सत्य का अनुसरण कैसे करें (17) भाग तीन

इस दुनिया में, किस प्रकार के लोग आदर के सबसे अधिक योग्य हैं? क्या वे नहीं जो सही मार्ग पर चलते हैं? यहाँ “सही मार्ग” का अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारना नहीं है? क्या सही मार्ग पर चलने वाले, वे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर का अनुसरण कर उसके प्रति समर्पण करते हैं? (वही हैं।) अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो, या ऐसा बनने का प्रयास करते हो, और तुम्हारे माता-पिता तुम्हें न समझें, और हमेशा तुम्हें कोसें भी—यदि तुम्हारे कमजोर, अवसाद-ग्रस्त और खोये हुए होने पर, वे न सिर्फ तुम्हारा साथ न दें, दिलासा देकर बढ़ावा न दें, अक्सर माँग करें कि तुम वापस आकर उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाओ, ढेर सारा पैसा कमा कर उनकी देखभाल करो, उन्हें निराश न करो, उन्हें अपनी छत्रछाया में आराम करने और तुम्हारे साथ बढ़िया जीवन जीने योग्य बनाओ—क्या ऐसे माता-पिता को त्याग नहीं देना चाहिए? (बिल्कुल।) क्या ऐसे माता-पिता तुम्हारे आदर के योग्य हैं? क्या वे तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के योग्य हैं? क्या वे इस योग्य हैं कि तुम उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) क्यों नहीं? इसलिए कि वे सकारात्मक चीजों से विमुख हो गए हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह इसलिए है क्योंकि वे तुम्हारे सही मार्ग पर चलने से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) वे ऐसे लोगों से घृणा करते हैं, जो न्यायोचित प्रयोजनों में लगे रहते हैं; वे तुमसे घृणा कर तुम्हें नीची नजर से देखते हैं क्योंकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो। ये कैसे माता-पिता हैं? क्या वे घिनौने और दुष्ट माता-पिता नहीं हैं? क्या वे स्वार्थी माता-पिता नहीं हैं? क्या वे दुष्ट माता-पिता नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास की वजह से बड़े लाल अजगर ने तुम्हें वांछित सूची में डालकर तुम्हारा पीछा किया है, तुम घर लौटने में असमर्थ, भगोड़े रहे हो, और कुछ लोगों को तो विदेश भी जाना पड़ा है। तुम्हारे रिश्तेदार, दोस्त और सहपाठी, सभी कहते हैं कि तुम भगोड़े हो गए हो, और इन बाहरी अफवाहों और गप्पबाजी के कारण तुम्हारे माता-पिता सोचते हैं कि तुमने उन्हें अनुचित रूप से कष्ट सहने और शर्मिंदा होने को मजबूर किया है। न सिर्फ वे तुम्हें नहीं समझते, तुम्हारा साथ नहीं देते, या तुमसे सहानुभूति नहीं रखते, न सिर्फ वे इन अफवाहें फैलाने वालों, तुमसे घृणा कर तुमसे भेदभाव करने वालों की भर्त्सना नहीं करते, वे भी तुमसे घृणा करते हैं, वे तुम्हारे बारे में वही बातें कहते हैं जो परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले और सत्ताधारी कहते हैं। तुम ऐसे माता-पिता के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अच्छे हैं? (नहीं।) तो क्या तुम लोगों को अब भी यही लगता है कि तुम उनके ऋणी हो? (नहीं।) अगर कभी-कभी तुम लोग अपने परिवार को फोन करते हो, तो वे सोचेंगे कि यह किसी भगोड़े से फोन आने जैसा है। उन्हें लगेगा कि यह बहुत बड़ा अपमान है, और तुम शिकार किए जा रहे चूहे की तरह घर लौटने की हिम्मत नहीं करते। उन्हें लगेगा कि तुम्हारे माँ-बाप होना उनके लिए शर्मिंदगी की बात है। क्या ऐसे माता-पिता आदर के योग्य हैं? (नहीं।) वे आदर के योग्य नहीं हैं। तो तुमसे उनकी अपेक्षाओं की प्रकृति क्या है? क्या ये तुम लोगों के मन में रखने लायक हैं? (नहीं।) तुमसे उनकी अपेक्षाओं का मुख्य लक्ष्य क्या है? क्या वे सचमुच चाहते हैं कि तुम सही मार्ग पर चलो और आखिरकार उद्धार प्राप्त करो? वे उम्मीद करते हैं कि तुम समाज के चलनों का अनुसरण करोगे और दुनिया में तरक्की करोगे, उनका सम्मान बढ़ाओगे, उन्हें प्रतिष्ठा से दुनिया का सामना करने दोगे और उन्हें गर्व और आनंद से भर दोगे। और