सत्य का अनुसरण कैसे करें (16) भाग चार
माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में क्या यह स्पष्ट है कि कौन-से सिद्धांतों का पालन करना है और कौन-से बोझों को त्याग देना है? (हाँ।) तो ठीक-ठीक वे कौन-से बोझ हैं जो लोग यहाँ ढोते हैं? उन्हें अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए और अपने माता-पिता को अच्छा जीवन जीने देना चाहिए; उनके माता-पिता जो भी करते हैं, उनके अच्छे के लिए करते हैं; और उनके माता-पिता जिसे संतानोचित होना कहते हैं, वैसे काम करने चाहिए। इसके अतिरिक्त, वयस्कों के रूप में, उन्हें अपने माता-पिता के लिए चीजें करनी चाहिए, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए, उनके प्रति संतानोचित बनना चाहिए, उनके साथ रहना चाहिए, उन्हें दुखी या उदास नहीं करना चाहिए, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, और उनकी तकलीफें कम करने या पूरी तरह से दूर करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, तो तुम कृतघ्न हो, असंतानोचित हो, तुम पर बिजली गिर जानी चाहिए और दूसरों को तुम्हारा तिरस्कार करना चाहिए, और तुम एक बुरे इंसान हो। क्या ये तुम्हारे बोझ हैं? (हाँ।) चूँकि ये लोगों के बोझ हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकार कर उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही इन बोझों और गलत विचारों और नजरियों को त्यागा और बदला जा सकता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे सामने चलने का कोई दूसरा पथ है? (नहीं।) इस तरह परिवार के बोझों को त्यागने की बात हो या देह को, इन सबकी शुरुआत सही विचारों और नजरियों को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने से होती है। जब तुम सत्य को स्वीकारना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अंदर के ये गलत विचार और नजरिये धीरे-धीरे विघटित हो जाएँगे, पूरी तरह समझ-बूझ लिए जाएँगे और फिर धीरे-धीरे ठुकरा दिए जाएँगे। विघटन, समझने-बूझने, और फिर इन गलत विचारों और नजरियों को जाने देने और ठुकराने की प्रक्रिया के दौरान, तुम धीरे-धीरे इन मामलों के प्रति अपना रवैया और नजरिया बदल दोगे। वे विचार जो तुम्हारे इंसानी जमीर या भावनाओं से आते हैं, धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाएँगे; वे तुम्हें तुम्हारे मन की गहराई में न परेशान करेंगे, न बाँधकर रखेंगे, तुम्हारे जीवन को नियंत्रित या प्रभावित नहीं करेंगे, या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में दखल नहीं देंगे। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने सही विचारों और नजरियों और सत्य के इस पहलू को स्वीकार किया है, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुन कर तुम उनके लिए सिर्फ आँसू बहाओगे, यह नहीं सोचोगे कि कैसे इन वर्षों के दौरान तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनकी दयालुता का कर्ज तुमने नहीं चुकाया, कैसे तुमने उन्हें बहुत दुख दिए, कैसे उनकी जरा भी भरपाई नहीं की, या कैसे तुमने उन्हें अच्छा जीवन जीने नहीं दिया। अब तुम इन चीजों के लिए खुद को दोष नहीं दोगे—बल्कि सामान्य मानवीय भावनाओं से निकलने वाली सामान्य अभिव्यक्तियाँ दर्शाओगे; तुम आँसू बहाओगे, और फिर उनके लिए थोड़ा तरसोगे। जल्दी ही ये चीजें स्वाभाविक और सामान्य हो जाएँगी, और तुम तेजी से सामान्य जीवन और अपने कर्तव्य निर्वहन में डूब जाओगे; तुम इस मामले से परेशान नहीं होगे। लेकिन अगर तुम ये सत्य स्वीकार नहीं करते, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुनकर तुम निरंतर रोते रहोगे। तुम्हें अपने माता-पिता पर तरस आएगा कि जीवन भर उनके लिए चीजें कठिन रहीं, और उन्होंने तुम जैसे एक असंतानोचित बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया; जब वे बीमार थे, तो तुम उनके सिरहाने नहीं रहे, और उनकी मृत्यु पर उनकी अंत्येष्टि के समय चीख-चीख कर रोए नहीं या शोक-संतप्त नहीं हुए; तुमने उन्हें निराश किया, उन्हें हताश किया, और तुमने उन्हें एक अच्छा जीवन नहीं जीने दिया। तुम लंबे समय तक इस अपराध बोध के साथ जियोगे, और इस बारे में जब भी सोचोगे तो रोओगे, और तुम्हारे दिल में एक टीस उठेगी। जब भी तुम्हारा सामना संबंधित हालात या लोगों, घटनाओं और चीजों से होगा, तुम भावुक हो जाओगे; यह अपराध बोध शायद शेष जीवन भर तुम्हारे साथ रहे। इसका कारण क्या है? कारण यह है कि तुमने कभी सत्य या सही विचारों और नजरियों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार नहीं किया; इसके बजाय तुम्हारे पुराने विचार और नजरिये तुम पर हावी बने रहे हैं, तुम्हारे जीवन को प्रभावित करते रहे हैं। तो तुम अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण अपना बचा हुआ जीवन पीड़ा में बिताओगे। इस निरंतर दुख के नतीजे थोड़ी-सी दैहिक बेचैनी से बढ़कर कहीं ज्यादा हो जाएँगे; ये तुम्हारे जीवन को प्रभावित करेंगे, ये तुम्हारे अपने कर्तव्य निर्वहन, कलीसिया के कार्य, परमेश्वर, और साथ ही तुम्हारी आत्मा को छूने वाले किसी भी व्यक्ति या मामले के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेंगे। शायद तुम और भी मामलों के प्रति भी निराश और हतोत्साहित, मायूस और निष्क्रिय हो जाओ, जीवन में विश्वास खो दो, किसी भी चीज के लिए उत्साह और अभिप्रेरणा, आदि खो दो। समय के साथ, यह प्रभाव तुम्हारे सरल दैनिक जीवन तक सीमित नहीं रहेगा; यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और जीवन में जिस पथ पर चलते हो, उसके प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेगा। यह बहुत खतरनाक है। इस खतरे का नतीजा यह हो सकता है कि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में ढंग से अपने कर्तव्य न निभा सको, और आधे में ही अपना कर्तव्य निर्वहन बंद कर दो, या जिन कर्तव्यों का तुम निर्वाह करते हो उनके प्रति एक प्रतिरोधी मनोदशा और रवैया अपना लो। संक्षेप में कहें, तो ऐसी स्थिति समय के साथ जरूर बिगड़ेगी और तुम्हारी मनोदशा, भावनाओं और मानसिकता को एक घातक दिशा में ले जाएगी। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) आज इन विषयों पर संगति एक ओर तुम्हें बताती है कि सही विचार और नजरिये स्थापित करो, जिनका स्रोत खुद इन मामलों के सार पर आधारित हो। चूँकि मूल और सार ऐसे हैं, इसलिए लोगों को यह समझना चाहिए और उन्हें इन प्रदर्शनों या भावनाओं और उग्रता से आने वाले विचारों और नजरियों से धोखा नहीं खाना चाहिए। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि ऐसा करने के बाद ही लोग रास्ते से भटकने या दूसरे रास्ते पर जाने से बच सकेंगे और इसके बजाय परमेश्वर द्वारा आयोजित और शासित माहौल में जैसा भी जीवन मिले जी सकेंगे। सारांश में, इन सही विचारों और नजरियों को स्वीकार करके और उनके मार्गदर्शन से ही लोग अपने माता-पिता से आने वाले इन बोझों को त्याग सकेंगे, इन बोझों को जाने दे सकेंगे और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हो पाएँगे। ऐसा करके, व्यक्ति शांति और उल्लास के साथ, अधिक स्वतंत्र और बिना बंधन के जी सकेगा, और निरंतर उग्रता, भावनाओं या जमीर के प्रभावों से चालित नहीं होगा। इतनी चर्चा कर लेने पर, क्या अब तुम्हें माता-पिता की अपेक्षाओं से पैदा होने वाले बोझों की थोड़ी समझ हो गई है? (हाँ।) अब चूँकि तुम्हें थोड़ी सही समझ मिल गई है, क्या तुम्हारी आत्मा थोड़ा ज्यादा सुकून और आजादी महसूस नहीं कर रही है? (हाँ।) जब तुम्हें वास्तविक समझ, वास्तविक स्वीकृति और समर्पण प्राप्त हो जाए, तो तुम्हारी आत्मा मुक्त हो जाएगी। अगर तुम प्रतिरोध और इनकार जारी रखोगे, या इन मामलों को तथ्यों के आधार पर लेने के बजाय, सत्यों से महज सिद्धांत की तरह पेश आते रहोगे, तो तुम्हारे लिए त्यागना मुश्किल होगा। तुम इन मामलों से निपटने में सिर्फ देह के विचारों और भावनाओं के आयोजनों के अनुसार कार्य कर पाओगे; आखिरकार, तुम इन भावनाओं के जाल में जियोगे, जहाँ सिर्फ पीड़ा और दुख है, और कोई भी तुम्हें बचा नहीं पाएगा। इस भावनात्मक जाल में उलझ कर इन मामलों को झेलते समय लोगों के लिए कोई रास्ता नहीं होता। तुम भावनाओं के जाल और बंधनों से सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही मुक्त हो सकते हो, सही है? (हाँ।)
बच्चों की पढ़ाई और करियर विकल्पों को ले कर माता-पिता की विभिन्न अपेक्षाओं और नजरियों के अलावा, शादी को लेकर भी उनकी तरह-तरह की अपेक्षाएँ होती हैं, है कि नहीं? इनमें से कुछ अपेक्षाएँ क्या हैं? कुछ बताओ। (आम तौर पर, माता-पिता अपनी बेटियों से कहेंगे कि उनका होने वाला पति अमीर तो होना ही चाहिए, उसके पास गाड़ी-बंगला होना चाहिए, और इस लायक होना चाहिए कि उसकी देखभाल कर सके। यानी, उनकी बेटी की भौतिक जरूरतें पूरी करने में समर्थ होने के साथ-साथ उसमें जिम्मेदारी की भावना भी होनी चाहिए। जीवनसाथी चुनने के ये मानदंड होते हैं।) कुछ बातें जो माता-पिता कहते हैं वे उनके अपने अनुभवों से आती हैं, और हालाँकि उनके मन में तुम्हारा सर्वोत्तम हित होता है, फिर भी कुछ मसले होते हैं। तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं में उनकी अपनी राय और पसंद भी होती है। उनकी अपेक्षा होती है कि उनके बच्चे ऐसा जीवनसाथी चुनें जिसके पास कम-से-कम धन, हैसियत और काबिलियत तो हो ही, वह इतना दुर्जेय हो कि घर से बाहर उन्हें कोई धौंस न दे सके। और अगर दूसरे तुम्हें धौंस दें, तो यह व्यक्ति उनसे मुकाबला कर तुम्हारी रक्षा करे। तुम कह सकती हो, “मुझे परवाह नहीं। मैं वैसी भौतिकतावादी व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे बस ऐसा कोई चाहिए जिसे मुझसे प्यार हो और मुझे उससे।” इस बात पर, तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “तुम इतनी बेवकूफ क्यों हो? इतनी भोली क्यों हो? तुम छोटी और अनुभवहीन हो, जिंदगी की मुश्किलें नहीं समझती। क्या तुमने कभी यह कहावत सुनी है, ‘गरीब दंपत्ति के लिए सब-कुछ बुरा होता है’? जीवन में, हर किसी चीज के लिए पैसा चाहिए; क्या तुम्हें लगता है कि बिना पैसों के तुम अच्छा जीवन जी सकोगी? तुम्हें किसी ऐसे को तलाशना होगा जो अमीर और काबिल हो।” तुम जवाब दोगी, “लेकिन अमीर और काबिल लोग भी भरोसेमंद नहीं होते हैं।” तुम्हारे माता-पिता जवाब देते हैं, “भले ही वे भरोसेमंद न हों, फिर भी पहले तुम्हें अपनी बुनियादी जरूरतों को चाक चौबंद करना होगा। तुम्हारे पास खाने-पहनने के लिए सब होगा, तुम खाती-पीती रहोगी, अच्छे कपड़े पहनोगी जिससे सभी लोग ईर्ष्या करें।” तुम जवाब दोगी, “लेकिन मेरी आत्मा खुश नहीं होगी।” इस पर तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “भला आत्मा क्या है? कहाँ है? तुम्हारी आत्मा नाखुश हो भी तो क्या? शरीर को आराम मिले, बस यही मायने रखता है!” कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने जीवन के मौजूदा हालात के आधार पर अकेले ही रहना चाहते हैं। हालाँकि उनकी उम्र हो चुकी है, फिर भी वे शादी करना तो दूर, किसी के साथ घूमना-फिरना भी नहीं चाहते। इससे उनके माता-पिता बेचैन हो जाते हैं, तो वे उनसे शादी करने का आग्रह