सत्य का अनुसरण कैसे करें (17) भाग चार

माता-पिता अपने बच्चों से जो सबसे बड़ी अपेक्षाएँ रखते हैं, उनमें एक ओर यह आशा है कि उनके बच्चे बढ़िया जीवन जिएँगे तो दूसरी ओर यह आशा है कि बच्चे उनके साथ रह कर बुढ़ापे में उनकी देखभाल करेंगे। मिसाल के तौर पर, अगर माँ या पिता बीमार हो जाएँ या उनके जीवन में कुछ मुश्किलें आएँ, तो उन्हें उम्मीद होती है कि उनके बच्चे उनकी चिंताएँ और मुश्किलें दूर करने में उनकी मदद करेंगे और बोझ बाँटेंगे। वे आशा करते हैं कि यह दुनिया छोड़ते वक्त उनके बच्चे उनके साथ होंगे, ताकि वे उन्हें आखिरी बार दोबारा देख सकें। आम तौर पर, माता-पिता की ये दो सबसे बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं, और इन्हें त्यागना कठिन है। अगर किसी व्यक्ति के माता-पिता बीमार हो जाएँ, या उनके सामने मुश्किलें आएँ, और उस तक उनकी खबर न पहुँचे, तो संभव है कि ये चीजें उसके दखल दिए बिना ही ठीक हो जाएँ। लेकिन अगर उसे इन चीजों का पता चल जाए, तो उसके लिए इससे उबरना बहुत कठिन होता है, खास तौर से जब उसके माता-पिता बुरी तरह और गंभीर रूप से बीमार हों। ऐसे वक्त उन्हें भुला देना और भी कठिन होता है। जब अपने दिल की गहराई में तुम्हें लगे कि तुम्हारे माता-पिता अभी भी उसी शारीरिक अवस्था, जीने और काम करने की स्थिति में हैं जैसे कि वे 10-20 साल पहले थे, वे अपनी देखभाल कर सकते हैं, सामान्य ढंग से जी सकते हैं, अभी भी स्वस्थ, युवा और हट्टे-कट्टे हैं, और तुम्हें ऐसा लगे कि उन्हें तुम्हारी जरूरत नहीं है, तब तुम्हारे दिल में इतनी गहरी चिंता नहीं रहेगी। लेकिन यह पता चलने पर कि तुम्हारे माता-पिता बूढ़े और कमजोर हो चुके हैं, उन्हें देखभाल करने और साथ देने वाले लोगों की जरूरत है, और तुम किसी और जगह हो, तो शायद तुम परेशान हो जाओ, और तुम्हें इससे धक्का लगे। कुछ लोग तो अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं और माता-पिता से मिलने घर जाना चाहते हैं। कुछ भावुक लोग यह कह कर और भी ज्यादा तर्कहीन विकल्प चुनते हैं : “मेरे बस में होता तो मैं अपने माता-पिता को अपने जीवन के दस वर्ष दे देता।” कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता को आशीष दिलाने की ठाने रहते हैं। वे अपने माता-पिता के लिए हर तरह के स्वास्थ्य उत्पाद और पूरक पोषक तत्व खरीदते हैं, और जब उन्हें पता चलता है कि उनके माता-पिता गंभीर रूप से बीमार हैं, तो वे अपनी भावनाओं के भँवर में फँसे बिना नहीं रह पाते और माता-पिता के पास भागने को उतावले हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अपने माता-पिता की यह बीमारी लेने को भी तैयार हो जाऊँगा,” यह बिना सोचे कि उन्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना चाहिए, और वे परमेश्वर के आदेश की उपेक्षा करते हैं। इसलिए इन हालात में बहुत संभव है कि लोग कमजोर पड़ कर प्रलोभन में फँस जाएँ। क्या तुम लोग यह खबर सुनकर रो पड़ोगे कि तुम्हारे माता-पिता बहुत गंभीर रूप से बीमार हैं? खास तौर पर कुछ लोगों को घर से चिट्ठियाँ मिलती हैं कि डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। “जवाब दे देने” का क्या अर्थ है? इस वाक्यांश की व्याख्या करना आसान है। इसका अर्थ है कि उनके माता-पिता कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। ऐसे वक्त तुम सोचोगे : “मेरे माता-पिता की उम्र अभी 50 पार ही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्हें कौन-सी बीमारी हो गई है?” और जब जवाब मिले कि कैंसर है, तो तुम तुरंत सोचने लगते हो : “उन्हें यह कैसे हो गया? मैं इतने वर्षों से दूर रहा, उन्हें मेरी याद आती थी, उनका जीवन बहुत कठिन था—क्या इसी वजह से उन्हें यह बीमारी हुई?” फिर तुम फौरन सारा दोष खुद पर डाल लोगे : “मेरे माता-पिता का जीवन बहुत कठिन है, और मैं उनका बोझ बाँटने में मदद नहीं कर रहा था। उन्हें मेरी याद आती थी, वे मेरी चिंता करते थे, और मैं उनके साथ नहीं रहा। मैंने उन्हें निराश किया और मैंने उन्हें सारा समय मुझे याद करने का दर्द दिया। मेरे माता-पिता ने मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने में बहुत समय खपाया, आखिर किस लिए? मैंने उन्हें बस कष्ट ही दिए हैं!” इस बारे में तुम जितना ज्यादा सोचोगे, उतना ही यकीन करोगे कि तुमने उन्हें निराश किया, तुम उनके ऋणी थे। फिर तुम सोचोगे : “नहीं, यह सही नहीं है। मैं परमेश्वर में विश्वास रख रहा हूँ, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहा हूँ और परमेश्वर का आदेश पूरा कर रहा हूँ। मैंने किसी को भी निराश नहीं किया है।” लेकिन फिर सोचते हो : “मेरे माता-पिता बहुत बूढ़े हैं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी बच्चा उनके साथ नहीं है। तो फिर उनके मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने का क्या तुक था?” तुम आगे-पीछे डगमगाते रहोगे, किसी भी तरह से सोचो, इस भावना से पार नहीं पा सकोगे। तुम सिर्फ रोओगे नहीं, बल्कि अपने माता-पिता के लिए भावनाओं की उलझनों में गहरे फँस जाओगे। क्या इन हालात में आसक्ति छोड़ना आसान है? तुम कहोगे : “मेरे माता-पिता ने मुझे जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्होंने मुझसे बहुत बड़ा अमीर बन जाने की अपेक्षा नहीं की थी, और मुझसे कभी कुछ ज्यादा माँगा भी नहीं। उन्हें बस आशा थी कि उनके बीमार पड़ने पर और जरूरत होने पर मैं उनके साथ रहूँगा और उनकी पीड़ा घटाऊँगा। मैंने यह भी नहीं किया!” अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार होने की खबर सुनने से लेकर उनकी मृत्यु के दिन तक तुम रोते रहोगे। ऐसी स्थिति का सामना होने पर क्या तुम लोग दुखी हो जाओगे? क्या तुम रोओगे? क्या तुम आँसू बहाओगे? (बिल्कुल।) उस पल, क्या तुम्हारा संकल्प और आकांक्षा डगमगा जाएगी? क्या तुम हड़बड़ी और लापरवाही से अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए लौट जाने को तत्पर हो जाओगे? क्या तुम भीतर गहराई से सोचोगे कि तुम एक बेपरवाह अहसान-फरामोश थे, और तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया? क्या तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी? तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर जो दयालुता दिखाई और तुम्हारे साथ जो अच्छा व्यवहार किया, क्या तुम उसे याद करते रहोगे? (बिल्कुल।) क्या तुम अपना कर्तव्य छोड़ दोगे? क्या तुम अपने दोस्तों या भाई-बहनों से अपने माता-पिता की ताजातरीन खबर पाने की भरसक कोशिश करोगे? सभी लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ होंगी, है कि नहीं? तो क्या इस मामले को सुलझाना आसान है? तुम्हें ऐसे मामलों को कैसे समझना चाहिए? तुम्हें अपने माता-पिता की बीमारी या उन पर किसी बड़ी विपत्ति के मामले को किस दृष्टि से देखना चाहिए? अगर तुम इसकी असलियत समझ सके, तो अनासक्त हो सकोगे। अगर नहीं तो तुम अनासक्त नहीं हो पाओगे। तुम हमेशा सोचते हो कि तुम्हारे माता-पिता ने जो सब-कुछ सहा, जिसका सामना किया, उसका संबंध तुमसे है, और तुम्हें ये बोझ बाँटने चाहिए; तुम हमेशा खुद को दोष देते हो, हमेशा सोचते हो कि इन चीजों का तुम्हीं से कुछ लेना-देना है, हमेशा इनसे जुड़ जाना चाहते हो। क्या यह विचार सही है? (नहीं।) क्यों? तुम्हें इन चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ सामान्य हैं? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ असामान्य और तर्कहीन हैं, और सत्य के अनुरूप नहीं हैं? हम पहले सामान्य अभिव्यक्तियों की बात करेंगे। सभी लोगों को उनके माता-पिता जन्म देते हैं; उनकी अपनी देह और भावनाएँ होती हैं। भावनाएँ मानवीयता का अंश हैं और कोई भी उनसे बच नहीं सकता। भावनाएँ हर व्यक्ति में होती हैं—लोगों की बात क्या, छोटे-छोटे जानवरों में भी होती हैं। लेकिन कुछ लोगों की भावनाएँ थोड़ी तीव्र होती हैं तो कुछ लोगों की थोड़ी कमजोर। हालात चाहे जो हों, ये सभी लोगों में होती हैं। ये चाहे लोगों की भावनाओं, मानवता या तार्किकता से आएँ, सभी लोग अपने माता-पिता के बीमार होने, किसी बड़ी विपत्ति का सामना करने या कोई कष्ट झेलने की खबर सुनकर परेशान हो जाते हैं। सभी लोग परेशान हो जाते हैं। परेशान होना सामान्य बात है, यह एक मानवीय प्रवृत्ति है, जो लोगों की मानवता और भावनाओं में होती है। इसका लोगों में अभिव्यक्त होना अत्यंत सामान्य बात है। उनके माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार होने, या किसी बड़ी विपत्ति का सामना करने पर लोगों के लिए सामान्य है कि वे दुखी हो जाएँ, रोएँ, दबा हुआ महसूस करें, और समस्याएँ दूर करने और अपने माता-पिता का बोझ हल्का करने के तरीके सोचें। कुछ लोगों का शरीर भी इससे प्रभावित होगा—वे खा नहीं पाएँगे, उनके सीने में जकड़न महसूस होगी और वे पूरा दिन अवसाद में रहेंगे। ये तमाम चीजें भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं और ये सब अत्यंत सामान्य हैं। लोगों को इन सामान्य अभिव्यक्तियों के लिए तुम्हारी आलोचना नहीं करनी चाहिए; तुम्हें इन अभिव्यक्तियों से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से किसी से इनकी आलोचना स्वीकार नहीं करनी चाहिए। अगर तुममें ये अभिव्यक्तियाँ हैं, तो इससे साबित होता है कि अपने माता-पिता के लिए तुम्हारी भावनाएँ सच्ची हैं, और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसका जमीर जाग्रत है, और तुम एक सामान्य, साधारण मनुष्य हो। किसी को भावुकता के इन प्रदर्शनों के लिए या तुम्हारी इन भावनात्मक जरूरतों को लेकर तुम्हारी आलोचना नहीं करनी चाहिए। ये सभी अभिव्यक्तियाँ तार्किकता और जमीर के दायरे में आती हैं। तो ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं जो सामान्य नहीं हैं? असामान्य अभिव्यक्तियाँ वे हैं जो तार्किकता से परे होती हैं। वे तब होती हैं जब लोग अपने साथ ये चीजें घटते ही आवेग में आ जाते हैं, और तुरंत सब-कुछ छोड़ कर अपने माता-पिता के पास लौट जाना चाहते हैं, जो सारा दोष खुद पर डाल लेने, और पहले अपनाए आदर्शों, आकांक्षाओं, संकल्प और परमेश्वर के समक्ष ली गई शपथों का भी परित्याग कर देने की जल्दी कर बैठते हैं। ये अभिव्यक्तियाँ असामान्य हैं, और तार्किकता से परे हैं, ये अत्यधिक आवेगशील हैं! जब लोग एक पथ चुनते हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे गर्ममिजाजी के आवेग में दोष-रहित और सही पथ चुन सकते हैं। तुम्हारा कर्तव्य निभाने के पथ पर चलने को चुनना और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का चयन करना कोई सरल बात नहीं है, और यह ऐसी चीज है जिसका स्थान कुछ और नहीं ले सकता। यह निश्चित रूप से ऐसा चयन नहीं है जो गर्ममिजाजी के आवेग में किया जा सकता हो। इसके अलावा, यही सही पथ है—तुम्हें अपने जीवन में सही पथ पर चलने का फैसला आसपास के माहौल, लोगों, घटनाओं और चीजों के कारण बदल नहीं देना चाहिए। तुममें यह तार्किकता होनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण चीज है एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना और इस पर किसी चीज का असर नहीं पड़ना चाहिए, फिर वो चाहे तुम्हारे माता-पिता हों या किसी भी तरह का बड़ा बदलाव। यह इस मामले का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम्हारे माता-पिता को कब-कैसे कोई बीमारी लग जाएगी और उसके क्या नतीजे होंगे, क्या ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम तय कर सकते हो? तुम कह सकते हो : “शायद ऐसा इसलिए हुआ कि मैं एक संतानोचित बच्चा नहीं था। अगर मैंने ये वर्ष मेहनत से पैसे कमाने और काम करने में लगाए होते और मैं आर्थिक दृष्टि से मालदार होता, तो उन्होंने इस बीमारी का इलाज पहले करवा लिया होता, और यह इतनी नहीं बिगड़ती। यह मेरे संतानोचित न होने के कारण हुआ।” क्या यह सोच सही है? (नहीं।) अगर किसी व्यक्ति के पास पैसा है, तो क्या उसका जरूर यह अर्थ है कि वे अच्छी सेहत खरीद सकेंगे और बीमार होने से बच सकेंगे? (नहीं।) क्या इस संसार के अमीर कभी बीमार नहीं पड़ते? जैसे ही किसी व्यक्ति को लगता है कि वह बीमार पड़ रहा है, तब से बीमार होने तक और आखिरकार मर जाने तक, ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत है। इसे कोई व्यक्ति कैसे तय कर सकता है? पैसा होना न होना इसे कैसे नियत कर सकता है? किसी का परिवेश इसे कैसे नियत कर सकता है? ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से नियत होते हैं। इसलिए, तुम्हें अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या किसी बड़ी विपत्ति में फँसने का बहुत ज्यादा विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से बहुत-सी ऊर्जा इसमें नहीं लगानी चाहिए—ऐसा करने का कोई लाभ नहीं होगा। लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : “मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?” क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था। बात बस इतनी है कि चूँकि बच्चे के तौर पर तुम्हारा अपने माता-पिता के साथ खून का रिश्ता है, इसलिए उनके बीमार होने की बात सुनकर तुम परेशान हो जाते हो, जबकि दूसरे लोगों को कुछ महसूस नहीं होता। यह बहुत सामान्य है। लेकिन, तुम्हारे माता-पिता के ऐसी महाविपत्ति का सामना करने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने की जरूरत है, या यह चिंतन करने की जरूरत है कि इससे कैसे मुक्त हों या इसे कैसे दूर करें। तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते। अगर तुम अकेले ही इस मामले को सुलझाना चाहते हो, इसके स्रोत, कारणों और नतीजों का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना चाहते हो, तो यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। इसका कोई लाभ नहीं, और यह बेकार है। तुम्हें इस तरह कार्य नहीं करना चाहिए, विश्लेषण, जाँच-पड़ताल और मदद के लिए अपने सहपाठियों और दोस्तों से संपर्क करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, बढ़िया डॉक्टरों से संपर्क करने और उनके लिए सर्वोत्तम अस्पताल शय्या की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए—तुम्हें ये सब करने में अपना दिमाग नहीं कुरेदना चाहिए। अगर तुम्हारे पास सच में कुछ ज्यादा ऊर्जा है, तो तुम्हें अभी जो कर्तव्य निभाना है उसे बढ़िया ढंग से करना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता का अपना अलग भाग्य है। कोई भी उस उम्र से बच नहीं सकता जब उसे मरना है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं, और उसी तरह से तुम अपने माता-पिता के भाग्य के विधाता नहीं हो। अगर उनके भाग्य में उन्हें कुछ होना लिखा है, तो तुम उस बारे में क्या कर सकते हो? व्याकुल होकर और समाधान खोजकर तुम कौन-सा प्रभाव हासिल कर सकते हो? इससे कुछ भी हासिल नहीं हो सकता; यह परमेश्वर के इरादों पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर उन्हें दूर ले जाना चाहता है, और तुम्हें अपना कर्तव्य अबाधित रूप से निभाने देना चाहता है, तो क्या तुम इसमें दखलंदाजी कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर से शर्तों पर चर्चा कर सकते हो? तुम्हें इस वक्त क्या करना चाहिए? अपना दिमाग कुरेद कर समाधान पाना, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करना, खुद को दोष देना और अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा महसूस करना—क्या ये विचार और कार्य किसी व्यक्ति को करने चाहिए? ये तमाम अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के अभाव की हैं; ये अतार्किक, बुद्धिहीन और परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ नहीं होनी चाहिए। क्या तुम समझे? (बिल्कुल।)

कुछ लोग कहते हैं : “मैं जानता हूँ कि मुझे अपने माता-पिता के बीमार होने या किसी बड़े दुर्भाग्य का सामना करने के मामले का विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, ऐसा करना निरर्थक है, और मुझे इसे सत्य सिद्धांतों पर आधारित नजरिये से देखना चाहिए, लेकिन मैं खुद को इसका विश्लेषण या जाँच-पड़ताल करने से रोक नहीं सकता।” तो चलो संयम की समस्या को दूर करें, ताकि तुम्हें अब खुद को रोकने की जरूरत न पड़े। इसे कैसे हासिल किया जा सकता है? इस जीवन में सेहतमंद लोग 50 या 60 के होने के बाद बुढ़ापे के लक्षण महसूस करने लगते हैं—उनकी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ घिसने लगती हैं, उनकी ताकत चली जाती है, वे न अच्छी तरह सो सकते हैं न ज्यादा खा सकते हैं, और उनमें काम करने, पढ़ने या किसी भी तरह की नौकरी करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। उनके भीतर तरह-तरह की बीमारियाँ सिर उठाने लगती हैं, जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दिल की बीमारी, दिल और दिमाग को खून पहुँचाने वाली नसों की बीमारियाँ, वगैरह-वगैरह। जो लोग थोड़े सेहतमंद होते हैं, वे बुढ़ापे के इन लक्षणों के बावजूद जरूरी काम कर लेते हैं और ये लक्षण उनके सामान्य जीवन जीने और कामकाज को प्रभावित नहीं करते। यह बहुत अच्छी बात है। ये लक्षण कम सेहतमंद लोगों के सामान्य ढंग से जीने और काम करने को जरूर प्रभावित करते हैं, उन्हें कभी-कभी डॉक्टर से मिलने अस्पताल जाना पड़ता है। इनमें से कुछ लोग सर्दी-जुकाम या सिरदर्द के शिकार हो जाते हैं; दूसरे कुछ लोगों को पेट की तकलीफ या दस्त होता है, और दस्त होने पर हर बार उन्हें दो-दिन बिस्तर पर आराम करना पड़ता है। कुछ लोगों को उच्च रक्तचाप होता है और उन्हें इतना चक्कर आता है कि वे चल नहीं पाते, कार नहीं चला सकते या घर से दूर नहीं जा सकते। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो मूत्र पर नियंत्रण नहीं कर पाते, उन्हें बाहर जाने में बड़ी असुविधा होती है, इसलिए वे विरले ही अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ यात्रा पर निकलते हैं। कुछ दूसरे लोग हैं जिन्हें खाने से एलर्जी हो जाती है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो ठीक से सो नहीं पाते, शोर-भरी जगहों में उन्हें नींद नहीं आती; किसी दूसरी जगह जाते ही उनके लिए सोना और भी कठिन हो जाता है। इन सभी चीजों का लोगों के जीवन और काम पर बड़ा गंभीर असर होता है। ऐसे भी कुछ लोग होते हैं, जो लगातार तीन-चार घंटे से ज्यादा काम नहीं कर पाते। और फिर कुछ मामले इनसे भी गंभीर होते हैं, जिनमें लोग 50-60 की उम्र में कोई जानलेवा रोग पकड़ लेते हैं, जैसे कैंसर, मधुमेह, रूमेटिक हृदय रोग, स्मृतिभ्रंश या पार्किन्सन रोग, वगैरह। चाहे ये बीमारियाँ उनके खान-पान से हुई हों, या प्रदूषित पर्यावरण, हवा या पानी से, मनुष्य के शरीर