सत्य का अनुसरण कैसे करें (18) भाग एक
कुछ दिनों पहले, एक गंभीर घटना घटी जहाँ मसीह-विरोधी सुसमाचार फैलाने के कार्य में बाधा डाल रहे थे। क्या तुम लोगों को इसकी जानकारी है? (हाँ।) इस घटना के बाद, परमेश्वर के घर के सुसमाचार कार्य की पुनर्व्यवस्था शुरू हुई, और कुछ लोगों के काम में बदलाव या उनका तबादला किया जाने लगा, और कार्य से संबंधित कुछ मामलों में भी बदलाव किया गया, है न? (हाँ।) इस तरह की बड़ी घटना परमेश्वर के घर में घटी और तुम लोगों के आस-पास मसीह-विरोधी उभर आए—क्या तुम लोग ऐसी महत्वपूर्ण घटना का सामना करके कुछ सबक सीख पाए हो? क्या तुम लोगों ने सत्य खोजा है? क्या तुम कुछ समस्याओं का सार देखकर, इतनी बड़ी घटना से कुछ सबक लेने में सक्षम हुए हो? जब कुछ घटित होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि ज्यादातर लोग उस घटना के सार को गहराई से समझे बिना, और यह सीखे बिना ही कि लोगों और चीजों को कैसे देखें, सत्य के अनुरूप आचरण व कार्य कैसे करें, बस बाहरी तौर पर उससे कुछ सबक ले लेते और कुछ सिद्धांतों को समझ लेते हैं? कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपने दिमाग के हिसाब से सोचते और जोड़-तोड़ करते हैं, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। उनमें सत्य सिद्धांतों के साथ-साथ समझदारी और बुद्धि की भी कमी होती है। वे बस कुछ सबकों का सार निकालकर संकल्प लेते हैं : “जब भविष्य में ये चीजें दोबारा होंगी, तो मुझे सावधान रहना होगा और उन चीजों पर भी ध्यान देना होगा जो मैं नहीं कह सकता, जो चीजें मैं नहीं कर सकता, मुझे किस तरह के लोगों से सावधान रहना चाहिए और किस तरह के लोगों के करीब रहना है।” क्या इसे सबक सीखने और अनुभव हासिल करने में गिना जा सकता है? (नहीं।) तो, जब इस तरह की चीजें घटती हैं, फिर चाहे वे बड़ी घटनाएँ हों या छोटी, लोगों को उन्हें कैसे अनुभव करना चाहिए, उसके प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए, और कैसे उनमें गहराई से प्रवेश करना चाहिए, ताकि वे सबक सीख सकें, कुछ सत्यों को समझ सकें और इन परिवेशों का सामना करते हुए अपना आध्यात्मिक कद बढ़ा सकें? ज्यादातर लोग इन बातों पर विचार नहीं करते, है न? (हाँ।) अगर वे इन बातों पर विचार नहीं करते हैं, तो क्या वे सत्य खोजने वालों में से हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) क्या तुम लोगों को लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वालों में से हो? किन चीजों के आधार पर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो? और किन चीजों के आधार पर तुम्हें कभी-कभी लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो? जब तुम अपने कर्तव्य में थोड़ा कष्ट सहते और थोड़ी कीमत चुकाते हो, और कभी-कभी अपने काम के प्रति थोड़े ज्यादा गंभीर होते हो, या कुछ पैसों का योगदान देते हो, या खुद को परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर अपने परिवार को त्याग देते हो, अपनी नौकरी से इस्तीफा देते हो, अपनी पढ़ाई छोड़ देते हो, और अपनी शादी का परित्याग कर देते हो, या सांसारिक रुझानों के साथ चलने से बचते हो, या बुरे लोगों से दूर रहते हो, वगैरह—जब तुम लोग ये चीजें कर पाते हो, तब क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति और एक सच्चे विश्वासी हो? तुम सबको ऐसा ही लगता है न? (हाँ।) अब ये बताओ, तुम लोगों को ऐसा किस आधार पर लगता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित है? (नहीं।) यह खयाली पुलाव है; तुम लोग अपना फैसला खुद सुना रहे हो। जब तुम कभी-कभी कुछ नियमों का पालन करते और कायदे-कानून मानते हुए काम करते हो, और तुममें अच्छी मानवता की कुछ अभिव्यक्तियाँ होती हैं, जब तुम धैर्यवान और सहनशील होने में सक्षम होते हो, जब तुम बाहरी तौर पर विनम्र, सरल, सहज होते हो, और अहंकारी नहीं होते, और जब तुम परमेश्वर के घर के कार्य में थोड़ा जिम्मेदारी से भरा संकल्प या मानसिकता रखने में सक्षम होते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने वाकई सत्य का अनुसरण किया है और तुम वाकई सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो। तो, क्या ये अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण कहलाती हैं? (नहीं।) सटीकता से कहें, तो ये बाहरी बर्ताव, व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण नहीं हैं। तो, लोग हमेशा यह क्यों सोचते हैं कि ये अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण हैं? वे हमेशा ऐसा क्यों सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं? (लोगों की धारणा में यही सोच होती है कि अगर वे थोड़ी कोशिश करते और खुद को थोड़ा खपाते हैं, तो ये सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए, जब वे अपने कर्तव्यों में थोड़ी-सी कीमत चुकाते या थोड़ा कष्ट सहते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, मगर उन्होंने पहले कभी यह नहीं खोजा कि इस मामले के बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, या परमेश्वर यह कैसे आँकता है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण कर रहा है या नहीं। इस वजह से, वे खुद को महान मानते हुए, हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में ही जीते हैं।) लोग अपनी धारणाओं को कभी नहीं त्यागते, और जब यह निर्धारित करने का महत्वपूर्ण मामला आता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, तो वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ अपने खयाली पुलाव पर निर्भर रहते हैं। वे ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि जब वे इस तरह से सोचते और कार्य करते हैं, तो वे सहज महसूस करते हैं, यह मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करने के लिए उन्हें कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, और वे अभी भी लाभ और आशीष पा सकते हैं? एक और कारण यह है कि लोगों के तथाकथित अच्छे व्यवहार, जैसे कि उनका त्याग, उनकी पीड़ा, उनका कीमत चुकाना वगैरह, ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे हासिल और पूरा कर सकते हैं, है न? (हाँ।) लोगों के लिए अपने परिवारों और नौकरियों को त्यागना आसान है, पर उनके लिए वास्तव में सत्य का अनुसरण करना, सत्य का अभ्यास करना, या सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना आसान नहीं है, और उनके लिए इन चीजों को हासिल करना भी आसान नहीं है। भले ही तुम थोड़ा-सा सत्य समझते हो, तुम्हारे लिए अपने विचारों, धारणाओं या भ्रष्ट स्वभावों के खिलाफ विद्रोह करना, और सत्य सिद्धांतों पर टिके रहना बहुत कठिन होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो परमेश्वर में तुमने जितने सालों तक विश्वास किया, उनमें तुम सत्य के विभिन्न पहलुओं के संबंध में अब तक कोई प्रगति करते प्रतीत क्यों नहीं होते? भले ही तुमने कोई कीमत चुकाई हो, या भले ही तुमने कुछ भी छोड़ा या त्यागा हो, अंततः इससे जो परिणाम तुम्हें मिले हैं, क्या वो सत्य का अनुसरण और अभ्यास करके मिले परिणाम हैं? चाहे तुमने कितनी भी कीमत चुकाई हो, कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी दैहिक चीजों को त्यागा हो, इन सबसे तुमने अंत में क्या पाया है? क्या तुमने सत्य प्राप्त किया है? क्या तुमने सत्य के संबंध में कुछ हासिल किया है? क्या तुमने अपने जीवन प्रवेश में प्रगति की है? क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभावों को बदला है? क्या तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है? हम परमेश्वर के प्रति समर्पण जैसे गहरे पाठ या अभ्यास के बारे में बात नहीं करेंगे, इसके बजाय हम बस सबसे सरल चीज के बारे में बात करेंगे। तुमने सब कुछ त्याग दिया है, इतने सालों तक कष्ट सहे हैं और कीमतें चुकाई हैं—क्या तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकते हो? खासकर जब मसीह-विरोधी और बुरे लोग कलीसिया के कार्य में बाधा डालने के लिए बुरे काम करते हैं, तो क्या तुम उन बुरे लोगों के हितों को बनाए रखते हुए और खुद की रक्षा करते हुए अपनी आँखें मूँद लेते हो, या फिर तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े रहकर उसके घर के हितों को बनाए रखते हो? क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास किया है? अगर तुमने ऐसा नहीं किया है, तो तुम्हारी पीड़ा और तुमने जो कीमतें चुकाई हैं वो पौलुस की पीड़ा और कीमतों से अलग नहीं हैं। वे बस आशीष पाने की खातिर किए गए हैं, और वे सभी निरर्थक हैं। ये वैसे ही हैं जैसा कि पौलुस ने अपनी लड़ाइयाँ लड़ने और अपने हिस्से के