करते रहते हैं। वे अनजान लोगों से मिलने की व्यवस्था करते हैं और संभावित साथियों से परिचय कराते हैं। वे अपने बच्चों की शादी के लिए जल्द-से-जल्द कोई सुमेल और सम्मानित व्यक्ति तलाशने की हर संभव कोशिश करते हैं; भले ही वह सुमेल न हो, कम-से-कम उसकी योग्यता अच्छी हो, जैसे कि यूनिवर्सिटी स्नातक, स्नातकोत्तर या पीएचडी या विदेश में पढ़ा हुआ। कुछ लोग अपने माता-पिता का यूँ तंग करना बर्दाश्त नहीं कर सकते। पहले तो वे सोचते हैं कि कितनी अच्छी बात है कि वे एकल हैं, और उन्हें बस अपनी ही देखभाल करनी है। खास तौर से परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, वे हर दिन अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं, और उनके पास इन चीजों के बारे में सोचने का वक्त नहीं होता, इसलिए वे किसी के साथ घूमते-फिरते नहीं और वे आगे चलकर शादी नहीं करेंगे। लेकिन वे अपने माता-पिता की जाँच से बच नहीं सकते। उनके माता-पिता राजी नहीं होते और हमेशा उनसे आग्रह करते और उन पर दबाव डालते रहते हैं। जब भी वे अपने बच्चों को देखते हैं, वे तंग करना शुरू कर देते हैं : “क्या तुम किसी से मिलते-जुलते हो? क्या कोई है जिसे तुम पसंद करते हो? जल्दी से उसे घर ले आओ ताकि हम तुम्हारे लिए उसे जाँच सकें। अगर वह उपयुक्त हो, तो फौरन जाकर शादी कर लो, तुम्हारी उम्र कम नहीं हो रही है! महिलाएँ तीस के बाद शादी नहीं करतीं और पुरुष पैंतीस के बाद जीवन साथी नहीं ढूँढ़ते। तुम क्या करने की कोशिश कर रहे हो, दुनिया उलटने की? अगर तुम शादी नहीं करोगे तो बुढ़ापे में तुम्हारा ख्याल कौन रखेगा?” माता-पिता हमेशा इसी बात में खुद को व्यस्त रखकर चिंता करते रहते हैं, वे चाहते हैं कि तुम किसी-न-किसी को खोज लो, दबाव बनाते हैं कि कोई साथी ढूँढ़ कर शादी कर लो। और तुम्हारे शादी कर लेने के बाद, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें तंग करते रहते हैं : “जल्दी करो, जब तक मेरी उम्र बहुत नहीं हुई तब तक बच्चा कर लो। मैं उसका ख्याल रखूँगी।” तुम कहते हो, “मेरे बच्चों का ख्याल रखने के लिए मुझे आपकी जरूरत नहीं है। फिक्र मत कीजिए।” वे जवाब देते हैं, “‘फिक्र मत कीजिए’ का क्या मतलब है? जल्दी से बच्चा कर लो! उसके पैदा होने के बाद तुम्हारे लिए मैं उसकी देखभाल करूंगी। वह थोड़ा बड़ा हो जाए तो तुम ख्याल रख लेना।” अपने बच्चों से माता-पिता की जो भी अपेक्षाएँ होती हैं—उनका रवैया चाहे जो हो या ये अपेक्षाएँ सही हों या न हों—ये हमेशा बच्चों को बोझ जैसे लगते हैं। अगर वे अपने माता-पिता की बात मान लें, तो उन्हें आराम और खुशी नहीं मिलेगी। अगर वे अपने माता-पिता की बात न मानें, तो उनकी अंतरात्मा दोषी महसूस करेगी : “मेरे माता-पिता गलत नहीं हैं। उनकी इतनी उम्र हो गई है, और वे मुझे शादी करते या मेरे बच्चे होते हुए नहीं देख रहे हैं। वे दुखी हैं, इसलिए मुझसे शादी करने और मेरे बच्चे होने का आग्रह करते हैं। यह भी उनकी जिम्मेदारी है।” तो, इस बारे में माता-पिता की अपेक्षाओं से पेश आते हुए लोगों के मन में कहीं गहरे यह भावना होती है कि यह एक बोझ है। वे सुनें या न सुनें, यह गलत लगता है, और किसी भी स्थिति में उन्हें लगता है कि अपने माता-पिता की माँगों या आकांक्षाओं का पालन न करना बहुत शर्मनाक और अनैतिक है। यह ऐसा मामला है जो उनके जमीर पर बोझ बन जाता है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों के जीवन में दखल भी देते हैं : “जल्दी करो, शादी करके बच्चे कर लो। पहले मुझे एक स्वस्थ पोता दे दो।” इस तरह वे बच्चे के लिंग के मामले में भी दखलंदाजी करते हैं। कुछ माता-पिता यह भी कहते हैं, “अभी तुम्हारी एक बेटी है न, जल्दी से मुझे एक पोता दे दो, मुझे पोता-पोती दोनों चाहिए। तुम दोनों परमेश्वर में विश्वास रखने और पूरा दिन अपने कर्तव्य निर्वहन में व्यस्त हो। तुम अपना काम ढंग से नहीं कर रहे हो; बच्चे होना बड़ी बात है। तुम्हें नहीं पता, ‘तीन संतानोचित दोषों में से कोई वारिस न होना सबसे बुरा है’? क्या तुम्हें लगता है कि सिर्फ एक बेटी होना काफी है? जल्दी करो और मुझे एक पोता भी दे दो! हमारे परिवार में तुम अकेले हो; अगर तुमने पोता नहीं दिया, तो क्या हमारा वंश खत्म नहीं हो जाएगा?” तुम चिंतन करते हो, “सही बात है, अगर मेरे साथ यह वंश खत्म हो गया, तो क्या मैं अपने पूर्वजों को निराश नहीं कर दूँगा?” तो, शादी न करना गलत है, और शादी करने के बाद बच्चे न होना भी गलत है; मगर यह भी काफी नहीं है कि सिर्फ एक बेटी हो, एक बेटा भी जरूर होना चाहिए। कुछ लोगों का पहले बेटा होता है, मगर उनके माता-पिता कहते हैं, “एक काफी नहीं है। अगर कुछ हो गया तो? एक और हो ताकि वे एक-दूसरे का साथ दे सकें।” अपने बच्चों के विषय में माता-पिता का कहा कानून होता है, और वे बेहद अविवेकी हो सकते हैं, वे सबसे टेढ़े तर्क देने में सक्षम होते हैं—उनके बच्चे समझ नहीं पाते कि इनसे कैसे निपटें। माता-पिता दखल देते हैं और अपने बच्चों के जीवन, कार्य, शादी और विभिन्न चीजों के प्रति उनके रवैयों की आलोचना करते हैं। बच्चे बस अपना गुस्सा पी सकते हैं। वे अपने माता-पिता से छिप नहीं सकते, या उन्हें झटक नहीं सकते। वे अपने ही माता-पिता को डाँट नहीं सकते, शिक्षित नहीं कर सकते—तो वे क्या कर सकते हैं? वे उसे सहते हैं, जितना हो सके उनसे उतना कम मिलने की कोशिश करते हैं, और मिलना ही पड़े तो इन मसलों को उठाने से बचते हैं। और अगर ये मामले उठे भी, तो वे उन्हें फौरन काटकर कहीं जाकर छिप जाते हैं। मगर ऐसे भी कुछ लोग हैं जो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने और उन्हें निराश न करने के लिए, अपने माता-पिता की माँगें पूरी करने को राजी हो जाते हैं। हो सकता है तुम डेटिंग, शादी, और बच्चे होने की दिशा में बेमन से आगे बढ़ जाओ। लेकिन एक बच्चा होना काफी नहीं है; तुम्हारे कई बच्चे होने चाहिए। तुम यह अपने माता-पिता की माँगें पूरी करने और उन्हें खुश और प्रफुल्लित करने के लिए करते हो। चाहे तुम अपने माता-पिता की कामनाएँ पूरी कर सको या नहीं, उनकी माँगें किसी भी बच्चे को परेशान करने वाली ही होंगी। तुम्हारे माता-पिता कानून के खिलाफ कुछ नहीं कर रहे हैं, और तुम उनकी आलोचना नहीं कर सकते, इस बारे में किसी दूसरे से बात नहीं कर सकते, या उनसे तर्क-वितर्क नहीं कर सकते। तुम्हारे यूँ सोच-विचार करने से यह मामला तुम्हारे लिए बोझ बन जाता है। तुम्हें हमेशा लगता है कि अगर तुम शादी और बच्चों को लेकर अपने माता-पिता की माँगें पूरी नहीं कर सकते, तो तुम एक साफ जमीर के साथ अपने माता-पिता और पूर्वजों का सामना नहीं कर पाओगे। अगर तुम अपने माता-पिता की माँगें पूरी नहीं करते—यानी तुम किसी के साथ घूमते-फिरते नहीं, शादी नहीं करते, और तुम्हारे बच्चे नहीं हुए हैं, और उनके कहे अनुसार तुमने परिवार का वंश जारी नहीं रखा है—तो तुम अपने भीतर एक दबाव महसूस करोगे। तुम्हें थोड़ा आराम तभी मिलेगा अगर तुम्हारे माता-पिता कहें कि वे इन मामलों में दखल नहीं देंगे, और तुम्हें चीजें जैसी भी हों उन्हें अपनाने की आजादी देंगे। हालाँकि अगर तुम्हारे विस्तारित संबंधियों, दोस्तों, सहपाठियों, सहयोगियों और बाकी सबसे आने वाली सामाजिक प्रतिक्रिया तुम्हारी निंदा करने और तुम्हारी पीठ पीछे बातें बनाने का हो, तो यह भी तुम्हारे लिए एक बोझ होगा। जब तुम 25 के हो और अविवाहित हो, तो तुम नहीं सोचते कि इससे कोई फर्क पड़ता है, लेकिन 30 के होने पर, तुम्हें लगने लगता है कि यह उतनी अच्छी बात नहीं है, इसलिए तुम इन रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से बचते हो और यह विषय नहीं उठाते। और अगर 35 की उम्र में भी तुम अविवाहित रहो, तो लोग कहेंगे, “तुमने शादी क्यों नहीं की? क्या तुममें कोई खोट है? तुम अजीब किस्म के इंसान हो, है कि नहीं?” अगर तुम शादीशुदा हो मगर बच्चे नहीं चाहते, तो वे कहेंगे, “शादी करने के बाद तुम्हारे बच्चे क्यों नहीं हैं? दूसरे लोग शादी करते हैं, उनकी एक बेटी और फिर एक बेटा होता है या एक बेटा और फिर एक बेटी होती है। तुम्हें बच्चे क्यों नहीं चाहिए? आखिर माजरा क्या है? क्या तुम्हारे भीतर मानवीय भावनाएँ नहीं हैं? क्या तुम एक सामान्य व्यक्ति हो भी?” ये बातें माता-पिता कहें या समाज, अलग-अलग माहौल और पृष्ठभूमि में ये मसले तुम्हारे लिए बोझ बन जाएँगे। तुम्हें लगता है तुम गलत हो, खास तौर से अपनी इस उम्र में। मिसाल के तौर पर, अगर तुम तीस और पचास के बीच हो, और अभी भी शादी नहीं की है, तो तुम लोगों से मिलने की हिम्मत नहीं करोगे। वे कहते हैं, “उस महिला ने अपनी पूरी जिंदगी शादी नहीं की है, वह एक अधेड़ अविवाहिता है, किसी को वह नहीं चाहिए, कोई उससे शादी नहीं करेगा।” “वह आदमी, उसकी पूरी जिंदगी उसकी कोई पत्नी नहीं रही।” “उन लोगों ने शादी क्यों नहीं की?” “किसे पता, शायद उनके साथ कोई गड़बड़ है।” तुम सोच-विचार करते हो, “मेरे साथ कोई गड़बड़ नहीं है। तो फिर मैंने शादी क्यों नहीं की? मैंने अपने माता-पिता की नहीं सुनी, और मैं उन्हें निराश कर रहा हूँ।” लोग कहते हैं, “वह आदमी शादीशुदा नहीं है, वह लड़की शादीशुदा नहीं है। देखो, उनके माता-पिता अब कितने दयनीय हैं। दूसरे माता-पिता के नाती-पोते हैं, और पड़नाती और पड़पोते भी हैं, मगर ये अभी भी एकल हैं। उनके पूर्वजों ने जरूर कोई भयानक काम किया होगा, है ना? क्या यह परिवार को बिना वंशज के छोड़ देना नहीं है? वंश जारी रखने के लिए उनके कोई वंशज नहीं होंगे। उस परिवार के साथ क्या माजरा है?” तुम्हारा मौजूदा रवैया चाहे जितना जिद्दी हो, अगर तुम एक नश्वर साधारण इंसान हो, और तुम्हें इस बात को समझने के लिए पर्याप्त सत्य प्राप्त न हो, तो देर-सवेर, तुम इससे परेशान और विचलित हो जाओगे। आजकल, समाज में बहुत-से 34-35 वर्षीय लोग हैं जो अविवाहित हैं, और यह कोई बड़ी बात नहीं है। वैसे, 35, 36 या उससे ऊपर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अविवाहित हैं। अविवाहित लोगों की मौजूदा आयु सीमा के आधार पर अगर तुम 35 से कम की हो, तो सोच सकती हो, “शादी न करना सामान्य बात है, इस बारे में कोई बात नहीं करता। अगर मेरे माता-पिता कुछ कहना चाहें, तो कहने दो, मैं नहीं डरती।” लेकिन 35 पार करते ही, लोग तुम्हें अलग नजरों से देखने लगेंगे। वे कहेंगे, तुम एकल हो, कुँवारी हो, या बची हुई औरत हो, और तुम यह बर्दाश्त नहीं कर सकोगी। यह मामला तुम्हारा बोझ बन जाएगा। अगर तुम्हें स्पष्ट समझ नहीं है, या तुम्हें इस मामले के लिए अभ्यास के निश्चित सिद्धांत प्राप्त नहीं हैं, तो देर-सवेर, यह तुम्हारे लिए एक परेशानी बन जाएगा, और एक विशेष समय के दौरान यह तुम्हारे जीवन को बाधित कर देगा। क्या इससे जुड़े कुछ सत्य नहीं हैं जो लोगों को समझने चाहिए? (हाँ।)