का विधान यह है कि महिलाएँ जब 45 की और पुरुष 50 के होते हैं तो उनके शरीर का उत्तरोत्तर क्षय होने लगता है। हर दिन वे कहते हैं कि उनके शरीर के इस हिस्से में तकलीफ है, या उस हिस्से में पीड़ा है, और वे जाँच के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं, और पता चलता है कि यह जानलेवा कैंसर है। आखिरकार, डॉक्टर कहता है : “घर जाओ, इसका इलाज नहीं हो सकता।” सभी लोगों को ये शारीरिक बीमारियाँ होंगी। आज इन्हें हुई है, कल तुम्हें और हमें हो सकती है। उम्र और क्रम के अनुसार सभी लोग पैदा होंगे, बूढ़े होंगे, बीमार पड़ेंगे और मर जाएँगे—जवानी से वे बुढ़ापे में प्रवेश करते हैं, बुढ़ापे में उन्हें बीमारी होती है, और बीमारी से उनकी मृत्यु हो जाती है—यही विधान है। बस इतना ही है कि जब तुम अपने माता-पिता के बीमार पड़ने की खबर सुनते हो, तो उनके सबसे करीबी और सबसे फिक्रमंद होने और उनके हाथों पले-बड़े होने के कारण तुम अपनी भावनाओं की इस बाधा से उबर नहीं पाओगे, और सोचोगे : “जब दूसरे लोगों के माता-पिता की मृत्यु होती है तो मुझे कुछ महसूस नहीं होता, लेकिन मेरे माता-पिता बीमार नहीं हो सकते, क्योंकि इससे मैं दुखी हो जाता हूँ। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता, मेरा दिल दुखता है, मैं अपनी भावनाओं से उबर नहीं सकता!” सिर्फ इसलिए कि वे तुम्हारे माता-पिता हैं, तुम सोचते हो कि उन्हें बूढ़ा नहीं होना चाहिए, बीमार नहीं पड़ना चाहिए और निश्चित रूप से उनकी मृत्यु नहीं होनी चाहिए—क्या इसके कोई मायने हैं? इसके कोई मायने नहीं हैं और यह सत्य नहीं है। तुम्हें समझ आया? (हाँ।) हर व्यक्ति को अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और कुछ गंभीर मामलों में कुछ लोगों के माता-पिता के लकवे से बिस्तर पकड़ लेने और कुछ के जड़ अवस्था में पड़ जाने का सामना करना पड़ेगा। कुछ लोगों के माता-पिता को उच्च रक्तचाप, आंशिक लकवा, स्ट्रोक या कोई गंभीर बीमारी भी हो जाती हैं और वे मर जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और फिर मर जाने का स्वयं गवाह होता है या इस बारे में सुनता है। बस इतना ही है कि कुछ लोग यह खबर कुछ जल्दी सुन लेते हैं जब उनके माता-पिता 50 की उम्र में होते हैं; कुछ लोग तब सुनते हैं जब उनके माता-पिता 60 के होते हैं; और दूसरे कुछ लोग तभी सुनते हैं जब उनके माता-पिता 80, 90 या 100 वर्ष के हो जाते हैं। लेकिन तुम यह खबर चाहे जब सुनो, एक पुत्र या पुत्री के रूप में किसी-न-किसी दिन, देर-सबेर, तुम इस तथ्य को स्वीकार करोगे। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने ढंग से सोचना चाहिए, तुम्हें लोगों के जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मरने को लेकर सही रवैया अपनाना चाहिए, आवेगशील नहीं होना चाहिए; ऐसा नहीं होना चाहिए कि अपने माता-पिता के बीमार होने की खबर सुनकर या अस्पताल से उनके गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना मिलने पर तुम उसे बर्दाश्त न कर सको। जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना ऐसी चीजें हैं जिन्हें हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही चाहिए, फिर तुम किस आधार पर इसे बर्दाश्त करने में असमर्थ हो? यह वह विधान है जो परमेश्वर ने मनुष्य के जन्म-मरण के लिए नियत कर रखा है, फिर तुम इसका उल्लंघन क्यों करना चाहते हो? तुम इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? तुम्हारा इरादा क्या है? तुम अपने माता-पिता को मरने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के परमेश्वर द्वारा स्थापित विधान के अनुसार जीने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें बीमार पड़ने और मर जाने से रोक देना चाहते हो—यह उन्हें क्या बना देगा? क्या यह उन्हें कृत्रिम मनुष्य नहीं बना देगा? क्या वे तब भी मनुष्य रहेंगे? इसलिए तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार करना ही चाहिए। यह खबर सुनने से पहले कि तुम्हारे माता-पिता बूढ़े हो रहे हैं, बीमार पड़ गए हैं और मर चुके हैं, तुम्हें मन-ही-मन में खुद को इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए। देर-सबेर प्रत्येक व्यक्ति बूढ़ा होगा, कमजोर पड़ेगा और मर जाएगा। चूँकि तुम्हारे माता-पिता सामान्य लोग हैं, वे इस चरण का अनुभव क्यों नहीं कर सकते? उन्हें इस चरण का अनुभव करना चाहिए और तुम्हें इसे सही नजरिये से देखना चाहिए। क्या यह मामला सुलझ गया है? क्या अब तुम ऐसी चीजों से तार्किक ढंग से निपट सकोगे? (हाँ।) फिर जब तुम्हारे माता-पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ जाएँ, या भविष्य में उन पर कोई बड़ा दुर्भाग्य टूट पड़े, तो तुम उसे किस नजरिये से देखोगे? इसकी अनदेखी करना भी गलत है और लोग कहेंगे : “तुम साँप हो या बिच्छू? तुम इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हो?” तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, इसलिए तुममें कोई हलचल तो होनी चाहिए। तुम्हें सोचना चाहिए : “मेरे माता-पिता का जीवन बहुत कठिन था, उन्हें छोटी उम्र में ही यह बीमारी हो गई। उन्हें कोई आशीष नहीं मिला, और वे परमेश्वर में अपने विश्वास में एकाग्रचित्त नहीं रहे। उनका जीवन ऐसा ही था। उन्होंने कुछ भी नहीं समझा, उन्होंने सही पथ पर चलकर सत्य का अनुसरण नहीं किया। उन्होंने बस यूँ ही अपने दिन गुजार दिए। उनमें और जानवरों में कोई फर्क नहीं है—उनमें और बूढ़ी गायों या बूढ़े घोड़ों में कोई फर्क नहीं है। अब जबकि वे गंभीर रूप से बीमार हैं, उन्हें खुद ही अपना बचाव करना होगा, मगर आशा करता हूँ कि परमेश्वर उनकी तकलीफ थोड़ी कम कर सकेगा।” अपने दिल से उनके लिए प्रार्थना करो, यह काफी है। कोई भी व्यक्ति क्या कर सकता है? अगर तुम अपने माता-पिता के साथ नहीं हो, तो तुम कुछ नहीं कर सकते; तुम उनके सिरहाने रह भी लो, तो भी क्या कर सकते हो? कितने सारे लोगों ने अपने माता-पिता को यौवन से बुढ़ापे में जाते, बुढ़ापे में तरह-तरह की बीमारियाँ पकड़ने, तरह-तरह की बीमारियाँ पकड़ने से उनके इलाज के नाकामयाब होने, उनके मृत घोषित किए जाने और मुर्दाघर में डाले जाने को खुद देखा है? ऐसे लोगों की कमी नहीं