कुछ? वे तुम्हारे साथ तुम्हारी छत्रछाया में आराम करने योग्य बनना चाहते हैं, अच्छा खाना-पीना चाहते हैं, बढ़िया कपड़े पहनना चाहते हैं, और सोने-चाँदी के आभूषणों से ढके रहना चाहते हैं। वे विलासितापूर्ण जहाजों में दुनिया के हर देश की सैर करना चाहते हैं। अगर तुम दुनिया में ऊँची जगह पहुँच जाते, शोहरत और दौलत पा लेते, और उन्हें अपने साथ अपनी छत्रछाया में आराम करने योग्य बना देते, तो वे जहाँ भी जाते यह कह कर तुम्हारा नाम बताते : “मेरी बेटी और बेटा फलाँ-फलाँ हैं।” क्या वे अभी तुम्हारे नाम का जिक्र करते हैं? (नहीं।) तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, लेकिन वे तुम्हारा नाम नहीं लेते। वे सोचते हैं तुम गरीब और बेसहारा हो, शर्मिंदगी हो, और तुम्हारा जिक्र करना उन्हें शर्मसार करने के बराबर है, तो वे तुम्हारी बात नहीं करते। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं का उद्देश्य क्या है? यह तुम्हारे साथ तुम्हारी छत्रछाया में आराम करना है, यह शुद्ध रूप से सिर्फ तुम्हारे भले के लिए नहीं है। वे तभी खुश होंगे जब वे तुम्हारी छत्रछाया में आराम कर सकेंगे। अब तुम सृष्टि प्रभु के समक्ष लौट आए हो, परमेश्वर, उसके उद्धार और उसके वचनों को स्वीकार चुके हो, अब तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य हाथ में लिया है, जीवन में सही मार्ग पर चल पड़े हो, उन्हें तुमसे कोई लाभ या फायदा नहीं हो रहा है, और उन्हें लगता है कि तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके वे हार गए हैं। मानो कोई सौदा कर रहे हों, और उन्हें नुकसान हो गया हो। नतीजतन वे पछतावे से भर उठते हैं। कुछ माता-पिता अक्सर कहते हैं : “तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करने से भी बदतर है। जब तुम किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करते हो, तो वह तुम्हारे बहुत करीब होता है और उसे अपने मालिक को देखकर दुम हिलाना आता है। तुम्हें बड़ा करके मैं क्या अपेक्षा रख सकता हूँ? तुम पूरा दिन परमेश्वर में विश्वास रखने में और अपना कर्तव्य निभाने में बिता देते हो, तुम व्यापार नहीं करते, काम पर नहीं जाते, तुम कोई सुरक्षित आजीविका भी नहीं चाहते, और अंत में हमारे तमाम पड़ोसी तुम पर हँसने लगे हैं। मुझे तुमसे क्या हासिल हुआ है? मुझे तुमसे एक भी अच्छी चीज नहीं मिली है, तुम्हारी छत्रछाया में मुझे जरा भी आराम नहीं मिला।” अगर तुम सांसारिक दुनिया के बुरे चलनों की पीछे चले होते, और तुमने वहाँ सफल होने का प्रयास किया होता, तो तुम्हारे माता-पिता शायद तुम्हारे कष्ट सहने, बीमार होने या दुखी होने पर तुम्हारा साथ देते, तुम्हें बढ़ावा और दिलासा देते। फिर भी वे इस तथ्य से खुश या प्रफुल्लित नहीं हैं कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, और तुम्हारे पास बचाए जाने का अवसर है। इसके विपरीत, वे तुमसे घृणा कर तुम्हें कोसते हैं। अपने सार के आधार पर, ये माता-पिता तुम्हारे शत्रु हैं, कट्टर दुश्मन हैं, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं, वे तुम्हारे मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। भले ही तुम सब ऊपर से एक परिवार की तरह दिखाई देते हो, मगर तुम्हारे सार, तुम्हारे अनुसरणों, तुम्हारी पसंद, तुम्हारे चलने के मार्गों, और सकारात्मक चीजों, परमेश्वर और सत्य को देखने के तुम्हारे रवैयों के आधार पर, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं। इसलिए तुम चाहे जितना भी कहो, “मुझे उद्धार की आशा है, मैं जीवन में सही मार्ग पर चल पड़ा हूँ,” उनका दिल नहीं पसीजेगा, वे तुम्हारे लिए खुश और प्रफुल्लित नहीं होंगे। इसके बजाय वे शर्मिंदा महसूस करेंगे। भावनात्मक स्तर पर ये माता-पिता तुम्हारा परिवार हैं, लेकिन उनके प्रकृति सार के आधार पर वे तुम्हारा परिवार नहीं, तुम्हारे शत्रु हैं। सोचो भला, अगर बच्चे उपहार और पैसे लेकर घर आएँ, अपने माता-पिता को इस योग्य बनाएँ कि वे बढ़िया खाना खाएँ और शानदार जगहों में रहें, तो उनके माता-पिता खुशी से फूले नहीं समाएँगे, वे इतने खुश होंगे कि वे समझ ही नहीं पाएँगे कि क्या बोलें। वे मन-ही-मन कहते रहेंगे : “मेरा बेटा बहुत महान है, मेरी बेटी बहुत महान है। मैंने उन्हें यूँ ही पाला-पोसा और प्यार नहीं किया। वे समझदार हैं, हमारे प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना जानते हैं, और उनके दिलों में हमारे लिए जगह है। वे अच्छे बच्चे हैं।” मान लो कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण कुछ भी खरीदे बिना खाली हाथ घर जाते हो। मान लो कि तुम अपने माता-पिता के साथ सत्य पर संगति करते हो, परमेश्वर के वचन के बारे में बात करते हो, और कहते हो कि तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू किया है। तुम्हारे माता-पिता तुरंत सोचेंगे : “तू किस बारे में बोले जा रहा है? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। मैंने तुझे इतने वर्ष पाल-पोस कर बड़ा किया, और तूने मेरी एक भी अपेक्षा पूरी नहीं की। आखिरकार तू हमसे मिलने वापस आया है, कम-से-कम हमारे लिए एक जोड़ी मोजे या कुछ फल ही ले आता। तू कुछ भी नहीं लाया, हाथ हिलाते हुए चला आया।” तुम्हारे माता-पिता ऐसा नहीं कहेंगे : “तेरे मुँह से यह सुनकर मैं कह सकता हूँ कि तू बहुत बदल गया है। पहले तू युवा और घमंडी था, मगर अब तू सचमुच बदल गया है। मैं कह सकता हूँ कि जो तमाम बातें तू बोल रहा है वे उचित हैं। तूने तरक्की की है। तुझमें संभावना है, मुझे तेरे लिए उम्मीद है—तू परमेश्वर का अनुसरण कर उद्धार प्राप्त करने के लिए सही मार्ग पर चल पा रहा है। तू एक अच्छा बच्चा है। तू वहाँ तकलीफ में है, मुझे तेरे लिए कुछ लजीज खाना बनाना चाहिए। हम कुछ मुर्गियाँ पालते हैं, और आम तौर पर उन्हें मारना नहीं चाहते, इसके बजाय हम उनके अंडों का इंतजार करते हैं। लेकिन अब तू घर आया है, तो मैं एक मुर्गी मारकर तेरे लिए थोड़ा चिकन सूप बना देती हूँ। तूने यह मार्ग चुन कर सही किया, तू उद्धार प्राप्त कर सकेगा। मैं तेरे लिए बहुत खुश हूँ! इतने साल तेरी बहुत याद आती रही है। हम संपर्क में नहीं थे, पर तू अब हमसे मिलने लौट आया है, इससे मुझे बहुत सुकून मिला है। तू बड़ा हो गया है। तू अब पहले से ज्यादा सयाना और समझदार हो गया है। तेरे बोल और काम सब उचित हैं।” अपने बच्चे को सही मार्ग पर चलते और सही विचार और सोच अपनाते देख माता-पिता भी लाभ पा सकते हैं और अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। चूँकि उनका बच्चा एक कर्तव्य निभा पा रहा है, सत्य का अनुसरण कर पा रहा है, इसलिए उसके माता-पिता को उसका साथ देना चाहिए। अगर भविष्य में, उनका बच्चा उद्धार प्राप्त कर राज्य में प्रवेश कर ले और उनके शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों से उसे हानि न पहुँचे, तो यह अद्भुत चीज होगी। भले ही ये माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं, वे सत्य को समझने में सुस्त हैं और ये बातें ज्यादा समझ नहीं पाते, उन्हें लगता है : “मेरा बच्चा सही मार्ग पर चल सकेगा, बहुत बड़ी बात है। वह अच्छा बच्चा है। कोई भी ऊँचा सरकारी ओहदा और कितनी भी दौलत इतनी मूल्यवान नहीं है!” मुझे बताओ, क्या ये अच्छे माता-पिता हैं? (बिल्कुल।) क्या ये आदर के योग्य हैं? (हाँ।) वे तुम्हारा आदर पाने के योग्य हैं। तो तुम्हें उनका किस तरह से आदर करना चाहिए? तुम्हें अपने दिल से उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए। अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि उनका मार्गदर्शन कर उन्हें सही-सलामत रखे, ताकि वे परीक्षणों और प्रलोभनों के दौरान अपनी गवाही में दृढ़ रह सकें। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो भी तुम्हें उनके फैसले का आदर करना चाहिए, और आशा करनी चाहिए कि उनका जीवन टिकाऊ होगा, वे कोई भी बुरा काम नहीं करेंगे, और कम दुष्कर्म करेंगे, तभी वे मृत्यु के बाद कम-से-कम दंड पाएँगे; इसके अलावा, तुम्हें उनके साथ कुछ सकारात्मक चीजों, विचारों और सोच के बारे में संगति करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। इसे आदर कहा जाता है, और इसे सर्वोत्तम संतानोचित निष्ठा और अपनी जिम्मेदारियों का सर्वोत्तम निर्वाह भी कहा जा सकता है। क्या तुम यह कर सकते हो? (बिल्कुल।) आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन दो। शारीरिक स्तर पर, जब तुम घर पर उनके साथ हो, तो कुछ काम पूरे करने में उनकी भरसक मदद करो और उन चीजों पर संगति करो जो तुम समझते हो और जिन्हें तुम्हारे माता-पिता समझ सकें। जीवन को आराम से जीने, ज्यादा न थकने, पैसों और दूसरी तमाम चीजों के बारे में हो-हल्ला न मचा कर उन्हें अपने ढंग से होने देने में उनकी मदद करो। इसे आदर कहा जाता है। अपने माता-पिता के साथ नेक, भले लोगों जैसा बर्ताव करो, उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, उन्हें थोड़ी संतानोचित निष्ठा दिखाओ और उनके प्रति अपने थोड़े दायित्व निभाओ। इसे आदर कहा जाता है। सिर्फ वही माता-पिता जो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था को इस तरह समझकर उसका समर्थन करते हैं, वही आदर के योग्य हैं। उनके अलावा कोई भी माता-पिता आदर के योग्य नहीं हैं। तुम्हें पैसे कमाने में लगाने के अलावा, वे चाहते हैं कि तुम दुनिया में तरक्की करो, नाम कमाओ और अमुक-अमुक काम करो। ये वे माता-पिता हैं जो अपने उचित मामलों पर ध्यान नहीं देते, और वे आदर के योग्य नहीं हैं।

अब तुम सब लोग माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने के बारे में समझते हो और अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग पा रहे हो। दूसरी ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन्हें त्यागने में तुम असमर्थ हो? जब तुम्हारे माता-पिता के जीवन या फिर माता-पिता की ही बात हो तो तुम किन चीजों की परवाह सबसे ज्यादा करते हो? यानी, ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन्हें त्यागना तुम्हारे लिए भावनात्मक तौर पर सबसे कठिन है? “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं; तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं”—क्या हमने बुनियादी तौर पर इस विषय पर संगति समाप्त नहीं कर दी है? क्या तुम इसे समझ गए हो? (हाँ।) तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—यानी तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचते रहना चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इतने वर्ष खप कर तुम्हें पाला-पोसा और बड़ा किया, तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। अगर तुम उनका कर्ज नहीं चुका पाते, अगर तुम्हारे पास उनका कर्ज चुकाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम हमेशा दुखी और अपराधी महसूस करते रहोगे, इस हद तक कि जब भी तुम किसी को अपने माता-पिता की देखभाल करते या संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ करते हुए देखोगे, तुम दुखी और अपराधी महसूस करने लगोगे। परमेश्वर ने यह नियत किया था कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा पालन-पोषण करेंगे, तुम्हें वयस्क होने योग्य बनाएँगे, इसलिए नहीं कि तुम उनका कर्ज चुकाते हुए जीवन गुजार दो। इस जीवन में निभाने के लिए तुम्हारे पास अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं, एक पथ है जिस पर तुम्हें चलना है, और तुम्हारा अपना जीवन है। इस जीवन में तुम्हें अपनी सारी ताकत अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने में नहीं लगा देनी चाहिए। यह बस ऐसी चीज है जो तुम्हारे जीवन और जीवन पथ में तुम्हारे साथ रहती है। मानवता और भावनात्मक रिश्तों के संदर्भ में यह ऐसी चीज है जिससे बचा नहीं जा सकता। लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे माता-पिता का कैसा रिश्ता नियत है, क्या तुम लोग