सत्य का अनुसरण कैसे करें (18) भाग चार

जब बेटे-बेटियाँ स्वतंत्र रूप से जीवन जीने में सक्षम हो जाएँ, तो माँ-बाप को उनके काम, जीवन और परिवारों को लेकर बस थोड़ी चिंता और उनकी आवश्यक देखरेख ही करनी चाहिए, या उन परिस्थितियों में उन्हें थोड़ी उपयुक्त सहायता देनी चाहिए जहाँ बच्चे अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल करके किसी चीज को हासिल करने या उसकी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे बेटे या बेटी का एक बच्चा है और वे दोनों काम में बहुत व्यस्त रहते हैं। बच्चा अभी बहुत छोटा है, और कभी-कभी उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। इन परिस्थितियों में, तुम उनके बच्चे की देखभाल करने में अपने बच्चों की मदद कर सकते हो। यह माँ-बाप की जिम्मेदारी है, क्योंकि आखिरकार वे तुम्हारा ही अंश और खून हैं, और कोई अनजान बच्चे की देखभाल करे इससे तो बेहतर है कि तुम ही उनकी देखभाल करो। अगर तुम्हारा बच्चा अपने बच्चे की देखभाल के लिए तुम पर भरोसा करता है, तो तुम्हें यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। अगर वह बच्चे को तुम्हें सौंपने में सहज महसूस नहीं करता और नहीं चाहता कि तुम उसकी देखभाल करो, या अगर वह तुम्हें उसकी देखभाल इसलिए नहीं करने दे रहा क्योंकि वह तुमसे प्यार करता है, तुम्हारा ख्याल रख रहा है, और उसे डर है कि तुम शारीरिक रूप से बच्चे की देखभाल करने के लिए पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो, तो तुम्हें इसमें खोट नहीं खोजनी चाहिए। कुछ बेटे-बेटियाँ ऐसे भी हैं जो अपने माँ-बाप पर भरोसा ही नहीं करते, वे सोचते हैं कि उनके माँ-बाप में बच्चे की देखभाल करने की क्षमता नहीं है, उन्हें बस छोटे बच्चों को बिगाड़ना आता है, उन्हें शिक्षित करना नहीं, और जब बात उनके खान-पान की आती है तो वे सावधानी नहीं बरतते। अगर तुम्हारा बेटा या बेटी तुम पर भरोसा नहीं करते, और नहीं चाहते कि तुम उनके बच्चे की देखभाल करो, तो यह और भी अच्छा है, तो तुम्हारे पास कुछ और खाली समय बचेगा। इसे आपसी सहमति कहा जाता है : न तो माँ-बाप और न ही बच्चा एक-दूसरे के जीवन में टाँग अड़ाते हैं, और साथ ही एक-दूसरे की परवाह भी करते हैं। जब बच्चों को सहायता, परवरिश और देखभाल की जरूरत हो, तो माँ-बाप को बस भावनात्मक स्तर पर या अन्य मामलों में उनकी उचित और आवश्यक चिंता, परवाह और आर्थिक सहायता करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी माँ-बाप ने कुछ बचत की है, या उनकी नौकरी अच्छी चल रही है और उनके पास पैसे कमाने का एक जरिया है। जब उनके बच्चों को कुछ पैसों की जरूरत पड़े, तो वे परिस्थिति के हिसाब से उनकी थोड़ी मदद कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, तो उनके लिए यह जरूरी नहीं कि वे अपनी सारी संपत्ति बेच डालें या अपने बच्चों की मदद के लिए किसी साहूकार से पैसे उधार लें। उन्हें पारिवारिक संरचना के तहत बस उतनी ही जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए जितनी कि वे कर पाने में सक्षम हों। उन्हें अपनी सारी संपत्ति बेचने, या अपना गुर्दा या खून बेचने, या अपने बच्चों की मदद के लिए आखरी साँस तक काम करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारा अपना है, यह परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, और तुम्हारे अपने मकसद हैं। तुम्हारे पास यह जीवन इसलिए है ताकि तुम उन सभी मकसदों को पूरा कर सको। तुम्हारे बच्चों का जीवन भी इसलिए है ताकि वे अपने जीवन पथ के अंत तक पहुँच सकें और जीवन में अपने मकसद को पूरा कर सकें, इसलिए नहीं कि वे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँ। तो, चाहे उनके बच्चे बालिग हों या नहीं, माँ-बाप का जीवन सिर्फ और सिर्फ माँ-बाप का ही होता है, यह उनके बच्चों का नहीं होता। जाहिर है कि माँ-बाप अपने बच्चों के लिए मुफ्त की आया या गुलाम नहीं हैं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ हों, उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे अपने बच्चों को मनमाने ढंग से उन्हें आदेश देने दें और बदले में मुआवजा भी न पाएँ, न ही यह जरूरी है कि वे अपने बच्चों के नौकर, आया या गुलाम बन जाएँ। तुम्हारे मन में अपने बच्चों के लिए चाहे जैसी भी भावनाएँ हों, तुम अभी भी एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। तुम्हें उनके बालिग जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए मानो कि सिर्फ इसलिए ऐसा करना बिल्कुल सही है क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। वे बालिग हैं; तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की अपनी जिम्मेदारी पहले ही पूरी कर चुके हो। जहाँ तक बात है कि वे भविष्य में अच्छा जीवन जिएँगे या बुरा, वे अमीर होंगे या गरीब, और खुशहाल जीवन जिएँगे या दुखी रहेंगे, यह उनका अपना मामला है। इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते, तुम्हारे ऊपर उन चीजों को बदलने का कोई दायित्व नहीं है। अगर उनका जीवन दुखी है, तो तुम यह कहने के लिए बाध्य नहीं हो : “तुम दुखी हो—मगर मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा, मैं अपनी सारी संपत्ति बेच दूँगा, मैं तुम्हें खुश रखने के लिए अपने जीवन की सारी ऊर्जा लगा दूँगा।” ऐसा करना जरूरी नहीं है। तुम्हें बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, इससे ज्यादा और कुछ नहीं करना। अगर तुम उनकी मदद करना चाहते हो, तो उनसे पूछ सकते हो कि वे दुखी क्यों हैं, और सैद्धांतिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समस्या को समझने में उनकी सहायता कर सकते हो। अगर वे तुम्हारी मदद स्वीकारते हैं, तो यह और भी बढ़िया बात है। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो तुम्हें बस एक माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, और कुछ नहीं करना। अगर तुम्हारे बच्चे कष्ट उठाना चाहते हैं, तो यह उनका अपना मामला है। तुम्हें इसके बारे में चिंता करने या परेशान होने, या अपनी भूख और नींद मारकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा करना अति हो जाएगा। यह अति क्यों होगा? क्योंकि वे अब बालिग हैं। उन्हें अपने जीवन में आने वाली हर समस्या से खुद ही निपटना सीखना चाहिए। अगर तुम्हें उनकी चिंता सताती है, तो यह सिर्फ तुम्हारा स्नेह है; अगर तुम्हें उनकी चिंता नहीं होती, तो इसका यह मतलब नहीं कि तुम निष्ठुर हो, या तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं। वे बालिग हैं, और बालिग लोगों को बालिगों वाली समस्याओं का सामना करना चाहिए और उन सभी चीजों से निपटना चाहिए जिनसे बालिग लोग निपटते हैं। उन्हें हर चीज के लिए अपने माँ-बाप पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। बेशक, माँ-बाप को इस बात की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेनी चाहिए कि उनके बच्चों के बालिग होने के बाद उनकी नौकरी, उनके करियर, परिवार या शादी में सब कुछ ठीक रहेगा या नहीं। तुम इन चीजों के बारे में चिंता कर सकते हो, और उनके बारे में पूछताछ कर सकते हो, पर तुम्हें उनका पूरा जिम्मा लेने, अपने बच्चों को अपने साथ बाँधकर रखने, जहाँ भी जाओ उन्हें अपने साथ लेकर जाने, जहाँ भी जाओ वहाँ उन पर नजर रखने, और उनके बारे में यह सोचते रहने की जरूरत नहीं है : “क्या उन्होंने आज ठीक से खाना खाया होगा? क्या वे खुश हैं? क्या उनका काम अच्छा चल रहा है? क्या उनका बॉस उनकी सराहना करता है? क्या उनका जीवनसाथी उनसे प्यार करता है? क्या उनके बच्चे आज्ञाकारी हैं? क्या उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड मिलते हैं?” इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? तुम्हारे बच्चे अपनी समस्याएँ खुद हल कर सकते हैं, तुम्हें इसमें शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यह क्यों पूछा कि इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? क्योंकि इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुमने अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तुमने उन्हें पाल-पोसकर बालिग बना दिया है, तो तुम्हें अब पीछे हट जाना चाहिए। ऐसा करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा। अभी भी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। जब उन मकसदों की बात आती है जिन्हें तुम्हें इस जीवन में पूरा करना चाहिए, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर बालिग बनाने के अलावा, तुम्हारे पास पूरे करने के लिए और भी कई मकसद हैं। अपने बच्चों के माँ-बाप होने के अलावा, तुम एक सृजित प्राणी भी हो। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, और उससे मिला अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे पूरा कर लिया है? क्या तुमने खुद को इसके प्रति समर्पित कर दिया है? क्या तुम उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हो? तुम्हें पहले इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम्हारे बच्चे बालिग होने के बाद कहाँ जाएँगे, उनका जीवन कैसा होगा, उनकी परिस्थितियाँ कैसी होंगी, वे खुशहाल और प्रसन्न महसूस करेंगे या नहीं, इन बातों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे बच्चे व्यावहारिक संदर्भ में और मानसिक रूप से पहले से ही स्वतंत्र हैं। तुम्हें उन्हें स्वतंत्र होने देना चाहिए, उन्हें जाने देना चाहिए, और उन्हें काबू में करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चाहे चीजों के व्यावहारिक संदर्भ में हो या स्नेह या खून के रिश्ते के संदर्भ में, तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके हो, और अब तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। उनके मकसदों और तुम्हारे मकसदों के बीच कोई संबंध नहीं है, और वे जिस जीवन पथ पर चलते हैं उसके और तुम्हारी अपेक्षाओं के बीच कोई संबंध नहीं है। उनसे तुम्हारी अपेक्षाएँ और उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ खत्म हो गई हैं। स्वाभाविक रूप से, तुम्हें उनसे अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए। वे वे हैं, और तुम तुम हो। अगर तुम्हारे बच्चों की शादी नहीं होती, तो अपने-अपने भाग्य और मकसद के संदर्भ में, तुम दोनों ही पूरी तरह से दो अलग और स्वतंत्र व्यक्ति हो। अगर वे शादी करके परिवार शुरू करते भी हैं, तो तुम्हारे परिवारों का उनके परिवारों से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे बच्चों की अपनी जीने की आदतें हैं और अपनी जीवनशैली है, उनके जीवन की गुणवत्ता के संबंध में उनकी अपनी जरूरतें हैं, और तुम्हारी अपनी जीने की आदतें हैं, और तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता के संबंध में तुम्हारी अपनी जरूरतें हैं। जीवन में तुम्हारा अपना मार्ग है और जीवन में उनके अपने मार्ग हैं। तुम्हारे अपने मकसद हैं, और उनके अपने। बेशक, तुम्हारी अपनी आस्था है, और उनकी अपनी। अगर उनकी आस्था धन, प्रतिष्ठा और लाभ में निहित है, तो तुम पूरी तरह से अलग लोग हो। अगर उनकी आस्था तुम्हारे जैसी ही है, अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं और उद्धार के मार्ग पर चलते हैं, तो भी तुम स्वाभाविक रूप से अभी भी पूरी तरह से अलग व्यक्ति हो। तुम तुम हो, और वे वे हैं। जब उन मार्गों की बात आती है जिन पर वे चलते हैं, तुम्हें उनमें अपनी टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। तुम उन्हें सहारा दे सकते हो, उनकी मदद कर सकते हो और उनके लिए प्रावधान कर सकते हो, तुम उन्हें याद दिला सकते हो और प्रोत्साहित कर सकते हो, पर तुम्हें उनके मामलों में हस्तक्षेप करने या शामिल होने की जरूरत नहीं है। कोई भी यह निर्धारित नहीं कर सकता कि दूसरा व्यक्ति किस प्रकार के मार्ग पर चलेगा, वह किस प्रकार का व्यक्ति बनकर जिएगा, या वह किस प्रकार की चीजों का अनुसरण करेगा। जरा सोचो इस बारे में, मैं किस आधार पर यहाँ बैठकर तुम लोगों से बातचीत कर रहा हूँ और इन सभी चीजों के बारे में तुमसे बात कर रहा हूँ? सुनने की तुम लोगों की इच्छा के आधार पर। मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि तुम लोग मेरे सच्चे उपदेशों को सुनने के इच्छुक हो। अगर तुम सभी यह नहीं सुनना चाहते हो या छोड़कर चले जाते हो, तो मैं अब और नहीं बोलूँगा। मैं कितने शब्द बोलता हूँ यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम उन्हें सुनने के इच्छुक हो या नहीं और क्या तुम ऐसा करने के लिए अपना समय और ऊर्जा खर्च करने को तैयार हो। अगर तुमने कहा, “मुझे तुम्हारी बात समझ नहीं आ रही है, तो क्या तुम थोड़ा विस्तार से चीजों को समझा सकते हो?” फिर मैं और ज्यादा विस्तार से समझाने की अपनी पूरी कोशिश करूँगा, ताकि तुम मेरे वचनों को समझकर उनमें प्रवेश कर सको। जब मैं तुम लोगों को सही रास्ते