सत्य का अनुसरण कैसे करें (17) भाग दो

“तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,” यह सत्य ही अभ्यास का सही सिद्धांत है जिसे लोगों को अपने माता-पिता से पेश आते वक्त समझना चाहिए। अभ्यास का दूसरा सिद्धांत कौन-सा है? (तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं।) क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” की तुलना में “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं” समझने और जाने देने में ज्यादा आसान नहीं है? ऊपरी तौर पर यूँ लगता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे दैहिक जीवन को जन्म दिया और तुम्हारे माता-पिता ने ही तुम्हें जीवन दिया। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से और इस मामले की जड़ से, तो तुम्हें यह दैहिक जीवन माता-पिता ने नहीं दिया, क्योंकि लोग जीवन का सृजन नहीं कर सकते। सरल शब्दों में कहें, तो कोई भी इंसान मनुष्य की साँस का सृजन नहीं कर सकता। जिस कारण से प्रत्येक व्यक्ति की देह एक व्यक्ति बन पाती है वह है उसकी साँस। मनुष्य का जीवन इस साँस में है, और यह एक जीवित व्यक्ति का चिह्न है। लोगों में यह साँस और जीवन होता है, और इन चीजों का स्रोत और उद्गम उनके माता-पिता नहीं हैं। बात बस इतनी है कि लोगों का निर्माण उनके माता-पिता द्वारा उन्हें जन्म देने के जरिए हुआ—मूलतः, यह परमेश्वर ही है जो लोगों को ये चीजें देता है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं, तुम्हारे जीवन का विधाता परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को रचा, उसी ने मानवजाति के जीवन का सृजन किया, और उसी ने मानवजाति को जीवन की साँस दी, जो कि मनुष्य के जीवन का उद्गम है। इसलिए, क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं” पंक्ति समझने में आसान नहीं है? तुम्हारी साँस तुम्हारे माता-पिता ने नहीं दी, न यह साँस उनके कारण जारी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन की देखभाल करता है और उस पर राज करता है। तुम्हारे माता-पिता फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा प्रत्येक दिन कैसा बीतता है, हर दिन खुशहाल और आसान है या नहीं, तुम हर दिन किससे मिलते हो, या हर दिन कैसे माहौल में जीते हो। बात बस इतनी है कि परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता के जरिए तुम्हारी देखभाल करता है—तुम्हारे माता-पिता बस वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारी देखभाल के लिए भेजा। जब पैदा होने पर तुम्हें जीवन देने वाले तुम्हारे माता-पिता नहीं थे, तो जिस जीवन के कारण तुम अब तक जीवित हो, वो क्या तुम्हारे माता-पिता ने दिया है? ऐसा नहीं है। तुम्हारे जीवन का उद्गम अभी भी परमेश्वर ही है, तुम्हारे माता-पिता नहीं। मान लो कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, लेकिन जब तुम साल भर के या पाँच साल के हो, तो परमेश्वर तुम्हारा जीवन छीन लेने का फैसला कर ले। क्या तुम्हारे माता-पिता इस बारे में कुछ भी कर सकते हैं? तुम्हारे माता-पिता क्या करेंगे? वे तुम्हारा जीवन कैसे बचाएँगे? वे तुम्हें अस्पताल भेजेंगे और डॉक्टरों को सौंपेंगे, जो तुम्हारी बीमारी का इलाज कर तुम्हें बचाने की कोशिश करेंगे। यह तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। लेकिन अगर परमेश्वर कहे कि इस जीवन और इस व्यक्ति को जीवित नहीं रहना चाहिए, और इसे किसी और परिवार में पुनर्जन्म लेना चाहिए, तो तुम्हारे माता-पिता के पास तुम्हारा जीवन बचाने की कोई ताकत या उपाय नहीं होगा। वे सिर्फ तुम्हारे छोटे-से जीवन को इस संसार से जाते हुए देख सकेंगे। जब किसी जीवन का अंत हो जाता है तो वे शक्तिहीन हो जाते हैं—वे सिर्फ माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हैं, तुम्हें डॉक्टरों को सौंप सकते हैं जो तुम्हारा इलाज कर तुम्हारा जीवन बचाने की कोशिश करेंगे, लेकिन तुम्हारे माता-पिता यह फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा जीवन जारी रहेगा या नहीं। अगर परमेश्वर कहे कि तुम जीते रह सकते हो, तो तुम्हारे जीवन का अस्तित्व रहेगा। अगर परमेश्वर कहे कि तुम्हारा जीवन अस्तित्व में नहीं होना चाहिए, तो तुम्हारे जीवन का अंत हो जाएगा। क्या तुम्हारे माता-पिता इस बारे में कुछ भी कर सकते हैं? वे सिर्फ खुद को तुम्हारे भाग्य पर छोड़ सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो वे बस साधारण सृजित प्राणी हैं। बात बस इतनी है कि तुम्हारे नजरिये से उनकी एक खास पहचान है—उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वे तुम्हारे मुखिया हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से वे बस साधारण इंसान हैं, वे बस भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके बारे में कुछ भी विशेष नहीं है। वे अपने जीवन के ही विधाता नहीं हैं, तो वे तुम्हारे जीवन के विधाता कैसे बन सकते हैं? भले ही उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, फिर भी वे नहीं जानते कि तुम्हारा जीवन कहाँ से आया, वे फैसला नहीं कर सकते थे कि किस वक्त, किस घड़ी और किस जगह तुम्हारा जीवन आएगा या तुम्हारा जीवन कैसा होगा। वे इनमें से कोई भी बात नहीं जानते। इन बातों के लिए वे बस निश्चेष्ट होकर परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करते हैं। चाहे इस बारे में वे खुश हों या न हों, चाहे वे इस पर यकीन करें या न करें, ये तमाम चीजें परमेश्वर के हाथों आयोजित और घटित होती हैं। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं—क्या यह मामला समझने में आसान नहीं है? (आसान है।) तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारी देह को जन्म दिया, लेकिन उन्होंने तुम्हारी देह के जीवन को जन्म नहीं दिया। यह एक तथ्य है। क्या तुम्हारे माता-पिता का वश ऐसे मामलों पर भी चल सकता है कि तुम्हारी कद-काठी कैसी होगी, तुम्हारे बाल किस रंग के या कितने घने होंगे, तुम्हारी अभिरुचियाँ क्या होंगी, वगैरह-वगैरह? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारी त्वचा अच्छी होगी या बुरी, या तुम्हारे चेहरे का रूप-रंग कैसा होगा। कुछ माता-पिता मोटे होते हैं, लेकिन वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो छोटी आँख-नाक वाले, दुबले-पतले और नाटे होते हैं। उन्हें देख कर लोग सोचते हैं : “ये बच्चे किसके जैसे दिखते हैं? ये यकीनन अपने माता-पिता जैसे नहीं दिखते।” माता-पिता यह भी तय नहीं कर सकते कि उनके बच्चे कैसे दिखेंगे, कर सकते हैं क्या? कुछ माता-पिता हट्टे-कट्टे होते हैं, और वे बहुत दुबले-पतले और कमजोर बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ माता-पिता बहुत दुबले-पतले और कमजोर होते हैं, और वे हट्टे-कट्टे बच्चों को जन्म देते हैं, जो सांड़ों जैसे मजबूत होते हैं। कुछ माता-पिता चूहों जैसे दब्बू होते हैं, और वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बेहद साहसी होते हैं। कुछ माता-पिता सावधान और सतर्क रहते हैं, और वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बहुत महत्वाकांक्षी होते हैं, और अंत में उनमें से कुछ सम्राट बन जाते हैं, कुछ राष्ट्राध्यक्ष और कुछ दूसरे चोर-डकैतों के दबंग डॉन। कुछ माता-पिता किसान होते हैं, लेकिन उनके बच्चे उच्च अधिकारी बन जाते हैं। कुछ माता-पिता धोखेबाज होते हैं, लेकिन वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बड़े तमीजदार और भोले होते हैं। कुछ माता-पिता गैर-विश्वासी होते हैं, या हो सकता है कि वे मूर्तियों और दानवों की आराधना करते हों, पर वे ऐसे बच्चे पैदा करते हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखना चाहते हैं, जो परमेश्वर में अपनी आस्था के बिना जीवित ही नहीं रह सकते। