; नहीं कर सकते तो अपना समय लो और उन पर विचार करो। मेरी बात पर विचार करो : क्या इसका कोई अर्थ है, क्या यह वास्तविकता पर आधारित है? क्या यह तुम सब पर लागू होता है? भले ही यह तुम पर लागू हो, फिर भी नकारात्मक मत बनो। नकारात्मक होने से तुम्हारी समस्याएँ हल नहीं होंगी। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में अगर तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, और एक अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहते हो, तो अवरोध और विफलताओं का सामना होने पर तुम छोड़ नहीं सकते। तुम्हें उठकर आगे बढ़ते रहना होगा। जिन क्षेत्रों में तुममें कमी या खामी है, या जिसमें तुम्हें गंभीर समस्याएँ हैं, उनमें सत्य के पहलुओं से तुम्हें खुद को लैस करने पर ध्यान देना चाहिए। नकारात्मक होने या जड़ हो जाने से तुम कुछ सुलझा नहीं सकते। मामलों का सामना होने पर शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और तरह-तरह के वस्तुनिष्ठ तर्कों की बात करना छोड़ दो—इनसे कोई लाभ नहीं होगा। जब परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण ले, और तुम कहो, “उस वक्त मेरी तबीयत ज्यादा अच्छी नहीं थी, मैं छोटा था, और मेरा माहौल बहुत शांतिपूर्ण नहीं था,” तो क्या वह यह सुनेगा? परमेश्वर पूछेगा, “जब तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की गई थी तब क्या तुमने उसे सुना था?” अगर तुम कहोगे, “हाँ, मैंने सुना तो था,” तो वह पूछेगा, “जो कार्य व्यवस्थाएँ बताई गई थीं, क्या वे तुम्हारे पास हैं?” फिर तुम कहोगे, “हाँ, मेरे पास हैं,” तो वह आगे पूछेगा : “तो फिर तुमने उनका अनुसरण क्यों नहीं किया? तुम इतनी बुरी तरह विफल क्यों हुए? तुम अपनी गवाही में दृढ़ क्यों नहीं रह सके?” तुम्हारे किसी भी वस्तुनिष्ठ कारण में दम नहीं है। परमेश्वर को तुम्हारे बहानों या तर्क में रुचि नहीं है। वह नहीं देखता कि तुम कितने धर्म-सिद्धांतों की बात कर पाते हो या तुम अपना बचाव करने में कितने मंझे हुए हो। परमेश्वर को जो चाहिए वह है तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद और वह चाहता है कि तुम्हारा जीवन विकसित हो। तुम चाहे जब और जिस स्तर के अगुआ बन जाओ, तुम्हारा रुतबा चाहे जितना ऊँचा हो, कभी मत भूलो कि परमेश्वर के समक्ष तुम कौन और क्या हो। तुम चाहे जितना भी धर्म-सिद्धांत बोल पाओ, धर्म-सिद्धांत बोलने में चाहे तुम जितने भी अभ्यस्त हो, तुमने जो भी किया हो, परमेश्वर के घर में जो भी योगदान दिया है, इनमें से कुछ भी नहीं दर्शाता कि तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद है, न ही ये जीवन प्राप्ति के लक्षण हैं। जब तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो, सत्य सिद्धांतों को समझ लेते हो, और मामलों का सामना होने पर अपनी गवाही में दृढ़ रहते हो, स्वतंत्र रूप से अपने कार्य पूरे कर पाते हो और काम के लायक हो, तभी तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद होगा। ठीक है, आओ इस चर्चा को यहीं समाप्त करें और अपनी संगति के मुख्य विषय की ओर बढ़ें।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।