सत्य का अनुसरण कैसे करें (17) भाग एक

अपनी पिछली सभा में हमने उन बोझों को त्याग देने पर संगति की थी जो व्यक्ति के परिवार से आते हैं। इसमें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने के विषय पर गौर किया गया था। ये अपेक्षाएँ प्रत्येक व्यक्ति पर एक प्रकार का अदृश्य दबाव डालती हैं, है कि नहीं? (हाँ।) ये ऐसे बोझ हैं जो अपने परिवार से आते हैं। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने का अर्थ यह है कि तुम अपने जीवन, अस्तित्व और अपने चलने के पथ से वे दबाव और बोझ त्याग दो जो तुम्हारे माँ-बाप डालते हैं। यानी जब तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ जीवन में तुम्हारे चुने हुए पथ, कर्तव्य निर्वहन, सही मार्ग पर यात्रा, और तुम्हारी स्वतंत्रता, अधिकारों और सूझ-बूझ को प्रभावित करने लगें तो उनकी अपेक्षाएँ तुम्हारे ऊपर एक प्रकार का दबाव और बोझ डालने लगती हैं। ये ऐसे बोझ हैं जो लोगों को अपने जीवन, अस्तित्व और परमेश्वर में आस्था के दौरान उतार फेंकने चाहिए। क्या यह वही विषयवस्तु नहीं है जिस पर हम पहले संगति कर चुके हैं? (वही है।) किसी व्यक्ति के माता-पिता की अपेक्षाएँ स्वाभाविक रूप से बहुत-सी चीजों को लेकर होती हैं, जैसे कि पढ़ाई, कामकाज, शादी, परिवार, और उसका करियर, संभावनाएँ, भविष्य, वगैरह भी। माता-पिता के नजरिये से देखें तो वे अपने बच्चे से जो भी अपेक्षा रखते हैं, वह तार्किक, न्यायसंगत और वाजिब होती है। कोई माँ-बाप ऐसा नहीं होगा जो अपने बच्चे के लिए अपेक्षाएँ न रखता हो। उनकी अपेक्षाएँ कम या ज्यादा हो सकती हैं, छोटी या बड़ी हो सकती हैं, या किसी खास वक्त पर वे अपने बच्चे से कुछ अलग अपेक्षाएँ रख सकते हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे को अच्छे नंबर मिलेंगे, उसकी नौकरी अच्छी चलेगी, उसकी आमदनी अच्छी होगी, और शादी की बात चलने पर उसके लिए सब-कुछ आसान और खुशहाल होगा। माता-पिता की अपने बच्चे के परिवार, करियर, संभावनाओं, वगैरह को लेकर भी कुछ अलग अपेक्षाएँ होती हैं। माता-पिता के नजरिये से ये तमाम अपेक्षाएँ बहुत न्यायसंगत हैं, लेकिन बच्चे के नजरिये से ये तमाम अपेक्षाएँ सही विकल्प चुनने में काफी हद तक बाधा डालती हैं, और एक सामान्य व्यक्ति के रूप में उनकी आजादी, अधिकारों और हितों में भी दखल देती हैं। साथ ही, ये अपेक्षाएँ उनकी काबिलियत के सामान्य इस्तेमाल में भी दखल देती हैं। कुल मिला कर हम इसे चाहे जिस नजरिये से देखें, चाहे यह माता-पिता का नजरिया हो या उनके बच्चे का, अगर माता-पिता की अपेक्षाएँ सामान्य मानवता वाले व्यक्ति की बर्दाश्त के बाहर हो जाएँ, अगर वे सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के सहज ज्ञान से हासिल होने वाली चीजों के दायरे से बाहर निकल जाएँ, या वे उन मानव अधिकारों के पार हो जाएँ जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के पास होने चाहिए, या परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए कर्तव्यों और दायित्वों को पार कर जाएँ, आदि-आदि, तो ये अपेक्षाएँ अनुचित और अविवेकपूर्ण हैं। बेशक, यह भी कहा जा सकता है कि माता-पिता को ये अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए और ये अपेक्षाएँ होनी ही नहीं चाहिए। इस आधार पर, बच्चों को माता-पिता की इन अपेक्षाओं को त्याग देना चाहिए। यानी, माता-पिता जब माता-पिता का नजरिया या दर्जा अपना लेते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्हें यह अपेक्षा रखने का हक है कि उनका बच्चा फलाँ-फलाँ चीजें करे, एक खास रास्ते पर चले, कोई खास तरह का जीवन, सीखने का माहौल, या नौकरी, शादी, परिवार, वगैरह चुने। लेकिन, सामान्य इंसानों के तौर पर, माता-पिता को माता-पिता का नजरिया या दर्जा नहीं अपनाना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों से संतानोचित दायित्वों या इंसानी काबिलियत के दायरे से बाहर की चीजें करने की अपेक्षा रखने के लिए माता-पिता के रूप में अपनी पहचान का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने बच्चे के विविध चीजें चुनने में भी दखल नहीं देना चाहिए, और अपनी अपेक्षाएँ, अपनी पसंद-नापसंद, अपनी कमियाँ और असंतोष या अपनी कोई भी रुचि उन पर थोपनी नहीं चाहिए। ये ऐसी चीजें हैं जो माता-पिता को नहीं करनी चाहिए। जब माता-पिता ऐसी अपेक्षाएँ रखते हैं जो उन्हें नहीं रखनी चाहिए, तो उनके बच्चे को इन अपेक्षाओं से जरूर उचित ढंग से पेश आना चाहिए। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि बच्चे को इन अपेक्षाओं की प्रकृति समझने में समर्थ होना चाहिए। अगर तुम स्पष्ट देख सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ तुम्हें अपने मानव अधिकारों से वंचित कर रही हैं और ये सकारात्मक चीजें और सही मार्ग चुनने में तुम्हारे लिए एक तरह की रुकावट या बाधा डाल रही हैं, तो तुम्हें इन अपेक्षाओं की अनदेखी कर इन्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें यह इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा हक है, यह वह हक है जो परमेश्वर ने प्रत्येक सृजित इंसान को दिया है, और तुम्हारे माता-पिता को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे तुम्हारे जीवन पथ और मानव अधिकारों में दखल देने के हकदार सिर्फ इसलिए बन गए हैं कि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है और वे तुम्हारे माता-पिता हैं। इसलिए प्रत्येक सृजित प्राणी को माता-पिता की किसी भी अनुचित, अनुपयुक्त या अविवेकपूर्ण अपेक्षा को “ना” कहने का हक है। तुम अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा का बोझ उठाने से साफ मना कर सकते हो। अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा को स्वीकारने या उसका बोझ उठाने से मना करना ही उनकी अनुचित अपेक्षाएँ त्यागने के अभ्यास का तरीका है।

जब माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने की बात हो तो लोगों को कौन-से सत्य समझने चाहिए? यानी क्या तुम जानते हो कि माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागना कौन-से सत्यों पर आधारित है, या इसमें कौन-से सत्य सिद्धांतों का पालन होता है? अगर तुम मानते हो कि तुम्हारे माता-पिता दुनिया में तुम्हारे सबसे नजदीकी लोग हैं, वे तुम्हारे सर्वेसर्वा और तुम्हारे अगुआ हैं, उन्होंने ही तुम्हें जन्म दिया और पाला-पोसा है, तुम्हें खाना, कपड़े, घर और आने-जाने का साधन दिया है और तुम्हें बड़ा किया है, वही तुम्हारे हितैषी हैं, तो क्या तुम्हारे लिए उनकी अपेक्षाओं को त्यागना आसान होगा? (नहीं।) अगर तुम इन चीजों पर यकीन करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से एक दैहिक नजरिये से पेश आओगे, और तुम्हारे लिए उनकी किसी भी अनुपयुक्त और अविवेकपूर्ण अपेक्षा को त्यागना मुश्किल होगा। तुम उनकी अपेक्षाओं से बँध और दब जाओगे। भले ही तुम मन-ही-मन असंतुष्ट और अनिच्छुक रहो, फिर भी तुम्हारे पास इन अपेक्षाओं से मुक्त होने की ताकत नहीं होगी, और तुम्हारे पास उन्हें स्वाभाविक रूप से होने देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। तुम्हें उन्हें स्वाभाविक रूप से क्यों होने देना पड़ेगा? क्योंकि अगर तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागना पड़े और उनकी किसी भी अपेक्षा को नजरअंदाज करना या ठुकराना पड़े, तो तुम्हें लगेगा कि तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो, तुम कृतघ्न हो, तुम अपने माता-पिता को निराश कर रहे हो और तुम नेक इंसान नहीं हो। अगर तुम दैहिक नजरिया अपनाओगे, तो अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने और यह सुनिश्चित करने कि माता-पिता द्वारा तुम्हारी खातिर उठाई गई तकलीफें व्यर्थ नहीं हुईं, तुम अपने जमीर का इस्तेमाल करने की भरसक कोशिश करोगे और उनकी अपेक्षाएँ साकार भी करना चाहोगे। तुम उनका कहा हर काम पूरा करने, उन्हें निराश न करने और उनके साथ सही व्यवहार करने की पुरजोर कोशिश करोगे, और तुम यह फैसला लोगे कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करोगे, यह सुनिश्चित करोगे कि उनके आखिरी साल राजी-खुशी से गुजरें, और तुम थोड़ा और आगे की बातें ध्यान में रखकर उनकी अंत्येष्टि का काम सँभालने और उन्हें संतुष्ट करने के साथ ही संतानोचित बच्चा होने की अपनी आकांक्षा पूरी करने के बारे में सोचोगे। इस संसार में जीते वक्त लोग तरह-तरह के जनमत, सामाजिक परिवेश के साथ ही समाज में लोकप्रिय अलग-अलग सोच और विचारों से प्रभावित होते हैं। अगर लोग सत्य को नहीं समझते, तो वे इन चीजों को सिर्फ दैहिक भावनाओं के दृष्टिकोण से देख और सँभाल सकते हैं। इस दौरान तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे माता-पिता ऐसी बहुत-सी चीजें करते हैं जो किसी माता या पिता को नहीं करनी चाहिए और इस हद तक करते हैं कि तुम्हें अपने दिल की गहराई में अपने माता-पिता के कुछ क्रियाकलापों, व्यवहार के साथ ही उनकी मानवता, चरित्र और काम करने के तौर-तरीकों के प्रति अवहेलना और विरक्ति भी महसूस होगी, फिर भी तुम उन्हें सम्मान देने और संतुष्ट करने के लिए संतानोचित बच्चे बने रहना चाहोगे, और किसी भी तरह से उनकी अनदेखी करने की हिम्मत नहीं करोगे। तुम एक ओर समाज के लांछन से बचने के लिए तो दूसरी ओर अपने जमीर की जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसा करोगे। तुम्हारे भीतर यह सोच मानवजाति और समाज ने बिठा दी थी, इसलिए तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं और उनके साथ अपने रिश्ते को तार्किक ढंग से सँभालना बहुत मुश्किल होगा। तुम उनसे एक संतानोचित बच्चे के तौर पर पेश आने, अपने