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “मैं तुम्हें यूनिवर्सिटी भेजने वाला हूँ,” और उनके बच्चे कहते हैं, “नहीं, मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए!” फिर माता-पिता अपने बच्चे को बताते हैं : “तुम छोटे हो, तुम्हें कर्तव्य निभाने की जरूरत नहीं। हम इसलिए अपने कुछ कर्तव्य निभाते हैं क्योंकि हम बड़े हो गए हैं, हमारी कोई संभावनाएँ नहीं हैं; हम भविष्य में अपने परिवार के लिए कुछ आशीष अर्जित कर लेंगे, इसलिए तुम्हें यह करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें मेहनत से पढ़ाई करनी है, और यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने के बाद तुम्हें जाकर कोई उच्च अधिकारी बनना होगा, ताकि मैं तुम्हारी छत्रछाया में थोड़ा आराम कर सकूँ।” उनके बच्चों का जवाब होता है : “नहीं। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, अपना कर्तव्य निभाना सबसे अहम चीज है।” बेशक, कुछ ऐसे माता-पिता हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अपने परिवारों को त्याग देते हैं, अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं, लेकिन उनके बच्चे कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना चाहते। उनके बच्चे गैर-विश्वासी होते हैं, और तुम उन बच्चों और उनके माता-पिता को चाहे जिस भी तरह से देखो, वे एक परिवार के समान नहीं लगते। हालाँकि देखने में, जीने की आदतों में और अपने चरित्र के कुछ पहलुओं में भी वे एक परिवार जैसे लग सकते हैं, लेकिन अपनी रुचियों-अभिरुचियों, अनुसरणों और चलने के पथों में वे पूरी तरह से अलग हैं। वे बिल्कुल दो अलग किस्म के लोग हैं जो दो अलग रास्तों पर चलते हैं। तो लोगों के जीवन में अंतर होते हैं और इन्हें उनके माता-पिता तय नहीं करते। माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि उनके बच्चों का जीवन कैसा होगा, या उनके बच्चे कैसे माहौल में पैदा होंगे। तुम्हारे माता-पिता न तुम्हारे जीवन के विधाता हैं न ही तुम्हारे भाग्य विधाता। लोगों को उनका जीवन उनके माता-पिता द्वारा नहीं दिया जाता—किसी व्यक्ति का भाग्य उसके जीवन से ज्यादा बड़ा मामला है या छोटा? लोगों के लिए ये दोनों ही मामले बड़े हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि ये वो चीजें नहीं हैं जो लोग अपने सहज ज्ञान, काबिलियत या क्षमता का इस्तेमाल करके समझ, हासिल या नियंत्रित कर सकते हैं। लोगों के भाग्य और जीवन पथ का फैसला परमेश्वर ही करता है, वही उस पर राज करता है। कोई भी इंसान इन दोनों मामलों में से किसी एक को नहीं चुन सकता। तुम किस परिवार में जन्म लोगे, या इस जीवन में तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे, इसे न तुम चुनते हो, न तुम्हारे माता-पिता। तुम्हें जन्म देने में तुम्हारे माता-पिता भी निश्चेष्ट थे। तो तुम्हारे माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारा भाग्य पथ कैसा होगा, क्या तुम अपने जीवन में बहुत धनी और अमीर होगे, गरीब और निचले दर्जे के होगे, या सिर्फ एक औसत इंसान होगे; वे फैसला नहीं कर सकते कि तुम इस जीवन में कहाँ जाओगे, कहाँ जीवन-यापन करोगे या तुम्हारी शादी कैसी होगी, तुम्हारे बच्चे कैसे होंगे या तुम किस प्रकार के भौतिक माहौल में जियोगे, वगैरह-वगैरह। कुछ ऐसे लोग हैं जिनके परिवार बच्चे को जन्म देने से पहले बहुत संपन्न थे, उनके पास भरपूर कपड़े और खाना था, जरूरत से ज्यादा पैसा था, लेकिन बच्चे ने बड़े होने के बाद परिवार की दौलत उड़ा दी और उन माता-पिता ने चाहे जितना भी धन कमाया हो, वे उस दोनों हाथों से धन उड़ाने वाले बच्चे की फिजूलखर्ची की भरपाई नहीं कर सके। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो गरीब थे, लेकिन बच्चे को जन्म देने के कुछ साल बाद उनके पारिवारिक व्यापार पनपने लगे, उनका जीवन सुधर गया, चीजें आसान होती गईं और उनका परिवेश भी और बेहतर होता गया। देखा, ये तमाम चीजें ऐसी हैं जिनकी इन माता-पिता ने उम्मीद नहीं की थी, है कि नहीं? माता-पिता अपने बच्चों के भाग्य का फैसला नहीं कर सकते, और स्वाभाविक रूप से उनका अपने बच्चों के भाग्य से कुछ लेना-देना भी नहीं होता। तुम किस तरह के मार्ग पर चलते हो, कहाँ जाते हो, और इस जीवन में तुम कैसे लोगों से मिलते हो, कितनी विपत्तियों का सामना करते हो, तुम्हारे हिस्से कितनी बड़ी चीजें और कितनी दौलत आती है—इन तमाम चीजों का तुम्हारे माता-पिता से या उनकी अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। सभी माता-पिता कामना करते हैं कि उनका बच्चा तरक्की करे, लेकिन क्या यह कामना पूरी होती है? जरूरी नहीं। कुछ बच्चे जरूर तरक्की करते हैं, जैसा कि उनके माता-पिता चाहते थे, और वे उच्च अधिकारी बन जाते हैं, अमीर हो जाते हैं और बढ़िया जीवन जीते हैं, लेकिन उनके माता-पिता इस अच्छी दौलत का आनंद लिए बिना या इस छत्रछाया में आराम किए बिना कुछ ही वर्षों में बीमार पड़कर मर जाते हैं। क्या किसी व्यक्ति के भाग्य का अपने माता-पिता के भाग्य से कोई सरोकार होता है? नहीं। ऐसा नहीं है कि तुम अपने माता-पिता की हर कोई अपेक्षा पूरी कर सकते हो। किसी व्यक्ति के भाग्य का उसके माता-पिता के भाग्य से कोई सरोकार नहीं होता और किसी व्यक्ति के माता-पिता उसका भाग्य तय नहीं कर सकते। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया और तुम्हारी सँभावनाओं, तुम्हारे आदर्शों और भविष्य के तुम्हारे भाग्य की बुनियाद डालने के लिए बहुत-से काम किए, मगर वे यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारा भाग्य या भविष्य में तुम्हारा जीवन पथ कैसा होगा—इन चीजों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं, और वे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदल सकते। अगर तुम्हारे भाग्य में धनी होना लिखा है, तो तुम्हारे माता-पिता कितने ही गरीब या नाकाबिल क्यों न हों, तुम वह दौलत हासिल कर लोगे जो तुम्हारे नसीब में है। अगर तुम्हारी नियति में गरीब, साधारण या निचले दर्जे का इंसान होना लिखा है, तो तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी काबिल क्यों न हों, वे तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेंगे। अगर तुम्हें परमेश्वर ने चुना है और तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, यानी परमेश्वर ने तुम्हें पूर्व-नियत किया है, तो तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने शक्तिशाली या काबिल क्यों न हों, वे चाहकर भी परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में रुकावट पैदा नहीं कर सकते। चूँकि तुम परमेश्वर के घर के