कार्यों को पूरा करने, और अंत में आशीष और पुरस्कार पाने के बारे में कहा था—इसमें कोई अंतर नहीं है। तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो; तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। तुम सोचते हो कि तुम्हारे त्याग, खुद को खपाना, कष्ट उठाना और तुम्हारे द्वारा चुकाई गई कीमतें सत्य का अभ्यास हैं, तो इन वर्षों में तुमने कितने सत्य समझे हैं? तुम्हारे पास कितनी सत्य वास्तविकताएँ हैं? तुमने कितने मामलों में परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा की है? तुम कितने मामलों में सत्य और परमेश्वर के पक्ष में खड़े रहे हो? अपने कितने क्रियाकलापों में तुमने इसलिए बुरा काम करने या अपनी मनमर्जी करने से परहेज किया है क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? लोगों को ये सारी चीजें समझनी और इनकी जाँच करनी चाहिए। अगर वे इन चीजों की जाँच नहीं करते, तो जितने समय तक वे परमेश्वर में विश्वास करते रहेंगे, और विशेष रूप से, जितने समय तक वे कर्तव्य निभाते रहेंगे, उतना ही ज्यादा उन्हें यह लगेगा कि उन्होंने एक सराहनीय योगदान दिया है, और उन्हें निश्चित रूप से बचाया जाएगा, और यह भी लगेगा कि वे परमेश्वर के हैं। अगर एक दिन उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए, उजागर करके निकाल दिया जाए, तो वे कहेंगे : “भले ही मैंने कोई सराहनीय सेवा नहीं की है, पर मैंने कम से कम कड़ी मेहनत की है, और अगर मैंने कड़ी मेहनत नहीं भी की है, तो भी कम से कम खुद को बहुत थकाया है। इतने सालों तक मेरे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के आधार पर, परमेश्वर के घर को मुझे बर्खास्त नहीं करना चाहिए या मेरे साथ इस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर के लिए काम करने के बाद उसे मुझे यूँ ही बाहर नहीं निकाल फेंकना चाहिए!” अगर तुम सचमुच सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हें ये बातें नहीं कहनी चाहिए। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुमने कितनी बार परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं को पूरी तरह से और सटीकता से लागू किया है? तुमने उनमें से कितनी चीजों को लागू किया है? तुमने कितने कार्यों की खोज-खबर ली है? उनमें से कितने कार्यों की जाँच की है? तुम्हारी जिम्मेदारियों और कर्तव्य के दायरे में, और तुम्हारी काबिलियत, समझने की क्षमता और सत्य की समझ से जो हासिल किया जा सकता है, उसकी सीमा में, तुमने किस हद तक भरसक कोशिश की है? तुमने कौन-से कर्तव्य अच्छे से निभाए हैं? तुमने कितने अच्छे कर्म तैयार किए हैं? ये इस बात का परीक्षण करने के मानक हैं कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। अगर तुमने इन सभी चीजों में गड़बड़ की है, और कोई परिणाम हासिल नहीं किया है, तो इससे साबित होता है कि तुम इतने सालों से बस आशीष पाने की आशा में पीड़ा सहते और कीमत चुकाते रहे हो, और तुम सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो; तुमने जो कुछ भी किया है वह सब खुद के लिए, रुतबा और आशीष पाने के लिए किया है, और यह परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं है। तो, तुमने आज तक क्या कुछ किया है? क्या इस तरह के लोगों का अंतिम परिणाम पौलुस जैसा ही नहीं होता? (होता है।) ये सभी लोग पौलुस के मार्ग पर चल रहे हैं, तो स्वाभाविक रूप से, उनका परिणाम पौलुस जैसा ही होगा। सिर्फ इसलिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुमने अपनी नौकरी और परिवार को या कुछ मामलों में अपने छोटे बच्चों को भी त्याग दिया है, इस वजह से यह मत सोचो कि तुमने कोई सराहनीय योगदान दिया है। तुमने कोई सराहनीय योगदान नहीं दिया है, तुम बस एक सृजित प्राणी हो, तुम जो कुछ भी करते हो वह सब सिर्फ तुम्हारे खुद के लिए है, और वह है जो तुम्हें करना चाहिए। अगर यह सब आशीष पाने के लिए नहीं होता, तो क्या तुम कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते? क्या तुम अपने परिवार को त्यागने और अपनी नौकरी छोड़ने में सक्षम होते? अपने परिवार को त्यागने, अपनी नौकरी छोड़ने, पीड़ा सहने और कीमतें चुकाने को सत्य का अनुसरण करने और खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के बराबर मत समझो। यह बस खुद को बेवकूफ बनाना है।
जो लोग सत्य को और अपने साथ हुई काट-छाँट को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, तो जब भी परमेश्वर के घर में कोई बड़ी सफाई होती है, तब उन्हें एक-एक करके उजागर किया और बाहर निकाल दिया जाता है। जिन लोगों की समस्याएँ बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होती हैं, उन्हें निगरानी में रहने की अनुमति दी जाती है, और उजागर किए जाने के बाद उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका दिया जाता है। जहाँ तक दूसरों की बात है, जिनकी समस्याएँ बहुत गंभीर हैं, बार-बार आलोचना होने के बावजूद उनमें सुधार नहीं हो पाता, वे बार-बार वही काम करते और वही गलतियाँ दोहराते हैं, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते, गड़बड़ करते, और इसे नष्ट करते हैं, तो आखिर में उन्हें सिद्धांतों के अनुसार हटाकर निकाल दिया जाता है, और दूसरा मौका नहीं दिया जाता। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे उनके लिए बुरा लगता है कि उन्हें दूसरा मौका नहीं दिया जाता है।” क्या उन्हें पर्याप्त मौके नहीं दिए जाते हैं? वे परमेश्वर के वचन सुनने, उसके वचनों की ताड़ना और न्याय को स्वीकारने या उसके शुद्धिकरण और उद्धार को पाने के लिए उसमें विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि वे बस अपने काम से मतलब रखते हैं। जब वे कलीसिया का काम करना या विभिन्न कर्तव्यों का निर्वहन करना शुरू करते हैं, तो वे सभी प्रकार के गलत कामों में शामिल होना, बाधा डालना और गड़बड़ करना शुरू कर देते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य के साथ-साथ परमेश्वर के घर के हितों को भी गंभीर नुकसान होता है। उन्हें बार-बार मौके देने और धीरे-धीरे विभिन्न कर्तव्य निर्वहन समूहों से निकालने के बाद, परमेश्वर का घर उन्हें सुसमाचार टीम में अपना कर्तव्य निभाने का मौका देता है, मगर वहाँ पहुँचने के बाद, वे अपने कर्तव्य निर्वहन में कड़ी मेहनत नहीं करते हैं, और वे अभी भी बिना पश्चात्ताप किए या बिना बदले विभिन्न प्रकार के गलत कामों में लगे रहते हैं। परमेश्वर का घर चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करे, चाहे कोई भी कार्य व्यवस्था बनाए, और भले ही वह इन लोगों को मौके और चेतावनी देता हो, और यहाँ तक कि उनकी काट-छाँट भी करता हो, मगर इनका कोई फायदा नहीं होता है। वे बेहद सुन्न ही नहीं, बल्कि बहुत अड़ियल हैं। बेशक, यह अड़ियलपन उनके भ्रष्ट स्वभावों के परिप्रेक्ष्य से उपजता है। अपने सार में, वे लोग नहीं, शैतान हैं। कलीसिया में प्रवेश करते समय, शैतान के रूप में कार्य करने के अलावा, वे परमेश्वर के घर के कार्य और कलीसिया के कार्य के फायदे के लिए कुछ भी नहीं करते। वे बस बुरे काम करते हैं; वे केवल कलीसिया के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते हुए बस कुछ लोगों को प्राप्त करने के बाद ही, उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है और उन्होंने एक सराहनीय योगदान दिया है, और वे अपनी उपलब्धियों के भरोसे आराम करने लगते हैं, सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर पर राजा की तरह राज कर सकते हैं, कार्य के किसी भी पहलू को लेकर आदेश दे सकते और फैसले ले सकते हैं, और लोगों को उनका अभ्यास करने और उन्हें लागू करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऊपरवाला सत्य पर कैसे संगति करता है या कार्य की व्यवस्था कैसे करता है, ये लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। तुम्हारे सामने तो वे बहुत चिकनी-चुपड़ी बातें कहेंगे : “परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ अच्छी हैं, वे बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी हमें जरूरत है, उन्होंने सही समय पर चीजों को ठीक कर दिया, नहीं तो हमें पता ही नहीं चलता कि हम कितना भटक गए थे।” तुम्हारे सामने से हटते ही, वे बदल जाते हैं और अपने विचार फैलाने लगते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग सचमुच मनुष्य हैं? (नहीं।) अगर वे मनुष्य नहीं हैं, तो क्या हैं? सतही तौर पर, उन पर मनुष्य की चमड़ी की एक परत होती है, मगर सार में, वे मानवीय चीजें नहीं करते—वे दानव हैं! कलीसिया में उनकी भूमिका विशेष रूप से परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों में बाधा डालने की है। वे जो भी कार्य कर रहे होते हैं उसमें बाधा डालते हैं, और उन्होंने कभी सत्य या सिद्धांतों को नहीं खोजा है, कार्य व्यवस्थाओं पर ध्यान नहीं दिया या उनके अनुसार कार्य नहीं किया है। जैसे ही उन्हें थोड़ी ताकत मिल जाती है, वे इसका दिखावा करते और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने अपना रौब जमाते हैं। उन सभी के चेहरे दानवों के हैं, और उनमें मनुष्य जैसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के घर के हितों को बरकरार नहीं रखा है, वे बस अपने हितों और रुतबे की रक्षा करते हैं। चाहे वे किसी भी स्तर के अगुआ के रूप में काम करते हों, या किसी भी कार्य की निगरानी करते हों, जैसे ही उन्हें कार्य सौंपा जाता है, यह उनका कार्य हो जाता है, इसमें आखिरी फैसला उनका ही होता है, और दूसरों के लिए इसकी जाँच करने, निगरानी करने या इसकी खोज-खबर लेने के बारे में न सोचना ही बेहतर है, और इसमें दखल देने की बात तो उन्हें बिल्कुल नहीं सोचनी चाहिए। क्या ये पक्के मसीह-विरोधी नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) और ये लोग फिर भी आशीष पाना चाहते हैं! ऐसे लोगों के लिए मेरे पास दो शब्द हैं : विवेकहीन और कभी न सुधर सकने वाले। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं, और वे ज्यादा दूर तक नहीं जा सकेंगे। अतीत में, मैं अक्सर तुम लोगों से कहता था : “अगर तुम अंतिम समय तक श्रम कर सकते हो, और एक वफादार श्रमिक बन सकते हो, तो यह भी काफी अच्छा है।” कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और उसका अनुसरण नहीं करना चाहते हैं। इसके बारे में क्या किया जाना चाहिए? उन्हें श्रमिक बनना चाहिए। अगर तुम श्रम करने में कड़ी मेहनत कर सकते हो, और कोई बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, या कोई ऐसा बुरा काम नहीं करते जिससे तुम्हें बाहर निकालना पड़े, और तुम यह गारंटी दे सकते हो कि तुम कोई बुरा काम नहीं करोगे, और अंतिम समय तक श्रम करते रहोगे, तभी तुम जीवित रह पाओगे। भले ही तुम बहुत सारी आशीष नहीं पा सकोगे, पर कम से कम तुमने परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान श्रम किया होगा, तुम एक वफादार श्रमिक होगे, और अंत में, परमेश्वर तुम्हारे साथ कुछ भी गलत नहीं करेगा। मगर अभी, कुछ श्रमिक ऐसे हैं जो वास्तव में अंत तक श्रम नहीं कर सकते। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनमें मनुष्य की आत्माएँ नहीं हैं। हम यह जाँच नहीं करेंगे कि उनके भीतर किस प्रकार की आत्मा रहती है, पर कम से कम, शुरू से अंत तक उनके व्यवहार को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनका सार एक दानव का सार है, किसी मनुष्य का नहीं। वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और वे इसका अनुसरण करने से भी बहुत दूर हैं।
दस साल पहले, जब सत्य के हरेक पहलू पर विस्तार से संगति नहीं की गई थी, तब लोगों को यह नहीं पता था कि सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के आधार पर चीजों को सँभालने का क्या मतलब है। कुछ लोग अपनी इच्छा, कल्पना और धारणाओं के आधार पर कार्य करते या नियमों का पालन करते थे। तब उन्हें माफ किया जा सकता था, क्योंकि उन्हें समझ नहीं थी। मगर आज, 10 साल बाद, भले ही सत्य के विभिन्न पहलुओं पर हमारी संगति अभी तक पूरी नहीं हुई है, मगर कम से कम, लोगों के काम करने और कर्तव्य निभाने से संबंधित विभिन्न मूलभूत सत्य, सिद्धांतों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से समझा दिए गए हैं। जिन लोगों के पास दिल और आत्मा है, जो सत्य से प्यार करते हैं और उसका अनुसरण कर सकते हैं, वे चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, उन्हें अपनी अंतरात्मा और विवेक पर भरोसा करके कुछ सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। लोग ऊँचे और गहरे सत्य तक पहुँचने में चूक जाते और असफल हो जाते हैं, और वे कुछ समस्याओं के सार या सत्य से संबंधित सार को नहीं देख पाते, पर उन्हें उन सत्यों पर अमल करने में सक्षम होना चाहिए जिन तक वे पहुँच सकते हैं, और जिन्हें स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। कम से कम, उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा स्पष्ट रूप से निर्धारित की गई कार्य व्यवस्थाओं को बनाए रखने, लागू करने और बाँटने में सक्षम होना चाहिए। हालाँकि, जो दानव के हैं वे यह काम भी नहीं कर सकते। वे ऐसे लोग हैं जो अंतिम समय तक भी श्रम नहीं कर सकते। जब लोग अंत तक श्रम भी नहीं कर सकते, तो इसका मतलब है कि उन्हें सफर के बीच में ही गाड़ी से निकाल फेंका जाएगा। उन्हें गाड़ी से क्यों फेंका जाएगा? अगर वे गाड़ी में चुपचाप बैठे होते, सो रहे होते, शांत रहते या अपना मनोरंजन भी कर रहे होते, पर वे सबको परेशान या पूरी ट्रेन के आगे बढ़ने की दिशा में कोई परेशानी नहीं खड़ी करते, तो किसका दिल इतना कठोर होता जो उन्हें गाड़ी से निकाल फेंकता? किसी का नहीं। अगर वे वाकई श्रम कर सकते तो परमेश्वर भी उन्हें गाड़ी से नहीं निकाल फेंकता। मगर अब श्रम के लिए इन लोगों का इस्तेमाल करने से तो फायदे से ज्यादा नुकसान ही हो जाएगा। इन लोगों की गड़बड़ी के कारण परमेश्वर के घर के कार्य के विभिन्न पहलुओं को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। वे बहुत अधिक चिंता का कारण हैं! वे सत्य नहीं समझते, चाहे उस पर कैसे भी संगति की जाए, और बाद में, वे अभी भी बुरे काम करते हैं। वास्तव में इन लोगों से बातचीत करने का मतलब है कभी न खत्म होने वाली वार्ता में संलग्न होना और कभी न खत्म होने वाला गुस्सा महसूस करना। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन लोगों ने बहुत ज्यादा बुरे काम किए हैं, और परमेश्वर के घर के सुसमाचार फैलाने के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया है। वे जो थोड़ा-सा कर्तव्य निभाते हैं, उसमें भी बस बाधा डालते और गड़बड़ी करते हैं, और वे परमेश्वर के घर के कार्य को जो नुकसान पहुँचाते हैं उसे ठीक नहीं किया जा सकता। ये लोग हर तरह के बुरे काम करते हैं। नीचे, वे अपनी मनमर्जी करते हैं, चढ़ावे की बर्बादी करते हैं, सुसमाचार फैलाने के दौरान प्राप्त हुए लोगों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, और दूसरों का गलत तरीके से इस्तेमाल करते हैं। वे खास तौर पर कुछ दुष्ट लोगों, भ्रमित लोगों और उन लोगों का उपयोग करते हैं जो बेकाबू होकर बुरे काम करते हैं। वे किसी के सुझावों को नहीं सुनते हैं, और जो कोई भी अपनी राय व्यक्त करता है उसे दबाते और दंडित करते हैं। उनके कार्यक्षेत्र में, परमेश्वर के वचनों, अपेक्षाओं और कार्य व्यवस्थाओं को लागू नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें अलग रख दिया जाता है। ये लोग स्थानीय गुंडे और निरंकुश बन जाते हैं; वे अत्याचारी बन जाते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को रखा जा सकता है? (नहीं।) अभी, कुछ लोगों को बर्खास्त कर दिया गया है, और बर्खास्त किए जाने के बाद यह दिखाने के लिए कि वे कितने कुलीन, कितने समर्पित और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, वे “परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने” की बात करते हैं। ऐसा कहने से उनका मतलब यह है कि परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है उसके बारे में उन्हें कोई शिकायत नहीं है, और वे इसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हैं। वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हैं—तो फिर उन्होंने इतने बुरे कर्म क्यों किए, जिसके कारण कलीसिया को उन्हें बर्खास्त करना पड़ा? वे यह बात क्यों नहीं समझते? उन्होंने इसका हिसाब क्यों नहीं दिया? जब वे काम कर रहे थे तब उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य में कई प्रकार की दिक्कतें खड़ी की और नुकसान किए—क्या उन्हें इस मामले में खुलकर बताना और खुद को सामने रखना नहीं चाहिए? अगर वे इसका जिक्र ही न करें तो क्या मामला खत्म हो जाता है? वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहते हैं, दिखाना चाहते हैं कि वे कितने उत्कृष्ट और महान हैं—यह पूरी तरह से दिखावा और चालबाजी है! अगर वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना सीख रहे हैं, तो उन्होंने परमेश्वर के घर की पिछली कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण क्यों नहीं किया? उन्होंने उन्हें लागू क्यों नहीं किया? तब वे क्या कर रहे थे? वे वास्तव में किसकी आज्ञा मानते हैं? वे इसका हिसाब क्यों नहीं देते? उनका मालिक कौन