सत्य का अनुसरण कैसे करें (18) भाग तीन

माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे की गई अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जो कुछ भी करते हैं वह अंतरात्मा, विवेक, और प्राकृतिक नियमों के विपरीत होता है। इतना ही नहीं, यह परमेश्वर के विधान और संप्रभुता के भी विपरीत होता है। भले ही बच्चों में सही-गलत के बीच अंतर करने या स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता नहीं होती है, फिर भी उनका भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होता है, वे उनके माँ-बाप के अधीन नहीं होते। इसलिए, अपनी चेतना में अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखने के अलावा, मूर्ख माँ-बाप अपने व्यवहार के संदर्भ में ज्यादा काम भी करते हैं, त्याग करते हैं और ज्यादा कीमतें चुकाते हैं, वे अपने बच्चों के लिए वह सब कुछ करते हैं जो वे चाहते हैं और जो वे करने को तैयार हैं, भले ही यह पैसा, समय, ऊर्जा, या अन्य चीजें खर्च करना ही क्यों न हो। हालाँकि माँ-बाप ये सभी काम अपनी इच्छा से करते हैं, पर ये चीजें अमानवीय हैं, और ये ऐसी जिम्मेदारियाँ नहीं हैं जो माँ-बाप को पूरी करनी चाहिए; वे पहले ही अपनी क्षमताओं और अपनी उचित जिम्मेदारियों के दायरे को पार कर चुके हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले ही उनके भविष्य की योजना बनाने और उन्हें काबू करने की कोशिश शुरू कर देते हैं, और अपने बच्चों का भविष्य तय करने का भी प्रयास करते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? (बिल्कुल है।) उदाहरण के लिए, मान लो कि परमेश्वर ने तय किया है कि कोई आदमी एक साधारण श्रमिक होगा, और इस जीवन में, वह बस अपना पेट भरने और तन ढंकने के लिए थोड़ी-बहुत मजदूरी कमा पाएगा, पर उसके माँ-बाप उस पर एक बड़ी हस्ती, धनी व्यक्ति, और उच्च अधिकारी बनने का दबाव डालते हैं, उसके बालिग होने से पहले उसके भविष्य के लिए योजना बनाने और चीजें व्यवस्थित करने लगते हैं, कई तरह की तथाकथित कीमतें चुकाते हैं, उसके जीवन और भविष्य को काबू करने की कोशिश करते हैं। क्या यह बेवकूफी नहीं है? (बिल्कुल है।) भले ही उनके बच्चे को काफी बढ़िया ग्रेड मिलते हों, वह यूनिवर्सिटी जाता हो, बालिग होने के बाद कई प्रकार के विभिन्न कौशल सीखता हो, और उसके पास कुछ कौशल हों, जब वह आखिर में काम की तलाश में निकलता है, तो चाहे वह कितनी भी तलाश करे, बस एक मामूली श्रमिक बनकर रह जाता है। ज्यादा से ज्यादा, सौभाग्य से वह फोरमैन बन जाता है, जो अपने आप में अच्छा है। आखिर में, उसे बस सामान्य वेतन ही मिलता है, और वह कभी किसी उच्च अधिकारी या अमीर व्यक्ति जितना वेतन नहीं कमा पाता है, जैसा कि उसके माँ-बाप ने उम्मीद की थी। उसके माँ-बाप हमेशा चाहते थे कि वह संसार में आगे बढ़े, खूब सारा पैसा कमाए, उच्च अधिकारी बने, ताकि उसकी कामयाबी का उन्हें भी फायदा हो। भले ही उसने स्कूल में इतना अच्छा प्रदर्शन किया और इतना आज्ञाकारी था, भले ही उन्होंने उसके लिए इतनी कीमतें चुकाई, और भले ही वह बड़ा होने के बाद यूनिवर्सिटी भी गया, मगर उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि इस जीवन में उसके भाग्य में बस एक साधारण श्रमिक बनना लिखा होगा। अगर वे इसका अनुमान लगा पाते, तो उस समय खुद को इतना कष्ट नहीं देते। मगर क्या माँ-बाप खुद को कष्ट देने से बच सकते हैं? (नहीं।) माँ-बाप अपने घर, अपनी जमीन, अपनी पारिवारिक संपत्ति तक बेच देते हैं, और कुछ तो अपना गुर्दा भी बेच देते हैं ताकि उनके बच्चे जानी-मानी यूनिवर्सिटी में जा सकें। जब बच्चा इस बात से सहमत नहीं होता, तो माँ कहती है : “मेरे पास दो गुर्दे हैं। अगर एक चला भी गया, तो दूसरा मेरे पास ही रहेगा। मैं बूढ़ी हो गई हूँ, मुझे बस एक ही गुर्दे की जरूरत है।” यह सुनकर उसके बच्चे को कैसा महसूस होता है? “भले ही इसका मतलब यह हो कि मैं यूनिवर्सिटी नहीं जाऊँगा, मैं आपको अपना गुर्दा बेचने नहीं दे सकता।” तब माँ कहती है : “तुम नहीं जाओगे? तुम बात नहीं मानते और एक संतान का धर्म नहीं निभाते हो! मैं अपना गुर्दा क्यों बेच रही हूँ? क्या यह इसलिए नहीं है ताकि तुम भविष्य में सफल हो सको?” यह सुनकर बच्चा द्रवित हो जाता है और सोचता है, “माँ अपना गुर्दा तक बेच सकती है। मैं उसे निराश नहीं करूँगा।” अंत में, माँ वाकई ऐसा करती है—वह अपने बच्चे का भविष्य बनाने के लिए अपना एक गुर्दा बेच देती है—और अंत में, उसका बच्चा बस एक श्रमिक बनकर रह जाता है, सफल नहीं होता। तो, माँ ने एक गुर्दा बेच दिया, और बदले में उसे क्या मिला, बस एक श्रमिक—क्या यह सही है? (नहीं।) अंत में, माँ यह देखकर कहती है : “तुम्हारे भाग्य में बस श्रमिक बनना ही लिखा है। अगर मुझे यह पहले पता होता, तो मैं तुम्हें यूनिवर्सिटी भेजने के लिए अपना गुर्दा नहीं बेचती। तुम वैसे ही श्रमिक बन सकते थे, है न? तुम्हारे यूनिवर्सिटी जाने का क्या फायदा हुआ?” अब बहुत देर हो चुकी है! तब उससे किसने कहा था कि वह ऐसा बेवकूफी भरा कदम उठाए? किसने उसके दिमाग में यह बात डाली थी कि उसका बच्चा उच्च अधिकारी बनकर ढेर सारा पैसा कमाएगा? वह लालच में अंधी हो गई थी, वह इसी लायक थी! उसने अपने बच्चे के लिए इतनी सारी कीमतें चुकाईं, पर क्या उसके बच्चे पर उसका कोई ऋण है? नहीं, उसने ये कीमतें अपनी मर्जी से चुकाईं, और उसे वही मिला जिसकी वह हकदार थी! अगर वह अपने दोनों गुर्दे बेच देती, तो भी यह उसकी अपनी मर्जी होती। अपने बच्चों को जानी-मानी यूनिवर्सिटी में भेजने के लिए, कुछ लोग अपना कॉर्निया बेचते हैं, कुछ लोग अपना खून बेचते हैं, कुछ लोग अपना सब कुछ त्याग देते हैं और अपनी पारिवारिक संपत्ति तक बेच देते हैं, पर क्या यह सब इस लायक है? यह ऐसा है मानो जैसे वे सोचते हैं कि थोड़ा-सा खून या कोई अंग बेचने से किसी व्यक्ति का भविष्य तय हो सकता है और उसकी किस्मत बदल सकती है। ऐसा है क्या? (नहीं।) लोग बहुत मूर्ख हैं! वे जल्दी लाभ कमाना चाहते हैं, वे प्रतिष्ठा और लाभ की चाह में अंधे हो गए हैं। वे हमेशा सोचते हैं, “खैर, मेरी जिंदगी ऐसी ही है,” तो वे अपनी उम्मीदें अपने बच्चों पर थोप देते हैं। क्या इसका मतलब है कि उनके बच्चों का भाग्य निश्चित रूप से उनसे बेहतर होगा? उनके बच्चे संसार में आगे बढ़ सकेंगे? दूसरों से अलग होंगे? लोग इतने बेवकूफ कैसे हो सकते हैं? क्या उन्हें ऐसा लगता है कि अपने बच्चों से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगा लेने से, उनके बच्चे बेशक दूसरों से बेहतर होंगे और उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे? लोगों का भाग्य उनके माँ-बाप तय नहीं करते, यह परमेश्वर तय करता है। बेशक, कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों को भिखारी बनते नहीं देखना चाहता। मगर फिर भी, उन्हें इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि उनके बच्चे संसार में आगे बढ़कर उच्च अधिकारी या समाज के उच्च