सदस्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बनने के लिए नियत हो, इसलिए तुम इससे बच नहीं सकते। किसी व्यक्ति का भाग्य सिर्फ परमेश्वर की संप्रभुता और उसके विधान से जुड़ा होता है; इसका उसके माता-पिता की कामनाओं और अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। स्वाभाविक रूप से, इसका व्यक्ति की रुचियों, अभिरुचियों, चरित्र, आकांक्षाओं, काबिलियत या क्षमताओं से भी कोई लेना-देना नहीं होता। इसलिए, “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं,” इस सत्य के आधार पर तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को किस दृष्टि से देखना चाहिए? क्या तुम्हें उन्हें पूरी तरह से स्वीकार कर लेना चाहिए, उनकी अनदेखी करनी चाहिए या उनसे तार्किक ढंग से पेश आना चाहिए? तुम्हारे जीवन या तुम्हारे भाग्य के मामले में तुम्हारे माता-पिता बस सामान्य लोग हैं, वे जो चाहे अपेक्षा कर सकते हैं, जो चाहे कह सकते हैं। वे जो चाहें उन्हें कहने दो, तुम बस अपना काम करो। उनके साथ बहस करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि चीजें सचमुच जैसी हैं वैसी ही रहेंगी। यह बहस में से पैदा नहीं होतीं और मनुष्य की इच्छा के आधार पर नहीं खिसकतीं। अपने माता-पिता का भाग्य तय करना तो दूर रहा, तुम अपना भाग्य भी तय नहीं कर सकते! क्या बात ऐसी नहीं है? (जरूर है।) हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बड़े हैं, फिर भी उनका तुम्हारे भाग्य से कोई संबंध या जुड़ाव नहीं है। तुम्हारे माता-पिता को सिर्फ इस कारण तुम्हारा भाग्य लिखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे तुमसे कई साल बड़े हैं, एक पीढ़ी बड़े हैं। यह अतार्किक है, घिनौना है। इसलिए जब भी तुम्हारे माता-पिता जीवन में तुम्हारे पथ के बारे में कुछ कहना चाहें, या तुमसे अपनी अपेक्षाएँ बताएँ, तो तुम्हें उस बात से शांति से और तार्किक ढंग से पेश आना चाहिए, क्योंकि वे तुम्हारे भाग्य विधाता नहीं हैं। उनसे कहो : “मेरा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है—कोई भी व्यक्ति इसे नहीं बदल सकता।” कोई भी इंसान अपने भाग्य को या किसी दूसरे व्यक्ति के भाग्य को काबू में नहीं कर सकता, और तुम्हारे माता-पिता के पास भी ऐसा करने की योग्यता नहीं है। माता-पिता को छोड़ दो, तुम्हारे पूर्वजों के पास भी ऐसा करने की योग्यता नहीं है। वह अकेला कौन है जिसके पास यह योग्यता है? (केवल परमेश्वर।) एकमात्र परमेश्वर ही लोगों के भाग्य पर राज करने की योग्यता रखता है।

कुछ लोग सैद्धांतिक तौर पर मानते हैं कि : “मेरे माता-पिता मेरे भाग्य में दखल नहीं दे सकते। हालाँकि उन्होंने मुझे जन्म दिया, फिर भी मुझे मेरा जीवन उन्होंने नहीं दिया, यह मुझे परमेश्वर ने दिया। मेरा सब-कुछ मुझे परमेश्वर ने दिया है। परमेश्वर ने मुझे बस उनके जरिए पाल-पोस कर बड़ा किया, और मुझे अब तक जीने योग्य बनाया। असलियत में यह परमेश्वर ही था जिसने मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया।” वे ये बातें अच्छी तरह और बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं, लेकिन कुछ खास हालात में लोग अपने स्नेह पर विजय नहीं पा सकते, या इस वक्तव्य को नहीं मान सकते : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं।” कुछ खास हालात में लोगों पर उनकी भावनाएँ हावी हो जाती हैं, वे कुछ प्रलोभनों में फँस जाते हैं या कमजोर पड़ जाते हैं। परमेश्वर के कुछ विश्वासी लोग सरकार और धार्मिक संसार से उत्पीड़न और तिरस्कार सहते हैं, उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता है, फिर भी वे ठान लेते हैं कि भले ही उन्हें कैसी भी यातना सहनी पड़े, वे कभी यहूदा नहीं बनेंगे और अपने भाई-बहनों को कभी धोखा नहीं देंगे, या कलीसिया की किसी भी जानकारी का खुलासा नहीं करेंगे—वे यहूदा बनने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे। इस वजह से उन्हें इस हद तक सता कर यातना दी जाती है कि वे इंसानों के समान नहीं लगते, उनकी आँखें इतनी ज्यादा सूज जाती हैं कि वे दरारें बन जाती हैं और वे साफ नहीं देख सकते, उनके कान बहरे हो जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, मुँह के कोनों के फट जाने से खून रिसता है, उनकी टाँगें ठीक काम नहीं करतीं, पूरा शरीर सूज जाता है, छिल जाता है। लेकिन उन्हें जैसे भी सताया जाए, वे विश्वासघात नहीं करते—वे यहूदा न बनने और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहने की ठान लेते हैं। अब तक, वे बहुत मजबूत दिखाई देते हैं, गवाही युक्त लगते हैं, है कि नहीं? वे यातना और संत्रास से गुजरे, मगर यहूदा नहीं बने, और उन्हें इस तरह कई दिन और कई रात यातना दी गई। जब दानव ऐसे किसी इंसान को देखता है, तो सोचता है : “यह व्यक्ति सचमुच सशक्त है, उसे बड़ी गहराई से जहर दिया गया है। उसे सचमुच परमेश्वर जैसा बना दिया गया है। वह बहुत छोटा है, मगर इस हाल तक सताए जाने के बाद भी उसने एक भी वचन नहीं तोड़ा है। मैं इस बारे में क्या करूँ? लगता है यह व्यक्ति एक महत्वपूर्ण हस्ती है, कलीसिया के बारे में बहुत-कुछ जानता होगा। अगर मैं इसके मुँह से कुछ सूचना निकलवा सकूँ, तो हम बहुत-से लोगों को गिरफ्तार कर ढेरों पैसा बना सकेंगे!” फिर दानव कुछ सोच-विचार करने लगता है : “मैं उसका मुँह कैसे खोलूँ, उससे कुछ लोगों के बारे में थोड़ी जानकारी और सूचना कैसे उगलवाऊँ? सभी शक्तिशाली लोगों की एक कमजोर नब्ज होती है—कुंग फू का अभ्यास करने वालों की ही तरह। कोई कुंग फू में चाहे जितना भी माहिर क्यों न हो, आखिर उसकी भी एक कमजोर नब्ज होती है। हर इंसान की एक कमजोर नब्ज होती है, तो चलो खास उस पर हमला बोलें। इसकी कमजोर नब्ज क्या है? मैंने सुना है कि यह अपने माता-पिता का अकेला बच्चा है, और बचपन से ही उसके माता-पिता ने उसे बहुत लाड़-प्यार देकर बिगाड़ दिया है। मैंने सुना है कि वे इसकी सचमुच परवाह करते हैं, इससे बेहद प्यार करते हैं, और यह उनके प्रति बहुत संतानोचित है। अगर मैं इसके माता-पिता को यहाँ ले आऊँ और उनसे इस पर कुछ मनोवैज्ञानिक प्रभाव डलवाऊँ, तो शायद उनकी बातें कुछ काम कर जाएँ।” फिर दानव उसके माता-पिता को ले आता है। अंदाजा लगाओ कि माता-पिता को देखते ही उसे क्या होता है। उनसे मिलने से पहले उसने सोचा : “हे परमेश्वर, मैंने अपनी गवाही में दृढ़ रहने की ठानी है। मैं बिल्कुल यहूदा नहीं बनूँगा!” लेकिन माता-पिता को देखते ही उसका दिल टूटने की कगार पर पहुँच जाता है। सबसे पहले वह ऐसा महसूस करता है, “मैंने अपने माता-पिता को निराश किया, मुझे इस हाल में देख कर उन्हें जरूर बहुत पीड़ा हुई होगी,” और फिर वह रो पड़ता है। वह अब भी मन-ही-मन में अड़ा रहता है : “मैं यहूदा नहीं बनूँगा, मुझे परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ रहना होगा। मैंने गलत पथ नहीं पकड़ा है, मैं जीवन में सही पथ पर चल रहा हूँ। मुझे शैतान को अपमानित कर परमेश्वर की गवाही देनी होगी!” अपने दिल में वह दृढ़ है, और इस पर बार-बार जोर देता है, लेकिन भावनात्मक रूप से वह इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता और एक ही पल में उसका दिल टूटने को हो जाता है। तुम्हारे ख्याल से उसके माता-पिता को यह देख कर कैसा