सत्य का अनुसरण कैसे करें (18) भाग दो
हमारी पिछली सभा में, हमने “अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देना” के विषय में माँ-बाप की अपेक्षाओं से संबंधित बातों पर संगति की थी। हमने इससे जुड़े प्रासंगिक सिद्धांतों और प्रमुख विषयों पर अपनी संगति पूरी कर ली है। इसके बाद, हम अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देने के दूसरे पहलू—अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागने के बारे में संगति करेंगे। इस बार हम भूमिकाएँ बदल देंगे। वह विषय-वस्तु जो माँ-बाप की अपेक्षाओं के प्रति रुख से जुड़ी है, उसके संबंध में ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो लोगों को एक बच्चे के परिप्रेक्ष्य से करनी चाहिए। जब यह बात आती है कि बच्चों को अपने माँ-बाप की उनसे जुड़ी विभिन्न अपेक्षाओं के प्रति, और माँ-बाप उनके प्रति कैसा रुख अपनाते हैं, इसके प्रति किस प्रकार का रुख रखना चाहिए और उनसे कैसे निपटना चाहिए और उन्हें किन सिद्धांतों पर अमल करना चाहिए, तो यह एक बच्चे के दृष्टिकोण से माँ-बाप से आने वाली विभिन्न समस्याओं को लेकर सही रुख रखने के बारे में है। आज हम “अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागना” के विषय पर संगति करेंगे, जो उन विभिन्न समस्याओं से निपटने के बारे में है जो एक माँ-बाप के दृष्टिकोण से लोगों को अपने बच्चों के संबंध में होती हैं। इसमें ऐसे सबक शामिल हैं जिन्हें सीखा जाना चाहिए और ऐसे सिद्धांत हैं जिनका पालन किया जाना चाहिए। एक बच्चे के रूप में, सबसे अहम बात यह है कि तुम्हें अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं का सामना कैसे करना चाहिए, इन अपेक्षाओं के प्रति कैसा रवैया अपनाना चाहिए, साथ ही किस मार्ग पर चलना चाहिए, और इस परिस्थिति में तुम्हारे पास अभ्यास के कौन-से सिद्धांत होने चाहिए। स्वाभाविक रूप से, सभी को माँ-बाप बनने का मौका मिलता है, या शायद वे पहले से ही माँ-बाप होंगे; इसका संबंध उन अपेक्षाओं और रवैयों से है जो लोग अपने बच्चों के प्रति रखते हैं। चाहे तुम माँ-बाप हो या संतान, तुम्हारे पास एक-दूसरे की अपेक्षाओं से निपटने के लिए अलग-अलग सिद्धांत होने चाहिए। जब अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने की बात आती है, तो बच्चों के पास ऐसे सिद्धांत होते हैं जिनका पालन उन्हें जरूर करना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से, माँ-बाप के पास भी सत्य सिद्धांत होते हैं जिनका पालन उन्हें अपने बच्चों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए करना चाहिए। तो पहले जरा सोचो, अभी तुम लोग कौन-से ऐसे सिद्धांत देख सकते हो या उनके बारे में सोच सकते हो जिनका पालन माँ-बाप को अपने बच्चों के साथ व्यवहार में करना चाहिए? अगर हम सिद्धांतों के बारे में बात करें, तो यह विषय शायद तुम लोगों से बहुत संबंधित न हो, और यह बहुत ज्यादा व्यापक और गहरा हो, तो इसके बजाय आओ इस बारे में चर्चा करें कि अगर तुम माँ-बाप होते तो अपने बच्चों से क्या अपेक्षाएँ रखते। (परमेश्वर, अगर किसी दिन मेरे बच्चे हों, तो सबसे पहले मैं यह आशा करूँगा कि मेरे बच्चे तंदुरुस्त हों, और स्वास्थ्य के साथ ही बड़े हो सकें। इसके अलावा, मैं आशा करूँगा कि उनके अपने सपने हों, और वे जीवन में अपने सपनों को पूरा करने के बारे में महत्वाकांक्षी हों, और उनके अच्छे भविष्य की संभावना हो। ये दो मुख्य चीजें हैं जिनकी मैं आशा करूँगा।) क्या तुम आशा करोगे कि तुम्हारे बच्चे ऊँचे पद के अधिकारी या बहुत अमीर बनें? (मैं उन चीजों की भी आशा करूँगा। मैं आशा करूँगा कि वे, कम से कम, संसार में आगे निकल सकें, दूसरों से बेहतर बन सकें, और लोग उनका सम्मान करें।) माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सबसे पहले यह चाहते हैं कि वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हों, अपने करियर में सफल हों, संसार में आगे बढ़ें और उनके जीवन में सब कुछ अच्छा हो। क्या माँ-बाप की अपनी बच्चों से कोई और अपेक्षाएँ होती हैं? जिनके बच्चे हैं, बताओ। (मैं आशा करती हूँ कि मेरे बच्चे स्वस्थ हों, उनके जीवन में चीजें सुचारू रूप से चलें, और उनका जीवन शांतिपूर्ण और सुरक्षित हो। मैं आशा करती हूँ कि वे अपने परिवार के साथ सामंजस्य बनाकर रहें, और वे बड़ों का सम्मान और छोटों की देखभाल कर सकें।) और कुछ? (अगर मैं किसी दिन बाप बनूँ, तो उन अपेक्षाओं के अलावा, जिनके बारे में अभी बात की गई है, मैं यह भी आशा करूँगा कि मेरे बच्चे आज्ञाकारी और समझदार हों, मेरे प्रति संतानोचित दायित्व निभाएँ, और बुढ़ापे में मेरा ध्यान रखने के लिए मैं उन पर भरोसा कर सकूँ।) यह अपेक्षा काफी महत्वपूर्ण है। माँ-बाप का इस उम्मीद में रहना कि उनके बच्चे संतानोचित दायित्व निभाएँगे, यह अपेक्षाकृत एक पारंपरिक अपेक्षा है जो लोगों की धारणाओं और अवचेतन में होती है। यह काफी हद तक प्रतिनिधिक मामला है।
अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागना, अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्यागने का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। सभी माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। चाहे वे बड़ी हों या छोटी, उनके वर्तमान से संबंधित हों या भविष्य से, ये अपेक्षाएँ एक रवैया हैं जो माँ-बाप का अपने बच्चों के आचरण, उनके क्रियाकलापों, जीवन या उनके बच्चे उनसे कैसे पेश आते हैं, के प्रति होता है। वे एक तरह की विशिष्ट शर्त भी हैं। ये विशिष्ट शर्तें, उनके बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, ऐसी चीजें हैं जो उन्हें पूरी करनी चाहिए, क्योंकि पारंपरिक धारणाओं के आधार पर, बच्चे अपने माँ-बाप के आदेशों के खिलाफ नहीं जा सकते—अगर वे ऐसा करते हैं तो वे संतानोचित दायित्व नहीं निभाते। इस वजह से, बहुत-से लोग इस मामले को लेकर बहुत बड़ा और भारी बोझ उठाते हैं। तो, क्या लोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि माँ-बाप अपने बच्चों से जो विशिष्ट अपेक्षाएँ रखते हैं, वे उचित हैं या नहीं, और उनके माँ-बाप को ये अपेक्षाएँ रखनी भी चाहिए या नहीं, साथ ही इनमें से कौन-सी अपेक्षाएँ उचित हैं, कौन-सी अनुचित हैं, कौन-सी जायज हैं और कौन-सी बाध्यकारी और नाजायज हैं? इसके अलावा, माँ-बाप की अपेक्षाओं के प्रति क्या रुख रखना चाहिए, उन्हें कैसे स्वीकारना या ठुकराना है, और इन अपेक्षाओं को देखने और इनके प्रति रुख अपनाते समय क्या रवैया और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए, जब इनकी बात आती है, तो कुछ ऐसे सत्य सिद्धांत हैं जिन्हें लोगों को समझना और पालन करना चाहिए। जब इन चीजों का समाधान नहीं होता, तो माँ-बाप अक्सर इस तरह का बोझ उठाते हुए चलते हैं, यह सोचकर कि अपने बच्चों और संतानों के लिए अपेक्षाएँ रखना उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और स्वाभाविक रूप से, वे ऐसी चीजें हैं जो उनके पास होनी ही चाहिए। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने बच्चों से कोई अपेक्षाएँ न रखें, तो यह उनकी संतानों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों या दायित्वों को पूरा न करने के समान होगा, और माँ-बाप को जो करना चाहिए वह न करने के बराबर होगा। वे सोचते हैं कि इससे वे बुरे माँ-बाप बन जाएँगे, ऐसे माँ-बाप जो अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाते हैं। इसलिए, जब अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं की बात आती है, तो लोग अनजाने में ही अपने बच्चों के लिए विभिन्न अपेक्षाएँ निर्धारित कर लेते हैं। अलग-अलग समय और परिस्थितियों में विभिन्न बच्चों के लिए उनकी अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं। क्योंकि जब बात अपने बच्चों की आती है तो माँ-बाप इस तरह का दृष्टिकोण रखते और बोझ उठाते हैं, इसलिए माँ-बाप इन अलिखित नियमों के अनुसार वे काम करते हैं जो उन्हें करने चाहिए, फिर चाहे वे सही हों या गलत। माँ-बाप इन दृष्टिकोणों को एक प्रकार का दायित्व और एक प्रकार की जिम्मेदारी मानते हुए अपने बच्चों से माँग करते हैं, और साथ ही, इन्हें अपने बच्चों पर थोपते हैं, और इन्हें हासिल करने को उन्हें मजबूर करते हैं। हम अपनी संगति में इस मामले को कई चरणों में विभाजित करेंगे; इस तरह यह और स्पष्ट हो जाएगा।
बच्चों के बालिग होने से पहले ही, माँ-बाप उनके सामने विभिन्न शर्तें रख देते हैं। बेशक, इन विभिन्न शर्तों में, वे उन पर विभिन्न प्रकार की अपेक्षाएँ भी जोड़ देते हैं। तो, जहाँ माँ-बाप अपने बच्चों से विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं, वहीं वे व्यक्तिगत रूप से इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न कीमतें भी चुकाते हैं और विभिन्न प्रकार के रुख अपनाते हैं। इसलिए, बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप उन्हें कई तरीकों से शिक्षित करते हैं, और उनके सामने विभिन्न शर्तें रखते हैं। उदाहरण के लिए, बहुत छोटी-सी उम्र से ही, वे अपने बच्चों से कहते हैं : “तुम्हें अच्छे से पढ़ना होगा और अधिक पढ़ना होगा। अपनी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करके ही तुम बाकी सबसे बेहतर बन सकते हो, और फिर कोई तुम्हें नीची नजरों से नहीं देखेगा।” ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों को सिखाते हैं कि बड़े होने पर उन्हें उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी होगी; वे इस हद तक चले जाते हैं कि बच्चे के सिर्फ दो या तीन साल के होते ही वे उनसे हमेशा पूछने लगते हैं : “बड़े होकर अपने पापा का ख्याल रखोगे न?” और उनके बच्चे कहते हैं : “हाँ।” वे पूछते हैं : “क्या तुम अपनी माँ की देखभाल करोगे?” “हाँ।” “तुम्हें अपने पापा से ज्यादा प्यार है या फिर अपनी माँ से?” “अपने पापा से।” “नहीं, तुम्हें पहले यह कहना है कि तुम अपनी माँ से ज्यादा प्यार करते हो, फिर कहना कि तुम अपने पापा से भी प्यार करते हो।” बच्चे ये बातें अपने माँ-बाप से सीखते हैं। माँ-बाप से शिक्षा चाहे बातों से मिले या उदाहरण से, उनका बच्चों के बाल-मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बेशक, इससे उन्हें एक बुनियादी समझ भी मिलती है, जो उन्हें सिखाती है कि उनके माँ-बाप वे लोग हैं जो उन्हें संसार में सबसे ज्यादा लाड़-प्यार करते हैं, और वे ही वे लोग हैं जिनके प्रति उन्हें सबसे ज्यादा आज्ञाकारिता और संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए। स्वाभाविक रूप से, यह विचार कि “क्योंकि मेरे माँ-बाप संसार में मेरे सबसे करीबी लोग हैं, मुझे हमेशा उनकी बात माननी चाहिए” उनके बाल-मन में बिठा दिया जाता है। साथ ही, उनके बाल-मन में एक और विचार उठता है, जो यह है कि क्योंकि उनके माँ-बाप उनके सबसे करीबी लोग हैं, तो वे जो कुछ भी करेंगे वह यह पक्का करने के लिए होगा कि उनके बच्चे बेहतर जीवन जी सकें। इस वजह से, वे सोचते हैं कि उन्हें अपने माँ-बाप के कार्यकलापों को बिना शर्त स्वीकारना चाहिए; चाहे वे कैसा भी तरीका अपनाएँ, चाहे वे मानवीय हों या अमानवीय, उनका मानना है कि उन्हें स्वीकारना ही चाहिए। जिस उम्र में वे अभी सही-गलत के बीच फर्क करने की क्षमता नहीं रखते, तब उनके माँ-बाप की शिक्षा, शब्दों या उदाहरण के जरिये उनके भीतर इस तरह के विचार पैदा करती है। ऐसे विचार के निर्देशन में, माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सबसे अच्छे की चाह रखने की आड़ में उनसे तमाम काम करवा सकते हैं। भले ही उनमें से कुछ चीजें मानवता या उनके बच्चों की प्रतिभा, काबिलियत या प्राथमिकताओं के अनुरूप न हों, इन परिस्थितियों में, जहाँ बच्चों को अपने हिसाब से या आजादी से काम करने का कोई अधिकार नहीं है, न ही उनके पास अपने माँ-बाप की तथाकथित अपेक्षाओं और माँगों के संबंध में कोई विकल्प होता है, न विरोध करने की क्षमता होती है। उनके पास अपने माँ-बाप की हर बात मानने, उन्हें अपनी मनमानी करने देने, खुद को उनके हवाले कर देने, और अपने माँ-बाप द्वारा किसी भी मार्ग पर चलाए जाने के सिवा और कोई चारा नहीं होता। इसलिए, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप जो कुछ भी करते हैं, चाहे अनजाने में किया हो या अच्छे इरादों से, उन बातों का बच्चों के आचरण और कार्यकलापों पर थोड़ा सा सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा। यानी, उनका हरेक कार्य उनके बच्चों के भीतर विभिन्न विचार और दृष्टिकोण पैदा करेगा, और ये विचार और दृष्टिकोण उनके बच्चों के अवचेतन में गहराई तक दबे हो सकते हैं; इस तरह, बालिग होने के बाद भी ये विचार और दृष्टिकोण, लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्यकलाप, और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को भी गहराई से प्रभावित करते रहते हैं।