वर्ग में प्रमुख व्यक्ति बनें। समाज के उच्च वर्ग में होने में क्या अच्छा है? संसार में ऊपर उठने में क्या अच्छा है? ये चीजें दलदल हैं, ये अच्छी चीजें नहीं हैं। क्या कोई सेलिब्रिटी, कोई महान हस्ती, महामानव, या ऊँचे पद और रुतबे वाला व्यक्ति बनना अच्छी बात है? एक सामान्य व्यक्ति का जीवन सबसे आरामदायक होता है। थोड़ा गरीब, कठिन, थका देने वाला जीवन, थोड़े खराब भोजन और कपड़ों के साथ जीने में क्या हर्ज है? कम से कम, एक बात तो तय है, क्योंकि तुम समाज के उच्च वर्ग के सामाजिक प्रवृत्तियों के बीच नहीं रहते, तो तुम कम से कम, पाप और परमेश्वर का विरोध करने वाली चीजें कम करोगे। एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर, तुम्हें इतने बड़े या बार-बार के प्रलोभन का सामना नहीं करना पड़ेगा। भले ही तुम्हारा जीवन थोड़ा कठिन होगा, पर कम से कम तुम्हारी आत्मा थकेगी नहीं। जरा सोचो इस बारे में, एक श्रमिक होने के नाते, तुम्हें बस दिन में तीन बार भोजन करने की चिंता होगी। अगर तुम कोई अधिकारी हो तो तुम्हारी चिंताएँ अलग होती हैं। तुम्हें लड़ना होता है, और यह पता नहीं होता कि कब तुम्हारा पद सुरक्षित नहीं रहेगा। और यह इसका अंत नहीं होगा, जिन लोगों को तुमने नाराज किया है वे तुमसे बदला लेने की कोशिश करेंगे, और तुम्हें सजा देंगे। मशहूर हस्तियों, महान लोगों और अमीर लोगों के लिए जीवन बहुत थकाऊ होता है। अमीर लोगों को हमेशा यह डर लगा रहता है कि वे भविष्य में इतने अमीर नहीं रहेंगे, और अगर ऐसा हुआ तो वे ऐसे जी नहीं पाएँगे। मशहूर हस्तियों को हमेशा चिंता रहती है कि उनका प्रभामंडल गायब हो जाएगा, और वे हमेशा अपने प्रभामंडल की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें डर है कि इस युग और प्रवृत्तियों के द्वारा उन्हें निकाल दिया जाएगा। उनका जीवन बहुत थकाऊ होता है! माँ-बाप कभी भी इन चीजों को नहीं देखते, और हमेशा अपने बच्चों को इस संघर्ष के केंद्र में धकेल देना चाहते हैं, उन्हें इन शेरों की गुफाओं और दलदल में भेज देना चाहते हैं। क्या माँ-बाप के इरादे वाकई नेक हैं? अगर मैं कहूँ कि उनके इरादे नेक नहीं हैं, तो तुम लोग इसे सुनने को तैयार नहीं होगे। अगर मैं कहूँ कि तुम्हारे माँ-बाप की अपेक्षाएँ तुम लोगों पर कई तरह से नकारात्मक प्रभाव डालती हैं, तो क्या तुम इसे स्वीकारोगे? (हाँ।) वे तुम्हें बहुत गहरा नुकसान पहुँचाते हैं, है न? तुममें से कुछ लोग इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं, तुम कहते हो : “मेरे माँ-बाप मेरा भला चाहते हैं।” तुम कहते हो कि तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं—तो, यह भलाई है कहाँ? तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं, पर उन्होंने तुम्हें कितनी सकारात्मक बातें समझने में सक्षम बनाया है? तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं, पर उन्होंने तुम्हारे कितने गलत और अवांछित विचारों और दृष्टिकोणों को ठीक किया है? (एक भी नहीं।) तो, क्या अब तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो? तुम महसूस कर सकते हो कि माँ-बाप की अपेक्षाएँ अयथार्थवादी हैं, है न?

माँ-बाप की अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाओं के सार का विश्लेषण करके हम देख सकते हैं कि ये अपेक्षाएँ स्वार्थी हैं, ये मानवता के विरुद्ध हैं, और इसके अलावा इनका माँ-बाप की जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। जब माँ-बाप अपने बच्चों पर अपनी विभिन्न अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ थोपते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे होते। तो फिर, उनकी “जिम्मेदारियाँ” क्या हैं? सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ जो माँ-बाप को निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों को बोलना सिखाना, उन्हें दयालु बनने और बुरे इंसान न बनने की सीख देना, और सकारात्मक दिशा में उनका मार्गदर्शन करना। ये उनकी सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ हैं। इसके अलावा, उन्हें किसी भी प्रकार का ज्ञान, प्रतिभाएँ वगैरह सीखने में अपने बच्चों की मदद करनी चाहिए, जो उनकी उम्र के हिसाब से, वे कितना सँभाल सकते हैं, और उनकी काबिलियत और रुचियों के आधार पर उनके लिए उपयुक्त हों। थोड़े बेहतर माँ-बाप अपने बच्चों को यह समझने में मदद करेंगे कि लोग परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं और परमेश्वर इस ब्रह्मांड में मौजूद है; वे अपने बच्चों को प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे, उन्हें बाइबल की कुछ कहानियाँ सुनाएँगे, और आशा करेंगे कि बड़े होने के बाद वे सांसारिक रुझानों के पीछे भागने, विभिन्न जटिल पारस्परिक संबंधों में फँसने और इस संसार और समाज के विभिन्न चलनों के पीछे चलकर तबाह होने के बजाय परमेश्वर का अनुसरण करेंगे और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाएँगे। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए उनका उनकी अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते उन्हें जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों के बालिग होने से पहले सकारात्मक मार्गदर्शन और उचित सहायता प्रदान करना, साथ ही इस सांसारिक जीवन में भोजन, कपड़े, मकान के संबंध में या जब भी वे बीमार पड़ें तब उनकी देखभाल करना। अगर उनके बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, तो माँ-बाप को उनकी हर बीमारी का इलाज कराना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए या उनसे यह नहीं कहना चाहिए, “स्कूल जाते रहो, पढ़ते रहो—तुम अपनी क्लास में पिछड़ नहीं सकते। अगर तुम बहुत पीछे रह गए तो कभी दूसरों के बराबर नहीं हो पाओगे।” जब बच्चों को आराम की जरूरत हो, तो माँ-बाप को उन्हें आराम करने देना चाहिए; जब बच्चे बीमार हों, तो माँ-बाप को स्वस्थ होने में उनकी मदद करनी चाहिए। ये माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ हैं। एक ओर, उन्हें अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए; तो दूसरी ओर, उन्हें अपने बच्चों को उनके मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में सहायता और शिक्षा देनी चाहिए। ये वो जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को अपने बच्चों पर कोई अवास्तविक अपेक्षाएँ या आवश्यकताएँ थोपने के बजाय पूरी करनी चाहिए। जब बात अपने बच्चों की मानसिक जरूरतों और उन चीजों की आए जिनकी उनके बच्चों को भौतिक जीवन में जरूरत होती है, तो माँ-बाप को अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी ही चाहिए। माँ-बाप को अपने बच्चों को सर्दियों में ठिठुरने नहीं देना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों को जीवन का कुछ सामान्य ज्ञान सिखाना चाहिए, जैसे कि किन परिस्थितियों में उन्हें सर्दी लग जाएगी, उन्हें गर्म भोजन खाना