पर ले आऊँगा, तुम्हें परमेश्वर और सत्य के समक्ष ले आऊँगा, और सत्य को समझने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में तुम्हें सक्षम बना दूँगा, तब मेरा काम पूरा हो जाएगा। लेकिन, जब यह बात आती है कि क्या तुम परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद उनका अभ्यास करने के इच्छुक होगे, या तुम किस प्रकार के मार्ग पर चलोगे, किस किस्म का जीवन चुनोगे, तुम किसका अनुसरण करोगे, इन चीजों से मेरा कोई सरोकार नहीं है। अगर तुमने कहा, “मेरे पास सत्य के उस पहलू के संबंध में एक सवाल है, मैं इसके बारे में खोजना चाहता हूँ,” तो मैं धैर्य से तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा। लेकिन अगर तुम कभी सत्य खोजना ही नहीं चाहते, तो क्या मैं इसके लिए तुम्हारी काट-छाँट करूँगा? मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तुम्हें सत्य खोजने के लिए बाध्य नहीं करूँगा, या तुम्हारा उपहास या मजाक नहीं उड़ाऊँगा, और मैं यकीनन तुम्हारे प्रति उदासीन रवैया नहीं रखूँगा। मैं तुमसे पहले जैसा ही व्यवहार करूँगा। अगर तुम अपने कर्तव्य में गलती करते हो या जानबूझकर बाधा या गड़बड़ी पैदा करते हो, तो तुमसे निपटने के लिए मेरे पास अपने सिद्धांत और अपने तरीके हैं। हालाँकि, तुम कह सकते हो : “मुझे तुम्हारी ये बातें नहीं सुननी, और न ही मैं तुम्हारे इन विचारों को स्वीकारूँगा। मैं हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहूँगा।” तब तुम सिद्धांतों या प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करोगे। अगर तुमने प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किया, तो मैं तुमसे निपटूंगा। लेकिन अगर तुम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करते, और कलीसियाई जीवन जीते हुए उचित व्यवहार कर सकते हो, तो भले ही तुम सत्य का अनुसरण न करो, मैं तुम्हारे काम में दखल नहीं दूँगा। जब बात तुम्हारे निजी जीवन की आती है, तुम क्या खाना-पहनना चाहते हो या तुम किन लोगों से मिलते हो, मैं तुम्हारे मामलों में टाँग नहीं अड़ाऊँगा। इन मामलों में तुम्हें पूरी आजादी होगी। ऐसा क्यों? मैं इन मामलों के संबंध में सभी सिद्धांतों और अन्य चीजों के बारे में तुम्हें साफ तौर पर बता चुका हूँ। बाकी सब तुम्हारी अपनी पसंद पर निर्भर करता है। तुम किस मार्ग पर चलना चुनते हो, वह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो, यह स्पष्ट है। अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तो तुम्हें सत्य से प्रेम करने के लिए कौन बाध्य कर सकता है? आखिर में, हरेक व्यक्ति उस मार्ग की जिम्मेदारी खुद लेगा जिस पर वह चलेगा, और जो परिणाम उसे मिलेंगे। मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो यह तुम्हारी मर्जी है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो यह भी तुम्हारी अपनी मर्जी है—कोई भी तुम्हें रोक नहीं रहा है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो कोई भी तुम्हें प्रोत्साहित नहीं करेगा और तुम्हें कोई खास अनुग्रह या सांसारिक आशीष नहीं दी जाएगी। मैं बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा हूँ और उन्हें पूरा कर रहा हूँ, तुम लोगों को वे सभी सत्य बता रहा हूँ जिन्हें तुम्हें समझना और जिनमें तुम्हें प्रवेश करना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम निजी तौर पर अपना जीवन कैसे जीते हो, मैंने कभी इस बारे में पूछताछ नहीं की, या इसमें ताक-झांक नहीं की। मैं यही रवैया अपनाता हूँ। माँ-बाप को भी अपने बच्चों के प्रति ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। बालिगों में सही-गलत को पहचानने की क्षमता होती है। अब वे सही चुनेंगे या गलत, काला चुनेंगे या सफेद, सकारात्मक चीजें चुनेंगे या नकारात्मक, यह उनका अपना मामला है—यह उनकी आंतरिक जरूरतों पर निर्भर करता है। अगर किसी व्यक्ति का सार बुरा है, तो वह सकारात्मक चीजें नहीं चुनेगा। अगर कोई व्यक्ति अच्छा बनने की कोशिश करता है, और उसमें मानवता, अंतरात्मा की जागरूकता और शर्म की भावना है, तो वह सकारात्मक चीजों को चुनेगा; भले ही वह ऐसा करने में थोड़ा धीमा हो, धीरे-धीरे वह सही मार्ग पर आ ही जाएगा। यह अपरिहार्य है। इसलिए, माँ-बाप को अपने बच्चों के प्रति इसी तरह का रवैया रखना चाहिए और अपने बच्चों के चुनावों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ माँ-बाप की अपने बच्चों से इस प्रकार की अपेक्षाएँ होती हैं : “हमारे बच्चों को सही रास्ते पर चलना चाहिए, उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, धर्मनिरपेक्ष संसार को त्याग देना चाहिए और अपनी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। नहीं तो, जब हम राज्य में प्रवेश करेंगे, तो वे प्रवेश नहीं कर सकेंगे और हम उनसे अलग हो जाएँगे। कितना अद्भुत होगा अगर हमारा पूरा परिवार एक साथ राज्य में प्रवेश कर सके! हम स्वर्ग में भी एक साथ हो सकते हैं, जैसे हम यहाँ पृथ्वी पर हैं। राज्य में, हमें एक-दूसरे को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, हमें युगों-युगों तक साथ रहना चाहिए!” फिर, पता चलता है कि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बल्कि सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हैं, बहुत सारा पैसा कमाना और बहुत अमीर बनना चाहते हैं; वे वही पहनते हैं जो फैशन में है, वे वही करते हैं और उसी बारे में बात करते हैं जो प्रचलन में है, और अपने माँ-बाप की इच्छाओं को पूरा नहीं करते। नतीजतन, ये माँ-बाप परेशान हो जाते हैं, प्रार्थना करते और व्रत रखते हैं, हफ्ते भर का, दस दिन या पंद्रह दिनों का व्रत करते हैं, और इस मामले में अपने बच्चों की खातिर काफी प्रयास करते हैं। अक्सर भूखे रहने से उनका सिर घूमता है, और वे अक्सर रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। मगर, वे चाहे कैसे भी प्रार्थना करें या कितना भी प्रयास करें, उनके बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी आँखें नहीं खुलती हैं। जितना ज्यादा उनके बच्चे विश्वास करने से इनकार करते हैं, उतना ही ज्यादा ये माँ-बाप सोचते हैं : “अरे नहीं, मैं अपने बच्चों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, मैंने उन्हें निराश किया है। मैं उन तक सुसमाचार फैलाने में सक्षम नहीं रहा, और मैं उन्हें अपने साथ उद्धार के मार्ग पर भी नहीं ला पाया। बेवकूफ कहीं के—यह आशीषों का मार्ग है!” वे बेवकूफ नहीं हैं; उन्हें बस इसकी जरूरत नहीं है। ये माँ-बाप ही बेवकूफ हैं जो अपने बच्चों को इस रास्ते पर धकेलने की कोशिश कर रहे हैं, है न? अगर उनके बच्चों को यह जरूरत होती, तो क्या इन माँ-बाप को इन चीजों के बारे में बात करने की जरूरत पड़ती? उनके बच्चे खुद-ब-खुद विश्वास करने लगते। ये माँ-बाप हमेशा सोचते हैं : “मैंने अपने बच्चों को निराश किया है। मैंने उन्हें छोटी उम्र से ही कॉलेज जाने के लिए प्रोत्साहित किया और जब से वे कॉलेज गए, तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे सांसारिक चीजों के पीछे भागना बंद ही नहीं करते, और जब भी वापस आते हैं, तो सिर्फ काम करने, पैसा कमाने, किसको तरक्की मिली और किसने नई गाड़ी खरीदी, किसने किसी अमीर व्यक्ति से शादी की, कौन आगे की पढ़ाई करने या एक्सचेंज स्टूडेंट बनकर यूरोप गया, यही बातें करते हैं और बताते हैं कि दूसरों का जीवन कितना अच्छा चल रहा है। जब भी वे घर आते हैं, तो उन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, और मैं उन्हें सुनना नहीं चाहता, मगर मेरे पास कोई और चारा भी नहीं है। मैं उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने के लिए चाहे कुछ भी कहूँ, वे फिर भी नहीं सुनेंगे।” नतीजतन, उनके और उनके बच्चों के बीच दरार पड़ जाती है। जब भी वे अपने बच्चों को देखते हैं, तो उनका चेहरा काला पड़ जाता है; जब भी वे अपने बच्चों से बात करते हैं तो उनके हाव-भाव उदास हो जाते हैं। कुछ बच्चे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए, और सोचते हैं : “मुझे नहीं पता मेरे माँ-बाप को क्या दिक्कत है। अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो नहीं करता। वे हमेशा मेरे साथ ऐसा रवैया क्यों रखते हैं? मैंने सोचा था कि कोई व्यक्ति परमेश्वर में जितना ज्यादा विश्वास करेगा, वह उतना ही बेहतर इंसान बनेगा। परमेश्वर के विश्वासियों को अपने परिवारों के प्रति इतना कम स्नेह कैसे हो सकता है?” ये माँ-बाप अपने बच्चों को लेकर इतना अधिक परेशान रहते हैं कि उनकी नसें फटने लगती हैं, और वे कहते हैं : “वे मेरे बच्चे नहीं हैं! मैं उनके साथ संबंध तोड़ रहा हूँ, मैं उन्हें अस्वीकार कर रहा हूँ!” वे ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में ऐसा महसूस नहीं करते। क्या ऐसे माँ-बाप बेवकूफ नहीं होते? (बिल्कुल।) वे हमेशा हर चीज पर काबू पाना और कब्जा करना चाहते हैं, हमेशा अपने बच्चों के भविष्य, उनकी आस्था और उन रास्तों को काबू में करना चाहते हैं जिन पर वे चलते हैं। कितनी बड़ी बेवकूफी है! यह सही नहीं है। खास तौर से, कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो सांसारिक चीजों के पीछे भागते हैं, उन्हें तरक्की देकर प्रबंधकीय पदों पर बिठाया जाता है और वे बहुत सारा पैसा कमाते हैं। वे उपहार के तौर पर अपने माँ-बाप के लिए ढेर सारा जिनसेंग, सोने की बालियाँ और सोने के हार घर लाते हैं, और उनके माँ-बाप कहते हैं : “मुझे ये चीजें नहीं चाहिए, मैं बस आशा करता हूँ कि तुम लोग स्वस्थ रहो, और मेरे साथ परमेश्वर में विश्वास करो। परमेश्वर में विश्वास करना कितनी शानदार चीज है!” और उनके बच्चे कहते हैं : “अब फिर से शुरू मत होना। मुझे तरक्की मिली है, और आपने मुझे बधाई देने के लिए कुछ भी नहीं किया। जब दूसरों के माँ-बाप को पता लगता है कि उनके बच्चों को तरक्की मिली है, तो वे शैंपेन की बोतलें खोलते हैं, डिनर पर बाहर जाते हैं, मगर मैं जब आपके लिए हार और कान की बालियाँ खरीदता हूँ, तो आप खुश नहीं होते। कैसे निराश किया है मैंने आपको? आप लोग सिर्फ इसलिए नाराज हो क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता।” क्या इन माँ-बाप का इस तरह नाराज होना सही है? लोगों के अलग-अलग लक्ष्य होते हैं, वे अलग-अलग रास्तों पर चलते हैं और वे इन रास्तों को खुद चुनते हैं। माँ-बाप को इस मामले पर सही ढंग से विचार करना चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हें यह माँग नहीं करनी चाहिए कि वे परमेश्वर में विश्वास करें—जबरदस्ती करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करना चाहते, और वे उस तरह के व्यक्ति नहीं हैं, तो जितना ज्यादा तुम इसका जिक्र करोगे, उतना ही वे तुम्हें परेशान करेंगे, और तुम भी उन्हें परेशान करोगे—तुम दोनों को झुंझलाहट महसूस होगी। मगर तुम दोनों का नाराज होना महत्वपूर्ण नहीं है—सबसे महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा, और वह कहेगा कि तुम्हारा स्नेह ज्यादा ही मजबूत है। क्योंकि तुम इतनी बड़ी कीमत सिर्फ इसलिए चुकाने में सक्षम हो क्योंकि तुम्हारे बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और तुम उनके सांसारिक चीजों के पीछे भागने से इतने परेशान हो, अगर परमेश्वर ने किसी दिन उन्हें तुमसे छीन लिया, तब तुम क्या करोगे? क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे? अगर, तुम्हारे दिल में, तुम्हारे बच्चे ही तुम्हारा सब कुछ हैं, अगर वे तुम्हारा भविष्य, तुम्हारी आशा और तुम्हारा जीवन हैं, तो क्या तुम अभी भी ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के व्यवहार से घृणा नहीं करेगा? तुम जिस तरह से व्यवहार कर रहे हो वह बहुत अज्ञानतापूर्ण है, सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और परमेश्वर इससे संतुष्ट नहीं होगा। इसलिए, अगर तुम समझदार हो, तो ऐसी चीजें नहीं करोगे। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते हैं, तो तुम्हें इसे जाने देना चाहिए। तुमने वे सभी तर्क दे दिए हैं जो तुम्हें देने चाहिए, और वह सब कह दिया है जो तुम्हें कहना चाहिए था, इसलिए उन्हें अपना फैसला खुद करने दो। अपने बच्चों के साथ तुम्हारा जो रिश्ता पहले था, उसे बरकरार रखो। अगर वे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना चाहते हैं, अगर वे तुम्हें सँजोना और तुम्हारी देखभाल करना चाहते हैं, तो तुम्हें इसे ठुकराने की जरूरत नहीं है। अगर वे तुम्हें यूरोप की यात्रा पर लेकर जाना चाहते हैं, मगर इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बाधा आती है और तुम जाना नहीं चाहते, तो मत जाओ। लेकिन अगर तुम जाना चाहते हो और तुम्हारे पास समय है, तो जरूर जाओ। अपने अनुभव का दायरा बढ़ाने में कुछ भी गलत नहीं है। इससे तुम्हारे हाथ गंदे नहीं होंगे, और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे लिए कुछ अच्छी चीजें, कुछ अच्छा भोजन या कपड़े खरीदते हैं, और तुम सोचते हो कि एक संत के लिए उन्हें पहनना या उपयोग करना सही है, तो उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह मानकर उनका आनंद लो। अगर तुम उन चीजों से घृणा करते हो, अगर तुम उनका आनंद नहीं लेते, अगर तुम यह मानते हो कि वे मुसीबत पैदा करने वाली और घृणित चीजें हैं, और अगर तुम उनका आनंद नहीं लेना चाहते, तो उन्हें यह कहते हुए ठुकरा सकते हो : “मैं बस तुम लोगों को देखकर ही खुश हूँ, तुम्हें मेरे लिए उपहार लाने या मुझ पर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं है, मुझे उन चीजों का कोई शौक नहीं मैं बस यही चाहता हूँ कि तुम लोग सुरक्षित और खुश रहो।” क्या यह अद्भुत नहीं है? अगर तुम ये चीजें कहते हो, और अपने दिल में इन बातों पर विश्वास करते हो, अगर तुम्हें वाकई कोई जरूरत नहीं कि तुम्हारे बच्चे तुम्हें कोई भौतिक सुख-सुविधा दें, या तुम्हें उनकी रोशनी में चमकने के लिए उनकी मदद की आकांक्षा नहीं, तो तुम्हारे बच्चे तुम्हारी बहुत बड़ाई ही करेंगे, है न? जहाँ तक उनके कामकाज या जीवन में आने वाली किसी भी परेशानी का सवाल है, तो जब भी संभव हो उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करना। अगर उनकी मदद करने से तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ेगा, तो तुम इनकार कर सकते हो—यह तुम्हारा अधिकार है। क्योंकि अब तुम पर उनका कुछ भी कर्ज नहीं है, क्योंकि अब तुम्हारी उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है, और अब वे स्वतंत्र बालिग बन गए हैं, वे अपना जीवन खुद सँभाल सकते हैं। तुम्हें बिना शर्त या हर समय उनकी सेवा करने की जरूरत नहीं है। अगर वे तुमसे मदद माँगते हैं, और तुम उनकी मदद नहीं करना चाहते, या अगर ऐसा करने से तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बाधा आएगी, तो तुम इनकार कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। भले ही तुम्हारा उनसे खून का रिश्ता है, और तुम उनके माँ-बाप हो, यह सिर्फ औपचारिकता, खून और स्नेह का रिश्ता है—तुम्हारी जिम्मेदारियों के संदर्भ में, तुम पहले ही उनके साथ अपने संबंध से मुक्त हो चुके हो। तो, अगर माँ-बाप बुद्धिमान हैं, तो बच्चों के बालिग हो जाने के बाद उनकी उनसे कोई अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ या मानक नहीं होंगे, और उन्हें यह अपेक्षा नहीं होगी कि उनके बच्चे एक निश्चित तरीके से कार्य करें या वे एक माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य या स्थिति से कुछ चीजें करें, क्योंकि अब उनके बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं। अगर तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो इसका मतलब है कि तुमने उनके प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं। फिर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिस्थितियाँ सही होने पर तुम अपने बच्चों के लिए क्या करते हो, चाहे तुम उनकी चिंता या परवाह करते हो, यह स्नेह मात्र है, और यह अनावश्यक है। या अगर तुम्हारे बच्चे तुमसे कुछ करने के लिए कहते हैं, तो यह भी अनावश्यक है, तुम यह सब करने के लिए बाध्य नहीं हो। तुम्हें यह समझना चाहिए। क्या ये बातें स्पष्ट हैं? (बिल्कुल।)

मान लो कि तुममें से कोई कहता है : “मैं अपने बच्चों को कभी छोड़ नहीं सकता। वे जन्म से ही कमजोर, और स्वाभाविक रूप से कायर और डरपोक हैं। उनकी काबिलियत भी इतनी अच्छी नहीं है और समाज में दूसरे लोग हर वक्त उन पर धौंस जमाते रहते हैं। मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता।” तुम्हारा अपने बच्चों को छोड़ने में सक्षम नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि तुमने उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का काम पूरा नहीं किया है, यह सिर्फ तुम्हारे स्नेह का प्रभाव है। तुम कह सकते हो : “मैं हमेशा परेशान और सोचता रहता हूँ कि क्या मेरे बच्चे अच्छे से खाना खा रहे हैं, या क्या उन्हें पेट की कोई समस्या तो नहीं है। अगर वे समय पर खाना न खाएँ और लंबे समय तक बाहर का खाना मँगाते रहें, तो क्या उन्हें पेट की समस्याएँ हो जाएँगी? क्या उन्हें किसी प्रकार की बीमारी हो जाएगी? और अगर वे बीमार पड़े, तो क्या उनकी देखभाल करने वाला, उनके प्रति प्यार दिखाने वाला कोई होगा? क्या उनके जीवनसाथी उनकी चिंता और देखभाल करते हैं?” तुम्हारी चिंताएँ सिर्फ तुम्हारे स्नेह और अपने बच्चों के साथ तुम्हारे खून के रिश्ते से उत्पन्न होती हैं, मगर ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। परमेश्वर ने माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं, वे बच्चों के बालिग होने से पहले उनके पालन-पोषण और देखभाल करने की जिम्मेदारियाँ ही हैं। अपने बच्चों के बालिग हो जाने के बाद, माँ-बाप की उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। यह उन जिम्मेदारियों के मद्देनजर है जो माँ-बाप को परमेश्वर के विधान के परिप्रेक्ष्य से पूरे करने चाहिए। बात समझ आई? (हाँ।) तुम्हारी भावनाएँ चाहे कितनी भी मजबूत हों, या जब माँ-बाप के रूप में तुम्हारे सहज-बोध की बात आती है, तो यह तुम्हारा अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना नहीं, बल्कि सिर्फ तुम्हारी भावनाओं का प्रभाव है। तुम्हारी भावनाओं के प्रभाव मानवता के विवेक से, या उन सिद्धांतों से उत्पन्न नहीं होते हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य को सिखाए हैं, या मनुष्य द्वारा सत्य के प्रति समर्पण करने से उत्पन्न नहीं होते, और वे निश्चित रूप से मनुष्य की जिम्मेदारियों से तो उत्पन्न नहीं होते, बल्कि, वे मनुष्य की भावनाओं से उत्पन्न होते हैं—वे भावनाएँ कहलाती हैं। इसमें बस थोड़ा सा माँ-बाप का प्यार और अपनेपन का मिश्रण होता है। क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं, तुम लगातार उनकी चिंता करते हो, सोचते हो कि कहीं वे कष्ट तो नहीं सह रहे, और कहीं वे धमकाए तो नहीं जा रहे। तुम सोचते हो कि क्या उनका कामकाज सही चल रहा है, और क्या वे समय पर खाना खा रहे हैं। तुम सोचते हो कि कहीं उन्हें कोई बीमारी तो नहीं हो गई, और क्या बीमार पड़ने पर वे अपने इलाज का खर्चा उठा पाएँगे। तुम अक्सर इन चीजों के बारे में सोचते हो, और इनका माँ-बाप के रूप में तुम्हारी जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम इन चिंताओं को त्याग नहीं सकते, तो यही कहा जा सकता है कि तुम अपनी भावनाओं के बीच जी रहे हो, और खुद को उनसे मुक्त करने में असमर्थ हो। तुम परमेश्वर द्वारा दी गई माँ-बाप की जिम्मेदारियों की परिभाषा के अनुसार जीने के बजाय, बस अपनी भावनाओं में जीते हो, अपनी भावनाओं के अनुसार अपने बच्चों से पेश आते हो। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी रहे हो, बल्कि सिर्फ अपनी भावनाओं के अनुसार इन सभी चीजों को महसूस करते, देखते और सँभालते हो। इसका मतलब यह है कि तुम परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। यह स्पष्ट है। माँ-बाप के रूप में तुम्हारी जिम्मेदारियाँ—जैसा कि परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है—उसी पल समाप्त हो गईं जब तुम्हारे बच्चे बालिग हो गए। क्या अभ्यास का वह तरीका जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है, आसान और सरल नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो निरर्थक चीजों में समय बर्बाद नहीं करोगे, अपने बच्चों को एक हद तक आजादी दोगे, उन्हें विकसित होने का मौका दोगे, और उनके लिए कोई अतिरिक्त कठिनाई या बाधा नहीं बनोगे, या उन पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालोगे। और, क्योंकि वे बालिग हैं, तो ऐसा करने से वे एक बालिग व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य के साथ, चीजों को सँभालने और देखने के लिए एक बालिग व्यक्ति के स्वतंत्र तौर-तरीकों के साथ, और संसार के प्रति एक वयस्क व्यक्ति के स्वतंत्र दृष्टिकोण के साथ, इस संसार का, अपने जीवन का, और अपने दैनिक जीवन और अस्तित्व में आने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना कर सकेंगे। ये तुम्हारे बच्चों की स्वतंत्रता और अधिकार हैं, और इससे भी बढ़कर, ये वे चीजें हैं जो उन्हें बालिगों के रूप में करनी चाहिए, और इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम हमेशा इन चीजों में शामिल रहना चाहते हो, तो यह काफी घृणात्मक है। अगर तुम हमेशा जानबूझकर खुद को इन चीजों में शामिल करना और उनमें अपनी टाँग अड़ाना चाहते हो, तो तुम बाधा और विनाश का कारण बनोगे, और आखिर में, न सिर्फ चीजें तुम्हारी इच्छाओं के विपरीत होंगी, बल्कि इससे भी बढ़कर, तुम्हारे कारण तुम्हारे बच्चे भी तुमसे विमुख हो जाएँगे, और तुम्हारा जीवन भी बहुत थकाऊ हो जाएगा। आखिर में, तुम्हारी शिकायतें खत्म नहीं होंगी, और तुम शिकायत करोगे कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित नहीं हैं, आज्ञाकारी नहीं है, और तुम्हारे प्रति विचारशील नहीं हैं; तुम शिकायत करोगे कि वे एहसान फरामोश, कृतघ्न और बेपरवाह हैं। कुछ बेरुखे और तर्कहीन माँ-बाप ऐसे भी होते हैं जो रोएँगे, हंगामा करेंगे और आत्महत्या करने की धमकी देंगे, और हर तरह की चालें चलेंगे। यह तो और भी ज्यादा घिनौना है, है न? (बिल्कुल।) अगर तुम बुद्धिमान हो, तो चीजों को स्वाभाविक तरीके से चलने दोगे, अपना जीवन आराम से जियोगे और सिर्फ माँ-बाप होने की अपनी जिम्मेदारियाँ निभाओगे। अगर तुम कहते हो कि तुम अपने बच्चों की देखभाल करना चाहते हो और उनके प्रति स्नेह की खातिर उनकी थोड़ी चिंता करना चाहते हो, तो उनके प्रति जरूरी चिंता दिखाना उचित है। मैं यह नहीं कह रहा कि जैसे ही बच्चे बालिग हो जाएँ और माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लें, तो माँ-बाप को अपने बच्चों से नाता तोड़ लेना चाहिए। माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों की पूरी तरह से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, उन्हें अकेले जीने के लिए नहीं कहना चाहिए, या चाहे वे कितनी भी बड़ी कठिनाइयों का सामना करें उन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिए—भले ही वे कठिनाइयाँ उनके बच्चों को मौत के कगार पर ले जाएँ—या जब उनके बच्चों को माँ-बाप के सहारे की जरूरत पड़े तो उनकी ओर हाथ बढ़ाने से इनकार नहीं करना चाहिए। यह भी गलत है—यह अति है। जब तुम्हारे बच्चे तुम पर भरोसा करके तुम्हें कुछ बताना चाहें, तो तुम्हें उनकी बात सुननी चाहिए, और सुनने के बाद, तुम्हें उनसे पूछना चाहिए कि वे क्या सोच रहे हैं और क्या करने का इरादा रखते हैं। तुम भी अपने सुझाव दे सकते हो। अगर उनके अपने विचार और योजनाएँ हैं, और वे तुम्हारे सुझावों को स्वीकार नहीं करते, तो बस इतना कहो : “ठीक है। अब जब तुमने पहले ही अपना मन बना लिया है, तो भविष्य में इसके जो भी परिणाम होंगे, उन्हें अकेले तुम्हें ही झेलना होगा। यह तुम्हारा जीवन है। तुम्हें खुद चल कर अपना जीवन पथ पूरा करना होगा। कोई और तुम्हारे जीवन की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। अगर तुमने अपना मन बना लिया है, तो मैं तुम्हारा समर्थन करूँगा। अगर तुम्हें पैसों की जरूरत होगी, तो मैं तुम्हें कुछ पैसे दे सकता हूँ। अगर तुम्हें मेरी मदद चाहिए, तो मैं अपनी क्षमताओं के दायरे में रहकर तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। आखिर तुम मेरे बच्चे हो, तो और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि तुम्हें मेरी मदद या मेरे पैसों की जरूरत नहीं है, और बस इतना चाहते हो कि मैं तुम्हारी बात सुनूँ, तो यह और भी आसान है।” तब तुम अपनी बात कह चुके होगे, और वे भी अपनी बात कह चुके होंगे; उनकी सारी शिकायतें मन से निकल चुकी होंगी, उनका सारा गुस्सा बाहर आ चुका होगा। वे अपने आँसू पोंछेंगे, जाकर वही करेंगे जो उन्हें करना चाहिए, और तुम माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लोगे। यह सब स्नेह की खातिर किया जाता है; इसे स्नेह कहते हैं। और ऐसा क्यों है? क्योंकि, माँ-बाप होने के नाते, अपने बच्चों के प्रति तुम्हारे कोई दुर्भावनापूर्ण इरादे नहीं हैं। तुम उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाओगे, उनके खिलाफ साजिश नहीं रचोगे, या उनका मजाक नहीं उड़ाओगे, और न ही उनके कमजोर और अक्षम होने के लिए तुम उनकी खिल्ली उड़ाओगे। तुम्हारे बच्चे बिना किसी रोक-टोक के तुम्हारे सामने रो सकते हैं, गुस्सा निकाल सकते हैं और शिकायत कर सकते हैं, मानो कि वे छोटे बच्चे हों; वे बिगड़ैल, रुष्ट या मनमाने हो सकते हैं। लेकिन, जब वे भावनाओं की भड़ास निकाल चुके होते हैं और वे रुष्ट होना और मनमानी करना बंद कर देते हैं, तब उन्हें वह करना ही होगा जो उन्हें करना चाहिए, और जो कुछ भी उनके सामने है उसे सँभालना