बालिग होने से पहले, बच्चों के पास अपने जीवन परिवेश, विरासत या उस शिक्षा का विरोध करने का कोई जरिया नहीं होता जो उनके माँ-बाप उन्हें देते हैं, क्योंकि वे अभी बालिग नहीं हुए हैं और अभी तक चीजों को बहुत अच्छी तरह से नहीं समझते हैं। जब मैं किसी बच्चे के बालिग होने से पहले के समय की बात करता हूँ, तो मेरा मतलब उस समय से है जब बच्चा अपने आप सही-गलत के बीच फर्क नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में, बच्चे खुद को केवल अपने माँ-बाप के रहमो-करम पर छोड़ सकते हैं। इसका सटीक कारण यह है कि बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप ही उनके लिए सारे फैसले लेते हैं, और माँ-बाप, इस बुरे काल के दौरान, अपने बच्चों को कुछ चीजें करने को प्रेरित करने के लिए, सामाजिक प्रवृत्तियों पर आधारित शिक्षा, विचारों और दृष्टिकोण के अनुरूप तरीकों को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, अभी समाज में प्रतिस्पर्धा बहुत भयंकर है। माँ-बाप विभिन्न सामाजिक प्रवृत्तियों के माहौल और मतों से प्रभावित होते हैं, इसलिए वे इस संदेश को स्वीकारते हैं कि प्रतिस्पर्धा भयंकर है, और तुरंत यह विचार अपने बच्चों में भी डाल देते हैं। वे जो स्वीकारते हैं वह यह है कि समाज में प्रतिस्पर्धा की घटना और प्रवृत्ति बहुत भयंकर है, और जो महसूस करते हैं वह एक प्रकार का दबाव है। जब वे यह दबाव महसूस करते हैं, तो तुरंत अपने बच्चों के बारे में सोचते और कहते हैं : “आजकल समाज में प्रतिस्पर्धा बहुत भयंकर है, जब हम छोटे थे तब ऐसा नहीं था। अगर हमारे बच्चे हमारी तरह ही पढ़ें, काम करें, और समाज और विभिन्न लोगों और चीजों के प्रति वही रुख अपनाएँ जैसे हमने रखे थे, तो उन्हें जल्दी ही समाज से निकाल दिया जाएगा। तो, हमें उनके छोटे होने का फायदा उठाकर अभी से उन पर काम शुरू करना होगा—हम अपने बच्चों को शुरुआत में ही हारने नहीं दे सकते।” आजकल समाज में भयंकर प्रतिस्पर्धा है, और सभी लोग अपने बच्चों से बहुत उम्मीदें लगाए बैठे हैं, तो वे समाज से स्वीकार किए गए इस तरह के दबाव को फौरन अपने बच्चों पर थोप देते हैं। अब, क्या उनके बच्चों को इसकी भनक है? क्योंकि वे अभी बालिग नहीं हुए हैं, तो उन्हें इसकी जरा भी भनक नहीं है। वे नहीं जानते कि माँ-बाप द्वारा डाला गया यह दबाव सही है या गलत, या उन्हें इसे ठुकरा देना चाहिए या स्वीकार लेना चाहिए। जब माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसा व्यवहार करते देखते हैं, तो वे उन्हें डाँटते हैं : “तुम इतने मूर्ख कैसे हो सकते हो? इस वक्त समाज में प्रतिस्पर्धा इतनी भयंकर है, और फिर भी तुम्हें कुछ पल्ले नहीं पड़ता। जल्दी किंडरगार्टन जाओ!” बच्चे किस उम्र में किंडरगार्टन जाना शुरू करते हैं? कुछ तीन या चार साल की उम्र में शुरू करते हैं। ऐसा क्यों? इस वक्त समाज में एक मुहावरा काफी चल रहा है : तुम अपने बच्चों को शुरुआत में ही हारने नहीं दे सकते, शिक्षा बहुत कम उम्र से शुरू होनी चाहिए। देखा, बहुत छोटे बच्चे पीड़ित होते हैं, और तीन या चार साल की उम्र में किंडरगार्टन जाना शुरू कर देते हैं। और लोग कैसा किंडरगार्टन चुनते हैं? सामान्य किंडरगार्टन में, शिक्षक अक्सर बच्चों के साथ “बाज और मुर्गी” जैसे खेल खेलते हैं, तो माँ-बाप सोचते हैं कि वे ऐसा किंडरगार्टन नहीं चुन सकते। उनका मानना है कि उन्हें एक हाई-फाई, दुभाषिया किंडरगार्टन चुनना होगा। और, उनके लिए, बस एक भाषा सीखना काफी नहीं है। जिस उम्र में बच्चे अपनी मातृभाषा तक अच्छे से नहीं बोल पाते, तब ही उन्हें दूसरी भाषा सीखनी पड़ती है। क्या यह बच्चों का जीवन मुश्किल बनाना नहीं है? मगर माँ-बाप क्या कहते हैं? “हम अपने बच्चे को शुरुआत में ही हारने नहीं दे सकते। आजकल एक साल तक के बच्चों को भी घर पर दाई माँ पढ़ाती है। बच्चों के माँ-बाप अपनी मातृभाषा बोलते हैं, और दाई माँ दूसरी भाषा बोलती है, बच्चों को अंग्रेजी, स्पेनिश या पुर्तगाली सिखाती है। हमारा बच्चा चार साल का हो चुका है, वह पहले ही थोड़ा बड़ा हो चुका है। अगर हमने उसे अभी से पढ़ाना शुरू नहीं किया तो बहुत देर हो जाएगी। हमें जल्द-से-जल्द उसकी पढ़ाई शुरू करनी होगी, और एक ऐसा किंडरगार्टन ढूँढ़ना होगा जो दो भाषाओं में पढ़ाता हो, जहाँ शिक्षकों के पास बैचलर और मास्टर की डिग्री हो।” लोग कहते हैं : “ऐसे स्कूल बहुत महंगे होते हैं।” वे जवाब देते हैं : “कोई बात नहीं। हमारा घर बड़ा है; हम एक छोटे घर में जा सकते हैं। हम अपना तीन-बेडरूम वाला घर बेच कर दो-बेडरूम वाला घर ले लेंगे। हम उस पैसे को बचाकर उसका इस्तेमाल अपने बच्चे को हाई-फाई किंडरगार्टन भेजने के लिए करेंगे।” एक अच्छा किंडरगार्टन चुन लेना ही काफी नहीं है, वे सोचते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को खाली समय में गणित के ओलंपियाड की पढ़ाई में मदद करने के लिए शिक्षक रखने होंगे। भले ही उनके बच्चों को इसके लिए पढ़ना बिल्कुल नापसंद हो, फिर भी उन्हें यह करना पड़ता है, और अगर वे इसे नहीं पढ़ पाते तो उन्हें डांस सीखना होगा। अगर वे डांस में अच्छे नहीं हैं, तो गाना सीखेंगे। अगर वे गाने में अच्छे नहीं हैं, और उनके माँ-बाप देखते हैं कि उनके पास एक अच्छा डील-डौल और लंबे हाथ-पैर हैं, तो वे सोचेंगे कि शायद वे एक मॉडल बन सकते हैं। फिर वे उन्हें मॉडलिंग सीखने के लिए आर्ट स्कूल भेजेंगे। इस तरह, बच्चों को चार या पाँच साल की उम्र में बोर्डिंग स्कूलों में भेजना शुरू हो जाता है, और उनके परिवारों के घर तीन-बेडरूम से दो-बेडरूम वाले घरों में, दो-बेडरूम वाले घरों से एक-बेडरूम वाले घरों में, और एक-बेडरूम वाले घर से किराये के मकान में बदल जाते हैं। उनके बच्चे स्कूल के बाहर जो ट्यूशन लेते हैं, उनकी संख्या बढ़ती जाती है, और उनके घर छोटे होते जाते हैं। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो अपने पूरे परिवार को दक्षिण से उत्तर, और उत्तर से दक्षिण करते रहते हैं, ताकि उनके बच्चे बढ़िया स्कूलों में पढ़ सकें, और अंत में, उन्हें नहीं पता होता कि जाना कहाँ है, उनके बच्चे नहीं जानते कि उनका अपना शहर कहाँ है, सब गड़बड़ हो जाता है। माँ-बाप अपने बच्चों के भविष्य की खातिर उनके बालिग होने से पहले कई कीमतें चुकाते हैं, ताकि उनके बच्चे शुरुआत में ही हार न जाएँ, वे तेजी से बढ़ती प्रतिस्पर्धा वाले इस समाज के अनुकूल बन सकें, और बाद में एक अच्छी नौकरी पा सकें, जहाँ से उन्हें लगातार पगार मिलती रहे। कुछ माँ-बाप बहुत सक्षम होते हैं, बड़े कारोबार चलाते हैं या ऊँचे पदाधिकारी होते हैं, और वे अपने बच्चों में भारी-भरकम पैसा लगाते हैं। कुछ माँ-बाप इतने सक्षम नहीं होते, पर दूसरों की तरह ही, वे अपने बच्चों को विभिन्न भाषाएँ और संगीत सीखने के लिए हाई-फाई स्कूलों, स्कूल के बाद वाले क्लास, डांस क्लास, आर्ट क्लास वगैरह में भेजना चाहते हैं, जिससे उनके बच्चों पर बहुत दबाव बनता है और उन्हें कष्ट सहना पड़ता है। उनके बच्चे सोचते हैं : “मुझे थोड़ा खेलने की अनुमति कब मिलेगी? मैं कब बड़ा होकर बड़ों की तरह अपने फैसले खुद ले पाऊँगा? कब मुझे बड़ों की तरह स्कूल नहीं जाना पड़ेगा? मैं कब थोड़ा टीवी देख पाऊँगा, दिमाग को शांत कर पाऊँगा, और अपने माँ-बाप की देखरेख के बिना, अकेले कहीं घूमने जा सकूँगा?” मगर उनके माँ-बाप अक्सर कहते हैं : “अगर तुम पढ़ाई नहीं करोगे तो तुम्हें भविष्य में अपना पेट भरने के लिए भीख माँगनी होगी। देखो तुममें कितनी थोड़ी प्रतिभा है! अभी तुम्हारे खेलने-कूदने का समय नहीं है, तुम बड़े होकर खेल सकते हो! पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब; अगर तुम बाद में खेलते हो, तो तुम और भी ज्यादा मस्ती कर सकते हो, पूरी दुनिया घूम सकते हो। क्या तुमने संसार के उन सभी अमीर लोगों को नहीं देखा है—क्या वे बचपन में खेलते थे? वे बस पढ़ाई करते थे।” उनके माँ-बाप उनसे सिर्फ झूठ बोलते हैं। क्या उनके माँ-बाप ने अपनी आँखों से देखा कि वे अमीर लोग सिर्फ पढ़ते थे, कभी खेलते नहीं थे? क्या यह बात उनके पल्ले पड़ती है? दुनिया के कुछ अमीर और धनी लोग कभी यूनिवर्सिटी नहीं गए—यह सच है। कभी-कभी जब माँ-बाप बोलते हैं, तो वे बस अपने बच्चों को बरगला रहे होते हैं। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप उनके भविष्य को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने, अपने बच्चों को काबू में रखने और उनसे बात मनवाने के लिए हर तरह के झूठ बोलते हैं। बेशक, वे सभी तरह के कष्ट भी सहते हैं और इसके लिए सभी प्रकार की कीमतें चुकाते हैं। यह “माँ-बाप का तथाकथित सराहनीय प्रेम” है।
अपने बच्चों से अपनी अपेक्षाएँ पूरी करवाने के लिए, माँ-बाप उनसे कई उम्मीदें लगा बैठते हैं। इस तरह, वे न सिर्फ अपने बच्चों को अपनी बातों से शिक्षित करते, मार्गदर्शन देते और प्रभावित करते हैं, बल्कि उन्हें नियंत्रित करने, उनसे अपनी बात मनवाने के लिए ठोस कदम भी उठाते हैं जिससे कि उनके बच्चे उनके द्वारा निर्धारित पथ और उनके द्वारा स्थापित निर्देशन के अनुसार काम करें और जिएँ। चाहे उनके बच्चे ऐसा करने को तैयार हों या नहीं, आखिर में माँ-बाप बस एक ही बात कहते हैं : “अगर तुम मेरी बात नहीं सुनोगे, तो बाद में पछताओगे! अगर तुम मेरी बात न मानकर अभी अपनी पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेते हो और एक दिन तुम्हें पछतावा होता है, तो मेरे पास मत आना, यह मत कहना कि मैंने तुम्हें सावधान नहीं किया था!” एक बार, हम किसी काम से एक इमारत में गए, और देखा कि कुछ मूवर्स कुछ सामान सीढ़ियों से ऊपर ले जाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे थे। उनका सामना एक माँ से हुआ जो अपने बेटे को सीढ़ियों से नीचे ले जा रही थी। अगर कोई सामान्य व्यक्ति यह नजारा देखता, तो कहता : “वहाँ से लोग सामान ले जा रहे हैं, उनके रास्ते से हट जाते हैं।” नीचे जाने वाले लोगों को बिना किसी चीज से टकराए या मूवर्स को परेशान किए बिना, रास्ते से जल्दी हटना पड़ता। मगर जब उस माँ ने यह नजारा देखा, तो वह मौके का फायदा उठाते हुए परिस्थिति के हिसाब से ज्ञान देने लगी। मुझे अब तक साफ-साफ याद है कि उसने क्या कहा था। क्या कहा था? उसने कहा : “देखो ये लोग जो सामान ले जा रहे हैं कितना भारी है, और यह काम कितना थकाऊ है। जब वे बच्चे थे तो उन्होंने अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया, और अब अच्छी नौकरी नहीं मिल रही है, तो उन्हें सामान उठाने का कड़ी मेहनत वाला काम करना पड़ता है। देख रहे हो न?” बेटे को शायद यह बात थोड़ी-बहुत समझ आई, और लगा कि उसकी माँ ने जो कुछ कहा वह सही था। उसकी आँखों में भय, आतंक और विश्वास की एक सच्ची अभिव्यक्ति दिखाई दी, और उसने फिर से मूवर्स की ओर देखते हुए अपना सिर हिलाया। माँ ने इस मौके का फायदा उठाया और अपने बेटे को भाषण देते हुए कहा : “देख रहे हो? अगर तुम छोटी उम्र में अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दोगे, तो बड़े होने के बाद, तुम्हें अपना पेट पालने के लिए सामान उठाने जैसा कड़ी मेहनत वाला काम करना होगा।” क्या ये बातें सही थीं? (नहीं।) वे किस लिहाज से गलत थीं? यह माँ अपने बेटे को भाषण देने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी—तुम्हें क्या लगता है, यह सुनने के बाद उसके बेटे की मानसिकता क्या रही होगी? क्या वह यह सब समझने में सक्षम था कि ये बातें सही थीं या गलत? (नहीं।) तो, उसने क्या सोचा होगा? (“अगर मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दूँगा, तो मुझे भविष्य में इसी तरह बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।”) उसने सोचा होगा : “अरे नहीं, जिन लोगों को वाकई कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, उन्होंने पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया होगा। मुझे अपनी माँ की बात मानकर पढ़ाई में अच्छा करना होगा। मेरी माँ ने सही कहा, जो कोई भी पढ़ाई नहीं करता उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती है।” अपनी माँ से मिले विचार उसके दिल में जीवन भर की सच्चाई बन जाते हैं। अब बताओ, क्या यह माँ बेवकूफ नहीं है? (बिल्कुल है।) वह बेवकूफ कैसे है? अगर वह इस मामले का उपयोग अपने बेटे को पढ़ाई के लिए मजबूर करने के लिए करती है, तो क्या उसका बेटा सचमुच कुछ हासिल करेगा? क्या इससे यह गारंटी मिलेगी कि उसे भविष्य में कड़ी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी या पसीना नहीं बहाना पड़ेगा? क्या उसका इस मामले, इस वाकये का इस्तेमाल अपने बेटे को डराने के लिए करना अच्छी बात है? (यह बुरी बात है।) इसकी काली छाया उसके बेटे पर आजीवन बनी रहेगी। यह अच्छी बात नहीं है। बड़े होने पर इस बच्चे में थोड़ी-सी समझ आ भी जाए, तब भी इस विचार को हटाना मुश्किल होगा जो उसकी माँ ने उसके दिल और उसके अवचेतन में डाला है। कुछ हद तक, यह उसके विचारों को गुमराह करेगा और बाँध देगा, और चीजों पर उसके विचारों को एकतरफा बना देगा। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की ज्यादातर अपेक्षाएँ यही होती हैं कि वे खूब पढ़ाई करें, कड़ी मेहनत कर सकें, मेहनती बनें और उनकी अपेक्षाओं से कहीं कम न रहें। इसलिए, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े, माँ-बाप उनके लिए सब कुछ करते हैं, वे अपनी जवानी, साल और वक्त के साथ ही अपने स्वास्थ्य और अपने सामान्य जीवन को भी त्याग देते हैं, और कुछ माँ-बाप तो अपने बच्चों को शिक्षित करने और स्कूल जाने के दौरान उनकी पढ़ाई में मदद करने के लिए, अपनी नौकरियाँ, अपनी पुरानी आकांक्षाएँ या अपनी आस्था तक त्याग देते हैं। कलीसिया में, ऐसे कई लोग हैं जो अपना सारा समय अपने बच्चों के साथ बिताते हैं, उन्हें शिक्षित करते हैं, ताकि उनके बच्चे उनकी छाया में बड़े हों, वे अपने करियर में सफल हों और भविष्य में स्थायी नौकरियाँ पा सकें, और ताकि उनके बच्चों के काम में चीजें सुचारु रूप से चलती रहें। ये माँ-बाप सभाओं में नहीं जाते या कर्तव्य नहीं निभाते। उनके दिलों में अपनी आस्था को लेकर कुछ मांगें होती हैं, और उनमें थोड़ा संकल्प और महत्वाकांक्षा होती है, मगर क्योंकि वे अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को नहीं त्याग सकते, इसलिए वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों और अपनी आस्था से जुड़े अनुसरणों को त्यागकर, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले की इस अवधि में उनके साथ रहना चुनते हैं। ये सबसे दुखद बात है। कुछ माँ-बाप अपने बच्चों को अभिनेता, कलाकार, लेखक या वैज्ञानिक बनाने के लिए प्रशिक्षित करने और उन्हें अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम बनाने के लिए कई कीमतें चुकाते हैं। वे अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं, अपना करियर छोड़ देते हैं, और इतना ही नहीं, अपने बच्चों का साथ देने के लिए वे अपने सपनों और खुशियों को भी त्याग देते हैं। ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों के लिए अपना वैवाहिक जीवन त्याग देते हैं। तलाक लेने के बाद, वे अपने बच्चों को अकेले पालने-पोसने और प्रशिक्षित करने का बोझ उठाते हैं, अपना सारा जीवन अपने बच्चों की खातिर दाँव पर लगा देते हैं, और अपने बच्चों का भविष्य बनाने में उसे समर्पित कर देते हैं, सिर्फ इसलिए ताकि वे अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। कुछ माँ-बाप ऐसे भी होते हैं जो ऐसी कई चीजें करते हैं जो उन्हें नहीं करनी चाहिए, जो कई अनावश्यक कीमतें चुकाते हैं, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले अपना समय, शारीरिक स्वास्थ्य और अनुसरणों को त्याग देते हैं, ताकि उनके बच्चे भविष्य में आगे बढ़कर संसार और समाज में अपनी पहचान बना सकें। एक ओर, माँ-बाप के लिए, ये कुछ अनावश्यक त्याग हैं। वहीं दूसरी ओर, ऐसे रुख अपनाने से बच्चों के बालिग होने से पहले उन पर भारी दबाव और बोझ पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके माँ-बाप ने बहुत सारी कीमतें चुकाई हैं, क्योंकि चाहे पैसे की बात हो, या समय या ऊर्जा की, उनके माँ-बाप ने बहुत ज्यादा खर्च किया है। लेकिन, इन बच्चों के बालिग होने से पहले और जब उनमें अभी भी सही-गलत को समझने की क्षमता नहीं होती है, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता; वे अपने माँ-बाप को इस तरह का व्यवहार करने से नहीं रोक सकते हैं। भले ही उनके मन की गहराई में कुछ विचार हों, फिर भी वे अपने माँ-बाप के क्रियाकलापों के अनुसार ही चलते हैं। इन परिस्थितियों में, अतिसूक्ष्म रूप से बच्चे यह सोचने लगते हैं कि उनके माँ-बाप ने उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है कि वे इस जीवन में अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने या उनके योगदान की भरपाई करने में सक्षम नहीं होंगे। इस वजह से, जब उनके माँ-बाप उन्हें प्रशिक्षित कर रहे होते हैं और उनका साथ दे रहे होते हैं, तो वे सोचते हैं कि अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने के लिए वे बस इतना ही कर सकते हैं कि उन्हें खुश रखें, उन्हें संतुष्ट करने के लिए बड़ी उपलब्धि हासिल करें, और उन्हें निराश न करें। जहाँ तक माँ-बाप की बात है, इस दौरान अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, इन कीमतों को चुकाने के बाद, जैसे-जैसे अपने बच्चों के लिए उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती जाती हैं, उनकी मानसिकता धीरे-धीरे उनके बच्चों के सामने अपनी माँग रखने में बदल जाती है। यानी, माँ-बाप द्वारा इन तथाकथित कीमतों को चुकाने और खुद को खपाने के बाद, वे अपने बच्चों से यह माँग करते हैं कि उन्हें सफल होना ही पड़ेगा, और उनका ऋण चुकाने के लिए बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करनी ही होंगी। इसलिए, चाहे हम इसे माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य से देख रहे हों या एक बच्चे के परिप्रेक्ष्य से, “किसी के लिए खुद को खपाने” और “अपनी खातिर किसी और के खपने” के इस संबंध में, माँ-बाप की अपने बच्चों से की गई अपेक्षाएँ निरंतर बढ़ती जाती हैं। यह कहना सही होगा कि “उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती ही जाती हैं।” दरअसल, माँ-बाप को अपने दिल की गहराई में यही लगता है कि जितना ज्यादा वे खुद को खपाते और त्याग करते हैं, उतना ही उनके बच्चों को कामयाब होकर उनका ऋण चुकाना चाहिए, और साथ ही, उनके बच्चे उनके उतने ही ऋणी हैं। माँ-बाप जितना ज्यादा खुद को खपाते, और जितनी ज्यादा आशाएँ रखते हैं, उनकी अपेक्षाएँ उतनी ही बड़ी हो जाती हैं, और अपने बच्चों द्वारा उनका ऋण चुकाने को लेकर उनकी अपेक्षाएँ उतनी ही बढ़ जाती हैं। माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे जो अपेक्षाएँ रखते हैं, “उन्हें बहुत सी चीजें सीखनी होंगी, वे शुरुआत में ही हार नहीं सकते” से लेकर “बड़े होने के बाद, उन्हें संसार में आगे बढ़ना होगा, और समाज में अपनी पहचान बनानी होगी,” तक, यह सब धीरे-धीरे एक तरह की माँग बन जाती है जो वे अपने बच्चों से करते हैं। वह माँग है : बड़े होकर समाज में अपनी पहचान बनाने के बाद, तुम अपनी जड़ों को मत भूलना, अपने माँ-बाप को मत भूलना, तुम्हें सबसे पहले अपने माँ-बाप का ऋण चुकाना होगा, तुम्हें उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी होगी, और एक अच्छा जीवन जीने में उनकी मदद करनी होगी, क्योंकि वे इस संसार में तुम्हारे हितकारी हैं, उन्होंने ही तुम्हें प्रशिक्षित किया है; आज समाज में तुम्हारी जो पहचान है, साथ ही वह सब कुछ जिसका तुम आनंद लेते हो, और वह सब जो तुम्हारे पास है, तुम्हारे माँ-बाप के कठिन प्रयासों का फल है, तो तुम्हें अपना बाकी जीवन उनका ऋण चुकाने, उनके योगदान की भरपाई करने और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने में बिताना चाहिए। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की उनसे जो अपेक्षाएँ होती हैं—कि उनके बच्चे समाज में अपनी पहचान बनाएँगे और संसार में आगे बढ़ेंगे—धीरे-धीरे माँ-बाप की एक बहुत ही सामान्य अपेक्षा से एक प्रकार की माँग और आग्रह में बदल जाती है जो माँ-बाप अपने बच्चों से करते हैं। मान लो कि बालिग होने से पहले की अवधि में, उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड नहीं मिलते; मान लो कि वे विद्रोह करते हैं, पढ़ाई नहीं करना चाहते या अपने माँ-बाप की आज्ञा मानना नहीं चाहते, और वे उनकी अवहेलना करते हैं। उनके माँ-बाप कहेंगे : “तुम्हें मेरा जीवन आसान लगता है क्या? तुम्हें क्या लगता है मैं यह सब किसके लिए कर रहा हूँ? मैं यह तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूँ, है न? मैं जो कुछ भी करता हूँ वह तुम्हारे लिए है, और तुम इसकी सराहना नहीं करते। तुम निहायत ही बेवकूफ हो क्या?” वे अपने बच्चों को डराने और उन्हें बंधक बनाने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। क्या इस तरह का रुख अपनाना सही है? (नहीं।) यह सही नहीं है। माँ-बाप का यह “शरीफ” रूप उनका सबसे घृणित रूप भी है। इन बातों में गलत क्या है? (माँ-बाप का अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखना और अपने बच्चों को प्रशिक्षित करना एकतरफा प्रयास है। वे अपने बच्चों को फलाँ-फलाँ चीजें पढ़ने के लिए मजबूर करते हुए उन पर दबाव डालते हैं, ताकि उनका भविष्य अच्छा हो, वे अपने माँ-बाप का सिर ऊँचा करें, और भविष्य में उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँ। वास्तव में, माँ-बाप जो कुछ भी करते हैं वह अपने लिए ही करते हैं।) अगर हम इस तथ्य को अलग रख दें कि माँ-बाप खुदगर्ज और स्वार्थी हैं, और सिर्फ उन विचारों के बारे में बात करें जिन्हें वे अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनके मन में डालते हैं, उन पर जो दबाव बनाते हैं, अपने बच्चों से यह उम्मीद करते हैं कि वे फलाँ-फलाँ विषय पढ़ें, बड़े होने के बाद फलाँ-फलाँ क्षेत्र में करियर बनाएँ, और अमुक-अमुक कामयाबी हासिल करें—इन रुखों की प्रकृति क्या है? फिलहाल, हम यह आकलन नहीं करेंगे कि माँ-बाप ये चीजें क्यों कर रहे हैं, या ये रुख उचित हैं या नहीं। हम पहले इन रुखों की प्रकृति पर संगति करके उनका गहन-विश्लेषण करेंगे, और उनके सार के हमारे गहन-विश्लेषण के आधार पर अभ्यास का अधिक सटीक मार्ग खोजेंगे। अगर हम संगति करके उस परिप्रेक्ष्य से सत्य के इस पहलू को समझें, तो यह सटीक होगा।
पहली बात, माँ-बाप अपने बच्चों के संबंध में जो शर्तें रखते हैं और जिस तरह का रुख अपनाते हैं, वे सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) आखिर जब बात माँ-बाप के अपने बच्चों के प्रति ऐसे रुख अपनाने की आती है, तो इसमें समस्या की जड़ कहाँ है? क्या यह माँ-बाप की अपने बच्चों से की गई अपेक्षाएँ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना के भीतर, वे अपने बच्चों के भविष्य के लिए कई चीजों की परिकल्पना करते हैं, उनके लिए योजना बनाते हैं और उन्हें निर्धारित करते हैं, और इसलिए, उनकी ऐसी अपेक्षाएँ होती हैं। इन अपेक्षाओं के दबाव में, माँ-बाप अपने बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वे विभिन्न प्रकार के कौशल सीखें, थिएटर और डांस या आर्ट वगैरह की पढ़ाई करें। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली व्यक्ति बनें, और वे दूसरों से वरिष्ठ बनें, न कि मातहत। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऊँचे पदाधिकारी बनें, कोई मामूली सैनिक नहीं; उनकी उम्मीद है कि उनके बच्चे प्रबंधक, सीईओ और अधिकारी बनें, दुनिया की सबसे बड़ी 500 कंपनियों में से किसी के लिए काम करें। ये सभी माँ-बाप के व्यक्तिपरक विचार हैं। अब क्या बच्चों को बालिग होने से पहले अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं के बारे में थोड़ा भी अंदाजा होता है? (नहीं।) उन्हें इन चीजों का बिल्कुल भी कोई अंदाजा नहीं होता, वे उन्हें नहीं समझते हैं। फिर छोटे बच्चे क्या समझते हैं? उन्हें बस पढ़ना सीखने के लिए स्कूल जाना, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करना और अच्छे, शिष्ट व्यवहार वाले बच्चे बनना समझ आता है। ये अपने आप में बहुत अच्छी बात है। निर्धारित टाइम-टेबल के हिसाब से क्लास लेने के लिए स्कूल जाना और अपना होमवर्क पूरा करने के लिए घर आना—बच्चे बस यही चीजें समझते हैं, बाकी सिर्फ खेलना, खाना, कल्पनाएँ करना, सपने देखना वगैरह हैं। बालिग होने से पहले, बच्चों को अपने जीवन के मार्ग में आने वाली अज्ञात चीजों के बारे में कोई अंदाजा नहीं होता, और वे उनके बारे में कुछ सोचते भी नहीं हैं। इन बच्चों के बालिग होने के बाद के समय के लिए जिन चीजों की कल्पना की जाती या जिन्हें निर्धारित किया जाता है वे सब उनके माँ-बाप से आते हैं। इसलिए, माँ-बाप की अपने बच्चों से जो गलत अपेक्षाएँ होती हैं, उनका उनके बच्चों से कोई लेना-देना नहीं होता है। बच्चों को बस अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं का सार समझने की आवश्यकता है। माँ-बाप की ये अपेक्षाएँ किस चीज पर आधारित हैं? वे कहाँ से आती हैं? वे समाज और संसार से आती हैं। माँ-बाप की इन सभी अपेक्षाओं का उद्देश्य बच्चों को इस संसार और समाज के अनुकूल होने में सक्षम बनाना है, ताकि वे संसार या समाज द्वारा निकाले जाने से बच सकें और समाज में अपना पैर जमाते हुए एक सुरक्षित नौकरी, एक स्थिर परिवार और एक स्थिर भविष्य पा सकें; इसलिए, माँ-बाप अपने बच्चों से विभिन्न व्यक्तिपरक अपेक्षाएँ रखते हैं। उदाहरण के लिए, अभी कंप्यूटर इंजीनियर बनना काफी फैशन में है। कुछ लोग कहते हैं : “मेरा बच्चा भविष्य में कंप्यूटर इंजीनियर बनेगा। कंप्यूटर इंजीनियरिंग करके और पूरे दिन कंप्यूटर लेकर घूमते हुए, इस क्षेत्र में वे बहुत सारे पैसे कमा सकते हैं। इससे मेरा भी नाम रौशन होगा!” इन परिस्थितियों में, जहाँ बच्चों को किसी भी चीज का कोई अंदाजा नहीं होता, उनके माँ-बाप उनका भविष्य तय कर देते हैं। क्या यह गलत नहीं है? (गलत है।) उनके माँ-बाप अपने बच्चों पर पूरी तरह से एक बड़े और समझदार व्यक्ति के नजरिये से चीजों को देखने के साथ-साथ संसार के मामलों में किसी बालिग व्यक्ति के विचारों, परिप्रेक्ष्यों और प्राथमिकताओं के आधार पर उम्मीदें लगा रहे हैं। क्या यह व्यक्तिपरक सोच नहीं है? (बिल्कुल है।) शिष्ट शब्दों में कहें, तो इसे व्यक्तिपरक कहना सही होगा, पर यह वाकई में क्या है? इस व्यक्तिपरकता की दूसरी व्याख्या क्या है? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह जबरदस्ती नहीं है? (बिल्कुल है।) तुम्हें अमुक-अमुक नौकरी और अमुक-अमुक करियर पसंद है, तुम्हें अपनी पहचान बनाना, आलीशान जीवन जीना, एक अधिकारी के रूप में काम करना या समाज में अमीर आदमी बनना पसंद है, तो तुम अपने बच्चों से भी ये चीजें कराते हो, उन्हें भी ऐसे व्यक्ति बनाते हो, और इसी मार्ग पर चलाते हो—पर क्या वे भविष्य में उस माहौल में रहना और उस काम में शामिल होना पसंद करेंगे? क्या वे इसके लिए उपयुक्त हैं? उनकी नियति क्या हैं? उनको लेकर परमेश्वर की व्यवस्थाएँ और फैसले क्या हैं? क्या तुम्हें ये बातें पता हैं? कुछ लोग कहते हैं : “मुझे उन चीजों की परवाह नहीं है, मायने रखती हैं वे चीजें जो मुझे, उनके माँ-बाप होने के नाते पसंद हैं। मैं अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर उनसे उम्मीदें लगाऊँगा।” क्या यह बहुत स्वार्थी बनना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बहुत स्वार्थी बनना है! शिष्ट भाषा में कहें, तो यह बहुत ही व्यक्तिपरक है, इसे सभी फैसले खुद लेना कहेंगे, पर वास्तव में यह है क्या? यह बहुत स्वार्थी होना है! ये माँ-बाप अपने बच्चों की काबिलियत या प्रतिभाओं पर विचार नहीं करते, वे उन व्यवस्थाओं की परवाह नहीं करते जो परमेश्वर ने हरेक व्यक्ति के भाग्य और जीवन के लिए बनाई हैं। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते हैं, वे बस अपनी मनमर्जी से अपनी प्राथमिकताओं, इरादों और योजनाओं को अपने बच्चों पर थोपते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे अपने बच्चों से ये चीजें करवानी ही होंगी। वे उन चीजों को समझने के लिए अभी बहुत छोटे हैं, और जब तक वे उन्हें समझेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।” क्या ऐसा ही है? (नहीं।) अगर सचमुच बहुत देर हो जाती है, तो यह उनका भाग्य है, यह उनके माँ-बाप की जिम्मेदारी नहीं है। अगर तुम अपना ज्ञान अपने बच्चों पर थोपोगे, तो क्या वे उन्हें सिर्फ इसलिए जल्दी समझ लेंगे क्योंकि तुम उन्हें समझते हो? (नहीं।) माँ-बाप अपने बच्चों को कैसे शिक्षित करते हैं और वे बच्चे कब यह समझने लगते हैं कि उन्हें जीवन में किस प्रकार का मार्ग चुनना है, किस प्रकार का करियर चुनना है और उनका जीवन कैसा होगा, इन चीजों के बीच कोई संबंध नहीं है। उनके अपने मार्ग, अपनी रफ्तार और अपने नियम हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो चाहे उनके माँ-बाप उन्हें कैसे भी शिक्षित करें, समाज के बारे में उनका ज्ञान बिल्कुल कोरा होता है। जब उनकी मानवता परिपक्व होगी, तो वे खुद ही समाज की प्रतिस्पर्धा, जटिलता, अंधेरे के साथ-साथ समाज की विभिन्न अनुचित चीजों को महसूस करेंगे। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो माँ-बाप अपने बच्चों को छोटी उम्र से सिखा सकें। भले ही माँ-बाप अपने बच्चों को छोटी उम्र से सिखाएँ कि, “लोगों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें उन्हें सब कुछ नहीं बताना चाहिए,” वे इसे सिर्फ एक तरह का धर्म-सिद्धांत मानकर चलेंगे। वे अपने माँ-बाप की सलाह के आधार पर तभी सही मायने में कार्य करने में सक्षम होंगे, जब वे इसे पूरी तरह से समझ लेंगे। जब वे अपने माँ-बाप की सलाह को नहीं समझते, तो चाहे उनके माँ-बाप उन्हें कितना भी सिखाने की कोशिश कर लें, यह उनके लिए बस एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत ही होगा। इसलिए, माँ-बाप का यह विचार है कि “दुनिया बहुत प्रतिस्पर्धी है, और लोग बहुत दबाव में जीते हैं; अगर मैंने अपने बच्चों को छोटी-सी उम्र से सिखाना शुरू नहीं किया, तो उन्हें भविष्य में कष्ट और पीड़ा सहनी पड़ेगी,” क्या यह तर्कसंगत है? (नहीं।) तुम अपने बच्चों पर शुरू से ही यह दबाव बना रहे हो ताकि उन्हें भविष्य में कम कष्ट सहना पड़े, और ऐसा करने में उन्हें उसी उम्र से उस दबाव को सहना होगा जहाँ उन्हें अभी कुछ समझ भी नहीं आता—ऐसा करके, क्या तुम बच्चों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? क्या तुम सचमुच उनके भले के लिए ऐसा कर रहे हो? उनका इन बातों को न समझना ही बेहतर है, इस तरह वे कुछ बरस सहज, सुखी, शुद्ध और सरल ढंग से जी सकेंगे। अगर वे उन चीजों को जल्दी समझ लें, तो क्या यह एक वरदान होगा या दुर्भाग्य? (यह दुर्भाग्य होगा।) हाँ, यह दुर्भाग्य ही होगा।
लोगों को किस उम्र में क्या करना चाहिए, यह उनकी उम्र और मानवता की परिपक्वता पर निर्भर करता है, न कि उनके माँ-बाप से मिली शिक्षा पर। बालिग होने से पहले, बच्चों को बस खेलना, कुछ साधारण ज्ञान हासिल करना और थोड़ी बुनियादी स्कूली शिक्षा लेनी चाहिए और अलग-अलग चीजें सीखनी चाहिए; उन्हें यह सीखना चाहिए कि दूसरे बच्चों के साथ कैसे बातचीत करें और बड़ों के साथ कैसे पेश आएँ, और अपने आस-पास की उन चीजों से कैसे निपटें जो उनके पल्ले नहीं पड़ती हैं। बालिग होने से पहले लोगों को बच्चों वाली चीजें ही करनी चाहिए। उन्हें ऐसा कोई भी दबाव, खेल के नियम या जटिल चीजें नहीं झेलनी चाहिए जो बड़ों को झेलने पड़ते हैं। ऐसी चीजें उन लोगों को मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुँचाती हैं जो अभी बालिग नहीं हुए हैं, और ये चीजें वरदान नहीं हैं। जितनी जल्दी बच्चे इन बड़े लोगों वाले मामलों के बारे में सीखेंगे, उनके बाल-मन को उतना ही बड़ा झटका लगेगा। ये चीजें बड़े होने के बाद लोगों के जीवन या अस्तित्व में बिल्कुल भी मदद नहीं करेंगी; इसके उलट, क्योंकि वे इन चीजों के बारे में बहुत जल्दी जान लेते हैं या उनका सामना कर लेते हैं, तो ये चीजें उन पर एक तरह का बोझ या उनके बाल-मन पर एक अदृश्य छाया बन जाती हैं, इस हद तक कि ये उन्हें जीवन भर परेशान कर सकती हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब लोग बहुत छोटे होते हैं, अगर वे किसी भयानक चीज के बारे में सुन लें, कुछ ऐसा जिसे वे स्वीकार नहीं कर सकते, बड़े लोगों वाली ऐसी बात जिसके बारे में वे कभी कल्पना तक नहीं कर सकते या समझ ही नहीं सकते, तो वह दृश्य या वह मुद्दा, या यहाँ तक कि इसमें शामिल लोग, चीजें और बातें, सभी जीवन भर उनका पीछा करती रहेंगी। इससे उन पर एक प्रकार की छाया पड़ेगी, जिससे उनके व्यक्तित्व और जीवन में उनके आचरण के तरीकों पर प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए, छह या सात साल की उम्र में बच्चे थोड़े शरारती होते हैं। मान लो कि किसी बच्चे को कक्षा के दौरान अपने सहपाठी से गप्पें लड़ाने के लिए अपने शिक्षक से डांट पड़ती है, और शिक्षक उसे बस कक्षा में गप्पे लड़ाने के लिए ही नहीं डांटता, बल्कि उस पर व्यक्तिगत रूप से हमला करते हुए उसे नेवले जैसी शक्ल या चूहे जैसी आँखें होने का उलाहना भी देता है, उसे यह कहकर भी डांटता है : “तुम्हारा तो कुछ भी नहीं हो सकता। तुम अपनी जिंदगी में कभी कामयाब नहीं हो पाओगे! अगर तुम मेहनत से पढ़ाई नहीं करोगे, तो बस एक मजदूर बनकर रह जाओगे। भविष्य में तुम्हें अपना पेट पालने के लिए भीख माँगनी पड़ेगी! तुम तो दिखते भी चोर जैसे हो; तुम्हारे लक्षण ही चोर जैसे हैं!” भले ही बच्चा इन बातों को नहीं समझता, और नहीं जानता है कि उसके शिक्षक ने ऐसी बातें क्यों कहीं, या ये बातें सच हैं भी या नहीं, व्यक्तिगत हमले की ये बातें उसके दिल में एक तरह की अदृश्य, बुरी ताकत बन जाएगी, जो उसके आत्मसम्मान को भेदकर उसे ठेस पहुँचाएगी। “तुम्हारा चेहरा नेवले जैसा है, आँखें चूहे जैसी हैं, और सिर छोटा-सा है!”