चाहिए, ठंडा भोजन खाने से उनके पेट में दर्द होगा, और ठंडे मौसम में उन्हें लापरवाही से खुद को हवा नहीं लगने देना चाहिए या शुष्क स्थानों पर कपड़े नहीं उतारने चाहिए, इससे उन्हें अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना सीखने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, जब उनके बच्चों के युवा मन में उनके भविष्य के बारे में कुछ बचकाने, अपरिपक्व विचार या कुछ अतिवादी विचार उठते हैं, तो माँ-बाप को इसका पता चलते ही उन्हें जबरन दबाने के बजाय तुरंत सही मार्गदर्शन देना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, ताकि समस्या का वास्तविक समाधान हो सके। इसे कहते हैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना। एक तरह से, माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करने का मतलब है अपने बच्चों की देखभाल करना, वहीं दूसरी तरह से, इसका मतलब है अपने बच्चों को परामर्श देना और सुधारना, और उन्हें सही विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में मार्गदर्शन देना। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उनका वास्तव में अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। तुम यह आशा कर सकते हो कि तुम्हारे बच्चे बड़े होने के बाद शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे और उनमें मानवता, जमीर और विवेक होगा, या फिर यह कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँगे, मगर तुम्हें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि तुम्हारे बच्चे बड़े होकर अमुक-अमुक हस्ती या महान व्यक्ति बनें, और तुम्हें उन्हें बार-बार यह बात तो बिल्कुल नहीं कहनी चाहिए : “देखो, वो बगल वाली शाओमिंग कितनी आज्ञाकारी है!” तुम्हारे बच्चे तुम्हारे हैं—जो जिम्मेदारी तुम्हें निभानी चाहिए वह यह नहीं है कि तुम अपने बच्चों को बताओ कि उनकी पड़ोसन शाओमिंग कितनी महान है, या उसे अपनी पड़ोसन शाओमिंग से सीखना चाहिए। किसी भी माँ-बाप को ऐसा नहीं करना चाहिए। हर व्यक्ति अपने में अलग होता है। लोग अपने विचारों, दृष्टिकोणों, रुचियों, शौक, काबिलियत, व्यक्तित्व और इस मामले में भिन्न होते हैं कि उनकी मानवता का सार अच्छा है या बुरा। कुछ लोग पैदाइशी बातूनी होते हैं, जबकि दूसरे स्वाभाविक रूप से अंतर्मुखी होते हैं, और अगर वे एक भी शब्द कहे बिना पूरा दिन बिता दें तो भी वे परेशान नहीं होंगे। इसलिए, अगर माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने बच्चों के व्यक्तित्व, स्वभाव, रुचियों, काबिलियत और उनकी मानवता की जरूरतों को समझने की कोशिश करनी चाहिए न कि उन्हें संसार, प्रतिष्ठा और फायदे के पीछे भागने की अपनी बालिग इच्छाओं को अपने बच्चों के लिए अपेक्षाओं में तब्दील करना चाहिए और उन्हें प्रतिष्ठा, फायदे और संसार की समाज से आने वाली इन चीजों को अपने बच्चों पर नहीं थोपना चाहिए। माँ-बाप इन चीजों को “अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाएँ” जैसे मधुर नाम से बुलाते हैं, मगर वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। यह स्पष्ट है कि वे अपने बच्चों को आग के कुंड में धकेलकर दानवों के हाथों में सौंप देना चाहते हैं। अगर तुम सचमुच एक यथेष्ट माँ-बाप हो, तो तुम्हें अपने बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संबंध में अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, न कि उनके बालिग होने से पहले उन पर अपनी इच्छा थोपनी चाहिए, न ही उनके बाल-मन को उन चीजों को सहने के लिए मजबूर करना चाहिए जो उन्हें नहीं सहनी चाहिए। अगर तुम वास्तव में उनसे प्यार करते और उन्हें संजोते हो और तुम वास्तव में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना चाहते हो, तो तुम्हें उनके भौतिक शरीर का ख्याल रखना चाहिए और पक्का करना चाहिए कि वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं। बेशक, कुछ बच्चे पैदा ही कमजोर और खराब स्वास्थ्य के साथ होते हैं। अगर उनके माँ-बाप वास्तव में ऐसी स्थिति में हैं कि उन्हें कुछ और पोषक चीजें दे सकें, या किसी पारंपरिक चीनी चिकित्सक या पोषाहार विशेषज्ञ से पूछताछ कर सकें, तो वे ऐसा कर सकते हैं और इन बच्चों के प्रति थोड़ी अधिक परवाह दिखा सकते हैं। इसके अलावा, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले हरेक उम्र में, शैशवावस्था और बचपन से लेकर किशोरावस्था तक, माँ-बाप को अपने बच्चों के व्यक्तित्व और रुचियों में होने वाले बदलावों और उनकी मानवता की खोज के संबंध में उनकी जरूरतों पर थोड़ा ज्यादा ध्यान देना चाहिए, उनके बारे में थोड़ा ज्यादा सोचना चाहिए। जब उनके मनोवैज्ञानिक बदलावों और गलतफहमियों, और उनकी मानवता की जरूरतों से संबंधित कुछ अज्ञात चीजों की बात आती है, तो माँ-बाप को उन्हें कुछ सकारात्मक और मानवीय मार्गदर्शन, सहायता और पोषण देना चाहिए और इसमें उस व्यावहारिक अंतर्दृष्टि, अनुभव और सबक का उपयोग करना चाहिए जो उन्होंने खुद इन सब से गुजरते वक्त पाई थी। माँ-बाप को अपने बच्चों की मदद करनी चाहिए कि वे हर उम्र में सहजता से बड़े हों, और घुमावदार या गलत मोड़ लेने या चरम सीमा तक जाने से बचें। जब उनके युवा, भ्रमित मन को चोट पहुँचती है या कोई झटका लगता है, तो उन्हें तुरंत उपचार के साथ-साथ अपने माँ-बाप से फिक्र, स्नेह, देखभाल और मार्गदर्शन मिलना चाहिए। ये वो जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को निभानी चाहिए। जहाँ तक बच्चों की अपने भविष्य को लेकर योजनाओं की बात है, चाहे वे शिक्षक, कलाकार या अधिकारी वगैरह बनना चाहें, अगर उनकी योजनाएँ उचित हैं, तो माँ-बाप उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं, और अपनी परिस्थितियों, शिक्षा, काबिलियत, मानवता, पारिवारिक परिस्थितियों वगैरह के हिसाब से उनकी थोड़ी मदद और सहयोग कर सकते हैं। लेकिन, माँ-बाप को अपनी क्षमताओं के दायरे से आगे बढ़कर अपनी गाड़ी, अपना घर, अपना गुर्दा या अपना खून नहीं बेचना चाहिए। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है, है न? (बिल्कुल।) माँ-बाप को अपने बच्चों की उतनी ही मदद करनी चाहिए जितनी वो कर सकते हैं। अगर उनके बच्चे कहते हैं, “मैं कॉलेज जाना चाहता हूँ,” तो माँ-बाप कह सकते हैं, “अगर तुम कॉलेज जाना चाहते हो, तो मैं तुम्हारा सहयोग करूँगा, और मैं तुम्हारा विरोध नहीं करूँगा, मगर हमारे परिवार की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अब से, मुझे तुम्हारी एक साल की कॉलेज ट्यूशन फीस भरने के लिए हर दिन कुछ पैसे बचाने होंगे। अगर, समय आने पर, मैंने पर्याप्त पैसे बचा लिए, तो तुम कॉलेज जा सकते हो। अगर मैंने पर्याप्त पैसे नहीं बचाए, तो तुम्हें अपना रास्ता खुद बनाना पड़ेगा।” माँ-बाप को अपने बच्चों के साथ इस तरह के समझौते पर पहुँचना चाहिए, जहाँ दोनों ही सहमत हों, और फिर अपने बच्चों के भविष्य के संबंध में उनकी जरूरतों की समस्या का समाधान करना चाहिए। बेशक, अगर माँ-बाप अपने बच्चों के भविष्य की उनकी योजनाओं और इरादों को साकार नहीं कर पाते हैं, तो उन्हें यह सोचकर दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है : “मैंने अपने बच्चों को निराश किया है, मैं सक्षम नहीं हूँ, और इसके कारण मेरे बच्चों को कष्ट सहना पड़ा है। दूसरों के बच्चे अच्छा खाते हैं, मशहूर ब्रांड की चीजें पहनते हैं, और कॉलेज में गाड़ियों में घूमते हैं, और जब वे घर जाते हैं, तो हवाई जहाज से यात्रा करते हैं। मेरे बच्चों को ट्रेन में सख्त सीटों पर बैठकर यात्रा करनी पड़ती है—मेरे पास उन्हें स्लीपर कार में भेजने के भी पैसे नहीं हैं। मैंने अपने बच्चों को निराश किया है!” उन्हें दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है, ये उनकी परिस्थितियाँ हैं, और अगर वे एक गुर्दा बेच भी दें, तो भी वे उन्हें ये चीजें नहीं दे सकेंगे, इसलिए उन्हें अपने भाग्य को स्वीकार लेना चाहिए। परमेश्वर ने उनके लिए इस तरह का माहौल आयोजित किया है, तो इन माँ-बाप को अपने बच्चों के प्रति किसी भी तरह से ऐसा कहकर दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है : “मैंने तुम्हें निराश किया है। अगर तुम भविष्य में हमारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा न रखो, तो मैं शिकायत नहीं करूँगा। हम अक्षम हैं, और हमने तुम्हें रहने के लिए अच्छा माहौल नहीं दिया है।” उन्हें यह कहने की कोई जरूरत नहीं है। माँ-बाप को बस अपनी जिम्मेदारियों को स्वच्छ अंतरात्मा के साथ पूरा करना है, उनसे जो बन पाए वो करना है और अपने बच्चों को शरीर और मन दोनों से स्वस्थ रहने में सक्षम बनाना है। इतना ही काफी है। यहाँ “स्वास्थ्य” का मतलब बस इतना है कि माँ-बाप यह पक्का करने के लिए अपनी भरसक कोशिश करें कि उनके बच्चों में सकारात्मक विचार हों, साथ ही उनके दैनिक जीवन और अस्तित्व के प्रति सक्रिय, ऊर्ध्वगामी और आशावादी विचार और रवैया हो। जब कोई चीज बच्चों को परेशान करती है, तो उन्हें नखरे नहीं दिखाने चाहिए, आत्महत्या की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अपने माँ-बाप के लिए परेशानी का कारण नहीं बनना चाहिए, या अपने माँ-बाप को पैसे कमाने में सक्षम न होने के कारण नकारा होने की बात कहकर ताने नहीं देने चाहिए, जैसे कि : “दूसरे लोगों के माँ-बाप को देखो। वे अच्छी गाड़ियाँ चलाते हैं, हवेली में रहते हैं, वे लक्जरी क्रूज शिप पर जाते हैं, और घूमने के लिए यूरोप जाते हैं। और हमें देखो, हम कभी अपने गाँव से भी बाहर नहीं निकले या कभी तेज-रफ्तार ट्रेन तक नहीं ली है!” अगर वे इस तरह नखरे दिखाते भी हैं, तो तुम्हें कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए : “तुमने सही कहा, हम इतने ही नालायक हैं। तुम्हारा जन्म इस परिवार में हुआ, तो तुम्हें अपने भाग्य को स्वीकारना चाहिए। अगर तुम सक्षम हो, तो भविष्य में खुद पैसे कमा सकते हो। हमारे प्रति कठोर मत बनो, और यह माँग मत करो कि हम तुम्हारे लिए कुछ करें। हमने तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर दी हैं, और हम पर तुम्हारा कुछ भी कर्ज नहीं है। भविष्य में एक दिन, तुम भी माँ-बाप बनोगे, और तुम्हें भी यही करना होगा।” जब उनके अपने बच्चे होंगे, तो वे सीखेंगे कि माँ-बाप के लिए अपना और अपने परिवार के सभी लोगों, युवा और वृद्ध दोनों का भरण-पोषण करने के लिए पैसे कमाना इतना आसान नहीं है। संक्षेप में, तुम्हें उन्हें आचरण के कुछ सिद्धांत सिखाने चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे इसे स्वीकार सकते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने के साथ-साथ परमेश्वर से समझे कुछ सही विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में उनके साथ संगति करनी चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने और तुम्हारे साथ परमेश्वर में विश्वास करने को तैयार हैं, तो यह और भी बेहतर है। अगर तुम्हारे बच्चों की इस प्रकार की जरूरत नहीं है, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना ही पर्याप्त है; तुम्हें उन्हें प्रवचन देने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से संबंधित कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते रहने या उन्हें सामने रखने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। भले ही तुम्हारे बच्चे विश्वास न करें, जब तक वे तुम्हारा सहयोग करते हैं, तब तक तुम लोग अच्छे दोस्त बने रह सकते हो, और किसी भी चीज के बारे में साथ मिलकर बात और चर्चा कर सकते हो। तुम्हें दुश्मन नहीं बनना चाहिए या उनके प्रति आक्रोश नहीं दिखाना चाहिए। आखिर तुम लोगों के बीच खून का रिश्ता है। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने, तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने और तुम्हारी आज्ञा मानने को तैयार हैं, तो तुम उनके साथ अपने पारिवारिक संबंध बनाए रख सकते हो, और उनके साथ सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो। तुम्हें अपने बच्चों को इसलिए लगातार कोसने या डांटने की जरूरत नहीं है क्योंकि आस्था के संबंध में उनकी राय और विचार तुमसे अलग हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें गुस्सा होने, या यह सोचने की जरूरत नहीं है कि तुम्हारे बच्चों का परमेश्वर में विश्वास न करना बहुत बड़ी बात है, मानो कि तुमने अपना जीवन और आत्मा खो दी है। यह इतनी भी गंभीर बात नहीं है। अगर वे विश्वास नहीं करते, तो स्वाभाविक रूप से उनके अपने मार्ग हैं, जिन पर चलने का उन्होंने फैसला किया है। तुम्हारे पास भी एक मार्ग है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए और एक कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, और इन चीजों का तुम्हारे बच्चों से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो तुम्हें उनपर दबाव बनाने की जरूरत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि सही समय नहीं आया हो या परमेश्वर ने उन्हें चुना ही न हो। अगर परमेश्वर ने उन्हें चुना ही नहीं है, और तुम उनपर विश्वास करने के लिए दबाव डालने पर जोर देते हो, तो तुम अज्ञानी और विद्रोही हो। बेशक, अगर परमेश्वर ने उन्हें चुना है, मगर सही समय नहीं आया है, और तुम चाहते हो कि वे अभी से विश्वास करें, तो यह बहुत जल्दबाजी होगी। अगर परमेश्वर कार्य करना चाहता है, तो कोई भी व्यक्ति उसकी संप्रभुता से भाग नहीं सकता। अगर परमेश्वर ने व्यवस्था की है कि तुम्हारे बच्चे विश्वास करेंगे, तो वह इसे एक वचन या एक विचार में हासिल कर सकता है। अगर परमेश्वर ने इसकी व्यवस्था नहीं की है, तो वे प्रेरित नहीं होंगे, और अगर वे प्रेरित नहीं हुए, तो तुम चाहे कितनी भी बातें कर लो, उसका कोई फायदा नहीं होगा। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो तुम उनके ऋणी नहीं हो; अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास करते हैं, तो इसका श्रेय तुम्हें नहीं जाता है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) इससे फर्क नहीं पड़ता कि आस्था के संबंध में तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लक्ष्य एक समान हैं या इस संबंध में तुम्हारा नजरिया एक जैसा है या नहीं, तुम्हें बस हर हाल में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी है। अगर तुमने इन जिम्मेदारियों को पूरा किया है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने उनपर दया दिखाई है, और अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुमने अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तो बात खत्म हुई। तुम दोनों का रिश्ता वैसे का वैसा ही रहता है, और तुम अपने बच्चों के साथ पहले की तरह बातचीत करना जारी रख सकते हो। जब तुम्हारे बच्चों का मुश्किलों से सामना हो, तो तुम्हें जितना हो सके उनकी मदद करनी चाहिए। अगर तुम अपने बच्चों की मदद करने की स्थिति में हो, तो तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए; अगर तुम मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्तर पर अपने बच्चों के विचारों और दृष्टिकोणों को ठीक कर सकते हो, और उन्हें कुछ हद तक मार्गदर्शन और सहायता दे सकते हो, जिससे वे अपनी दुविधाओं से उबर सकें, तो यह काफी अच्छा है। कुल मिलाकर, माँ-बाप को अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, यह जानना चाहिए कि उनके बच्चे क्या करना चाहते हैं, और उनके बच्चों की रुचियाँ और आकांक्षाएँ क्या हैं। अगर उनके बच्चे लोगों को मारना चाहते हैं, चीजों को आग लगाना चाहते हैं और अपराध करना चाहते हैं, तो उनके माँ-बाप को उन्हें गंभीरता से अनुशासित करना चाहिए या उन्हें दंडित भी करना चाहिए। लेकिन अगर वे आज्ञाकारी बच्चे हैं, किसी भी दूसरे सामान्य बच्चे से अलग नहीं हैं, स्कूल में अच्छे से रहते हैं, अपने माँ-बाप की बात मानते हैं, तो उनके माँ-बाप को बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की जरूरत है। अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के अलावा, उनकी तथाकथित अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ और उनके भविष्य के बारे में सोचना, सब सतही चीजें हैं। मैंने यह क्यों कहा कि वे सतही चीजें हैं? हरेक व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर निर्धारित करता है, उनके माँ-बाप इसे तय नहीं कर सकते। माँ-बाप की अपने बच्चों से जो भी अपेक्षाएँ होती हैं, यह नामुमकिन है कि भविष्य में वे सभी पूरी हो जाएँगी। ये अपेक्षाएँ उनके बच्चों का भविष्य या उनका जीवन निर्धारित नहीं कर सकतीं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे कितनी भी बड़ी अपेक्षाएँ हों या उन अपेक्षाओं के लिए वे कितने भी बड़े त्याग करते हों या कीमतें चुकाते हों, यह सब बेकार है; ये चीजें उनके बच्चों के भविष्य या जीवन को प्रभावित नहीं कर सकतीं। इसलिए, माँ-बाप को मूर्खतापूर्ण चीजें नहीं करनी चाहिए। उन्हें अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनके लिए अनावश्यक त्याग नहीं करना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से उन्हें इस बारे में इतना तनाव भी महसूस नहीं करना चाहिए। बच्चों का पालन-पोषण करना माँ-बाप के लिए सीखने के साथ-साथ विभिन्न परिवेशों से गुजरकर विभिन्न प्रकार के अनुभव पाने और फिर धीरे-धीरे अपने बच्चों को उनसे लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनाने के बारे में है। माँ-बाप को बस इतना ही करना है। जहाँ तक बच्चों के भविष्य और भावी जीवन पथ की बात है, इन चीजों का उनके माँ-बाप की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। कहने का मतलब है कि तुम्हारे माँ-बाप की अपेक्षाएँ तुम्हारा भविष्य तय नहीं कर सकतीं। ऐसा नहीं है कि अगर तुम्हारे माँ-बाप को तुमसे बहुत अपेक्षाएँ हैं, या तुमसे बड़ी अपेक्षाएँ रखने का मतलब यह है कि तुम समृद्ध होकर अच्छी तरह से जीवन जी पाओगे, और ऐसा भी नहीं है कि अगर तुम्हारे माँ-बाप को तुमसे कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं तो तुम भिखारी बन जाओगे। इन चीजों के बीच कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। अब बताओ, क्या ये विषय जिन पर मैंने संगति की है, समझने में आसान हैं? क्या लोगों के लिए इन चीजों को हासिल करना आसान है? क्या वे कठिन हैं? माँ-बाप को बस अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं और उनका पालन-पोषण करके उन्हें बालिग करना है। उन्हें अपने बच्चों को प्रतिभाशाली व्यक्तियों के रूप में विकसित करने की जरूरत नहीं है। क्या यह हासिल करना आसान है? (बिल्कुल है।) ऐसा करना आसान है—तुम्हें अपने बच्चों के भविष्य या जीवन के लिए कोई जिम्मेदारी उठाने, या उनके लिए कोई योजना बनाने की जरूरत नहीं है, या यह अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है कि वे किस तरह के लोग बनेंगे, भविष्य में उनका जीवन कैसा होगा, बाद में वे किस सामाजिक वर्ग में पाए जाएँगे, भविष्य में इस दुनिया में उनका जीवन स्तर कैसा होगा, या लोगों के बीच उनका रुतबा कैसा होगा। तुम्हें इन चीजों का अनुमान लगाने या इन्हें नियंत्रित करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस माँ-बाप होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं। यह इतना आसान है। जब तुम्हारे बच्चे स्कूल जाने के लायक हो जाएँ, तो तुम्हें एक स्कूल ढूँढकर वहाँ उनका दाखिला करा देना चाहिए, जरूरत पड़ने पर उनकी ट्यूशन फीस भरनी चाहिए, और स्कूल में उनकी जो भी जरूरत हो, उसके लिए पैसे चुकाने चाहिए। इन जिम्मेदारियों को पूरा करना ही काफी है। जब बात उनके साल भर के खाने-पीने और पहनने की आए, तो तुम्हें बस परिस्थितियों के आधार पर उनके शारीरिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना होगा। उनके बालिग होने से पहले की अवधि के दौरान, जब वे समझ नहीं पाते कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करनी है, किसी पुरानी बीमारी को उनके भीतर बने मत रहने दो। उनकी खामियों और बुरी आदतों को तुरंत सुधारो, जीवन की अच्छी आदतें विकसित करने में उनकी मदद करो, और फिर उन्हें सलाह और मार्गदर्शन देकर यह पक्का करो कि वे अति न करने लग जाएँ। अगर उन्हें संसार की कुछ बुरी चीजें पसंद हैं, पर तुम देख सकते हो कि वे अच्छे बच्चे हैं, और वे बस संसार की बुरी प्रवृत्तियों से प्रभावित हैं, तो तुरंत उन्हें सुधारना चाहिए, और फिर उनकी खामियों और बुरी आदतों को ठीक करने में उनकी मदद करनी चाहिए। ये वे जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को निभानी चाहिए और वे कार्य हैं जो उन्हें करने चाहिए। माँ-बाप को अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उन्हें सामाजिक रुझानों की ओर नहीं धकेलना चाहिए, और उन्हें अपने बच्चों को समय से पहले विभिन्न