लगा होगा कि उनके बच्चे को इस हद तक सताया गया है? मैं उसके पिता की बात नहीं करूँगा, लेकिन उसकी माँ का दिल तो टूट जाता है। जब वह देखती है कि उसके बच्चे को इस हद तक सताया गया है कि अब वह इंसान जैसा ही नहीं लगता, तो उसे बड़ी वेदना, बेचैनी और पीड़ा होती है, और उसकी ओर चलते-चलते वह काँपने लगती है। ऐसे समय में तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी? तुम देखने की हिम्मत नहीं करोगे, करोगे क्या? देखो, तुमने कुछ भी नहीं कहा, तुम्हारे माता-पिता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तुम टूट चुके होगे, अपनी भावनाओं को जीत नहीं पाए होगे। तुम मन-ही-मन सोचोगे : “मेरे माता-पिता की उम्र हो चली है, उनकी सेहत ठीक नहीं है और वे दिन गुजारने के लिए एक-दूसरे के भरोसे रहते हैं। उन्होंने मुझ जैसे बच्चे को जन्म दिया, और अब तक मैंने उनकी कोई भी अपेक्षा पूरी नहीं की, और अब मैं उनके लिए इतनी मुसीबत लाया हूँ, मैंने उन्हें इतना ज्यादा शर्मिंदा किया कि उन्हें यहाँ आकर मुझे पीड़ा की इस हालत में देखना पड़ा।” अनजाने ही तुम अपने दिल की गहराई में महसूस करोगे कि तुम एक संतानोचित बच्चे नहीं हो, और तुमने अपने माता-पिता का दिल दुखा कर उन्हें निराश किया है, तुमने उन्हें चिंतित होने दिया है और निराश किया है। तुम और तुम्हारे माता-पिता दोनों ही अलग-अलग कारणों से बहुत अधिक वेदना अनुभव करोगे। तुम्हारे माता-पिता के लिए यह इसलिए होगा क्योंकि उन्हें तुम्हारे लिए बुरा लगा और वे तुम्हें इस तरह कष्ट सहते हुए नहीं देख पाए। तुम्हारे लिए यह इसलिए होगा क्योंकि तुमने अपने माता-पिता को बहुत ज्यादा दुखी और पीड़ित देखा, और तुम उन्हें अपने बारे में दुखी और चिंतित नहीं देख पा रहे थे। क्या ये दोनों ही बातें भावनाओं का प्रभाव नहीं हैं? अभी तक इन सबको सामान्य माना जा सकता है, और इससे तुम्हारी गवाही में दृढ़ रहने पर अब तक प्रभाव नहीं पड़ा होगा। मान लो कि तब तुम्हारे माता-पिता कहते : “तू पहले कितना तंदुरुस्त और तगड़ा था, और अब पीट-पीट कर तेरी यह हालत कर दी गई है। बचपन से ही हमने तुझे अपनी आँखों का तारा माना। हमने तुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया। तूने अपने साथ ऐसा कैसे होने दिया? हमने तुझे कभी पीटना नहीं चाहा; तुझे हमेशा सँजोया और प्यार किया—‘तेरे पिघल जाने के डर से हमने तुझे अपने मुँह में झूला नहीं झुलाया, तू टूट जाएगा इस डर से हमने तुझे अपनी हथेलियों में नहीं पकड़ा।’ हम तुझे इतना सँजोते हैं, मगर यह काफी नहीं है। तू हमारा ख्याल न रखे तो कोई बात नहीं, लेकिन अब तू कोई भी जानकारी सौंपने से मना कर रहा है, और परमेश्वर में विश्वास रखने और उसकी गवाही देने की चाह के कारण तू इतनी पीड़ा सह रहा है, और इस हाल तक सताए जाने के बावजूद मान नहीं रहा है। तू इतना जिद्दी कैसे बन सकता है? तू परमेश्वर में विश्वास रखने पर इतना क्यों अड़ा हुआ है? ‘तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था।’ क्या अपने साथ ऐसा होने दे कर तू हमारे साथ ठीक कर रहा है? अगर तुझे सचमुच कुछ हो गया, तो तुझे कैसे लगता है कि हम दोनों जिंदा रह पाएँगे? हम अपेक्षा नहीं करते कि हमारे बूढ़े हो जाने पर तू हमारी देखभाल करे या हमारी अंत्येष्टि की व्यवस्था करे, हम बस इतना चाहते हैं कि तू ठीक रहे। हमारा सब-कुछ तू ही है, अगर तू ठीक नहीं रहा, अगर तू चला गया, तो हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे गुजारेंगे? तेरे सिवाय हमारा कौन है? हमारी और क्या उम्मीदें हैं?” इस कथनी का प्रत्येक शब्द तुम्हें वहीं चोट पहुँचाएगा जहाँ सचमुच दर्द होता है, तुम्हारी भावनात्मक जरूरतें पूरी करता है और साथ ही तुम्हारी भावनाओं और जमीर को प्रेरित करता है। अपने माता-पिता के यह कहने से पहले तुमने अपने दिल की गहराई में दृढ़ विश्वास और दृष्टिकोण बनाए रखा था, लेकिन उनसे भर्त्सना सुनकर क्या तुम्हारे दिल की रक्षा पंक्ति ध्वस्त नहीं हो जाएगी? “‘तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था।’ तूने अच्छी नौकरी छोड़ दी, अपनी बढ़िया संभावनाओं का परित्याग कर दिया और शानदार जीवन छोड़ दिया। तू परमेश्वर में विश्वास रखने पर अड़ा हुआ है, और तूने खुद को इस तरह बरबाद होने दिया है—क्या तू हमारे साथ सही कर रहा है?” ये बातें सुनने के बाद क्या कोई भी इंसान रोए बिना रह सकेगा? ये बातें सुनने के बाद क्या कोई इंसान खुद को धिक्कारे बिना रह सकेगा? क्या वह इस अहसास से बच सकेगा कि उसने अपने माता-पिता को निराश किया है? क्या किसी को यह आभास हो पाया कि शैतान उन्हें ललचा रहा था? क्या कोई व्यक्ति इससे महज भावनात्मक रूप से प्रभावित होकर भी तार्किक ढंग से पेश आ सकता है? क्या कोई ये बातें सुनने के बाद इस वक्तव्य में अपना विश्वास बनाए रख सकता है, “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं, और वे तुम्हारे लेनदार नहीं हैं”? क्या कोई भावनात्मक रूप से कमजोर महसूस करने के बावजूद अपने कर्तव्य और दायित्व और उस गवाही का परित्याग करने से खुद को रोक सकता है, जिसे एक सृजित प्राणी को दृढ़ता से सँभाले रहना चाहिए? इनमें से कौन-सी चीज तुम लोग संपन्न कर सकते हो? अगर अपनी भावनाओं के संदर्भ में, तुम अपने माता-पिता को लेकर थोड़े परेशान थे, थोड़े आँसू बहा रहे थे और उनके लिए बुरा महसूस कर रहे थे, मगर तब भी परमेश्वर के वचन में तुम्हारी आस्था बरकरार थी, और तुम उस गवाही को सँभाले हुए थे जिस पर तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए, उस कर्तव्य को सँभाले हुए थे, जिसका निर्वाह तुम्हें करना चाहिए, उस गवाही, जिम्मेदारी और कर्तव्य को तुमने नहीं खोया था जो सृष्टि प्रभु के समक्ष एक सृजित प्राणी का होता है, तो तुम दृढ़ बने रहोगे। लेकिन अगर, जब तुमने अपनी माँ को रोते हुए तुम्हारी भर्त्सना करते देखा तो तुम अपनी भावनाओं में डूब गए, सोचने लगे कि तुम संतानोचित नहीं थे, कि तुमने गलत विकल्प चुना था, पछता रहे थे और चलते रहने के अनिच्छुक थे, सृजित प्राणी को जो गवाही रखनी चाहिए उसका और जो कर्तव्य, जिम्मेदारी और दायित्व एक सृजित प्राणी को पूरा करना चाहिए और अपने माता-पिता की ओर लौट आने, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहते हो और उन्हें अब तुम्हारी खातिर कष्ट न सहने, चिंता न करने देना चाहते हो, तो तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होगी, और तुम परमेश्वर का अनुसरण करने योग्य नहीं रहोगे। परमेश्वर ने अपना अनुसरण करने वालों से क्या कहा था? (क्या उसने नहीं कहा था : “यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्‍चों और भाइयों और बहिनों वरन् अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:26)? यह पँक्ति बाइबल में है।) अगर अपने माता-पिता के लिए तुम्हारा प्यार परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम से अधिक है, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण करने योग्य नहीं हो, तुम उसके अनुयायियों में शामिल नहीं हो। अगर तुम उसके अनुयायियों में से एक नहीं हो, तो कहा जा सकता है कि तुम विजयी नहीं हो और परमेश्वर को तुम्हारी जरूरत नहीं है। इस परीक्षण के जरिये तुम उजागर हो गए हो, तुम अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहे। तुमने शैतान की यातना के आगे घुटने नहीं टेके, लेकिन अपने माता-पिता की भर्त्सना की कुछ बातें तुम्हें झुका देने के लिए काफी थीं। तुम कायर हो और तुमने परमेश्वर को धोखा दिया है। तुम परमेश्वर के अनुसरण करने के योग्य नहीं हो, उसके अनुयायी नहीं हो। माता-पिता अक्सर कहते हैं : “मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगूंगा, मैं तुमसे बहुत दौलतमंद होने को नहीं कहूँगा, मैं बस यही उम्मीद करता हूँ कि तुम इस जीवन में स्वस्थ और सुरक्षित रहो। तुम्हें खुश देखना ही काफी है।” तो जब तुम्हें यातना दी जाएगी, तो तुम्हें लगेगा कि तुमने अपने माता-पिता को निराश कर दिया है : “मेरे माता-पिता ज्यादा कुछ नहीं माँगते, फिर भी मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा।” क्या यह विचार सही है? क्या तुमने उनकी इच्छा पूरी नहीं की? (नहीं।) क्या यह तुम्हारी गलती है कि शैतान ने तुम्हें सताया? क्या यह तुम्हारी गलती है कि तुम्हें बुरी तरह से पीटा गया, यातना दी गई और बर्बरता से सताया गया? (नहीं।) शैतान ने ही तुम्हें सताया, तुमने खुद को बरबाद नहीं किया। तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और तुम एक सच्चा इंसान बन रहे हो। तुम्हारे चयन और तुम्हारे सभी कार्य परमेश्वर की गवाही दे रहे थे, और तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे थे। ये वे चयन हैं जो प्रत्येक सृजित प्राणी को करने ही चाहिए, और यही वह पथ है जिस पर प्रत्येक सृजित प्राणी को चलना ही चाहिए। यह सही मार्ग है; यह खुद को बरबाद करना नहीं है। हालाँकि तुम्हारी देह को यातना दी गई है, और उसने क्रूर और अमानवीय बर्ताव सहा है, यह सब एक न्यायोचित कारण के लिए है। यह गलत पथ पर चलना नहीं है, यह खुद को बरबाद करना नहीं है। तुम्हारी देह का कष्ट सहना, उसे यातना दिया जाना और इस हद तक सताया जाना कि तुम अब मनुष्य के समान नहीं दिखते, तुम्हारे माता-पिता को निराश करना नहीं है। जरूरी नहीं है कि तुम उन्हें कोई स्पष्टीकरण दो। यह तुम्हारी इच्छा है। तुम जीवन के सही पथ पर हो, बात बस इतनी है कि वे समझ नहीं रहे हैं। वे बस माता-पिता के नजरिये से देख रहे हैं, अपनी भावनाओं की खातिर हमेशा तुम्हारी रक्षा करना चाहते हैं, वे नहीं चाहते कि तुम शारीरिक पीड़ा सहो। तुम्हारी रक्षा करने की उनकी इच्छा से क्या पूरा होगा? क्या वे तुम्हारे बदले गवाही दे सकते हैं? क्या वे तुम्हारे बदले एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे तुम्हारे बदले परमेश्वर के मार्ग पर चल सकते हैं? (नहीं।) तुमने सही चयन किया और तुम्हें उस पर टिके रहना चाहिए। तुम्हें उनकी बातों के फेर में पड़ कर गुमराह नहीं होना चाहिए। तुम खुद को बरबाद नहीं कर रहे हो; तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। अपनी लगन और अपने सभी कार्यों में तुम सत्य पर कायम हो, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हो, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे रहे हो, परमेश्वर के नाम का यशगान कर रहे हो। तुमने महज अपनी देह के बर्बर उत्पीड़न का कष्ट सहा है, बस। यह ऐसा कष्ट है जो लोगों को सहना चाहिए; यह वह चीज है जो लोगों को सृष्टि प्रभु को अर्पित करनी चाहिए, यह वह कीमत है जो उन्हें चुकानी चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे माता-पिता से नहीं आया, और तुम्हारे माता-पिता को यह फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है कि तुम किस पथ पर चलोगे। उन्हें यह फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है कि तुम अपने शरीर से कैसे पेश आते हो, या अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए तुम क्या कीमत चुकाते हो। वे बस अपनी दैहिक भावनाओं की जरूरतों और इसे दैहिक भावनाओं के नजरिये से देखने के कारण नहीं चाहते कि तुम शारीरिक कष्ट सहो, बस इतनी सी बात है। लेकिन एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारी देह चाहे जितनी पीड़ा सहे, यह ऐसी चीज है जो तुम्हें सहनी ही चाहिए। उद्धार प्राप्त करने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए लोगों को अनगिनत मूल्य चुकाने चाहिए। यह मनुष्य का दायित्व और जिम्मेदारी है, और यह वह चीज है, जो एक सृजित प्राणी को सृष्टि प्रभु को समर्पित करनी ही चाहिए। चूँकि लोगों का जीवन परमेश्वर से आता है, और उनके शरीर भी परमेश्वर से आते हैं, इसलिए यह वह पीड़ा है जो लोगों को सहनी चाहिए। इसलिए उस पीड़ा के संदर्भ में जो लोगों को सहनी चाहिए, तुम्हारा शरीर चाहे जैसी भी पीड़ा सहे, तुम्हें अपने माता-पिता को कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था,” मगर क्या हुआ? भले ही लोगों को उनके माता-पिता जन्म देकर और पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, मगर ऐसा नहीं है कि उनके पास सब-कुछ उनके माता-पिता का दिया हुआ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि चलने के पथ और चुकाई गई कीमत के संदर्भ में लोगों को अपने माता-पिता के दबाव और लाचारी के अधीन होना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों को सत्य के पथ पर चलने का अनुसरण करने के लिए या सृष्टि प्रभु के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए अपने माता-पिता की अनुमति लेनी ही चाहिए। इसलिए, तुम्हें अपने माता-पिता को स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं है। जिसे स्पष्टीकरण देना चाहिए वह परमेश्वर है। चाहे तुम पीड़ा सहो या न सहो, तुम्हें सभी चीजें परमेश्वर को सौंप देनी चाहिए। इसके अलावा, अगर तुम सही मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तो परमेश्वर तुम्हारे द्वारा दी गई सभी कीमतें स्वीकार कर उन्हें याद रखेगा। चूँकि परमेश्वर उन्हें याद रखेगा और मान्यता देगा, इसलिए वे कीमतें चुकाने योग्य ही थीं। तुम्हारी देह को थोड़ी शारीरिक पीड़ा होगी, लेकिन ये कीमतें तुम्हें इस योग्य बनाएँगी कि अंत में तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहो, परमेश्वर की स्वीकृति पाओ और उद्धार प्राप्त करो, और परमेश्वर इन्हें याद रखेगा। इसके बदले में कोई और चीज नहीं दी जा सकती। तुम्हारे माता-पिता की तथाकथित अपेक्षाएँ या आलोचना के बोल, तुम्हें जो कर्तव्य निभाना चाहिए उसके मुकाबले तुच्छ हैं और जिक्र करने लायक नहीं हैं, क्योंकि तुम्हारी सही हुई पीड़ा अत्यंत मूल्यवान और सार्थक है! एक सृजित प्राणी के नजरिये से, यह जीवन की सबसे सार्थक और मूल्यवान चीज है। इसलिए, लोगों को कमजोर और हताश नहीं होना चाहिए, या अपने माता-पिता की बातों की वजह से प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए, और यकीनन उन्हें पछतावा और अपराध बोध नहीं होना चाहिए या यह नहीं लगना चाहिए कि उन्होंने अपने माता-पिता को उनकी बातों के कारण निराश कर दिया है। लोगों को अपनी सही हुई पीड़ा से सम्मानित महसूस कर यह कहना चाहिए : “परमेश्वर ने मुझे चुना और मेरी देह को इस योग्य बनाया कि यह कीमत चुकाऊँ, और शैतान द्वारा हिंसात्मक तरीके से सताया जाऊँ, ताकि मुझे परमेश्वर की गवाही देने का अवसर मिल सके।” तुम्हारे लिए यह सम्मान की बात है कि परमेश्वर