माता-पिता के किसी भी क्रियाकलाप का विरोध न करने के लिए मजबूर हो जाओगे; तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं होगा, तुम सिर्फ यही कर पाओगे, और इस तरह तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना और भी कठिन हो जाएगा। अगर तुम अपने दिल में सचमुच उन्हें त्याग देते हो, तो भी तुम्हें एक और बोझ या दबाव सहना होगा, जो कि अपने परिवार, पूरे कुनबे और समाज से भर्त्सना पाना है। तुम्हें अपने दिल की गहराई से उठने वाली ऐसी भर्त्सना, निंदा, श्राप और घृणा भी बर्दाश्त करनी होगी जिनमें कहा जाता है कि तुम फालतू हो, संतानोचित बच्चे नहीं हो, कृतघ्न हो, या ऐसी बातें भी जो सांसारिक समाज में लोग कहते हैं, जैसे कि, “तुम एहसान-फरामोश हो, अवज्ञाकारी हो, तुम्हारी माँ ने तुम्हें सही ढंग से बड़ा नहीं किया”—दूसरे शब्दों में, तमाम अप्रिय बातें सुननी पड़ेंगी। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो ऐसी दुविधा में फँस जाओगे। यानी, जब तुम अपने दिल की गहराई में अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को तार्किक ढंग से त्याग देते हो, या जब तुम उन्हें अनिच्छा से त्याग देते हो, तो तुम्हारे दिल में एक और किस्म का बोझ या दबाव पैदा हो जाएगा; यह दबाव समाज से और तुम्हारे जमीर के प्रभाव से आता है। तो तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को कैसे त्याग सकते हो? इस समस्या को सुलझाने का एक रास्ता है। यह मुश्किल नहीं है—लोगों को सत्य के लिए मेहनत करने और सत्य खोजने और समझने के लिए परमेश्वर के समक्ष आने की जरूरत है, तब समस्या सुलझ जाएगी। तो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागते समय तुम्हें सत्य का कौन-सा पहलू समझने की जरूरत है ताकि तुम जनमत की भर्त्सना या अपने दिल की गहराई में अपने जमीर की निंदा, या अपने माता-पिता के मुँह से निंदा और गालियाँ सुनने का बोझ उठाने से न डरो? (यह कि हम परमेश्वर के समक्ष सिर्फ सृजित प्राणी हैं। इस संसार में, हमें सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभानी चाहिए, इससे भी अहम हमें अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा कर अपने दायित्व पूरे करने चाहिए। अगर हम यह बात समझ सकें, तो भविष्य में अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागते समय शायद हम न तो अपने माता-पिता से बहुत ज्यादा प्रभावित होंगे, न ही जनमत की निंदा से।) इस बारे में और कौन बोलेगा? (पिछली बार, परमेश्वर ने इस बारे में संगति की थी कि जब हम अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ देते हैं, तो यह किस तरह से एक संदर्भ में वस्तुपरक हालात के कारण होता है—हमें अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने माता-पिता को छोड़ना पड़ता है, इसलिए हम उनकी देखभाल नहीं कर सकते—ऐसा नहीं है कि हम अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेने के कारण उन्हें छोड़ रहे हैं। एक और संदर्भ में, हम अपने घर इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि परमेश्वर ने हमें अपने कर्तव्य निभाने के लिए बुलाया है, लिहाजा हम अपने माता-पिता के साथ नहीं रह सकते, फिर भी हम उनकी फिक्र करते हैं—यह इस बात से अलग है कि हम उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते और हम संतानोचित नहीं हैं।) ये दो कारण ऐसे सत्य और तथ्य हैं, जो लोगों को समझने चाहिए। अगर लोग ये चीजें समझ लेते हैं, तो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागते समय, वे अपने दिल की गहराई में थोड़ी शांति और सुकून महसूस करेंगे, लेकिन क्या इससे समस्या जड़ से खत्म हो सकेगी? अगर भारी-भरकम बाहरी हालात का असर न होता, तो क्या तुम्हारे भाग्य को तुम्हारे माता-पिता के भाग्य से जोड़ा जाता? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास न रखते और सामान्य ढंग से काम करके अपने दिन गुजारते, तो क्या तुम यकीनन अपने माता-पिता के साथ रह रहे होते? क्या तुम यकीनन एक संतानोचित बच्चे रह पाए होते? क्या तुम यकीनन उनके करीब रहकर उनकी दयालुता का कर्ज चुका पाए होते? (ऐसा जरूरी नहीं है।) क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जो अपनी पूरी जिंदगी सिर्फ अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए कार्य करता है? (नहीं।) ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है। इसलिए, तुम्हें यह बात जान लेनी चाहिए और एक दूसरे नजरिये से इसके सार की असलियत जाननी चाहिए। यह वह गहरा सत्य है जो तुम्हें इस मामले में समझ लेना चाहिए। यह तथ्य भी है, और उससे भी बढ़ कर यह इन चीजों का सार है। वे कौन-से सत्य हैं, जो तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने के तहत समझने चाहिए? एक संदर्भ में, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं; दूसरे संदर्भ में, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं। क्या यह सत्य नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम ये दो सत्य समझ लेते हो, तो क्या तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना ज्यादा आसान नहीं हो जाएगा? (जरूर हो जाएगा।)