प्रकार के दबाव झेलने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए, जिन्हें सिर्फ बड़ों को झेलने की जरूरत होती है, जब वे खुद बालिग नहीं हुए होते हैं। माँ-बाप को ये चीजें नहीं करनी चाहिए। इन चीजों को हासिल करना बहुत आसान है, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं। क्योंकि वे लोग सांसारिक प्रतिष्ठा और लाभ, या संसार की बुरी प्रवृत्तियों के पीछे भागना नहीं छोड़ सकते, और संसार द्वारा निकाले जाने से डरते हैं, तो वे अपने बच्चों के बालिग होने से पहले ही उन्हें बहुत जल्दी समाज में शामिल करके तेजी से मानसिक स्तर पर समाज के अनुकूल बना लेते हैं। अगर बच्चों के माँ-बाप ऐसे हैं, तो यह उनका दुर्भाग्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके माँ-बाप किन तरीकों या बहानों से उन्हें प्यार करते हैं, संजोते हैं और उनके लिए कीमतें चुकाते हैं, ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनिवार्य रूप से अच्छी चीजें नहीं हैं—यह भी कहा जा सकता है कि वे एक प्रकार की आपदाएँ हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अपनी अपेक्षाओं की आड़ में, माँ-बाप अपने बच्चों के बाल-मन को तहस-नहस कर देते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन माँ-बाप की अपेक्षाएँ, वास्तव में, उनके बच्चों के स्वस्थ मन और शरीर को लेकर नहीं हैं, वे बस ऐसी अपेक्षाएँ हैं कि उनके बच्चे समाज में खुद को स्थापित करने में सक्षम होंगे, और समाज द्वारा निकाले जाने से बच जाएँगे। उनकी अपेक्षाओं का उद्देश्य है कि उनके बच्चे अच्छा जीवन जिएँ या अन्य लोगों से श्रेष्ठ बनें, भिखारी बनने से बचें, अन्य लोगों द्वारा भेदभाव करने या धौंस जमाए जाने से बचें, और लोगों की बुरी प्रवृत्तियों और बुरे समूहों में शामिल होने से बचें। क्या ये अच्छी बातें हैं? (नहीं।) इसलिए, तुम लोगों को इस प्रकार की अभिभावकीय अपेक्षाओं को दिल पर लेने की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे माँ-बाप ने कभी तुमसे इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखी थीं, या अगर उन्होंने तुमसे अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कई कीमतें चुकाई थीं, इसलिए तुम उनके प्रति ऋणी महसूस करते हो, और अपना सारा जीवन उनके द्वारा चुकाई कीमतों की भरपाई करने में बिताना चाहते हो—अगर तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार और इच्छा है, तो तुम्हें आज ही इसे त्याग देना चाहिए। तुम उनके ऋणी नहीं हो, बल्कि यह तुम्हारे माँ-बाप हैं जिन्होंने तुम्हें तबाह और पंगु बना दिया है। वे न सिर्फ माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल रहे हैं, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने तुम्हें नुकसान पहुँचाया है, तुम्हारे बाल-मन पर विभिन्न चोटें पहुँचाई हैं, और विभिन्न प्रकार की नकारात्मक यादें और छापें छोड़ी हैं। संक्षेप में, ऐसे माँ-बाप अच्छे माँ-बाप नहीं होते। अगर, तुम्हारे बालिग होने से पहले, जिस तरह से उन्होंने तुम्हें शिक्षित किया, प्रभावित किया और तुमसे बात की, उसमें अगर वे हमेशा इस उम्मीद में थे कि तुम कड़ी मेहनत से पढ़ाई करोगे, कामयाब होगे, और अंत में बस एक मजदूर बनकर नहीं रहोगे, तुम्हें भविष्य में निश्चित रूप से अच्छे अवसर मिलेंगे, तुम उनका गौरव और खुशी बनोगे, और उनका मान-सम्मान बढ़ाकर उनका नाम रोशन करोगे, तो आज से ही, तुम्हें उनकी तथाकथित दयालुता से मुक्त हो जाना चाहिए, और अब तुम्हें उन्हें दिल से लगाने की जरूरत नहीं है। सही कहा न मैंने? (बिल्कुल।) ये वे अपेक्षाएँ हैं जो माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे लगाए रखते हैं।

माँ-बाप की अपने बच्चों के प्रति अपेक्षाओं की प्रकृति उनके बच्चों के बालिग होने के बाद भी वैसी ही रहती है। हालाँकि उनके बालिग बच्चे स्वतंत्र रूप से सोच सकते हैं, और एक बालिग व्यक्ति के दर्जे और परिप्रेक्ष्य से उनके साथ बातचीत करने, बोलने और चीजों पर चर्चा करने में सक्षम हो सकते हैं, फिर भी माँ-बाप एक अभिभावक के परिप्रेक्ष्य से अपने बच्चों से वही अपेक्षाएँ करते रहते हैं। उनकी अपेक्षाएँ एक नाबालिग बच्चे के प्रति अपेक्षाओं से बदलकर एक बालिग व्यक्ति के प्रति अपेक्षाओं में तब्दील हो जाती हैं। हालाँकि बालिगों के लिए माँ-बाप की अपेक्षाएँ उन बच्चों से की गई अपेक्षाओं से भिन्न होती हैं जो अभी बालिग नहीं हुए हैं, मगर समाज और संसार के सामान्य, भ्रष्ट लोगों और सदस्यों के रूप में, माँ-बाप अभी भी अपने बच्चों के लिए उसी प्रकार की अपेक्षाएँ रखते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि काम पर उनके बच्चों के लिए सब कुछ सहजता से चलेगा, उनकी शादियाँ खुशहाल होंगी और उनके परिवार आदर्श होंगे, उनकी पगार बढ़ती रहेगी और तरक्की मिलेगी, उन्हें अपने बॉस से मान्यता मिलेगी और उनकी नौकरियों में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी और सब कुछ बढ़िया चलेगा। इन अपेक्षाओं का क्या फायदा? (वे सब बेकार हैं।) वे बेकार हैं, अनावश्यक हैं। माँ-बाप सोचते हैं कि उन्होंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है तो वे तुम्हारा मन पढ़ सकते हैं, और इसलिए वे मानते हैं कि भले ही तुम अब बालिग हो गए हो, मगर तुम्हारे मन में जो कुछ भी चल रहा है, तुम्हें जो चाहिए, तुम्हारा व्यक्तित्व कैसा है, ये सब वे जानते हैं। और भले ही तुम अब एक स्वतंत्र बालिग व्यक्ति हो, और अपना भरण-पोषण करने के लिए पैसे कमा सकते हो, मगर उन्हें लगता है कि वे अभी भी तुम्हें नियंत्रित कर सकते हैं, और तुम्हारे मामलों में उनके पास अभी भी कुछ बोलने, शामिल होने, फैसला लेने, टांग अड़ाने, या यहाँ तक कि अपनी मर्जी चलाने का अधिकार है। यानी, उन्हें लगता है कि तुम्हारे फैसले वो ले सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब शादी की बात आती है, अगर तुम किसी को डेट कर रहे हो, तो तुम्हारे माँ-बाप तुरंत कहेंगे : “यह अच्छा नहीं है, वह तुम्हारे जितनी पढ़ी-लिखी नहीं है, इतनी अच्छी नहीं दिखती, और उसका परिवार भी गाँव में रहता है। उससे शादी करने के बाद, गाँव से भर-भरके उसके रिश्तेदार आएँगे, उन्हें बाथरूम का इस्तेमाल करना तक नहीं आता होगा, और वे सब कुछ गंदा कर देंगे। वह यकीनन तुम्हारे लिए अच्छा जीवन नहीं होगा। यह अच्छा नहीं है, मैं तुम्हें उससे शादी करने की इजाजत नहीं दूँगा!” क्या यह टांग अड़ाना नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अनावश्यक और घिनौना नहीं है? (यह अनावश्यक है।) बेटे-बेटियों को अभी भी अपना जीवनसाथी खोजते समय माँ-बाप की सहमति लेनी पड़ती है। नतीजतन, अभी भी कुछ बच्चे ऐसे हैं जो अपने माँ-बाप को यह बताते ही नहीं कि उन्हें अपना जीवनसाथी मिल गया है, ताकि वे इसमें टांग न अड़ाएँ। जब उनके माँ-बाप पूछते हैं, “क्या तुम्हारा कोई साथी है?” वे बस यही कहते हैं, “नहीं, अभी बहुत जल्दी है, मैं