है? क्या उन्होंने परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कार्य के हरेक पहलू को पूरा किया? क्या उन्होंने परिणाम हासिल किए हैं? क्या उनके काम सावधानीपूर्वक जाँच की कसौटी पर टिके रह सकते हैं? वे बेकाबू होकर बुरे कर्म करने से परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले नुकसान की भरपाई कैसे करेंगे? क्या इस मामले पर कुछ टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए? क्या उनके इतना कहने से काम हो जाएगा कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करेंगे? बताओ मुझे, क्या ऐसे लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) उनमें मानवता, विवेक, और अंतरात्मा नहीं है, और उन्हें शर्म भी नहीं आती! उन्हें यह एहसास तक नहीं है कि उन्होंने कितने बुरे कर्म किए हैं, और परमेश्वर के घर को कितना बड़ा नुकसान पहुँचाया है। बिना किसी पछतावे के, बिना किसी आभार की भावना के या बिना इस बात को स्वीकार किए कि उन्होंने बहुत सारी बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा की है। अगर तुम उन्हें जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करोगे, तो वे कहेंगे, “अकेले मैंने ही तो ऐसा नहीं किया है”—उनके पास अपने बहाने होते हैं। उनके कहने का मतलब यह है कि अगर हर कोई अपराधी है तो दंड नहीं दिया जा सकता, और क्योंकि सभी ने बुरा कर्म किया है, तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। यह गलत है। उन्हें उस बुरे कर्म का हिसाब देना होगा जो उन्होंने किया है—हरेक व्यक्ति को अपने बुरे कर्म का हिसाब देना होगा। उन्हें परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपनी समस्याओं का सही ढंग से समाधान करना चाहिए। अगर उनमें यह रवैया है, तो उन्हें एक और मौका मिल सकता है और वे बने रह सकते हैं, मगर वे हमेशा बुरे कर्म नहीं कर सकते! अगर उनकी अंतरात्मा में इसका कोई बोध नहीं है, अगर वे यह महसूस नहीं कर पाते कि वे किसी तरह से परमेश्वर के आभारी हैं, और वे बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं करते, तो मानवीय परिप्रेक्ष्य से उन्हें एक मौका दिया जा सकता है, अपने कर्तव्य निभाते रहने की अनुमति दी जा सकती है, और उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, मगर परमेश्वर इसे कैसे देखता है? अगर लोग उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएँगे, तो क्या परमेश्वर भी उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएगा? (नहीं।) परमेश्वर सभी लोगों और चीजों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर तुम्हारे साथ समझौता करके तुम्हारे लिए चीजें सरल नहीं बनाएगा, वह तुम्हारी तरह खुशामदी नहीं होगा। परमेश्वर के पास सिद्धांत हैं, उसका धार्मिक स्वभाव है। अगर तुम परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हो, तो कलीसिया और परमेश्वर के घर को तुम्हारे साथ प्रशासनिक आदेशों के सिद्धांतों और शर्तों के अनुसार निपटना होगा। जहाँ तक तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को नाराज करने के परिणामों की बात है, वास्तव में, तुम्हारा दिल जानता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है या तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करता है। अगर तुम सचमुच परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, तो तुम्हें उसके सामने आकर अपने पापों को कबूल करना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए। अगर तुम्हारा यह रवैया नहीं है, तो तुम एक छद्म-विश्वासी हो, दानव हो, परमेश्वर के दुश्मन हो, और तुम्हें शाप मिलना चाहिए! तो फिर तुम्हारा उपदेश सुनने का क्या फायदा? तुम्हें बाहर निकल जाना चाहिए; तुम उपदेश सुनने के लायक नहीं हो! सत्य सामान्य भ्रष्ट मनुष्यों के सुनने के लिए बोले जाते हैं; हालाँकि ऐसे लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, पर उनमें दृढ-संकल्प और सत्य को स्वीकारने की इच्छा होती है, जब भी उनके साथ कुछ होता है तो वे आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और जब वे कुछ गलत करते हैं तो वे उसे कबूल कर सकते हैं और पश्चात्ताप करके खुद को बदल सकते हैं। ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है, और उन्हीं के लिए सत्य बोले जाते हैं। जिन लोगों में पश्चात्ताप करने का रवैया नहीं होता, उन पर चाहे कोई भी मुसीबत आए, वे सामान्य भ्रष्ट मनुष्य नहीं हैं, वे पूरी तरह से कुछ और ही हैं; उनका सार दानव का है, मनुष्य का नहीं। भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, सामान्य भ्रष्ट मनुष्य आम तौर पर अपनी अंतरात्मा, अपनी सामान्य मानवता की थोड़ी-सी शर्मिंदगी और अपने थोड़े-से विवेक के आधार पर बुरे काम से परहेज कर सकते हैं, और उनका जानबूझकर बाधा डालने या गड़बड़ी पैदा करने का कोई इरादा नहीं होता है। सामान्य परिस्थितियों में, ऐसे लोग अंत तक श्रम कर सकते हैं, अनुसरण कर सकते हैं, और जीवित रहने में सक्षम हो सकते हैं। हालाँकि, इस प्रकार के लोग भी हैं, जिनके पास अंतरात्मा या विवेक नहीं है, जिनके पास सम्मान या शर्म की कोई भी भावना नहीं है, जिनके पास पछतावा करने वाला दिल नहीं है, चाहे वे कितने भी बुरे कर्म करें, और जो बेशर्मी से परमेश्वर के घर में छिपकर अभी भी आशीष पाने की आशा कर रहे हैं, और पश्चात्ताप करना नहीं जानते। जब कोई कहता है, “तुमने ऐसा करके बाधा और गड़बड़ी पैदा की है,” तो वे कहते हैं, “ऐसा है क्या? तो मुझसे गलती हो गई, अगली बार मैं बेहतर करूँगा” वह दूसरा व्यक्ति जवाब देता है, “तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना होगा,” और वह कहता है, “किन भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना होगा? मैं तो बस अनजान था और बेवकूफी कर रहा था। अगली बार से बेहतर करूँगा।” उनमें गहरी समझ की कमी है, और वे बस अपनी बातों से लोगों को बरगलाते हैं। क्या ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग पश्चात्ताप कर सकते हैं? उन्हें तो शर्म भी नहीं आती—वे इंसान नहीं हैं! कुछ लोग कहते हैं : “अगर वे इंसान नहीं हैं, तो क्या वे जानवर हैं?” वे जानवर हैं, पर वे कुत्तों से भी बदतर हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब कोई कुत्ता कुछ बुरा करता है या खराब बर्ताव करता है, और तुम उसे एक बार डांटोगे, तो उसे तत्काल बुरा लगेगा, और वह तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता रहेगा, जिसका मतलब है : “मुझसे नफरत मत करना, मैं फिर ऐसा कभी नहीं करूँगा।” जब ऐसा कुछ दोबारा होता है, तो कुत्ता जानबूझकर तुम्हारी ओर ऐसे देखेगा जैसे कह रहा हो : “चिंता मत करो, मैं दोबारा ऐसा नहीं करूँगा।” इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कुत्ता पीटे जाने से डरता है या अपने मालिक को जीतने की कोशिश कर रहा है, तुम चाहे इसे कैसे भी देखो, जब उसे पता चलता है कि उसके मालिक को कोई बात पसंद नहीं है या उसने किसी बात के लिए मना किया है, तो कुत्ता ऐसा नहीं करेगा। वह खुद को काबू में रख पाता है; उसमें शर्म की भावना है। जानवरों में भी शर्म की भावना होती है, पर इन लोगों में नहीं। तो, क्या वे अभी भी मनुष्य कहलाएँगे? वे तो जानवरों से भी तुच्छ हैं, इसलिए वे अमानवीय और निर्जीव चीजें हैं, वे पक्के दानव हैं। चाहे वे कितने भी बुरे कर्म करें, वे कभी भी आत्मचिंतन नहीं करते या यह कबूल नहीं करते कि उन्होंने कितनी बुराई की है, और वे निश्चित रूप से पश्चात्ताप करना नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने भाई-बहनों का सामना करने में शर्म आती है क्योंकि उन्होंने थोड़ी-सी बुराई की थी, और अगर भाई-बहनें उन्हें किसी चुनाव के दौरान चुनते हैं, तो वे कहेंगे : “मैं यह कर्तव्य नहीं निभाऊँगा, मैं इसके काबिल नहीं हूँ। अतीत में, मैंने कुछ बेवकूफियाँ की थीं जिससे कलीसिया के कार्य को थोड़ा नुकसान हुआ था। मैं इस पद के लायक नहीं हूँ।” इस तरह के लोगों में शर्म की भावना होती है, और उनमें अंतरात्मा और विवेक होता है। मगर उन दुष्ट लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं होती। अगर तुम उनसे अगुआ बनने के लिए कहोगे, तो वे तुरंत खड़े होकर कहेंगे : “देखा! इसके बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? परमेश्वर का घर मेरे बिना नहीं चल सकता। मैं एक बड़ा खिलाड़ी हूँ, मैं बहुत सक्षम हूँ!” मुझे बताओ, क्या इन लोगों को शर्मिंदा महसूस कराना कठिन नहीं है? यह कितना कठिन है? यह चीन के शनहाई दर्रे की दीवारों को लाँघने से भी ज्यादा कठिन है—वे बेशर्म हैं! चाहे वे कितनी भी बुराई करें, फिर भी वे बेशर्मी