शादी और बच्चे करने के संदर्भ में, इन मामलों से आने वाले बोझों को त्यागने के लिए लोगों को कौन-से सत्य समझने चाहिए? सबसे पहले, क्या जीवन साथी का चयन इंसानी इच्छा से होता है? (नहीं।) ऐसा नहीं है कि तुम उठोगे और बस जाकर उस किस्म के इंसान से मिल लोगे जिसे तुम चाहते हो और यकीनन ऐसा भी नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए ठीक वैसा ही व्यक्ति तैयार कर दे जैसा तुम चाहते हो। इसके बजाय परमेश्वर ने पहले ही नियत कर दिया है कि तुम्हारा जीवनसाथी कौन होगा; जो कोई भी तय है, वही जीवन साथी होगा। तुम्हें अपने माता-पिता की जरूरतों या उनके द्वारा रखी गई शर्तों की किसी दखलंदाजी से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा, तुम्हारे माता-पिता जैसा दौलतमंद और ऊँची हैसियत वाला जीवन साथी तुम्हें तलाशने के लिए कहते हैं, क्या वह तुम्हारे भविष्य की संपन्नता और हैसियत तय कर सकता है? (नहीं।) नहीं कर सकता। ऐसी बहुत-सी महिलाएँ हैं, जिनकी शादी धनी परिवारों में हुई, मगर जिन्हें बाद में बाहर खदेड़ दिया गया और जो अब इस हालत में हैं कि सड़क पर कचरा बीनती हैं। धन-दौलत और प्रतिष्ठा के लिए निरंतर सामाजिक सीढ़ी चढ़ने का प्रयास करने वाले लोग आखिर अपनी प्रतिष्ठा खोकर बरबाद हो जाते हैं, उनकी हालत साधारण लोगों से भी ज्यादा बदतर होती है। वे प्लास्टिक की बोतलें और अल्युमिनियम के डिब्बे इकट्ठा करने के लिए सस्ती थैली लेकर भटकते हुए अपने दिन गुजारते हैं, और फिर वे उनके बदले कुछ पैसे लेकर आखिर किसी कैफे में बैठकर एक कप कॉफी खरीद लेते हैं ताकि उन्हें लग सके कि अब भी वे एक दौलतमंद इंसान का जीवन जी रहे हैं। कैसी दुख की बात है! शादी व्यक्ति के जीवन की एक अहम घटना होती है। जैसे किसी के माता-पिता कैसे होंगे, यह नियत होता है, वैसे ही शादी तुम्हारे माता-पिता या परिवार की जरूरतों पर आधारित नहीं होती, न ही यह तुम्हारी निजी रुचि या पसंद पर आधारित होती है; यह पूरी तरह से परमेश्वर के विधान के अधीन है। सही समय पर, तुम्हारी मुलाकात सही व्यक्ति से होगी; उपयुक्त समय आने पर तुम्हारे लिए जो व्यक्ति उपयुक्त है वह मिलेगा। अदृश्य, रहस्यमय संसार की ये सभी व्यवस्थाएँ परमेश्वर के नियंत्रण और उसकी संप्रभुता के अधीन हैं। इस मामले में, लोगों के लिए दूसरों की व्यवस्थाएँ मानने, दूसरों से निर्देशित होने, या उनके नियंत्रण में आने या उनसे प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। इसलिए शादी की बात पर, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ चाहे जो हों, और तुम्हारी जो भी योजनाएँ हों, तुम्हें अपने माता-पिता से या फिर अपनी योजनाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए। यह मामला पूरी तरह से परमेश्वर के वचन पर आधारित होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसी जीवन साथी की तलाश कर रहे हो या नहीं—तुम अगर तलाश भी रहे हो, तो यह परमेश्वर के वचन के अनुसार होना चाहिए, न कि तुम्हारे माता-पिता की माँगों या जरूरतों के अनुसार और न ही उनकी अपेक्षाओं के अनुसार। तो शादी की बात पर, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ तुम्हारा बोझ नहीं बननी चाहिए। जीवनसाथी को तलाशना अपने और अपने जीवनसाथी के शेष जीवन की जिम्मेदारी लेने के बारे में है; यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित होने के बारे में है। यह तुम्हारे माता-पिता की माँगें पूरी करने या उनकी अपेक्षाएँ पूरी करने के बारे में नहीं है। तुम किसी जीवनसाथी को तलाशते हो या नहीं और कैसा जीवनसाथी ढूँढ़ते हो, यह तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं पर आधारित नहीं होना चाहिए। इस मामले में तुम्हें नियंत्रित करने का अधिकार तुम्हारे माता-पिता के पास नहीं है; परमेश्वर ने शुरू से अंत तक तुम्हारी शादी की व्यवस्था करने का अधिकार उन्हें नहीं दिया है। अगर तुम शादी के लिए एक जीवनसाथी तलाश रहे हो, तो यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार किया जाना चाहिए; अगर नहीं तलाशना चाहते हो, तो यह तुम्हारी आजादी है। तुम कहते हो : “मुझे जीवन भर, चाहे मैं अपने कर्तव्य निभा रहा हूँ या नहीं, बस एकल रहना अच्छा लगा है। अपने दम पर जीना आजाद करने वाला होता है—एक पक्षी की तरह, एक ही बार पंख फड़फड़ाकर मैं कहीं भी उड़ सकता हूँ। मुझ पर परिवार का बोझ नहीं है और जहाँ भी जाता हूँ अपने दम पर रहता हूँ। यह अद्भुत है! मैं एकल हूँ, मगर अकेला नहीं। परमेश्वर मेरे साथ है, वह मेरे साथ रहता है; मुझे अक्सर अकेलापन नहीं सताता। कभी-कभी मैं सभी चीजों से पूरी तरह अलग हो जाना चाहता हूँ, जोकि शरीर की जरूरत है। कुछ पल के लिए पूरी तरह कट जाना बुरी बात नहीं है। जब कभी मैं रिक्त या अकेलापन महसूस करता हूँ, मैं परमेश्वर से मन की बात करने के लिए उसके समक्ष आ कर कुछ बातें कर लेता हूँ। मैं उसके वचन पढ़ता हूँ, भजन सीखता हूँ, जीवन अनुभवों के गवाही वीडियो देखता हूँ, और परमेश्वर के घर की फिल्में देखता हूँ। यह बढ़िया होता है और फिर इसके बाद मुझे अकेलापन महसूस नहीं होता। मुझे परवाह नहीं कि बाद में मुझे अकेलापन महसूस होगा या नहीं। किसी भी स्थिति में, मैं अब अकेला नहीं हूँ; मेरे आसपास बहुत-से भाई-बहन हैं जिनसे मैं दिल की बातें कर सकता हूँ। जीवनसाथी तलाशना काफी बखेड़े का काम है। ऐसे सामान्य लोग ज्यादा नहीं हैं जो ईमानदारी से अच्छा जीवन जी सकें, इसलिए मैं ऐसे किसी को तलाशना नहीं चाहता। अगर मुझे कोई मिला, और हम निभा न पाए और हमारा तलाक हो गया, तो इस पूरे झमेले का क्या अर्थ रह जाएगा? अब इसे पूरी तरह समझ लेने के बाद, मेरे लिए यही ठीक है कि मैं जीवनसाथी न तलाशूँ। अगर शादी करने के लिए किसी को तलाशने का प्रयोजन सिर्फ क्षणिक आनंद और खुशी है, और वैसे भी तुम्हारा तलाक होना ही है, तो यह बस एक झमेला है, और मैं ऐसा झमेला मोल लेना नहीं चाहता। जहाँ तक बच्चे करने की बात है, एक इंसान के नाते वंश चलाना न मेरी जिम्मेदारी है न दायित्व, मैं बस बच्चा पैदा