है। ये सभी बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं, मगर वे क्या कर सकते हैं? वे कुछ नहीं कर सकते; सिर्फ देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को फिलहाल न देखने से तुम्हारी तकलीफ थोड़ी कम हो जाएगी; इसे न देखना ही बेहतर है, तुम्हारे लिए इसे होते हुए देखना अच्छी बात नहीं होगी। क्या ऐसी स्थिति नहीं है? (जरूर है।) इस मामले में एक ओर तुम्हें यह असलियत जाननी चाहिए कि लोगों का जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना परमेश्वर का स्थापित विधान है; दूसरी ओर, तुम्हें लोगों के भाग्य और उनकी उन जिम्मेदारियों को देखना चाहिए जो उन्हें पूरी करनी ही हैं, तुम्हें तर्कहीन होकर आवेगपूर्ण या मूर्खतापूर्ण हरकतें नहीं करनी चाहिए। तुम्हें ऐसी हरकतें क्यों नहीं करनी चाहिए? क्योंकि तुम इन्हें करोगे, तो भी इनका कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि इससे तुम्हारी मूर्खता का खुलासा होगा। इससे भी अधिक गंभीर रूप से, मूर्खतापूर्ण कार्य करते समय तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, और वह इसे पसंद नहीं करता, इससे घृणा करता है। ये सभी सत्य तुम्हारे मन में स्पष्ट हैं और तुम इन्हें सिद्धांत के अर्थ में समझते हो, फिर भी तुम अपने ही पथ से चिपके रहते हो, और अड़ियल होकर कुछ चीजें जान-बूझ कर और मानवीय तरीके से करते हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता, वह तुमसे घृणा करता है। उसे तुम्हारी किस बात से बेइंतहा नफरत है? उसे तुम्हारी मूर्खता और विद्रोहीपन से बेइंतहा नफरत है। तुम सोचते हो कि तुममें थोड़ी मानवीय भावना है, लेकिन परमेश्वर कहता है कि तुम जिद्दी और मूर्ख हो—तुम जिद्दी, मूर्ख, नासमझ और दुराग्रही हो, और तुम न तो सत्य को स्वीकार करते हो, न ही परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होते हो। परमेश्वर ने तुम्हें इस मामले में निहित सार, स्रोत और अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट रूप से बताया है, लेकिन तुम अभी भी ये चीजें सँभालने के लिए अपनी भावनाओं का इस्तेमाल करना चाहते हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता। आखिरकार, अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता की बीमारी उनसे दूर नहीं करता, तो अगर उनके साथ यही होना है तो वे गंभीर रूप से बीमार होकर मर जाएँगे। इस तथ्य को कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता। अगर तुम इसे बदलना चाहते हो, तो इससे बस यही साबित होता है कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता को बदलने के लिए अपने ही हाथ और तरीके इस्तेमाल करना चाहते हो। यह सबसे बड़ी विद्रोहशीलता है, और तुम परमेश्वर का विरोध कर रहे हो। अगर तुम परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहते, तो अपने माता-पिता की आपबीती सुनकर तुम्हें शांत रहना चाहिए, एक ऐसी जगह तलाशनी चाहिए जहाँ तुम अकेले रो सको, सोच सको, प्रार्थना कर सको और अपने आसपास के भाई-बहनों से अपनी तड़प व्यक्त कर सको। तुम्हें बस इतना ही करना है। तुम्हें किसी चीज को बदलने के बारे में नहीं सोचना चाहिए और तुम्हें निश्चित रूप से मूर्खतापूर्ण हरकतें नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए यह विनती मत करो कि वह तुम्हारे माता-पिता की बीमारी दूर कर दे और उन्हें कुछ वर्ष और जी लेने दे, या तुम्हारे अपने जीवन से दो वर्ष लेकर उन्हें दे दे, वो भी सिर्फ इसलिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, या इस आधार पर कि तुमने अपना कर्तव्य निभाने के लिए इतने वर्षों से अपने परिवार को त्याग दिया या अपने करियर का परित्याग कर दिया। ऐसे काम मत करो। परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाएँ नहीं सुनेगा, वह ऐसे विचारों और प्रार्थनाओं से घृणा करता है। परमेश्वर को परेशान या नाराज मत करो। परमेश्वर उन लोगों से अत्यंत विमुख होता है जो किसी के भाग्य के साथ चालाकी करना चाहते हैं, किसी व्यक्ति के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को बदलना चाहते हैं, या ऐसे कुछ तथ्य बदल देना चाहते हैं जो परमेश्वर द्वारा बहुत पहले से स्थापित हैं, या लोगों के भाग्य पथ बदल देना चाहते हैं। परमेश्वर इससे सबसे अधिक घृणा करता है।

अपने माता-पिता के बीमार होने को लेकर लोगों का जो रवैया, विचार और समझ होनी चाहिए, उस पर मैंने अपनी संगति समाप्त कर दी है। इसी तरह माता-पिता के निधन को लेकर भी लोगों को एक सही और तार्किक रवैया अपनाना चाहिए। कुछ लोग अपने माता-पिता से कई वर्षों से दूर रहे हैं, वे अपने माता-पिता के सिरहाने या उनके साथ नहीं रहे हैं, और जब उन्हें एकाएक अपने माता-पिता की मृत्यु का पता चलता है, तो उन्हें गहरा झटका लगता है और यह सब बिल्कुल अचानक हुआ-सा लगता है। चूँकि ये लोग अपने माता-पिता के पास नहीं हैं या बरसों से उनके साथ नहीं रहे, इसलिए उनके विचारों और धारणाओं में हमेशा एक किस्म की गलतफहमी होती है। कैसी गलतफहमी? जब तुमने अपने माता-पिता को छोड़ा था, तब वे जीवित और ठीक थे। इतने वर्षों से उनसे अलग रहने के बाद भी तुम्हारे मन में अपने माता-पिता की उम्र वही होती है, वे उसी शारीरिक और जीने की अवस्था में होते हैं, जो तुम्हें याद है। इससे बड़ी गड़बड़ हो जाती है। फिर तुम मान लेते हो कि तुम्हारे माता-पिता कभी बूढ़े नहीं होंगे, वे कई-कई जन्मदिन मनाने के लिए जीते रहेंगे। यानी जैसे ही उनके चेहरे तुम्हारे दिल में बस जाते हैं, जैसे ही उनका जीवन, उनकी बातें और उनका आचरण तुम्हारे मन और याददाश्त में अपनी छाप और छवि बना लेते हैं, तो तुम सोचने लगते हो कि तुम्हारे माता-पिता सदा वैसे ही रहेंगे, बदलेंगे नहीं, बूढ़े नहीं होंगे और यकीनन नहीं मरेंगे। यहाँ “नहीं मरेंगे” का क्या अर्थ है? इसका एक अर्थ है कि उनके भौतिक शरीर गायब नहीं होंगे। इसका दूसरा अर्थ है कि उनके चेहरे, तुम्हारे लिए उनकी भावनाएँ इत्यादि गायब नहीं होंगी। यह एक गलतफहमी है, और इससे तुम्हें बहुत कष्ट होगा। इसलिए तुम्हारे माता-पिता किसी भी उम्र के हों, उनकी मृत्यु बुढ़ापे से हो, बीमारी से हो या किसी दुर्घटना से, इससे तुम्हें झटका लगेगा और