से कलीसिया में अपने दिन बिताते हैं। वे भाई-बहनों के साथ बातचीत में कभी भी विनम्र नहीं रहते हैं, वे अभी भी पहले जैसे ही हैं, और कभी-कभी अपनी “महान उपलब्धियों” के बारे में, अपने पिछले त्यागों के बारे में, खुद को खपाने, कष्ट सहने और कीमतें चुकाने के बारे में, और अपने अतीत की “महिमा और महानता” के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करते हैं। जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, वे तुरंत अपने बारे में इतराने और डींगें हाँकने लगते हैं, अपनी पूँजी के बारे में बात करते और अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हैं, और फिर भी वे कभी इस बारे में बात नहीं करते कि उन्होंने कितने बुरे कर्म किए हैं, परमेश्वर की कितनी भेंटों को बर्बाद किया है या परमेश्वर के घर के कार्य को कितने नुकसान पहुँचाए हैं। जब वे अकेले में परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं तब भी अपने पापों को कबूल नहीं करते, और उन्होंने जो गलतियाँ की हैं या परमेश्वर के घर को जो भी नुकसान पहुँचाया है, उसके लिए कभी आँसू नहीं बहाते। वे इतने अड़ियल और बेशर्म हैं। क्या वे एकदम विवेकहीन और कभी न सुधरने वाले लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) वे कभी न सुधरने वाले हैं, और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। तुम चाहे उन्हें कैसे भी मौके दे दो, यह किसी ईंट की दीवार से बात करने जैसा या फूँककर पहाड़ उड़ाने की कोशिश करना है, या दानवों और शैतान को परमेश्वर की भक्ति करने के लिए कहने जैसा है। तो, जब इन लोगों की बात आती है, आखिर में परमेश्वर के घर का रवैया उन्हें त्याग देने का होता है। अगर वे कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, तो वे निभा सकते हैं, परमेश्वर का घर उन्हें थोड़े-बहुत मौके देगा। अगर वे कर्तव्य नहीं निभाना चाहते और कहते हैं : “मैं काम करने, पैसे कमाने और अपने दिन गुजारने जा रहा हूँ; मैं अपना ही कारोबार सँभालूँगा,” तो वे ऐसा कर सकते हैं, परमेश्वर के घर का दरवाजा खुला है, वे जल्द-से-जल्द निकल सकते हैं! मैं उनके चेहरे दोबारा नहीं देखना चाहता, वे बहुत घृणित हैं! वे दिखावा क्यों कर रहे हैं? उन्होंने जो थोड़ा-सा कष्ट सहा है, जो थोड़ी-सी कीमतें चुकाई हैं, उनके थोड़े-से त्याग और खुद को खपाना, वे बस पूर्वशर्ते थीं जो उन्होंने इसलिए तैयार की थीं ताकि वे बुरे कर्म कर सकें। अगर वे परमेश्वर के घर में बने रहते हैं, तो वे इसके लिए किस तरह की सेवा कर सकते हैं? वे परमेश्वर के घर के कार्य का क्या हित कर सकते हैं? क्या तुम्हें जरा भी अंदाजा है कि छह महीने के अंतराल में एक दुष्ट व्यक्ति, एक मसीह-विरोधी द्वारा किए गए बुरे कर्म और बुरी चीजें कलीसिया के कार्य में कितनी बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा कर सकती हैं? मुझे बताओ, इसकी भरपाई के लिए कितने भाई-बहनों को काम करना पड़ेगा? थोड़ी-सी सेवा के लिए उस दुष्ट व्यक्ति, उस मसीह-विरोधी का इस्तेमाल करना क्या मुसीबत मोल लेने जैसा नहीं है? (बिल्कुल है।) हम उन नुकसानों की भयावहता के बारे में बात नहीं करेंगे जो मिलकर बुरी चीजें करने वाले मसीह-विरोधियों के एक गिरोह द्वारा हो सकता है, मगर एक मसीह-विरोधी द्वारा बोले गए एक झूठ और दानवी बयान से, या एक मसीह विरोधी द्वारा जारी किए गए एक बेतुके आदेश से कलीसिया के कार्य का कितना नुकसान हो सकता है? मुझे बताओ, इसकी भरपाई के लिए कितने लोगों को काम करना होगा और कितने समय तक काम करना होगा? इस नुकसान की जिम्मेदारी कौन लेगा? कोई नहीं ले सकता! क्या इस नुकसान की भरपाई की जा सकती है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “अगर हमें मदद के लिए कुछ और लोग मिल जाएँ, और भाई-बहनें थोड़ा और कष्ट सहें, तो हम इसकी भरपाई कर सकते हैं।” भले ही तुम इसमें से कुछ नुकसान की भरपाई कर पाओ, मगर परमेश्वर के घर को कितने लोगों और कितने संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा? खास तौर पर, जितना समय गँवाया गया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन में प्रवेश के संदर्भ में जो नुकसान उठाना पड़ा, उसकी भरपाई कौन कर सकता है? कोई नहीं कर सकता। इसलिए, मसीह-विरोधियों द्वारा किए गए गलत कामों को माफ नहीं किया जा सकता! कुछ लोग कहते हैं : “मसीह-विरोधियों ने कहा, ‘हम पैसों के नुकसान की भरपाई करेंगे’।” बेशक उन्हें इसकी भरपाई करनी होगी! “मसीह-विरोधियों ने कहा, ‘जिन लोगों को हमने खोया है उनकी भरपाई के लिए हम और लोगों को लाएँगे।’” उन्हें इतना तो करना ही चाहिए। उन्होंने जो बुरे कर्म किए हैं उनकी भरपाई तो करनी ही चाहिए! मगर जो समय बर्बाद हुआ उसकी भरपाई कौन करेगा? क्या वे इसकी भरपाई कर सकते हैं? इसकी भरपाई करना असंभव है। तो, इन लोगों द्वारा किए गए गलत काम सबसे जघन्य पाप हैं! उन्हें माफ नहीं किया जा सकता। मुझे बताओ, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।)
जब कुछ लोग यह देखते हैं कि परमेश्वर का घर मसीह-विरोधियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आता है—उन्हें कोई मौका दिए बिना सीधे बाहर कर देता है—तो इस बारे में उनके मन में कुछ ऐसे विचार आते हैं : “क्या परमेश्वर के घर ने नहीं कहा था कि वह लोगों को मौके देता है? जब किसी व्यक्ति से छोटी-सी गलती हो जाती है, तब क्या परमेश्वर का घर उसे ठुकरा देता है? क्या वह उसे मौका नहीं देता? उसे एक मौका तो देना ही चाहिए, परमेश्वर का घर बहुत निष्ठुर है!” मुझे बताओ, उन लोगों को कितने मौके दिए गए? उन्होंने कितने उपदेश सुने? क्या उन्हें बहुत कम मौके दिए गए? काम करते समय, क्या वे यह नहीं जानते कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? क्या वे नहीं जानते कि वे सुसमाचार फैला रहे और परमेश्वर के घर का काम कर रहे हैं? क्या उन्हें ये बातें नहीं पता? वे कोई व्यवसाय, कंपनी या कोई फैक्ट्री चला रहे हैं क्या? क्या वे खुद का उद्यम सँभालने में लगे हैं? परमेश्वर के घर ने इन लोगों को कितने मौके दिए? उनमें से हरेक व्यक्ति को अच्छे-खासे मौके मिले हैं। जिन लोगों को विभिन्न समूहों से निकालकर सुसमाचार टीम में डाला गया था, क्या उनमें से किसी को भी सिर्फ कुछ दिनों के लिए सुसमाचार टीम में रखने के बाद बर्खास्त कर दिया गया? किसी को भी बर्खास्त नहीं किया गया था, उन्हें तभी बर्खास्त किया गया, जब उनके द्वारा किए गए कुकर्म बेहद घिनौने थे। उनमें से हरेक को पर्याप्त मौके दिए गए, बात बस इतनी है कि वे उन्हें सँजोना या पश्चात्ताप करना नहीं जानते। वे हमेशा पौलुस के रास्ते पर चलते हुए अपनी मनमानी करते हैं। उनकी बातें तो बड़ी चिकनी-चुपड़ी और स्पष्ट होती हैं, पर वे मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं करते। क्या ऐसे लोगों को अब भी मौका दिया जाना चाहिए? (नहीं।) जब उन्हें मौका दिया गया, तो उनके साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार किया गया, पर वे मनुष्य नहीं हैं। वे मनुष्यों वाले काम नहीं करते, तो माफ करना, परमेश्वर के घर का दरवाजा खुला ही है—वे कभी भी यहाँ से दफा हो सकते हैं। परमेश्वर का घर अब उनका उपयोग नहीं करेगा। परमेश्वर का घर लोगों का उपयोग करने के मामले में स्वतंत्र है, उसके पास यह अधिकार है। अगर परमेश्वर का घर उनका उपयोग न करे, तो क्या यह ठीक रहेगा? अगर वे विश्वास करना चाहते हैं, तो वे परमेश्वर के घर के बाहर जाकर ऐसा कर सकते हैं। चाहे जो भी हो, परमेश्वर का घर उनका उपयोग नहीं करेगा—वह ऐसा नहीं कर सकता, उनके कारण बहुत चिंता करनी पड़ती है! उन्होंने परमेश्वर के घर का बहुत नुकसान किया है, और कोई भी इसकी भरपाई नहीं कर सकता—उनकी ऐसी औकात ही नहीं है! ऐसा नहीं है कि वे बदकिस्मत हैं, ऐसा भी नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें मौका नहीं दिया, परमेश्वर का घर निष्ठुर भी नहीं है, और उसने उन लोगों पर बहुत सख्ती भी नहीं दिखाई है, और यकीनन ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि उनका काम खत्म हो जाने के बाद परमेश्वर का घर उनसे पीछा छुड़ा रहा है। बात ऐसी है कि इन लोगों ने हद पार कर दी, उन्हें अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, और उन्होंने जो कुछ भी किया था उनका हिसाब तक नहीं दे पाए। हरेक कार्य के लिए, परमेश्वर के घर ने कार्य सिद्धांत बनाए हैं, और ऊपरवाले ने व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन दिया है, जाँच-पड़ताल करके सुधार किया है। यह सिर्फ परमेश्वर के घर और ऊपरवाले द्वारा कुछ सभाएँ आयोजित करने या कुछ शब्द कहने की बात नहीं है; उन्होंने ईमानदारी से लोगों को उपदेश