करने का साधन नहीं हूँ। जिसे भी वंश आगे बढ़ाना हो, जरूर बढ़ाए। कोई भी कुलनाम सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं होता।” वंश टूट भी गया तो क्या हो जाएगा? क्या यह सिर्फ देह के कुलनामों का मामला नहीं है? आत्माओं का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं होता; उनके बीच कहने जैसी कोई विरासत या निरंतरता नहीं होती। मानवजाति का एक पूर्वज है; सभी लोग उसी पूर्वज के वंशज हैं, इसलिए मानव वंश की समाप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। वंश चलाना तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। जीवन में सही पथ पर चलना, स्वतंत्र और आजाद जीवन जीना, और सच्चा सृजित प्राणी बनना ही वे बातें हैं जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। मानवजाति को आगे बढ़ाने वाली एक मशीन बनना वह बोझ नहीं है जो तुम्हें ढोना चाहिए। किसी परिवार की खातिर प्रजनन कर वंश को जारी रखना भी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। परमेश्वर ने तुम्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी है। जिसे भी संतानें पैदा करनी हों, कर सकता है; जो भी अपना वंश जारी रखना चाहे, रख सकता है; जो भी यह जिम्मेदारी उठाना चाहे, उठा सकता है; इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हो, और यह दायित्व पूरा करने की इच्छा नहीं रखते, तो ठीक है, यह तुम्हारा अधिकार है। क्या यह उपयुक्त नहीं है? (हाँ।) अगर तुम्हारे माता-पिता तंग करते रहें, तो तुम उनसे कह सकते हो : “अगर आप नाराज हैं कि मैं आप लोगों के लिए संतान पैदा कर वंश को आगे नहीं बढ़ा रहा हूँ, तो दूसरा बच्चा करने का कोई तरीका ढूँढ़ लें और उससे वंश को आगे बढ़वाएँ। बहरहाल, यह मेरी चिंता का विषय नहीं है; आप जिसे चाहें उसे यह सौंप सकते हैं।” यह कहने के बाद, क्या तुम्हारे माता-पिता निरुत्तर नहीं हो जाएँगे? अपने बच्चों की शादी और उनके बच्चे होने की बात आने पर, माता-पिता चाहे परमेश्वर में विश्वास रखें या न रखें, उन्हें इतना उम्रदराज होकर यह तो मालूम होना चाहिए कि किसी व्यक्ति के जीवन में अमीरी या गरीबी, बच्चों की संख्या और वैवाहिक स्थिति स्वर्ग द्वारा तय किए जाते हैं; ये सब पहले ही निश्चित होते हैं, और ऐसे मामले नहीं हैं जिनका फैसला कोई भी कर सके। इसलिए, अगर माता-पिता इस प्रकार अपने बच्चों से जबरन चीजों की माँग करें, तो बेशक वे अज्ञानी माता-पिता हैं, मूर्ख और बेखबर हैं। मूर्ख और बेखबर माता-पिता से पेश आते हुए उनकी बातों से हवा के झोंके की तरह पेश आओ और उसे एक कान से अंदर लेकर दूसरे से बाहर जाने दो, बस बात खत्म। अगर वे तुम्हें बहुत तंग करें, तो तुम कह सकते हो, “ठीक है, मैं वादा करता हूँ, मैं कल शादी कर लूँगा, और परसों बच्चा और उसके अगले दिन मैं आपकी गोद में पोता दे दूँगा। ठीक है ना?” बस उनके लिए झूठा बहाना बना दो और मुड़ कर दूर चले जाओ। क्या यह इसे संभालने का शांत तरीका नहीं है? किसी भी स्थिति में, तुम्हें इस मामले को अच्छी तरह से समझना होगा। जहाँ तक शादी की बात है, आओ पहले इस तथ्य को किनारे रख दें कि शादी परमेश्वर द्वारा नियत होती है। इस मामले के प्रति परमेश्वर का रवैया लोगों को खुद चुनने का अधिकार देने का है। तुम चुन सकते हो कि तुम्हें एकल रहना है या शादी करनी है; तुम एक दंपत्ति के रूप में जी सकते हो, या एक भरा-पूरा परिवार बना सकते हो। यह तुम्हारी आजादी है। ये चुनने का तुम्हारा आधार चाहे जो हो, या तुम जो भी उद्देश्य या परिणाम पाना चाहते हो, संक्षेप में कहें, तो यह अधिकार तुम्हें परमेश्वर ने दिया है; चुनने का अधिकार तुम्हारे पास है। अगर तुम कहोगे, “मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में बहुत व्यस्त हूँ, अभी छोटा हूँ, और शादी नहीं करना चाहता हूँ। मैं एकल रहना चाहता हूँ, पूरा समय परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहता हूँ, और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहता हूँ। मैं शादी के बड़े मसले से बाद में निपटूंगा—जब मैं पचास का हो जाऊँगा और मुझे अकेलापन महसूस होगा, जब मेरे पास कहने को काफी कुछ होगा, मगर मेरी बकबक सुनने के लिए कोई नहीं होगा तब मैं किसी को तलाश लूँगा,” यह भी ठीक है, और परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम कहोगे, “मुझे मेरा यौवन हाथ से छूटता प्रतीत हो रहा है, मुझे यौवन की छोर पकड़नी होगी। जब तक मैं जवान हूँ, थोड़ा रूप-रंग और आकर्षण है, तब तक मुझे जल्दी से मेरा साथ देने और मुझसे बात करने के लिए कोई साथी तलाश लेना चाहिए, कोई ऐसा जो मुझे सँजोए और प्यार करे, और जिसके साथ मैं अपने दिन गुजार सकूँ और शादी कर सकूँ,” तो यह भी तुम्हारा अधिकार है। बेशक, एक बात है : अगर तुम शादी करने का फैसला करते हो, तो तुम्हें पहले सावधानी से उन कर्तव्यों पर विचार करना होगा जो तुम फिलहाल कलीसिया में निभा रहे हो, क्या तुम अगुआ हो या कार्यकर्ता, क्या तुम्हें परमेश्वर के घर में पोषण के लिए चुना गया है, क्या तुम महत्वपूर्ण कार्य या कर्तव्य का बीड़ा उठा रहे हो, तुम्हें फिलहाल कौन-से काम दिए गए हैं, और तुम्हारे मौजूदा हालात क्या हैं। अगर तुम शादी करोगे, तो क्या इससे तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन प्रभावित होगा? क्या फिर यह सत्य के तुम्हारे अनुसरण को भी प्रभावित करेगा? क्या इससे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हारा कार्य प्रभावित होगा? क्या यह तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति को प्रभावित करेगा? ये सभी प्रश्न हैं जिन पर तुम्हें विचार करने की जरूरत है। हालाँकि परमेश्वर ने तुम्हें ऐसा अधिकार दिया है, पर इस अधिकार का प्रयोग करते समय तुम्हें सावधानी से विचार करना होगा कि तुम क्या चुनने वाले हो, और इस चयन के क्या नतीजे हो सकते हैं। नतीजे चाहे जो भी हों, तुम्हें दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही परमेश्वर को। तुम्हें अपने चयन के नतीजों की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “न सिर्फ मैं शादी करूँगा, बल्कि मैं ढेर सारे बच्चे भी चाहता हूँ। एक बेटा होने के बाद मुझे एक बेटी भी चाहिए, और फिर हम जीवन भर एक सुखी परिवार की तरह रहेंगे, उल्लास और सद्भाव के साथ एक-दूसरे के साथ रहेंगे। जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, तो मेरे बच्चे मेरी देखभाल करने के लिए मेरे चारों ओर इकट्ठा होंगे, और मैं पारिवारिक जीवन का आनंद उठाऊँगा। यह कितना अद्भुत होगा! जहाँ तक मेरे कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की बात है, ये सब बाद की बातें हैं। मुझे फिलहाल इन चीजों की फिक्र नहीं है। सबसे पहले मैं बच्चे करने का मामला निपटाऊँगा।” यह भी तुम्हारा अधिकार है। हालाँकि अंत में तुम्हारे चयन के जो भी नतीजे हों, कड़वे हों या मीठे, खट्टे या कसैले, तुम्हें ये खुद ही सहने चाहिए। तुम्हारे चयनों की कीमत कोई नहीं चुकाएगा और न ही उनकी जिम्मेदारी लेगा, परमेश्वर भी नहीं। समझ गए? (हाँ।) ये बातें स्पष्ट रूप से समझा दी गई हैं। शादी के मामले में, तुम्हें उन बोझों को त्याग देना चाहिए जिन्हें त्यागने की तुमसे अपेक्षा की जाती है। एकल रहना चुनना तुम्हारी आजादी है, शादी चुनना भी तुम्हारी आजादी है, और बहुत-से बच्चे करना भी तुम्हारी ही आजादी है। तुम्हारा चयन चाहे जो हो, यह तुम्हारी आजादी है। एक ओर, शादी को चुनने का यह मतलब नहीं है कि तुमने इस तरह अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुका दिया है या अपना संतानोचित कर्तव्य निभा दिया है; बेशक एकल रहना चुनने का यह अर्थ भी नहीं है कि तुम अपने माता-पिता की अवज्ञा कर रहे हो। दूसरी ओर, शादी करने या कई बच्चे होने को चुनना परमेश्वर के प्रति विद्रोह करना नहीं है। इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं की जाएगी। न ही एकल रहने के चुनाव के कारण अंततः परमेश्वर तुम्हें उद्धार दे देगा। संक्षेप में कहें, तो चाहे तुम एकल हो या शादीशुदा, या तुम्हारे कई बच्चे हों, परमेश्वर इन घटकों के आधार पर यह निर्धारित नहीं करेगा कि आखिरकार तुम बचाए जाओगे या नहीं। परमेश्वर तुम्हारी वैवाहिक पृष्ठभूमि या वैवाहिक स्थिति पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ इस बात पर गौर करता है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, तुमने कितना सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण किया है, और क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो। आखिरकार, परमेश्वर भी यह निर्धारित करने के लिए कि तुम बचाए जाओगे या नहीं, तुम्हारे जीवन पथ, तुम्हारे जीने के सिद्धांतों और तुम्हारे द्वारा चुने गए जीवित रहने के नियमों की जाँच करने के लिए तुम्हारी वैवाहिक स्थिति को किनारे रख देगा। बेशक, हमें एक तथ्य का जिक्र जरूर करना चाहिए। जिन्होंने शादी नहीं की है या शादी छोड़ दी है, उन्हीं की तरह एकल या तलाकशुदा लोगों के हित में एक बात है, और वह यह है कि विवाह-तंत्र में किसी व्यक्ति या चीज के प्रति उन्हें जिम्मेदार होने की जरूरत नहीं है। उन्हें इन जिम्मेदारियों और दायित्वों का बोझ उठाने की जरूरत नहीं है, इसलिए वे अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्र होते हैं। समय के मामले में उन्हें ज्यादा आजादी होती है, उनमें अधिक जोश होता है, और कुछ हद तक ज्यादा व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती है। मिसाल के तौर पर, बतौर एक वयस्क, जब तुम अपने कर्तव्य निभाने बाहर जाते हो, तो कोई तुम्हें प्रतिबंधित नहीं कर सकता—तुम्हारे माता-पिता को भी यह अधिकार नहीं है। तुम खुद परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, वह तुम्हारे लिए व्यवस्थाएँ करेगा, और तुम अपना सामान बाँध कर जा सकोगे। लेकिन अगर तुम शादीशुदा हो और तुम्हारा एक परिवार है, तो तुम उतने आजाद नहीं होगे। तुम्हें उनके प्रति जिम्मेदार होना होगा। सबसे पहले, जीवन स्थितियों और रुपये-पैसों के मामले में, तुम्हें कम-से-कम उन्हें खाना-कपड़ा मुहैया करना होगा, और जब तुम्हारे बच्चे छोटे हों, तो तुम्हें उन्हें स्कूल लाना-ले जाना होगा। तुम्हें ये जिम्मेदारियाँ संभालनी होंगी। इन स्थितियों में, विवाहित लोग आजाद नहीं होते हैं, क्योंकि उन्हें सामाजिक और पारिवारिक दायित्व पूरे करने होते हैं। जो अविवाहित हैं और जिनके कोई बच्चे नहीं हैं, उनके लिए यह अधिक सरल होता है। परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय वे भूखे नहीं रहेंगे या उन्हें ठंड नहीं लगेगी; उनके पास खाना और आसरा दोनों होंगे। उन्हें पारिवारिक जीवन की जरूरतों की खातिर काम करने और पैसे कमाने के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती। यही अंतर है। अंत में, जब शादी का मामला आता है, तो बात वही रहती है : तुम्हें कोई बोझ नहीं उठाने चाहिए। चाहे तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ हों, समाज के पारंपरिक नजरिये हों, या तुम्हारी अपनी अंधाधुंध आकांक्षाएँ, तुम्हें कोई बोझ नहीं उठाने चाहिए। चाहे एकल रहना चुनो या शादी करना, यह