ने तुम्हें उसके तमाम चुने हुए लोगों के बीच में से चुना। तुम्हें इस बारे में दुखी नहीं होना चाहिए। अगर तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहते हो, और शैतान का अपमान करते हो, तो एक सृजित प्राणी के लिए यह जीवन का सबसे बड़ा सम्मान है। क्रूरता से सताए जाने के बाद तुम्हारा शरीर चाहे जैसे रोग या तदनंतर प्रभावों का कष्ट सहे, या तुम्हें इस हालत में देख कर तुम्हारे परिवार और माता-पिता को चाहे जितना कष्ट हो, तुम्हें शर्मिंदा या परेशान नहीं होना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि तुमने इस वजह से अपने माता-पिता को निराश कर दिया है, क्योंकि तुमने जो कुछ भी किया है वह एक न्यायोचित कार्य के लिए कीमत चुकाना है और यह एक नेक कर्म है। कोई भी व्यक्ति तुम्हारे नेक कर्मों की आलोचना करने की योग्यता नहीं रखता, किसी भी व्यक्ति में तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास रखने, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के बारे में गैर-जिम्मेदार, आलोचनात्मक टिप्पणियाँ या फैसले करने की योग्यता नहीं है। केवल सृष्टि प्रभु ही तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे द्वारा चुकाई गई कीमत और तुम्हारे चयनों को परखने और आलोचना करने की योग्यता रखता है। दूसरा कोई ऐसा फैसला करने की योग्यता नहीं रखता—तुम्हारे माता-पिता सहित कोई भी तुम्हारी आलोचना करने की योग्यता नहीं रखता। अगर वे तुम्हारे सबसे करीबी लोग हैं, तो उन्हें तुम्हें समझना चाहिए, तुम्हें बढ़ावा और ढाढ़स देना चाहिए। उन्हें तुम्हारा यह साथ देना चाहिए कि तुम गवाही में लगन से जुटे रहो, दृढ़ रहो, और शैतान के आगे झुकने या समर्पण से बचे रहो। उन्हें तुम्हारे लिए गर्व और खुशी होनी चाहिए। चूँकि तुम अब तक डटे रहे हो, और शैतान के आगे नहीं झुके हो ताकि तुम अपनी गवाही में अडिग रह सको, इसलिए उन्हें तुम्हारा हौसला बढ़ाना चाहिए। उन्हें तुम्हें रोकना नहीं चाहिए, तुम्हारी भर्त्सना तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। अगर तुमने कुछ बुरा किया हो, तो उन्हें तुम्हारी आलोचना करने का हक होगा, अगर तुमने गलत राह पकड़ी, परमेश्वर का अपमान किया, सकारात्मक चीजों और सत्य के साथ विश्वासघात किया, तो उन्हें तुम्हारी आलोचना करने का हक होगा। लेकिन चूँकि तुम्हारे सभी कार्य सकारात्मक थे, और परमेश्वर उन्हें स्वीकार कर उन्हें याद रखता है, इसलिए अगर वे तुम्हारी आलोचना करते हैं तो इसकी वजह सिर्फ यह है कि वे अच्छे-बुरे के बीच फर्क नहीं कर पाते। गलत यही लोग हैं। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास रखने, सही पथ पर चलने और एक नेक इंसान बनने को लेकर वे परेशान हैं—ऐसा क्यों है कि शैतान तुम्हें सताता है तो वे उसकी आलोचना नहीं करते? वे अपनी भावनाओं के कारण तुम्हारी आलोचना करते हैं—तुमने क्या गलत किया? क्या तुमने बस खुद को यहूदा बनने से नहीं रोका? तुम यहूदा नहीं बने, तुमने शैतान के साथ सहयोग या समझौता करने से मना किया, और तुमने अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रहने के प्रयास में यह यातना और अमानवीय बर्ताव सहा—इसमें गलत क्या है? तुमने कुछ भी गलत नहीं किया। परमेश्वर के नजरिये से, वह तुम्हारे लिए खुश होता है, उसे तुम पर गर्व होता है। फिर भी तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी वजह से शर्मिंदा महसूस करते हैं, और तुम्हारे नेक कर्मों की आलोचना करते हैं—क्या यह अच्छे को बुरा समझना नहीं है? क्या ये अच्छे माता-पिता हैं? वे शैतान, बुरे लोगों और दानवों की आलोचना क्यों नहीं करते जो तुम्हें सताते हैं? तुम्हें अपने माता-पिता से कोई ढाढ़स, हौसला या समर्थन तो नहीं मिला, उलटे वे तुम्हारी आलोचना कर तुम्हें डाँटते-डपटते हैं, जबकि शैतान चाहे जो करे उसकी निंदा नहीं करते, उसे श्राप नहीं देते। वे उसे अपने मुँह से एक भी गाली सुनाने या उसकी भर्त्सना करने की हिम्मत नहीं करते। वे नहीं कहते : “तुम किसी नेक इंसान को सताकर उसकी ऐसी दुर्गति कैसे कर सकते हो? उसने परमेश्वर में विश्वास रखने और सही मार्ग पर चलने के सिवाय और क्या किया, सही है न? उसने कोई चीज नहीं चुराई, किसी को लूटा नहीं, कोई कानून नहीं तोड़ा, तुम लोगों ने फिर उसे इस तरह क्यों सताया? तुम सबको ऐसे लोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए। अगर समाज में सभी लोग परमेश्वर में विश्वास रखें और सही मार्ग पर चलें, तो इस समाज को कानूनों की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपराध होंगे ही नहीं।” वे उसकी इस तरह आलोचना क्यों नहीं करते? वे तुम्हें सताने वाले शैतानों और दानवों की आलोचना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? सही मार्ग पर चलने के लिए वे तुम्हारी भर्त्सना करते हैं, लेकिन बुरे लोगों के दुष्कर्म करने पर वे बस मौन स्वीकृति देते हैं। ऐसे माता-पिता के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या तुम्हें उनके लिए दुखी होना चाहिए? क्या तुम्हें अपनी संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए? क्या तुम्हें उनसे दिल से प्रेम करना चाहिए? क्या वे तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के योग्य हैं? (नहीं।) वे नहीं हैं। वे सही-गलत या अच्छे-बुरे में फर्क नहीं कर सकते। वे असमंजस में पड़े लोगों का जोड़ा हैं। भावनाओं के अलावा वे कुछ भी नहीं समझते। वे नहीं समझते कि न्याय क्या है, या सही मार्ग पर चलने का अर्थ क्या है, वे नहीं जानते कि नकारात्मक चीजें क्या हैं, या दुष्ट ताकतें क्या हैं, वे सिर्फ अपनी देह और अपनी भावनाओं को बचाए रखना जानते हैं। दैहिक संबंधों के इस सबसे सतही स्तर के अलावा, उनके दिलों में सिर्फ यह विचार है : “अगर मेरे बच्चे सुरक्षित और ठीक हैं, तो मैं खुश और आभारी हूँ।” वे बस इतना ही सोचते हैं। जीवन में सही मार्ग, न्यायोचित कारणों या व्यक्ति को अपने जीवन में जो सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज करनी चाहिए, उसकी बात आने पर, वे इनमें से कोई भी चीज नहीं समझते। वे ये चीजें नहीं समझते और वे सही मार्ग पर चलने को लेकर तुम्हें डाँटते-डपटते हैं—वे सचमुच बेहद असमंजस में हैं। ऐसे माता-पिता के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या वे बूढ़े दानवों का जोड़ा नहीं हैं? तुम्हें अपने मन में चिंतन करना चाहिए : “अरे, दो बूढ़े दानवो—अब तक मैंने बहुत पिटाई सही है, बहुत यातना सही है, इन दिनों मैं दिन-रात परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा हूँ, और वह मेरी देखभाल कर मुझे सलामत रखता रहा है, इसीलिए मैं अब तक जीवित रह पाया हूँ। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी गवाही में दृढ़ रहा हूँ, और तुम लोगों ने चंद शब्दों में इसे पूरी तरह से नकार दिया है। क्या मेरा सही मार्ग पर चलना गलत है? क्या मेरा एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना गलत है? यकीनन यहूदा न बनकर मैंने गलत नहीं किया है? हे दो बूढ़े दानवो! ‘तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था’—मेरे पास जो भी है वह परमेश्वर से आया, क्या यह सब तुम लोगों ने मुझे दिया? बस इतना ही है कि परमेश्वर ने नियत किया कि तुम लोग मुझे जन्म दोगे, पालोगे-पोसोगे और अपने हाथों से बड़ा करोगे। तुम लोग बस अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी करने के लिए मेरे बारे में दुखी, पीड़ित और परेशान हो। तुम्हें डर है कि अगर मैं मर गया, तो बूढ़े हो जाने पर तुम्हारी देखभाल या अंत्येष्टि करने वाला कोई नहीं होगा। तुम्हें डर है कि जग-हँसाई होगी और लोग सोचेंगे कि मैंने तुम लोगों को शर्मिंदा कर दिया है।” अगर कोई अपराध करने, कुछ चुराने या किसी को लूटने, धोखा देने या कोई घोटाला करने के कारण तुम जेल चले गए, तो वे तुम्हारे लिए शायद यह कह कर लड़ें : “मेरा बच्चा नेक है, उसने कुछ भी बुरा नहीं किया है। उसकी प्रकृति खराब नहीं है, वह अच्छा और दयालु है। बात बस इतनी है कि इस दुनिया के बुरे चलनों ने उस पर गलत असर डाला है। उम्मीद करता हूँ कि सरकार उससे नरमी से पेश आएगी।” वे तुम्हारे लिए लड़ेंगे, लेकिन चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास के पथ पर चल रहे हो, सही मार्ग पर चल रहे हो, इसलिए वे अपने दिल की गहराई से तुमसे घृणा करते हैं। वे तुमसे किस प्रकार घृणा करते हैं? “देखो तुमने अपना क्या हाल बना लिया है। क्या तुम हमारे साथ सही कर रहे हो?” तुम्हें अपने दिल में सोचना चाहिए : “उनका यह कहने का क्या अर्थ है कि ‘देखो तुमने अपना क्या हाल बना लिया है’? मैं तो बस जीवन के सही मार्ग पर चल रहा हूँ—इसे सच्चा व्यक्ति होना कहा जाता है! इसे नेक कर्म और गवाही रखना कहा जाता है; यह शक्ति है। ऐसे लोगों के पास ही सच में जमीर और समझ होती है, वे कायर, निकम्मे या यहूदा नहीं होते। मैंने अपना क्या हाल बना लिया है? यह सच्ची मानवता है! न सिर्फ तुम लोग मेरे लिए खुश नहीं हो, मेरी भर्त्सना भी कर रहे हो—तुम लोग कैसे माता-पिता हो? तुम लोग माता-पिता होने योग्य नहीं हो, तुम्हें धिक्कार है!” अगर तुम यूँ सोचते हो, तो क्या अपने माता-पिता की यह बात सुनकर तुम अभी भी रोओगे : “तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था, तू खुद को इस तरह बरबाद कैसे कर सकता है”? (नहीं।) यह बात सुनकर तुम क्या सोचोगे? “कैसी घोर वाहियात बात है। यह सचमुच बूढ़े बेवकूफों का जोड़ा है! ‘तुम्हें यह शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था’—तुम लोग यह भी नहीं जानते कि तुम लोगों को ये शरीर किसने दिए और मेरी भर्त्सना करने के लिए ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हो, तुम सचमुच कितने ज्यादा पसोपेश में हो! यह स्पष्ट है कि दानव और शैतान ही मुझे सता रहे हैं। तुम लोग अच्छे को बुरा कैसे समझ सकते हो और उनकी आलोचना के बजाय मेरी आलोचना कैसे कर सकते हो? क्या मैंने कानून तोड़ा? क्या मैंने कुछ चुराया या किसी को लूटा, क्या मैंने किसी को धोखा दिया, या किसी के साथ घोटाला किया? मैंने कौन-से कानून तोड़े? मैंने कोई भी कानून नहीं तोड़ा, मैं सही मार्ग पर चलता हूँ, इसलिए शैतान ने सता-सता कर मेरा यह हाल बना दिया है। मैंने अब तक परमेश्वर के एक भी वचन के साथ धोखा नहीं किया, मैं यहूदा नहीं बना—और ऐसा कौन है जिसमें ऐसी शक्ति है? तुम लोग मेरी प्रशंसा नहीं करते, मुझे बढ़ावा नहीं देते, बस मेरी भर्त्सना करते हो। तुम लोग दानव हो!” अगर तुम यूँ सोचते हो, तो तुम रोओगे नहीं या कमजोर नहीं पड़ोगे, है कि नहीं? तुम्हारे माता-पिता सही और गलत में भेद नहीं कर सकते, वे अच्छे को बुरा मान लेते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, और वे सत्य को नहीं समझते। तुम सत्य को समझते हो, इसलिए तुम्हें उनकी इन दानवी बातों और भ्रांतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें सत्य को कायम रखना चाहिए। इस प्रकार, तुम सचमुच अपनी गवाही में दृढ़ बने रहोगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (जरूर है।)

मुझे बताओ, क्या अपनी गवाही में दृढ़ रहना आसान है? सबसे पहले, तुम्हें अपनी भावनाओं से मुक्त होना चाहिए, दूसरे, तुम्हें सत्य को समझना चाहिए। तभी तुम कोई कमजोरी महसूस नहीं करोगे, अपनी गवाही में दृढ़ रह सकोगे, और इस तरह के खास हालात में परमेश्वर को मान्य और स्वीकार्य होगे; तभी परमेश्वर तुम्हें एक विजेता और अपना अनुयायी मानेगा; जब तुम प्रबल हो जाओगे, अपने माता-पिता को निराश न करने के बजाय परमेश्वर को निराश नहीं करोगे, तब तुम अपने माता-पिता की तमाम अपेक्षाओं को त्याग पाओगे, सही है न? तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे कोई मायने नहीं रखतीं; परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरना और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहना सबसे महत्वपूर्ण हैं, एक सृजित प्राणी में ऐसा ही रवैया और अनुसरण होने चाहिए। क्या मामला यह नहीं है? (जरूर है।) जब तुम कमजोर महसूस करो, अपनी राह भूल जाओ, खास तौर से सही मार्ग पर चलते समय जब शैतान तुम्हें घेर कर सताए, या सांसारिक दुनिया के लोग भर्त्सना कर तुम्हारा मजाक उड़ाएँ और तुम्हें ठुकरा दें, तो तुम्हारे आसपास के लोग—रिश्तेदार, दोस्त और परिचित—सोचने लगेंगे कि तुमने कोई शर्मिंदगी भरा काम किया है, फिर कोई भी तुम्हें नहीं समझेगा, बढ़ावा नहीं देगा, समर्थन या दिलासा नहीं देगा। तुम्हारी मदद करना, तुम्हें रास्ता दिखाना या अभ्यास का मार्ग दिखाना तो दूर की बात है। इसमें तुम्हारे माता-पिता भी शामिल हैं। चूँकि तुम उनके साथ नहीं हो, उन्हें संतानोचित निष्ठा नहीं दिखा रहे हो, या चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण अच्छे ढंग से जीने में उनकी मदद नहीं कर रहे हो, या उनकी दयालुता की कीमत नहीं चुका रहे हो, इसलिए वे तुम्हें नहीं समझेंगे। उनका नजरिया सांसारिक दुनिया के लोगों जैसा ही होगा—वे सोचेंगे कि तुमने उन्हें शर्मिंदा किया है, तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने के बदले में उन्हें कुछ भी नहीं मिला है, उन्हें तुमसे कोई लाभ नहीं मिला, तुमने उनकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं की हैं, तुमने उन्हें निराश किया है, और तुम लापरवाह अहसान फरामोश हो। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें नहीं समझेंगे, वे तुम्हें कोई सकारात्मक मार्गदर्शन नहीं दे पाएँगे, तुम्हारे रिश्तेदारों और दोस्तों की तो बात करना ही बेकार है। जब तुम सही मार्ग पर चलते हो, तो केवल परमेश्वर ही अनथक रूप से तुम्हें बढ़ावा, सहायता, आराम और पोषण देता है। जब तुम्हें जेल में यातना देकर सताया जा रहा होता है, तब सिर्फ परमेश्वर के वचन और उसने तुम्हें जो आस्था दी है वे हर पल, हर घड़ी, हर दिन तुम्हारा पोषण करते हैं। इसलिए, घोर पिटाई सहते समय भी तुम परमेश्वर के वचनों और उससे मिली आस्था के कारण ही उसके लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहना चाहोगे, यहूदा बनने से बचे रहकर परमेश्वर के नाम को गौरवान्वित और शैतान को अपमानित करना चाहोगे। तुम एक लिहाज से अपने संकल्प के कारण, और एक दूसरे और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण एक दूसरे लिहाज से परमेश्वर के मार्गदर्शन, देखरेख और अगुआई के कारण ये चीजें कर पाओगे। जबकि इस समय जब तुम्हें मदद और दिलासा की सबसे ज्यादा जरूरत है, तुम्हारे माता-पिता सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, और कहते हैं कि तुम अहसान फरामोश हो, इस जीवन में वे तुम पर कभी भरोसा नहीं कर सकते, और उन्होंने तुम्हें बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया। वे अब भी नहीं भूलते कि उन्होंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया, उनकी कामना थी कि अच्छा जीवन जीने में तुम उनकी मदद करो, अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करो, और उन्हें इस योग्य बनाओ कि वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के सामने गर्व से सिर ऊँचा करें और तुम्हारे लिए गर्व महसूस करें। जो माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे तुम्हारे विश्वास रखने के कारण कभी भी सम्मानित और विशेषाधिकार प्राप्त महसूस नहीं करते। इसके विपरीत, परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निर्वहन में व्यस्त रहने के कारण तुम उनसे मिलने या उनकी देखभाल करने के लिए समय नहीं निकाल पाते, इसके लिए वे तुम्हें अक्सर धिक्कारते हैं। वे तुम्हें न सिर्फ धिक्कारते हैं, अक्सर तुम्हें “अहसान फरामोश” और एक “नाशुक्रा बच्चा” कह कर डाँटते भी हैं। क्या तुम्हें नहीं लगता कि इन तोहमतों के साथ सही मार्ग पर चलना तुम्हारे लिए कठिन है? क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है? क्या इन चीजों का अनुभव करते समय तुम्हें अपने माता-पिता के समर्थन, प्रोत्साहन और समझ की जरूरत नहीं होती? क्या तुम्हें अक्सर नहीं लगता कि तुमने अपने माता-पिता को निराश किया है? नतीजतन, कुछ लोगों के मन में कुछ मूर्खतापूर्ण विचार भी आते हैं : “इस जीवन में अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना या उनके साथ जीना मेरे भाग्य में नहीं है। तो फिर मैं अपने अगले जन्म में उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाऊँगा!” क्या यह विचार मूर्खतापूर्ण नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हारे मन में ये विचार नहीं होने चाहिए; तुम्हें इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। तुम सही मार्ग पर चलते हो, तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए सृष्टि प्रभु के समक्ष आना चुना है। इस संसार में यही एकमात्र सही मार्ग है। तुमने सही विकल्प चुना है। तुम्हारे माता-पिता सहित विश्वास न रखने वाले लोग तुम्हें चाहे कितना भी समझ न पाएँ या तुमसे चाहे जितने निराश हों, इससे परमेश्वर में विश्वास के पथ पर चलने के तुम्हारे फैसले पर या कर्तव्य निभाने के संकल्प पर असर नहीं पड़ना चाहिए, न ही इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था प्रभावित होनी चाहिए। तुम्हें डटे रहना होगा, क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। यही नहीं, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना चाहिए। तुम्हारे सही मार्ग पर चलते समय वे तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनने चाहिए। तुम सही मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तुमने जीवन में सबसे सही विकल्प चुना है; अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा साथ नहीं देते, हमेशा अहसान फरामोश होने के लिए तुम्हें डाँटते हैं तो यह और भी जरूरी है कि तुम उन्हें पहचानो, भावनात्मक स्तर पर उनका त्याग कर दो, और उनके कारण लाचार मत बनो। अगर वे तुम्हें समर्थन, बढ़ावा या दिलासा नहीं देते, तो तुम ठीक रहोगे—इन चीजों के रहते या न रहते हुए तुम न कुछ खोओगे, न पाओगे। तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। परमेश्वर तुम्हें प्रोत्साहन और पोषण दे रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। तुम अकेले नहीं हो। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के बिना भी तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य उसी तरह निभा सकते हो, और इस आधार पर तुम अब भी एक नेक इंसान रहोगे। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने का यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपना सदाचार और नैतिकता खो दी है, और इसका यकीनन यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपनी मानवता, नैतिकता और न्याय को त्याग दिया है। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने का कारण यह है कि तुमने सकारात्मक चीजें चुनी हैं और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य चुना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यह सबसे सही मार्ग है। तुम्हें डटे रहना होगा, अपने विश्वास में दृढ़ रहना होगा। संभव है कि परमेश्वर में विश्वास रखने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के कारण तुम अपने माता-पिता का समर्थन न जुटा पाओ और निश्चित रूप से उनका आशीष न पा सको, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुमने कुछ भी नहीं खोया है। सबसे अहम चीज यह है कि जब तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने के पथ पर चलने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने को चुना, तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए अपेक्षाएँ और बड़ी ऊँची उम्मीदें रखना शुरू कर दिया। इस दुनिया में रहते हुए अगर लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से दूर हो जाएँ, तो भी वे अच्छे से जी सकते हैं। बेशक, वे अपने माता-पिता से दूर जाकर भी सामान्य ढंग से जी सकते हैं। सिर्फ परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों से भटकने पर ही वे अंधकार में डूब जाते हैं। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके मार्गदर्शन की तुलना में माता-पिता की अपेक्षाएँ बिल्कुल तुच्छ हैं, और जिक्र करने लायक नहीं हैं। तुम्हारे माता-पिता तुमसे जैसा भी व्यक्ति बनने की अपेक्षा रखते हों, या भावनात्मक स्तर पर वे तुमसे जैसा भी जीवन जीने की अपेक्षा रखते हों, वे तुम्हें सही मार्ग या उद्धार का रास्ता नहीं दिखा रहे हैं। इसलिए, तुम्हें अपना दृष्टिकोण पलटकर अपने दिल की गहराई और भावनात्मक स्तर से अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना चाहिए। चूँकि तुमने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निर्वाह को चुना है, इसलिए तुम्हें इस किस्म का बोझ नहीं उठाते रहना चाहिए, या अपने माता-पिता के प्रति जरा भी अपराध बोध से ग्रस्त नहीं रहना चाहिए। तुमने कुछ भी ऐसा नहीं किया जो किसी को भी निराश करे। तुमने परमेश्वर का अनुसरण और उसका उद्धार स्वीकार करना चुना। यह अपने माता-पिता को निराश करना नहीं है, बल्कि इसके विपरीत, तुम्हारे माता-पिता को गर्व और सम्मानित महसूस करना चाहिए कि तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना और सृष्टिकर्ता का उद्धार स्वीकारना चुना है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते, तो वे नेक लोग नहीं हैं। वे तुम्हारे आदर के योग्य नहीं हैं, तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के और भी कम योग्य हैं, और बेशक, वे तुम्हारी चिंता के और भी कम योग्य हैं। क्या यही मामला नहीं है? (बिल्कुल है।)

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