सबसे पहले हम सत्य के इस पहलू के बारे में चर्चा करेंगे : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं।” तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—इसका अर्थ क्या है? क्या इसका संदर्भ उस दयालुता से नहीं है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे प्रति दिखाई? (हाँ।) तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करके तुम पर दया दिखाई, इसलिए उनसे अपना रिश्ता त्याग देना तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल है। तुम सोचते हो कि तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही है, वरना तुम संतानोचित बच्चे नहीं रहोगे; तुम मानते हो कि तुम्हें उनके प्रति संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए, तुम्हें उनकी हर बात माननी चाहिए, तुम्हें उनकी हर कामना और माँग पूरी करनी चाहिए, और यही नहीं, तुम्हें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए—तुम मानते हो कि यही उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है। बेशक, कुछ लोगों के पास अच्छी नौकरियाँ होती हैं, वे अच्छा वेतन पाते हैं, और अपने माता-पिता को थोड़े भौतिक सुख और बढ़िया सांसारिक जीवन देते हैं, अपने माता-पिता को अपनी छत्रछाया में आराम करने देते हैं और उन्हें बेहतर जीवन जीने योग्य बनाते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम अपने माता-पिता के लिए घर और कार खरीदते हो, उन्हें हर तरह का लजीज खाना खिलाने के लिए भव्य रेस्तरांओं में ले जाते हो, उन्हें पर्यटक स्थलों की सैर पर ले जाते हो, और आलीशान होटलों में ठहराते हो, ताकि वे खुश रहें और इन चीजों का मजा लें। तुम ये तमाम चीजें अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए करते हो, उन्हें यह महसूस कराने के लिए करते हो कि तुम्हें प्यार करने और पाल-पोस कर बड़ा करने के लिए उन्हें कुछ तो प्रतिफल मिला है, और तुमने उन्हें निराश नहीं किया है। एक लिहाज से तुम ऐसा अपने माता-पिता को दिखाने के लिए करते हो तो दूसरे लिहाज से तुम अपने आसपास के लोगों और समाज को दिखाने के लिए ऐसा करते हो, और साथ ही अपने जमीर की जरूरतें पूरी करने की भरसक कोशिश करते हो। तुम इसे चाहे जिस भी दृष्टि से देखो, चाहे तुम जिस भी चीज को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे हो, किसी भी स्थिति में ये तमाम कार्य काफी हद तक अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए हैं, और इन कार्यों का सार उस दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके दिखाई। तो तुम्हारे मन में अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने का विचार क्यों आया है? इस वजह से कि तुम मानते हो कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया और उनके लिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना आसान नहीं था; इस प्रकार तुम्हारे माता-पिता अनजाने में ही तुम्हारे लेनदार बन जाते हैं। तुम सोचते हो कि तुम अपने माता-पिता के ऋणी हो, और तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। तुम मानते हो कि उनका कर्ज उतारकर ही तुममें मानवता होगी, तुम सच में एक संतानोचित बच्चे होगे, और उनका कर्ज उतारना वह नैतिक मानक है जो एक व्यक्ति में होना चाहिए। तो सार रूप में, ये विचार, सोच और क्रियाकलाप तुम्हारे यह मानने के कारण पैदा होते हैं कि तुम अपने माता-पिता के ऋणी हो और तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए; काफी हद तक तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार हैं, यानी तुम मानते हो कि उन्होंने तुम पर जो दयालुता दिखाई, उसका ऋण तुम पर है। अब चूँकि तुम उनका कर्ज उतारने और उनकी भरपाई करने की काबिलियत रखते हो, इसलिए तुम ऐसा करते हो—अपनी क्षमता के अनुसार तुम उनकी भरपाई करने के लिए पैसा और स्नेह लगाते हो। तो क्या ऐसा करना सच्ची मानवता का प्रदर्शन है? क्या यह अभ्यास का सच्चा सिद्धांत है? (नहीं है।) मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं? चूँकि यह सत्य है कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,” इसलिए अगर तुम उन्हें अपना हितैषी और लेनदार मानते हो, और तुम जो भी करते हो वह उनकी दयालुता के लिए उनकी भरपाई करना है, तो क्या यह विचार और सोच सही है? (नहीं।) क्या यह “नहीं” बड़ी अनिच्छा से नहीं कहा गया? इनमें से कौन-सा कथन सही है : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए”? (“तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” ही सत्य है।) चूँकि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” ही सत्य है, तो फिर क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए” सत्य है? (नहीं।) क्या इस कथन से इसका टकराव नहीं है : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं”? (जरूर है।) यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इनमें से किस कथन से तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करता है—तो फिर महत्वपूर्ण क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से कौन-सा कथन सत्य है। तुम्हें उसी कथन को स्वीकार करना चाहिए जो सत्य है, भले ही इससे तुम्हारा जमीर बेचैन और आरोपी महसूस करे, क्योंकि यही सत्य है। “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए,” भले ही यह कथन मानवता के इंसानी नैतिक मानक और मनुष्य के जमीर की जागरूकता के अनुरूप है, फिर भी यह सत्य नहीं है। भले ही इस कथन से तुम्हारे जमीर को संतुष्टि मिलती हो, आराम पहुँचता हो, फिर भी तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। सत्य को स्वीकार करने के मामले में तुम्हें यह रवैया अपनाना चाहिए। तो “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए,” इन दोनों में से कौन-सा कथन ज्यादा सहज लगता है, मानवता और तुम्हारे जमीर की भावना के समान और मनुष्यता के नैतिक मानकों के अनुरूप लगता है? (दूसरा कथन।) दूसरा कथन ही क्यों? क्योंकि यह मनुष्य की भावनात्मक जरूरतें पूरी कर उन्हें संतुष्ट करता है। लेकिन यह सत्य नहीं है, और परमेश्वर इससे घृणा करता है। तो क्या यह कथन “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” लोगों को असहज कर देता है? (बिल्कुल।) यह कथन सुनने के बाद, लोगों को क्या महसूस होता है, क्या आभास होता है? (कि इसमें जमीर की थोड़ी-सी कमी है।) उन्हें लगता है कि इसमें थोड़ी-सी मानवीय भावना नहीं हैं, है कि नहीं? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं, “अगर किसी व्यक्ति में मानवीय भावनाएँ न हों, तो क्या वह मनुष्य है?”—अगर लोगों में मानवीय भावनाएँ न हों, तो क्या वे मनुष्य हैं? “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” कथन यूँ लगता है मानो इसमें मानवीय भावना न हो, लेकिन यह एक तथ्य है। अगर तुम अपने माता-पिता से अपने रिश्ते को तार्किक ढंग से देखोगे, तो पाओगे कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” कथन ने साफ तौर पर प्रत्येक व्यक्ति के अपने माता-पिता के साथ रिश्ते को स्पष्ट रूप से बिल्कुल मूल से समझाया है, और लोगों के आपसी रिश्तों के मूल और सार को स्पष्ट किया है। भले ही इससे तुम्हारा जमीर हिलता हो और तुम्हारी भावनात्मक जरूरतें पूरी न होती हों, फिर भी यह एक तथ्य है, एक सत्य है। यह सत्य तुम्हें इस योग्य बना सकता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में जो दयालुता दिखाई, उससे तुम तार्किक और सही ढंग से पेश आओ। यह तुम्हें इस योग्य भी बना सकता है कि तुम अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा से तार्किक और सही ढंग से पेश आओ। स्वाभाविक रूप से, यह इस बात में और भी सक्षम है कि तुम्हें माता-पिता से अपने रिश्ते को तार्किक और सही नजरिये से देखने योग्य बनाए। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को इस नजरिये से देख सको, तो तुम इसे तार्किक ढंग से सँभाल सकोगे। कुछ लोग कहते हैं : “इन सत्यों को बहुत अच्छे ढंग से पेश किया गया है, और ये बड़े जोशीले लगते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि इन्हें सुनकर लोगों को लगता है कि इन्हें हासिल करना थोड़ा असंभव है? खास तौर से ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’—ऐसा क्यों है कि इस सत्य को सुनने के बाद लोगों को लगता है कि माता-पिता के साथ उनके रिश्ते में दूरी और परायापन बढ़ गया है? उन्हें क्यों लगता है कि उनमें और उनके माता-पिता में कोई स्नेह नहीं है?” क्या सत्य जानबूझकर लोगों को एक-दूसरे से दूर करने की कोशिश कर रहा है? क्या सत्य जानबूझकर लोगों और उनके माता-पिता के बीच रिश्ते-नाते तोड़ने की कोशिश कर रहा है? (नहीं।) तो इस सत्य को समझने से कौन-से नतीजे पाए जा सकते हैं? (इस सत्य को समझने से हम इस योग्य बन सकते हैं कि अपने माता-पिता से अपने रिश्ते को स्पष्ट रूप से देख सकें कि वह वास्तव में कैसा है—यह सत्य हमें इस मामले का सच्चा तथ्य बताता है।) सही है, यह तुम्हें इस मामले के वास्तविक तथ्य को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाता है, इन चीजों से तार्किक ढंग से पेश आकर सँभाल सको, और अपने स्नेहबंधनों या आपसी दैहिक रिश्तों में जीते न रहो, सही है?