यह तुम्हें एकाएक हुआ-सा लगेगा। चूँकि तुम्हारे मन में तुम्हारे माता-पिता अभी भी जीवित और भले-चंगे हैं, और फिर वे अचानक गुजर चुके हैं, इसलिए तुम सोचोगे : “वे कैसे गुजर सकते हैं? जीवित लोग अचानक धूल-मिट्टी में कैसे बदल सकते हैं? मेरा दिल हमेशा कहता है कि मेरे माता-पिता अभी जीवित हैं, मेरी माँ अभी भी रसोई में खाना पका रही है, बहुत व्यस्त है और मेरे पिता हर दिन बाहर काम कर रहे हैं, सिर्फ शाम को घर आते हैं।” उनके जीवन के इन दृश्यों ने तुम्हारे मन पर कुछ छाप छोड़ दी है। इसलिए अपनी भावनाओं के कारण तुम्हारी चेतना में ऐसा कुछ होता है जो नहीं होना चाहिए, जो एक विश्वास है कि तुम्हारे दिल में तुम्हारे माता-पिता हमेशा जीवित रहेंगे। इस तरह तुम मानते हो कि उन्हें मरना नहीं चाहिए, और उनकी मृत्यु किन्हीं भी हालात में हुई हो, तुम्हें लगेगा कि यह तुम्हारे लिए एक गहरा झटका है, और तुम इसे स्वीकार नहीं कर पाओगे। तुम्हें इस तथ्य से उबरने में समय लगेगा, है कि नहीं? अपने माता-पिता का बीमार होना तुम्हारे लिए पहले से ही एक गहरा झटका है, तो उनका निधन उससे भी बड़ा झटका होगा। तो फिर निधन होने से पहले तुम्हें उस अप्रत्याशित झटके का समाधान कैसे करना चाहिए, ताकि यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या चलने के पथ में रुकावट न डाले? सबसे पहले आओ देखें वास्तव में मृत्यु का अर्थ क्या है और गुजर जाना क्या होता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति इस दुनिया को छोड़ रहा है? (हाँ।) इसका अर्थ है कि शारीरिक मौजूदगी वाला किसी व्यक्ति का जीवन मनुष्य द्वारा देखे जा सकने वाले भौतिक संसार से हटा दिया जाता है और फिर वह गायब हो जाता है। वह व्यक्ति फिर किसी और दुनिया में, किसी और रूप में जीने के लिए चला जाता है। तुम्हारे माता-पिता के जीवन के प्रस्थान का अर्थ है कि इस संसार में उनसे तुम्हारा रिश्ता भंग, गायब और खत्म हो चुका है। वे किसी और दुनिया में किसी और रूप में जी रहे हैं। उस दूसरी दुनिया में उनका जीवन किस तरह चलेगा, क्या वे इस दुनिया में लौटकर आएँगे, तुमसे फिर मिलेंगे या तुम्हारे साथ उनका कोई शारीरिक संबंध होगा या वे तुमसे किसी भावनात्मक जाल में उलझेंगे, यह परमेश्वर द्वारा नियत है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। कुल मिलाकर, उनके निधन का अर्थ है कि इस दुनिया में उनके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं, और उनके पीछे एक पूर्ण विराम लग चुका है। इस जीवन और संसार में उनका उद्देश्य समाप्त हो चुका है, इसलिए उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भी खत्म हो चुका है। क्या भविष्य में उनका पुनर्जन्म होगा, उन्हें कोई दंड भरना होगा या प्रतिबंध झेलने होंगे, या इस दुनिया में कोई चीज सँभालनी होगी या व्यवस्था करनी होगी, क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? क्या तुम यह तय कर सकते हो? इसका तुमसे कोई सरोकार नहीं है, तुम यह तय नहीं कर सकते, और तुम इसकी कोई खबर भी नहीं पा सकोगे। तब इस जीवन में उनसे तुम्हारा रिश्ता खत्म हो चुका है। यानी जिस भाग्य ने तुम्हें 10, 20, 30 या 40 साल तक बाँधे रखा, वह तब खत्म हो गया। इसके बाद वे अलग हैं और तुम अलग, और तुम लोगों के बीच कोई भी रिश्ता नहीं रहता। भले ही तुम सब परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया, और तुमने अपना; जब वे और तुम एक ही स्थान के परिवेश में नहीं जीते तो तुम लोगों के बीच कोई रिश्ता नहीं रह जाता। उन्होंने बस परमेश्वर से मिले उद्देश्य पहले ही पूरे कर लिए हैं। इसलिए जहाँ तक यह बात है कि उन्होंने तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ निभाईं, तो ये उसी दिन खत्म हो जाती हैं जब तुम उनसे स्वतंत्र होकर रहने लगते हो—तब अपने माता-पिता से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं रहता है। अगर आज उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम बस भावनात्मक स्तर पर कोई चीज याद करोगे, और तुम्हारी लालसा के दो प्रियजन कम हो जाएँगे। तुम उन्हें फिर कभी नहीं देखोगे, फिर कभी उनकी कोई खबर नहीं सुन पाओगे। बाद में उनके साथ जो भी हो, उनका भविष्य जैसा भी हो, उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं होता, उनके साथ तुम्हारा कोई रक्त संबंध नहीं रहता, और तुम अब उसी प्रकार के प्राणी भी नहीं रह पाते। ऐसा ही होता है। तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु बस वह आखिरी खबर होगी जो तुम इस संसार में उनके बारे में सुनोगे और वह अंतिम चरण होगा जो तुम उनके जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के अनुभवों के बारे में सुनोगे या देखोगे, बस और कुछ नहीं। उनकी मृत्यु तुमसे कुछ लेकर नहीं जाएगी न तुम्हें कुछ देगी, वे बस गुजर चुके होंगे, मनुष्यों के रूप में उनकी यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। इसलिए उनकी मृत्यु की बात हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी मृत्यु दुर्घटना से हुई, सामान्य रूप से हुई, या बीमारी वगैरह से, किसी भी स्थिति में, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के बिना कोई भी व्यक्ति या ताकत उनका जीवन नहीं ले सकती। उनकी मृत्यु का अर्थ बस उनके शारीरिक जीवन का अंत है। अगर तुम्हें उनकी याद आए, तुम उनके लिए तरसते हो, या अपनी भावनाओं के चलते खुद से शर्मिंदा होते हो, तो तुम्हें इनमें से कुछ भी महसूस नहीं करना चाहिए, और इन्हें अनुभव करना जरूरी नहीं है। वे इस संसार से जा चुके हैं, इसलिए उन्हें याद करना अनावश्यक है, है कि नहीं? अगर तुम सोचते हो : “क्या मेरे माता-पिता इन तमाम वर्षों में मुझे याद करते रहे होंगे? इतने वर्षों तक संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए मेरा उनके पास न रहना उनके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा? इन सभी वर्षों में मेरी हमेशा यह कामना रही कि मैं उनके साथ कुछ दिन बिता पाता, मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी उनका निधन हो जाएगा। मुझे दुख और अपराध-बोध होता है।” तुम्हारा इस तरह सोचना जरूरी नहीं है, उनकी मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका तुमसे कोई लेना-देना क्यों नहीं है? क्योंकि भले ही तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाते या उनके साथ रहते, यह वह दायित्व या कार्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। वे इस कारण से ज्यादा लंबे समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनके साथ हो, और इस वजह से कम समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनसे बहुत दूर हो और उनके साथ अक्सर नहीं रह पाए हो। परमेश्वर ने नियत किया है कि उनका जीवन कितना लंबा होगा, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, अगर तुम यह खबर सुनते हो कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु तुम्हारे जीवनकाल में हो गई है, तो तुम्हें अपराध-बोध पालने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखकर स्वीकार करना चाहिए। अगर तुम उनके गंभीर रूप से बीमार होने पर पहले ही बहुत आँसू बहा चुके हो, तो तुम्हें उनके निधन पर खुश और आजाद महसूस करना चाहिए; उन्हें विदा करने के बाद तुम्हें रोने की जरूरत नहीं है। तुमने उनके बच्चे के रूप में पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली होंगी, तुमने उनके लिए प्रार्थना की होगी, उनके लिए दुखी हुए होगे, अनगिनत आँसू बहाए होंगे और बेशक तुमने उनकी बीमारी के इलाज के हर संभव समाधान सोचे होंगे, और उनकी पीड़ा कम करने की भरसक कोशिश की होगी। तुमने उनके बच्चे के रूप में वह सब पहले ही कर लिया होगा जो तुम कर सकते हो। उनकी मृत्यु हो जाने पर तुम सिर्फ यह कह सकते हो : “आप लोगों का जीवन बहुत कठिन था। आपके बच्चे के रूप में मैं आपकी आत्मा की शांति की आशा करता हूँ। अगर आपने इस जीवन में परमेश्वर के अपमान के बहुत-से काम किए हों, तो आपको अगले संसार में दंड भुगतना होगा। अगर दंड भुगतने के बाद परमेश्वर आपको इस संसार में पुनर्जन्म लेने का अवसर देता है, तो आशा करता हूँ कि आप बढ़िया आचरण करने और सही पथ पर चलने का भरसक प्रयास करेंगे। परमेश्वर का अपमान करने के और कोई काम न करें, और प्रयास करें कि अगले जीवन में आपको कोई दंड न मिले।” बस इतना ही। क्या यह बात ठीक से कही गई है? तुम बस इतना ही कर सकते हो; चाहे यह तुम्हारे माता-पिता के लिए हो या किसी प्रियजन के लिए, तुम बस इतना ही कर सकते हो। बेशक, जब तुम्हारे माता-पिता आखिरकार गुजर जाएँ, तब अगर तुम उनके साथ नहीं रह सके, या उन्हें आखिरी बार थोड़ी दिलासा नहीं दे सके, तो तुम्हारा दुखी होना जरूरी नहीं है। ऐसा इसलिए कि हर व्यक्ति इस दुनिया से वास्तव में अकेला ही जाता है। भले ही उनके बच्चे उनके साथ हों, मगर किसी मृत्यु के फरिश्ते के उन्हें लेने आने पर सिर्फ वे ही उसे देख पाएँगे। उनके जाते समय कोई भी व्यक्ति उनके साथ नहीं जाएगा, न उनके बच्चे उनके साथ जा सकते हैं, न ही जीवनसाथी। जब लोग संसार छोड़कर जाते हैं, तब वे हमेशा अकेले ही होते हैं। अपने आखिरी पल में, हर व्यक्ति को इस स्थिति, इस प्रक्रिया और इस परिवेश का सामना करने की जरूरत पड़ती है। इसलिए अगर तुम उनके पास हो, और वे तुम्हें ही देख रहे हों, फिर भी इसका कोई लाभ नहीं। जब उन्हें छोड़कर जाना होगा, तब अगर वे तुम्हारा नाम पुकारना चाहें तो भी वे नहीं पुकार पाएँगे और तुम उनकी आवाज नहीं सुन पाओगे; अगर वे हाथ बढ़ाकर तुम्हें पकड़ना चाहें तो उनमें ताकत नहीं होगी और तुम इसे महसूस नहीं कर पाओगे। वे अकेले ही होंगे। ऐसा इसलिए कि हर व्यक्ति इस संसार में अकेले ही आता है और आखिरकार उसे अकेले ही जाना पड़ता है। यह परमेश्वर द्वारा नियत है। ऐसी चीजों का अस्तित्व लोगों को यह और भी स्पष्ट रूप से देखने योग्य बनाता है कि उनका जीवन और भाग्य, उनका जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना सब परमेश्वर के हाथ में है, और हर व्यक्ति का जीवन स्वतंत्र है। हालाँकि सभी लोगों के माता-पिता, भाई-बहन और रिश्तेदार होते हैं, मगर परमेश्वर के दृष्टिकोण और जीवन के नजरिये से, प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्वतंत्र है, लोगों के जीवन समूहबद्ध नहीं हैं और किसी भी जीवन का साथी नहीं है। सृजित मनुष्य के दृष्टिकोण से प्रत्येक जीवन स्वतंत्र है, लेकिन परमेश्वर के दृष्टिकोण से उसके द्वारा सृजित कोई भी जीवन अकेला नहीं है, क्योंकि परमेश्वर प्रत्येक के साथ है और सबको आगे खींच रहा है। बात बस इतनी है कि जब तुम इस संसार में हो, तो तुम अपने माता-पिता के यहाँ जन्म लेते हो, और तुम सोचते हो कि तुम्हारे माता-पिता ही तुम्हारे सबसे ज्यादा करीब हैं, लेकिन असल में जब तुम्हारे माता-पिता यह संसार छोड़कर जाएँगे, तब तुम्हें एहसास होगा कि वे तुम्हारे सबसे करीबी नहीं हैं। जब उनके जीवन का अंत होगा, तब भी तुम जीवित रहोगे, उनके जीवन का अंत होने से तुम्हारा जीवन नहीं छिन जाएगा, और इससे तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम इतने वर्षों से उनसे दूर रहे हो और अभी भी तुम अच्छा जीवन जी रहे हो। ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर तुम्हारी देखभाल कर रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है; तुम उनकी संप्रभुता के अधीन जी रहे हो। जब तुम्हारे माता-पिता इस संसार से जा चुके होंगे, तो तुम और अधिक जान लोगे कि तुम्हारे माता-पिता के तुम्हारे साथ रहे बिना, तुम्हारी देखभाल किए बिना, तुम्हारा ख्याल रखे बिना या पाले-पोसे बिना, इन वर्षों में तुम बड़े हुए, वयस्क हुए, अधेड़ हुए, बूढ़े हुए, और परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन तुमने अपने जीवन में बहुत-कुछ समझा है, और तुम्हारी आगे की दिशा और राह और ज्यादा स्पष्ट हो गई हैं। इसलिए लोग अपने माता-पिता को छोड़ पाते हैं। उनके माता-पिता का अस्तित्व सिर्फ उनके बचपन में आवश्यक है, लेकिन बड़े हो जाने के बाद माता-पिता का अस्तित्व महज एक औपचारिकता है। उनके माता-पिता बस उनके भावनात्मक पोषण और सहारा हैं, और वे जरूरी नहीं हैं। बेशक, जब तुम्हारे माता-पिता इस संसार को छोड़ जाते हैं, तो ये चीजें तुम्हारे मन में और ज्यादा स्पष्ट हो जाएँगी, और तुम्हें और अधिक लगेगा कि लोगों का जीवन परमेश्वर से आता है, और लोग परमेश्वर का सहारा