तुम्हारा अधिकार है, और यह फैसला करने का अधिकार भी तुम्हारा ही है कि कब एकल स्थिति को छोड़ना है और कब शादी करनी है। इस मामले में परमेश्वर कोई निर्णायक फैसला नहीं लेता। शादी करने के बाद तुम्हारे कितने बच्चे होंगे, यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत है, लेकिन अपने असली हालात और अनुसरणों के आधार पर तुम खुद भी चुन सकते हो। परमेश्वर तुम पर नियम नहीं थोपेगा। मान लो कि तुम एक करोड़पति, अरबपति या खरबपति हो, और कहते हो, “आठ-दस बच्चे होना मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। ढेर सारे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने से अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति मेरे जोश के साथ कोई समझौता नहीं होगा।” अगर तुम झंझटों-झमेलों से नहीं डरते, तो आगे बढ़ो, बच्चे कर लो; परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। शादी पर तुम्हारे रवैयों के कारण परमेश्वर तुम्हारे उद्धार के प्रति अपना रवैया नहीं बदलेगा। बात ऐसी ही है। समझ आया? (हाँ।) एक और पहलू यह है कि अगर तुम अभी एकल रहना चाहते हो, तो सिर्फ एकल होने की वजह से तुम्हें यह कहकर श्रेष्ठता की भावना नहीं दिखानी चाहिए : “मैं एकल अभिजात वर्ग का सदस्य हूँ और परमेश्वर की मौजूदगी में उद्धार के लिए मेरे पास आगे रहने का अधिकार है।” परमेश्वर ने तुम्हें यह विशेषाधिकार नहीं दिया है, समझे? तुम कह सकते हो, “मैं शादीशुदा हूँ। क्या इस कारण से मैं हीन हूँ?” तुम हीन नहीं हो। तुम अभी भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हो; शादी कर लेने के कारण तुम्हें अवमानित या कुचला नहीं गया है, न ही तुम ज्यादा भ्रष्ट हो गए हो, न तुम्हें बचाया जाना अधिक मुश्किल हो गया है, न ही तुम परमेश्वर के हृदय को ज्यादा दुख पहुँचाते हो, जिससे परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाना चाहता। ये सब लोगों के गलत विचार और नजरिये हैं। किसी व्यक्ति की वैवाहिक स्थिति का उनके प्रति परमेश्वर के रवैये से कोई लेना-देना नहीं है, न ही इस बात से कोई लेना-देना है कि आखिरकार वे बचाए जाएँगे या नहीं। तो फिर उद्धार प्राप्ति का संबंध किससे है? (यह सत्य को स्वीकार करने के प्रति किसी व्यक्ति के रवैये पर आधारित है।) यह सही है, यह किसी व्यक्ति के सत्य से पेश आने और सत्य को स्वीकार करने के रवैये और इस बात पर आधारित है कि क्या वे लोगों और चीजों को देखने और आचरण व कार्य करने के आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का और कसौटी के रूप में सत्य का प्रयोग कर पाते हैं। यह किसी व्यक्ति के अंतिम परिणाम को मापने का आधार है। अब चूँकि हम अपनी संगति में इस मुकाम पर पहुँच चुके हैं, क्या तुम शादी के इस मसले द्वारा उपजे बोझ को बुनियादी तौर पर त्याग पाओगे? (बिल्कुल।) उनको त्यागने में समर्थ होने से तुम लोगों को सत्य के अनुसरण में लाभ मिलेगा। अगर तुम इसे नहीं मानते, तो तुम शादीशुदा लोगों से पूछ सकते हो कि उद्धार प्राप्त करने की उनकी उम्मीद कैसी है, और वे कहेंगे, “मैं इतने बरसों विवाहित रहा और फिर परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मेरा तलाक हो गया। मुझमें यह कहने की हिम्मत नहीं कि मैं बचाया जाऊँगा।” तुम तीस की उम्र से थोड़े बड़े युवाओं से भी पूछ सकते हो, जिन्होंने शादी नहीं की, लेकिन विश्वास रखने के कई वर्षों में भी उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और वे गैर-विश्वासियों जैसे ही हैं। तुम उनसे पूछ सकते हो, “परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखकर क्या तुम बचाए जा सकोगे?” वे भी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे कि वे बचाए जा सकेंगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल।)
ये वे सत्य हैं जो शादी के बारे में लोगों को समझने चाहिए। हमने जिन भी विषयों पर संगति की है उन्हें सिर्फ कुछ शब्दों में स्पष्ट समझाया नहीं जा सकता है। बहुत-से विभिन्न तथ्य हैं, और साथ ही तमाम तरह के लोगों के हालात हैं जिनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। इन विभिन्न हालात के आधार पर जो सत्य लोगों को समझने चाहिए उन्हें सिर्फ कुछ शब्दों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता। हर समस्या के लिए कुछ सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना चाहिए, और साथ ही तथ्यात्मक वास्तविकताएँ हैं, जो लोगों को समझनी चाहिए, और इससे भी अधिक लोगों के मन में बसे वे भ्रामक विचार और नजरिये हैं जिन्हें समझना भी जरूरी है। बेशक, ये भ्रामक विचार और नजरिये ही वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। जब तुम इन चीजों को त्याग देते हो, तो किसी मामले पर तुम्हारे विचार और नजरिये अपेक्षाकृत सकारात्मक और सही होंगे। फिर, जब ऐसे मामले से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम उससे बेबस नहीं होगे; तुम कुछ भ्रामक और बेतुके विचारों और नजरियों से बेबस और प्रभावित नहीं होगे। तुम इससे सीमित या विचलित नहीं होगे; इसके बजाय, तुम इस मामले का उचित ढंग से सामना कर सकोगे, और दूसरों या खुद का तुम्हारा आकलन अपेक्षाकृत सही होगा। यह वह सकारात्मक परिणाम है जो लोगों में तब समाविष्ट हो सकता है जब वे परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखते और आचरण व कार्य करते हैं। ठीक है, चलो आज हम अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। फिर मिलेंगे!
1 अप्रैल 2023
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