आओ, चर्चा करें कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहज ज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है। लिहाजा, जब तुम्हारे माता-पिता में से कोई एक कहता है : “तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो। तुम इतने वर्षों से मुझे देखने नहीं आए, मुझे फोन किए तुम्हें जाने कितने दिन हो गए। मैं बीमार हूँ और मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मैंने तुम्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया। तुम सचमुच लापरवाह और अहसान-फरामोश छोकरे हो!” अगर तुम इस सत्य को नहीं समझते कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,” तो ये बातें सुनना उतना ही पीड़ादायक होगा जितना दिल में छुरा भोंकने पर होता है, और तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करेगा। इनमें से प्रत्येक शब्द तुम्हारे दिल में बैठ जाएगा और इसके कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी, तुम उनका ऋणी महसूस करोगे और उनके प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हो जाओगे। जब माता या पिता कहते हैं कि तुम अहसान-फरामोश हो, तो तुम्हें सच में लगेगा : “वे बिल्कुल सही हैं। उन्होंने मुझे इस उम्र तक बड़ा किया, और उन्हें मेरी छत्रछाया में जरा भी आराम नहीं मिला। अब वे बीमार हैं, उन्हें उम्मीद थी कि मैं उनके सिरहाने बैठकर उनकी सेवा करूँगा और उनका साथ दूँगा। उन्हें जरूरत थी कि मैं उनकी दयालुता का कर्ज चुकाऊँ, और मैं वहाँ नहीं था। मैं सच में लापरवाह अकृतज्ञ हूँ!” तुम खुद को लापरवाह अकृतज्ञ का दर्जा दे दोगे—क्या यह वाजिब है? क्या तुम एक लापरवाह अकृतज्ञ हो? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है? अगर पहले तुम्हारे माता-पिता ने कहा होता कि तुम लापरवाह अहसान-फरामोश हो, तुममें कोई जमीर नहीं है, और तुम एक नाशुक्रे छोकरे हो, तो क्या तुम परेशान होते? (हाँ।) और अब? (अब मैं परेशान नहीं होऊँगा।) तो यह समस्या कैसे दूर हुई? (क्योंकि परमेश्वर ने संगति की कि हमारे माता-पिता बीमार हों या न हों, वे जीवित रहें या न रहें, यह तय करने में हमारा कोई हाथ नहीं है, यह सब परमेश्वर द्वारा नियत है। अगर हम उनके साथ रहें, तो भी हम कुछ नहीं कर सकते, तो अगर वे कहें कि हम लापरवाह अहसान-फरामोश हैं, तो इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।) चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक लापरवाह अहसान-फरामोश कहें या न कहें, कम-से-कम तुम सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो। अगर तुम परमेश्वर की नजरों में लापरवाह अहसान-फरामोश नहीं हो, तो यही काफी है। लोग क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं, वह अनिवार्य रूप से सही नहीं है, और उनका कहा उपयोगी नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाना चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि तुम एक सक्षम सृजित प्राणी हो, फिर अगर लोग तुम्हें लापरवाह अहसान-फरामोश कहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। बस इतना ही है कि लोग इन अपमानों से तब आहत होंगे जब उनके जमीर पर इनका असर होगा, या अगर वे सत्य को नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद छोटा हो, वे थोड़ी बुरी मनःस्थिति में और थोड़ा अवसादग्रस्त हों, लेकिन जब वे परमेश्वर के समक्ष लौट आएँगे तो यह सब दूर हो जाएगा, और फिर उनके लिए इससे कोई समस्या नहीं होगी। क्या अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने का मामला हल नहीं हो गया है? क्या तुम यह मामला समझ गए हो? (हाँ।) वह कौन-सा तथ्य है जो लोगों को यहाँ समझना चाहिए? तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। उन्होंने तुम्हें जन्म देने का फैसला किया, इसलिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने की जिम्मेदारी उनकी है। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके वे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरे कर रहे हैं। तुम उनके बिल्कुल ऋणी नहीं हो, इसलिए तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है—यह स्पष्ट दर्शाता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, और तुम्हें उनकी दयालुता के एवज में उनके लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे हालात तुम्हें उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी करने की इजाजत देते हैं, तो जरूर करो। अगर तुम्हारा माहौल और तुम्हारे वस्तुपरक हालात तुम्हें उनके प्रति अपना दायित्व पूरा नहीं करने देते, तो तुम्हें उस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें नहीं सोचना चाहिए कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। अगर तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाते हो या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो तो कोई बात नहीं, तुम सिर्फ संतान का नजरिया अपनाकर उन लोगों के प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हो, जिन्होंने तुम्हें जन्म देकर बड़ा किया। लेकिन तुम ऐसा यकीनन उनकी भरपाई करने के लिए या इस नजरिये से नहीं कर सकते कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए, तुम्हें उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए।”

गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।” एक कहावत यह भी है : “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।” ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहज ज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहज ज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहज ज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहज ज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था। जरा पक्षियों को देखो, प्रजनन मौसम से एक महीने से भी पहले से वे अपने घोंसले बनाने के लिए लगातार सुरक्षित स्थान ढूँढ़ते रहते हैं। नर और मादा पक्षी बारी-बारी से बाहर जाते हैं और तरह-तरह के पौधे, पंख और डालियाँ लेकर अपेक्षाकृत घने वृक्षों में घोंसले बनाना शुरू कर देते हैं। अलग-अलग पक्षियों के तमाम छोटे-छोटे घोंसले बेहद मजबूत और पेचदार होते हैं। अपनी संतान की खातिर, पक्षी घोंसले और आश्रय बनाने में कड़ी मेहनत लगाते हैं। घोंसले बना लेने के बाद जब अंडे सेने का समय आता है, तो हर घोंसले में हमेशा एक पक्षी होता है; नर और मादा पक्षी रोज चौबीसों घंटे बारी-बारी से पारी देते हैं, और वे इस पर बड़ा ध्यान देते हैं—उनमें से एक के लौट आते ही दूसरा तुरंत वहाँ जाने के लिए उड़ जाता है। जल्दी ही कुछ चूजे पैदा होकर अंडे के खोल में चोंच मारकर अपने सिर बाहर निकालते हैं, और तुम उनके वृक्षों में उनका चहचहाना सुन सकते हो। वयस्क पक्षी उड़ कर आते-जाते रहते हैं, बड़ी सावधानी दिखाते हुए वे अपने चूजों को कभी कीड़े-मकोड़े तो कभी कुछ और खिलाने वापस आते रहते हैं। दो-चार महीने बाद कुछ चूजे थोड़ा बड़े हो जाते हैं, और फिर वे अपने घोंसले के मुहाने पर खड़े होकर पंख फड़फड़ा सकते हैं; उनके माता-पिता आते-जाते रहते हैं, बारी-बारी से अपने चूजों को खिलाते-पिलाते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। एक वर्ष, मैंने आकाश में मुँह में एक चूजा पकड़े एक कौआ देखा। वह चूजा बुरी तरह चीख रहा था, एक तरह से मदद की पुकार लगा रहा था। कौआ मुँह में चूजा लिए हुए आगे-आगे उड़ रहा था और एक जोड़ी वयस्क पक्षी उसका पीछा कर रहे थे। ये दोनों पक्षी भी बुरी तरह चीख रहे थे, और अंत में कौआ उड़कर बड़ी दूर चला गया। उस चूजे के माता-पिता कौए तक पहुँच सके हों या नहीं, वह चूजा तो वैसे भी मर ही गया होगा। वे दो वयस्क पक्षी जो पीछे उड़ रहे थे, वे इतना ज्यादा रो रहे थे, चीख-पुकार मचा रहे थे कि जमीन पर लोग चौंक गए—तुम्हें क्या लगता है कि उन पक्षियों की चीख-पुकार कितनी दर्दनाक रही होगी? दरअसल, निश्चित ही उनका सिर्फ एक ही चूजा नहीं रहा होगा। उनके घोंसले में तीन-चार चूजे जरूर रहे होंगे, मगर जब कौआ एक चूजे को पकड़कर उड़ गया, तो वे रोते-चिल्लाते उसका पीछा करने लगे। प्राणी और जैव जगत ऐसा ही है—जीवित प्राणी अपनी संतान को इसी तरह थके बिना पाल-पोस पाते हैं। पक्षी वापस उड़कर हर वर्ष नए घोंसले बनाते हैं, हर साल वे वही चीजें करते हैं; अंडे सेकर चूजे पैदा करते हैं, उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और उड़ना सिखाते हैं। नन्हे पक्षी उड़ने का अभ्यास करते वक्त ज्यादा ऊँचे नहीं उड़ते और कभी-कभार जमीन पर गिर जाते हैं। हमने कुछ बार उन्हें बचाया भी है और उन्हें उनके घोंसलों में रखने के लिए दौड़ पड़े हैं। उनके माता-पिता उन्हें हर दिन सिखाते हैं, और किसी-न-किसी दिन ये तमाम चूजे अपने घोंसले छोड़कर दूर उड़ जाएँगे, और खाली घोंसले पीछे छोड़ देंगे। अगले साल, घोंसले बनाने के लिए पक्षियों के नए जोड़े आते हैं, अपने अंडे सेते हैं और चूजों को पाल-पोस कर बड़ा करते हैं। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहज ज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे अपनी भावनाओं से संचालित नहीं होते और वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते : “मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे फटकारेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!” पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। इन चीजों से लोगों के प्रभावित हो जाने, क्षय होने और सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजने वाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के भ्रामक विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों का सत्य बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये भ्रामक विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता के साथ तुम्हें अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना है और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और शैतान द्वारा मनुष्य को दिखाए गए तरीकों, विचारों और सोच के साथ निपटना है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। जब लोग ये मामले शैतान के भ्रामक विचारों और सोच के अनुसार सँभालते हैं, तो वे बस अपनी भावनाओं की उलझनों में ही जी सकते हैं, और कभी भी सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते। इन हालात में उनके पास जाल में फँसकर जीने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, वे हमेशा ऐसे मामलों में उलझे रहते हैं जैसे कि “तुम सही हो, मैं गलत। तुमने मुझे ज्यादा दिया है, मैंने तुम्हें कम दिया। तुम कृतघ्न हो। तुम कतार से बाहर हो।” नतीजतन, कभी भी कोई ऐसा वक्त नहीं होता जब वे स्पष्ट बातें करते हों। लेकिन, लोगों के सत्य समझने के बाद, और जब वे उनके भ्रामक विचारों, सोच और भावनाओं के जाल से बच निकलते हैं, तो ये मामले उनके लिए सरल हो जाते