देते हुए अनेक शब्द कहे और कई सभाएँ आयोजित की हैं, और अंत में उन्हें बदले में धोखा मिला, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी हुई और बाधा आई, और सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। बताओ, कौन अब भी उन लोगों को मौका देने को तैयार होगा? कौन उन्हें काम पर रखे रहने को तैयार होगा? वे बेकाबू होकर कुकर्म कर सकते हैं, मगर यकीनन वे परमेश्वर के घर को सिद्धांतों के अनुसार उनसे निपटने से तो नहीं रोकेंगे? उनसे इस तरह से निपटने को निष्ठुर होना नहीं कहना चाहिए, बल्कि इसे सिद्धांतों को कायम रखना कहना चाहिए। प्रेम उन लोगों को दिया जाता है जिनसे प्रेम किया जा सकता है, उन अज्ञानी लोगों को दिया जाता है जिन्हें क्षमा किया जा सकता है; यह दुष्ट लोगों, दानवों या उन लोगों को नहीं दिया जाता है जो जानबूझकर बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा करते हैं, यह मसीह-विरोधियों को नहीं दिया जाता। मसीह-विरोधी सिर्फ धिक्कारे जाने लायक हैं! वे सिर्फ धिक्कारे जाने लायक क्यों हैं? क्योंकि वे चाहे कितने भी कुकर्म करें, वे पश्चात्ताप नहीं करते, अपने पाप कबूल नहीं करते, या खुद में बदलाव नहीं लाते, और अंत तक परमेश्वर से होड़ करते हैं। वे परमेश्वर के सामने आकर कहते हैं, “मैं मरते दम तक गिरूँगा नहीं। मैं अडिग हूँ। तुम्हारे सामने आऊँगा, तो घुटने नहीं टेकूँगा या झुकूँगा नहीं। मैं हार नहीं मानूँगा!” ये कैसा व्यवहार है? यहाँ तक कि मरते-मरते भी वे यही कहेंगे, “मैं अपनी आखिरी साँस तक परमेश्वर के घर का प्रतिरोध करता रहूँगा। मैं अपने पाप कबूल नहीं करूँगा—मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है!” ठीक है, अगर उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, तो वे जा सकते हैं। परमेश्वर का घर उनका उपयोग नहीं करेगा। अगर परमेश्वर का घर उनका उपयोग न करे, तो क्या यह ठीक रहेगा? इसमें कोई दिक्कत नहीं है! कुछ लोग कहते हैं, “अगर परमेश्वर का घर मेरा उपयोग नहीं करेगा, तो वह और किसी का उपयोग नहीं कर सकता।” इन लोगों को जरा नजर घुमाकर देखना चाहिए कि क्या सचमुच ऐसा कोई नहीं है—क्या परमेश्वर के घर का कोई भी कार्य लोगों पर निर्भर करता है? पवित्र आत्मा के कार्य के बिना और परमेश्वर की सुरक्षा के बिना, कौन वहाँ तक पहुँच सकता था जहाँ वे आज हैं? कौन-सा कार्य आज तक कायम रह पाता? क्या इन लोगों को लगता है कि वे लौकिक संसार में हैं? अगर लौकिक संसार में प्रतिभाशाली या हुनरमंद व्यक्तियों की टीम किसी समूह की सुरक्षा न करे, तो वह अपनी कोई भी परियोजना पूरी नहीं कर पाएगा। परमेश्वर के घर का कार्य अलग है। परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा, अगुआई और मार्गदर्शन परमेश्वर ही करता है। यह मत सोचना कि परमेश्वर के घर का कार्य किसी व्यक्ति के सहयोग पर निर्भर करता है। ऐसा नहीं है, और यह एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण है। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर के घर के लिए मसीह-विरोधियों और छद्म-विश्वासियों जैसे बुरे लोगों को त्याग देना सही है? (बिल्कुल।) यह सही क्यों है? क्योंकि किसी कार्य में उन लोगों का उपयोग करने से होने वाला नुकसान बहुत बड़ा होता है, ये लोगों की मेहनत और वित्तीय संसाधन, दोनों की बहुत बर्बादी करते हैं, और उनके पास बिल्कुल भी कोई सिद्धांत नहीं होता। वे परमेश्वर के वचन नहीं सुनते, पूरी तरह से अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के आधार पर कार्य करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों या उसके घर की कार्य व्यवस्थाओं का बिल्कुल भी सम्मान नहीं करते, मगर जब कोई मसीह-विरोधी कुछ कहता है, तो वे इसे बहुत सम्मान देते हैं, और उसके अनुसार अभ्यास करते हैं। मैंने सुना है कि एक बेवकूफ हुआ करता था जो यूरोप में रहकर एशिया से जुड़े काम करता था। परमेश्वर के घर ने कहा कि वह उसे यूरोप में सुसमाचार फैलाने का काम दे देगा, ताकि उसे समय अंतराल के चक्कर में न उलझना पड़े, मगर वह राजी नहीं हुआ, और वह यूरोप में कार्य करने के लिए तैयार नहीं हुआ, जबकि परमेश्वर के घर ने खुद इसकी व्यवस्था की थी, उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जिस मसीह-विरोधी को वह पूजता था वह एशिया में था, और वह अपने स्वामी से दूर जाने को तैयार नहीं था। क्या वह मूर्ख नहीं है? (बिल्कुल है।) अब बताओ, क्या वह अपना कर्तव्य निभाने के लायक है? क्या हम उसे रखना चाहेंगे? परमेश्वर के घर द्वारा की गई कार्य व्यवस्थाएँ उचित थीं। अगर तुम यूरोप में हो, तो तुम्हें वे काम करने चाहिए जो यूरोप में है, न कि एशिया में। तुम जिस भी महाद्वीप में हो, तुम्हें उसी जगह से जुड़े कार्य करना चाहिए, और इस तरह तुम्हें समय अंतराल के चक्कर में भी नहीं उलझना पड़ेगा—कितनी अच्छी बात है! और फिर भी, वह व्यक्ति राजी नहीं हुआ। परमेश्वर के घर की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ; परमेश्वर का घर उसे तबादले के लिए नहीं मना सका, वह चाहता था कि उसका स्वामी फैसला करे। अगर उसका स्वामी कहता, “जाओ, यूरोप में कार्य करो,” तो वह उन्हीं कार्यों को करता। अगर उसका मालिक कहता, “तुम फिर से यूरोप में कार्य नहीं कर सकते, मुझे यहाँ काम के लिए तुम्हारी जरूरत है,” तो वह कहता, “तो मैं वापस नहीं जा सकता।” उसने किसकी सेवा की? (अपने स्वामी की।) उसने अपने स्वामी यानी एक मसीह-विरोधी की सेवा की। तो क्या उसे भी अपने स्वामी के साथ निकाल नहीं देना चाहिए? क्या उसे बाहर नहीं निकाल देना चाहिए? (बिल्कुल।) मैं ऐसे लोगों पर इतना गुस्सा क्यों करता हूँ? क्योंकि वे बहुत कुकर्म करते हैं; यह सुनकर कोई भी गुस्सा हो जाएगा। ये लोग अपनी खुली आँखों से परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करते हैं—यह बहुत दुर्भावनापूर्ण है! यह बताओ, मुझे ऐसे लोगों पर इतना गुस्सा क्यों आता है? (उनका कहना है कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वास्तव में, वे सिर्फ अपने स्वामियों की सुनते हैं। वे वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण और उसके प्रति समर्पण नहीं करते।) वे पूरी तरह से दानवों और शैतानों के अनुसरण को समर्पित हो चुके हैं। उनका यह कहना कि वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, महज दिखावा है। वे परमेश्वर का अनुसरण करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की आड़ में शैतान का अनुसरण और शैतान की सेवा करते हैं, और इसके बावजूद अंत में, परमेश्वर से पुरस्कार और आशीष पाना चाहते हैं। क्या यह सरासर बेशर्मी नहीं है? क्या वे एकदम विवेकहीन और कभी न सुधरने वाले लोग नहीं है? (बिल्कुल।) बताओ, क्या परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को काम पर रखे रहेगा? (नहीं।) तो फिर उनसे निपटने का उचित तरीका क्या है? (उन्हें उनके स्वामियों के साथ बाहर निकाल देना चाहिए।) वे अपने स्वामियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं, और मरते दम तक अपने स्वामियों के लिए काम करने को दृढ़ता से संकल्पित हैं; वे अपने कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, वे परमेश्वर के सामने रहते हुए अपने कर्तव्य नहीं निभाते, वे मसीह-विरोधियों के गिरोह के भीतर अपने स्वामियों की सेवा कर रहे हैं—यही उनके कार्य का सार है। इसलिए, चाहे वे जो भी करें, उसे सराहा नहीं जाएगा। ऐसे लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए, वे सेवा करने के लायक भी नहीं हैं! तो, क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके जैसे लोग सिर्फ इसलिए ऐसे हो जाते हैं क्योंकि उनका सामना बुरे लोगों से होता है या क्योंकि वे इस तरह का काम करते हैं? क्या वे अपने परिवेश से प्रभावित होते हैं, या दुष्ट लोग उन्हें गुमराह करते हैं? (ऐसा कुछ भी नहीं है।) तो फिर वे ऐसे क्यों हैं? (वे अपने प्रकृति सार में ऐसे ही लोग हैं।) इनका प्रकृति सार इनके मसीह-विरोधी स्वामियों जैसा ही है। वे एक ही तरह के लोग हैं। उनके शौक, विचार और दृष्टिकोण के साथ-साथ काम करने के साधन और तरीके भी एक समान हैं; उनकी भाषा और अनुसरण का मार्ग एक ही है, और परमेश्वर को धोखा देने और उसके घर के कार्य में बाधा डालने की उनकी इच्छाएँ, मंशाएँ और अभ्यास के तरीके सब एक जैसे ही हैं। जरा सोचो, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं को लेकर उनका रवैया एक जैसा है, जो अपने ऊपर के लोगों से झूठ बोलना और अपने नीचे काम करने वालों से चीजें छिपाना है। उनके वरिष्ठों की नीतियाँ हैं, तो उनसे निपटने के लिए उनकी अपनी रणनीतियाँ हैं। अपने से वरिष्ठों के सामने, वे बाहर