लिए बिना, परमेश्वर के उनका मानसिक और आध्यात्मिक पोषण बने बिना, और उनके जीवन का पोषण बने बिना वे जी नहीं सकते। जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें छोड़ देते हैं, तो तुम बस उन्हें भावनात्मक स्तर पर याद करोगे, लेकिन साथ ही तुम भावनात्मक रूप से या दूसरे पहलुओं में आजाद हो जाओगे। तुम्हें क्यों स्वतंत्र कर दिया जाएगा? जब तुम्हारे माता-पिता आसपास होते हैं, तो वे तुम्हारे लिए चिंता और बोझ दोनों होते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जिनसे तुम दुराग्रही हो सकते हो, और वे तुम्हें ऐसा महसूस करवा सकते हैं मानो तुम अपनी भावनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। तुम्हारे माता-पिता का निधन हो जाने पर ये तमाम चीजें सुलझ जाएँगी। जिन्हें तुम अपना सबसे करीबी समझते थे वे जा चुके होंगे, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी या उनके लिए तरसना नहीं पड़ेगा। जब तुम अपने माता-पिता पर निर्भरता के रिश्ते से छूट जाओगे, जब वे इस संसार से चले जाएँगे, जब तुम अपने दिल की गहराई में महसूस करो कि तुम्हारे माता-पिता जा चुके हैं, और तुम्हें लगे कि तुम पहले ही अपने माता-पिता के रक्त संबंधों से परे जा चुके हो, तब तुम सचमुच सयाने और स्वतंत्र हो जाओगे। इस बारे में सोचो : लोग चाहे जितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ, अगर उनके माता-पिता अब भी उनके आसपास हैं, तो उन्हें जब भी कोई समस्या होगी, वे सोचेंगे : “मैं अपनी माँ से पूछ लेता हूँ, अपने पिता से पूछ लेता हूँ।” उनके लिए हमेशा एक भावनात्मक पोषण रहता है। जब लोगों के पास भावनात्मक पोषण होता है तो उन्हें लगता है कि इस संसार में उनका अस्तित्व गर्मजोशी और खुशी से ओतप्रोत है। जब तुम वह गर्मजोशी और खुशी की वह भावना खो देते हो, अगर तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम अकेले हो या तुमने खुशी और गर्मजोशी गँवा दी है, तब तुम सयाने हो, और अपने विचारों और भावनाओं के संदर्भ में सचमुच स्वतंत्र हो। तुममें से ज्यादातर लोगों ने शायद अब तक इन चीजों का अनुभव नहीं किया है। जब करोगे तो समझ जाओगे। इस बारे में सोचो : लोगों की उम्र चाहे जितनी भी क्यों न हो, वे चाहे 40 के हों या 50-60 के, अपने माता-पिता के गुजर जाने पर वे एकाएक बहुत सयाने हो जाते हैं। मानो पल भर में वे मासूम बच्चे से समझदार वयस्क बन गए हों। रातोरात वे चीजों को समझने लगते हैं, स्वतंत्र रहना सीख लेते हैं। इसलिए हर व्यक्ति के लिए उनके माता-पिता की मृत्यु एक बहुत बड़ी ठोकर होती है। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को सही दृष्टि से देख कर सँभाल सको, और साथ ही अपने माता-पिता की विविध अपेक्षाओं को सही नजरिये से देख और सँभाल कर जाने दे सको, या भावनात्मक और नैतिक स्तर पर अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली अपनी जिम्मेदारियों को सही दृष्टि से देख कर सँभाल सको, तो तुम सचमुच सयाने हो चुके होगे, और कम-से-कम तुम परमेश्वर के समक्ष वयस्क बन जाओगे। इस तरह वयस्क बनना आसान नहीं है, तुम्हें अपनी दैहिक भावनाओं को लेकर थोड़ी पीड़ा सहनी होगी, खास तौर से तुम्हें थोड़ी भावनात्मक तबाही और यंत्रणा सहने के साथ ही चीजें ठीक से न होने, अपनी आशा के अनुरूप न होने और अभागे होने की पीड़ा, वगैरह भी सहनी पड़ेगी। इस सारी पीड़ा का अनुभव कर लेने के बाद तुम्हें इन तमाम मामलों में थोड़ी अंतर्दृष्टि मिलेगी। अगर इन मामलों के सत्यों के बारे में हमने जो संगति की है उनसे जोड़ कर तुम इन्हें देखोगे, तो तुम्हें लोगों के परमेश्वर द्वारा नियत जीवन और भाग्य और साथ ही लोगों के बीच के स्नेह की बहुत बढ़िया तरीके से थोड़ी और अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी। इन चीजों की अंतर्दृष्टि पा लेने के बाद तुम्हारे लिए इन्हें त्यागना आसान हो जाएगा। इन्हें त्याग सकने और इन्हें सही ढंग से सँभाल सकने के बाद तुम उन्हें सही दृष्टि से देख सकोगे। तुम उन्हें मानवीय सिद्धांतों या इंसानी जमीर के मानकों के आधार पर नहीं देखोगे; तुम उन्हें उस दृष्टि से देखोगे जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो। अगर तुम परमेश्वर और उसके आयोजनों के प्रति समर्पित हो सकते हो, तो यह एक अच्छी निशानी और अच्छा शगुन है। इससे क्या संकेत मिलता है? यही कि तुम्हारे उद्धार की आशा है। इसलिए, जब अपने माता-पिता की अपेक्षाओं की बात हो तो चाहे तुम युवा, अधेड़, उम्रदराज या बूढ़े हो, और भले ही तुमने इसका अनुभव न किया हो, इसे फिलहाल अनुभव कर रहे हो, या पहले ही इसका अनुभव कर चुके हो, तुम्हें महज अपनी भावनाओं को त्यागना या अपने माता-पिता से नाता तोड़कर उनसे कटना नहीं है, बल्कि सत्य के लिए प्रयास करना और सत्य के इन पहलुओं को समझने की कोशिश करना है। यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। जब तुम इन अलग-अलग पेचीदा रिश्तों को समझ लोगे, तो तुम उनसे आजाद हो सकोगे और ये तुम्हें बेबस नहीं करेंगे। जब तुम उनके कारण बेबस नहीं होगे, तब तुम्हारे लिए परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना बहुत आसान हो जाएगा, और ऐसा करने में तुम्हारे सामने कम रुकावटें और छोटी-मोटी बाधाएँ ही आएँगी। तब तुम्हारे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की कम संभावना होगी, है कि नहीं?

क्या अब तुम माता-पिता से जुड़े इन सभी बड़े मामलों को गहराई से समझ कर सुलझाने में समर्थ हो? अपने खाली समय में सत्य पर चिंतन करो। अगर आगे चल कर, या जिन चीजों का फिलहाल तुम अनुभव कर रहे हो, उन मामलों को तुम सत्य से जोड़ सको, और सत्य के आधार पर इन समस्याओं को दूर कर सको, तो तुम्हारी मुसीबत कम होगी, तुम्हारे सामने कम मुश्किलें आएँगी और तुम बहुत सुकून-भरा और उल्लासपूर्ण जीवन जियोगे। अगर तुम इन चीजों को सत्य के आधार पर नहीं देखते, तो तुम्हारे सामने बहुत-सी मुसीबतें आएँगी और तुम्हारा जीवन बहुत दुखदायी होगा। यह है उसका नतीजा। आज मैं माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय पर संगति यहीं समाप्त करता हूँ। फिर मिलेंगे!

29 अप्रैल 2023

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