—व्यक्तिगत हमले के तौर पर कही गई उसके शिक्षक की ये बातें जीवन भर उसे याद रहेंगी। जब वह अपना करियर चुनेगा, अपने वरिष्ठों और सहकर्मियों का सामना करेगा, और भाई-बहनों का सामना करेगा, तो उसके शिक्षक द्वारा बोले गए व्यक्तिगत हमले के ये शब्द समय-समय पर उसे याद आएँगे, जो उसकी भावनाओं और उसके जीवन को प्रभावित करेंगे। बेशक, तुम्हारे माँ-बाप की तुमसे की गई कुछ गलत अपेक्षाएँ, और कुछ भावनाएँ, संदेश, शब्द, विचार, दृष्टिकोण वगैरह, जो उन्होंने तुम पर थोपे हैं, उनकी भी छाया तुम्हारे बाल-मन पर पड़ी हुई है। तुम्हारे माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना के परिप्रेक्ष्य से कहें, तो उनके कोई बुरे इरादे नहीं हैं, पर उनकी अज्ञानता के कारण, क्योंकि वे भ्रष्ट इंसान हैं, और उनके पास तुम्हारे साथ व्यवहार करने के लिए ऐसे उचित तरीके नहीं हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप हों, तो उनके पास तुम्हारे साथ व्यवहार करने के लिए सिर्फ संसार की प्रवृत्तियों के अनुसार चलने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता, और इसका अंतिम परिणाम यह होता है कि उनके कारण तुम्हारे मन में कई नकारात्मक संदेश और भावनाएँ आती हैं। ऐसी परिस्थितियों में जहाँ तुममें विवेक की कमी दिखती है, तुम्हारे माँ-बाप जो कुछ भी कहते हैं, और वे सभी गलत विचार जो उन्होंने तुम्हें सिखाए और तुममें डाले हैं, वे तुम पर हावी हो जाते हैं क्योंकि तुम सबसे पहले उनके संपर्क में आते हो। वे तुम्हारे आजीवन प्रयास और संघर्ष का लक्ष्य बन जाते हैं। भले ही तुम्हारे बालिग होने से पहले तुम्हारे माँ-बाप तुमसे जो विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं, वे तुम्हारे बाल-मन के लिए एक प्रकार का झटका और आघात देते हैं, फिर भी उनकी इच्छा को समझते हुए, दयालुता के उनके विभिन्न कार्यों को स्वीकार करते हुए और उनके लिए धन्यवाद करते हुए तुम अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं, और साथ ही उन कीमतों के दबाव में रहते हो जो उन्होंने तुम्हारे लिए चुकाई हैं। उनके द्वारा चुकाई जाने वाली विभिन्न कीमतों और उनके द्वारा तुम्हारे लिए किए गए विभिन्न त्यागों को स्वीकारने के बाद, तुम खुद को अपने माँ-बाप का ऋणी मानते हो और अपने दिल की गहराई में उनका सामना करने में शर्मिंदगी महसूस करते हो, और तुम सोचते हो कि बड़े होने के बाद तुम्हें उनका ऋण चुकाना होगा। किस बात का ऋण चुकाना होगा? तुमसे की गई उनकी अनुचित अपेक्षाओं का ऋण चुकाना होगा? उस तबाही का ऋण चुकाना होगा जो तुम्हारे बालिग होने से पहले उन्होंने तुम्हारे जीवन में मचाई? क्या यह सही-गलत के बीच भ्रमित होना नहीं है? दरअसल, मामले की जड़ और सार से इस बारे में बात करें तो तुम्हारे माँ-बाप की तुमसे की गई अपेक्षाएँ सिर्फ व्यक्तिपरक हैं, वे बस उनकी अपनी सोच है। वे बिल्कुल भी ऐसी चीजें नहीं हैं जो एक बच्चे के पास होनी चाहिए, जिसका उसे अभ्यास करना या जिसे उसे जीना चाहिए, और न ही वे ऐसी चीजें हैं जिनकी बच्चे को जरूरत है। दुनिया की प्रवृत्तियों के अनुसार चलने के लिए, दुनिया के अनुकूल ढलने के लिए, दुनिया की प्रगति के साथ चलने के लिए, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें मजबूर करते हैं कि तुम उनका अनुसरण करो, वे तुम्हें अपनी ही तरह इस दबाव को सहने के लिए मजबूर करते हैं, और चाहते हैं कि तुम इन बुरी प्रवृत्तियों को स्वीकार कर इनका अनुसरण करो। इसलिए, अपने माँ-बाप की प्रबल अपेक्षाओं के तहत, कई बच्चे विभिन्न कौशल, विभिन्न पाठ्यक्रम और विभिन्न प्रकार के ज्ञान सीखने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। वे अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करने से, उनकी अपेक्षाओं के पीछे के इरादों को सक्रियता से पूरा करने की कोशिश पर आ जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो बालिग होने से पहले, लोग निष्क्रिय रूप से अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को स्वीकार लेते हैं, और धीरे-धीरे बड़े होने के बाद, वे सक्रियता से अपने माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना की अपेक्षाओं को स्वीकारते हुए, समाज से आने वाले इस प्रकार के दबाव और इस धोखे, नियंत्रण, और बंधन को स्वेच्छा से स्वीकार लेते हैं। कुल मिलाकर, वे धीरे-धीरे इसमें निष्क्रिय से सक्रिय भागीदार बन जाते हैं। इस तरह, उनके माँ-बाप को संतुष्टि मिलती है। बच्चों को भी आंतरिक शांति महसूस होती है कि उन्होंने अपने माँ-बाप को निराश नहीं किया है, आखिरकार अपने माँ-बाप को वह सब दिया है जो वे चाहते थे, और वे बड़े हो गए हैं—वे बड़े होकर सिर्फ बालिग ही नहीं हुए हैं, बल्कि अपने माँ-बाप की नजरों में प्रतिभाशाली व्यक्ति बन गए हैं, और उनकी उम्मीदों पर खरा उतर रहे हैं। भले ही ये लोग बालिग होने के बाद अपने माँ-बाप की नजरों में प्रतिभाशाली व्यक्ति बनने में सफल होते हैं, और सतही तौर पर ऐसा लगता है कि उनके माँ-बाप द्वारा चुकाई गई कीमतों का ऋण उतार दिया गया है, और उनके माँ-बाप की उनसे जो अपेक्षाएँ थीं वे मिट्टी में नहीं मिली हैं, इसकी हकीकत क्या है? ये बच्चे अपने माँ-बाप की कठपुतलियाँ बनने में कामयाब हुए हैं, वे अपने माँ-बाप का बहुत बड़ा ऋण उतारने में सफल हुए हैं, वे अपना बाकी जीवन अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने, अपने माँ-बाप के लिए दिखावा करने के लिए लगाने में सफल हुए हैं, वे अपने माँ-बाप की इज्जत और प्रतिष्ठा बढ़ाने, और उन्हें संतुष्ट करने में कामयाब हुए हैं, और उनका गौरव और खुशी बन गए हैं। उनके माँ-बाप जहाँ भी जाते हैं, अपने बच्चों की बात करते हैं : “मेरी बेटी फलाँ कंपनी की मैनेजर है।” “मेरी बेटी अमुक मशहूर ब्रांड की डिजाइनर है।” “मेरी बेटी इस विदेशी भाषा में इतनी अच्छी है, वह इसे धाराप्रवाह बोल सकती हैं, वह अमुक-अमुक भाषा की अनुवादक है।” “मेरी बेटी कंप्यूटर इंजीनियर है।” ये बच्चे अपने माँ-बाप को गौरव और खुशी देने, और उनकी छाया बनने में सफल हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे अपने बच्चों को शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए भी उन्हीं तरीकों का उपयोग करेंगे। वे सोचते हैं कि उनके माँ-बाप उन्हें प्रशिक्षित करने में सफल हुए हैं, तो वे अपने माँ-बाप की तरह ही अपने बच्चों को प्रशिक्षित करेंगे। इस तरह, उनके बच्चों को भी उनसे उसी दुख, दुखद पीड़ा और तबाही झेलनी पड़ेगी, जो उन्हें अपने माँ-बाप के कारण झेलनी पड़ी थी।
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