से बड़े आज्ञाकारी बनते हैं, और अपने से नीचे वाले लोगों के सामने बेकाबू होकर कुकर्म करते हैं। उन दोनों के रास्ते और तरीके एक जैसे हैं। जब ऊपरवाला उनकी काट-छाँट करता है, तो वे कहते हैं, “मुझसे गलती हो गई, मैं गलत था, मैं बुरा हूँ, मैं विद्रोही हूँ, मैं एक दानव हूँ!” और पीठ फेरते ही वे कहते हैं : “चलो ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं को लागू नहीं करते हैं!” इसके बाद वे अपनी मनमर्जी से काम करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते समय वे पूरी तरह से लापरवाह होते हैं, आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं, और परमेश्वर के घर को धोखा देते हैं। ये इन मसीह-विरोधियों के गिरोहों के तरीके हैं। वे कार्य व्यवस्थाओं के प्रति हमेशा अपनी रणनीतियों और तरीकों से पेश आते हैं—क्या उनके दानवी चेहरे उजागर नहीं हो गए हैं? क्या वे इंसान हैं? नहीं, वे इंसान नहीं हैं, वे दानव हैं! हम दानवों से बातचीत नहीं करते, तो आओ उन्हें जल्दी से यहाँ से बाहर निकाल फेकें। मैं उनके दानवी चेहरे नहीं देखना चाहता; उन्हें दफा हो जाना चाहिए! जो लोग श्रम करना चाहते हैं उन्हें समूह “ब” में भेजा जा सकता है, जो लोग श्रम नहीं करना चाहते उन्हें निलंबित किया जा सकता है। क्या ऐसा करना सही है? (बिल्कुल।) ऐसा करना सबसे सही है! उन सबका सार एक जैसा है, तो जब वे एक साथ बातें और काम करते हैं, वे बहुत सहजता से ऐसा करते हैं, और जब वे एक साथ काम करते हैं तो उनके बीच बहुत सामंजस्य और समझ बहुत अच्छी होती है। जैसे ही ये स्वामी अपना मुँह खोलते हैं, चाहे वे कैसी भी शैतानी बातें कहें, उनके अनुयायी तुरंत उन्हें दोहराएँगे, और पूरे दिल से, ये अनुयायी गर्वित भी महसूस करेंगे, सोचेंगे, “तुमने सही कहा, चलो ऐसा ही करते हैं! ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं में नुक्ताचीनी बहुत है, हम उस तरह से काम नहीं कर सकते।” ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाएँ चाहे कितनी भी अच्छी तरह या विशेष रूप से बताई गई हों, ये लोग उन्हें लागू नहीं करेंगे, और दानव और शैतान की कही बातें चाहे कितनी भी विकृत या बेतुकी क्यों न हों, वे उन्हें ध्यान से सुनेंगे। इस तरह वे किसकी सेवा कर रहे हैं? क्या ऐसे लोग अंत तक परमेश्वर के घर में श्रम कर सकते हैं? (नहीं।) वे अंत तक श्रम नहीं कर सकते। चाहे परमेश्वर किसी व्यक्ति के प्रति धैर्य दिखा रहा हो, या दानव के क्रियाकलापों के प्रति, उसकी हमेशा एक सीमा होती है। वह जितना हो सके उतना लोगों के प्रति सहिष्णुता दिखाता है, मगर जब पानी सिर से ऊपर निकल जाएगा, तब वह उन लोगों को उजागर करेगा जिन्हें उजागर किया जाना चाहिए, और जिन्हें निकाला जाना चाहिए उन्हें निकाल देगा। जब यह समय आएगा, तब उन लोगों का सफर खत्म हो चुका होगा। बात बस इतनी नहीं है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या उससे प्रेम नहीं करते, बात यह है कि उनका प्रकृति सार सत्य का विरोधी है। जरा सोचो, जब भी तुम सकारात्मक चीजों, स्पष्ट समझ या सत्य के अनुरूप सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, तो वे ध्यान नहीं देते हैं। तुम्हारे शब्द जितने स्पष्ट होंगे, उन्हें उतना ही बुरा लगेगा। जैसे ही तुम सत्य सिद्धांतों के बारे में बात करना शुरू करते हो, वे शांत नहीं बैठ पाते, और चर्चा का विषय बदलने और ध्यान भटकाने के लिए बहाने बनाने के तरीके ढूँढ़ते हैं, या बस पानी पीने चले जाते हैं। जैसे ही तुम सत्य पर संगति करते हो या खुद को जानने के बारे में बात करते हो, तो उन्हें घृणा महसूस होती है, और वे सुनना नहीं चाहते। अगर उन्हें बाथरूम नहीं जाना हो, तो उन्हें भूख-प्यास लगने लगती है, या नींद आती है, या उन्हें कोई फोन कॉल लेना पड़ता या कोई काम निपटाना होता है। उनके पास हमेशा कोई न कोई बहाना होता है, और वे शांत नहीं बैठ पाते। अगर तुम उनके तरीके इस्तेमाल करके उनके बयानों और दृष्टिकोणों के बारे में बात करो, जिनके कारण खास तौर पर बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं, तो वे जोश से भर जाएँगे, और लगातार बोलते रहेंगे। अगर तुम दोनों की भाषा एक नहीं होगी, तो वे तुम्हारे प्रति घृणा महसूस करेंगे और तुमसे दूरी बनाए रखेंगे। ये पक्के दानव हैं! ऐसे कुछ लोग हैं जो अब तक, इस प्रकार के दानव को अच्छे से समझ नहीं पाए हैं, और सोचते हैं कि ये लोग बस सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। तुम इतने नादान कैसे हो सकते हो? तुम ऐसी बेवकूफी वाली बातें कैसे कह सकते हो? क्या ये लोग महज सत्य का अनुसरण नहीं करते? नहीं, वे बुरे दानव हैं, और वे सत्य से एकदम विमुख हो चुके हैं। वे लोग सभाओं में काफी अच्छा व्यवहार करते हैं, मगर यह सब धोखा है। वास्तव में, क्या वे वाकई उन बातों को सुनते हैं जिन पर संगति की जाती है या परमेश्वर के उन वचनों को सुनते हैं जो सभाओं में पढ़े जाते हैं? हकीकत में वे कितने वचन सुनते हैं? कितने वचनों को स्वीकारते हैं? कितनों के प्रति समर्पण कर सकते हैं? वे सबसे सरल और सबसे आम तौर पर बोले जाने वाले धर्म-सिद्धांतों के बारे में भी बात नहीं कर सकते। जब ऐसे लोगों की बात आती है, तो चाहे वे कितने भी समय तक, या किसी भी स्तर के अगुआ या सुपरवाइजर के रूप में काम करें, वे उपदेश देने, या अपने अनुभवों के बारे में बात करने में असमर्थ होते हैं। अगर कोई कहता है, “किसी विषय पर अपना ज्ञान हमारे साथ बाँटो। यह जरूरी नहीं कि तुम्हारे पास इसका अनुभव हो, बस तुम्हारे पास इसके बारे में जो भी ज्ञान और समझ है, उसके बारे में बोलो,” तो वे अपना मुँह नहीं खोल पाएँगे, ऐसा लगेगा मानो उनके मुँह में दही जम गया हो, और वे थोड़े-बहुत धर्म-सिद्धांतों के बारे में भी बात नहीं कर पाएँगे। अगर वे इनके बारे में जबरन कुछ शब्द बोल भी लेते हैं, तो वे सुनने में बड़े अटपटे और अजीब लगेंगे। कुछ भाई-बहन कहते हैं : “ऐसा क्यों है कि जब कुछ अगुआ उपदेश दे रहे होते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे शिक्षक बच्चों को कोई पाठ पढ़कर सुना रहा हो? यह इतना अटपटा और अजीब क्यों लगता है?” इसे उपदेश नहीं दे पाना कहते हैं। और वे उपदेश क्यों नहीं दे पाते? क्योंकि उनके पास सत्य वास्तविकता का अभाव है। उनके पास सत्य वास्तविकता का अभाव क्यों है? क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, उनके दिल इससे विमुख हो चुके हैं, और वे सत्य के हर सिद्धांत या कथन का प्रतिरोध करते हैं। अगर उन्हें प्रतिरोधी कहा जाता है, तो हो सकता है कि तुम इसे बाहर से नहीं देख सको, तो तुम यह कैसे पहचानोगे कि वे प्रतिरोधी हैं? परमेश्वर का घर चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करे, वे दिल से इसे नकार देंगे और ठुकरा देंगे, साथ ही इससे बेहद घृणा भी करेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अन्य लोग सत्य के बारे में अपने ज्ञान पर किस तरह से संगति करते हैं, वे यही सोचेंगे, “तुम इस पर विश्वास कर सकते हो, पर मैं नहीं करता।” वे कैसे परखते हैं कि कोई बात सत्य है या नहीं? अगर कोई बात उन्हें अच्छी और सही लगती है, वे उसे सत्य मानेंगे। अगर उन्हें कोई बात पसंद नहीं आती, तो चाहे वह कितनी ही सही क्यों न हो, वे उसे सत्य नहीं मानेंगे। इसलिए, जब हम इस मामले की जड़ को देखते हैं, तो पता चलता है कि अपने दिल की गहराई में, वे सत्य के प्रतिरोधी हैं, वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और सत्य से नफरत करते हैं। उनके दिलों में सत्य के लिए कोई जगह नहीं है—वे इससे नफरत करते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इसे समझ न सकें, और कहें, “मैंने आम तौर पर उन्हें ऐसा कुछ भी कहते नहीं देखा जिससे परमेश्वर का अपमान होता हो, सत्य की निंदा होती हो, या सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो।” फिर, एक तथ्य है जो वे देख सकते हैं : परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं द्वारा निर्धारित हरेक विशिष्ट जानकारी आवश्यक है, और इसे परमेश्वर के कार्य के हितों, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन की प्रगति, कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था, और सुसमाचार कार्य के सामान्य विस्तार की रक्षा करने के लिए प्रस्तुत किया गया है। हरेक समय अवधि में कार्य व्यवस्थाओं का मकसद, और कार्य के हरेक पहलू का विशिष्ट इस्तेमाल, संगठन और संशोधन, परमेश्वर के घर के कार्य के सामान्य विकास की रक्षा करना है, और इससे भी बढ़कर, सत्य सिद्धांतों को समझने और उनमें प्रवेश करने में भाई-बहनों की मदद करना है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो यह कहा जा सकता है कि ये चीजें भाई-बहनों को परमेश्वर के पास लाती हैं और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में उनकी मदद करती हैं, ये चीजें हरेक व्यक्ति का हाथ पकड़कर उन्हें सिखाते हुए, उनका सहयोग करते हुए, और उनकी आपूर्ति करते हुए आगे लाती हैं। जब कार्य व्यवस्थाओं को लागू करने की बात आती है, तो चाहे सभाओं के दौरान इस विषय पर विशिष्ट संगति की जा रही हो, या इसे मौखिक रूप से फैलाया जा रहा हो, इसका मकसद परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और वास्तविक जीवन प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम बनाना है, और यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हमेशा फायदेमंद रहता है। ऐसी एक भी व्यवस्था नहीं है जो परमेश्वर के घर के कार्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हानिकारक हो, और किसी भी व्यवस्था से बाधाएँ नहीं पैदा होतीं या विनाश नहीं होता है। और फिर भी, मसीह-विरोधी कभी भी इन कार्य व्यवस्थाओं का सम्मान नहीं करते या उन्हें लागू नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे यह सोचकर उनसे नफरत करते हैं कि वे बहुत सरल और साधारण हैं, वे उतने प्रभावशाली नहीं हैं जितना कि उनका काम करने का तरीका है, और इससे काम करते समय उनकी प्रतिष्ठा, रुतबे और इज्जत को ज्यादा फायदा नहीं होगा। इस वजह से, वे कार्य व्यवस्थाओं पर कभी ध्यान नहीं देते या उन्हें स्वीकार नहीं करते, उन्हें लागू करना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे मनमाने ढंग से काम करते हैं। इसके आधार पर, मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी महज सत्य का अनुसरण नहीं करते? इससे, तुम साफ तौर पर देख सकते हो कि वे सत्य से नफरत करते हैं। अगर यह कहा जाए कि वे सत्य से नफरत करते हैं, तो तुम इसे समझ नहीं पाओगे, पर यह देखकर कि वे मसीह-विरोधी कार्य व्यवस्थाओं को लागू करने को लेकर कैसा रवैया रखते हैं, तुम इस बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम होगे। यह बहुत स्पष्ट है कि जब कार्य व्यवस्थाओं के प्रति झूठे अगुआओं और कर्मियों के रवैये की बात आती है, तो वे ज्यादातर जैसे-तैसे काम करते हैं, और बस एक बार कार्य व्यवस्थाओं के बारे में बात करके अपना काम खत्म समझ लेते हैं। वे बाद में काम की खोज-खबर नहीं लेते या उस पर नजर नहीं रखते हैं, या किसी विशिष्ट काम को सही ढंग से नहीं करते। ये झूठे अगुआ हैं। झूठे अगुआ, कम से कम, फिर भी कार्य व्यवस्थाओं को लागू कर सकते हैं, जैसे-तैसे काम करके उन्हें बनाए रख सकते हैं। मगर मसीह-विरोधी तो कार्य व्यवस्थाओं को बनाए भी नहीं रख सकते, वे उन्हें स्वीकारने या लागू करने से सीधे इनकार कर देते हैं, और मनमाने ढंग से चीजें करते हैं। वे किस बारे में सोचते हैं? बस अपने रुतबे, शोहरत, और प्रतिष्ठा के बारे में। वे सोचते हैं कि क्या ऊपरवाला उनकी सराहना करता है, कितने भाई-बहन उनका समर्थन करते हैं, कितने लोगों के दिलों में उनकी जगह है, वे कितने लोगों के दिलों पर राज करते हैं, कितनों को काबू में रखते हैं, और कितने लोग उनकी मुट्ठी में हैं। उन्हें बस उन चीजों की परवाह है। वे कभी भी इस बात पर विचार नहीं करते कि भाई-बहनों का सिंचन या आपूर्ति कैसे की जाए जिससे कि वे सच्चे मार्ग पर एक बुनियाद स्थापित कर सकें, और वे यकीनन इस बात पर तो बिल्कुल भी विचार नहीं करते कि भाई-बहनों का जीवन प्रवेश कैसा चल रहा है, भाई-बहन अपने कर्तव्य कैसे निभा रहे हैं, चाहे यह सुसमाचार फैलाना हो या कोई और कर्तव्य, या क्या वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, और उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की कि भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने कैसे लाया जाए। उन्हें उन चीजों की परवाह नहीं है। क्या ये सभी तथ्य तुम लोगों के सामने नहीं हैं? क्या ये लक्षण तुम लोग अक्सर मसीह-विरोधियों में नहीं देखते? क्या ये तथ्य इस बात का पर्याप्त सबूत नहीं हैं कि ये लोग सत्य से नफरत करते हैं? (बिल्कुल हैं।) एक मसीह-विरोधी को, हर वक्त, सिर्फ रुतबे, शोहरत और प्रतिष्ठा की ही परवाह होती है। मान लो कि तुमने एक मसीह-विरोधी को कलीसियाई जीवन का प्रभारी बनाया, ताकि भाई-बहन उचित कलीसियाई जीवन जी सकें, और कलीसियाई जीवन जीने के दौरान सत्य को समझने और उसकी नींव रखने, परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने, परमेश्वर के समक्ष आने, और आजादी से जीने की क्षमता, और अपने कर्तव्य निभाने की आस्था हासिल करने में उनकी मदद की जा सके। इस तरह, परमेश्वर के घर के सुसमाचार फैलाने के कार्य के लिए कुछ अतिरिक्त लोग होंगे, और ज्यादा प्रतिभाशाली सुसमाचार कर्मियों की लगातार आपूर्ति की जा सकेगी, ताकि वे सुसमाचार फैलाने के अपने कर्तव्य निभा सकें। क्या एक मसीह-विरोधी ऐसा ही सोचेगा? वह इस तरह से बिल्कुल नहीं सोचेगा। वह कहेगा : “कलीसियाई जीवन से क्या फर्क पड़ता है? अगर सभी लोग तहेदिल से कलीसियाई जीवन जिएँगे, और परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे, और अगर वे सभी सत्य समझने लगेंगे, तो मेरे आदेश कौन सुनेगा? मेरी परवाह कौन करेगा? मेरी ओर कौन ध्यान देगा? मैं हर किसी को हर समय कलीसियाई जीवन पर ध्यान देने या इसके प्रति आसक्त होने नहीं दे सकता। अगर हर कोई हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ेगा, और हर कोई परमेश्वर के पास आ जाएगा, तो मेरे आस-पास कौन रहेगा?” क्या यह एक मसीह-विरोधी का रवैया नहीं है? (बिल्कुल है।) वे सोचते हैं कि अगर वे सत्य और जीवन प्राप्त करने में भाई-बहनों की मदद करेंगे, तो यह प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा पाने की उनकी चाहत के लिए हानिकारक होगा। वे मन-ही-मन सोचते हैं : “अगर मैं अपना सारा समय भाई-बहनों के लिए काम करने में लगा दूँ, तो क्या मेरे पास प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा हासिल करने के लिए समय बचेगा? अगर सभी भाई-बहन परमेश्वर के नाम का गुणगान और उसका अनुसरण करने लगें, तो मेरी आज्ञा मानने वाला कोई नहीं होगा। यह मेरे लिए बहुत अजीब होगा!” यह एक मसीह-विरोधी का चेहरा है। मसीह-विरोधी सिर्फ सत्य का अनुसरण करने में ही असफल नहीं होते; वे सत्य से बेहद विमुख हो चुके होते हैं। अपनी व्यक्तिगत चेतना में, वे यह नहीं कहते : “मैं सत्य से नफरत करता हूँ, मैं परमेश्वर से नफरत करता हूँ, और मैं उन सभी कार्य व्यवस्थाओं, बयानों और अभ्यासों से नफरत करता हूँ जिनसे भाई-बहनों को लाभ होता है।” वे ऐसा नहीं कहेंगे। वे परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं का विरोध करने के लिए बस कुछ रवैये और व्यवहार अपनाते हैं। तो, इन रवैयों और व्यवहारों का सार चीजों को मनमाने ढंग से करना, और दूसरे लोगों को उन पर ध्यान देने और उनका आज्ञापालन करने के लिए मजबूर करना है। यही वजह है कि परमेश्वर का घर चाहे कुछ भी करे, वे उसका सम्मान नहीं करेंगे। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) हमने इससे पहले मसीह-विरोधियों के इन लक्षणों पर बहुत बार संगति की है। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है, और सत्य के बारे में तुम्हारी समझ उथली है; मसीह-विरोधियों ने तुम लोगों की आँखों के सामने बहुत सारे बुरे काम किए हैं, और फिर भी तुम इसे पहचानने में असफल रहे हो। तुम लोग मूर्ख और दयनीय हो, तुम सुन्न और मंदबुद्धि, कंगाल और अंधे हो। ये तुम लोगों की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ और वास्तविक आध्यात्मिक कद है। मसीह-विरोधी बहुत दिक्कतें खड़ी करते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाते हैं, और फिर भी लोग कहते हैं कि सेवा प्रदान करने में उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उनका उपयोग करने से फायदे से ज्यादा नुकसान ही हुआ है, और फिर भी तुम लोग उन्हें बर्खास्त करना या उनसे निपटना नहीं जानते—तुम लोगों के इस आध्यात्मिक कद और इन विचारों को बदलने में कितने साल लगेंगे? कुछ लोग हमेशा शेखी बघारते हैं, “मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति हूँ,” मगर मसीह-विरोधियों से सामना होने पर वे उन्हें पहचान नहीं पाते, और यहाँ तक कि उन मसीह-विरोधियों का अनुसरण भी कर सकते हैं—सत्य के अनुसरण की उनकी अभिव्यक्तियाँ कहाँ हैं? उन्होंने इतने सारे उपदेश सुने हैं, मगर फिर भी उन्हें सही-गलत की पहचान नहीं है। अच्छा, तो मैं इस विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करूँगा, इसके बाद हम अपने मुख्य विषय पर बात करेंगे।
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