अभी जवान हूँ, जल्दबाजी वाली कोई बात नहीं है,” पर असल में वे दो या तीन साल से एक साथ रह रहे हैं, उन्होंने बस अपने माँ-बाप को अभी तक बताया नहीं है। और वे अपने माँ-बाप को इस बारे में क्यों नहीं बताते? क्योंकि उनके माँ-बाप हर चीज में टांग अड़ाना चाहते हैं; वे बहुत मीन-मेख निकालते हैं, इसलिए वे उन्हें अपने साथी के बारे में नहीं बताते। जब वे शादी करने को तैयार होते हैं, तो वे अपने साथी को सीधे अपने माँ-बाप के घर लाकर पूछते हैं, “मैं कल शादी करने जा रहा हूँ। क्या आप अपनी सहमति देते हैं? चाहे आप लोग अपनी सहमति दें या नहीं, मैं कल ही शादी कर रहा हूँ। अगर आप अपनी सहमति नहीं देंगे, तब भी हम अपना परिवार शुरू करेंगे।” ये माँ-बाप अपने बच्चों के जीवन में बहुत हस्तक्षेप करते हैं, यहाँ तक कि उनकी शादियों में भी टांग अड़ाते हैं। अगर उनके बच्चों को जो साथी मिलते हैं वे वैसे नहीं हैं जिनकी उन्होंने उम्मीद की थी, अगर उन दोनों की नहीं बनती है या अगर वे उन्हें पसंद नहीं करते, तो वे उन्हें तोड़ने की कोशिश करेंगे। अगर उनके बच्चे इस बात से सहमत नहीं होते, तो वे रोएँगे, हंगामा खड़ा करेंगे, और आत्महत्या कर लेने की धमकी देंगे, उनके बच्चे इस हद तक चले जाएँगे कि उन्हें पता ही नहीं होगा कि वे रोएँ या हँसें—उन्हें नहीं पता होगा कि ऐसे में क्या किया जाए। कुछ बेटे-बेटियाँ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि उनकी उम्र हो चुकी है और अब वे शादी नहीं करना चाहते, तो उनके माँ-बाप उनसे कहते हैं : “यह क्या बात हुई। मैंने कितनी उम्मीदें लगा रखी थीं कि तुम बड़े होगे और शादी करके बच्चे पैदा करोगे। मैंने तुम्हें बड़े होते देखा है, और अब मैं तुम्हारी शादी और बच्चों को देखना चाहता हूँ। तब जाकर मैं शांति से मर सकूँगा। अगर तुम शादी नहीं करोगे, तो मेरी यह इच्छा अधूरी रह जाएगी। मैं मर नहीं पाऊँगा, और अगर मरूँगा भी तो मुझे शांति नहीं मिलेगी। तुम्हें शादी करनी होगी, जल्दी से एक साथी ढूँढ लो। कोई स्थायी साथी न भी मिला तो कोई बात नहीं, मैं उनसे मिल लूँगा।” क्या यह टांग अड़ाना नहीं है? (बिल्कुल है।) जब उनके बालिग बच्चों की शादी के लिए साथी चुनने की बात आए, तो माँ-बाप उन्हें उपयुक्त सलाह दे सकते हैं, अपने बच्चों को हिदायत दे सकते हैं, या एक साथी खोजने में उनकी मदद कर सकते हैं, मगर उन्हें इस मामले में टांग नहीं अड़ानी चाहिए, उन्हें यह फैसला लेने में अपने बच्चों की मदद नहीं करनी चाहिए। उनके बच्चों की अपनी भावनाएँ होती हैं कि क्या वे अपने साथी को पसंद करते हैं, क्या वे एक-दूसरे के साथ अच्छे से निभा पाते हैं, क्या उनकी रुचियाँ समान हैं, और क्या वे भविष्य में एक साथ खुश रहेंगे। जरूरी नहीं कि माँ-बाप ये बातें जानते हों, और अगर वे जानते भी हैं, तो वे सिर्फ सुझाव दे सकते हैं, उन्हें इसमें खुले तौर पर बाधा नहीं डालनी चाहिए या ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “जब मेरे बेटे या बेटी को कोई साथी मिले, तो वे मेरे परिवार के बराबर सामाजिक दर्जे वाले होने चाहिए। अगर ऐसा नहीं है, और मेरे बेटे या बेटी को लेकर उनकी कुछ और ही मंशाएँ हैं, तो मैं उनकी शादी नहीं होने दूँगा, मुझे उनकी योजनाओं में बाधा डालनी होगी। अगर वे मेरे घर में घुसना चाहते हैं, तो मैं उन्हें आने नहीं दूँगा!” क्या यह अपेक्षा उचित है? क्या यह तर्कसंगत है? (यह तर्कसंगत नहीं है।) यह उनके बच्चों के जीवन का एक महत्वपूर्ण मामला है, माँ-बाप का इसमें टांग अड़ाना तर्कसंगत नहीं है। मगर इन माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य से, उनके बच्चों के जीवन के महत्वपूर्ण मामलों में हस्तक्षेप करने का और भी कुछ कारण है। अगर उनके बच्चों को बात करने के लिए दोस्त के रूप में कोई लड़का या लड़की मिल जाती है, तो वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन अगर बात शादी जैसे महत्वपूर्ण मामले से जुड़ी है, तो वे सोचेंगे कि उन्हें हस्तक्षेप करना ही चाहिए। ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों की जासूसी करने की भरसक कोशिश करते हैं, यह देखते हैं कि उनके फोन और कंप्यूटर पर कितने लड़के-लड़कियों के नंबर और जानकारी मौजूद हैं, वे अपने बच्चों के जीवन में इतना अधिक हस्तक्षेप और इतनी जासूसी करते हैं कि बच्चों के पास कोई उपाय ही नहीं बचता, जहाँ उन्हें लड़ना या बहस न करनी पड़े, वे इस बाधा से बचकर नहीं निकल सकते। क्या यह माँ-बाप के लिए अपने बच्चों से पेश आने का उचित तरीका है? (नहीं।) अगर माँ-बाप अपने बच्चों को इतना मजबूर कर दें कि वे उनसे तंग आ जाएँ, तो इसे मुसीबत खड़ी करना कहा जाएगा, है न? माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों के लिए अभी भी माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए, उनके भविष्य के जीवन पथ में उनकी मदद करनी चाहिए, और उन्हें कुछ उचित और मूल्यवान सलाह, हिदायत और चेतावनी देनी चाहिए, ताकि वे काम पर या विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते समय धोखा खाने, और घुमावदार रास्ता चुनने, अनावश्यक समस्या का सामना करने या यहाँ तक कि मुकदमेबाजी से बच सकें। माँ-बाप को एक अनुभवी व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से देखते हुए, अपने बच्चों को कुछ उपयोगी और मूल्यवान सलाह और संदर्भ बिंदु देना चाहिए। जहाँ तक यह बात है कि उनके बच्चे उनकी बात सुनते हैं या नहीं, यह उनका अपना मामला है। माँ-बाप को बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। माँ-बाप का इस पर कोई प्रभाव नहीं होता कि उनके बच्चे कितना कष्ट सहेंगे, वे कितना दर्द सहेंगे या कितनी आशीषों का आनंद लेंगे। अगर उनके बच्चों के लिए इस जीवन में कुछ कष्ट सहना लिखा है, और वे उन्हें पहले से ही वे चीजें सिखा चुके हैं जो उन्हें सिखाई जानी चाहिए, मगर जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तब भी वे अपनी मनमानी करते हैं, तो उन्हें यह कष्ट सहना ही होगा, यही उनकी नियति है, और उन्हें खुद को दोष देने की जरूरत नहीं है, सही है न? (बिल्कुल।) कुछ मामलों में, लोगों की शादियाँ अच्छी नहीं चलतीं, उनके अपने जीवनसाथी के साथ अच्छे संबंध नहीं रहते, और वे तलाक लेने का फैसला करते हैं, और तलाक लेने के बाद, इस बात पर विवाद होते हैं कि उनके बच्चों का पालन-पोषण कौन करेगा। ऐसे लोगों के माँ-बाप ने उम्मीद की थी कि उनकी नौकरियों में सब कुछ अच्छा होगा, उनकी शादियाँ खुशहाल, आनंदमय होंगी और कोई दरार या समस्याएँ सामने नहीं आएँगी, मगर फिर आखिर में, जैसा वे चाहते थे वैसा कुछ नहीं हुआ। नतीजतन, ये माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में चिंता करते हैं, रोते हैं, अपने पड़ोसियों से इस बारे में शिकायत करते हैं, और अपने बेटों या बेटियों को उनके बच्चों का संरक्षण दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए वकील ढूँढने में मदद करते हैं। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो देखते हैं कि उनकी बेटियों के साथ अन्याय हुआ है, और वे उनकी ओर से लड़ने के लिए खड़े हो जाते हैं, उनके पतियों के घर जाकर चिल्लाते हैं, “तुमने मेरी बेटी के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया? मैं इस अपमान को नहीं भूलूँगा!” यहाँ तक कि वे अपनी बेटियों की ओर से गुस्सा निकालने के लिए अपने दूर के परिवार वालों को भी अपने साथ लाते हैं, और मार-पीट की नौबत तक आ जाती है। नतीजतन, बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता है। अगर पूरा परिवार हंगामा करने नहीं आया होता, और पति-पत्नी के बीच का तनाव धीरे-धीरे कम हो जाता, तो मामला शांत होने के बाद शायद उनका तलाक नहीं होता। मगर, क्योंकि इन माँ-बाप ने बखेड़ा खड़ा किया, तो यह बहुत बड़ी बात बन गई; उनकी टूटी हुई शादी ठीक नहीं हो सकी और रिश्ते में दरार आ गई। अंत में, उन्होंने इतना हंगामा किया कि उनके बच्चों की शादियाँ सहज रूप से नहीं चल सकीं और इन माँ-बाप को इसकी चिंता भी करनी पड़ी। जरा बताओ, क्या यह मुसीबत मोल लेना जरूरी था? उन चीजों में घुसने से उन्हें क्या फायदा हुआ? चाहे उनके बच्चों की शादी की बात हो या उनके काम की, सभी माँ-बाप सोचते हैं कि उन पर एक बड़ी जिम्मेदारी है : “मुझे इसमें शामिल होना ही होगा, मुझे इस मामले पर बारीकी से नजर रखने और ध्यान देने की जरूरत है।” वे देखते हैं कि उनके बच्चों की शादियाँ खुशहाल हैं या नहीं, उनके प्यार में कोई समस्या तो नहीं है, और क्या उनके बेटों या दामादों का कोई प्रेम प्रसंग तो नहीं चल रहा है। कुछ माँ-बाप अपने बच्चों की शादी या विभिन्न अन्य चीजों से जुड़ी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं या यहाँ तक कि उनके संबंध में साजिशें रचते हैं, और इससे उनके बच्चों के जीवन और कामकाज के सामान्य अनुक्रम पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। क्या ऐसे माँ-बाप घिनौने नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) यहाँ तक कि कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों की जीवनशैली और जीवन की आदतों में दखल देते हैं, और जब उनके पास करने के लिए कुछ नहीं होता है, तो वे अपने बच्चों के घर यह देखने के लिए जाते हैं कि उनकी बहुएँ कैसी हैं, कहीं वे चुपके से अपने परिवार वालों को उपहार या पैसे तो नहीं भेज रहीं हैं, या किसी गैर मर्द के साथ उसके नाजायज संबंध तो नहीं हैं। उनके बच्चों को ये हरकतें बहुत बुरी और बेहद घिनौनी लगती हैं। अगर माँ-बाप ऐसा करते रहेंगे, तो उनके बच्चों को यह घिनौना और बुरा लगेगा, इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि ये हरकतें बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं हैं। बेशक, अगर हम दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखें, तो ये हरकतें अनैतिक और मानवीयता से रहित भी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि माँ-बाप की अपने बच्चों से किस प्रकार की अपेक्षाएँ हैं, उनके बालिग हो जाने के बाद माँ-बाप को उनके जीवन या कार्यक्षेत्र या उनके परिवारों में दखल नहीं देना चाहिए, और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं में टांग अड़ाने या उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जिन्हें पैसों से बहुत प्यार होता है, और वे अपने बच्चों से कहते हैं : “जल्दी-जल्दी ज्यादा पैसा कमाने के लिए, तुम्हें अपना कारोबार बढ़ाना होगा। फलाने बच्चे को देखो, उसने अपना कारोबार कितना बढ़ा लिया—उसने अपनी छोटी-सी दुकान को बड़ा किया, और फिर उस बड़ी दुकान को फ्रेंचाइजी में बदल दिया, और अब उनके माँ-बाप को उनके साथ अच्छा खाना-पीना मिलता है। तुम्हें ज्यादा पैसे कमाने होंगे। ज्यादा पैसे कमाओ और कई दुकानें खोलो, फिर तुम्हारा नाम होगा और हम एक साथ इसके मजे लेंगे।” अपने बच्चों की कठिनाइयों या इच्छाओं की परवाह किए बिना, वे बस अपनी प्राथमिकताओं और स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं; वे सांसारिक सुखों का आनंद लेने के इरादे से ढेर सारा पैसा कमाने के लिए बस अपने बच्चों का इस्तेमाल करना चाहते हैं। माँ-बाप को ये सभी चीजें नहीं करनी चाहिए। ये चीजें अनैतिक और मानवीयता से रहित हैं और ऐसे माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हैं। माँ-बाप का अपने बालिग बच्चों के प्रति यह रवैया नहीं होना चाहिए। बल्कि, ये माँ-बाप अपने बड़े होने का फायदा उठा रहे हैं, अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी दिखाने की आड़ में, अपने बालिग बच्चों के जीवन, कामकाज, शादी वगैरह के मामले में टांग अड़ा रहे हैं। किसी व्यक्ति के बालिग बच्चे चाहे कितने भी सक्षम हों, चाहे उनकी काबिलियत कैसी भी हो, समाज में उनका रुतबा कैसा भी हो या वे कितने पैसे कमा सकते हैं, यह नियति परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित की है—यह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। माँ-बाप को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए कि उनके बच्चे किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं, बस अगर वे सही रास्ते पर नहीं चल रहे हों, या वे कानून तोड़ रहे हों, तो ऐसी स्थिति में माँ-बाप को उन्हें सख्ती से अनुशासित करना चाहिए। मगर, सामान्य परिस्थितियों में, जहाँ इन बालिग बच्चों की मनोदशा सही है, और उनमें स्वतंत्र रूप से जीने और जीवित रहने की क्षमता है, उनके माँ-बाप को पीछे हट जाना चाहिए, क्योंकि उनके बच्चे अब बालिग हो चुके हैं। अगर उनके बच्चे अभी-अभी बालिग हुए हैं, और सिर्फ 20 या 21 वर्ष के हैं, और वे अभी भी समाज की विभिन्न जटिल परिस्थितियों के बारे में और जीवन में आचरण करने के तरीके नहीं जानते, और अगर उन्हें लोगों से मेलजोल करना नहीं आता, उनके जीवित रहने का कौशल अच्छा नहीं है, तो इन माँ-बाप को उन्हें कुछ उपयुक्त सहायता देनी चाहिए, जिससे वे धीरे-धीरे उस स्तर तक पहुँच सकें जहाँ वे स्वतंत्र रूप से जी सकते हैं। इसे कहते हैं अपनी जिम्मेदारी निभाना। मगर जैसे ही वे अपने बच्चों को सही रास्ते पर ला दें, और उनके बच्चे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम हो जाएँ, इन माँ-बाप को पीछे हट जाना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानो कि वे अभी तक बालिग नहीं हुए हैं, या मानो कि वे मानसिक रूप से कमजोर हैं। उन्हें अपने बच्चों से कोई अयथार्थवादी अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए, या उनसे कोई अपेक्षा रखने की आड़ में उनके निजी जीवन या उनके कामकाज, परिवार, शादी, लोगों और घटनाओं के संबंध में उनके रवैये, दृष्टिकोण और क्रियाकलापों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए। अगर वे इनमें से कोई भी काम करते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हैं।

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