बाकी जीवन साथ गुजारोगे या अलग हो जाओगे, और भाग्य की डोर से जुड़े नहीं रहोगे, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर ने यह आयोजन और व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता से अलग जगह पर रहोगे, उनसे बहुत दूर रहोगे और अक्सर साथ नहीं रह पाओगे, तो उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना तुम्हारी बस एक आकांक्षा ही है। अगर परमेश्वर ने व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता के बहुत पास रहोगे, उनके साथ रह सकोगे, तो उनके प्रति अपनी थोड़ी-सी जिम्मेदारियाँ निभाना और संतानोचित निष्ठा दिखाना ऐसी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी चाहिए—इस बारे में आलोचना करने लायक कुछ नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता से अलग किसी और जगह हो, तुम्हारे पास उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम्हें इस पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। संतानोचित निष्ठा न दिखा पाने के कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, बात बस इतनी है कि तुम्हारे हालात इसकी अनुमति नहीं देते। एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि के प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी। अब चूँकि तुमने सत्य के इस पहलू को समझ लिया है, तो क्या तुम्हारा दिल स्थिर महसूस नहीं कर रहा है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “भले ही परमेश्वर मेरी निंदा नहीं करेगा, मगर मेरा जमीर इससे उबर नहीं पा रहा है, मैं डाँवाडोल महसूस कर रहा हूँ।” अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी है, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुमने इस मामले की गहराई या उसके सार को नहीं समझा है। तुम मनुष्य की नियति को नहीं समझते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझते और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकारने को तैयार नहीं हो। तुम सदा मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ लिए रहते हो, यही चीजें तुम्हें प्रेरित करती और तुम पर हावी रहती हैं; ये तुम्हारा जीवन बन गई हैं। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुमने सत्य को नहीं चुना है, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो, उसके लिए समर्पित नहीं हो। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुम सत्य को धोखा दे रहे हो। तुम्हारे हालात और माहौल स्पष्ट रूप से तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने की अनुमति नहीं देते, मगर तुम हमेशा सोचते हो : “मैं अपने माता-पिता का ऋणी हूँ। मैंने उन्हें संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाई है। उन्होंने मुझे कई सालों से नहीं देखा है। उन्होंने मुझे बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया।” तुम इन चीजों को अपने दिल की गहराई से कभी भी त्याग नहीं सकते। इससे एक बात साबित होती है : तुम सत्य को नहीं स्वीकारते। सिद्धांत के संदर्भ में, तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन तुम उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते या अपने कार्य सिद्धांतों के तौर पर नहीं लेते। इसलिए कम-से-कम अपने माता-पिता से बर्ताव के मामले में तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। ऐसा इसलिए कि इस मामले में, तुम सत्य के आधार पर कार्य नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास नहीं करते, बल्कि सिर्फ अपनी भावनात्मक और जमीर की जरूरतें संतुष्ट करते हो, अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहते हो और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहते हो। भले ही इस फैसले के लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, यह तुम्हारा फैसला है, मगर अंत में खास तौर से जीवन के संदर्भ में जिसकी हार होगी, वह तुम हो। तुम हमेशा इस मामले से बंधे हुए हो, हमेशा सोचते हो कि तुम इतने शर्मिंदा हो कि अपने माता-पिता को मुँह नहीं दिखा सकते, तुमने उनकी दयालुता का कर्ज नहीं चुकाया है। एक दिन जब परमेश्वर देखेगा कि अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने की तुम्हारी आकांक्षा बहुत तीव्र है, तो वह तुम्हारे लिए तुरंत ऐसा माहौल आयोजित कर देगा, और फिर तुम सीधे घर जा सकोगे। क्या तुम नहीं सोचते कि तुम्हारे माता-पिता सभी चीजों से ऊपर हैं, सत्य से भी ऊपर हैं? उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने और अपने जमीर और भावनाओं की जरूरतें संतुष्ट करने के लिए तुम परमेश्वर को खोना, सत्य का परित्याग करना और उद्धार प्राप्त करने के अवसर का परित्याग करना पसंद करोगे। चलो, ठीक है, यह तुम्हारा फैसला है। परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल आयोजित करेगा, तुम्हें अपनी सूची से निकाल देगा और तुमसे उम्मीद छोड़ देगा। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर जाने का फैसला करते हो, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य से दूर भाग रहे हो, तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और उसकी अपेक्षाओं को छोड़ रहे हो, तुम वह कर्तव्य छोड़ रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है और कर्तव्य निभाने के अपने अवसर का परित्याग कर रहे हो। अगर तुम अपने माता-पिता से फिर से मिलने, अपने जमीर की जरूरतें और अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए घर चले जाते हो, तो ठीक है, तुम घर जाने का फैसला कर सकते हो। अगर तुम सचमुच अपने माता-पिता को त्याग नहीं सकते, तो तुम अपना हाथ उठाकर यह कहने की पहल कर सकते हो : “मुझे अपने माता-पिता की बहुत याद आती है। मेरा जमीर रोज फटकार सहता है। मैं अपनी भावनाओं को संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे दिल में पीड़ा होती है। मैं अपने माता-पिता के लिए तरस रहा हूँ, और उन्हीं के बारे में सोचता रहता हूँ। अगर मैं इस जीवन में माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए वापस नहीं गया, तो मुझे एक और अवसर मिलने से रहा, मुझे कहीं बाद में पछताना न पड़े।” फिर तुम घर जा सकते हो। अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लिए स्वर्ग और पृथ्वी हैं, अगर वे तुम्हारे लिए तुम्हारे जीवन से भी बढ़कर हैं, अगर वे तुम्हारे सब-कुछ हैं, तो फिर तुम उन्हें न त्यागने का फैसला कर सकते हो। तुम्हें कोई भी मजबूर नहीं करेगा। तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने, उनके साथ रहने, उन्हें बढ़िया जीवन जीने योग्य बनाने और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए घर जाने का फैसला कर सकते हो। लेकिन तुम्हें इस बारे में बहुत सोच-विचार करने की जरूरत है। अगर आज तुम यह विकल्प चुनते हो, और अंत में उद्धार प्राप्त करने का मौका गँवा देते हो, तो यह नतीजा सिर्फ तुम्हें भुगतना होगा। तुम्हारे बदले कोई दूसरा व्यक्ति इस तरह का नतीजा नहीं भुगत सकेगा, तुम्हें यह खुद ही भुगतना पड़ेगा। समझ रहे हो? (हाँ।) अगर तुम कर्तव्य निभाने और उद्धार पाने का अवसर सिर्फ इसलिए छोड़ दो कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार बन सकें और तुम उनका कर्ज चुका सको, तो यह तुम्हारा फैसला है। कोई भी तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा है। मान लो कलीसिया से कोई यह कह कर निवेदन करता है, “घर से दूर रहना बहुत मुश्किल है। मुझे अपने माता-पिता की याद बहुत सताती है। मैं उन्हें अपने दिल से त्याग नहीं पा रहा हूँ। मैं अक्सर उनके सपने देखता हूँ। मेरे दिलो-दिमाग में सिर्फ उनकी झलक कौंधती रहती है, और उन्होंने मेरे लिए जो कुछ भी किया उसे लेकर मैं और ज्यादा अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता हूँ। अब चूँकि वे बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए मुझे अब और ज्यादा लगने लगा है कि माता-पिता के लिए बच्चे को पाल-पोस कर बड़ा करना बहुत मुश्किल होता है, मुझे उनका कर्ज चुकाना चाहिए, उन्हें थोड़ी खुशी देनी चाहिए और शेष जीवन उनके पास रह कर उन्हें सुख देना चाहिए। मैं बचाए जाने का अपना मौका छोड़ देना चाहूँगा ताकि घर जाकर उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखा सकूँ।” उस स्थिति में वे यह कहकर एक आवेदन दे सकते हैं : “मैं सूचित कर रहा हूँ! मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर जाना चाहता हूँ। मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता।” तब कलीसिया को उसे स्वीकृत करना होगा, और फिर किसी को उन पर काम करने या उनसे संगति करने की जरूरत नहीं होगी। उनसे कुछ भी और कहना बेवकूफी होगी। जब लोग बिल्कुल कुछ भी नहीं समझते, तो तुम उनसे थोड़ा ज्यादा बता सकते हो और सत्य पर स्पष्टता आने तक संगति कर सकते हो। अगर तुमने उस पर स्पष्ट संगति नहीं की है, और नतीजतन उन्होंने गलत चयन किया है, तो उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। लेकिन अगर वे सिद्धांत के संदर्भ में सब-कुछ समझते हैं, तो फिर किसी को उन पर काम करने की जरूरत नहीं है। जैसे कि कुछ लोग कहते हैं : “मैं सब-कुछ समझता हूँ, तुम्हें मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं।” बहुत बढ़िया, तुम्हें इन चिकने घड़ों को कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं, तुम इन पर समय जाया न कर अपनी मुसीबत घटा सकते हो। तुम्हें ऐसे लोगों को तुरंत घर जाने देना चाहिए। अव्वल तो उन्हें रोको मत; दूसरे, उनका समर्थन करो; तीसरे, उन्हें यह कह कर थोड़ा ढाढ़स और हौसला दो : “घर जाओ और अपने माता-पिता को थोड़ी संतानोचित निष्ठा दिखाओ। उन्हें नाराज या परेशान मत करो। अगर तुम संतानोचित निष्ठा दिखाकर उनका कर्ज चुकाना चाहते हो, तो तुम्हें संतानोचित बच्चा होना चाहिए। लेकिन अंत में जब उद्धार प्राप्त न कर सको तो पछतावे में मत डूबना। तुम्हारी यात्रा शुभ हो, मुझे आशा है कि सब-कुछ ठीक होगा!” ठीक है? (बिल्कुल।) अगर कोई अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर जाना चाहता है, तो अच्छी बात है, उन्हें यह विचार अपने भीतर जबरन दबाए नहीं रखना चाहिए। कर्तव्य अपनी इच्छा से निभाया जाता है, कोई भी जोर नहीं दे सकता कि तुम यह करो। कर्तव्य न निभाने के लिए कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम कर्तव्य निभाओगे तो क्या अवश्य उद्धार प्राप्त कर लोगे? यह जरूरी नहीं है। यह कर्तव्य निर्वहन के प्रति बस तुम्हारे रवैये का सवाल है। फिर कर्तव्य निर्वहन न करने पर क्या तुम नष्ट हो जाओगे? ऐसा किसी ने नहीं कहा। किसी भी स्थिति में तुम्हारी उद्धार की आशा शायद खत्म हो चुकी होगी। कुछ लोग कहते हैं : “माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना अच्छी बात है या बुरी?” मुझे नहीं पता। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहते हो, तो जरूर दिखाओ। हम इसका आकलन नहीं करेंगे, ऐसा करना निरर्थक होगा। यह मानवता और भावनाओं का मामला है। यह तुम्हारे अस्तित्व के तरीके को चुनने का सवाल है। इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जो भी घर जाकर अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहता है, वह आजादी से ऐसा कर सकता है। परमेश्वर का घर उनसे रुकने के लिए जोर नहीं देगा, और परमेश्वर का घर दखलंदाजी भी नहीं करेगा। कलीसिया अगुआ और उनके आसपास के लोगों को उन्हें घर जाने से रोकना नहीं चाहिए। उन्हें ऐसे व्यक्तियों पर काम नहीं करना चाहिए, न ही उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए। अगर तुम घर जाना चाहते हो, तो जरूर जाओ। सभी लोग तुम्हें विदाई देते हुए तुम्हारे साथ कुछ पकवान खाएँगे और तुम्हारी सुरक्षित यात्रा की कामना करेंगे।

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