होगा। अगर वे तुम्हारे कुछ भी किए बिना या तुम्हारी मदद के बिना ही ऐसा कर सकते हैं, तो यह काफी अच्छा है, और तब तुम्हारे पास थोड़ा और खाली समय होगा, है न? और क्योंकि तुम्हारे बच्चों ने ये बातें कह दी हैं, तो तुममें थोड़ी आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए हैं, वे स्वतंत्र हैं। वे बस उस मसले के बारे में तुमसे बात करना चाहते थे, उन्होंने तुमसे कोई मदद नहीं माँगी थी। अगर तुममें समझ नहीं है, तो तुम सोच सकते हो : “यह एक महत्वपूर्ण मसला है। तुम्हारा मुझे इसके बारे में बताना यह दर्शाता है कि तुम मेरा सम्मान करते हो, तो क्या मुझे तुम्हें इसके बारे में कुछ सलाह नहीं देनी चाहिए? क्या मुझे फैसला लेने में तुम्हारी मदद नहीं करनी चाहिए?” इसे कहते हैं अपनी क्षमताओं को जरूरत से ज्यादा आँकना। तुम्हारे बच्चे बस उस मसले के बारे में तुमसे बात कर रहे थे, पर तुम तो खुद को ही एक महत्वपूर्ण व्यक्ति मानकर बैठ गए। यह उचित नहीं है। तुम्हारे बच्चों ने तुम्हें उस मसले के बारे में बताया क्योंकि तुम उनके माँ-बाप हो, और वे तुम्हारा सम्मान और तुम पर भरोसा करते हैं। वास्तव में, कुछ समय से इसके बारे में उनके अपने विचार रहे हैं, पर अब तुम इसमें अपनी टाँग अड़ाना चाहते हो। यह उचित नहीं है। तुम्हारे बच्चे तुम पर भरोसा करते हैं, और तुम्हें उस भरोसे के लायक होना चाहिए। तुम्हें उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए और उनके मसले में शामिल नहीं होना चाहिए या उसमें अपनी टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। अगर वे चाहते हैं कि तुम इसमें शामिल हो, तो तुम ऐसा कर सकते हो। और मान लो कि शामिल होने के बाद तुम्हें एहसास होता है : “अरे, यह तो बड़ी मुसीबत का काम है! इसका असर मेरे कर्तव्य निर्वहन पर पड़ेगा। मैं वाकई इसमें शामिल नहीं हो सकता; परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते, मैं ये चीजें नहीं कर सकता।” फिर तुम्हें जल्दी ही इस मसले से अलग हो जाना चाहिए। मान लो कि वे अभी भी चाहते हैं कि तुम इस मामले में हाथ डालो, और तुम सोचते हो : “मैं हाथ नहीं डालूँगा। तुम्हें इससे खुद निपटना चाहिए। यह मेरा बड़प्पन था जो मैंने तुम्हारी यह शिकायत और पूरी बकवास सुनी। मैंने माँ-बाप वाली अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर ली हैं। मैं इस मामले में बिल्कुल भी हाथ नहीं डाल सकता। वह अग्निकुंड है, और मैं उसमें कूदने वाला नहीं हूँ। अगर तुम चाहो, तो जाकर खुद उसमें कूद सकते हो।” क्या यह उचित नहीं है? इसे एक रुख अपनाना कहते हैं। तुम्हें सिद्धांतों या अपने रुख को कभी नहीं त्यागना चाहिए। ये वे चीजें हैं जो माँ-बाप को करनी चाहिए। समझ आया तुम्हें? क्या इन चीजों को पूरा करना आसान है? (हाँ।) वास्तव में, उन्हें पूरा करना आसान है, लेकिन अगर तुम हमेशा अपनी भावनाओं के अनुसार कार्य करते हो, और हमेशा अपनी भावनाओं में उलझे रहते हो, तो तुम्हारे लिए उन चीजों को पूरा करना बहुत मुश्किल होगा। तुम्हें लगेगा कि ऐसा करना बहुत हृदय विदारक है, तुम इस मसले को नजरंदाज नहीं कर सकते, और न ही यह बोझ उठा सकते हो, न आगे जा सकते हो न पीछे। इसे और क्या कह सकते हैं? “फँस जाना।” तुम वहीं फँस जाओगे। तुम परमेश्वर के वचन सुनना और सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, पर अपनी भावनाओं को नहीं त्याग सकते; तुम अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हो, पर सोचते हो कि ऐसा करना सही नहीं है, यह परमेश्वर की शिक्षाओं और उसके वचनों के विरुद्ध है—तो तुम मुसीबत में हो। तुम्हें फैसला करना होगा। तुम या तो अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को त्याग सकते हो और अब अपने बच्चों को सँभालने की कोशिश करना बंद कर सकते हो, उन्हें आजाद पंछी की तरह उड़ने दे सकते हो, क्योंकि वे अब स्वतंत्र बालिग इंसान हैं, या फिर तुम उनके पीछे चल सकते हो। तुम्हें दोनों में से एक विकल्प चुनना होगा। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग पर चलकर उसके वचन सुनना चुनते हो, और अपने बच्चों के प्रति अपनी चिंताओं और भावनाओं को त्याग देते हो, तो तुम्हें वही करना चाहिए जो एक माँ-बाप को करना चाहिए; तुम्हें अपने रुख और अपने सिद्धांतों के प्रति दृढ़ रहना चाहिए, और उन चीजों को करने से बचना चाहिए जो परमेश्वर को घृणित और घिनौने लगते हैं। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? (बिल्कुल।) वास्तव में, ये चीजें करना आसान है। जैसे ही तुम अपने भीतर मौजूद स्नेह के अंश को त्याग दोगे, तुम इन चीजों को हासिल कर सकते हो। सबसे सरल तरीका यह है कि तुम अपने बच्चों के जीवन में शामिल मत हो और उन्हें जो मन करता है वो सब करने दो। अगर वे तुमसे अपनी कठिनाइयों के बारे में बात करना चाहते हैं, तो उनकी बात सुनो। तुम्हारे लिए बस यह जानना पर्याप्त है कि चीजें कैसी चल रही हैं। उनकी बात खत्म होने के बाद, उनसे कहो : “मैं सुन रहा हूँ। क्या तुम मुझसे कुछ और भी कहना चाहते हो? अगर तुम कुछ खाना चाहते हो, तो मैं तुम्हें बनाकर खिला दूँगा। अगर तुम ऐसा नहीं चाहते, तो घर जा सकते हो। अगर तुम्हें पैसे चाहिए, तो मैं तुम्हें कुछ दे सकता हूँ। अगर तुम्हें मदद चाहिए, तो मुझसे जो बन पड़ेगा मैं वो करूँगा। अगर मैं तुम्हारी मदद न कर पाऊँ, तो तुम्हें खुद ही समाधान ढूँढना होगा।” अगर वे इस बात पर अड़े रहें कि तुम उनकी मदद करो, तो तुम कह सकते हो : “हमने तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर दी हैं। हमारे पास बस यही क्षमताएँ हैं, तुम देख सकते हो कि हम तुम्हारे जितने कुशल नहीं हैं। अगर तुम संसार में सफलता पाना चाहते हो, तो यह तुम्हारा अपना मामला है, हमें इसमें शामिल करने की कोशिश मत करो। हम पहले ही काफी बूढ़े हो चुके हैं, और वह समय हमारे लिए बीत चुका है। माँ-बाप होने के नाते हमारी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हें बड़ा करके बालिग बनाना था। जहाँ तक यह बात है कि तुम कौन-सा मार्ग अपनाते हो और जो भी खिलवाड़ करना चाहते हो, हमें उसमें शामिल मत करो—हम तुम्हारे साथ नहीं चलेंगे। हम तुम्हारे संबंध में अपना मकसद पहले ही पूरा कर चुके हैं। हमारे अपने मसले हैं, अपने जीने के तरीके हैं और अपने मकसद हैं। हमारा मकसद तुम्हारे लिए चीजें करना नहीं है, और अपने मकसद पूरे करने के लिए हमें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। हम