हैं। अगर तुम उन सत्य सिद्धांतों, विचारों और सोच का पालन करते हो जो सही हैं और परमेश्वर से आए हैं, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके विपरीत, ये चीजें तुम्हें इस योग्य बना देंगी कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो भले ही लोग पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करें, तुम अपने दिल की गहराई में शांति और सुकून ही महसूस करोगे, और तुम पर उसका कोई असर नहीं होगा। कम-से-कम तुम खुद को एक लापरवाह अहसान-फरामोश होने पर नहीं धिक्कारोगे, या अपने दिल की गहराई में अब अपने जमीर का आरोप महसूस नहीं करोगे। यह इसलिए कि तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे सारे कार्य परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए तरीकों के अनुसार किए जाते हैं, तुम परमेश्वर के वचनों को सुनते और उनके प्रति समर्पण करते हो, और उसके मार्ग का अनुसरण करते हो। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना ही जमीर की वह समझ है जो लोगों में सबसे ज्यादा होनी चाहिए। ये चीजें कर सकने पर ही तुम एक सच्चे व्यक्ति बन पाओगे। अगर तुमने ये चीजें संपन्न नहीं की हैं, तो तुम एक लापरवाह अहसान-फरामोश हो। क्या बात यही नहीं है? (यही है।) क्या तुम अब इस मामले को स्पष्ट देख पा रहे हो? इसे स्पष्ट देखना इसका एक पहलू है; दूसरा पहलू यह है कि क्या लोग धीरे-धीरे इस मामले को समझ रहे हैं और सत्य पर अमल कर रहे हैं। इस मामले को स्पष्ट देखने के लिए लोगों को कुछ समय तक चीजों का अनुभव करना चाहिए। अगर लोग इस तथ्य और सार को स्पष्ट देखना चाहें, और उस मुकाम पर पहुँचना चाहें जहाँ वे मामलों को सिद्धांतों के साथ सँभालें, तो यह थोड़े समय में नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोगों को पहले तरह-तरह के भ्रामक और दुष्ट विचारों और सोच के प्रभाव को त्यागना पड़ता है। एक और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें अपने ही जमीर और भावनाओं के बंधनों और प्रभावों को दूर करने में समर्थ होना चाहिए; खास तौर पर उन्हें अपनी ही भावनाओं की बाधा को पार करना चाहिए। मान लो कि तुम सैद्धांतिक तौर पर मानते हो कि परमेश्वर का वचन ही सत्य है और यही सही है, और सिद्धांत रूप में जानते हो कि शैतान जो भ्रामक विचार और सोच लोगों के मन में बिठाता है वे गलत हैं, लेकिन तुम अपनी भावनाओं की बाधा से उबर ही नहीं पाते, और तुम्हें यह सोचकर अपने माता-पिता के लिए दुख होता है कि उन्होंने तुम पर बहुत अधिक दयालुता दिखाई है, तुम्हारे लिए खुद को बहुत खपाया, थकाया और कष्ट सहे, तुम्हारे लिए किए गए उनके हर काम, उनकी हर बात और उनके द्वारा चुकाई गई हर कीमत की परछाइयाँ तुम्हारे मन में अभी भी तरोताजा हैं। इनमें से हर बाधा तुम्हारे लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ होगी और उनके पार जाना आसान नहीं होगा। असल में, पार करने की सबसे मुश्किल बाधा तुम खुद होगे। अगर तुम एक-के-बाद-एक सभी बाधाएँ पार कर सको, तो तुम अपने दिल से अपने माता-पिता के प्रति अपनी भावनाओं को पूरी तरह से जाने दे सकोगे। मैं इस विषय पर इसलिए संगति नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करो, और निश्चित रूप से इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने और अपने माता-पिता के बीच सीमारेखा खींच लो—हम कोई आंदोलन शुरू नहीं कर रहे हैं, कोई सीमारेखा खींचने की जरूरत नहीं है। मैं इस पर सिर्फ इसलिए संगति कर रहा हूँ ताकि तुम्हें इन मामलों की सही समझ मिल सके, और सही विचार और सोच स्वीकारने में तुम्हें मदद मिल सके। साथ ही मैं इस पर इसलिए भी संगति कर रहा हूँ ताकि जब ये चीजें तुम्हारे सामने आएँ, तो तुम इनसे परेशान न हो जाओ या तुम्हारे हाथ-पाँव बँध न जाएँ, और इससे भी ज्यादा जरूरी बात यह है कि जब इन चीजों से तुम्हारा सामना हो, तो वे एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित न करें। इस तरह, मेरी संगति अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगी। बेशक, क्या दैहिक जीवन जीने वाले लोग उस मुकाम पर पहुँच सकेंगे जहाँ वे अपने मन में इनमें से कोई भी चीज दबा कर न रखें, और उनके और माता-पिता के बीच कोई भावनात्मक उलझनें न हों? यह असंभव होगा। इस संसार में, माता-पिता के अलावा लोगों के अपने बच्चे भी होते हैं—लोगों के ये सबसे करीबी दो दैहिक रिश्ते हैं। माता-पिता और बच्चे के रिश्ते को पूरी तरह से तोड़ देना असंभव है। मैं तुम्हें उस औपचारिकता से गुजारने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने माता-पिता से अपना रिश्ता तोड़ लो, और फिर कभी उनसे न मिलो। मैं उनके साथ तुम्हारे रिश्ते को सही ढंग से सँभालने में तुम्हारी मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ। ये चीजें मुश्किल हैं, है कि नहीं? जैसे-जैसे सत्य की तुम्हारी समझ गहरी होती है, और जैसे-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ती है, इन चीजों की मुश्किल धीरे-धीरे घटेगी और कम हो जाएगी। जब लोग बीस की उम्र में होते हैं, तो उनके मन में 30-40 के होने के मुकाबले अपने माता-पिता के प्रति एक अलग किस्म का लगाव होता है। उनके 50 के हो जाने के बाद यह लगाव और भी कम हो जाता है, और 60-70 के हो जाने पर तो इसकी बात करना भी जरूरी नहीं है। तब तक यह लगाव और भी हल्का हो जाता है—यह उम्रदराज होने के साथ बदलता जाता है।

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