अपने मकसद खुद ही पूरे करेंगे। हमसे अपने दैनिक जीवन या अपने अस्तित्व में शामिल होने के लिए मत कहो। उनका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।” अपनी बात स्पष्ट रूप से सामने रखो, और मसला वहीं खत्म हो जाएगा; फिर तुम जरूरत के मुताबिक उनसे संपर्क कर सकते हो, बात कर सकते हो और मिल-जुल सकते हो। यह इतना सरल है! इस तरह से पेश आने के क्या फायदे हैं? (यह जीवन को बहुत सरल बना देता है।) कम से कम, तुमने देह से जुड़े, पारिवारिक प्रेम के मसले को उचित और सही तरीके से सँभाल लिया होगा। तुम्हारा मानसिक और आध्यात्मिक संसार सहज हो जाएगा, तुम कोई निरर्थक त्याग नहीं करोगे, या कोई अतिरिक्त कीमत नहीं चुकाओगे; तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के बीच समर्पण करोगे, और उसे ये सभी चीजें सँभालने दोगे। तुम उन सभी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे होगे जो लोगों को पूरा करना चाहिए, और तुम ऐसा कोई भी काम नहीं करोगे जो लोगों को नहीं करना चाहिए। तुम उन चीजों में शामिल होने के लिए हाथ नहीं बढ़ाओगे जो लोगों को नहीं करनी चाहिए, और तुम उसी तरह जियोगे जैसे परमेश्वर तुमसे जीने को कहता है। जिस तरह परमेश्वर लोगों को जीने के लिए कहता है वह सबसे अच्छा मार्ग है, यह उन्हें बहुत आरामदायक, खुशहाल, आनंदमय और शांतिपूर्ण जीवन जीने में सक्षम बना सकता है। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह जीने से न सिर्फ तुम्हारे पास अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करने और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण दिखाने के लिए ज्यादा खाली समय और ऊर्जा बचेगी, बल्कि तुम्हारे पास सत्य खोजने के लिए भी अधिक ऊर्जा और समय होगा। इसके विपरीत, अगर तुम्हारी ऊर्जा और समय तुम्हारी भावनाओं, तुम्हारे शरीर, तुम्हारे बच्चों और तुम्हारे परिवार के प्रति तुम्हारे प्यार में लगा रहता है, तो तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं होगी। क्या यह सच नहीं है? (सच है।)

जब लोग संसार में करियर बनाते हैं, तो सिर्फ सांसारिक प्रवृत्तियों, प्रतिष्ठा और लाभ, और शारीरिक आनंद जैसी चीजों के बारे में सोचते हैं। इसका निहितार्थ क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारी ऊर्जा, समय और युवावस्था, सभी इन चीजों में व्याप्त और इस्तेमाल हो जाती हैं। क्या वे सार्थक हैं? आखिर में तुम्हें उनसे क्या हासिल होगा? भले ही तुम्हें प्रतिष्ठा और लाभ मिल जाए, फिर भी यह खोखला ही रहेगा। अगर तुमने अपनी जीवनशैली बदल ली, तब क्या होगा? अगर तुम्हारा समय, ऊर्जा और दिमाग सिर्फ सत्य और सिद्धांतों पर केंद्रित रहता है, और अगर तुम सिर्फ सकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हो, जैसे कि अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाएँ और परमेश्वर के समक्ष कैसे आएँ, और अगर तुम इन सकारात्मक चीजों पर अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, फिर तुम्हें अलग परिणाम हासिल होगा। तुम्हें जो हासिल होगा वह सबसे मूलभूत लाभ होगा। तुम्हें पता चल जाएगा कि कैसे जीना है, कैसा आचरण करना है, हर तरह के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है। एक बार जब तुम जान जाओगे कि हर प्रकार के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है, तो यह काफी हद तक तुम्हें स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम बनाएगा। जब तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम हो जाओगे, तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उस प्रकार के व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर स्वीकार और प्यार करता है। इस बारे में सोचो, क्या यह अच्छी बात नहीं है? शायद तुम अभी तक यह नहीं जानते, मगर अपना जीवन जीने, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों को स्वीकारने की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना, लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना सीख जाओगे। इसका मतलब यह है कि तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करोगे, उसकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित होगे और उन्हें संतुष्ट करोगे। तब तुम उस तरह के व्यक्ति बन चुके होगे जिसे परमेश्वर स्वीकारता है, जिस पर वह भरोसा करता है और जिससे प्यार करता है, और तुम्हें इसकी भनक भी नहीं लगेगी। क्या यह बढ़िया नहीं है? (बिल्कुल है।) इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, तो अंत में तुम्हें जो हासिल होगा वे सबसे मूल्यवान चीजें होंगी। इसके विपरीत, अगर तुम हमेशा अपनी भावनाओं, शरीर, अपने बच्चों, अपने कामकाज, प्रतिष्ठा और लाभ के लिए जीते हो, अगर तुम हमेशा इन चीजों में उलझे रहते हो, तब अंत में तुम्हें क्या हासिल होगा? बस एक शून्य। तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, और तुम परमेश्वर से दूर बहुत दूर भटक जाओगे, और आखिर में परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से ठुकरा दिए जाओगे। तब, तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा, और तुम उद्धार पाने का मौका गँवा दोगे। इसलिए, माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों के संबंध में अपनी सभी भावनात्मक चिंताओं, लगावों और जुड़ावों को त्याग देना चाहिए, भले ही उनकी उनसे कुछ भी अपेक्षाएँ हों। उन्हें माँ-बाप के दर्जे या पद से भावनात्मक स्तर पर अपने बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो यह बहुत बढ़िया है! कम से कम, तुमने अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली होंगी, और तुम परमेश्वर की नजर में एक उपयुक्त व्यक्ति होगे—जो कि एक माँ या बाप भी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम इसे किस मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखते हो, लोगों को क्या करना चाहिए और उन्हें कौन-सा परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाना चाहिए, इसके लिए सिद्धांत हैं, और इन चीजों के संबंध में परमेश्वर के अपने मानक हैं, है न? (बिल्कुल।) आओ अब माँ-बाप की अपने बच्चों से जो अपेक्षाएँ होती हैं और बच्चों के बालिग होने पर उन्हें किन सिद्धांतों पर अमल करना चाहिए, इस विषय पर अपनी संगति यहीं खत्म करते हैं। अलविदा!

21 मई 2023

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